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________________ 1. पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्ध - भावसंजुत्ता हुं सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा 2. विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं to लाहं इय णाउं गुणदो तं 2. 1. 198 पाठ-5 अष्टपाहुड Jain Education International (पा) संकृ [ ( णाण) - ( सलिल) 2 / 1] [ ( णिम्मल) - (सुविसुद्ध ) वि - (भाव) - ( संजुत्त) 1/2 वि ] (हु) व 3/2 अक [(सिवालय) - (वासि) 1/2 वि] [ ( तिहुवण ) - (चूडामणि) 1 / 2 ] (सिद्ध) 1/2 [ ( णाण) - (गुण) 3/2] ( विहीण ) 1/2 वि अव्यय (लह) व 3 / 2 सक (त) 1/2 सवि [(सु) अ= भली प्रकार से ( इच्छ) भूक़ 2 / 1 ] (ITE) 2/1 अव्यय (णा) हेकृ [( गुण) - (दोस) 2 / 1 ] (त) 2 / 1 सवि पीकर ज्ञानरूपी जल को निर्मल, शुद्ध भावों से युक्त For Private & Personal Use Only होते हैं शिवालय में रहनेवाले त्रिभुवन के आभूषण मुक्त ज्ञान-गुण से रहित नहीं प्राप्त करते हैं वे भली प्रकार से, चाहु लाभ को इस प्रकार जानने के लिए गुण-दोष को कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136) उस प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002691
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2009
Total Pages384
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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