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सन्मार्ग दिवाकर आचार्य विमलसागर जी महाराज की १०वीं पुण्य तिथि के उपलक्ष में
भट्टारक सकलकीर्ति विरचित
पार्श्वनाथ चरितम्
अनुवादक एवं सम्पादक पं० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य
सौजन्य से
श्री गंगवाल जी जैन बन्धु, मु० - जयपुर
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्
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प्रस्तावना
डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल
संस्कृत भाषा एवं साहित्य के विकास में जैनाचार्यों एवं सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । यद्यपि भगवान महावीर ने अपना दिव्य सन्देश अर्धमागधी भाषा में दिया था और उनके परिनिर्वाण के पश्चात् एक हजार वर्ष से भी अधिक समय देश में प्राकृत भाषा का वर्चस्व रहा और उसमें अपार साहित्य लिखा गया, लेकिन जब ने देश के मुद्धिजीवियों की रुचि संस्कृत की ओर अधिक देखी तथा संस्कृत भाषा का विद्वान् ही पंडितों की श्रेणी में समझा जाने लगा तो उन्होंने संस्कृत भाषा को अपनाने में अपना पूर्ण समर्थन दिया और अपनी लेखनी द्वारा संस्कृत में सभी विषयों के विकास पर इतना अधिक लिखा कि अभी तक पूर्ण रूप से उसका इतिहास भी नहीं लिखा जा सका। उन्होंने काव्य लिखे, पुराण लिखे, कथा एवं नाटक लिखे। आध्यात्मिक एवं सिद्धांत ग्रन्थों की रचना की। दर्शन एवं न्याय पर शीर्षस्थ ग्रन्थों की रचना करके संस्कृत साहित्य के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। यही नहीं आयुर्वेद, ज्योतिष, मन्त्र शास्त्र, गणित जैसे विषयों पर भी उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। संस्कृत भाषा में ग्रन्थ निर्माण का उनका यह क्रम गत डेढ़ हजार वर्षों से उसी अबाध गति से चल रहा है। आचार्य समन्तभद्र, आचार्य सिद्धसेन, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य रविषेण, आचार्य अकलंकदेव, आचार्य जिनसेन, विद्यानन्द एवं अमृतचन्द्र जैसे महान् आचार्यों पर किसे हर्ष नहीं होगा ? इसी तरह आचार्य गुणभद्र, वादीभसिंह, महावीराचार्य, आचार्य शुभचन्द्र, हस्तिमल्ल, जैसे आचार्यों ने संस्कृत भाषा में अपार साहित्य लिख कर संस्कृत साहित्य के यश एवं गौरव को द्विगुणित किया । १४ वीं शताब्दी में ही देश में भट्टारक संस्था ने लोकप्रियता प्राप्त की 1 ये भट्टारक स्वयं ही आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु के रूप में सर्वत्र समादृत थे । इन्होंने अपने ५०० वर्षों के युग में न केवल जैनधर्म की ही सर्वत्र प्रभावना की किन्तु अपनी महान् विद्वत्ता से संस्कृत साहित्य की अनोखी सेवा की और देश को अपने त्याग एवं ज्ञान से एक नवीन दिशा प्रदान की ।
इन भट्टारकों में सकलकीर्ति का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है ।
वे ऐसे ही सन्त शिरोमणि हैं जिनकी रचनायें राजस्थान के शास्त्र भण्डारों का गौरव बढ़ा रही हैं । इस प्रदेश का ऐसा कोई प्रन्थागार नहीं जिसमें उनकी कम से कम तीन चार कृतियाँ संग्रहीत नहीं हों । वे साहित्य गगन के ऐसे महान् तपस्वी सन्त हैं जिनकी विद्वत्ता पर देश का सम्पूर्ण विद्वत् समाज गर्व कर सकता है । वे साहित्य गगन के सूर्य हैं और अपनी काव्य प्रतिभा से गत ७०० वर्षों से सभी को आलोकित कर रखा है। उन्होंने संस्कृत एवं राजस्थानी में चार नहीं, पचासों रचनायें निबद्ध कीं और काव्य, पुराण, चरित, कथा, अध्यात्म, सुभाषित आदि विविध विषयों पर अधिकार पूर्वक लिखा । गुजरात, बागड़, मेवाड़ एवं ढूंढाड़ प्रदेश में जिनके पचासों शिष्य प्रशिष्यों ने उनकी कृतियों की प्रतिलिपियां करके यहाँ के शास्त्र भण्डारों की शोभा में अभिवृद्धि की। और गत ५०० वर्षों से जिनकी कृतियों का स्वाध्याय एवं पठन पाठन का समाज में सर्वाधिक प्रचार रहा है। जिनमें कितने ही पुराण एवं चरित्र प्रन्थों की हिन्दी टीकायें हो चुकी हैं तथा अभी तक भी वही क्रम चालू है। ऐसे महाकवि का
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पार्श्वनाथचरित
संस्कृत साहित्य के इतिहास में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलना निसन्देह विचारणीय है। "राजस्थान के जैन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतित्व"' पुस्तक में सर्वप्रथम लेखक ने भट्टारक सकलकीर्ति पर जब विस्तृत प्रकाश डाला तो विद्वानों का इस ओर ध्यान गया और सहयपुर विश्वविद्यालय से डा० बिहारीलाल जैन ने मट्टारक सकलकीर्ति पर एक शोध प्रबन्ध लिख कर उनके जीवन एवं कृतित्व पर गहरी खोज की
और बहुत ही सुन्दर रीति से उनका मूल्यांकन प्रस्तुत किया। प्रसन्नता का विषय है कि उदयपुर विश्वविद्यालय ने शोध प्रबन्ध को स्वीकृत करके श्री बिहारीलाल जैन को पी-एच० डी० की उपाधि से सम्मानित भी कर दिया है । डा० जैन ने सकलकीर्ति की आयु एवं जीवन के सम्बन्ध में कुछ नवीन तथ्य उपस्थित किये हैं। लेकिन सकलकीर्ति के विशाल साहित्य को देखते हुये अभी उनका और भी विस्तृत मूल्यांकन होना शेष है। अभी तक विद्वानों ने सर्वे के रूप में उनके साहित्य का नामोल्लेख किया है तथा उनका सामान्य परिचय पाठकों के समक्ष उपस्थित किया है। किन्तु उनकी प्रत्येक कृति ही अपूर्व कृति है जिसमें सभी प्रकार की ज्ञान सामग्री उपलब्ध होती है। उन्होंने काव्य लिखे, पुराण लिखे एवं कथा साहित्य लिखा और जन साधारण में उन्हें लोकप्रिय बनाया। उन्होंने संस्कृत में ही नहीं, राजस्थानी भाषा में भी लिखा। इसमें सकरनकीर्ति के महान् व्यक्तित्व को देखा एवं परखा जा सकता है।
भट्टारक सकलकीर्ति जीवन परिचय
भट्टारक सकलकीर्ति का जन्म संवत् १४४३ (सन् १३८६ ) में हुआ था। इनके पिता का नाम करमसिंह एवं माता का नाम शोभा था। ये अपाहिलपुर पट्टण के रहने वाले थे। इनकी जाति हूमड थी।' 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत के अनुसार गर्भधारण करने के पश्चात् इनकी माता ने एक सुन्दर स्वप्न देखा और उसका फल पूछने पर करमसिंह ने इस प्रकार कहा
'तजि वयण सुणीसार, कुमर तुम्ह होइसिइए । निर्मल गंगानीर, चन्दन नन्दन तुम्ह तणुए ।।९।। जलनिधि गहिर गम्भीर खीरोपम सोहामणुए ।
ते जिहि तरण प्रकाश जग उद्योतन जस किरणि ।।१०।।' बालक का नाम पूनसिंह अथवा पूर्णसिंह रखा गया । एक पट्टावलि में इनका नाम पदर्थ भी दिया हुआ है । द्वितीया के चन्द्रमा के समान वह बालक दिन प्रति दिन बढ़ने लगा। उसका वर्ण राजहंस के समान शुभ्र था तथा शरीर बत्तीस लक्षणों से युक्त था । पाँच वर्ष के होने पर पूर्णसिंह को पढ़ने बैठा दिया गया । बालक कुशाग्र बुद्धि का था इसलिए शीघ्र ही उसने सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया । विद्यार्थी अवस्था में भी इनका अर्हद् भक्ति की ओर अधिक ध्यान रहता था तथा वे क्षमा, सत्य, शौच एवं ब्रह्मचर्य आदि धर्मों को जीवन में उतारने का प्रयास करते रहते थे । गार्हस्थ्य जीवन के प्रति विरक्ति १- साहित्य शोध विभाग श्री दि० जैन अ. क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा प्रकाशित । २-हरथी सुणीय सुवाणि पालइ अन्य ऊअरि सुपर । चोऊद त्रिताल प्रमाणि पूरइ दिन पुत्र जरमीउ ।। न्याति माहि मुहुतवत बड़ हरघि बखाणिइये। करमसिंह वितपन्न उदयवंत इम जाणीए ।।३।। शाभित रस अरधांगि, भूलि सरीस्य सुन्दरीय । सील स्यंगारित अगिं पेखु प्रत्यक्ष पुरंदरीय ।।४।।
- सकलकीर्ति राम
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पार्श्वनाथचरित
व्यक्तित्व एवं पांडित्य
भट्टारक सकलकीर्ति असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। इन्होंने जिन जिन परम्पराओं की नींव रखी, उनका बाद में खूब विकास हुआ। वे गम्भीर अध्ययन युक्त सन्त थे । प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। ब्रहा जिनदास एवं भ० भुवनकीर्ति जैसे विद्वानों का इनका शिष्य होना ही इनके प्रबल पाण्डित्य का सूचक है। इनकी वाणी में जादू था इसलिए जहाँ भी इनका बिहार हो जाता था वहीं इनके सैकड़ों भक्त बन जाते थे । स्वयं तो योग्यतम विद्वान थे ही, किन्तु इन्होंने अपने शिष्यों को भी अपने ही समान विद्वान् बनाया। ब्रह्म जिनदास ने अपने ग्रन्थों में भट्टारक सकलकीर्ति को महाकवि, निर्ग्रन्थराज शुद्ध चरित्रधारी एवं तपोनिधि आदि उपाधियों से सम्बोधित किया है।
भट्टारक सकलभूषण ने अपने उपदेश रत्नमाला की प्रशस्ति में कहा है कि सकलकीर्ति जन जन का चित्त स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। ये पुण्यमूर्ति स्वरूप थे तथा अनेक पुराण ग्रन्थों के रचयिता थे ।
इसी तरह भट्टारक शुभचन्द्र ने सकलकीर्ति को पुराण एवं काव्यों का प्रसिद्ध नेता कहा है। इनके अतिरिक्त इनके बाद होने वाले प्रायः सभी भट्टारकों ने व्यक्तित्व एवं विद्वत्ता की भारी प्रशंसा की है। ये महाक तुम अपने आपको सम्बोधित करते थे । धन्यकुमार चरित्र ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने आपको मुनि सकलकीर्ति नाम से परिचय दिया है ।
ये स्वयं भी नग्न अवस्था में रहते थे और इसलिये ये निर्ग्रन्थकार अथवा निर्मन्थराज के नाम से भी अपने शिष्यों द्वारा सम्बोधित किये गये हैं। इन्होंने बागड़ प्रदेश में जहाँ भट्टारकों का कोई प्रभाव नहीं था । संवत् १४९२ में गलियाकोट में एक भट्टारक गादी की स्थापना की और अपने आपको सरस्वती गच्छ एवं बलात्कारगण की परम्परा का भट्टारक घोषित किया। ये उत्कृष्ट स्वामी थे तथा अपने जीवन में इन्होंने कितने ही व्रतों का पालन किया था।
सकलकीर्ति ने जनता को जो कुछ चरित्र सम्बन्धी उपदेश दिया था, पहिले उसे अपने जीवन में उतारा। २२ वर्ष के एक छोटे से समय में ३५ से अधिक ग्रन्थों की रचना, विविध ग्रामों एवं नगरों में बिहार, भारत के राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि प्रदेशों के तीर्थों की पद यात्रा एवं विविध व्रतों का पालन केवल सकलकीर्ति जैसे महा विद्वान् एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले साधु से ही सम्पन्न हो सकते थे । इस प्रकार ये श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र से विभूषित उत्कृष्ट एवं आकर्षक व्यक्तित्व खाले साधु थे ।
मृत्यु
एक पट्टावलि के अनुसार भट्टारक सकलकीर्ति ५६ वर्ष तक जीवित रहे । संवत् १४९९ में महसाना नगर में उनका स्वर्गवास हुआ। पं० परमानन्दजी शास्त्री ने भी प्रशस्ति संग्रह में इनकी मृत्यु १- ततो भवत्तस्य जगत्प्रसिद्धेः पट्टे मनोज्ञे सकलादिकीर्तिः । महाकधिः शुद्धचरित्रधारी निर्मन्थराजा जगति प्रतापी |
- जम्बूस्वामी चरित्र ।
२ - तत्पट्ट पंकेजविकास भास्वान् बभूव निर्धन्यवरः प्रतापी ।
महाकवित्वादिकला प्रवीण: तपोनिधिः श्री सकलादिकीर्तिः । हरिवंश पुराण |
३- तत्पट्टधारी जनचित्तहारी पुराणमुख्योत्तम शास्त्रकारी |
भट्टारक श्रीसकलकीर्तिः प्रसिद्धनामाजनि पुण्यमूर्तिः ।। २१६ ।।
.. उपदेशरत्नमाला - सकल भूषण
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प्रस्तावना
संवत् १४९९ में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है। डा० ज्योतिप्रसाद जैन एवं डा० प्रेमसागर भी इसी संवत् को सही मानते हैं। लेकिन डा० ज्योतिप्रसाद इनका पूरा जीवन ८१ वर्ष स्वीकार करते हैं जो अब लेखक को प्राप्त विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार वह सही नहीं जान पड़ता । सकलकीर्ति रास में उनकी विस्तृत जीवन गाथा है। उसमें स्पष्ट रूप से संवत् १४४३ को जन्म एवं संवत् में स्वर्गवास होने को स्वीकार किया है।
तत्कालीन सामाजिक अवस्था
भट्टारक सकलकीर्ति के समय देश की सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी। समाज में सामाजिक एवं धार्मिक चेतना का अभाव था। शिक्षा की बहुत कभी थी। साधुओं का अभाव था । भट्टारकों के नग्न रहने की प्रथा थी । स्वयं भट्टारक सकलकीर्ति भी नग्न रहते थे। लोगों में धार्मिक श्रद्धा बहुत थी । तीर्थ यात्रा बड़े - बड़े संघों में होती थी। उनका नेतृत्व करने वाले साधु होते थे। तीर्थ यात्राएँ बहुत लम्बी होती थीं तथा वहाँ से सकुशल लौटने पर बड़े-बड़े उत्सव एवं समारोह किये जाते थे । भट्टारकों ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं एवं अन्य धार्मिक समारोह करने की अच्छी प्रथा डाल दी थी । इनके संघ में मुनि, आर्यिका आवक आदि सभी होते थे। साधुओं में ज्ञान प्राप्ति की काफी अभिलाषा होती थी, तथा संघ के सभी साधुओं को पढ़ाया जाता था । ग्रन्थ रचना करने का भी खूब प्रचार हो गया था । भट्टारक गण भी खूब ग्रन्थ रचना करते थे । वे प्रायः अपने ग्रन्थ श्रावकों के आग्रह से निबद्ध करते रहते थे । व्रत उपवास की समाप्ति पर श्रावकों द्वारा इन ग्रन्थों की प्रतियाँ विभिन्न ग्रन्थ भंडारों को भेंट स्वरूप दे दी जाती थीं। भट्टारकों के साथ हस्तलिखित ग्रन्थों के बस्ते के बस्ते होते थे। समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी और न उनके पढ़ने-लिखने का साधन था । व्रतोद्यापन पर उनके आग्रह से ग्रन्थों की स्वाध्यायार्थ प्रतिलिपि कराई जाती थी और उन्हें साधु-सन्तों को पढ़ने को दे दिया जाता था।
साहित्य सेवा
साहित्य सेवा में सकलकीर्ति का जबरदस्त योग रहा। कभी कभी तो ऐसा मालूम होने लगता है जैसे उन्होंने अपने साधु जीवन के प्रत्येक क्षणका उपयोग किया हो। संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानी भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था। वे सहज रूपमें ही काव्य रचना करते थे । इसलिये उनके मुख से जो भी वाक्य निकलता था वही काव्य रूप में परिवर्तित हो जाता था । साहित्य रचना की परम्परा सकलकीर्ति ने ऐसी डाली कि राजस्थान के बागड़ एवं गुजरात प्रदेश में होने वाले अनेक साधु सन्त ने साहित्य की खूब सेवा की तथा स्वाध्याय के प्रति जन साधारण की भावना को जायत किया। इन्होंने अपने अन्तिम २२ वर्ष के जीवन में २७ से अधिक संस्कृत रचनाएं एवं ८ राजस्थानी रचनाएँ निबद्ध की थीं।
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राजस्थान में ग्रन्थ भंडारों को जो अभी खोज हुई है उनमें हमें अभी तक निम्न रचनाएँ उपलब्ध हो सकी हैं।
संस्कृत की रचनाएँ
१. मूलाचार प्रदीप, २. प्रश्नोत्तरोपासकाचार, ३ आदिपुराण, ४, उत्तरपुराण, ५ शांतिनाथ चरित्र, ६. वर्द्धमान चरित्र, ७. मल्लिनाथ चरित्र, ८. यशोधर चरित्र, ९. धन्यकुमार चरित्र, १०. सुकुमाल चरित्र, ११. सुदर्शन चरित्र १२. सद्भाषितावलि, १३. पार्श्वनाथ चरित्र, १४. व्रतकथा
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पार्श्वनाथचरित कोष, १५. नेमिजिन चरित्र, १६, कर्मविपाक, १७. तत्वार्थसार दीपक, १८. सिद्धान्तसार दीपक, १९, आगममार, २०. परमात्मराज स्तोत्र, २१. सारचतुर्विंशतिका, २२. श्रीपाल चरित्र, २३. जम्बूस्वामी चरित्र, २४. द्वादशानुप्रेक्षा। पूजा ग्रन्थ :
२५. अष्टाहिका पूजा, २६. सोलहकारण पूजा, २७. गणधरवलय पूजा, राजस्थानो सांतयों
१. आराधना प्रतिबोधसार, २, नेमीश्वर गीत, ३. मुक्तावलि गीत, ४. णमोकार फल गीत, ५. सोलहकारण राम, ६. सारसिखामणि रास, ७. शान्तिनाथ फागु।
उक्त कृतियों के अतिरिक्त अभी और भी रचनाएँ हो सकती हैं जिनकी अभी खोज होना बाकी हैं। भट्टारक सकलकीर्ति की संस्कृत भाषा के समान राजस्थानी भाषा में भी कोई बड़ी रचना मिलनी चाहिए, क्योंकि इनके प्रमुख शिष्य ब्र० जिनदास ने इन्हीं की प्रेरणा एवं उपदेश से राजस्थानी भाषा में ५० से भी अधिक रचनाएं निबद्ध की हैं।
उक्त संस्कृत कृतियों के अतिरिक्त पंचपरमेष्ठि पूजा, द्वादशानुप्रेक्षा एवं सारचतुर्विशतिका आदि और भी कृतियाँ हैं जो राजस्थान के शास्त्र भंडारों में उपलब्ध होती हैं। ये सभी कृतियाँ जैन समाज में लोकप्रिय रही हैं तथा उनका पठन-पाठन भी खूब रहा है।
भट्टारक सकलकीर्ति की उक्त संस्कृत रचनाओं में कवि का पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है। उनके काव्यों में उसी तरह की शैली, अलंकार, रस एवं छन्दों की परियोजना उपलब्ध होती है जो अन्य भारतीय संस्कृत काव्यों में मिलती है । उनके चरित काव्यों के पढ़ने से अच्छा रसास्वादन मिलता है । चरित काव्यों के नायक वेसठशलाका के लोकोत्तर महापुरुष हैं जो अतिशय पुण्यवान हैं, जिनका सम्पूर्ण जीवन अत्यधिक पावन है । सभी काव्य शान्तरस पर्यवसानी है।
काव्य ज्ञान के समान भट्टारक सकलकीर्ति जैन सिद्धान्त के महान् वेत्ता थे। उनका मूलाचार प्रदीप, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, सिद्धान्तसार दीपक एवं तत्त्वार्थसार दीपक तथा कर्मविपाक जैसी रचनाएँ उनके अगाध ज्ञान के परिचायक हैं। इसमें जैन सिद्धान्त, आचार-शास्त्र एवं तत्वचर्चा के उन गृह रहस्यों का निचोड़ है जो एक महान विद्वान् अपनी रचनाओं में भर सकता है ।
इसी तरह सद्भाषितावलि उनके सर्वागज्ञान का प्रतीक है-जिसमें सकलकीर्ति ने जगत के प्राणियों को सुन्दर शिक्षाएं भी प्रदान की हैं, जिससे वे अपना आत्म-कल्याण करने की ओर अग्रसर हो सके। वास्तव में वे सभी विषयों के पारगामी विद्वान् थे। राजस्थानी रचनाएँ
सकलकीर्ति ने हिन्दी में बहुत ही कम रचना निबद्ध की है । इसका प्रमुख कारण सम्भवतः इनका संस्कृत भाषा की ओर अत्यधिक प्रेम था । इसके अतिरिक्त जो भी इनकी हिन्दी रचनाएं मिली हैं वे सभी लघु रचनाएँ हैं जो केवल भाषा अध्ययन की दृष्टि से ही उल्लेखनीय कही जा सकती हैं । सकलकीर्ति का अधिकांश जीवन राजस्थान में व्यतीत हुआ था। इनकी रचनाओं में राजस्थानी भाषा की स्पष्ट छाप दिखलाई देती है ।
इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति ने संस्कृत भाषा में ३० ग्रन्थों की रचना करके माँ भारती की
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प्रस्तावना
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अपूर्व सेवा की और देश में संस्कृत के पठन-पाठन का जबरदस्त प्रचार किया। पार्श्वनाथ चरित आपकी प्रसिद्ध रचना है । जिसके स्वाध्याय का देश एवं समाज में अत्यधिक प्रचार है । सकलकीर्ति ने अपने पूर्वाचार्यों के अनुसार पुराण एवं काव्य दोनों की सम्मिलित शैली में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन पर काव्य रचना की।
जैनाचार्यों एवं सन्तों तथा विद्वानों के लिये भगवान पार्श्वनाथ का जीवन अत्यधिक लोकप्रिय रहा है। यही कारण है कि अनेक आचार्यों एवं कवियों ने उनके जीवन पर कितने ही काव्य एवं पुराण लिखे, कथा काव्य लिखे एवं अन्य काव्य रूपों के माध्यम से जन साधारण में पार्श्वनाथ के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा एवं भक्ति प्रदर्शित की। राजस्थान के ग्रन्थ संग्रहालयों में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन पर जो काव्य, चरित एवं पुराण उपलब्ध हुए हैं उनका विवरण निम्न प्रकार हैसंस्कृत भाषा
अपभ्रंश भाषा: १. पार्वाभ्युदय जिनसेनाचार्य
८. पासणाहचरिउ परकीर्ति २. पार्श्वनाथ चरित्र वादिग़जसरि
( सन् १०२५) ९. पासचरिउ ३. पार्श्वनाथ चरित्र भ० सकलकति १०. पासमाहधास्त पर ४, पार्श्वनाथ काठ्य पंजिका भ० शुभचन्द्र
११. पासणाहचरिठ
देवचन्द्र ५. पार्श्वनाथपुराण पार्श्वपंडित
१२. पासणाहचरिउ असवालकवि ६. पार्श्वपुराण
वादिचन्द्र
(वि० सं० १६५१) १३. पासणाहचरिउ मुनि पद्मनन्दि ७, पार्श्वपुराण
चन्द्रकीर्ति १४. पासपुराण
तेजपाल हिन्दी भाषा पार्श्वपुराण
भूघरदास, रचना सं० १७८९ पार्श्वनाथरास
ब्र० कपूरचन्द, रचना सं० १६५६ पार्श्वनाथ चरिउ विश्वभूषण
उक्त प्रन्थों के अतिरिक्त गुणभद्राचार्य के उत्तरपुराण, पुष्पदंत के महापुराण, हेमचन्द के त्रिषष्टि - शलाकापुरुषचरित आदि ग्रन्थों में भी भगवान पार्श्वनाथ के जीवन पर विस्तृत वर्णन मिलता है 1
भद्रारक सकलकीर्ति के पर्व संस्कत में जिनसेनाचार्य का पाश्र्वाभ्यदय तथा वादिराज सरि का पार्श्वनाथचरित जैसे काव्य निबद्ध हो चुके थे तथा आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण एवं हेमचन्द्र का 'त्रिप्टिंशलाकापुरुषचरित' जैसे काव्य सामने आ चुके थे। यही नहीं, अपभ्रंश के तो पुष्पदन्त, पदमकीर्ति, श्रीधर जैसे महाकवियों के काव्य एवं पराणों का उन्होंने अध्ययन कर लिया होगा। इस प्रकार यह कहना सत्य प्रतीत होगा कि भट्टारक सकलकोर्ति के पूर्व ही पार्श्वनाथ का जीवन काव्य निर्माण के लिए अत्यधिक लोकप्रिय बन गया था। और उनके जीवन पर काव्य निर्माण करना विद्वत्ता की कोटि में गिना जाने लगा था तथा किसी विद्वान के लिये महाकवि कहलाने के लिए आवश्यक समझा जाने लगा था। इसलिए भट्टारक सकलकीर्ति ने भी भगवान पार्श्वनाथ के जीवन पर काव्य निर्माण करके उनके चरणों में अपनी भक्ति के पुष्प समर्पित किये।
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पार्श्वनाश्वचरित भट्टारक सकलकीर्ति ने पार्श्वनाथ चरित को महाकाव्य के समान २३ सर्गों में पूर्ण किया है। इन सों में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन पर काव्यात्मक शैली में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। चरित के प्रथम १० सर्गों में पूर्वमवों का वर्णन, ११ वें से ९८ वे तक पार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक का वर्णन तथा १९ वें से २३ वें सर्ग तक उनके उपदेशों एवं निर्वाण गमन का वर्णन किया गया है। कवि ने अन्य के प्रारम्भ में सर्वप्रथम २४ तीर्थङ्करों की वंदना की है। उनके पश्चात् गौतमादि गणधरों को स्मरण करते हुए-आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधुओं को उनके गुणों का वर्णन करते हुए नमस्कार किया है । इसके पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्द, अकलंकदेव, आचार्य समन्तभद्र एवं जिनसेनाचार्य को नमस्कार किया गया है। यह सब मंगलाचरण प्रथम ३९ छन्दों में पूर्ण होता है। इसके पश्चात् कथा प्रारम्भ होती है। सार्श्वनाथ की कथा वस्तु आ० गुणभद्र के उत्तरपुराण पर आधारित है। भट्टारक सकलकीर्ति ने उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया । किन्तु फिर भी उसके प्रस्तुतीकरण में उनकी स्वयं की शैली के दर्शन होते हैं। किस घटना का विस्तृत वर्णन करना और किस घटना का सामान्य वर्णन करके आगे बढ़ जाना यह उनके लिये अत्यधिक सरल था । पार्श्वनाथ चरित में पार्श्वनाथ एवं कमठ के दश भवों की कहानी है जिसका चित्र निम्न प्रकार हैपिता का नाम माता का नाम पार्श्वनाथ का नाम कर्मठ का नाम पापर्व की मृत्यु
का कारण पहला भय विश्वभूति अनुन्थरों मरुभूमि
कमठ
कमठ द्वारा
शिला गिराने से दूसरा भव - .. वघोष हस्ति कुक्कट सर्प सर्प द्वारा उस
लिये जाने के
कारण तीसरा भव -
सहस्त्रार कल्प धूमप्रभ नरक चतुर्थ भव विद्युत्पति विद्युत्माला अग्निवेग ( स्वर्ग) अजगर अजगर के
निगलने से। पंचप भव - - अच्युत स्वर्ग छठवाँ नरक -
( विद्युत्प्रभदेव ) षष्ठ भव बज्रवीर्य विजया वज्रनाभि चक्रवर्ति भील कुरंग भील के बाण से सप्तम भव
मध्यम अवेयक सप्तम नरक अष्टम भव बज्रबाहु
प्रभंकरी आनन्द मंडलेश्वर सिंह सिंह के खा जानेसे नवम भव
आनत कल्प दशम भव विश्वमेन ब्राह्मी पार्श्वनाथ ज्योतिर्लोक निर्वाण
में नीच देव
- -
नरक
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पार्श्वनाथचरित
