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17. सव्वगंथविमुक्को
सर्व परिग्रह से रहित
शान्त
सीईभूओ पसंतचित्तो
प्रसन्नचित्त और
जिस
पाव
[(सव्य)-(गंथ)-(विमुक्क) भूकृ 1/1 अनि] (सीईभूअ) भूकृ 1/1 अनि [(पसंत) भूक अनि-(चित्त) 1/1] अव्यय (ज) 2/1 सवि (पाव) व 3/1 सक [(मुत्ति)-(सुह) 2/1] अव्यय (चक्कवट्टि) 1/1 अव्यय (त) 2/1 स (लह) व 3/1 सक
पाता है मुक्तिसुख को
मुत्तिसुहं
नहीं
चक्कवट्टी
चक्रवर्ती
भी
उसको पाता है
लहइ
18.
सव्वे
(सव्व) 1/2 सवि
सब
जीवा
(जीव) 1/2
जीव
वि
अव्यय
इच्छति जीवि
मरिज्जि
तम्हा पाणवहं
(इच्छ) व 3/2 सक
इच्छा करते हैं (जीव) हे
जीने के लिए (जीने की) अव्यय
नहीं (मर) हेकृ
मरने के लिए (मरने की) अव्यय
इसलिए [(पाण)-(वह) 2/1]
प्राणवध का (को) (घोर) 2/1 वि
पीड़ादायक शीतीभत-शीतीभूत-सीईभूअ। (Monier William Sanskrit, Eng. Dict.) (P. 1078, Col. 2) Tranquillised इच्छार्थक धातुओं के साथ हेत्वर्थ कृदन्त का प्रयोग होता है।। 'मर' क्रिया में 'ज्ज' प्रत्यय लगाने पर अन्त्य 'अ' का 'इ' होने से मरिज्ज बना और इसमें हेत्वर्थक कृदन्त के उं प्रत्यय को जोड़ने से पूर्ववर्ती 'अ' को 'ई' होने के कारण 'मरिज्जिउं' बना है। इसका अर्थ 'मरिउं' की तरह होगा।
घोरं
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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