मुक्ति मार्ग का जो वर्णन किया है उससे यह काव्य शान्त रस प्रधान काव्य बन गया है। १९ वें सर्ग में किस कार्य में प्रवृत्त होने से इस जीव को कौनसा भव मिलता है-इसका भट्टारक सकलकीर्ति ने जो वर्णन प्रस्तुत किया है वह उन लोगों को सत्पथ पर लगाने वाला है जो रात-दिन अनाचार में फंसे रहते हैं तथा आत्म हित का कभी विचार नहीं करते। वास्तव में यह सम्पूर्ण काव्य वैराग्य प्रधान है। वैराग्य उत्पत्ति के पश्चात् पार्श्वनाथ द्वारा द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन बहुत ही सुन्दर हुआ है। भट्टारक सकलकीर्ति निर्मन्थराज थे, वे परम मा सन्त थे। उन्होंने युवावस्था में ही अपार सम्पत्ति वैभव एवं स्त्री कुटुम्ब का त्याग किया था इसलिये उन्होंने इन भावनाओं के माध्यम से संसार का, उसमें रहने वाले संसारियों का, सुख सम्पति की अस्थिरता का, आयु, बल, शरीर एवं कुटुम्बीजनों की क्षणिकता का जिस गम्भीर शैली में प्रतिपादन हुआ है वह कवि की साधुता एवं विद्वत्ता दोनों का घोतक है। वास्तव में भावनाओं के माध्यम से उसने अपना हृदय खोलकर रख दिया है। अनित्यानुप्रेक्षा के वर्णन में भट्टारक सकलकीर्ति के निम्न छन्द को देखिये।
आयुश्चाक्षचयं बलं निजवपुः सर्व कुटुम्ब धनं,
राज्यं वायुकदर्थिताम्बुलहरीतुल्य जगच्चचलम् । ज्ञात्वैतर्हि शिवं जगत्रयहितं सौख्याम्बुधिं शाश्वतं
दृक् चिद्वृत्तयमैर्दुतं बुधजना मुक्त्यै भजध्यं सदा ।।१४।। १५ वा सर्ग इन्हीं बारह भावनाओं के वर्णन से पूरा होता है। इस सर्ग में १३७ पथ हैं। इन भावनाओं का वर्णन किसी प्रकृति वर्णन अथवा अन्य किसी ऋतु वर्णन से कम महत्वपूर्ण नहीं है । इनमें हृदय से निकले हुए शब्द हैं। जैन विद्वानों के काव्यों के अतिरिक्त ऐसा आध्यात्मिक अथवा आत्म विकास का सुन्दर वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। और जिसे हम केवल जैन कवियों की ही विशेषता कर सकते हैं । प्रस्तुत काव्य शृंगार वर्णन से दूर है। पंच कल्याणकों का वर्णन
महाकवि भट्टारक सकलकीर्ति ने पार्श्वनाथ तीर्थकर के पाँचों कल्याणकों का विस्तृत वर्णन किया है। सर्वप्रथम कवि द्वारा माता के १६ स्वप्नों का अत्यधिक रोचक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। तीर्थकर के पांच कल्यापाकों का जैन काव्यों में वर्णन एक टेक्निकल वर्णन होता है जो तीर्थकर चरित प्रधान अधिकांश काव्य, पुराण एवं कथा परक कृतियों में मिलता है। भट्टारक सकलकीर्ति ने भी अपने इस काव्य में पार्श्वनाथ के पाँचों कल्याणकों का विस्तृत वर्णन किया है। प्रस्तुत काव्य के १० वें सर्ग में पार्श्वनाथ के गर्भ में आने के पूर्व देवों द्वारा रलों की वृष्टि, माता के देखे हुये १६ स्वप्नों का पहिले विस्तृत वर्णन और फिर उनके फल की सविस्तार व्याख्या दी गयी है। काव्य का १० वा सर्ग इन्हीं दोनों वर्णनों तक सीमित रखा गया है। पूरा वर्णन अलंकारिक भाषा में हुआ है जिससे सामान्य पाठक भी काव्य का रसास्वादन कर सकते हैं। पार्श्वनाथ की माता ने सरोवर एवं समुद्र दोनों देखे । इसका एक वर्णन काव्य में निम्न प्रकार किया गया हैतरत्सरोजकिञ्जस्कपिञ्जरोदकसच्चयम् । विद्यार्णवं स्वसूनावक्षत दिव्यं सरोवरम् ।। १०२।। क्षुभ्यन्तयब्धिमुवेल सादर्शमणिसंकुलम् । एग्ज्ञानवृत्तरलानां स्वस्य प्रत्रस्य वाकरम् ।।१०३।।
अर्थात् सैरते हुये कमलों की केशर से जिसके जल का समूह पीला पीला हो रहा है तथा जो अपने पुत्र के विद्यारूप सागर के समान जान पड़ता था ऐसा सुन्दर सरोवर देखा ।। १०२।।
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१५
प्रस्तावना
जो तट का उल्लंघन कर रहा है, मणियों से व्याप्त है और अपने पुत्र के दर्शन ज्ञान चारित्ररूपी रत्नों की खान के समान प्रतीत हो रहा है, ऐसे लहराते हुए समुद्र को देखा ।। १०३ ।।
११ वें सर्ग में १६ स्वप्नों का फल, देवियों द्वारा पार्श्वनाथ की माता की सेवा एवं पार्श्व के जन्म का वर्णन किया गया है। काव्य के इस सर्ग में माता की सेवा सुश्रूषा करते हुये उनसे जो विभिन्न प्रश्न पूछे गये और माता ने उनका जो सहज किन्तु गम्भीर उत्तर दिया वह हमारे महाकवि के महान् पांडित्य का सूचक हैं। देवियों द्वारा किये गये सभी प्रश्नों का उत्तर दूसरा भी दिया जा सकता था, किन्तु माता के उत्तर धार्मिक पथ को सबल करने वाले हैं।
रतिः क्वात्र विधेया सधानाध्ययनकर्मसु । धर्मे रत्नत्रये मुक्तिनार्या गुर्वादिसेवने ।। ८६ ।। किं श्लाघ्यं तुच्छद्रव्येऽपि पात्रदानमनेकशः । निः पापाचरणं यच्च तयोर्बाल्येऽतिदुः करम् ।। ८७ ।।
१२ वें सर्ग में देवों द्वारा जन्माभिषेक के उत्सव का वर्णन किया गया है। तथा १३ वें सर्ग में बालक पार्श्व को आभूषण पहिना कर उसके समक्ष इन्द्र द्वारा किये गये नृत्य का वर्णन है । १८ वें सर्ग में पार्श्वनाथ के समवसरण रचना का विस्तृत वर्णन है। समवसरण का अर्थ तीर्थंकर की धर्मसभा से है जहाँ पार्श्व का सर्वोपदेश होता था। कंन्तुको चना भी पूर्णत: टेक्निकल हैं। भट्टारक सकलकीर्ति ने समवसरण की रचना का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है जो उनके गहन ज्ञान का द्योतक है। इस प्रकार प्रस्तुत महाकाव्य में पाँचों ही कल्याणकों का जो वर्णन हुआ है वह आकर्षक एवं गम्भीर है एवं महाकवि के पांडित्य का सूचक
है ।
पार्श्वनाथ का जन्म और निर्वाण
पार्श्वनाथ भगवान महावीर के समान ही ऐतिहासिक महापुरुष हैं। सभी इतिहासकारों ने एक मत से उनको श्रमण परम्परा के तीर्थङ्कर के रूप में स्वीकार किया है। उनका जन्म वाराणसी में हुआ । उनके पिता वाराणसी के राजा विश्वसेन एवं माता महारानी ब्राह्मी थी। उनका जन्म भगवान महावीर के जन्म से लगभग ३५० वर्ष पूर्व हुआ । तीस वर्ष तक राजकुमार का जीवन व्यतीत करने के पश्चात् उन्होंने निर्मन्थ दीक्षा धारण कर ली। कठोर तपश्चर्या के पश्चात् उन्हें कैवल्य हो गया। समीचीन मार्ग का उपदेश देते हुये उन्होंने कुरू, कौशल, काशी, सुहम, पुण्ड्र, मालव, अंग, बङ्ग, कलिङ्ग, पंचाल, मगध, विदर्भ, भद्रदेश तथा दशार्ण आदि अनेक देशों में विहार किया। उनका विशाल संघ था जिसमें १६ हजार तपस्वी मुनि, ३६ हजार आर्यिकाएं, एक लाख श्रावक एवं तीन लाख श्राविकाएँ थीं। अपने विशाल संघ के साथ पार्श्वनाथ सम्पेदाचल के शिखर पर आये और एक माह का योग निरोध कर प्रतिमा योग धारण कर लिया और अन्त में श्रावण शुक्ला सप्तमी के पूर्वाह्न काल में विशाखा नक्षत्र तथा उत्तम शुभ लग्न में उन्हें निर्वाण प्राप्त हो गया। इस समय उनकी सौ वर्ष की आयु थी लेकिन प्रस्तुत महाकाव्य में इनकी आयु का कोई उल्लेख नहीं किया ।
पार्श्वनाथ के जीवन की दो घटनाओं का उल्लेख प्रायः सभी दिगम्बर आचार्यों ने समान रूप से किया है। एक घटना उनके राजकुमार काल की है, जब उन्होंने एक पंचाग्नि तपस्या में लीन साधु को ज्ञानहीन कायक्लेश सहने को मना किया तथा अपने अपूर्व ज्ञान से उनके चारों ओर जलती हुई लकड़ी के अन्दर सर्प और सर्पिणी का जोड़ा होने की बात कही। लेकिन उस वृद्ध तपस्वी ने बालक की बात की परवाह किये बिना क्रोधाभिभूत होकर उस लकड़ी को काट डाला जिसमें नाग युगल था । लकड़ी ९- देखिये ९४ १९९
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पार्श्वनाथचरित
के साथ उस तपस्वी ने उन्हें भी काट डाला । पाश्र्वनाथ ने दयाई भाव मरते हुये दोनों नाग युगल को णमोकार मन्त्र सुनाया जिसके प्रभाव से वह युगल जोड़ी धरणेन्द्र और पद्मावती हुए ।
दूसरी घटना उनके दीक्षा जीवन के बाद की है। जब संवर देव ने तप साधना में लीन उन पर घोर उपसर्ग किया तथा उनको तपस्या से डिगाना चाहा। उस समय धरणेन्द्र पद्मावती ने आकर उपसर्ग सहते हुए पार्श्वनाथ की रक्षा की। उक्त दोनों ही घटनाओं का पार्श्वनाथ चरित में अच्छी तरह वर्णन किया गया है।
१०
अन्य धर्मों की स्थिति
1
वैसे तो पार्श्वनाथ चरित में जैनधर्म की प्रमुखता बतलायी गयी है, उस समय सभी देशों एवं नगरों में जैनधर्म का प्रचार था। नगरों में जिन मन्दिर थे जहाँ श्रावक एवं श्राविकाएं बड़े उत्साह के साथ पूजा पाठक र आचार्य एवं मुनियों का नगरों में बिहार होता रहता था तथा उनके नगर प्रवेश के अवसर पर शानदार स्वागत होता था। स्वयं काशी देश के महाराजा जैनधर्मानुयायी थे, इसलिये भ० पार्श्वनाथ को किसी नये धर्म की स्थापना नहीं करनी पड़ी; किन्तु तीर्थंकर नेमिनाथ द्वारा प्रतिपादित धर्म का ही देश में प्रचार प्रसार करते रहे तथा धर्म में जो शिथिलता आयी उसे दूर किया। लेकिन जैनधर्म के अतिरिक्त भी देश में एक और धर्म था जो वैदिक धर्म ही हो सकता है। कमठ राजा अरविन्द द्वारा अपमानित एवं देश निष्कासित किये जाने के पश्चात् भूताद्रि पर्वत पर जिस रूप में तप करने लगा था वह जैनधर्म के अनुसार नहीं था । इसी तरह पार्श्वनाथ की अपने नगर के बाहर पंचाग्नि तप करते हुए तपस्वी से भेंट हुई थी। उक्त प्रसंग ये बतलाते हैं कि देश में जैनधर्म के अतिरिक्त वैदिक धर्म का भी खूब प्रचार था और उस धर्म के साधुओं को तपस्या आदि की पूरी स्वतन्त्रता थी । तत्कालीन सामाजिक स्थिति
पार्श्वनाथ चरित्र के आधार पर तत्कालीन सामाजिक स्थिति के सम्बन्ध में जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार नागरिक वृद्धावस्था आने के पूर्व ही गृहस्थावस्था त्याग दिया करते थे । दुष्टजनों को राजा गधे पर चढ़ा कर देश निकाला दिया करता था। मानव हत्या सबसे बड़ा अपराध माना जाता था । तपस्वी जीवन व्यतीत करने वाले कमठ को अपने भाई की हत्या के अपराध में तपस्वियों ने उसे अपने आश्रम से निकाल दिया था ।
नगर में साधुओं के आने पर गृहस्थ जन उनसे अपने पूर्व भवों के बारे में प्रश्न पूछते और जगत की क्षणभंगुरता जानने के पश्चात् वे स्वयं भी साधु जीवन ग्रहण कर लेते। जैनधर्म का व्यापक प्रचार था तथा ब्राह्मण वर्ग के अतिरिक्त सभी वर्ग जैनधर्म का पालन करते थे । १
बालकों को पढ़ाने के लिये जैन अध्यापकों के पास भेजा जाता था तथा उसे आगम, अर्थशास्त्र शस्त्र विद्या, कला और विवेक आदि की शिक्षा दी जाती थी। अष्टाह्निकाओं में मन्दिरों में विशेष पूजा होती थी । महिलायें जब जिन मन्दिर जाती थीं तो वे वस्त्र आभूषणों से पूर्ण अलंकृत होती थीं । विवाह आदि शुभ अवसरों पर मन्दिरों में विशेष पूजन आदि का आयोजन होते थे । *
धार्मिक वातावरण का समाज में विशेष जोर था। साधु सेवा की ओर जनता का विशेष लक्ष्य रहता था । आचार्य एवं मुनि अपने प्रवचनों से नरकों की यातना तथा स्वर्ग सुख के बारे में वर्णन करके समाज को शुभ मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा देते रहते थे । १. चतुर्थ सर्ग - १४ २. चतुर्थ सर्ग ५२-५४
३. वही ४४-४८
४. १० वां सर्ग २२
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।। श्रीपाश्र्वनाथाय नमः ।। भट्टारक श्री सकलकीति विरधित श्री पार्श्वनाथ चरित
प्रथम सर्ग नमः श्री पार्श्वनापाय विश्वविघ्नोपनाशिने । त्रिजगत्स्वामिने मूर्ना ह्यमन्तमहिमात्मने ।।१।। जित्वा महोगसन्यिो ज्योतिदेवकृतान भुवि । स्ववीयं केवलं व्यक्तं पके घेरे' तमदतम् ।।२।। यनामस्मृतिमात्रेण विघ्नाः कार्यविनाशिनः । विलीयन्तेऽखिला नृणां सुमन्त्रेण विषाणि || परयो दुनिवारा हि त्यक्त्वा बेरं ब्रजन्त्यहो । बन्धुभावं सतां नूनं यन्नामजपनेन हि ॥४॥ क्षुद्रा देवा दुराचारा: पीडयन्ति न जातुचित् । जीवा: सिंहादयो यस्य चरणान्वितचेतसाम ।।५।। असाध्या दुष्करा रोगाः सर्वे यान्ति क्षणात् क्षयम् । यन्नामभेषजेनापि तमासिमानुना यथा ॥६॥
___टीकाकार द्वारा मंगलाचरण पाव जिनमिनं नौमि जीयबारिज-सन्ततेः । दुःखदावानलोत्तप्त-भव्य-धारिवसंनिभम् ॥ मोह-महातम-दलन-दिन, तपलक्ष्मी भरतार। ते पारस परमेस मुझ, होहु सुमति दातार ॥१॥ वामानन्दन कल्पतरु जयो जगत हितकार । मुनिजन जाकी पासकरि जाई,सिबफलसार'।२।
समस्त विघ्नों के समूह को नष्ट करने वाले, तीनों जगत के स्वामी तथा प्रनम्त महिमास्वरूप श्री पार्श्वनाथ भगवान् को मैं शिर से नमस्कार करता है ।।१॥ उपोतिकोष के द्वारा किये हुए महान् उपसर्गों को जीत कर जिन्होंने पृथिवी पर केवल अपना प्रनम्त बल प्रकट किया था उन पाश्चर्यकारक श्री पाश्र्व जिनेन्द्र की मैं स्तुति करता है ॥२॥ जिनके नाम स्मरण मात्र से मनुष्यों के कार्य को नष्ट करने वाले समस्त विघ्न उस तरह नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार उत्तम मन्त्र से विष नष्ट हो जाते हैं ।।३॥ अहो! प्राश्चर्य है कि जिनका नाम अपने से दुनिवार शत्रु दरभाव छोड़कर निश्चित ही सत्पुरुषों के बन्धुपने को प्राप्त होते हैं ॥४॥ जिनके चरणों में वित्त लगाने वाले पुरुषों को दुराचारी शुद्ध देव तथा सिंहादिक जीव कभी पीडित नहीं करते ॥५॥ जिनके नामरूपी प्रौषष मात्र से भी
१. च+ईडे स्तौमीत्यर्थः २, ३५ ३. कवि भूधरदास कृत ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरितम् *
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यद्धपानेन प्रणश्यन्त्यत्रानन्ताः कर्मराशय: । यद्यतोऽपविघ्नादि-नाशे को विस्मयः सताम् ।।७॥ इत्यादिमहिमोपेतं जगन्नाथ जगद्गुरुम् । श्रीपार्श्व स्तोम्यहं वन्दे प्रारब्धविघ्नशान्तये ।।८।। दिव्यवाविकरणरादौ रागद्वेष-तमरचयम् । उच्छिा संप्रकाश्योच्चैर्मोक्षमार्ग सतां च वैः ।।६।। कारुण्यात्स्वर्गमुक्त्याप्त्यै योऽभूदद्भ तोऽशुभान् । तं जिनेशं वृषाधीशं वृषदं वृषभं स्तुने ।। १० ।।युग्मम् योऽज्ञानतिमिरं हत्वा सद्धर्मामृतबिन्दुभिः । चक्रे कुवलयालादं चन्द्राभं तं स्मराम्यहम् ।।११।। कामश्चक्री जिनेन्द्रपच योऽभवन्मुक्तिनायक: । जगच्छाम्तिकरः शान्त्यै त शान्तीशं नमाम्यहम् ।१२। मोहमल्लं मृतं दृष्ट्वाऽमा ख: कामो भयातुरः । यस्मानष्टोऽत्र बाल्येऽपि ने मिमें सोऽस्तु सिद्धये।।१३।। येन प्रकाशितो धर्मो वर्ततेऽद्यापि दु:षमे । काले धा मुनीन्द्रश्च श्रावकैः शर्मसागर: ।।१४।। प्रसाध्य तथा कठिन साध्य समस्त रोग उस तरह क्षणभर में क्षय को प्राप्त हो जाते हैं जिस प्रकार कि सूर्य के द्वारा अन्धकार नष्ट हो जाता है ॥६।। जिनके ध्यान से इस जगत में यदि कर्मों के अनन्त समूह नष्ट हो जाते हैं तो इससे दूसरों के विघ्नादि के नष्ट होने में सत्पुरुषों को प्राश्चर्य की बात ही क्या है ? ॥७॥ इत्यादि महिलाओं से सहित जगत् के स्वामी तथा जगत् के गुरु श्री पार्श्वनाथ भगवान् की मैं प्रारब्ध कार्य के विघ्नों का सामन करने के लिये स्तुति और वन्दना करता हूँ ।।८।। जिन्होंने दिव्यध्यनिरूपी किरणों के द्वारा सबसे पहले राग द्वेष रूप अन्धकार के समूह को नष्ट कर निश्चय से सत्पुरुषों के लिये उत्कृष्ट मोक्ष मार्ग को प्रकाशित किया था ।।। जो करुणाभाव से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अद्ध त सूर्य स्वरूप हुए थे उन धर्म के अधीश्वर धर्मदायक वृषभ जिनेन्द्र की मैं स्तुति करता हूँ ॥१०॥ जिन्होंने समीचीन धर्मरूपी अमृत को बिन्दुओं से अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट कर कुवलय-मही मण्डल रूपी कुवलय-नील कमलों के हर्ष को किया था उन चन्द्रप्रभ भगवान का मैं स्मरण करता हूँ ॥११।। जो कामदेव, चक्रवर्ती और तीर्थकर पर के धारक होते हुए मुक्ति के स्वामी तथा जगत् के शान्तिकर्ता हुए थे उन शान्तिनाथ भगवान् को मैं शान्ति के लिये नमस्कार करता है॥१२॥ इस लोक में इन्द्रियों के साथ मोह रूपी मल्ल को मरा हुमा देख काम, भय से पीडित होता हुआ जिनके पास से बाल्य अवस्था में भी नष्ट हो गया था-भाग गया था वे नेमिनाथ भगवान् सिद्धि के लिये हों-उनके प्रताप से मुझे मुक्ति की प्राप्ति हो ॥१३॥ मुनिराज और श्रावक्रों के भेद से जो दो प्रकार का है तथा सुख का सागर है ऐसा जिनके द्वारा प्रकाशित हुमा धर्म प्राज भी इस पञ्चम काल में विद्यमान है, जो स्वर्ग और मोक्ष के कर्ता हैं, जगत् के हितकारी
१. धर्मदं २. भूमण्डलरूपनीलकमलानन्दं ३. कामदेवः, चक्रवर्ती तीर्थ कररच ४ सह ५. इन्द्रियः ६. दु.षमा संजके पञ्चमे कले ७. मुखसागरः ।
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* प्रथमः सर्गः * नाक '-निर्वाण-करिं महावीरं जगद्धितम् । वर्तमान गुणः पूर्ण नौमि प्रारब्ध सिद्धये ॥१५॥ शेषान् सर्वान् जिप्तारातीन् धर्म साम्राज्यनायकान् । अनन्तगुणवाराशीन् जिनान् स्तोमि तव्ये ।।१६।। अष्टकोणनिमुक्तान गुणाष्टकधिपता : लोसायशिखरावासान् ध्येयान् विश्वमुनीश्वरैः ।१७। कृत्स्नचिन्तातिगान' सिद्धाननन्तसुखसागरान् । स्मरामि हृदये नित्यं निरौपम्यान् शिवाप्तये ।।१८।। प्राचारं पञ्चधा मुक्त्यै ये चरन्ति स्वयं सदा ! आचारयन्ति शिष्याणां सर्वानुग्रहबुद्धयः ।।१६।। सूरयो विश्वतत्त्वज्ञा जिनधर्मप्रभावकाः । तेषां पादाम्बुजान् वन्दे पञ्चाधारविशुद्धये ।।२०।। पठन्त्येकादशाङ्गानि सर्वपूर्वयुतान्यपि ।ये महामतयः सिद्धच यतीनां पाठयन्ति च ।।२१।। स्वान्योपकारिणो लोके व पाध्यायमुनीशिनः । पादाब्जान शिरसा तेषां नमस्कुर्वे चिदाप्तये ।२२। साधयन्ति त्रिरोग ये दुष्करं भीरभीतिदम् । ये कालत्रयजं मुक्त्यै साधवः सिद्धिसाधकाः ॥२३॥ हैं, महावीर हैं-महान् विशिष्ट मोक्ष लक्ष्मी के दाता हैं प्रथया कर्मरूपी शत्रुनों को नष्ट करने में प्रद्वितीय वीर हैं तथा गुणों से परिपूर्ण हैं ऐसे बर्द्धमान स्वामी की प्रारब्ध कार्य की सिद्धि के लिये स्तुति करता हूँ ॥१४-१५।। जिन्होंने कर्म रूपी शत्रुओं को जीत लिया है, जो धर्म रूपी साम्राज्य के नायक हैं, और अनन्त गुरणों के सागर हैं ऐसे शेष समस्त तीर्थंकरों को मैं उनकी वृद्धि के लिये उनके समान वृद्धि को प्राप्त करने के लिये स्तुति करता हूँ ॥१६।। जो प्रष्ट कर्म और प्रौदारिक प्रावि शरीरों से रहित हैं, अनन्तज्ञान प्रावि पाठ मुरणों से विभूषित हैं, लोक के अग्रिम शिखर पर जिनका निवास है, जो समस्त मुनिराजों के द्वारा ध्यान करने योग्य हैं, समस्त चिन्तामों से रहित हैं, अनन्त सुख के सागर हैं तथा अनुपम हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठियों का मैं मोक्ष की प्राप्ति के लिये निरन्तर हृदय में स्मरण करता हूँ ॥१७-१८।। जो मुक्ति की प्राप्ति के लिए पांच प्रकार के प्राचार का स्वयं सदा आचरण करते हैं तथा शिष्यों को प्राचरण कराते हैं, जिनकी बुद्धि सब जीवों के उपकार में लीन रहती है-जो सब का भला चाहते हैं, जो समस्त तत्त्वों के ज्ञाता हैं तथा जिनपर्म को प्रभावना करने वाले हैं ऐसे प्राचार्य परमेष्ठी हैं, मैं पांच प्रकार के प्राचार को शुद्धि के लिये उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ ।।१६-२०॥ जो महा बुद्धिमान, समस्त पूर्वो से सहित ग्यारह अङ्गों को मुक्ति-प्राप्ति के लिए स्वयं पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं तथा जो लोक में निज और पर के उपकार में तत्पर रहते हैं ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी हैं, चैतन्य स्वरूप की प्राप्ति के लिये मैं उनके चरण कमलों को मस्तक झुका कर नमस्कार करता है ॥२१-२२।। जो भीरु मनुष्यों को भय प्रदान करने वाले, प्रत्यन्त कठिम, तीनकाल सम्बन्धी जन्म जरा और मृत्यु रूपी तीनों रोगों की मुक्ति-प्राप्ति
१. स्वर्ग-मोक्ष-कार २. निखिल चित्तातीतान् ३ दर्शन-ज्ञान चारित्र-तपो-वीयांचारभेदेन पञ्चधा ४, जन्मबसायच्याविरोग।
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४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
समन्ताद्भुवने भद्रा
थानाध्ययनसंसक्ताः स्वकार्य करणे रताः । सर्दहकमलान् स्तौमि तद्योगशक्तिहेतवे ।। २४ ।। बभूव यत्प्रसादेन कवित्वादिविवो क्षमा । हगाविभूषिता दक्षागमे मे सम्मतिः शुभा || २५ || तां जिनेन्द्रमुखोत्पन्नां जगता मातरं पराम्। प्रज्ञानध्वान्त हन्त्री शारदा' नौमि पदाप्तये ||२६|| त्रिजगत्पूज्यसिद्धान्तं विश्वतस्व प्रदीपकम् जैनं तदाप्तये बन्दे दुरन्तदुरितापहम् ||२७|| जैन शासनमाहात्म्य प्रकाशनपरान् वरान् । महाकवीन् महर्षीश्च द्वादशाङ्गाधिपारगान् ||२६| गोतमादीन् गणाधीशान् विश्वनायेर्भुतक्रमान् । वन्दे सर्वहितान् मूर्ध्ना तद्गुणग्रामहेतवे ॥२६॥ येन पूर्वविदेहे साक्षाज्जिनेन्द्रो नमस्कृतः । नमामि शिरसा कुन्दकुन्दाचार्य कवि हितम् ||३०|| कलङ्कातिगवाक्याय" कवित्वादिगुणान्धये । वादिने धर्मस्थैर्यायाकलङ्कस्वामिने नमः ||३१|| विश्वलोकोपकारिणी । यद्वाशी तं प्रवन्दे समन्तभद्रकवीश्वरम् ।। ३२ ।। के लिये सिद्ध करते हैं-वश में करते हैं, दूसरों के लिये सिद्धि को देने वाले हैं, ध्यान औौर श्रध्ययन में लीन रहते हैं तथा आत्म कार्य-समता वन्दना आदि आवश्यक कार्यों के करने में तत्पर रहते हैं उन साधु परमेष्ठी के चरण कमलों की मैं उनकी योग शक्ति-ध्यानक्षमता को प्राप्त करने के लिये स्तुति करता हूँ ।। २३-२४ ।। सम्यग्दर्शनादि गुणों से विभूषित तथा आगम में समर्थ मेरी शुभ सद्बुद्धि जिसके प्रसाव से कविता श्रादि के निर्माण में समर्थ हुई है, जो जिनेन्द्र भगवान् के मुखारविन्द से प्रकट हुई है, जगत् की माता स्वरूप है, उत्कृष्ट है तथा प्रज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाली है उस सरस्वती जिनवाणी की मैं उसके पक्ष की प्राप्ति के लिये स्तुति करता हूं ।। २५-२६ ।। जो समस्त तवों को प्रकाशित करने वाला है, तथा दुःखदायक पापों को नष्ट करने वाला है ऐसे जिनेन्द्र प्रस्पीत त्रिजगत्पूज्य जिनागम को मैं उसकी प्राप्ति के लिये वन्दना करता हूँ ॥२७॥ जो जैन शासन के माहात्म्य को प्रकट करने में तत्पर हैं, उत्कृष्ट हैं, महा कवि हैं, महर्षि हैं, द्वादशाङ्गरूपी समुद्र के पारगामी हैं, समस्त राजानों के द्वारा जिनके चरणों की स्तुति की जाती है तथा जो सबका हित करने वाले हैं ऐसे गौतम श्रादि गणधरों को मैं उनके गुण समूह की प्राप्ति के लिये मस्तक झुका कर बन्दना करता हूँ ।। २८- २६|| जिन्होंने पूर्व face क्षेत्र में जाकर सीमन्धर जिनेन्द्र को साक्षात् नमस्कार किया था उन हितकारी कुन्दकुन्दाचार्य को मैं शिर से नमस्कार करता हूँ ||३०|| जिनके वचन बोधों से रहित हैं, जो कवित्व आदि गुणों के सागर हैं, याद करने में निपुण हैं और धर्म में दृढ़ता उत्पन्न करने वाले हैं ऐसे श्री प्रकलङ्क स्वामी को नमस्कार करता हूँ ||३१|| जिनकी वारणी जगत में सब ओर से कल्याणरूप तथा समस्त लोगों का उपकार करने वाली है। उन समन्तभद्र
१. सरस्वती जिनवाणीं २. स्तुतचरणान् ३ तद्गुणसमूह प्राप्तिहेतवे ४. निर्दोषवताय ५. कल्याणकारिणी
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* प्रथम सर्ग * अन्ये ये जिनसे नाचार्यादयः कवयोऽखिलाः । वन्दित्तास्ते स्तुताः सन्तु कवित्वादिसिद्धये ।। ३३ ।। भूलोत्तरगुणः पूर्णान् द्विधा' सङ्गविवज्जितान् । समस्ताङ्गिहितोद्य तात् निग्रन्थान् गुणवारिधीन्। ३४। स्मराममृगसिंहाभान् गुरून् मुक्तिपथोद्यतान् । सार्द्धद्वीपट्टयोत्पन्नांस्तद्गुणाय स्तुवेऽनिशम् ।। ३५ ।। मङ्गलार्थ नमस्कृत्य जिनेन्द्रश्रुतसागरान् । स्वान्ययोरुपकाराय स्वशक्त्यातिसमासस: ।। ३६ ।। श्रीमसः पार्श्वनाथस्य सर्वानिष्टविनाशिनः । चरित्रं पावनं वक्ष्ये यथाम्नायं शुभाकरम् ।। ३७ ।। यदुक्तं प्राक्तनाचार्यः कृत्स्नसिद्धान्तपारगैः । कथं तद् भाषितु शक्यं स्वल्पमेधादिना मया ।।३।। तथापि तत्पदाम्भोजप्रणामाजितपुण्यतः । स्तोकसारं करिष्यामि तच्चरित्र मनोहरम् ॥३६।।
कथा प्रारम्भः अथ द्वीपोऽस्ति विस्थातो जम्बूवृक्षेण भूषितः । लमयोजन विस्तीर्णो जम्बूनाम्ना महान् शुभः ॥४०।। सुमेरु'- समुकुटश्चैत्यालय - कुण्डलमण्डितः । नदोहारोद्धराकायः कुलाद्रिभुजभृत्तमः ।। ४१ ।। कविराज की भक्तिभाव से वन्दना करता है ॥ ३२ ॥ जिनसेनाचार्य को प्रादि लेकर जो अन्य समस्त कवि हैं वे मेरे द्वारा वन्दित और स्तुत्य होते हुए मेरे कविस्व प्रावि गुरगों की सिद्धि के लिए हों ॥ ३३ ॥ जो मूल और उत्तर गुणों से परिपूर्ण हैं, अन्तरङ्ग बहिरङ्गदोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित है, समस्त जीवों के हित करने में उद्यत है निन्थ हैं, गुरणों के सागर हैं, काम तथा इन्द्रिय रूपी मृगों को नष्ट करने के लिये सिंह के समान हैं, मुक्ति के मार्ग में उद्यत हैं तथा अढ़ाई द्वीपों में उत्पन्न हुए हैं ऐसे समस्त गुरुपों को मैं उनके गुणों की प्राप्ति करने के लिए निरन्तर स्तुति करता हूँ ॥३४-३५॥ इस प्रकार मङ्गल के उद्देश्य को जिनेन्द्र देव तथा शास्त्रों के सागर स्वरूप गणधर देवों को निज और पर के उपकार के लिये अपनी शक्ति के अनुसार नमस्कार कर अत्यन्त संक्षेप से सर्व अरिष्ट निबारक श्रीमान् पार्श्वनाथ भगवान का वह पवित्र चरित्र कहूँगा जो अाम्नाय के अनुसार है तथा सब प्रकार के कल्याणों की खानरूप है ।।३६-३७।। समस्त सिद्धान्तों के पारगामी पूर्व प्राचार्यों के द्वारा जो चरित्र कहा गया है वह अत्यन्त अल्पबुद्धि के धारक मेरे द्वारा कैसे कहा जा सकता है ? ॥३८॥ तो भी उनके चरण कमलों को नमस्कार करने से ही संचित पुण्य के प्रभाव से मैं अल्पसार से मुक्त उनके मनोहर चरित्र को करूंगा ।।३६॥
कथा प्रारम्भ तदनन्तर जम्बूवृक्ष से सहित, एक लाख योजन विस्तृत, जम्बूद्वीप नाम का एक महान शुभ प्रख्यात देश है ॥४०॥ सुमेरु पर्वत हो जिसका मुकुट है, जो चैत्यालय रूपी १. बाह्याभ्यन्तरभेदान २. पल्पसार ३. सुमेरूपमुकुट महितः ४. चैत्याल गरूप कृण्डल विशोभिः ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरितम् * कल्पपादपसत्पादो भोगभूभोगभूषितः । लवणाम्बुधिसद्वस्त्रो ह्रदनाभिवृषाकरः ॥ ४२ ॥ खगभूपामरः सेव्यो देवीभिश्च सुखार्णवः । अनेकापचयसंयुक्तो महापुरुष भृतः ।।४३ ॥ विश्वातिशयसपूर्णो जम्बूद्वीपी विराजितः । मध्येऽसंख्यद्वीपानां यथा चक्री हि भूभुजाम् ॥४४।। सुदर्शनाभिधो मेरुस्तन्मध्ये भाति सुन्दरः । लक्षकयोजनोतुङ्गो जिनालयविभूषितः ।। ४५ ।। मेरोदक्षिण दिग्भागे भारतं क्षेत्रमुत्तमम् । सुधामिकजनैः पूर्ण बमो धर्माकरं परम् ।। ४६ ।। विस्तीर्ण योजनानां पञ्चशतैः षटकलाधिकैः। षविशतियुतस्तस्याच्चापाकारं मनोहरम् ।।४।। गङ्गा-सिन्धु-नदीम्यां च विजयानाति सुन्दरम् । षट्खण्डोभूतमाभाति तदार्यम्लेच्छसंकुलम् ।।४८|| पूर्वापरमहान द्यो रजताद्रिसमुद्रयोः । मध्ये धर्माकरं सारमार्यखण्डं विशोभते ।। ४६ ।। यत्रार्या व्रतमादाय काराति तपोऽसिना । हत्वा यान्ति च निर्वाणं केचिद् ग्रेवेयक दिवम् ।।५०॥ पात्रदानेन केचिच्च भोग भूमि सुखावनिम् । केचिदिन्द्रादिभूति च लभन्ते जिनपूजया ॥ ५१ ।। कुण्डलों से मण्डित है, जिसका शरीर नदीरूपी हार से उन्नत है, जो कुलाचल रूपी भुजानों को धारण करने वाला है, कल्पवृक्ष हो जिसके उत्तम चरण हैं, जो भोगभूमि के भोगों से विभूषित है, लवरण समुद्र ही जिसका उत्तम वस्त्र है, पद्म प्रादि सरोवर जिसकी नाभि है, जो धर्म की खान है, विद्याधर, राजा तथा देव और देवियों से सेवनीय है, सुखों का सागर है, अनेक प्राश्चर्यों से संयुक्त है, महापुरुषों से परिपूर्ण है और समस्त अतिशयों से युक्त है ऐसा जम्बूद्वीप प्रसंख्यात द्वीपों के मध्य में ऐसा सुशोभित हो रहा है जैसा राजाओं के बीच में चक्रवर्ती सुशोभित होता है ।।४१-४४॥ उस जम्बूद्वीप के मध्य में एक लाख योजन ऊचा तथा जिनालयों-प्रकृत्रिम सोलह चैत्यालयों से विभूषित सुदर्शन नाम का सुन्दर मेरु सुशोभित हो रहा है ॥४४॥ मेरु पर्वत के दक्षिण दिग्भाग में भरत नामका उसम क्षेत्र सुशोभित है। यह क्षेत्र अत्यन्त धार्मिक जनों से परिपूर्ण है तथा धर्म की उत्कृष्ट खान है ॥४६।। छह कला अधिक पांच सौ छब्बीस योजन विस्तृत है, धनुष के प्राकार है, मनोहर है, गङ्गा सिन्धु नदियों और विजयार्ध पर्वत के कारण उसके छह खण्ड हो गये हैं । उन खण्डों से वह अत्यन्त सुन्दर जान पड़ता है तथा एक आर्य और पांच म्लेच्छ खण्डों से युक्त है ।।४७-४८।। पूर्व पश्चिम महा नदियों तथा विजयाधं और समुद्र के बीच में धर्म की खान स्वरूप श्रेष्ठ प्रार्य खण्ड सुशोभित हो रहा है ।।४६॥ जिस प्रायं खण्ड में कितने ही आर्य पुरुष व्रत ग्रहण कर तपरूपो तलवार से कर्मरूपी शत्रुनों का धात कर निर्धारण को प्राप्त होते हैं और कितने ही नौ ग्रेवेयक तथा सोलह स्वर्गों में जाते हैं ।।५०॥ कोई पात्रदान के द्वारा सुख की खानस्वरूप भोगभूमि को प्राप्त होते हैं
१. धर्मखनिः।
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* प्रथमः सर्गः * शलाकापुरुषा यत्र जायन्ते श्रीजिनादयः । खेचरामरभूपालः सेव्यास्त्रिषष्टिसंख्यकाः ॥ ५२ ।। सुधाभुजो' यदीहन्ते यत्र जन्म शिवाप्तये । उच्चस्तरपदापत्य वा तस्य का वर्णना परा ।। ५३ ।। तन्मध्ये नाभिवद् भाति सुरम्यविषयो महान् । विश्वरम्यपदार्थानामाकरीभूत एव च ॥ ५४ ।। यत्र चैत्यालयोपेता ग्रामखेटपुरादयः । पुण्यद्भिर्धनाढयश्च विराजन्ते महोत्सवः ।। ५५ ।। वनानि शालिक्षेत्रागिण सफलानि बभुस्तराम् । मुनेत्तानि वा यत्र तर्पकारिण सतां सदा ।। ५६ ।। केवलज्ञानिनो यत्र विहरन्ति तपोधनाः । गणेशारे वेष्टिता: संघः सन्मार्गदेशनाय च ।। ५७ ।। साध्यते यदि चेसिद्धियंत्रोत्पन्न जगनु ता । रत्नत्रयेण धर्मश्च वर्णना तत्र कापरा ।। ५८ ।। तन्मध्ये पोदनामिख्यं पुरं देवपुरोपमम् । धन-धान्यादिकर्झनामाकर वा व्यभात्तराम् ।। १६ ।। परीणामतिदुर्लङ्घय तुङ्गशालेन तन्महत् । दीर्घस्वातिकया रम्यैर्गोपुरै रुन्नतंबंभी ।। ६० ।। यज्जिनालय' कूटाम्रध्वजस्तैः सुरेशिमाम् । मुक्तिस्त्रीसाधनायवाह्वयतीव तरा व्यभात् ।। ६१।। और कितने ही जिन पूजा के द्वारा इन्द्रादि की विभूति को प्राप्त करते हैं ॥५१॥ जिस आर्यखण्ड में विद्याधर देव तथा भूमिगोचरी राजाओं के द्वारा सेवनीय तीर्थकर आदि वेशठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं ।।५२।। जब देव भी मोक्ष प्राप्ति के लिये अथवा अत्यन्त उत्कृष्ट पद की प्राप्ति के निम्ति जहाँ अल्म लेने की इण्या करते हैं तब उसका और अधिक वर्णन क्या हो सकता है ? ॥५३॥
उस पार्यखण्ड के मध्य में नाभि के समान सुरम्य नामका महान देश सुशोभित है जो समस्त सुन्दर पदार्थों को मानों खान ही है ॥५४॥ जिस देश में चैत्यालयों से सहित ग्राम, खेट तथा नगर प्रादि पुण्यशाली धनाड्य जनों और बड़े बड़े उत्सवों से सुशोभित हो रहे हैं ॥५५॥ जहां फलों से सहित बाग बगीचे और धानों के खेत सत्पुरुषों को संतुष्ट करते हुए मुनियों के प्राचार के समान सदा सुशोभित रहते हैं ॥५६॥ जहां केवलज्ञानी, तपस्वी मुनि, और चतुविध संघ से वेष्टित गणधर सन्मार्ग का उपदेश देने के लिये विहार करते रहते हैं ॥५७।। जहां उत्पन्न हुए मनुष्यों के द्वारा जब जगद्वन्द्य मुक्ति और रत्नत्रय के द्वारा धर्म की साधना की जाती है तब यहां की महिमा का अन्य वर्णन क्या करना ॥५॥
उस सुरम्य देश के मध्य में पोवनपुर नामका नगर है जो स्वर्गपुरी के समान अथवा धन धान्यादिक सम्पदाओं की खान के समान अत्यन्त शोभायमान था ॥५६॥ वह महा नगर अपने ऊचे कोट से शत्रुओं के लिये अत्यन्त कठिनाई से लांघने योग्य था और विस्तृत परिखा तथा ऊचे और सुन्दर गोपुरों से सुशोभित हो रहा था ॥६०।। जो नगर जिन मन्दिरों की शिखरों के अग्रभाग पर फहराती हुई ध्वजा रूपी हाथों से ऐसा सुशोभित १. देवा. २. गणधराः ३. परिवृता: ४ स्वर्णनगरसदृशम् ५ यन् नगरम ६. जिनमन्दिशिखर। स्थितपताकापारिणभिः
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* श्री पार्श्वनाथ चरित * दानिनो पार्मिकाः शूरा प्रतशोलादिमण्डिताः । जिनभक्ता: सदाचार न्यायमार्गरता बुधाः।।६२।। धर्मकर्मकरा दक्षा वसन्ति यत्र सत्कुलाः । पुरुषास्तत्समा नार्यों रूपलावण्यभूषिताः ॥६३॥ पतिस्तस्य महीपालोऽरविन्द: ख्यातिपुण्यवान् । धर्म्यमार्गरतो धीमानभवन्नोतितत्परः ॥६४।। पिप्रियुस्तं समाश्रित्य प्रजापतिमिव' प्रजा: । भूपं सर्वहितोद्य क्तं न्यायमार्गविशारदम् ॥६५॥ स्वयं करोति यो धर्म जिनोक्तं प्रत्यहं यदि । मन्येषा कारयत्येव कान्या तस्यात्र वर्शना ।।६।। तन्मन्त्री विश्वभूत्याख्यो ब्राह्मणोऽनेकशास्त्रवित् । ब्राह्मण्यनुन्धरी तस्य प्रीत्यै श्रुतिरिवाभवत् ।।६७।। पत्री तयोरभूता विषामृलोकाना गयो । कमठो मरुभूत्याख्यः पापपुण्यावियापरी ॥६८।। कमठस्य प्रिया जाता वरुणा वरलक्षरणा । भार्याभून्मरुभूतेश्च दिव्यरूपा वसुन्धरा ।।६।। दक्षः शास्त्रवि चारज्ञो नीतिविन्यापमार्गगः । मरुभूतिरभूल्लोके ख्यातो राजप्रियो महान् ।।७०।। हो रहा था मानों मुक्ति रूपी स्त्री की साधना के लिये इन्द्रों को बुला हो रहा था ॥१॥ जहां ऐसे पुरुष निवास करते थे जो दानी थे, धर्मात्मा थे, शूर वीर थे, व्रत शील प्रादि से सुशोभित थे, जिन भक्त थे, सदाचारी थे, न्याय मार्ग में रत थे, ज्ञानी थे, धार्मिक कार्यों को करने वाले थे, चतुर थे और उच्च कुलीन थे। पुरषों के समान वहां की स्त्रियां भी रूप तथा सौन्दर्य प्रावि से विभूषित थीं ॥६२-६३॥
___उस पोदमपुर का स्वामी राजा अरविन्द था । वह अरविन्द प्रसिद्धि और पुण्य से युक्त था, धर्म मार्ग में रत था, बुद्धिमान था और नीति में तत्पर था ॥६४॥ सब जीवों के हित करने में उद्यत तथा न्यायमार्ग में निपुण उस राजा को पाकर प्रजा ऐसी प्रसन्न यो मानों प्रजापति ब्रह्मा को ही प्राप्त हुई हो ॥६५॥ जो राजा स्वयं ही प्रतिदिन जिनेन्द्र कथित धर्म को पालन करता है और दूसरों को पालन कराता है उसका और क्या वर्णन किया जाय ? ॥६६॥
अनेक शास्त्रों को जानने वाला विश्वभूति नामका बाह्मरण उसका मन्त्री था। अनुम्बरी नामकी ब्राह्मणी विश्वभूति की स्त्री थी जो श्रुति के समान उसकी प्रीति को बढ़ाती रहती थी ॥६७। उन दोनों के कमठ और मरुभूति नाम के दो पुत्र हुए जो विष पौर अमृत की उपमा को प्राप्त थे अथवा दूसरे पाप और पुण्य के समान जान पड़ते थे। भावार्थ-कमठ विष प्रथवा पाप के समान था और मरुभूति अमृत अथवा पुण्य के समान था ॥६८।। उत्तम लक्षणों से सहित घरुणा कमठ को स्त्री हुई और सुन्दररूप को धारण करने वाली बसुन्धरा मरुभूति की स्त्री हुई ॥६६।।
__मरुभूति अत्यन्त चतुर था, शास्त्र के विचार को जानने वाला था, नीति का ज्ञाता था, और न्यायमार्ग पर चलने वाला था, इसलिये वह लोक में प्रत्यन्त प्रसिद्ध था और १.ब्रह्माणमिव २. गरलपीयूष सादृश्य कमसो विषोपमः मरुभूतिम्चामृततुल्यः ।
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* प्रथम सर्ग *
अथकदा विलोक्याशु मस्तके पलितं' कचम् । राजमन्त्री ससंवेग प्राप्येदं चिन्तयेच दि । ७१ ।। अहो मे पुण्ययोगेन के ऽभू धर्मात रो महान् । पलितच्छमना केशोऽयं चारित्रविधायकः ।। ७२ ।। दग्धं जराग्निना देहं कुटीरं यत् क्षयप्रदम् । इसन्ति कि बुधास्तत्र धर्मादिवस्तुदाहिनि ।। ७३ ।। सन्तो गृहाश्रमे तावतिष्ठन्त्येव जरा शुभा । यावन्नायादहीवान प्राक्तना खादितु वरान् ।। ७४ ।। दृष्टयेव भगिनी मृत्योरा विश्वभयंकरीम् 1 प्रात्मकार्य न कुर्वन्ति ये यमास्ये' पतन्ति ते ।। ७५॥ इत्यादिचिन्तया प्राप संवेगं परमं तदा । विश्वभोगभवाङ्ग वु मन्त्री मन्त्रिपदादिषु ।। ७६ ।। मरुभूति ततो राज्ञः समर्प्य वल्लभं सुतम् । निधाय म्वपदे हित्त्वा गेहावासं व्यथाकरम् ।। ७७ ।। द्विधासङ्ग च नम्रन्थ्य पदं लोकत्रयानिमम् । मुक्तिश्रीजनक मन्त्री जग्राह मोक्षसिद्धये ॥४॥ मरुभूतिर्नुपस्यातिप्रियो भूत्वा गुगनिजे: । राजलोकजनानां च भुनक्ति' स्वपदं शुभात्" ।।७।।
राजा को भी बहुत प्रिय था ॥७०॥ तदनन्तर एक दिन राजमन्त्री विश्वभूति ने अपने मस्तक पर सफेद बाल देखा । उसे देख बह शीघ्र ही संवेग को प्राप्त होकर हृदय में यह विचार करने लगा ॥७१॥ अहो ! पुण्य योग से मेरे मस्तक पर सफेद बाल के छल से धर्म का बड़ा भारी अंकुर उत्पन्न हुआ है। यह केश चारित्र को उत्पन्न करने वाला है ॥७२।। जो शरीर रूपी कुटिया वृद्धावस्था रूपी अग्नि से दग्ध होकर मृत्यु को प्रदान करने वाली है, धर्मादि वस्तुओं को भस्म करने वाली उस शरीर रूपी कुटिया में क्या विवेकी जन निवास करते हैं ? अर्थात नहीं करते ।।७३॥ सत्पुरुष गृहाश्रम में तभी तक रहते हैं जब तक कि पूर्वभव की विरोधिनी सपिणी की तरह अशुभ वृद्धावस्था मनुष्यों को खाने के लिये नहीं पाती है। भावार्थ-वृद्धावस्था के पाते ही विवेकोजन गृहवास का परित्याग कर साधु दीक्षा धारण कर लेते हैं ॥७४।। यमराम की बहिन के समान सम जीवों का क्षय करने वाली वृद्धावस्था को देखकर जो मनुष्य प्रात्महित का कार्य नहीं करते हैं वे यमराज के मुख में पड़ते हैं ॥७५॥ इत्यादि विचार करने से मंत्री उस समय समस्त भोग, संसार, शरीर और मंत्री पद प्रादि के विषय में परम संवेग को प्राप्त हो गया ।।७६॥
___ तदनन्तर प्रिय पुत्र मरुभूति को राजा के लिये सौंपकर तथा उसे अपने पद पर नियुक्त कर मंत्री ने पीड़ा उत्पन्न करने वाले गहवास को छोड़ दिया । उसने दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग कर तीनों लोकों के अग्रभाग को प्राप्त कराने वाले और मुक्ति रूपी लक्ष्मी के जनक निग्रन्थ पद को मोक्ष की सिद्धि के लिये ग्रहण कर लिया अर्थात् मुनिदीक्षा ले ली ।।७७-७८॥ मरुभूति अपने गुरणों के द्वारा राजा तथा राज परिजनों का प्रत्यन्त
1. वाक्य- शुक्ल २, संसारा
३. मस्तके ४. मृत्यूप्रदन ५. मृत्यूमुखे ६. रक्षति ७. पुण्यात् ।
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१० ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित * प्रकदा नूपो मण्डलेश्वरस्योपरि द्रुतम् । वयवीर्याभिषस्यैव जगाम मन्त्रिणा समम् ।।८०॥ राजसिंहासने पश्चादुपविश्य निरशः । 'कमठोऽय व राज्य में' इत्यादिकवचोऽभरणत् ॥८॥ करोति पापपाकेन सोऽगम्पगमनादिकम् । लोकेऽतिदीर्घसंसारी पापात्मा पापकारकः ।।८।। रागान्धोऽप्येकदा दृष्ट्वा स्वभ्रातुभूषितां प्रियाम् । कामदाहाग्नितप्तोऽभूत्पीडितो मदनेषुभिः ।।८।। बने लतागृहे तं तद बना सोढुमक्षमम् । तत्सखः कलहंसाख्यो दृष्ट्वापृच्छत्प्रदुःखिनम् ।[८४१ हे मित्रेयमवस्था ते वत्तं तेऽत्राशुभा कुतः । स्वविकल्पं ततस्तेन सर्व प्रोक्तं व्यथाकरम् ।।८।। श्रुत्वा तवचनं निन्द्य प्राह तद्वोधकं वचः । सुहृत्त्वयेदमत्यन्तायोग्यनिन्द्य च चिन्तितम्॥८६॥ यतो मज्जन्ति ते पापाः परस्त्रीलम्पटा: शठा: । दुर्गत्यब्धी' नृपादाप्य यषा बन्धवधादिकम् ११८७।। कुर्वन्त्यालिङ्गनं येऽत्रान्यस्त्रियामाप्यधो गतौ । तनलोहाङ्गनाभिस्ते भजन्त्यालिङ्गन हठात् ।।८।। प्रिय होकर पुण्योदय से अपने पद की रक्षा करने लगा अथवा अपने पद का उपभोग करने लगा ॥७॥
तदनन्तर एक समय राजा, शीघ्रता से बचावीर्य मामफ मण्डलेश्वर के ऊपर मंत्री के साथ गया। भावार्थ-एक बार राजा अरविन्द ने बनवार्य भण्डलेश्वर के कपर अचानक चढाई कर दी। मंत्री मरुभूति भी राजा के साथ गया था॥०॥ राजा मोर मंत्री के चले जाने के पश्चात राज सिंहासन पर बैठकर कमठ निरंकुश-स्वच्छन्द हो गया और अब मेरा ही राज्य है' इत्यादि वचन कहने लगा ॥८॥ जिसका संसार बहुत भारी था, जो पाप को करने वाला था और जिसको आत्मा पाप से परिपूर्ण थी ऐसा कमठ पाप कर्म के उदय से लोक में अगम्यागमन प्रसेवनीय स्त्रियों का सेवन प्रावि कार्य करने लगा ॥२॥ रागान्ध हमठ, एक समय अपने भाई की स्त्री को अलंकृत देख कामरूपी अग्नि से संतप्त हो गया, कामवारणों से वह पीडित हो उठा ॥३॥ उस वेवना को सहन करने के लिये असमर्थ होकर यह बन के एक लतागृह में पड़ा हुआ था। उसे अत्यन्त दुःसीसकर उसके कलहंस नामक मित्र ने उससे पूछा ॥४॥हे मित्र ! यहां तुम्हारी यह अशुभ अवस्था किस कारण से हो रही है ? मित्र का प्रश्न सुन कमठ ने पीड़ा करने वाला अपना सब विकल्प उसके लिये कह विया ॥५॥ कमठ के निन्दनीय वचन सुनकर कलहंस मित्र ने उसे समझाने वाले वचन कहे। हे मित्र ! तुमने यह अत्यन्त प्रयोग्य और निन्दनीय विचार किया है। क्योंकि परस्त्रियों के लम्पट वे पापी मूर्ख, राजा से वष बन्धन प्रावि प्राप्त कर दुर्गति रूपी समुद्र में निमग्न होते हैं ।।८६-८७॥ जो मनुष्य इस लोक में अन्य स्त्रियों का प्रालि. मन करते हैं वै अधोगति-नरक में जाकर हठ पूर्वक कराये हुए संतप्त लोहाङ्गनाओं-तपाये १. दुगंतिसागरे २. मध्वा ।
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* प्रथम सर्ग *
[ ११
सर्वस्वहरणं चात्मनाशं ह्यत्रेव भूपतेः । परस्त्रिया शठा गोत्रकलङ्क प्राप्नुवन्त्यहो । ६६ ।। पररामाभिलाषेण महातो रावणादयः । यदि नष्टा गताः श्वभ्रं नश्यत्यन्यो न किं भुवि ॥ १० ॥ सर्वदुःखाकरं घोरं महत्पापं प्रजायते । महता ध्यशसा सार्द्धं परस्त्रीकालिरगा हृदा ।। ६१ ।। तस्याः पितृसमो ज्येष्ठो रे निर्लज्ज न लज्जसे । वाञ्छन् भ्रातृप्रियां तस्मात्त्यजेवं त्वं दुराग्रहम् ।। ६२ ।। अन्धस्य नर्तनं यद्वदोषधं च गतायुषः । हितं च जायते व्यर्थ रागिरणो धर्मभाषणम् ।।१३।। तद्वत्तद्वचनं सारं पापघ्नं धर्मसूचकम् । श्रनाचारापहं जातं व्यर्थं तत्पापतोऽखिलम् ।। ९४ ।। ततस्तद्वाक्यमाकर्ण्य जगी कामातुरो हि स । यदि तत्सेवनं न स्यात्तहि मे मरणम् । ६५ ।। सदाग्रह परिज्ञाय प्राप्य तां वक्ति सोऽप्यधीः । हे सुन्दरि वनेऽनिष्टं वर्तते कमठस्य हि ॥ ६६ ॥ तो याहि वनं शीघ्रं तच्छ्रुश्रूषादिहेतवे। तद्वचयां जानती सागात्कमठं प्रति तदुगिरा ।। ६७ ।। दृष्ट्वा सोऽभ्यन्तरीकृत्य तामनेकप्रजल्पनेः । सरागचेष्टितस्तत्र सिषेवे निन्द्यकर्मकृत् ॥ ६८ ॥
हुए लोहे की पुतलियों के श्रालिङ्गन को प्राप्त होते हैं ।। ६८ ।। पर स्त्री के कारण वर्तजन इसी लोक में राजा से सर्वस्वहरण, आत्मनाश-प्रारणदण्ड और वंश के अपवाद को प्राप्त होते हैं; यह प्राश्चर्य की बात है ॥ ८६ ॥ जब रावरण प्रावि बडे बडे पुरुष भी परस्त्री की प्रभिलाषा मात्र से नष्ट होकर नरक गये तब पृथिवी पर अन्य साधारण मनुष्य क्या नष्ट नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥६०॥ हृदय से परस्त्री की इच्छा रखने वाले के बड़े भारी प्रयश के साथ समस्त दुःखों की खान स्वरूप बहुत भारी भयंकर पाप होता है ॥ ६१ ॥ श्ररे निर्लज्ज ! तू उसका पिता तुल्य जेठ है भाई की स्त्री को चाहता हुआ तू लज्जित नहीं हो रहा है ? इसलिये तू इस दुराग्रह को छोड़ ॥ ६२ ॥
·
जिस प्रकार अन्य पुरुष के सामने नृत्य, क्षीण श्रायु वाले पुरुष को प्रदत प्रोषध और रागी मनुष्य को दिया हुआ हितकारी धर्म का उपवेश व्यर्थ होता है उसी प्रकार पाप को नष्ट करने वाले, धर्म के सूचक, और अनाचार को नष्ट करने वाले मित्र के सारपूर्ण समस्त बचन कमठ के पाप से व्यर्थ हो गये ।। ६३-६४ ।। तबमन्तर उसके वचन सुनकर काम से पीडित कमठ ने कहा कि यदि उसका सेवन नहीं होता है तो मेरा मरण निश्चित
आयमा ॥६५॥
उसका आग्रह जान दुर्बुद्धि कलहंस ने मरुभूति की स्त्री के पास आ कर कहा कि हे सुम्बरि ! वन में कमठ का अनिष्ट हो रहा है-वह बहुत अधिक प्रस्वस्थ है, अतः उसकी सेवा आदि के लिये शीघ्र ही बम को जाम्रो । उसकी वाणी से कमठ की पोडा को जानती हुई मरुभूति की स्त्री कमठ की घोर गई ।।६६-६७।। निन्द्य काम को करने वाले १. बा २ महता मयशसा इतिच्छेदः १. निर्बुद्धिः ।
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१२ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित * राजा शत्रु विनिजित्यागतश्च बुबुधे जनात् । समस्त तदनाचारं मरुभूतिविशेषतः ॥६६ ।। मरुभूति नृपोनाक्षीत्कमठस्य दुरात्मनः । को दण्डो दीयतेऽत्रे' दृम्बिधान्यायविधायिनः ।।१०।। व्यामोहेमावदत्सोऽपि देवास्यान्यायकारिणः । वारेककृतदोषस्य दण्डं मा देह्यनुग्रहात् ।।१०१।। भूपोऽवादीत्करिष्यामि निग्रहार्हस्थ२ निग्रहम् । अस्य मा कुरु खेदं त्वं गृहं गच्छाशु नीतिवित् ।।१०२।। इत्यादिवचनस्त संबोथ्य प्रेष्य गृहं द्रुतम् । विधाय बहुधा दण्डं गर्दभारोहणादिजम् ।।१०३।। राशा निर्घाटित:पापी स्वदेशात्कमठोऽधमः । महत्पापं नृणामत्राहो दद्यादुःष्करं फलम् ।।१०४।। अथ गत्याशु भूताद्रो मानभङ्गास्कुतापस: । भूत्वा कत्तपो लग्नः स शिलोद्धरणाभिधम् ।। १०५।। मन्त्री तबुद्धिमाकर्ण्य राजानं प्रत्युवाच स: । देव कुर्वस्तपो ह्यास्ते कमठः कष्टकारणम् ।। १०६।। गत्वाहं तं विलोक्याश्वागच्छामि प्राह भूपतिः । किं रूपं तसपः सोऽवोचद्भौतिकतपो हि तत् ।।१०७। कमठ ने उसे देखकर भीतर कर लिया और राम पूर्ण चेष्टानों सहित अनेक प्रकार के वार्तालाप से उसका सेवन किया ॥६॥
___ राजा प्ररविन्द शत्रु को जीत कर जब वापिस आया तब लोगों से उसने कमठ के सब अनाचारों को जाना तथा मरुभूति ने भी सब समाचार विशेष रूप से अवगत किया ॥६॥ राजा ने मरुभूति से पूछा कि यहां इस प्रकार का अन्याय करने करने वाले दुष्ट कमठ के लिये क्या सण्ड दिया जाय ? ॥१०॥ भ्रातृ स्नेह के कारण मरुभूति ने कहा कि हे देव ! यद्यपि यह अन्याय करने वाला है तथापि इसने एकबार ही अपराध किया है प्रतः कृपाकर इसे दण्ड न दीजिये ॥१०१॥ राजा ने कहा कि मैं निग्रह-दमन के योग्य इस कमठ का निग्रह-दमन अवश्य करूंगा । तुम स्वयं नीति को जानते हो, अतः खेब नहीं करो, शीघ्र ही घर जानो ॥१०२॥ इत्यावि वचनों से उसे समझा कर राजा ने शीघ्र ही घर मेज दिया और गधे पर चढ़ाना प्रादि नाना प्रकार का दण्ड देकर पापी-नीच कमठ को अपने देश से निकाल दिया। सो ठीक ही है क्योंकि महान पाप मनुष्यों को इसी लोक में कठिन फल दे देता है ॥१०३-१०४॥
तदनन्तर शीघ्र ही जाकर वह भूतादि नामक पर्वत पर मानभङ्ग के कारण खोटा तापसी हो गया और शिलोद्धरण नामक तप करने लगा अर्थात् दोनों हाथों से एक बड़ी शिला उठाकर तप करने लगा ॥१०५।। उसकी बुद्धि को सुनकर मंत्री मरुभूति ने राजा से कहा कि हे देव ! कमठ ऐसा तप करता हुआ स्थित है जो कि कष्ट का करण है ॥१०६॥ मैं उसे देखकर शीघ्र ही वापिस पा जाऊगा। राजा ने कहा कि उसका तप कैसा है ? मरभूति ने कहा कि वह तप निश्चित हो भौतिक तप है-कुतप है। राजा ने कहा-तब १.ईशान्यायकारिणः २.दण्डयोग्यस्य ३.दण्डम् ४.निष्कामितः ५.फठिन ६. बिलोप+प्राशु + मा.शामि. इनिच्छेद
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१४ ]
* भी पार्श्वनाथ चरित
मलिन दुरित हन्तारं सुकर्मक हेतु, जगति बुधशरण्यं विश्व 'कमंत्र मनम् । निहतकरणमारं बोधकं भव्यपुंसां, सकलविशदकीय संस्तुवे पार्श्वनाथम् ।।११७।।
afa मट्टारक श्री सकलकीर्ति विरचिते भोपावं चरिते मरुभूति भव-वर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ।
हो ! ऐसा जानकर कभी भी दुष्टजनों को संगति और सूढभाव को मत धारण करो ॥ ११६ ॥ जो समस्त पापों को नष्ट करने वाले हैं, समीचीन धर्म के श्रद्वितीय कारण हैं, जगत् में शानीजनों के शरणभूत हैं-रक्षक हैं, जिन्होंने समस्त कर्मों के समूह को नष्ट कर दिया है, इन्द्रियों तथा काम को मार भगाया है, जो भव्य पुरुषों को सम्यक् बोध के देने बाले हैं तथा सम्पूर्ण निर्मल कोति से युक्त हैं ऐसे पार्श्वनाथ भगवान की मैं अच्छी तरह स्तुति करता हूँ ।। ११७
इस प्रकार भट्टारक सक़त्लकीति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में मरभूति भब का बरपंत करने वाला प्रथम सगं समाप्त हुआ ।
१. गृहात २. नष्टेन्द्रियमं ।
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द्वितीय सर्ग.
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द्वितीय सर्गः श्रीपार्थ जिनपं वन्वे धर्मचक्रप्रवर्तकम् । सर्वशं विश्वभर्तारं कृत्स्नानर्थहरं चिदे ।। ।। विषये कुब्जकास्येऽथ विपुले सल्लकोयने । पुनिद्विपारिसंसेव्ये फलनम्रतरुबजे ॥२॥ मरुभूतिरभून्मृत्वा बज्रघोषाभिधो महान् । द्विपाधिपो' महाकाय प्रातध्यानफलेन सः ॥ ३ ॥ वरुणापि मृता तस्य करेगुरभवत्प्रिया । सस्नेहा साशुभा तुजा भार्या प्राक्कमठस्य या।।। कुत्वा राज्य कियत्कालं विलीनाभ्र निरीक्ष्य सः । काललब्ध्या नृपः प्राप्य वैराग्यमिति चिन्तयेत्।।५।। राज्यं रजोनिभं निन्य बहुवैरकरं भुवि ।कृत्स्नचिन्ताकरं पापमूलं क: पालयेत्सुधीः ॥ ६ ॥ बेश्येव चपला लक्ष्मी :प्राप्या बहुसेविता । प्राया चौरादि-क्षुद्रोधः श्वभ्रदा' मोहकारिणी।। पानवा बन्धनानि स्पु भार्या मोहखनी खला। विश्वपापाकरं सर्व कुटुम्ब धर्मनाशनम् ।।८।।
द्वितीय सर्ग जो धर्मचक्र के प्रवर्तक हैं, सर्वज्ञ हैं, सब के रक्षक हैं और समस्त प्रमों को हरने वाले श्री पप जिनेन्द्र जी जिसनका स्यात्सोपलब्धि के लिये वन्दना करता है ॥१॥
सदनन्तर कुब्जक देश में एक विशाल सल्लकीवन है। वह वन मुनि और सिंहों के द्वारा सेवनीय है अर्थात् उसमें या तो निर्भय मुनि विचरते हैं या दुष्ट सिंह निवास करते हैं तथा पक्षों के समूह फलों से नम्रीभूत हैं । मरुभूमि भर कर उसी वन में प्रात्त ध्यान के फलस्वरूप वज्रघोष नामका बहुत बड़ा महा शरीर का धारक हाथो हुभा ॥२-३॥ पूर्व भव में कमठ की जो वरुणा नाम की स्त्री थी वह भी मरकर इसी वन में हस्तिनी हुई। वही हस्तिनी शुभ, ऊंची तथा स्नेह से युक्त इस हायी की प्रिया हुई ॥४॥ राजा अरविन्द कितने ही समय तक राज्य कर एक दिन विलीन होते हुए मेघ को देखकर काललब्धियश वैराग्य को प्राप्त हो गये तथा ऐसा विचार करने लगे कि यह राज्य धूलि के समान निन्द्य है, पृथिवी पर अनेकों के साथ वैर कराने वाला है, समस्त चिन्ताओं को उत्पन्न करने वाला है और पाप की जड़ है, ऐसे राज्य को कौन बुद्धिमान् रक्षा करेगा? अर्थात् कोई नहीं ॥५-६॥ लक्ष्मी धेश्या के समान चंचल है, कठिनाई से प्राप्त होने योग्य है, बहजन सेक्ति है, चोर मावि शुद्रजीवों के समूह के द्वारा प्रार्थनीय है अर्थात वे सदा इसको बांछा करते रहते हैं, नरक को देने वाली है और मोह को उत्पन्न करती है ।।७॥ भाई-बान्धव बन्धन स्वरूप है, स्त्री मोह की खान तथा दुष्ट स्वभाव वाली है, तथा समस्त कुटुम्ब परिवार
१. गजराज:२. विलीनमेषं ३. नरकप्रदा।
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* श्री पाश्वनाथ चरित - कृत्स्नदुःखाकरीभूत ससारं शर्मदूरगम् । भ्रमन्येवाङ्गिनोऽनादि धर्महीनाः कुकर्मणा ।।।। क्षुतट्रोगाग्निसंतप्ते क्लिष्टे कायकुटीरके । सर्वाशुच्याकरे निन्द्य को विघते रतिं सुधीः ।।१०।। भुजङ्गसदृशान् भोगा नतृप्तिजनकान् स्खलान् । एनोऽब्धीन् ' दुःखजान् दुःखकरान् कः सेवसे सुधी।११ यावदायुनं क्षीयेत यावन्न ढोकते' जरा । पटूनि यावदक्षारिण तावधर्म ज्यधुर्बुधाः ।।१२।। इत्यादिचिन्तनेनाशु संवेग द्विगुरण नृपः : सार बहमानमवादिषु ।।१३।। ततस्त्यक्त्वाखिलं राज्यं सता त्याज्यं तृणदिवत् । आददे संयम देवदुर्लभं स सुखाएंवम् ।।१४।। द्विषड्भेदं तपः कुर्याद् ध्यानाध्ययनमन्वहम् । व्युत्सर्गे निष्धमादेन कर्महान्ये च सम्मुनिः ॥१५॥ प्रर्थकदा बमे गच्छन् सम्मेदादि प्रवन्दितुम् । साद्धं सार्थेन भक्त्यै स ईर्यापथस्थलोचनः ।।१६।। संदधे प्रतिमायोग स्ववेलायां सुदुष्करम् । भूत्वा काष्ठोपमोऽने करौद्रसत्वसमाकुले ||१७॥ सब पापों को खान और धर्म को नष्ट करने वाला है । यह संसार समस्त दुःखों की खान स्वरूप है तथा सुख से दूर है । धर्महीन प्रारणो अपने कुत्सित फर्म के कारण इस अनादि संसार में निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥६॥जो भुधा, तृषा तथा रोगरूपी अग्नि से संतप्त है, संक्लेशमय है, समस्त अपवित्र पदार्थों की खान है तथा निन्दनीय है ऐसे शरीर रूपी कुटीर-छोटीसी झोपड़ी में कौन बुद्धिमान मनुष्य राग करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥१०॥ जो सापों के समान हैं, अतृप्ति को उत्पन्न करने वाले हैं, दुष्ट हैं, पाप के सागर हैं, दुःख से उत्पन्न होते हैं, और दुःखों को उत्पन्न करते हैं ऐसे भोगों का कौन बुद्धिमान सेवन करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥ ११ ॥ जब तक प्रायु क्षीण नहीं हुई है, जब तक जरावृद्धावस्था नहीं पाई है और जब तक इन्द्रियां अपना काम करने में समर्थ है तब तक बुद्धिमान मनुष्यों को धर्म कर लेना चाहिये ॥१२॥ इत्यादि विचार से राजा शीघ्र ही शरीर, भोग तथा संसार आदि के विषय में स्वर्ग तथा मोक्ष को करने वाले दुगुने वैराग्य को प्राप्त हो गया ॥१३॥
___तदनन्तर सत्पुरुषों के छोड़ने योग्य समस्त राज्य को तृणादि के समान छोड़ कर राजा अरविन्द ने बेव-दुर्लभ तथा सुख के सागर स्वरूप संयम को ग्रहण कर लिया अर्थात् मुनि दीक्षा ले ली ॥१४॥ वे उत्तम मुनि कर्मों का क्षय करने के लिये प्रमाद रहित होकर प्रतिदिन बारह प्रकार के तप, ध्यान, अध्ययन और कायोत्सर्ग करने लगे ॥१५॥
तदनन्सर एक समय वह मुनिराज गमन के मार्ग पर अपने नेत्रों को स्थापित करते हुए-ईर्यासमिति से चलते हुए, भक्तिवश सम्मेद शिखर की वन्दना करने के लिये एक बड़े संघ के साथ उस सल्लको वन में पहुंचे। अनेक दुष्टजीवों से भरे हुए उस वन में उन्होंने
१ पापसागरान् २.पागच्छति ३ द्वादशमिषं ४. प्रतिदिनम ।
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* द्वितीय सर्ग * स्वप्रतिज्ञापरा धोरा मनागपि मनस्विनः । नोल्लङ्घन्ते नियोगं स्वं प्राणान्तेऽपि कदाचन।।१८|| तं विलोक्य महानागस्त्रिधात्र तमदोदतः । हन्तुं समुद्यतस्तस्य त्यक्तकायस्य सन्मुनेः ।।१६॥ वीक्ष्य वक्षःस्थले मा झु साक्षाच्छीवत्सलाञ्छनम् । स्वपूर्वभव सम्बन्धं प्रत्यक्षीफुल्य मानसे ॥२०॥ तिर्यग्गतिकरं कर्म स्वं विनिन्द्य पुरातनम् । तस्मिन् प्राक्तनसुस्नेहान्मुनिपादौ नमाम सः।।२१। तत्क्षणं पूर्ण योगे तु मुनिना प्रोक्तो गजाधिपः । हे भद्र श्रृणु मे बाणी धर्मरत्नखनी पराम् ।।२२॥ प्रात्त ध्यानाजिताधेन विना धम च मायया । बभूविथात्र मन्त्री त्वं पराधीनो गजोऽवकृत् ।।२।। प्रचापि ऋ रतां किं न जहास्येवाघकारिणीम् । अहिसालक्षणं धर्म किन्न गृह्णासि संप्रति ॥२४॥ अतो धम्मं विनोद्ध ध्रुवं त्वां कोऽपि न क्षमः । सुरेन्द्रो वा नरेन्द्रोऽत्र दुर्गतेद् खसन्ततेः ।।२।। तस्माद्धर्म यहागा स्वः सर्वदुःखवनानलम् । मुखार्गवं गृहस्थानां जिनेन्द्रोक्त दयामयम् ।।२६।। ध्यान के समय काठ के समान निश्चल होकर अतिशय कठिन प्रतिमा योग धारण कर लिया ।।१६-१७॥ यह ठोक ही है। क्योंकि अपनी प्रतिज्ञा में तत्पर रहने वाले धीर वीर मनस्वी मनुष्य प्राणान्त होने पर भी कदाचित् अपने नियम का थोड़ा भी उल्लखन नहीं करते हैं ॥१८॥ उन्हें देखकर जो तीन प्रकार से करते हुए मद के द्वारा उक्त हो रहा या ऐसा वह हाथी कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित उन मुनिराज का घात करने के लिये उद्यत हो गया ।।१६।। परन्तु उन मुनिराज के वक्षस्थल पर जो साक्षात् श्रीवत्स का बिल था उसे शोघ्र ही देखकर उस हाथी के मनमें प्रत्यक्ष हो गया कि इनके साथ तो हमारा पूर्वभव का सम्बन्ध है । उसी समय उस हाथी ने तियंञ्चगति का बन्ध कराने वाले अपने पूर्षकर्म की निन्दा की और उन मुनिराज पर अपने पूर्वभव का स्नेह होने से वह उनके चरणों में नम्रीभूत हो गया-उसने उन्हें नमस्कार किया ॥२०-२१॥
उसी क्षण ध्यान पूर्ण होने पर मुनिराज ने गजराज से कहा कि हे भद्र ! तू धर्म रूपी रत्न को खानस्वरूप मेरी उत्कृष्ट वाणी सुन ।। २२ ।। तू मेरा मन्त्री मरुभूति है। प्रार्तध्यान से अजित पाप के कारण तूने धर्म का आचरण नहीं किया इसलिये माया से तू यहां पाप को करने वाला पराधीन हाथी हुया है ॥ २३ ।। तू अब भी पाप को करने वाली करता को क्यों नहीं छोड़ रहा है, और इस समय अहिसा लक्षरण धर्म को क्यों नहीं ग्रहण कर रहा है ? ॥ २४ ॥ कि यह निश्चित है कि इस संसार में धर्म के बिना बाहे इन्द्र हो, चाहे नरेन्द्र, दुर्गति सम्बन्धी दुःखों को सन्तति से तेरा उद्धार करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है इसलिये तू समस्त दुःख रूपी बन को भस्म करने के लिये अग्नि के समान, सुखों के सागर, जिनेन्द्रोक्त, दयामय गृहस्थ धर्म को ग्रहण कर ॥२५-२६।।
१. कतकायोत्मगंस्य २. शीघ्रम् ।
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* श्री पाश्र्वनाथ चरित #
श्रुत्वा
तद्वाक्यमेवासी
धर्मकर्मनिबन्धनम् । सद्धर्म कांश्रयात्राघात्तस्पादाब्जे निजं शिरः ||२७|| तस्रो जगौ मुनिर्वाचं धर्मसद्भावसूचिकाम् । गजाधीश शृणु त्वं ते वक्ष्ये सामारिणां वृषम् ||२८|| शङ्कादिवशेषनिर्मुक्तं गुणाष्टक - विभूषितम् । दर्शनं प्रथमं धार्य सोपानं मुक्तिधामनि ॥ २६ ॥ श्रद्धानं सप्ततरवाना तोर्थशागमयोगिनाम् । क्रियते यत्र निःसन्देह तत्सम्यक्त्वमुच्यते ||३०|| महंतो नापो देवो दयाभावात्र सद्वृषः । निन्यान्न गुरुज्येष्ठ एतत्सम्यक्त्व कारणम् ॥१३१६६ मच मासं मधु त्याज्यं सहोदुम्बरपञ्चकैः । दृग्गुणैः व्यसनंः सार्धं सदाद्य-प्रतिमाप्तये ।। ३२ । अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिघासारं गुरुव्रतम् । शिक्षावतानि चत्वारि हीति द्वादश-सवताः ॥३३॥ सामायिक विधातव्यं काले काले वृषाकरम् । कर्मारण्यानलः कार्यः प्रोषधः सर्वपर्वसु ॥३४॥
वस्तुस्त्या गचतुराहार--- वर्जनम् | रात्री च नवधा सारं ब्रह्मचर्यं सुखाकरम् ||३५||
१५ ]
धर्म कर्म के कारणभूत मुनिराज के उन वचनों को सुनकर हाथी ने समीचीन धर्म की इच्छा से अपना मस्तक उनके चरणकमलों पर रख दिया ॥ २७॥ तदनन्तर मुनिराज ने धर्म के सद्भाव को सूचित करने वाले वचन कहे हे गजराज ! तू सुन, मैं तुझे गृहस्थों का धर्म करूँगा ।। २८ ।। सबसे पहले शङ्का प्रादि प्राठ दोषों से रहित तथा संवेग श्रादि आठ गुणों से सुशोभित, मोक्षमहल को पहली सीढी के समान सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिये ||२६|| सात तत्त्वों तथा प्राप्त, श्रागम और निर्ग्रन्थ गुरुयों का जिसमें निःसन्देह श्रद्धा किया जाता है वह सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहलाता है ।। ३० ।। प्रर्हन्त से बढ़कर दूसरा वेव नहीं है, क्याभाव से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है, और निर्ग्रन्थ से बढ़कर श्रेष्ठ गुरु नहीं है । यह तीनों ही सम्यक्त्व के कारण हैं ।। ३१ ।। गृहस्थ धर्म की ग्यारह प्रतिमाएँ हैं उनमें से प्रथम प्रतिमा की प्राप्ति हेतु जीवन पर्यन्त के लिये सात व्यसन तथा पांच उदुम्बर फलों के साथ मद्य, मांस और मधु का त्याग करना चाहिये तथा मूलगुणों के साथ सम्यग्दर्शन को धारण करना चाहिये। यह पहली दर्शन प्रतिमा है ||३२|| तदनन्तर पांच
व्रत, तीन प्रकार के श्रेष्ठ गुरणव्रत और चार शिक्षावत, इस प्रकार बारह व्रत धारण करना चाहिये । यह दूसरी व्रत प्रतिमा है ।। ३३ ।। पश्चात् समय समय पर अर्थात् तीनों संध्याओं में धर्म की खान स्वरूप सामायिक करना चाहिये। यह तृतीय सामायिक प्रतिमा है। फिर समस्त पर्वों में प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन कर्मरूपी वन को भस्म करने के लिये अग्निस्वरूप प्रोषध करना चाहिये। यह चतुर्थ प्रोषध प्रतिमा है ||३४|| तदनन्तर afer वस्तुओं का त्याग करना चाहिये । यह पञ्चम सचित्त त्याग प्रतिमा है । फिर रात्रि में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिये । यह
९. घर्मम् २. संदेश सिओ शिटा गहा य उवसमो भत्ती ।
बच्छरलं प्रयुकंपा प्रट्टगुणान्ति सम्मत्ते ( वसुनन्दि श्रावकाचार }
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__* द्वितीय सर्ग *
[ १९ गृहारम्भोऽखिलो हेय: समस्तैनी निबम्धनम् । लोभं हत्वा विमा वस्त्रं परिग्रह-विवर्जनम् ।।३।। सावधानुमतिः कृत्स्ना न कार्या जातु सिद्धये । हालाहलमिवोद्दिष्टाहारं ग्राह्य न पापदम् ।।३७।। एता यः प्रतिमा धीमानेकादश प्रपालयेत् । प्राप्य षोडशक नाक' क्रमायाति शिवालयम् ।।३।। मुनेक्यिामृतं पीत्वा हत्वा दुःखाघदुविषम् 1 जग्राह काललब्ध्याशु त्रिशुद्धपानन्दनिर्भरम् ॥३६॥ निखिलानि व्रतान्येय योग्यामि सहनाम् . उपाध-गाला नत्वा तत्पादपङ्कजम् ॥४.।। तदा प्रभृति नागेन्द्रो भग्नशाखाः परैगंजः । तृणान्यत्त्यतिशुष्काणि पाण्यघभयात्सदा ।।४।। उपलास्फालनाक्षेपद्विप-संघातट्टितम् ।पारणे स निराहारस्तोयं पिवति शुद्धधीः ।।४२।। षष्दाष्टमादिना नित्यं करोत्येवानघं तपः । प्राक्तनाशुभ-हान्यं स संवेगान्वित्त-मानसः ।।४३।। छठवीं रात्रि मोजन त्याग प्रतिमा है। पश्चात् नौ कोटियों----मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदमा से श्रेष्ठ तथा सुखदेव को खान स्वरूप ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये। यह सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है ॥ ३५ ॥ पाचाद समस्त पापों का कारण सब प्रकार का गृह सम्बन्धी प्रारम्भ छोड़ना चाहिये । यह अष्टम प्रारम्भ त्याग प्रतिमा है । फिर लोभ को नष्ट कर उपयोगी वस्त्र के बिना समस्त परिग्रह का त्याग करना चाहिये । यह नोषों परिग्रहत्याग प्रतिमा है ॥३६।। तदनन्तर मुक्ति प्राप्त करने के लिये सब सकार के सावध सपाप कार्यों की अनुमति नहीं करना चाहिये । यह बशवों प्रनुमति त्याग प्रतिमा है, और पश्चात् हालाहल विष के समान पाप को देने वाला उद्दिष्ट आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये । यह उद्दिष्ट त्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा है ॥३७॥ जो बुद्धिमान मनुष्य इन ग्यारह प्रतिमानों का पालन करता है वह सोलहवें स्वर्ग तक जाकर क्रम से मोक्ष प्राप्त होता है ॥३॥
मुनिराज के वचन रूपी अमृत को पीकर तथा दुःखदायक पापरूपी दुष्ट विष को नष्टकर उस हाथी ने काल लब्धि से शोन ही आनन्द से परिपूर्ण हो मन वचन काय की शुद्धि पूर्वक अपने योग्य श्रावकों के समस्त व्रत ग्रहण किये। उसने यह व्रत धर्मबुद्धि से पापों का विधात करने के लिये मुनिराज के चरण कमलों को नमस्कार कर ग्रहण किये थे ।।३६-४०॥ उस समय से वह गजराज पाप के भय से, दूसरे हाथियों के द्वारा तोड़ो हुई वृक्ष की शाखानों तथा सूखे तृण और पत्तों को खाने लगा ॥४१।। शुद्ध बुद्धि से युक्त वह हाथी उपवास के दिन निराहार रहता और पारणा के दिन भदभदा से पड़े हुए तथा हाथियों के संघात से घट्टित प्रामुक जल को पीता था।।४२।। जिसका चित्त संसार सम्बन्धी भय से युक्त है ऐसा वह हाथी पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों की निर्जरा के लिये वेला तेला आदि
१ समस्तपापकारता भूतम् २. सपाएकार्यानुमतिः
३. स्वर्ग ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित * जातु वाधां विधत्ते नो द्वीन्द्रियाखिलाङ्गिनाम् । कृत्स्नसत्त्वदयालीन एनोभीतो' व्रताप्तये ।।४४।। तृणादीनि परेषां न क्वचिद् गृह्णाति धर्मभाक् । त्रिशुद्धया पालयत्वेव ब्रह्मयं स्वसिद्धये ।।४।। स्ववीर्य प्रकटीकृत्य चिरं कुर्वस्तपो महत् । संवेगेनाभवद्धस्ती क्षीणदेहपराक्रमः ॥४६॥ कदाचित्पातुमायातो वेगवत्या लदै जलम् । क्षीरगातिान:शक्ताऽपतज्जीवदयापरः ।।४७।। पङ्क क्षिप्तः समुत्थातु विहितेहोऽप्यशक्तवान् । संन्यासमाददे धीमांस्तत्क्षरगं सिद्धिलब्धये ।।४।। ध्यायन हृदि जिनाधीशं तपो धर्म च सद्गुरून् । पाराधना: स्वधैर्येण धर्मध्यान-परायणः ।। ४६।। मृत्वाथ कमठः पापी कुकुटाहिर्बभूवः सः । ऋ रोऽतिदारुणः पापादने तत्र भयंकरः ।।५।। व्रजता तेन सर्पण पूर्वरोदयात्तदा । कोपातुरेण दष्टोऽसौ गजो धर्मपरायण: ॥५१:। तद्विषोत्पन्नदाहेन त्यक्त्वा प्राणान समाधिना ।महत्या क्षमया धर्मव्रतसंन्यासपातः ।।५२||
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के द्वारा निरन्तर निर्दोष तप करता था ॥४३॥ो समस्त जीवों की क्या में लीन रहता था तथा पाप से भयभीत था ऐसा वह हाथी व्रत की प्राप्ति के लिये कभी भी द्वीन्द्रियादि समस्त जीवों को बाधा नहीं करता था ।।४४॥ धर्म को धारण करने वाला वह हाथी कहीं भी दूसरों के तृण आदि को ग्रहण नहीं करता था और प्रात्मसिद्धि के लिये त्रिशुद्धि पूर्वक नियम से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता था ॥४५॥ संवेग-संसार भ्रमण के भय से अपने वीर्य को प्रकट कर वह हाथी चिरकाल तक महान तप करता रहा, जिससे उसके शरीर का पराक्रम क्षीण हो गया ॥४६॥
___ जिसका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है तथा जो अत्यन्त शक्तिहीन हो चुका है ऐसा जीव दया में तत्पर रहने वाला वह हाथी किसी समय वेगवती नदी के हर में पानी पीने के लिये प्राया और वहां गिर पड़ा ॥ ४७ ॥ वहां की कीचड़ में बह ऐसा गिरा कि प्रयत्न करने पर भी उठने के लिये समर्थ नहीं हो सका। अन्त में उस बुद्धिमान ने सिद्धि प्राप्ति के लिये उसी क्षण संन्यास ले लिया अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिये पाहार पानी का त्याग कर दिया ॥४८॥ वह हृदय में जिनेन्द्र देव, तपश्चरण, धर्म और सद्गुरुत्रों का ध्यान करता हुआ चार आराधनाओं की आराधना करने लगा तथा अपने धैर्य से धर्मध्यान में तत्पर हो गया ||४६॥
तदनन्तर पापी कमठ अपने पाप से मर कर उसी वन में क्रूर परिणामी, अत्यन्त कठोर और भयकर कुर्कुट सर्प हुमा ।।५०।। उस समय वह सर्प वहीं से जा रहा था। पूर्व वैर के उवय से क्रोषातुर उस सर्प ने धHध्यान में तत्पर उस हाथी को डस लिया ।।५१॥ उसके विष से उत्पन्न दाह के कारण उसने समाधिपूर्वक प्रारण छोड़े और बहुत भारी क्षमा,
१. पापभीत: २. विहितोद्यापि ३. कुकुंटसर्पः, उयमशील। सर्पविशेषः ।
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* द्वितीय सर्ग *
[ २१ प्रभूतत्कल्पे सहस्रारे नति-परिमपिते । स्वयंपभविमाने शशिप्रभो निर्जरो महान् 1१५३।। . परिझायावधिज्ञानात् प्राग्भवव्रतगं' फलम् । धर्म च शासने हनभावोऽमरोऽभवत् ।। ५४।। तत्रत्यचैत्य-गेहेषु महापूजां चकार सः । जिनाचाणा शिवापातिभक्त्यादी दिव्यपूजया ।५५। मेरुनन्दीश्वरादौ स करोति यजनं परम् । कृत्रिमाकृत्रिमाणां स्वर्गजेश्वारुवस्तुभिः ।।५६।। कुर्यात् केवलिनी सिद्ध तीर्थेशां च महामहम् । कल्याणे दिव्यसामग्या स्वपरीवारमण्डितः । ५७ इत्यादि विविधं पुण्यं विश्वाम्मृदयसाधनम् । तनोति संततं मुक्त्यं देवोऽने कद्धिभूषितः ।।५८।। देवीनिकरसंभूतैर्नतनैश्च मनोहरैः । गीतमधुरैः क्रीडनविनोदेस्तु जल्पनैः ।।५६ ।। शृङ्गारालोकनैरप्सरसा भुक्ति प्रत्यहम् । सुखं रामादिभिः साद्ध दिव्यं स स्ववृषापितम्। ६० । करोति विविधा क्रीडां कीडाद्रो मन्दरेषु च । स्वेच्छयामा' स्वदेवीभिः सोऽसंख्यद्वीपवाधिषु । ८१ षोडशाब्धि प्रमाणायु प्राप्तकामसुलो महान् । देवीना शब्दमात्रेण मार्द्ध त्रयकरन्नतिः ।। ६२।। धर्म, व्रत तथा संन्यास के फलस्वरूप वह सहलार स्वर्ग के अनेक ऋद्धियों-संपदानों से सुशोभित स्वयप्रभ विमान में शशिप्रभ नामका महान देव हुा ।।५२-५३॥ अवधिज्ञान से छह देव, इसे पूर्वभव सम्बन्धी प्रत मे उत्पन्न फल जानकर धर्म और जिनशासन में हड श्रद्धानी हो गया ॥५४॥ उसने सर्व प्रथम कल्याण प्राप्ति के लिये वहां के चंत्यालयों में विद्यमान जिन प्रतिमानों की भक्तिपूर्वक उत्तम सामग्री से महा पूजा की ॥५५।। तदनन्तर सुमेरु पर्वत और नन्दीश्वर द्वीप आदि में विद्यमान कृत्रिम प्रकृत्रिम प्रतिमाओं को स्वर्ग में उत्पन्न हुए उत्तम द्रव्यों से उत्कृष्ट पूजन की ॥५६॥ वह अपने परिवार से सुशोभित होता हुआ सिद्धि प्राप्ति के लिये कल्याएको के समय सामान्य केलियों तथा तीर्थंकरों की, दिव्य सामग्री से महामह पूजा करता था ॥५७।। इस प्रकार अनेक ऋद्धियों से विभूषित वह देव, मुक्ति प्राप्ति के लिये निरन्तर समस्त अभ्युदयों के साधन स्वरूप नाना प्रकार वे पुण्य को करता था ॥५६॥ देवियों के समूह से उत्पन्न मनोहर नृत्यों, मधुर संगीतों, उत्तम क्रीडानों, विनोदपूर्ण वार्तालापों तथा अप्सरामों के शृङ्गार पूर्ण प्रबलोकनों से वह देव प्रतिदिन देवाङ्गनाओं के साथ, अपने धर्म के द्वारा प्राप्त हुए दिव्य सुख का उपभोग करता था ॥५६-६०॥ वह क्रीडाचल, मन्दरगिरि और असंख्यात द्वीप समुद्रों में अपनी देवियों के साथ इच्छानुसार नाना प्रकार की क्रीडा करता था ॥६१॥ उसको प्रायु सोलह सागर प्रमाण थी, उसे देवियों के शब्द सुनने मात्र से काम का सुख प्राप्त होता था, वह महान् उत्कृष्ट था, साढ़े तीन हाथ ऊंचाई वाला था, परिणमा आदि पाठ गुणों के ऐश्वर्य से १. प्राक्तनप यकृतश्रतोद्ध तं २. जिनप्रतिमाना ३. पूजनं ८. महाराजाम ५. गर्भादिकल्याणकेषु धर्मापिनं । ७. सदर पोडा नागरमितायुक ।
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२२ ]
* श्री पाश्वनाथ चरित * मणिमादिगुणाटेश्वर्यादयविक्रियदेहभाफ । छायातिगातिदिव्याङ्गकान्त्या दीप्त्या व्यभासराम् ।६३॥ द्वयष्टवर्षसहस्र' गते पाहार सुधामयम् । मक्षितृप्तिदं दिव्यं भुनक्ति मनसा सुरः ।।६४।।
यष्टपक्षगते हच्छ वासंमनाम् लभतेऽमरः । सुगन्धीकृत्य दिग्भाग जराक्लेशरुजातिगः ।।६।। चतुर्थावनिपर्यन्तावधिज्ञानाखिलार्थवित् । तत्समानमहा-विकिद्धिभूषितकायभाक ।।६६।। क्वचिन्नृत्यं क्वचिद्गीतं क्वचित्पूजां क्वचिद् वृषम् । भजन्मग्नोऽतिशर्मान्धौ' गतं कालं न वेति स: ।६७ सोऽप कुकुंटसोऽतिपापभारेण पापधीः । धूमप्रभाभिधश्वभ्र सागरे मग्न एव हि ॥६८।। छेदन भेदनं शूलारोहणं च विदारणम् । ताडनं मारणं घोरं बन्धनञ्च कदर्थनम् ॥६९।। शारीरं मानसं तीब्रदुःखं वाचामगोचरम् । क्षेत्रोत्पन्नं महारोगजातं च विक्रियोद्भवम् ।।७०।। सतततलनिक्षेपं वैतरण्या प्रमज्जनम् । इत्यादि विविधा पीडां नारकेभ्यः क्षरणं क्षणम् ।।७।। हिसाजितपापौधफलारस लभते चिरम् ।प्रशरण्यो बलात्तत्र नारको दीनमानसः ।।७२।। प्राधयन् शरणं तत्र गच्छन्मूच्छा मुहुर्मुहुः । कदय॑मानएवास्ते नारको नारकैः सदा ।।३।। युक्त वैक्रियिक शरीर से सहित था तथा छाया से रहित दिव्य शरीर की कान्ति और दोप्ति से अत्यन्त शोभायमान था ॥६२-६३॥ वह देव सोलह हजार वर्ष बीत जाने पर समस्त इन्द्रियों को तृप्ति देने वाला अमृतमय मानसिक पाहार ग्रहण करता था ॥६४॥ वृद्धायस्था सम्बन्धी क्लेश और रोगों से रहित वह देव, सोलह पक्ष व्यतीत होने पर विशानों को सुगन्धित कर थोड़ा श्वासोच्छ्वास ग्रहण करता या ॥६५॥ वह अवधिज्ञान के द्वारा चतुर्थ पृथिवी तक के समस्त पदार्थों को जानता था और उतनी ही दूर तक को विक्रिया ऋद्धि से विभूषित शरीर से युक्त भा ॥६६॥ सुखरूपी विशाल सागर में मग्न रहने वाला यह देय, कहीं नृत्य, कहीं गान, कहों पूजा, और कहीं धर्म-चर्चा को प्राप्त होता हुआ व्यतीत हुए काल को नहीं जान सका ।।६७।।
तदनन्तर पापरूप बुद्धि से युक्त यह कुकुट सर्प तीव्र पाप के भार से धूमप्रभा नामक नरक रूपी सागर में जाकर निमग्न हो गया अर्थात् मरकर पांचवें नरक गया ॥६७॥ वहां वह हिंसा प्रादि कार्यों से उपाजित पाप समूह के फलस्वरूप छेदा जाना, भेदा जाना, शूली पर चढ़ाया जाना, विदारण किया जाना, ताडन, मारण, भयंकर बन्धन, तथा पीडन प्रादि शारीरिक, वचनों के अगोचर तीक मानसिक, क्षेत्र से उत्पन्न, महा रोगों से उत्पन्न, विक्रिया से उत्पन्न, संतप्त लेल में डाला जाना, और वैतरणी में डुबाया जाना, इत्यादि नाना पीड़ानों को नारकियों से चिरकाल तक प्रत्येक क्षण प्राप्त करता रहा । यह सब दुःख उसे बलात् भोगने पड़ते थे । वहां उसका कोई शरण्य-रक्षा करने वाला नहीं था । अत्यन्त दोन हृदय १. घास हम दोष मान५ २. पारश म रापमान १९ ३. अत्यधिकमुष्व सागर ४. पीएम ५. नोमान ।
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* द्वितीय सर्ग *
[ २३
४
श्रथ जम्बूमतिद्वीपे मेरो: प्राग्दिर्शि शाश्वतम् । पूर्वविदेहनामास्ति क्षेत्रं धर्माकरं परम् ||७४।। विदेहान्मुनयो यस्माद् गच्छस्येवायं पदम् । तस्मात्तत्सार्थक नाम विद्यते क्षेत्रमुत्तमम् ॥ ७५ ॥ विद्यते विषयस्तत्र मनोज्ञो मङ्गलावती । विश्वमङ्गलदोषैः पूर्णो माङ्गल्यकारकः १७६ । तस्य मध्ये महात् भाति विजयार्द्धाभिधोऽचलः । शुद्धरूप्यमय स्तुङ्गः खगदेवाभिसेवितः ॥ ७७ ॥ उत्तङ्गो योजनानां स पञ्चविंशतिमेव हि । तच्चतुर्थांशभूमध्यो नवकूटविभूषितः पूर्वकूटे जिनागारी कयभात्स्वमयो महान्। हेमोपकरणं रत्नबिम्ब: कूटस्थकेतुभिः ॥७६ । तत्रायान्ति च देवेशा विद्येशाश्चारणाः सदा वन्दितु श्रीजिनाश्व महाभूतिविराजिताः ||८०| चतुः संघ र गतिर्वाद्यं श्च नर्तनः 1 यातायातजनः सोऽभाद्धर्माकिर इवानिशम् श्रेणीभ्यां द्विगुहाभ्यां च सेव्यमानः खगामरैः । वनैः कुर्महारत्नेयेतिवत्सोऽचलो बभौ || २ ||
११७८।।
होकर वह वहां शररण की प्रार्थना करता हुआ बार बार मूर्छित हो जाता था । इतने पर भी नारकी उसे सदा पीडित करते रहते थे ।।६८-७३ ।।
तदनन्तर जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरुपर्वत की पूर्व दिशा में पूर्व विदेह नामका शाश्वतसदा विद्यमान रहने वाला क्षेत्र है। वह क्षेत्र धर्म की उत्कृष्ट खान स्वरूप है ।।७४ || चूकि विदेह क्षेत्र से मुनि अविनाशी - मोक्षपद को प्राप्त होते रहते हैं इसलिये वह उत्तम क्षेत्र 'विदेह' इस सार्थक नामको धारण करता है ।। ७५ ।। उसी विदेह क्षेत्र में समस्त मङ्गल द्रयों के समूह से परिपूर्ण, मङ्गल को करने वाला मङ्गलावती नामका मनोहर देश है। ॥७६॥। उस देश के मध्य में विजयार्ध नामका एक महान पर्वत सुशोभित हो रहा है । वह पर्वत शुद्ध चांदी रूप है, ऊंचा है, विद्याधर और देवों से सदा सेवित रहता है, पच्चीस योजन ऊंचा है, ऊंचाई के चतुर्थांश पृथिवी में गहरा है, और नौ कूटों से विभूषित है ।।७७-७८ ।। उसके पूर्वकूट पर सुवर्णमय विशाल जिन मन्दिर है जो सुबर के उपकरणों, रत्नमय प्रतिबिम्बों और शिखर पर स्थित पताकाओं से शोभायमान हो रहा है ॥७६॥ देवेन्द्र, विद्याधरेन्द्र और चारण ऋद्धि के धारक मुनिराज भ्रष्ट प्राप्तिहार्यरूप महान विभूति से सुशोभित जिन प्रतिमाओं की वन्दना करने के लिये वहां सदा आते रहते हैं ।। ६० ।। चतुरिणकाय के उत्कृष्ट देवों, गीतों, बाद्यों, नृत्यों और श्राने जाने वाले मनुष्यों से वह पर्वत निरन्तर ऐसा सुशोभित होता है मानों धर्म की खान ही हो ॥ ६१॥ दो श्रेणियों, दो गुफाओं, विद्याधरों, देवों, वनों, कूटों और महारत्नों से सेवित हुआ वह पर्वत मुनिराज के समान सुभोभित हो रहा था ।। ६२ ।।
१. प्रविनाभिपदम् मोक्षमित्यर्थः २. कुरुते ३४ रनमः ।
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२४ ]
* श्री पाश्वनाथ चरित * नगरं तत्र रोप्याद्री त्रिलोकोत्तमसंशकम् । प्रस्त्युत्त मजनः पूर्ण त्रैलोक्यतिलकोपमम् ।।३।। तबाह्म सफलान्युच्चस्तर्पकाणि वनानि च । सतां तुङ्गानि गोभन्ते यतेर्याचरणान्यहो ॥४॥ क्षेत्राण्यत्रासिरम्याणि झाले काले कृतान्यपि । मुने रावश्यकानीव फलदानि बभुणाम् ।।८५॥ वापीकूपतडागानि 'खतरणास्फेटकान्यपि । ऋषेढ दयतुल्यानि भान्ति लोकहितान्यहो ।।६।। पुरं सुङ्ग रभाद्ध मरत्नप्राकारतोरगणैः । दीर्घखातिकया जम्बूद्वीपवेब्धिवत्तराम् ।।८।। विभ्राजन्ते जिनागारामणिस्वर्णमयाः शुमाः । खमीभिश्च स्वर्गः पूर्णा महान्तो वा वृषाब्धय: ।।८८|| जयस्तवादिशब्दोघगीत यि श्च नर्तनः । उत्सविविधनित्यं दीप्तबिम्ब मनोहरैः ॥८६॥ धामिकागा महापामाग्रस्थ घ्वजकरोत्करः ।मायतीव तद्भाति नाकेशां मुक्ति हेतवे ॥१०॥ वर्तते शाश्वतो यत्र धर्मो जीवदयामयः ! जिनोक्तः स्वर्गमुक्यादिसाधको नापरः पवचित्।।११।। विहरन्ति यतीन्द्रौघा यत्र केवलिनोऽनिशम् । धर्मप्रवतंनाहेतोः संघर्न च कुलिङ्गिनः ।।१२।।
उस विजयाई पर्वत पर त्रिलोकोत्तम नामका एक नगर है जो उत्तम जनों से परि पूर्ण है तथा तीनों लोकों के तिलक के समान जान पड़ता है ।।८३॥ उस नगर के बाहर फलों से सहित तथा सत्पुरुषों को संतुष्ट करने वाले ऊचे ऊचे उत्कृष्ट वन सुशोभित हो रहे हैं जो मुनि के प्राचरण चारित्र के समान जान पड़ते हैं ॥४॥ समय समय पर जिनकी सभाल की जाती है ऐसे यहां के अत्यन्त रमणीय खेत, मनुष्यों को फल देते हुए मुनियों के प्रावश्यकों के समान सुशोभित होते हैं । अहा ! पक्षियों की तृष्णा को नष्ट करने वाले वहां के लोकहितकारी वापी कूप और तालाब मुनि के हृदय के समान सुशोभित हैं ॥५-८६॥ वह नगर, ऊचे ऊँचे सुवर्ण तथा रत्ननिर्मित कोट, तोरणों से तथा बहुत बड़ी परिखा से जम्बूद्वीप की वेदी के समान अत्यन्त सुशोभित होता है ।।८७॥ विद्यारियों
और विद्याधरों से भरे हुए वहां के मरिण तथा स्वर्णमय शुभ मन्दिर ऐसे सुशोभित होते हैं मानो बड़े भारी धर्म के सागर ही हों ॥८८।। जय जय आदि स्तवनों के शब्द समूहों, गीतों, वादित्रों, नृत्यों, नाना प्रकार के उत्सवों और निरन्तर देदीप्यमान रहने वाले जिन बिम्बों से बह नगर अत्यन्त शोभायमान है ॥६६॥ धर्मात्मा जनों के बड़े बड़े भवनों के अग्रभाग पर स्थित ध्यज रूपी हाथों के समूह से वह नगर ऐसा जान पड़ता था मानों मुक्ति की प्राप्ति के लिये इन्द्रों को बुला हो रहा हो ॥६॥ जहां पर स्वर्ग और मोक्ष प्रादि को प्राप्त कराने वाला, जिनेन्द्र कथित दयामय धर्म ही शाश्वत स्थायी धर्म है कहीं कोई दूसरा धर्म नहीं है ।।६१॥ जहां पर धर्म की प्रवर्तना के लिये चतुर्विध संघों के साथ मुनिराजों के समूह तथा केवली भगयान निरन्तर विहार करते हैं, कुलिङ्गी विहार नहीं करते थे।।६२॥
१.पक्षितपानाकानि २. विद्यावधि: ३. विद्याधर. ४. धर्मम-गरा:
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* द्वितीय सर्ग *
२५ कुदेवस्तम्मठे जातु स्वप्नेऽपि दृश्यते न च । कुलिङ्गी तद्रतोऽज्ञानं कुज्ञानी कुदृषोऽशुभः।।३।। शामिका विपदा दक्षा जिन भक्तिपरायणा: । पात्रदानरता धर्ममहोत्सव-विधायिन: ।।१४ गुरुभक्ताः सदाचारा दतशीलादिभूषिताः । प्राकाशगामिनो मे दियात्रारत-बुद्धयः ।।६।। वसन्ति यत्र विद्यशा: सकुलास्तुङ्गधामसु । खगोभitaमरूपाभिवभिचामरा विधि ॥६ इत्यादिवर्णनायेते पुरे सस्मिन्मनोहरे । विद्य गतिखगेशोऽभुद् विद्युद्गतिविराजितः ॥६unt प्रतापी नातिमागंज्ञोऽनेकविज्ञाननायकः । दक्षो धर्मविचारज्ञो विवेकी शीलमण्डितः ।।१८।। प्रजानां तर्पको ज्ञानी जैन धर्मप्रभावकः । यमीवर स बभी लोके सत्भमादिगुणोत्करैः ।।६।। विद्युन्माला प्रिया तस्य बभूव शुभलक्षणा । रूपलावण्यभूषाढया सती पुण्योत्तमानसा ।।१००॥ तयोः सूनुरभूदग्निवेगास्यः पुण्यपाकतः । शशिप्रभोऽमरश्च्युत्वा स दिका प्राक्तनो महान्।।१०।। शुभलानादिकऽनेक महोत्सव शतेन पः । महामऽह नकारोच्चजिनागारे जिने शिनाम् ।।१०।। जहां पर कुवेध, कुदेवों के मठ में ही दिखाई देता था अन्यत्र कहीं स्वप्न में भी दिखाई नहीं देता था। इसी प्रकार कुलिङ्गी, उनका भक्त, कुज्ञान, कुज्ञानो और अशुभ धर्म कहीं स्वप्न में भी नहीं दिखाई देता था ।।६३॥ जो धर्मात्मा हैं, निर्मल हैं, चतुर हैं, जिनशक्ति में तत्पर हैं. पात्र दान में रत हैं, धामिक महोत्सवों को करते है, गरभक्त हैं.. सनाचारी हैं, व्रत-शोल आदि से विभूषित हैं, आकाशगामी हैं, मेरु प्रादि को यात्रा में जिनकी बुद्धि लग रही है तथा जो उच्च कुलीन हैं ऐसे विद्याधर जहां ऊंचे ऊचे महलों से सुन्दर रूप की धारक विद्याधरियों के साथ इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार स्वर्ग में वेव देखियों के साथ निवास करते हैं ।।६४-६६॥
इत्यादि वर्णन से सहित उस मनोहर नगर में बिजली के समान तीवगति से सुशोभित विद्यु द्गति नामका विद्याधर राजा रहता था ।। ६७ ।। वह विद्य दगति प्रतापी था, नीति मार्ग का जाता था, अनेक प्रकार के विशिष्ट ज्ञानों का स्वामी था, चतुर था, धर्म विचार का ज्ञाता था, विवेकी था, शोल से सुशोभित था, प्रजाजनों को संतुष्ट करने वाला था और उत्तम क्षमा प्रादि गुरणों के समूह मे लोक में मुनि के समान सुशोभित था ॥८६६।। जो शुभ लक्षणों से सहित थी, रूप और लावण्य रूपी प्राभूषणों से सहित थी, पतिव्रता थी तथा जिसका मन पुण्यकार्यों में संलग्न रहता था ऐसी विद्य न्माला नामको उसकी प्राणवल्लभा थी ॥१०॥
वह क्षशिप्रभ नामका पूर्वोक्त महान देव स्वर्ग से च्युत होकर पुण्योदय से उन दोनों के अग्निवेग नामका पुत्र हुमा १०१।। राजा विद्य दगति ने शुभ लग्न प्रादि के समय १. विद्यम प्रगतित्रिशोधन २. पुनरिव
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- श्री पार्श्वनाथ चरित * परिवारेण सा विभूत्या तज्जातकर्मणि । दीनानाथजनेभ्यश्च ददौ दानान्यनेकशः ॥१०३।। बालचेष्टमुंदं कुर्वन् पित्रोस्तयोग्यमानमः । वद्धितु लग्न एवासी बालचन्द्र कलेव न ।।१०४।। कौमारत्वं कमात्प्राप स पित्रोरञ्जयन्मन: । मुग्धादिहसनैः पुण्यादरमन्मनभाषणः ॥१०५।। ततोऽध्यापकमासाद्य जनं शास्त्रास्त्रविद्ययोः । पारं सोऽगाद्धिया तीक्ष्णप्रज्ञयाऽविरतो बुधः ।।१०६।। सम्पूर्णयौवनो धीमान् मुकुटादिविभूषितः । जिनभक्तः सदाचारी शमी रूपो मदातिगः ।। १ ०७।। शुभाशयो विचारको मन्दमोही कृपापर: । प्रत्यासन्नभवी धर्मरजित: स्वजनप्रियः ।।१०।। दिव्यदेहधरः सोऽभात्कुमार: सहजगुणः । विवेकादिभत्रै रन्यर्लोकान्तिकसुरोऽत्र वा ॥१०॥
मालिनी इति सुकृतविपाकात्प्राप्य कौमारभूति, विविधमखिलसौख्यं स्वस्य योग्यं भुनक्ति ।
स्वजन-परजनानां वल्लभोऽनङ्गमूर्ति-हृदि बरवृतमुच्चैरग्निवेगो निधाय ।।११।। अनेक महोत्सबों के साथ जिन मन्दिर में जिनेन्द्र भगवान की महामह नामक उत्कृष्ट पूजा को ॥१०२।। परिवार के साथ मिलकर उसने बड़े वैभव से पुत्र का जन्मोत्सव किया और दोन तथा अनाथ जनों को अनेक दान दिये ॥१०३।। बालचेष्टाओं तथा अपने योग्य वाहन प्राधि की कौडाओं से माता-पिता के हर्ष को उत्पन्न करता हुआ वह बालक बालचन्द्र की कला के समान दिन प्रतिदिन बढने लगा ॥१०४।। सरल मन्द मुसकानों तथा पुण्योदय से प्राप्त उत्कृष्ट तोतली बोली से माता पिता के मन को अनुरजित करता हुआ वह क्रम से कुमारावस्था को प्राप्त हुप्रा ।।१०।।
तदनन्सर बुद्धि और तीक्ष्ण प्रज्ञा से युक्त बह विवेकी अग्निवेग जैन अध्यापक को प्राप्त कर शास्त्र और शस्त्रविद्याओं में पार को प्राप्त हो गया अर्थात् दोनों विद्यानों में निपुण हो गया ॥१०६॥ जो सम्पूर्ण यौवन को प्राप्त था, बुद्धिमान था, मुकुट आदि से विभूषित था, जिनभक्त था, सदाचारी था, शान्त था, रूपवार था, अहंकार से रहित था, शुभ अभिप्राय वाला था, विचारश था, मन्दमोह था, दयालु था, निकट संसारी था, धर्म में अनुरक्त था, प्रात्मीयजनों को प्रिय था और सुन्दर शरीर का धारक था ऐसा वह कुमार अपने सहज गुणों से तथा विवेक प्रावि से होने वाले अन्य गुणों से इस लोक में लौकान्तिक देव के समान सुशोभित हो रहा था ॥१०७-१०६॥
इस प्रकार जो स्वजन और परजनों को प्रतिशय प्रिय था तथा जिसका शरीर कामदेव के समान सुन्दर था ऐसा अग्निवेग, पुण्योदय से कुमार काल को विभूति को प्राप्त कर तथा हृदय में उत्कृष्ट जैन धर्म को धारण कर अपने योग्य नाना प्रकार के समस्त सुक्षों का उपभोग करता था ॥ ११० ॥ यह अग्निवेग पूर्वभव में धर्म से देवगति सम्बन्धी
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द्वितीय सगं
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शार्दूलविक्रिस्तिम् एमदेिष किलाप्त एव विविधं सौख्यं वरं देवर्ज, धमदिव ततोऽमले नृपकुले कौमारजं चोत्तमम् । जावेतीह बुधा वृष व्यघहर' यत्नात्कुरुध्वं सदा, स्वर्मोक्षकवशीकरं हितकरं सौख्याकरं मुक्तये ।।१११। पाश्वः पाश्र्वधरः सतां व्यधहर: पाश्चं श्रिता धार्मिकाः,
पाव किलाप्यते शिवसुखं पार्धाय सिद्धधं नमः । पावद्विधनचमोऽद्ध तं विघटते पार्श्वस्य मुक्तिः प्रिया, पाशा पाश्र्वजिन स्थितोऽहमनिशं मे वृत्तविघ्नं हर।
पुति भट्टारक श्रीसकलकातिविरचिते श्रीपाश्वनाथचरित्रे गजेन्द्रशशिप्रभदेवाग्निवेग भवत्रयबरानो नाम द्वितीयः सर्गः । नाना प्रकार के उत्तम सुख को प्राप्त हुआ, तदनन्तर वर्तमान भव में धर्म से ही निर्मल राजकुल में कुमारावस्था में होने वाले उत्तम सुख को प्राप्त हुआ है, यह जानकर हे बुधअन हो ! मुक्ति के लिये विविध प्रकार के पापों को हरने वाले, स्वर्ग और मोक्ष को वश करने वाले, हितकारी और सुख की खान स्वरूप धर्म को सदा यत्नपूर्वक धारण करो ।।१११॥ विविध पापों को हरने वाले पार्श्वनाथ भगवान सत्पुरुषों को अपने पास में रखते थे, धार्मिक जीव पार्श्वनाथ की शरण में पहुंचते थे। पार्श्वनाथ के द्वारा ही मोक्ष का सुख प्राप्त होता है, सिद्धि की प्राप्ति के लिये पार्श्व जिनेन्द्र को मेरा नमस्कार हो, पार्श्वनाथ से विघ्नों का समूह अद्ध तरूप से विदित हो गया था, मुक्तिरूपी स्त्री पार्श्वनाथ भगवान को अतिशय प्रिय थी, हे पावं जिनेन्द्र ! मैं निरन्तर पाप में ही स्थित है, अतः मेरे चारित्र सम्बन्धी विघ्न को शीघ्र ही हरण करो ॥१११-११२।।
इस प्रकार श्री भट्टारक सकलकोति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित्र में गजराज, शशिप्नभ देव और अग्निवेग के तीनभवों का वर्णन करने वाला दूसरा सर्ग समाप्त हुना।
MARA
. विविध पापविम्बर १. चारित्रविरामक
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२८ ]
• भोपामनाथ चरित -
तृतीय सर्गः भीपाश्यं त्रिजगन्नायं विष्वानिष्टक्षयंकरम् । सतां स्वपार्वदातारं स्तुवे तत्पापर्वहेतवे ।।१।। प्रषेकदा स्वधर्माय समाधिगुप्तयोगिनम् । पग्निवेगकुमारोऽगाद् वन्दितु गुप्तिरक्षकम् ।।२।। विःपरीत्य यतीशं तं गुप्तित्रितयमण्डितम् । नत्वा मुर्भा च संपूज्य सोऽस्थात्तत्सन्मुखो मुदो ।।३।। धर्मवृद्धभिधाशीदिन भव्य नृपात्मजम् । अभिनन्द्य मुनिघमं प्रोक्तु निजोद्यम व्यधात् ।।४।। महो कुमार सद्धर्म मुक्तिश्रीवशकारकम् । यतीन्द्र सेवितं सारं निःपाप कुरु सर्वथा ।।५।। येन धर्मेण मुक्तिश्रीदत्त स्वालिङ्गन सताम् । प्रत्यासक्ता स्वयं धत्य का कथा नाकयोषिताम् ।।६।। धार्मिकाणां सुधर्मेण चरणान्जे निरन्तरम् । किंकरा इव देवेन्द्रा नमन्त्याजाविधायिनः ।।७।। जिनेन्द्रपदजां लक्ष्मी सर्वलोकातिशायिनीम् । त्रिजगद्वन्दिता धर्माल्लभन्ते मुनयोऽचिरात् ।।८।।
तृतीय सर्ग जो तीनों जगत् के नाथ हैं, समस्त अनिष्टों का क्षय करने वाले हैं और सत्पुरुषों को अपनी समीपता प्रदान करते हैं उन पार्श्वनाथ भगवान को मैं उनकी समीपता प्राप्त करने के हेतु स्तुति करता हैं ॥१॥
तदनन्तर एक समय अग्निवेग कुमार अपने आपमें धार्मिक भाव जागृत करने के लिये गुप्तियों के रक्षक समाधिगुप्त नामक मुनिराज को वन्दना के अर्थ गया ।।२।। तोन गुप्तियों से सुशोभित उन मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा देकर उसने उन्हें शिर से नमस्कार किया, उनकी पूजा की, तदनन्तर वह बडे हर्ष से उनके सन्मुख बैठ गया ॥३॥ मुनिराज ने धर्मवृद्धि नामक प्राशीर्वाद के द्वारा भव्य राजपुत्र का अभिनन्दन कर धर्म कहने के लिये अपना पुरुषार्थ किया ॥४॥ उन्होंने कहा कि महो राजकुमार ! मुक्ति रूपी लक्ष्मी को वश करने वाले, बडे बडे मुनियों के द्वारा सेवित, श्रेष्ठ और पाप रहित समोचीन धर्म का तुम सब प्रकार से पालन करो ॥५॥ जिसधर्म के द्वारा अत्यन्त प्रासक्त हुई मुक्तिरूपी लक्ष्मी स्वयं प्राकर सत्पुरुषों के लिये अपना आलिङ्गन देती है उस धर्म के द्वारा देवाङ्गनाओं के प्रालिङ्गान की कथा ही क्या है ? ॥६।। समीचीन धर्म के द्वारा वेवेन्द्र, किङ्करों के समान प्राज्ञाकारी होकर धर्मात्माओं के चरण कमलों को निरन्तर नमस्कार करते हैं ।।७।। जो सब लोगों को प्रतिक्रान्त करने वाली है अथवा जो समस्त लोक में श्रेष्ठ है और तीनों जगत् के द्वारा बन्दनीय है ऐसी तीर्थकर पद को लक्ष्मी को मुनि धर्म के प्रभाव से शीघ्र
१ देखीनाम् ।
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* तृतीय सर्ग *
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लौकान्तिकपदं शपदं रत्न निष्यादिसंपूर्णां मन्त्रेण वाकृष्टा बन्धु महामित्रः
देवनमस्कृतम् । धर्मात्सर्वार्थसिद्धिश्च सतां संपद्यते क्षणात् ॥ ६ ॥ षट्खण्डपृथिवी भवाम् । चक्रवतिप्रजां भूर्ति नभन्ते धर्मिणो वृषात् ।। १० ।। सुश्रीर्लोकत्रयोद्भवा । घोमतां वशमायाति गृहदासीव शर्मदा ।। ११ ।।
धर्मो
पापक्षयकरः । मोक्षदाता सुखाब्धिश्व सहगामी जगद्धितः । ११२ ।। तिम स्वास्ति तस्य चिन्तामणिः करे । कल्पद्रमो गृहद्वारे कामधेनुइन किङ्करी ।।१३।। Made विना भोज्यं श्रीदर्शनेन विना क्वचित् । शोलाहते नरो नारो विद्वानुपशमं विना ।। १४ । धर्मोदयां विना लोके संयमेन बिना यमी । भ्राजते न यथा तद्वत् सतामायुषं बिना ।।१५। जीवन्तोऽपि मृता ज्ञेया निर्गन्धकुसुमोपमाः । धर्मवन्तो मृता मर्त्या प्रत्रामुत्र च जीविताः ।। १६ ।। जीवितन्येन तेनाथ किं साध्यं पापवर्तिना । येन न क्रियते धर्मा हत्या श्रेयः सुस्वार्णवः ॥ १७ धन्यास्त एवं लोकेऽस्मिन् में सर्वत्र मुक्त् कुर्वन्त्यहो सदा |१६|
सर्वथा एक
ही प्राप्त कर लेते हैं ||८|| धर्म से सत्पुरुषों को लौकान्तिक देवों का पद, देवों के द्वारा नमस्कृत इन्द्र का पर और सर्वार्थसिद्धि क्षरणभर में प्राप्त हो जाती है ||६|| धर्मात्मा जन धर्म से चौदह रत्न और मौ निधियों प्रादि से परिपूर्ण, षट्ण्ड पृथिवी में होने वाली aran की विभूति को प्राप्त होते हैं ॥१०॥ तीनों लोकों में उत्पन्न, सुखदायक उत्तम लक्ष्मी, धर्मरूपी मन्त्र के द्वारा आकृष्ट हुई गृहदासी के समान बुद्धिमानों के वश को प्राप्त होती है || ११ || धर्म ही बन्धु है, महा मित्र है, पापरूप शत्रु का क्षय करने वाला है, मोक्ष को देने वाला है, सुख का सागर है, साथ जाने वाला है तथा जगत् का हितकारी है | १२ | इस लोक में मुनिधर्म जिसके पास है चिन्तामणि रत्न उसके हाथ में है, कल्पवृक्ष उसके घर द्वार पर है और कामधेनु उसकी किङ्करी है ||१३|| जिस प्रकार नमक के बिना भोजन, दान के बिना लक्ष्मी, शील के बिना नर नारी, शान्तभाव के बिना विद्वान्, aur के बिना धर्म और संयम के बिना मुनि, लोक में कहीं सुशोभित नहीं होता उसी प्रकार धर्म के fart सत्पुरुषों की श्रायु सुशोभित नहीं होती ॥१४- १५॥ गन्ध रहित फूलों के समान धर्महीन मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृत हैं और धर्मसहित मनुष्य मर कर भी इस लोक तथा परलोक में जीवित जानने के योग्य हैं ।। १६ ।। यहां पाप में प्रवर्तने वाले उस जीवन से क्या साध्य है जिसके द्वारा प्रक्षेय-कल्याण को नष्ट कर सुख का सागर स्वरूप धर्म नहीं किया जाता है। भावार्थ- वही जीवन सफल है जिसमें पाप से निवृत होकर सुखदायक धर्म की प्राराधना की जाती है ||१७|| श्रहो ! इस लोक में वे ही धन्य हैं जो सब जगह सब प्रकार से मुक्ति के लिये एक मुनि धर्म का यत्नपूर्वक सवा प्राचररण
१२. हत्वा श्रेय इति कल्याण दुरीकृत्येत्यथे ३ मुनिवमं ।
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३० ]
* श्री पाश्वनाथ चरित * सवैसङ्गपरित्यागान्मोह-शत्रु-बिनाशनात् । कामेन्द्रियारिसंघातात् परोषहजयाद् वृषात् ।।१६।। मूलोत्तमुणाचाराधानाध्ययनकर्मभिः । तपसा साध्यते धीरैः स धर्मो यतिगोचरः ॥२०॥ घमों निष्पाद्यते दक्षः क्षमादिदशलक्षणः: । व्युत्सर्गश्च वपुःक्लेशः प्रत्यहं वनवासिभिः ।।२१।। मुनिधर्म सुखाब्धिं त्वं हत्वा मोहमहाभटम् । पाणिग्रहण कर्म गृहागाशु नृपात्मज ॥२२।। भागतृष्णाविषं हत्वा पीत्वा मुनिवचोऽमृतम् । कुमारः प्राप्य संवेग व्यधाचिन्ता हृदीत्यहो ।।२३।। घ्र वं तपो महत्कार्य कुमारत्वेऽपि धौधनैः । वृद्धत्व वा समायाति न वा न ज्ञायते क्वचित् ।।२४।। ग्युत्सर्ग दुःकरं योग धुतपार' खनिग्रहम् । परीषहजयं कतु यौवनस्थश्च शक्यते ॥२५॥ शुक्लध्यानक्षमा सर्वसिद्धान्तज्ञा विकिनी । उत्पंद्यले महाबुद्धियों दने विश्वदशिनी ।।२६।। कषायवैरिरणा सन्यं महोपसर्गदुर्जयम् । प्रन्यता दुःकर जेतु युवभिः शक्यतेऽखिलम् ।।२७।।
-.-.- - - -- - - करते हैं ॥१८॥ समस्त परिग्रह के त्याग से, मोहरूपी शत्रु के नाश से, कामेन्द्रियरूपी शत्रु का प्रच्छी तरह घात करने से, परीषहों को जीतने से, उत्तम क्षमा आदि धर्मो से, मूलगुण और उत्तर गुरगों के आचरण से, ध्यान अयमान रूप से तपासान प्रावि तप से पह मुनिधर्म धीर वीर मनुष्यों के द्वारा सिद्ध किया जाता है प्राप्त किया जाता है ॥१६२०।। जो वक्ष शक्तिशाली हैं, क्षमा प्रादि दशलक्षण धर्मों से सहित हैं, कायोत्सर्ग करते हैं, मातापन प्रादि योगों के द्वारा कायक्लेश करते हैं और निरन्तर धन में निवास करते हैं ऐसे मनुष्यों के द्वारा ही मुनिधर्म निष्पन्न किया जाता है ॥२१॥ हे राजकुमार ! तू मोह रूपो महायोद्धा को नष्टकर विवाह सम्बन्धी कार्य का परित्याग कर और शीघ्र ही सुख के सागरस्वरूप मुनिधर्म को ग्रहण कर ॥२२॥
मुनिराज के बच्चनरूपी अमृत को पीकर तथा भोगतृष्णा रूपी विष को नष्ट कर कुमार अग्निवेग संवेग को प्राप्त हो गया-संसार से भयभीत हो गया और मनमें इस प्रकार विमार करने लगा ।।२३।। अहो ! बुद्धिरूपी धन को धारण करने वाले मनुष्यों को कुमार अवस्या में भी निश्चित महान तप करना चाहिये क्योंकि वृद्धावस्था प्रायगी या नहीं, यह कहीं नहीं जाना जाता ॥२४।। शरीर से ममता भाव छोड़कर कायोत्सर्ग करना, आतापन प्रादि कठिन योग धारण करना, शास्त्रों का पढना, इन्द्रिय-निग्रह करना और परीषहों को जीतना यह सब तरुण मनुष्यों के द्वारा ही किया जा सकता है ॥२५॥ शुक्लध्यान में समर्थ, समस्त सिद्धान्तों को जानने वाली, विवेकवती तथा समस्त पदार्थों को देखने वालो
महाबुद्धि यौवन अवस्था में उत्पन्न होती है ॥२६।। कषायरूपी वैरियों की सेना, दुर्जेय __ महोपसर्ग अथवा अन्य समस्त कठिन शत्रु तरुणजनों के द्वारा ही जीते जा सकते हैं ॥२७॥
१. इन्दिर नग
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* तृतीय सर्ग *
[ ३१
सुबालं यावदवृद्धानां यमो नयनि स्वान्तिकम् । स्वेच्छया यदि नादेया कि दीक्षा तरुणैस्तदा ||२८|| वृद्धत्वेऽतिभरात् कार्यं तपो दानं यमादि च । बालत्वे नेति वेत्तारो यान्त्यहो यमग्रासताम् ।।२६। वासुपूज्यादितीर्थेशा: कौमारपदभूषिताः । प्राक्तनास्तपसा हत्वा कर्माण्यापुः परं पदम् ||३०॥ विलिप्य कर्दमेनाङ्ग कुर्यात्कः क्षालनं बुधः । यथातथाजयित्वाचं भोगैः कोऽत्र क्षिपेत्पुनः ।। ३१ ।। यदि नार्यादि संगृह्य पुनरन्ते विसर्जनम् । स्यातस्माद्धीमतां तस्याग्रहणं घोत्तमं भुवि ||३२|| ततोऽवश्यं मयादेयं दूतपूर्वं तपोऽनधम् । हत्वा मोहभट कामशत्रु जित्वा मुक्तये ।। ३३ ।। fore का प्रातः सादिकान्तरे । यश्विन्तस्तपोऽत्रेति वैराग्यं द्विगुणं भवेत् ३४ || ततो बाह्यान्तरं सङ्ग ं त्यक्त्वा दीक्षां सुखाकराम् । प्राददो मुनिवाक्येन मुक्त्यै मुक्तिसखीं पराम् ||३५||
जब बालक से लेकर वृद्धों तक सभी को यमराज स्वेच्छा से अपने समीप ले जाता है सब तरुण मनुष्यों को वीक्षा क्यों नहीं लेना चाहिये ? ||२८|| तप, दान और संयम प्रावि कार्य वृद्धावस्था में अत्यधिक करना चाहिये, बाल अवस्था में नहीं, ऐसा जानने वाले मनुष्य यमराज की प्रासता को मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । भावार्थ- ' तपश्वरण प्रावि कार्य वृद्धावस्था आने पर करेंगे' ऐसा विचार करते करते ही मनुष्यों को मृत्यु हो जाती है, वे कुछकर नहीं पाते ||२६|| पूर्वकाल में हुए वासुपूज्य श्रादि तीर्थंकर कुमार पद से विभूषित रहते ही तप के द्वारा कर्मों को नष्ट कर परम पद को प्राप्त हुए हैं। भावार्थ- वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और बर्द्धमान इन पांच तीर्थंकरों ने गृहस्थी में प्रवेश नहीं किया । कुमार अवस्था में ही दीक्षा लेकर कर्म शत्रुत्रों को नष्ट किया तथा मोक्षपद प्राप्त किया ||३०|| जिस प्रकार ऐसा कौन विद्वान् होगा जो कीचड़ से अपने शरीर को लिप्स कर पश्चात् उसका प्रक्षालन करे ? इसी प्रकार ऐसा कौन विवेकी होगा जो भोगों के द्वारा पाप का संचय कर पश्चात् उसे नष्ट करे ? ।। ३१ ।। यदि स्त्री प्रादि को ग्रहण कर प्रन्त में उसे छोड़ना पड़ता है तो बुद्धिमानों को पृथिवी पर उसका ग्रहण नहीं करना ही उत्तम है ।। ३२ । । इसलिये मोक्ष प्राप्त करने के लिये मुझे अवश्य ही मोहरूपी योद्धा और कामरूपी शत्रु को शीघ्र ही जीतकर चारित्र पूर्वक निर्मल तप ग्रहण करना चाहिये ||३३|| जो ऐसा विचार करता रहता है कि मैं श्राज प्रातः प्रथवा पक्ष या एक माह के भीतर तपश्चरण करूंगा उसका वैराग्य द्विगुणित हो जाता है ||३४||
तदनन्तर कुमार अग्निवेग ते मुनिराज के कहने से आह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर मुक्ति की प्राप्ति के लिए उसकी सखीस्वरूप, सुख की खान, उत्तम दीक्षा ले ली । ३५। दीक्षा लेने के पश्चात् यह महाबुद्धिमान किसी प्रमाद के बिना श्री गुरु के मुखारविन्द से
१ मृत्युम् ।
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३२ ]
*श्री पारवनाय धरित मतोऽप्रमादयोगेन द्वादशाङ्गश्रुताम्बुधः । पारं सोऽगान्महाबुद्धिः श्रीगुरोवंदनाम्बुजात् ॥३६॥ करोति प्रत्यहं सर्वतोभद्रादि तपोविधान् । पक्षमासोपवासादोन्मुनीन्द्रः कर्महानये ।।३७।। एकग्रासादिमादत्त ऽवमोदर्याय स क्वरित । वाहारे वृत्तिसंख्याय प्रतिज्ञा इत्यरादिभिः ।।३।। प्राचाम्लनिविकृत्यादीन् क्वचित्कुर्यान्मुनीश्वरः । रसत्यागाय दुर्दान्तेन्द्रियारिदमनाय च ||३६।। प्रमशाने गिरिशून्यागारे वृक्षकोट रादिषु । बनेषु स्यादिहीनेषु । गच्छर नासम् ।४।। प्राददे वृक्षमूलेऽसौ प्रावृट्कालेऽहिसंकुले' | कायोत्सर्ग सदैवोन शीतझझा मरुद्धते ।।४।। म्युत्सर्ग' विदधे शीतकाले दग्धयने मुनिः । भूत्वा काष्ठोपमो मुक्त्यं चत्वरे भोकभीतिदे ।।४२।। उग्ररश्म्योपसंतप्ते तुङ्गाद्रघरशिलातले । उष्णाकालेऽघघाताय सोऽस्थाद्भानुप्रसन्मखः ।।४३।। भूत प्रेतादिघसंसेव्ये श्मशानेऽतिभयङ्करे । सोऽधाद्ध सर्गमेकाको वने व्याघ्रादिसंकुले।।४४।। इत्यादि-विदिघं घीमान् कायक्लेशं भजेत्सदा । कायशर्मातिगो' धीर: सो कायपद सिद्धये।।४५।।
अध्ययन कर द्वादशाङ्गश्रत रूपी सागर के पार को प्राप्त हो गया।॥३६॥ मुनिराज अग्निवेग कर्मों का क्षय करने के लिये प्रतिदिन सर्वतोभद्र प्रादि तप के भेदों को तथा पक्ष और मास प्रादि के उपवासों को करने लगे ।।३७॥ अवमोवयं सप के लिये वे कहीं एक ग्रास प्रादि को लेने लगे और वृत्तिपरिसंस्थान तप के लिये पाहार के समय चौराहे प्रादि की प्रतिज्ञा करने लगे ॥३८॥ मुनिराज कहीं रस परित्याग तप के लिये प्रौर इन्द्रियरूपी प्रबल शत्रुनों का दमन करने के लिये प्राचाम्ल अथवा निविकृति पाहार प्रादि का नियम करने खगे ।।३६।। विविक्त शय्यासन तप के लिये वे श्मशान, पर्वत को गृहानों, वृक्ष को कोटरों तथा स्त्री प्रावि से रहित बनों में शयनासन करने लगे ॥४०॥ कायक्लेश तप की साधना के लिए वे सदा सपों की प्रचुरता से युक्त तथा ठण्डी झञ्झा वायु से उसत वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे पाप को नष्ट करने वाला कायोत्सर्ग ग्रहण करते थे ॥४१॥ जिसमें सुषार से वन दग्ध हो गये हैं ऐसे शीतकाल में वे मुक्ति प्राप्ति के लिये काष्ठ के समान होकर भीहफायर मनुष्यों को भय उत्पन्न करने वाले चौराहे प्रादि स्थानों पर कायोत्सर्ग करते थे ॥४२॥ और ग्रीष्मकाल में वे पापों का क्षय करने के लिये सूर्य के सन्मुख होकर तीक्ष्ण किरणों के समूह से संतप्त चे पर्वत के अग्रभाग पर स्थित शिला तल पर प्रारूत होते थे ॥४३॥ भूत प्रेत प्रादि से सेवनीय अत्यन्त भयंकर श्मशान में तथा व्याघ्र प्रादि से भरे हुए वन में थे अकेले ही व्युत्सर्ग तप थे ।।४४।। इस प्रकार शरीर सम्बन्धी सुख से दूर रहने वाले के बुद्धिमान धीर दीर मुनिराज मोक्षपद की सिद्धि के लिये सबा नाना प्रकार का कायपलेश तप करते थे ॥४५॥
.- ... -. .- ..
---- - - -- समूह-संतप्त ४. शारीरिममुख नि स्पहः ५. मोक्षपदप्रातये ।
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- .... -... १ सर्पमाप्ते : गापा
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सेवा-वि
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* तृतीय सर्ग *
[ ३१ यदेव जायते दोषो बतानां कर्मगौरवात् । निःप्रमादोऽपि तच्छुवर्ष प्रायश्चित्त व्यधात्तदा ।।४६।। । ज्ञानदर्शन चारित्रतपसां तदता यतिः । त्रिशुद्धया विनयं कुर्याद गुरूणां गुणशालिनाम्।।४।। प्राचार्यादिमनोज्ञान्तानां विषयसुगुणात्मनाम् । तनोति दशधा वैशावृत्त्यं सोऽनन्तशक्तये ।।४।। पाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मदेशनाः । करोत्यक्षमनः शान्त्यै मोक्षाध्यवर्तनाय सः ।।६।। पक्षमासादिवर्षान्तं व्युत्सर्ग सोऽकरोद्यमी' । कायादी ममता त्यक्त्वा धैर्यशाली स्वमुक्तये ।।५।। पनिष्टेष्ट-प्रसंयोग-वियोग-जनितं नित नीति -निदानोमानं तुर्विधम् ।।५।। तिर्यग्गतिकरं पापाकरं सोऽनर्थ मन्दिरम् । ध्यायत्यत्र न स्वप्नेऽपि धर्मशुक्लादितत्परः ।। ५२।। सस्वहिंसानृतस्तेयानन्दास्यं पापसागरम् । पोरं विषयसंरक्षणाभिधं एवभ्रकारणम् ।। ५३।। शुमध्यानासिना हन्याद्रौद्रध्यानमहारिपुम् । चतुर्धा सोऽघभोतारमा प्रागेवारमसुषाप्तये ।।५४।। पाशापाय-विपाकाल्प-संस्थानविचयाभिधम् । धम्यंध्यानं चतुर्भेदं महापुण्यनिबन्धनम् ।।५५।।
कर्मोदय की गुरुता से जब भी उनके व्रतों में कोई दोष लगता था तो वे उसी समय उसको शुद्धि के लिये प्रमाद रहित होकर प्रायश्चित्त करते थे ॥४६॥ वे सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यषचारित्र और सम्यक् तप तथा इनसे युक्त गुरगशाली गुरुषों की त्रिशुद्धिपूर्वक बिनय करते थे ।।४७।। वे अनन्तवीर्य की प्राप्ति के लिये समस्त गुणों से युक्त प्राचार्य उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गरग, कुल, सङ्घ, साधु और मनोज्ञ, इन वश प्रकार के मुनियों की पेयावृत्य-सेवा करते थे ॥४८॥ वे मुनिराज इन्द्रिय और मन की शान्ति तथा मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के लिये वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, प्राम्नाय और धर्मोपदेश, इन पांच प्रकार के स्वाध्यायों को करते थे ।।४६।। वे धैर्यशाली मुनिराज अपनी मुक्ति के लिये शरीर प्रादि में ममता भाव छोड़कर पक्ष, मास तथा वर्ष पर्यन्त व्युत्सर्ग तप करते थे।॥५०॥
अनिष्ट-संयोगज, इष्टवियोगज, वेदनाजन्य और निदानज के भेव से प्रार्तध्यान चार प्रकार का है । यह प्रार्तध्यान तियंचगति का बन्ध करने वाला है, पाप की खान है तथा समस्त प्रनयों का घर है । पय॑ध्यान और शुक्लध्यान में तत्पर रहने वाले वे मुनिराज कहीं स्वप्न में भी इस मार्तध्यान का चिन्तन नहीं करते थे ।।५१-५२॥ जीवहिसा. नन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द और विषयसंरक्षणानन्द के भेद से रौद्रध्यान चार प्रकार का हैं । यह रौद्रध्यान पाप का सागर है, भयंकर है, और नरक का कारण है। जिनकी आत्मा पाप से भयभीत है ऐसे उन मुनिराज ने प्रात्मसुधा की प्राप्ति के लिये इस चार प्रकार के रोज प्यानरूपी महाशत्रु को शुभध्यानरूपी खड्ग के द्वारा पहले ही नष्टकर दिया था ॥५३-५४। प्राजादिचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय के भेद से धर्म्यध्यान धार
१. मुनिः ।
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३४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित
सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तमहाफलकरं परम् । निःप्रमादेन सिद्धयं स ध्यायत्येव निरन्तरम् ।। ५६ ।। चिदानन्दमयं शुद्ध मन्तगुण सागरम् । महाशर्ममयं सिद्धसमानं स्वोपमातिगम् ||५७॥ स्वात्मानं स हृा विश्य ध्यायत्याशु मुक्तिदम् । नं हित्वा खिलसंकल्पात् शुक्लध्यानाय शान्तधीः | ५० इत्यादीनि सर्पास्येव द्विषड्भेदानि' सिद्धये । करोत्येवानिशं श्रीमान् सर्वशक्य प्रयत्नतः ।। ५६ ।। एकाकी बिहरजानायामदेशान वाटतीम् सिवद्दरिगिद्विगुहां प्राप्तोऽतिनिर्भयः ॥ ६॥
दषतत्र योगं * मनोवाक्कायरोपम् । निश्वाङ्ग विषायक रेनो ध्यानसिद्धये ॥ ६१ ॥ अथ कुकुंटसर्पः प्राक्ततो मुक्त्वा सुखं महत्। निर्गत्य नरकात्तत्र बभूबाजगरोऽशुभात् ।। ६२ ।। निगीर्णो सुनिनाथोऽसौ तेनालोक्यातिकोपिना पूर्वजन्मादिवरेण पापिना स्वगामिना ।। ६३॥ तथा संन्यासमादामाश्वाराध्याराधनाः शुभाः । मनो निधाय तीर्थेशपादाब्जे धर्मवासियम् || ६४ सहित्वा तत्कृतं घोरमुपसर्ग समाधिना । धध्यानेन म त्यक्त्वा प्रारणान्सर्व प्रयत्नतः ।।६५ । बभूवाच्युतकल्पस्थे विमाने पुष्कराभिधे विद्युत्प्रभा भिषो देवः पुण्यपाकान्महद्धिकः ||६६ ||
प्रकार का है। यह धर्मध्यान महान पुण्य बन्ध का कारण है, सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त महाफल को करने वाला है तथा उत्कृष्ट है। ये मुनिराज मुक्ति प्राप्ति के लिये निरन्तर प्रमाद रहित होकर इसी का ध्यान करते थे ।। ५५-५६ ।। जो ज्ञानानन्द से तन्मय है, शुद्ध है, अनन्त गुरंगों का सागर है, महासुखमय है, सिद्ध के समान है, अपनी उपमा से रहित है, तथा शीघ्र ही मुक्ति को देने वाला है ऐसा स्वकीय शुद्ध आत्मा है । शान्त बुद्धि से युक्त वे मुमिराज शुक्लध्यान के लिये समस्त संकल्प विकल्पों का त्याग कर हृदय से निरन्नर उसी स्वकीय शुद्धात्मा का ध्यान करते थे ।। ५७-५८ ।। इत्यादि बारह तपों को वे बुद्धिमान सुनिराज मुक्ति प्राप्ति के लिये निरन्तर सर्वशक्य प्रयत्नों से करते थे ॥ ५६ ॥
सिंह के समान प्रत्यन्त निर्भय रहने वाले थे मुनिराज एक बार नाना ग्राम देश और बोहर पटवियों में प्रकेले विहार करते हुए पर्वत की गुहा में पहुंचे ||६०। वहां उन्होंने शरीर को निश्चल कर ध्यान की सिद्धि के लिये मन बचन काय के निरोध से युक्त तथा पापों को नष्ट करने वाला उत्कृष्ट प्रतिमायोग धारण कर लिया || ६१ ||
तदनन्तर पहले का कुर्कुट सर्प बहुत भारी दुःख भोगकर नरक से निकला और पापोदय से उसी गुहा में अजगर हुआ ।। ६२ ।। देखते ही पूर्वजन्म के और से जिसका कोष प्रबल हो गया है ऐसे उस पापी नरकगामी अजगर ने उन मुनिराज को निगल लिया । ६३॥ उस समय संन्यास लेकर मुनिराज ने शुभ प्राराधनाओं की प्राराधना को धर्म से सुवासित अपना मन जिनेन्द्र देव के चरण कमलों में लगाया, और अजगर के द्वारा किया हुआ घोर १. द्वादणभेदानि ।
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* तृतीय सगं . तत्रोपपादशिलायां यौवनं घटिकाद्वपात् । संपूर्ण प्राप्य तच्छय्याया उत्थाय विभूषितः ।।६७॥ दियो विमानदेव्यादीन सैन्यर्थीन् स्वप्नवत्तदा । वृष्ट्वा विस्मयमापन्नोऽवधिज्ञानमवाप सः ।।६८।। सेन शारवाखिल पूर्वजन्मवृत्तफलं महत् । संभव स्वस्य स्वर्गेऽस्मिन् धर्म रक्तोऽभवसराम् ।।६।। दतो जिनालयं गत्वा स्वपरीवारवेष्टितः । चकार जिनबिम्बानां महापूजां स भक्तितः । ७०।। दिव्यजलः सुगन्धविलेपमेश्य बराक्षतैः । मुक्ताफलमयश्चारुपुष्पैः कल्पद्र मोद्भवः ।।७।। सुधापिण्डजनैवेद्य रत्नदीपस्तमोपहः । धूपैः फलोत्तमैः सारस्तत्पदाय सुभप्रदैः ।।७२।। गीतमानश्च याविनर्सनैरप्सर:प्रजः ।महोत्सवं जिनेन्द्राणां सोऽकरोत्तर संमुदा ।।७३|| ज्यपाद स विविधामचर्चा मेरुनन्दीश्वरादिषु । मन्वहं जिनमूर्तीनां भूत्या तइभूतयेऽभरः ।।७४॥ गर्भादिपञ्चकल्याण के जिनेश महामहम् । तनोति परया भक्त्या तद्विभूत्यै शुभार्गवम् ॥७॥ उपसर्ग समताभाव से सहन किया । अन्त में पूर्ण प्रयस्त से धर्म्यध्यान पूर्वक प्रारणों का परित्याग कर वे अच्युत स्वर्ग के पुष्कर विमान में पुण्योदय से महान ऋद्धियों को धारण करने वाले विद्युत्प्रभ नाम के देव हुए ॥६४-६६।। वहाँ उपपाद शिला पर दो घड़ी में पूर्ण यौवन प्राप्त कर प्राभूषणों से विभूषित हुआ वह देव उपपाद शय्या से उठा और विशात्रों विमान देवी प्रादि विभूति तथा सैनिक सम्पत्ति को देखकर प्राश्चर्य को प्राप्त हुमा । उस समय उसे ऐसा जान पड़ता था कि क्या मैं स्वप्न देख रहा है। इसी के मध्य उसे अवधि जान प्राप्त हो गया उस अवधि ज्ञान से उसने जान लिया कि यह सब पूर्वजन्म में किये हुए मेरे चारित्र का महान फल है । उसी चारित्र के फलस्वरुप मेरा इस स्वर्ग में जन्म हुमा है । यह सब जान कर बह धर्म में प्रत्यन्त अनुरक्त शुभा ॥६७-६६॥
तदनन्तर अपने परिवार के साथ जिन मन्दिर जाकर उसने भक्तिपूर्वक जिन प्रतिमानों की महापूजा को ।।७०॥ विम्य जल, सुगन्धित बन्बम, मोतियों के उत्तम प्रक्षत, कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए सुन्दर पुष्प, अमृत के पिण्ड से उत्पन्न नैवेद्य, अन्धकार को नष्ट करने वाले रस्न वीप, धूप, और सारभूत उत्तम फलों से उसने जिनप्रतिमाओं की पूजा की थी। साथ ही जिनेन्द्र भगवान का पद प्राप्त करने के लिये शुभभावों को वेने वाले पीप्तगान, वावित्र और प्रप्सराओं के नृत्य प्रादि के द्वारा उसने बड़े हर्ष से जिनेन्द्र भगवान का महोत्सव किया ।।७१-७३॥ वह देव मेरु तथा नन्दीश्वर प्रावि द्वीपों में प्रतिदिन जिन प्रतिमाओं की नाना प्रकार की पूजा बड़े वैभव के साथ उनकी विभूति-अष्ट प्रातिहार्य रूप विभूति की प्राप्ति के लिये किया करता था ।।७४॥ वह तीर्थकरों के गर्भ प्रावि पञ्च कल्याणकों के समय उनकी विभूति प्राप्त करने के लिये बड़ी भक्ति से पुण्य के सागर स्वरूप १. शुभमागरण।
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* श्री पाश्वनाथ चरित . शृणोति तीर्थ नाथानां वारणी विश्वहितकराम् । प्रत्यहं तस्वश्रद्धायै स्वैकचित्त न सोऽमरः ।।७६।। बनमन्दिरकोडाद्रिष्वसंख्यद्वीपदाधिषु । मेर्वादी स स्वदेवीभिः साद कीडति शर्मणे।।७।। जिनेश्वरगुणोत्पन्नगीतानि संशृणोति सः । नर्शनं विविधं पश्यन्मनोशमप्सरोभवम् ।।७।। द्वाविंशत्यन्दसहस्रषु गतेषु सुधामयम् । मनसाहारमश्नाति तृप्तिकारमसी महत् ।।७।। स द्वाविंशतिपक्षेषु गतेषु सोऽतिशर्मवान् । सुगन्धीकृतदिग्भागमुच्छ वासं लभसे मनाक् ।।८०।1 षड्धरावधिपयंन्त मूर्त्तद्रव्यं चराचरम् । स्वायधिज्ञानयोगेन स पश्यति निरन्तरम् ।।१।। षष्ठश्वभ्रावधौ सर्व गमनागमनादिजम् । कार्यं कर्तुं समर्थोऽसौ विक्रियदिबलेन हि ।।२।। हाविंशत्यधिमानायुदिव्यलक्षणलक्षितः ।हस्तत्रयप्रमाणोरु शुभदेहधरोऽभुतः ॥८३।। नवस्त्रमु कुटाच नेपथ्यैः कृत्स्नैविभूषितः । स्वर्णविम्बनिभो रूपी सप्तधासुविजितः ।।४।। निनिमेषमहानेत्रो निःस्वेदो नित्ययौवनः । मान्यो नुतः सुरैश्चाच्यों दिव्य भोगोपभोगवान् ! ८५|| महामह नामक पूजा को विस्तृत करता था ॥७५॥ वह देव अपने चित्त को अपने प्रापमें स्थिर कर तत्वों को श्रद्धा के लिये प्रतिदिन तीर्थंकरों को सर्वहितकारी वारणो सुनता पा॥७६॥ वह वन मन्दिर क्रोडाचल, असंख्य द्वीप समुद्र तथा मेरु प्रावि स्थानों में सुख प्राप्ति के लिये अपनी वेषियों के साथ क्रीड़ा किया करता था ।।७७।। वह अप्सरानों के नाना प्रकार के मनोहर नृत्य को देखता हुप्रा जिनेन्द्र भगवान के गुरणों से उत्पन्न गीतों को अच्छी तरह सुनता था ।।७।।
यह बाईस हजार वर्ष व्यतीत होने पर अमृतमय तृप्ति कारक मानसिक महान पाहार को ग्रहण करता था ।।७।। सातिशय सुख से युक्त वह देव बाईस पक्ष व्यतीत होने पर विशात्रों को सुगन्धित करने वाला थोड़ा श्वासोच्छ्वास लेता था ।।८०॥ यह अपने पवधिज्ञान के द्वारा छठवीं पृथिवी पर्यन्त के चराचर मूर्तिक द्रव्यों को निरन्तर देखता था ॥५१॥ वह विक्रिया ऋद्धि के बल से छठवें नरक की अवधि तक गमनागमन प्रादि सब कार्य करने के लिये समर्थ था ॥ ८२ ।। जिसकी बाईस सागर प्रमाण प्रायु थी, जो विष्य लक्षणों से सहित था, तीन हाथ प्रमाण अत्यन्त शुभ शरीर का धारक था, प्राश्चर्य कारक था, माला, वस्त्र तथा मुकुट प्रादि समस्त नेपथ्यों से विभूषित था, स्वर्ण बिम्ब के के समान रूपवान था, सात धातुओं से रहित था, टिमकार रहित नेत्रों से सहित था, स्वेद रहित था, स्थायी यौवन से युक्त था, मान्य था, देवों के द्वारा स्तुत तथा पूश्य था, दिव्य भोगोपभोगों से सहित था, देवियों के साथ पुण्योदय से प्राप्त नाना प्रकार के भोगों का सदा उपभोग करता था और भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता था ऐसा बह
१. बाविशति वर्षसहलेषु ।
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★ तृतीय सर्ग *
[ ३७
F
जानो विविधात् भोगान् देवीभिर्धर्मजान्सदा । भक्त्या कुर्वन् जिनेन्द्राचां गतकालं न वेत्ति सः ॥ ८६ सोऽथाजगर एवातिपाप मारेण भग्नवान् । मुनिहत्याप्रजेनाशु षध्छे च श्वभ्र' वारि ७ देहं संपूर्णमासाद्य पपात नरकावनी । श्रधोमुखोऽतिबीभत्सो पापादस्थानदुःस्पृहः ॥८८॥ ather संकीरण महीं प्राप्य पुनः पुनः । सोऽनूत्पत्य पतत्येव कुर्वन् पूत्कारमायतम् ॥८६ नवं तं नारकं दृष्ट्वा प्राक्तना नारकाः खलाः । घ्नन्त्यमा कटुकालापैमुद्गरादिमहायुधः ||१०|| केचितप्तकटाहस्थ तैलेब्वागत्य तत्क्षणम् । तमुत्थाप्य क्षिपन्त्याशु नारका दुःखदायिनः ॥ ६१ ॥ जत्यन्त पूतिगन्धेऽतिदाहदे । मज्जयन्ति तमानीय केचिद् दुःखाय नारकाः ।।६२।। केचिद् व्याघ्रादिरूपेतं विक्रियद्विभवैः खलाः । स्वादन्ति पापपाकेन मष्टं गिरिगुहादिषु ॥ ६३॥ छेदनं भेदनं शूलारोहण बन्धनम् | तीव्रशीतोद्भवं दुःखं मनोवाक्कायसंभवम् ॥१४॥ प्रार्थयत् पारणं दोनो निःशरण्यो निरन्तरम् । सहते सोऽघसंजातं कविवाचामगोचरम् ।। ६५ ।।
वैतरण्या
वेब पतीत हुए काल को नहीं जानता था । भावार्थ-भोगोपभोगों में मग्न होने से वह नहीं जान सका था कि मेरी कितनी आयु व्यतीत हो चुकी है ।।६३-६६ ॥
तदनन्तर मुनि हत्या से उत्पन्न हुए तीव्रपाप के भार से वह अजगर शीघ्र ही o नरक रूपी समुद्र में प्रश्न होगया । भावार्थ- मर कर छठवें नरक गया ॥ ८७॥ संपूर्ण शरीर प्राप्त कर वह नरक की भूमि में पड़ा। पड़ते समय उसका मुख नीचे की मोर था । वह अत्यन्त घृणित था और पाप के कारण उस खोटे स्थान में प्राकर पड़ा था । वज्रमय कांटों से व्याप्त भूमि को प्राप्त कर वह बार बार ऊपर की ओर उछलता था और दीर्घ रोदन करता हुआ पुनः उसी पृथिवी पर पड़ता था |८|| उस मीन नारकी को देख कर पहले के दुष्ट नारकी कटुक श्रालापों के साथ मुद्गर आदि बड़े बड़े शस्त्रों से उसे मारने लगे ।। ६० ।। दुःख देने वाले कितने ही नारकी तत्काल आगये और उसे उठा कर शीघ्र ही तपाये हुए कड़ाहे में स्थित तेल में डालने लगे ।। ६१॥ कितने ही नारकी उसे लाकर प्रत्यन्त दुर्गन्धित और अत्यन्त वाह उत्पन्न करने वाले अंतरगी के जल में
वाने लगे ।।६२।। यदि वह पर्वत की गुहा प्रावि में छिपता था तो वहां उसके पापोदय से कितने ही दुष्ट नारकी विक्रिया ऋद्धि से उत्पन्न व्याघ्र आदि का रूप रखकर उसे खाने लगते थे |१३|| छेवन, भेवन, शूलारोहण, बध बन्धन, तीव्र शीत से उत्पन्न तथा मन, वचन, काय से उत्पन्न दुःख को वह भोगता था ।। ६४ ।। दीन हुआ शरण की प्रार्थना करता था, परन्तु कोई भी उसे शरण नहीं देता था। इस प्रकार वह पाप से उत्पन्न, कविवचनअगोचर दुःख को निरन्तर सहन करता था ।। ६५|| वह शठ प्रढाईसौ धनुष ऊंचाई वाले
१ नरकसमुद्र
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३८]
* श्री पाश्वनाथ चरित - पाल साद्वयोरोधकाय: म धनुषां शत: । हुण्डकास्यकुसंस्थानोऽखिलाधिपीडितः ॥६६|| पापात्मात्यन्तबीभत्स: कुरूपोऽतिभयंकर: । दुःखाम्बुधो निमग्नोऽस्था द्वाविशारयन्धिजीवितः ।१७।
मालिमी
पनि मरणमातापिताको पका-निरुपमसुखसारं देवताभिः स भुङक्त । समममरनिधेयो विक्रियदर्यादिजातं, क्षण मवमतिरम्यं देवलोके सदेव ।।६८|| निरुपमतिती धोरदुःख भुनक्ति, स विविधमतिवरकोषहत्याघपाकात् । अजगर दाहच्छेदनादिप्रभूतं, नरक विषमभूमौ नारकोधः प्रदत्तम् ॥
शार्दूलविकीरितम् शावई विबुधाः क्षमायजनितं सारं फलं शर्मदं, कोपोत्पन्न कुपापजातमसमं दुःस्वं च नानाविधम् । इत्या क्रोधमहारिपु नरकदं क्षान्त्यायुधेन द्रुतं, स्वर्मोक्षकवशोकरां निरुपमा यत्नाद् भजघ्वं क्षमाम् ॥१..
शरीर से युक्त था, हुण्डक नामक खोटे संस्थान से सहित था, समस्त दुःखदायक रोगों से पोडित था, पापी था, प्रत्यन्त घरिणत था, कुरूप या, अतिशय भयंकर था, दुःखरूपी सागर में निमग्न था और बाईस सागर प्रमाण प्रायु से सहित था ॥६६-६७।।
___ क्षमा का फल बतलाते हुए कवि कहते हैं कि इस प्रकार चारित्र सम्बन्धी महाक्षमा से उपाजित पुण्य समूह के उदय से देवों के द्वारा सेवनीय वह विद्युत्प्रभ देव, षिक्रिया ऋद्धि प्रादि से उत्पन्न देवलोक के अनुपम, क्षणिक तथा अत्यन्त रमणीय सुख का सदा देवों के साथ उपभोग करता था ।। । क्रोध का फल बतलाते हुए कवि कहते हैं कि वह पजगर अत्यन्त वैर क्रोध और हत्या से उत्पन्न पाप के उदय से नरक की विषम भूमि में नारकियों के द्वारा दिये हुए तथा तीवदाह और छेदन प्रादि से उत्पन्न अनुपम नाना प्रकार के प्रतिशय तीव्र घोर दुःख को भोगता है ग्रहो विद्वज्जन हो! इस प्रकार क्षमा सम्बन्धी पुण्य से उत्पन्न सुखदायक श्रेष्ठ फल को और क्रोध से उत्पन्न खोटे पाप से उद्भूत नाना प्रकार के दुःख रूप विषम फल को जान कर क्षमा रूपी शस्त्र के द्वारा शीघ्र ही नरकदायक क्रोध रूपी महा शत्रु को नष्ट करो मौर स्वर्ग तथा मोक्ष को वश में करने वाली अनुपम क्षमा को यत्न पूर्वक सेवा करो। भावार्थ-क्षमा का फल सुख है और क्रोध का फल दुःख है ऐसा जान कर ज्ञानी जनों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि वे क्रोध को छोड़ कर क्षमा को धारण करें ।।१०।।
१ पुण्य मम
, ४ माधोत्पन्न पृण्योद्रत ।
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• तृतीय सर्ग .
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सम्परा वीर्येशी विश्वनापो निखिलसुखकरो विश्वविघ्नोपहन्ता,
जाता भव्यात्मनां यो भबजलविभपा वनावः सुपूज्यः' । बन्दश्चार्योऽतिमान्योऽखिलगुणमदनोऽनन्तशर्मकभोक्ता,
हन्यात्स्तुत्यो मया मे सकलसुबरणे बिनजाल स पार्वः ।१०।। इति भट्टारक सिकलकीजिविरचित श्रीपागायचरित्रेऽग्निवेगकुमारदीक्षा विन प्रभ देवभवषर्णगो नाम तृतीयः सर्गः ।
जो तीर्थकुर हैं, सब के स्वामी हैं, समस्त सुखों को करने वाले हैं, सर्वविघ्न समूह के नाशक हैं, संसार समुद्र के भय से भव्यजीवों की रक्षा करने वाले हैं, इन्द्रों के द्वारा सुपूज्य है, चन्दनीय है, अर्चनीय है, अतिशय मान्य हैं, समस्त गुरषों के घर हैं, अनन्त सुख के अद्वितीय भोक्ता हैं, और मेरे द्वारा स्तुत्य हैं वे पार्श्वनाथ भगवान मेरे सकल चारित्र सम्बन्धी विघ्न समूह को नष्ट करें ॥१०॥
इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकोति विरचित भी पारवनाथ चरित में अग्निम कुमार को दीक्षा तथा विद्युत्प्रभदेव के भव का वर्णन करने वाला तृतीय सर्ग समाप्त हमा ॥३॥
१. नृनार्थः स ।
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४. ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित -
चतुर्थ सर्गः जगत्त्रयगुरु बन्दे धर्मसाम्राज्यनायकम् । श्रीपावं विघ्नहन्तारं तत्पावयि सुराषितम् ।।१।। पय जम्मति द्वीपे विदेहेऽपरसंशके : पद्मास्यो विषयो। विद्यते पचं कभृतो महान् ।।२।। कुल-पर्वत-सीतोदानयोर्मध्ये स राजते । दिनदीविजयाश्च वेदीवक्षारयोमहान् ।।३।। सही विजया पखण्डीकृतोऽभवत् । म्लेच्छखण्डानि पञ्चकार्यखण्ड सत्र शर्मदम् ।।४।। यत्रार्या मुनयो नित्यं विहन्ति त्रिदोऽमलाः । भव्यधर्मोपदेशाय कारुण्यवासिताशयाः ।।५।। जिनेशा गणनातीता: पञ्चकल्याणनायकाः । जायन्ते यत्र सर्वशा विश्वनाथा जगद्धिताः ।।६।। पक्रियो वासुदेवास्तदिपवो नृसुराचिताः । रूपिणः कामदेवाश्चोत्पद्यन्ते संख्यजिताः ।।७।। अहिंसालक्षणो धर्मो मिल्यो यत्र प्रवर्तते । विप्रकारो जिमैः प्रोक्तो यतिनावकगोचर: ।।८।
चतुर्थ सर्ग मैं तीनों जगत् के गुरु, धर्म साम्राज्य के नायक, विघ्न प्ररणाशक और देवों के द्वारा पूजित श्री पाश्र्वनाथ भगवान को उनकी निकटता की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता
प्रथानन्तर जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में लक्ष्मी से परिपूर्ण पद नामका महान वेश है ॥२॥ वह देश उत्तर दक्षिण की अपेक्षा नील कुलाचल और सोतोदा नदी के मध्य में सुशोभित है तथा पूर्व पश्चिम को अपेक्षा वेदी और घक्षार गिरि के मध्य में वो नदियों
और विजयार्घ पर्वत से महान है ।। ३ ।। दो नदियों और विजयाध पर्वत के कारण वह षट्खण्ड रूप हो गया है। उसके छह खण्डों में पांच म्लेच्छ खण्ड और एक मुखदायक प्रार्यखण्ड है ।।४।। जिस देश में ज्ञानी, निर्मल चारित्र के धारक तथा दया से सुवासित हृदय वाले मुनि भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देने के लिये निरन्तर विहार करते रहते हैं ।।५।। जहां कालक्रम से पञ्च कल्याणकों के नायक, सर्वज्ञ, सब के स्वामी और जगत के हितकारी असंख्य तीर्थकर होते रहते हैं ॥६॥ जहां मनुष्य और देवों के द्वारा पूजित पक्रवर्ती, नारायण, प्रति नारायण, और सुन्दर रूप के धारक असंख्य कामदेव उत्पन्न हुमा करते हैं ॥७॥ जहां जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हा मुनि और श्रावक सम्बन्धी दो
1. देण ।
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* चतुर्थ सगं *
[ ४१ ग्रामे ग्रामे जिनागारा हेमरत्नमयाः शुभाः । विभ्राजन्ते महोत्त ङ्गा वामिका वृषाब्धयः॥६॥ केवलशानिनो यत्र चतुःसंघविराजिताः । मुक्तिमार्गप्रकाशाय भ्रमन्ति विश्ववन्दिताः ।१०। गणाधीशा गर्णयुक्ताः समस्तद्धिविमण्डिताः । व्रजन्ति यत्र सन्मार्गोपदेशाय सुरार्चिताः ।।११॥ निर्वाणभूमयो यत्र दृश्यन्ते ५ पदे पदे । वन्द्याः पूज्याः स्तुता भव्या वातिवृषाकराः।।१२।। एका वाणी जिनेन्द्राणां श्रूयते यत्र धोधनः । संवेगतत्वबोधाय समस्तार्यप्रकाशिनी ।।१३।। प्रजा वर्णत्रयोपेताः सन्ति यत्र द्विजैविना । न्यायमार्गरता जैनधर्मदानपरायणाः ।।१४॥ कुलिङ्गिनश्च सद्भक्ताः कुदेवा हि तदालयाः। कुधर्मास्तत्प्रणेतरस्तच्छ्वाचरणान्विताः।।१५॥ कुशास्त्राणि च सहकतारः श्रोतारो न जातुचित् । दृश्यन्ते यत्र स्वप्नेऽपि धर्मभेदादयो' मसाः ।। यत्रोत्पन्ना जनाः केचित्तपसा यान्ति नि तिम् । केचित्सर्वार्थसिद्धिञ्च केचिरस्वर्ग सुखार्णवम् ।।१७।। केचित्सत्पात्रदानेन भोगभूमि वजन्त्य हो । जिनाचनेन केचिच्च प्रयन्तीन्द्राविसस्चियम् ॥१८॥ प्रकार का पहिसा लक्षण धर्म स्थायी रूप से प्रवर्तमान रहता है । जहां ग्राम प्राम में सुवर्ण और रत्नों से निमित बहुत ऊंचे शुभ जिन मन्दिर सुशोभित हो रहे हैं। वे जिन मन्दिर धर्मात्माजनों से ऐसे जान पड़ते हैं मानों धर्म के सागर ही हो ॥६॥ जहां चार संघों से सुशोभित, विश्ववन्वित केवलज्ञानी मुनि मोक्ष मार्ग को प्रकाशित करने के लिये बिहार किया करते हैं ।।१०।। जहां गणों-मुनिसंघों से युक्त, समस्त ऋद्धियों से सुशोभित और देवों के द्वारा पूजित गणधर समीचीन मार्ग का उपदेश देने के लिये गमन करते हैं ॥११॥ जहां भव्य जीवों के द्वारा धन्वनीय, पूजनीय, स्तुत्य तथा धर्म को विशाल खानों के समान वर्धनीय निर्धारणभूमियां पद पव पर दिखाई देती हैं ॥१२॥ जहां बुदिरूपी धन को धारण करने वाले भव्य जीवों के द्वारा संवेग-संसार से भय और तत्त्व पदार्थ के वास्तविक स्वरूप का जान प्राप्त करने के लिये समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाली एक जिमबाणी ही सुनी जाती है । भावार्थ-जहां सार्वधर्म के रूप में एक जैनधर्म को ही प्रतिष्ठा है ॥१३॥ जहां की प्रजा ब्राह्मणों के बिना शेष तीनवों से सहित, न्याय मार्ग में रत और बनधर्म तथा दान में परायण है ॥१४॥ कुलिङ्गी कुगुरु और उनके भक्त, कुदेष और उनके मम्बिर, फुधर्म और उनकी श्रद्धा तथा प्रावरण से युक्त उनके प्रणोता, कुशास्त्र और उसके पता तथा श्रोता और धर्मभेद से युक्त नाना मत जहां स्वप्न में भी दिखाई नहीं देते हैं ॥१५१६॥ जहां उत्पन्न हुए कोई मनुष्य तप के द्वारा निवारण को प्राप्त होते हैं, कोई सर्वार्षसिडि जाते हैं और कोई सुख के सागर स्वरूप स्वर्ग को प्राप्त करते हैं ॥१७॥ कोई सत्पात्रों को बान देने से भोग भूमि जाते हैं और कोई जिनेन भगवान की पूजन करने इन माविको १. धर्मसागराः २ कषःमुनियायनगार रूपः चतुःम ३ भितु योग्याः ४. धर्मभेदोत्या मताः ।
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* को पानाव परित देवेशा यदि मोक्षायेहन्ते जन्म महाकुले । यत्र मुक्त्यङ्गनासक्तास्तत्र का वर्णना परा ।।१६11 इत्यादिवर्णनोपेतदेशस्य मध्यभागगम् । पुरमश्वाभिघं भाति विश्वद्धिवृषसज्जनः' ।।२०।। तुङ्गमालप्रतोलीकमनुल्लङ्घपरिवजः । यद्रत्नसंकुलाम्भोभिः दीर्घखातिकया ध्यभात् ।।२१।। घामाग्रस्थध्वजवातकरैराह्वयतीव यत् । नाकिना धर्ममुक्त्यादिसाधनाय बभौ पुरम् ।।२२।। धर्मोपकरगहॅममयः कटाग्रकेतुभिः । यातायातन रस्त्रीभिर्गीतवाद्यश्च नर्तनः ।। २३।। जयस्तवादिशब्दोषरभिषेकमहोत्सवः ।रत्नबिम्बंजिनागारा भ्राजन्ते वा वृषाकराः ।।२४।। भत स्त्रीणां महायुग्मा गम्छन्तो जिनधामनि । पूजोपलक्षिता रम्या देवयुग्मा इवाबभुः ।।२।। पूजां कृत्वा जिनेशानामागच्छन्त्यो निजं गृहम् । काचिन्नार्यो विभान्स्युच्चभूषण मगङ्गनाः ॥२६।। काश्चिद्गायन्ति नृत्यन्ति स्नपयन्ति जिनेशिनम् । पूजयन्ति पराः काश्चिन्नार्यः खग्य' इवान ताः ॥२७॥ यत्रोत्पम्ना गृहद्वारं प्रपश्यन्त्येव गेहिनः । प्रत्यह पात्रदानाय दानिनो धर्मवासिताः ॥२८॥ उत्तम लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं ॥१८॥जब मुक्तिरूपी स्त्री में प्रासक्त रहने वाले इन मोक्ष के लिये जहां के उच्चकुल में जन्म लेने की इच्छा करते हैं तब वहां की दूसरी बर्णना क्या हो सकती है? अर्थात् कुछ नहीं ॥१६॥
इत्यादि वर्णना से सहित उस पम खेश के मध्य में एक प्रश्वपुर नामका नगर है जो नाना प्रकार की सम्पदाओं से विभूषित धर्मात्मा जनों से सुशोभित हो रहा है ॥२०॥ उन्नत कोट और गोपुरों से सहित तथा शत्रु समूह के द्वारा अनुल्लङ्घनीय जो नगर रत्नों से ध्याम जल से उपलक्षित विशाल परिखा से सुशोभित था ॥२१॥ जो नगर महलों के अग्रभाग पर स्थित ध्वजानों के समूहरूप हाथों से ऐसा सुशोभित होता था मानों धर्म और मोक्ष प्रादि की साधना के लिये देवों को बुला ही रहा था ।।२२।। सुवर्णमयधर्म के उपकरणों से, शिखरों के अग्रभाग पर फहराती हुई पताकानों से, माने जाने वाले नर नारियों से, सगीत बाथ और नृत्यों से, जय जय प्रावि स्तुति के राम्ब समूहों से, अभिषेक के महोत्सवों से और रत्नमयी प्रतिमानों से, जहां के जिनमन्दिर धर्म की खानों के समान सुशोभित होते हैं ॥२३-२४॥ पूजा की सामग्री लेकर जिन मन्दिरों की ओर जाने वाले स्त्री पुरुषों के सुन्दर महा युगल जहाँ देव दम्पतियों के समान सुशोभित होते थे ॥२५॥ जहां जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर अपने घर को प्रोर प्राप्ती हुई कितनी ही स्त्रियां उत्तम प्राभूषणों से देवाङ्गनाओं के समान सुशोभित होती थीं ॥२६॥ जहां प्राश्चर्य उत्पन्न करने वाली विधाधरियों के समान कोई स्त्रियां गाती हैं, कोई नृत्य करती हैं, कोई जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करती हैं, और कोई पूजन करती है ॥२७॥ जहां उत्पन्न हुए दानी तथा धर्म । विविधमम्मदाभूषितामिकसुरमैः २. शिश्न राम्रगताकाभि: ३. विद्याधर्म इव ।
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• चतुर्थ सर्ग * केचित्सवाप्य सत्पात्रं कुर्वन्ति तोप मद्धतम् । मध्याह्न केचिदप्राप्य तद्विपाद वजन्त्यहो ।।२।। विधिद्रव्य सुपात्रादिसामग्या दानिन: शुभात् । लभन्ते पञ्चकापचय रलवृष्टयादिजं सुरैः ।।३०॥ तदालोक्य जना: केचित्पात्रदाने मति व्यधुः । केचित्तत्परा जाताः प्रत्यक्षफलदर्शनात् ।।३१।। केचिन्मोहभटं हत्या कर्मणोनार तपोऽसिना । तत्रत्याः प्राप्य देवार्चा यान्ति मुक्ति विरागिणः ॥३२॥ केचित् वृत्ताजितायेन' वाहमिन्द्रपदं महत् । केविच्छ क्रपदं लौकान्तिकभूति भजन्ति ॥३३॥ पाववानजपुण्येन केनिभद्राशया जनाः । भोगभूमौ महाभोगान प्राप्नुवन्ति च राजजाम् ॥३४॥ षामिका दानिनो जैना जिनधर्मप्रभावकाः । जिन भक्ताः सदाचारा व्रतशीलाविभूषिताः ॥३५।। न्यायमार्गरता दक्षाः सिद्धान्तमा विवेकिनः । सदृष्टयोऽतिभागाद्या महाविभवसंकुलाः ॥३॥ रूपलावण्यभूषादिमण्डिता यत्र सन्नराः ! सिम्ताहगोगेना. फोले सोधे नासिव :७।। नवयोजनविस्तीर्ण द्वादशायामम तम् । सहस्रगोपुरः क्षुल्लकद्वारशतपञ्चकः ।।३।। को बासना से युक्त गृहस्थ पात्रदान के लिये प्रतिदिन घर के द्वार का प्रेक्षण नियम पूर्वक करते हैं ॥२८॥ मध्याह्न के समय कोई गृहस्थ सत्पात्र को प्राप्त कर प्रडू त संतोष करते हैं और कोई पात्र के न मिलने से विषाद को प्राप्त होते हैं ॥२६॥ बानी पुरुष विधि, व्य सथा सत्पात्र प्रावि सामग्री से उत्पन्न पुण्य के फलस्वरूप देवों के द्वारा किये हुए रनवृष्टि प्रादि पञ्चाश्चर्यों को प्राप्त होते हैं ॥३०॥ उन पञ्चाश्चर्यो को देखकर कितने ही लोग ऐसी इच्छा करते थे कि हम भी पात्रदान वेंगे और कोई प्रत्यक्ष फल देखने से वान देने में तत्काल तत्पर हो जाते थे ॥३१॥ वहां उत्पन्न हुए कोई मनुष्य तपरूपी तलवार के द्वारा मोररूपी योद्धा को नष्टकर देवकृत पूजा को प्राप्त होते हैं और फिर वीतराग होकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥३२॥ कोई चारित्र के द्वारा उपाजित पुण्य के द्वारा प्रहमिन्द्र के उत्कृष्ट पद को, कोई इन्द्रपद को और कोई लौकान्तिक देवों को विभूति को प्राप्त होते हैं ॥३३॥ भद्र परिणामों से युक्त कोई मनुष्य पात्रवान से उत्पन्न पुण्य के द्वारा भोगभूमि में महाभोगों को और कोई कर्मभूमि में राजाओं के बड़े बड़े भोगों को प्राप्त होते हैं ॥३४॥जो धर्मात्मा है, वानी हैं, जनधर्म के धारक है, जिनधर्म को प्रभावना करने वाले हैं, जिनभक्त हैं, सदा. चारी हैं, व्रत शील प्रादि से विभूषित हैं, न्यायमार्ग में रत हैं, चतुर हैं, सिद्धान्त के ज्ञाता हैं, विवेकी हैं, सम्यग्दृष्टि हैं, भोगोपभोग की अत्यधिक सामग्री से युक्त हैं, महान वैभव से साहित हैं तथा रूप लावण्य और आभूषणों प्रादि से सुभोभित हैं ऐसे समीचीन पुरुष तथा ऐसे ही गुरणों से सहित स्त्रियां जहां घर घर में निवास करती हैं ॥३५-३७॥ जो नगर नौ योजन चौड़ा है। बारह योजन लम्बा है, प्राश्चर्य कारक है तथा एक हजार गोपुरों, पांच १. रत्नवृष्टिः, पुष्पवृष्टिः, मन्दसुगन्धिममीरः, देवदुन्दुभिध्वानः, महोदामम् महोदानम् इति शम्दः, एतानि पम्याावर्गकानि 1 २.कर्मणोमा क-कर्मणाम न कर्मणा उना रहिता इति यावत् ३. पारिवामितपुण्येन ४. राज्यजारक.
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४४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित - यविभाति पुरं द्वादशसहस्रपथैर्वरैः । सहस्रचत्वरैनिस्यैरारामालयपछि क्तभिः ।। कल्याणाकतुं मायाता जिनेशां यत्र नाकिनः । रसिं कुर्वन्त्यमा स्त्रीभिस्तत्को वर्णयितु प्रभुः ।।४०।। इत्यादिवर्णनोपेते पुरे राजा शुभोदयात् । वनवीर्याभिधोऽतीववीर्यशाली बभूव हि ।।४।। स्यागी भोगी सदाचारी तशीसाविशोभितः । नीसिमागंरतो दक्षो जैन: सोऽभाद्गुणोत्करैः ।।४२।। बभूव विजया तस्य देवी रूपगुणकभूः । लाएगा हर देनेला वातिपुण्योपलक्षिता ।।४३।। अच्युतात्सोऽमरएच्युत्वा पुण्यपाकासयोः सुतः । प्रभवद्वचनाभिः सन्नाम्ना' बसमाजभाक् ।।४४।। जिनालये जिनेन्द्राणां महाभिषेकमभुतम् । भूत्या चकार माङ्गल्यकरं माङ्गल्यवृद्धये ।।४।। दीनानापजनेभ्यश्च याचकेभ्यो नुपो ददौ । दानानि बहुधा प्रीत्य सूनुजन्ममहोत्सवे ।।४६।। गीतनतनवापाच : केतुमालादिमण्डन: । महोत्सवस्तदा प्राभूस्पुरै च राजमन्दिरे ।।४।। पयः पानाविक रम्यस्तद्योग्यमंधुरवरैः । प्रत्यहं सगुण: सा वद्ध ते बालचन्द्रवत् ।।४।। सौ क्षुद्र द्वारों, बारह हजार उत्कृष्ट राजमार्गों, एक हजार चौराहों तथा निरन्तर हरे भरे रहने वाले माग बगीचों और महलों की पंक्तियों से सुशोभित है ॥३८-३६। तीर्थंकरों के कल्याणक को करने के लिये प्राये हुए वेव भी जहां अपनी स्त्रियों के साथ क्रीडा करते हैं तब उसका वर्णन करने के लिये कौन समर्थ है ? ॥४०॥
इत्यादि वर्णना से सहित उस नगर में वनवीर्य नामका राजा रहता था जो पुण्योबप से प्रत्यन्त शक्तिशाली था ॥४१॥ वह राजा त्यागी, भोगी, सदाचारी, व्रत शोल मावि से विभूषित, नीतिमार्ग में रत, चतुर, तथा जैनधर्म का धारक था और गुणों के समूह से शोभापमान था ॥४२॥
उस राजा की विजया नामकी रानी थी, जो सौन्दर्य गुण की अद्वितीय भूमि थी, सोमर्यरूपी समुद्र की बेला के समान थी तथा प्रत्यधिक पुण्य से सहित थी ।।४।। वह विद्युत्प्रभ नामका देव प्रच्युत स्वर्ग से सपुत होकर पुण्योदय से उन दोनों के बल के समान शरीर को धारण करने वाला वचनाभि मामका पुत्र हा ॥४४॥ राजा मे मङ्गल वृद्धि के लिये जिन मन्दिर में जिमप्रतिमानों का वैभव पूर्वक मङ्गलकारी प्राश्चर्यजनक महाभिषेक किया ॥४५॥ राजा ने पुषजन्म के महोत्सव में प्रीति के लिये दोन प्रनाथ जनों तथा याचकों को बहुत प्रकार के दान दिये ॥४६॥ उस समय नगर तथा राज महल में गोत, मुस्य, बारित्र प्रावि सया पताका और बन्दनमाला प्रावि की सजावट से बहुत भारी उत्सव हमा था ॥४७॥ वह पुत्र, बालकोधित मधुर, उत्कृष्ट तथा रमणीय दुग्धपान प्राधि कार्यो से प्रतिदिन गुणों के साथ साम बालचन्द्र बोयज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा ।।४।। १. मासिपुग्योपलक्षिता क. २.स नाम्ना क.
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* चतुर्थ सर्ग*
[ ४५ पित्रोः कुर्वन्मुदं मुग्धहस्यमन्मनभाषणः । कौमारत्वं कमादाप स्वस्य योग्याशनादिभिः ।।४६।। स्वजमानां च भृत्यानां स्वानन्दं बर्द्ध यस्त राम् । कान्त्या दोप्ल्या विवेकादिगुणर्वीयमहोद्यमैः ।। ५०।। रूपलावण्यसौभाग्यलक्षणः पुण्यपाकजैः ।कुमारोऽभातरां सोऽमुर 'कुमार इवा तः ।।५१ । विधाय पूजनमहोत्सवं च जिनमन्दिरे । देवशास्त्रमुनीन्द्राणां समूहूर्ते प्रियात्मजम् ।।५।। पिता समर्पयामास जैनस्य पाठकस्य च । शास्त्रार्थास्त्रसुविद्याकलाविवेकादिसिद्धये ॥५३।। विनयेन श्रिया बुद्धधा स्वल्पकालेन सोऽगमत् । पारं धीमान् सुसिद्धान्तास्त्रिविद्याकलाम्बुधेः ।।५४।। ततो यौवनमासाय नीतिमार्गविशारदः । जिन भक्तः सदाचारी व्रती शीलालय: पर: ।।५५।। सुस्वरः सुभगो वाग्मी रूपेण जितमन्मथः । स्वजनापरमयानां प्रियोऽने कगुणाकरः ।।६।। जिनेन्द्राणां गुरूणां च पूजासेवापरायणः । दानशील: कुमारोऽसौ जिनशासन वत्सलः १५७।। कार्याकार्यविचारशो बभी शक इवापरः । विस्त्राभरणग्वस्त्रंदिव्यलक्षण संचयः ।।५।। तयाविधं तमालोक्य रूपयौवन शालिनम् । विवाहविधिनानेक महोत्सवशतः परः ।।५।। मनोहर हास्य और तोतली बोली के द्वारा माता पिता के हर्ष को उत्पन्न करता हुमा यह बालक अपने योग्य भोजन आदि से क्रमशः कुमार अवस्था को प्राप्त हुपा ॥४६॥ कुटुम्बी जनों तथा भृत्य वर्ग के हर्ष को बढ़ाता हुमा यह विस्मयकारी कुमार कान्ति, दीप्ति, विवे. कादि गुरगों, शक्ति, साहस तथा पुण्योश्य से उत्पन्न होने वाले रूप लावण्य और सौभाग्य सूचक लक्षणों से असुर कुमार के समान प्रत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।५०-५१।।
तदनन्तर पिता ने शुभ मुहूर्त में जिन मन्दिर में देव शास्त्र तथा गुरु का पूजन महोत्सक कर पागम, अर्थशास्त्र, शस्त्रविद्या, कला और विवेक प्रादि की सिद्धि के अर्थ प्रियपुत्र को जैन अध्यापक के लिये सौप दिया ॥५२-५३॥ वह बुद्धिमान पुत्र अल्पकाल में ही विनय, लक्ष्मी और बुद्धि के द्वारा सिद्धान्तशास्त्र, अर्थशास्त्र, शस्त्रविधा और कलारूप समुद्र के पार को प्राप्त हो गया ।। ५४।।
पश्चात् जो नीति मार्ग में निपुण है, जिनभक्त है, सदाचारी है, व्रती है, शील का उत्तम सवन है, सुन्दर स्वर वाला है, सुभग है, प्रशस्त वचन बोलने वाला है, रूप से जिसने काम को जीत लिया है, जो स्थजन और परजनों को प्रिय है, अनेक गुणों की खान है, जिनेन्द्र और गुरुत्रों की पूजा तथा सेवा में तत्पर है, दानशील है, जिन शासन का स्नेही है, और कार्य प्रकार्य के विचार को जानता है ऐसा वह कुमार यौवन अवस्था प्राप्त कर समस्त प्राभरग, माला, वस्त्र तथा विध्य लक्षणों के समूह से दूसरे इन्द्र के समान सुशोभित होने लगा ॥५५-५८॥ पुत्र को उस प्रकार रूप और यौबन से सुशोभित देखकर पिता ने १. सुरमर्ता इमाद्भूतःह. २. विधिना तंग कर।
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४६ }
*श्री पाश्र्धनाथ चरित. पिता तन्म स्वपुत्राय परिणेतु मुदा ददौ । बह्वी राजसुता रम्या स्पलावण्यमण्डिताः॥६०। ताभि: कुमार एवातिनिवृति मनसागमत् । तदङ्गस्पर्शनैस्तद् पाद्यालोकनभाषणः ॥६॥ कमारिपतृपद प्राप्म विश्वभूपनुतक्रमः । श्रियं भुनक्ति भूपो महामण्डमेश्यरोद्भवाम् । ६२१ । तत: पुण्य विपाकेन् चक्ररत्न महीपतेः । प्रादुर्बभूव दीप्तं ह्मायुधागारेऽरिखण्डनम् ॥६३।। तथैवाषरत्नानि' ह्य त्पन्नान्यखिलान्यपि । षट्खण्डसाधनान्यत्र स्वस्वस्थानेषु पुण्यतः ।।६।। निषयो नव पद्माधास्तस्य देवः समपिताः । विश्वभोगोपभोगाविदायिनः सुररक्षिताः ।।६।। लतः षट्खण्डभूमागमाक्रम्य चक्रनायकः । साई षडङ्गसैन्येन पराक्रमेण सारे ॥६६॥ ससाष खचरान् सर्वान् विखण्डभूजभूपतीन् । व्यन्तरेशान् स्वपुण्याच्च मागधादिपुरस्सरान।।६७।। तम्योऽनुप्राददे चक्री कन्यारत्नान्यनेकशः । रत्नानि भूषणादीनि सारवस्तूमि संपदः ।।६८) सतो हेमघट: स्वच्छसमिलः संभृतः परः । महोत्सवेन तस्याभिषेकं चक्रुः सुपक्रिएः ।।६६|| उसे विवाह मिपि चिदालो के लिये प्रदेश सभा उत्तम महोत्सषों के साथ हर्ष पूर्वक रूप और सौन्दर्य से सुशोभित बहुत सो सुन्दर राजपुत्रियां वो ॥५६-६०॥ कुमार उन राजपुत्रियों के द्वारा उनके शरीर सम्बन्धी स्पर्श से, उनके रूप प्रादि के देखने से तथा उनके वार्तालाप से प्रस्यषिक मानसिक संतोष को प्राप्त हुना था ॥१॥ कम क्रम से वह पिता के पद को प्राप्त हुमा प्रर्थात् उसका राज्याभिषेक हुमा । समस्त राजा उसके चरणों की स्तुति करने लगे। इस तरह वह राजपद को प्राप्त होकर महामण्डलेश्वर की लक्ष्मी का उपभोग करने लगा ॥२॥
___तवनन्तर पुण्योषय से उस राजा को प्रायुधशाला में शत्रुओं को खण्डित करने वाला वेदीप्यमान चक्ररत्न प्रकट हुमा ॥६३॥ उसी प्रकार उसके पुण्य से षट्खण्ड को वश में करने वाले शेष सभी रत्न अपने अपने स्थानों पर प्रकट हुए ॥६४॥ समस्त भोगोपभोगों को देने वाली, देव रक्षित पन प्रावि नौ निधियां भी देवों ने उसके लिये समर्पित की ।६५।
तदनन्सर चक्ररत्न के स्वामी बननाभि चक्रवर्ती ने परङ्ग सेना के साथ छहखण्ड के भूभाग पर प्राक्रमण कर स्वकीय पुण्य के प्रभाव से युद्ध में पराक्रम के द्वारा समस्त विद्याधरों, छहखण्डों में उत्पन्न हुए समस्त भूमिगोबरी राजाओं और भागष मावि व्यन्सर देवों को वश किया ॥६६-६७॥ विजय के मनन्तर पक्रवर्ती ने उनके लिये अनेकों कन्या रत्न, रत्न तथा प्राभूषण प्रादि सारभूत संपदाएं प्रदान की ॥६॥ तदनन्तर स्वच्छ जल से भरे हुए श्रेष्ठ सुवर्णमय कलशों के द्वारा मागष प्रावि पतरेन्द्रों, विद्याधर राजारों
१.. बदायो .. २. तपंच मेषरनानि क० ३. षट्खण्डजभूपतीन क..
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* चतुर्ष सर्ग *
[ ७ मागधायाश्च देवेशाः खेचरेशा नृपोत्तमाः । सिंहासनाधिरूढस्य नमस्कारपुरस्सरम् ॥७०। ततश्चक्रिश्रियं प्राप्य श्रेयःपाकेन' चक्रभृत् । साद्धं रामादिभिः सोऽवगाहतेऽतिसुखाम्बुधिम् ।।७१॥ माशाविधायिनो मूर्ना नमन्ति तस्कमाम्बुजी । वे द्वात्रिंशत्सहस्रप्रभा भूपाला निरन्तरम् ।।७२॥ बतुरजोतिलभाः स्युगजेन्द्राः पर्वतोपमाः । सावन्त रच रथास्तुङ्गाः स्वर्णरत्नविनिर्मिताः ।।७।। पायुवेगा महाश्वाश्च सन्त्यष्टादशकोटय: । प्रत्यन्तश्रेयसास्यैव पदारयादिबहुधियः ।।७।। पातयो भवन्त्यस्य चतुरशीतिकोटयः । दासीदासान्यभृत्यानां प्रमाणं वेत्ति को दुषः ।।७।। कासास्यो हि महाकालो नेसर्पः पाण्डुकालयः । पप्रमाणपिङ्गाः पखवरत्नसंज्ञको ७६।। मते निघयो दश्चक्रिणः सकलान्यपि । भोगायुषादिवस्तूनि स्वनारिण शुभोग्यात् ।।७७॥ पक्रातरपदण्डासिभणयश्चर्मकाकिणी- गृहपतीभाश्वस्थपतिस्त्रीपुरोधसः || इमानि सुरक्षाणि सदनानि चतुदंश । जीवाजीवप्रभेदानि षट्खण्डसायनान्यपि ॥७॥ उपभोगानि कुर्वन्ति राज्यवृद्धिमनेकशः । दुष्कराणि च कार्याणि पुण्यपाकान्महीपतेः ॥८॥ तवा मूमिगोचरी नरेगों ने सिंहासन पर मंठे हुए रावती वचनाभि का बहुत भारी उत्सव से नमस्कार पूर्वक अभिषेक किया ॥६९-७०॥ तदनन्तर चकरस्न को धारण करने वाला वह पञ्जनाभि, पुण्योदय से चक्रवर्ती को लक्ष्मी को प्राप्त कर स्त्रियों प्रावि के साथ प्रत्यधिक सुखरूपी सागर में अषगाहन करने लगा। भावार्थ-चक्रवर्ती की लक्ष्मी का उपभोग करने लगा ॥७१॥ प्राज्ञा का पालन करने वाले बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा निरन्तर उसके चरण कमलों को शिर झुका कर नमस्कार करते थे ॥७२॥ उसके पास पर्वतों के समान बड़े बड़े चौरासो लाख हाथी थे और स्वर्ण तथा रत्नों से बने हुए उतने ही अचे रथ थे ।।७३॥ वायु के समान वेग वाले पठारह करोड़ घोड़े थे। इसके तीव्र पुण्य से सेवक प्रादि बहुत संपदा उसे प्राप्त थी ॥७४। इसके पौरासी करोड़ पैदल चलने वाले सैनिक थे फिर बासी दास तथा अन्य सेवकों के प्रमास को कौन विद्वान जानता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥७४॥
काल, महाकाल, नैसर्प, पाण्डुक, पम, मारणव, पिङ्ग, शल और सर्वरत्न नौ निधियां चक्रवर्ती के लिये उसके पुण्योदय से भोग तया शस्त्र प्रावि सभी श्रेष्ठ वस्तुएं देती रहती थीं ॥७६-७७॥ चक्र, छत्र, दण्ड, खड़ग, मरिण, धर्म और काकिणी ये सात मचेतन तथा सेनापति, गृहपति, गज, अश्व, स्थपति, स्त्री और पुरोहित ये सात बेसन इस प्रकार वेतन मचेतन के मेव से चौदह रत्न उसके पास थे। ये सभी रत्न देवों के द्वारा सुरक्षित ये तथा षटलण्डवसुन्धरा को वश करने के साधन ॥७८-७९॥ चक्रवर्ती के पुण्योदय से १. पुग्योदयेन २. मिरमहलममा भूपामर स्ते निरस्तपम ख.।
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४८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
सन्याम गोपितो नम्' भुगा नृपात्मजा: । षण्णवतिसहस्राणि पुण्यात्पुण्यगुणान्विता: ।।१।। रत्नानां सारवस्तूनां भोगादीनां च शर्मणाम् । प्रमाणं वेत्ति को धीमान पुण्याचे तस्य धामनि ।१२। दृषं चित्ते निघायोच्च उक्ते भोगान्निरन्तरम् । स स्वश्रेयोऽपितान् सारान बहून्भार्यादिभिः समम् ।८३ दयासत्यनतादीनि धृत्वा स मानसेऽनिशम् । स्वराज्यं पालयत्येव राजनीत्या सुधीर्महान् ||४|| प्रोषधं कुरुते नित्यं चतुःपर्वसु मुक्तये । राज्यारम्भाखिलं त्यक्त्वा कर्मघ्नं स सुखार्गवम् ।।६।। मार्सरीद्रादि-दुनिं हत्वा सामायिकं महत् । धर्मबीजं करोत्येव चक्री कालत्रये सदा ।।८६॥ सामायिक समापन्नो दिवाजाताघसंचयम् । निन्दागर्हणयोगेन क्षिपेद्धीमान्गुणाप्तये ।७।। जिनागारे जिनेशाना विषाते स महामहम् । विभूत्या परया नित्यं सर्वविघ्नहरं परम् ।।८।। कृरस्नाभ्युदयसिद्धयर्थं पूजन श्रीजिनेशिनाम् । विश्वाभ्युदयदातारं स कुर्यात्स्वगृहे सदा ।। श्रीतीर्थोशां भजत्येव महान्तं स महोत्सवम् । नानाभूत्या जनः साद्धं जैनमार्गप्रभावक: ।।१०||
ये रत्न उपभोग के रूप थे, राज्यवृद्धि तथा अनेकों बार कठिन कार्यों को सम्पन्न करते थे ॥५०॥ पुण्योदय से इसकी छयानवे हजार सुन्दर स्त्रियां थीं जो भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजामों को पुत्रियां थीं, और पवित्र गुरणों से सहित थीं ॥५१॥ पुण्य से परिपूर्ण उसके घर में रत्न, श्रेष्ठ वस्तुओं और भोगोपभोग प्रादि सुखों के प्रमाण को कौन बुद्धिमान जानता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥२॥ वह निरन्तर धर्म में चित्त लगाकर अपने पुण्योदय से प्राप्त हुए उत्कृष्ट, सारभूत नाना प्रकार के भोगों का स्त्री प्रावि के साथ उपभोग करता था ॥५३॥ वह महान् बुद्धिमान निरन्तर दया, सत्य तथा व्रत प्रादि को मन में धारण कर ही राजनीति से अपने राज्य का पालन करता था ॥४॥
वह मुक्ति प्राप्त करने के लिये दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इस प्रकार माह के चारों पदों में राज्य सम्बन्धी सम्म प्रारम्भ को छोड़कर कर्म निर्जरा के कारण तथा सुख के सागर स्वरूप प्रोषधोपवास को करता था ।।८५॥ वह चक्रवर्ती पात रौद्र आदि खोटे ध्यान को छोड़ कर सदा तीनों काल धर्म के बीजस्वरूप उत्कृष्ट सामायिक को नियम से करता था ॥८६॥ सामायिक को प्राप्त हुआ वह बुद्धिमान, गुरणों की प्राप्ति के लिये दिन में उत्पन्न हुए पाप समूह का निन्दा गर्दा के द्वारा क्षय किया करता था।८७॥ वह निरन्तर जिन मन्दिर में बड़ी विभूति के साथ श्रीजिन प्रतिमानों को सर्व विघ्नहारी उत्कृष्ट महापूजा करता था ॥८॥ वह सदा अपने गृहचैत्यालय में समस्त अभ्युदयों को सिद्धि के लिये समस्त अभ्युदयों को देने वाली श्रोजिन प्रतिमाओं की पूजा करता था ॥८६॥ जैन मार्ग की
१. पुण्यात्तसा धापनि ब. २ समायिकसमानो - ३. क. प्रतौ पूजनमित्यारभ्य श्लोकान्त पाठो नास्ति ।
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* चतुर्थ सर्ग *
[ ४६
गुरून्सङ्गविनिभुंक्तान्मूर्ध्ना वन्देत प्रत्यहम् । तच्छ्रुश्रूषां करोत्येव गत्वा तद्गुण सिद्धये ।। १११ विश्वशर्माकरं दानं चतुर्धा विधिपूर्वकम् । सत्पात्रेभ्यो ददात्येव भक्त्या दातृगुणान्वितः ।। ६२ ।। शृणोति तद्वचो रम्यं निःशेषं तत्त्वसूत्रकम् । सार्द्ध स्वपरिवारेण वैराग्याय सुखाप्तये ॥१३॥ जिनेन्द्राणां गणेशानां भक्त्या यात्रां प्रयाति सः । तन्नमस्कारपूजायै सद्धमंश्रवणाथ ५ ।।२४।। मनोवाक्काययोगः सद्धमं श्रीजिनभाषितम् । विश्व सौख्याकरीभूतं तनोत्येकं सदा नृपः ।। ६५ ।। प्रव्रतेपच शीलोषैर्दानैः श्रीजिनपूजनैः | वैराग्यभावनादधः सुघर्म्यध्यानंश्च चक्रभृत् ॥६६॥ सिंहासन समारुह्य सभायां धर्मवृद्धये । धर्मोपदेशमादत्त वाक्य : समंसूत्र ७ स्वजनानां च बन्धूनां भृत्यानां बहुभूभुजाम् । लोकानां स्वर्गमोक्षाय जिनधर्मविचारकः ॥ वाचा वदति सद्धमं स्थापयेच्चिन्तयेदृधृदि । तच्छ्रुश्रूषामवादङ्गनेति घमयोऽभवत् ॥ ६६॥ चक्रवर्तिभवा लक्ष्मी राज्य षट्खण्डभूभवम् । मान्यं देवनृपार्थश्च नुतिः पूज्यपदं महत् ।। १०० ॥
प्रभावना करने वाला वह चक्रवर्ती लोगों के साथ मिलकर नाना प्रकार की विभूति से भी तोर्थंकरों के महान महोत्सवों को संपन्न करता था ।।६।। वह प्रतिदिन निर्प्रस्थ गुरुयों को शिर झुका कर वन्दना करता था और उनके गुणों की प्राप्ति के लिये नियमपूर्वक जाकर उनकी सेवा करता था ।। ६१ ।। दाता के श्रद्धा तुष्टि आदि गुरणों से सहित चक्रवर्ती नियम से भक्तिपूर्वक सत्पात्रों के लिये यथाविधि समस्त सुखों की खान स्वरूप चार प्रकार का दान देता था ।। ६२ ।। वह वैराग्य तथा सुख की प्राप्ति के लिये अपने परिवार के साथ सत्पात्र निम्य गुरुथों के तस्वोपदेशक समस्त सुन्दर वचनों को सुनता था ॥९३॥ वह नमस्कार तथा पूजा करने और समीचीन धर्म को सुनने के लिये भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र देव तथा गणधरों की यात्रा के लिये भी जाता था ।। ६४ ।। वह राजा समस्त सुखों की खानभूत जिनेन्द्र प्रतिपादित अद्वितीय सद्धर्म को मन वचन काय - तीनों योगों से विस्तृत करता कर ॥६५॥ अहिंसा आदि पांच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाव्रत रूप सात शीलों के समूहों, चार प्रकार के दानों, श्रीजिनेन्द्र देव की पूजाओं और वैराग्यभावना से युक्त उत्तम धध्यानों से युक्त चक्रवर्ती सभा में सिंहासन पर आरूढ होकर धर्मवृद्धि के लिये सद्धर्मसूचक वाक्यों के द्वारा धर्मोपदेश देता था ।। ६६-६७।। जिन धर्म का विचार करने वाला वह बच्चनाभि चक्रवर्ती, अपने कुटुम्बोजनों, बन्धुनों, सेवकों तथा अन्य अनेक राजाओं को स्वर्ग तथा मोक्ष के लिये शब्दों द्वारा समीचीन धर्म का उपवेश देता था, स्वयं अपने हृदय में उसकी स्थापना तथा चिन्तना करता था, और शरीर से उन सब की सेवा करता था, इस प्रकार वह धर्ममय हो रहा था ।। ६८ ।। चक्रवर्ती की लक्ष्मी, देव तथा राजाओं प्रावि के द्वारा मान्य टखण्ड वसुधा का राज्य, नमस्कार, महान् पूज्यपद तथा अन्य सार
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५०
ॐ श्री चरित
बभूव श्रेयः पाकेने हान्यद्वा सारवस्तु मे । ज्ञात्वेत्येकं तनोत्युच्वं मं सम्राट् स सर्वदा ॥ १०१ ॥
वसन्ततिलका
धर्माद्विना कुत इहाद्र तचक्रभूति-धर्माद्विना कुत इहातिसुखं गरिष्ठम् । धर्माद्विना कुत इहामरभूपमान्यं धर्माद्विना कुत इहालिलकार्यसिद्धिः ॥ १०२ ॥ १ धर्माद्विना कुत इहानुपमा सुकीर्ति-धर्माद्विना कुल इहात्यमला मुबुद्धिः । धर्माद्विना कुत इहातिसुधर्म वृद्धि - धर्माद्विना कुत इहाखिल भोगलाभः ॥ १०३ । धर्माद्विना कुत इहातिविवेक विद्या, धर्माद्विना कुत इहाशु सुवाञ्छितार्थः । मत्वेति स प्रतिदिनं भजते तमेकं धर्मं जिनेन्द्रगदितं सकलार्थसिद्धये ।। १०४॥
धर्मार्थचयो
जगत्त्रयभवः
शा' विक्रीडितम
श्रीमतां, तस्मात्कामसुखं
संजायते
नृदेव जनितं
सर्वेन्द्रियाह्लादकम् ।
भूत जो कुछ भी वस्तुएं मुझे इस लोक में प्राप्त हुई हैं वे सब पुण्य के उदय से प्राप्त हुई हैं ऐसा जानकर वह चक्रवर्ती सदा एक उत्कृष्ट धर्म को विस्तृत करता था । भावार्थ-निरसर धर्ममय आचरण करता था ।। १००-१०१ ॥
इस जगत् में धर्म के बिना चक्रवर्ती की अद्भुत विभूति कैसे मिल सकती है ? धर्म के बिना यहां श्रेष्ठ सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? धर्म के बिना यहां वेद और राजाओं के द्वारा मान्य पद कैसे मिल सकता है ? धर्म के बिना यहां समस्त कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती हैं ? धर्म के बिना यहां अनुपम उत्तम कोति कैसे प्राप्त हो सकती है ? धर्म के बिना यहां निर्मल सुबुद्धि कैसे मिल सकती है ? धर्म के बिना यहां सुधर्म को वृद्धि कैसे हो सकती है ? धर्म के बिना यहां समस्त भोगों की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? धर्म के बिना यहां अत्यधिक विवेक से युक्त विद्या कैसे मिल सकती है ? और धर्म के बिना यहां प्रत्यन्त अभिलषित पदार्थ शीघ्र ही कैसे प्राप्त हो सकता है ? ऐसा मान कर वह प्रतिदिन समस्त प्रयोजनों को सिद्धि के लिये एक जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म की आराधना करता था ।। १०२-१०४।।
धर्म से बुद्धिमानों को त्रिलोक सम्बन्धी अर्थी का समूह प्राप्त होता है, धर्म से समस्त इन्द्रियों को हर्षित करने वाला मनुष्य और देव सम्बन्धी काम सुख उपलब्ध होता है और
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* चतुर्थ सर्ग . घनिर्मोक्ष इहाद्भ तान्मुनिवरः संसागते चक्रभृद्--
विज्ञायेति चतुःपदार्यगुणसंसिद्ध' विष वृषम् ।।१०५॥ धर्मादेव महत्पदं सुरनुतं पटखण्डजाः सम्पदः,
सौख्यं स्त्रीनिकरोद्भव निरुपमं प्राप्तं च धर्मोदयात् । मत्वेतीह वृष जिनेन्द्रपदवं हिसोज्झितं धीधनाः,
कु:ध्वं नितरां प्रयत्न चरणात्सर्वार्थसिद्धये ॥१०॥ धमों मामुको महो , व्यधुर्धामिका,
धर्मेणाशु किलाप्यते शिववधूधर्माय भूर्मा नमः । धर्मान्नास्ति हितंकरों परमहरू धर्मस्य मूलं क्रिया,
धर्म नित्तमहं दबे प्रतिदिन है धर्म मेऽयं हर ।।१०।।..
मालिनी सुरनिकरकिरीटानध्यमारिणश्यभाभि-वरणकमलयुग्म यस्य प्रयोतितश्च । गणधरमुनिसेव्यं पन्दितं पूजितं तं, जिनवरमहमोडे पार्श्वनाथं गुणाप्त्यै ।।१०।।
प्रद्रत धर्म से मुनिवरों के द्वारा इस लोक में मोक्ष प्राप्त किया जाता है-ऐसा जानकर चक्रवर्ती धर्म अथं काम मोर मोक्ष इन चारों पदाथों की सिद्धि के लिये धर्म करता था ॥१०॥ धर्म से ही देखों के द्वारा स्तुत उच्च पद और षट्खण्ड में उत्पन्न होने वाली संपवाएं मिली हैं तथा धर्म के उदय से ही स्त्री समूह से उत्पन्न होने वाला अनुपम सुख प्राप्त हुआ है-ऐसा विचार कर हे विद्वज्जन हो ! समस्त प्रयोजनों को सिद्धि के लिये जिनेन्द्र भगवान का पर देने वाले हिसा रहित धर्म का प्रयत्न पूर्वक अत्यधिक पालम करो। भावार्ष-पहिसा धर्म ही सम सुखों का कारण है इसलिये उसका प्रयत्न पूर्वक प्राचरण करो ॥ १.६ ॥ धर्म समस्त सुख वायक तथा विविध पापों को हरने वाला है, पार्मिक लोग धर्म को करते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र मुक्तिरूषो स्त्री की प्राप्ति होती है, धर्म के लिये मैं शिर से नमस्कार करता है, धर्म से बढ़कर दूसरा हितकारी परम मित्र नहीं है, धर्म का मूल त्रिया-सदाचरण है, मैं प्रतिदिन प्रपना चित्त धर्म में लगाता है । हे धर्म ! मेरे पाप को नष्ट कर ॥१७॥
जिनके चरण कमलों का युगत, देव समूह के मुकुटों में लगे हुए अमूल्य मरिणयों की कान्ति से प्रतिशय वेदीप्यमान रहते थे, जो गणधर तमा मुनियों के द्वारा सेवनीय थे, 1. धर्मार्थकाममोक्षाः चत्वार पदार्थाः ३ विविधपापहरः ३. मे-मम, अधं-पापं ।
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५२ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित -
श्रीसकलकोतिविरचिते श्रीवाश्र्वनाथचरित्रे वचनाभिचतिविभवयानो नाम
चतुर्थः सर्गः ।।४॥
और सब के द्वारा बन्दिा संधी पूजितो उ: जियो मालिक को मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिये स्तुति करता हूं ॥१०८।।
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति के द्वारा विरचित श्री पाश्वनाथ चरित में बचमाभि चक्रवर्ती के विभव का वर्णन करने वाला चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ ॥४॥
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पञ्चम सर्ग.
पञ्चमः सर्गः विश्वविघ्नारिहन्तारं वातारं भव्यदेहिनाम् । अनन्त सुखदातारं प्रोपाचे संस्तुवे गुणः ।।१।। पकदा स चके शो भुक्रवा भोगानतृप्नुवन् । मुक्तिस्त्रीमुखतो भोक्तु प्रायो भन्यजनेयम: ॥२॥ क्षेमकराख्य---भट्टारक-समीपमगाद् द्रुतम् । सैन्येन सह प्राय विस्वक्षेमविषायिने' ॥९॥ त्रिः परीत्य मुनीन्द्रं तं त्रिजगन्नाथन्दितम् । मू| नत्वा प्रपूज्योच्चदिम्यः पूजन वस्तुभिः ।।४।। स्तुरवा गुणगणः सारेवतादिजनित मुंदा । तपादान्तं नृपः सोऽस्थात्मदमश्रवणाय ॥ धर्मवृक्ष्याभिनन्धोच्चै मुनीन्द्रोऽनुग्रहाय सः। प्रवोचममत्ययं निरव त प्रति ॥६॥ राजन् धर्मोऽत्र कर्तव्यो नैकशर्माकरः परः । हितो मुमुमुभिनित्यं षिवृसतपोयमः ।।७।। विधा स विहे धर्मों देशसर्वप्रभेदतः । एकदेशो गृहस्थानां संपूर्णः स मुनीहिनाम् ।।६।।
पञ्चम सर्ग
समस्त विघ्नरूपी शत्रुनों को नष्ट करने वाले, भव्यजीवों के रक्षक तथा प्रनम्त सुखों के दाता श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं उनके गुणों के कारण सम्यक् स्तुति करता हूँ ॥१॥
प्रभानन्तर एक समय भोगों को भोगकर तृप्त नहीं होने वाला वह चक्रवती भव्य जनों के द्वारा चारित्र से प्रार्थनीय मुक्तिरूपी स्त्री का उपभोग करने के लिये उद्यत हुमा ॥२॥ यह शीघ्र ही समस्त संसार का कल्याण करने वाले धर्म के लिये सेना के साथ श्री अमंकर भट्टारक के समीप गया ॥३॥ तीन जगत् के स्वामियों के द्वारा वन्धित उन मुनिराज की तीन प्रदक्षिणाएं देकर उसने शिर से प्रणाम किया, उत्कृष्ट तथा सुन्दर पूजन को सामग्री से पूजा की, तथा चारित्र मादि से उत्पन्न सारभूत गुणों के समूह से हर्षपूर्वक स्तुति को । पश्चात् वह राजा सद्धर्म को सुनने के लिये उनके चरणों के निकट बंट गया ।।४-५॥
मुनिराज ने धर्मवृद्धि के द्वारा अभिनन्दन कर बहुत भारी अनुग्रह करने के लिए राजा के प्रति अत्यन्त निर्दोष धर्म का निरूपण किया ॥६॥ उन्होंने कहा कि हे राजन् ! मोक्ष के अभिलाको जनों को निरन्तर दर्शन जान चारित्र और तप के द्वारा धर्म करना चाहिये, क्योंकि वह धर्म हो अनेक सुखों की उत्कृष्ट खान है ॥७॥ बह धर्म एक देश और सर्व देश की अपेक्षा दो प्रकार का है। एकवेश धर्म गृहस्थों के और सर्वदेश धर्म मुनियों के १. चारित्र. २ विश्वक्षेमविवायिनम क. स्व. ३. निदोष पोर शमं नाकं . हु ।
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*श्री पार्श्वनाथ चरित
साध्यः सोऽणुवतधर्मो गुणशिक्षायतस्तथा । दानपूजोपवासाचं. प्रत्यहं गृहमेधिभिः ।। महान महाव्रतंगुप्तित्रयः समितिपञ्चकः । क्रियते स सपोयोगानाध्ययनकर्मभिः ॥१०॥ गुण लाभिधः सर्वैः परीषहजयोद्यतः । त्यक्तरागैश्च मोहन मुनीन्द्र नापरः क्वचित् ॥११॥ गेहिधर्मेण गार्हस्थ्यः प्राप्यते सुखमुल्वणम् । यावत् षोडशक" नाकं देवोनिकरसंभवम् ।।१२।। मुक्तिरामा समादरी स्वयमेष तपस्विनाम् । आलिङ्गनं स्वभार्यव यतिधर्मप्रभावतः ।।१३।। वेष्टनोष्टनं कुर्याद् गृही स्वं कर्मणानिशम् । सामायिकतपोहिंसाधर्मोहान्वितमानसः ॥१४|| यतो दध्यात् क्वचिद् गेही पुण्यं दान रघक्षयम् । तपोभिस्तद्वयं सामायिकसावचिन्तनः ॥१५॥ क्वचिच्चाधाययुग्मं श्रीचैत्योद्धारादिकारण: । ततो न तद्भवे मोक्षोऽस्त्याबाद गृहमेधिनाम् ।।१६।। बहुइन्द्वातचित्तानां दुराशाग्रसितात्मनाम ! स्त्रीकटाक्षेषु विद्धानां हिसाघारम्भवतिनाम् ॥१७॥ होता है ।।८।। गृहस्थों को वह धर्म अणुव्रत, गुणवत, शिक्षाप्रत तथा दान पूजा और उपबास प्रादि के द्वारा प्रतिदिन करना चाहिये ॥६॥ ____ महान् सर्वदेश धर्म, पांच महाव्रत, तीन गुप्ति, पांच समिति, बारह तप, ध्यान अध्ययन रूप कार्य तथा प्रट्ठाईस मूलगुरखों के द्वारा किया जाता है। यह सर्वदेश धर्म, परोषहों के जीतने में उथत, वीतराग तथा मोह को नष्ट करने वाले मुनिराजों के द्वारा किया जाता है अन्य लोगों के द्वारा कहीं नहीं किया जाता ॥१०-११।। गृहिधर्म-एक देश धर्म से गृहस्थों द्वारा सोलहवें स्वर्ग तक देवियों के समूह से उत्पन्न होने वाला अत्यधिक सुख प्राप्त किया जाता है। भावार्थ-गृहस्थ धर्म को धारण करने वाला मनुष्य सोलहवें स्वर्ग तक ही उत्पन्न हो सकता है उसके प्रागे नहीं ।।१२।। और मुनिधर्म के प्रभाव से मुक्ति रूपी स्त्री स्वयं प्राफर प्रपनी स्त्री के समान तपस्वी जनों को प्रालिङ्गन देती है। भावार्थ--मुनिधर्म के प्रभाव से यह जीव मोक्ष को भी प्राप्त होता है फिर स्वर्ग की तो बात ही क्या है ? ॥१३॥ जिसका निस मोह से युक्त है ऐसा गृहस्थ सामायिक, तप तथा हिंसा प्रादि के द्वारा अपने आपको निरन्तर कर्मों से वेष्टित और उज्वेष्टित करता रहता है ।।१४।। क्योंकि कहीं तो गृहस्थ दान के द्वारा पाप का क्षय करने वाला पुण्य करता है, कहीं तप, सामायिक और सावध फार्यों के चिन्तन से क्रमशः पुण्य पाप दोनों करता है ।।१५।। और कहीं चत्यालयादि के निर्मापण आदि कार्यों से एक माथ पाप-पुण्य दोनों करता है । इसलिये गृहस्थों को प्रात्रय होते रहने से उसी भव में मोक्ष प्राप्त नहीं होता है ॥१६॥ जिनका चित्त नाना प्रकार के द्वन्द्वों से दुखी हो रहा है, जिनको प्रात्मा दुष्ट प्राशा से ग्रसित है, जो स्त्रियों के कटाक्ष रूपो वारणों से विद्ध हैं, हिंसा प्रावि के प्रारम्भों में प्रवृत्ति करते हैं, जिन्होंने इन्द्रियरूपी १. चौकटाक्ष बाणा विधाना।
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* पञ्चम सर्ग *
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सदा ।।१८।।
प्रदान्तेन्द्रिय चौराणां गृहचिन्ताविधायिनाम् । गृहस्थानां हितं नश्येदास्रवैरेनसां यतीनां निर्मलो धर्मो हिंसादिमलदूरगः । विश्वचिन्ताद्यतिक्रान्तो निष्वापोऽनेकशर्मकृत् ॥११॥ तद्भवे मुक्तितिस्यापि शीघ्र सिद्धयं कर्मारिहानये ।। २० ।। स्त्वया चिरं भुक्ला चक्रिलक्ष्मीमनोहरा । तथापि तृप्तिरेवाथ न ते जाता खसेवनं : २ ।। २१ ।। इदानीं त्वं महाभाग स्थक्त्वेमां चक्रिरणः श्रियम् । हत्वा मोहभट खैः सार्द्धं गृहाण तपोऽनषम् ॥ २२ ॥ इत्यादिमुनि पीयूषनिर्गतम् | समस्त पापसंतापहरं भूयोर सावहम् ।। २३ ।। पीत्वा कर्णाञ्जलिभ्यां स भोगतृष्णा महाविषम् हत्वा प्राप्यातिनिर्वेदं हृदि चक्रीति चिन्तयेत् ।। २४ ।। ग्रहो मयातिरागेण स्वेच्छया वक्रिगोचरा: । भुक्ता भोगा हि दुःप्रापास्तृप्तिर्मे नाभवन्मनाक् ।। २५ ।। एति देवा व चिसृप्तिमिन्धनेश्नलो महान् । सरित्पूरेः समुद्रो वा तीव्रलोभी धनागमः ||२६||
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चोरों का दमन नहीं कर पाया है, तथा जो निरन्तर गृह की चिन्ता करते रहते हैं ऐसे गृहस्थों को सवा पापों का प्रात्रव होता रहता है अतः उनका हित नष्ट हो जाता है । भावार्थ - गृहस्थ के कार्यों से कभी निर्जरा होती है, कभी बम्ध होता है । अतः वह अपने प्राप को कर्म - अन्ध से सर्वथा निवृत्त करने में असमर्थ रहता है ।।१७-१८ ।।
मुनियों का धर्म निर्मल है, हिंसादि दोषों से दूर रहने वाला है, समस्त चिन्ताओं से परे है, पाप रहित है, अनेक सुखों को करने वाला है, उसी भव में मोक्ष को देने वाला है, प्रत्यन्त प्रसिद्धि तथा प्रतिष्ठा को करने वाला है और अपने श्राप में उत्कृष्ट है, श्रतः धर्मात्मा ओबों को शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करने और कर्मरूप शत्रुओं का क्षय करने के लिये इसे ग्रहण करना चाहिये ।।१६-२० ।। हे चक्रवत ! तूने चक्रवर्ती की मनोहर लक्ष्मी का चिरकालतक उपभोग किया है तो भी इसमें इन्द्रियों के सेवन से तुझे तृप्ति नहीं हुई है ||२१|| हे महाभाग ! अब तू चक्रवतों की इस लक्ष्मी का त्याग कर तथा इन्द्रियों के साथ मोहरूपी सुभट को नष्ट कर निर्दोष तप को ग्रहण कर ||२२||
इस प्रकार जो मुनिराज के मुख कमल से निकला हुआ है, समस्त पाप और संताप को हरने वाला है, तथा प्रत्यधिक रस को धारण करने वाला है ऐसे धर्मरूपी प्रमृत को करूपी प्रजलियों से पोकर चक्रवर्ती ने भोगतृष्णारूपी महाविष को नष्ट कर दिया और प्रत्यधिक वैराग्य को प्राप्त कर हृदय में इस प्रकार का विचार किया ।। २३-२४।। अहो ! मैंने तीव्रराग वश अपनी इच्छानुसार चक्रवर्ती के दुर्लभ भोग भोगे परन्तु इनमें मुझे रचमात्र भी तृप्ति नहीं हुई ||२५|| कदाचित् देववश महान प्रग्नि ईन्धन से तृप्ति को प्राप्त हो सकती है, प्रथवा समुद्र नदियों के प्रवाह से और तीव्र लोभी मनुष्य धन १. हिंसादिमनदूरतः ० २. इन्द्रियसेवनं ३ इन्द्रियः
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• श्री पार्श्वनाथ चरित * प्रसंस्यकामभोगेश्य पक्रिश कादिगोचरः । भुक्तपिचरतरं कालं जात जीवो न दुविधेः ।।२।। यथाययात्र सेन्यन्ते भोगा बहुतराः शठः । तथातथातिगृद्धयाहो तृष्णा विश्वं विसर्पति ।।२।। कामदाप्रशान्य ये भोगानिच्छन्ति कामुकाः । ज्वरं निषेधयन्त्येव सपिषा ते मतेभ्रंमात् ।।२६।। भोगोरगप्रदष्टानां संतोषभेषजैविना ।न शान्तिर्जायते जातु भुक्त गस्त्रिलोकजः ।।३।। भोगा ये निन्यकर्मोत्पा महादाहविधायिनः । दुस्त्याज्याश्चातिदुःप्राप्यास्ते कुतो रतये सताम् ।।३१॥ दाहदुःखारा प्रादी मध्ये स्वल्पसुखप्रदा: । अन्ते ग्लान्यधकारो ये ते भोगा: कपं शुभाः ।।३२।। मानमङ्गोद्भवा भोगा नार्याः प्रार्थनयोमतः । स्ववीर्यनाशिनो ये तान् किमीहन्तेऽतिमानिनः ।।३३॥ वविडम्बनोत्पन्ना ये भोगा हि स्वयोषितः । अपवित्रकरा निन्द्यास्ते प्रीत्यै धीमतां कुतः ।।३४।। भोगा: सुगुणहन्तारः कृत्स्नदोषविधायिनः । धर्मरस्नभृते भाण्डे चौराः पापाग्निदारवः ॥३५।। की प्राप्ति से संतुष्ट हो सकता है परन्तु दुष्कर्म के उदय से, यह जीप चक्रवर्ती पौर इन्द्र प्रावि सम्बन्धी प्रसंख्य काम भोगों से जिन्हें कि यह चिरकाल से भोग रहा है कभी भी तृप्ति को प्राप्त नहीं हो सकता ॥२६-२७॥ इस जगह में अजानीजनों के द्वारा बहुत भारो भोग जैसे जैसे भोगे जाते हैं वैसे वैसे ही प्राश्चर्य है कि तीव्र प्रासक्ति के कारण इस जीव को तृष्णा समस्त विश्व में फैलती जाती है ।।२८।। जो कामी पुरुष कामदाह को शान्ति के लिये भोगों को इच्छा करते हैं वे बुद्धिभ्रम से घृत के द्वारा ज्वर को नष्ट करते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार घृत के सेवन से ज्वर नष्ट न होकर वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार भोगों से तृष्णा शांत न होकर द्धि को प्राप्त होती है ।।२६॥ भोगरूपी सांप के द्वारा उसे हुए मनुष्यों को संतोष रूपी प्रौषध के बिना, भोगे हुए तोन लोक सम्बन्धी भोगों से कभी शान्ति नहीं होती है ।।३०।। जो भोग निन्ध कार्यों से उत्पन्न हैं, महान दाह को उत्पन्न करने वाले हैं, पुष्त्याज्य है तथा अत्यन्त दुष्प्राप्य हैं वे सत्पुरुषों को शान्ति के लिये कैसे हो सकते हैं ? ।। ३१ ॥ जो भोग प्रारम्भ में दाहरूप दुःख को करने वाले हैं, मध्य में अत्यन्त प्रल्प सुख को देने वाले है, और अन्त में ग्लानि तथा पाप को करने वाले हैं शुभ कैसे हो सकते हैं ? १३२।। जो भोग स्त्री से प्रार्थना करने के कारण मानभङ्ग से उत्पन्न होते हैं तथा अपने वीर्य को नष्ट करने वाले हैं उन भोगों की जानीजन कसे इच्छा करते हैं? ॥३३॥ जो भोग स्वयं अपने तया स्त्रियों के शरीर की विडम्बना से उत्पन्न होते हैं, अपवित्रता को करने वाले है तथा निन्दनीय हैं ये बुद्धिमानों की प्रीति के लिये कसे हो सकते हैं ॥३४॥ ये भोग उत्तम गुणों को नष्ट करने वाले हैं, समस्त दोषों को उत्पन्न करने वाले हैं, धर्मरूपी रत्नों से भरे हुए पात्र के चौर हैं, पापरूपी अग्नि को बढ़ाने के लिये
• - - -.--...- -- -- १ लान्यवक्तारोन ।
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* पञ्चम सर्ग स्वर्गमुक्तिसुखादिमाः' श्वभ्रतियंगतिप्रदाः । मतिध्य सकरा दुप्टा रोगक्लेशादिखानयः ॥३६॥ विश्वदोषाकरीभूताइहामुत्रातिशा पदः । कामकः कातरः सेव्या: पशुम्लेच्छादिदुर्जनः ।।३७।। इत्यादिदोषसंपूर्णा भोगा विषधरोपमा: । हालाहल निभा ये ते त्याज्याः सेक्ष्या न जातुचित् ।।३।। भोगाशा वर्तते यावन्नृणां चित्ते मनागपि । तावद् वृत्ततपःक्लेशर्मुक्तिर्जातु न जायते ।।३।। प्रतो मोक्षार्षिभिः पूर्व मनोव।क्झाय कर्मभिः । फणीन्द्रा इत्र नादेया भोगाः स्वप्नेऽपि मुक्तये ।।४।। सप्तधातुमयं निधि विष्टादिमलसंभृतम । नवद्वार: स्रवत्पति मलं प्रास्थिकटोरकम् ।।४।। कृत्स्नदोषनिधानं कामाक्षमविलोपमम् । शुक्रशोणितमंभूतं कायं कि रतये सताम् ।।४।। क्षुधातृषाम्म र व्याधि क्रोधाग्न यो ज्वलन्त्यहो । वपुःकुटीरके यत्र कास्था तत्र सुधीमताम् ।।४३।। काये पञ्चाक्षसामग्री तया च विषयवज: । तेन चोत्पद्यते रागषमोहादिसंचयः |४|| तप्तः कर्मसमूहश्च कर्मणा भ्रमणं महत् । भवारण्ये चलेऽमारे दुःख व्याघ्रादिसंकुले ।।४५।। लकड़ी हैं, स्वर्ग मोक्ष सम्बन्धी सुखादि को नष्ट करने वाले हैं, नरफ तथा तियंञ्चगति को देने वाले हैं, बुद्धि को भ्रष्ट करने वाले हैं, दुष्ट हैं, रोग तथा क्लेश आदि की खान हैं, समस्त दोषों के प्राकर खान स्वरूप हैं, इस लोक तथा परलोक के तीन शत्रु हैं, कामी, दोन तथा पशु प्रौर म्लेसछ प्रादि दुर्जनों के द्वारा सेवनीय हैं, इत्यादि दोषों से परिपूर्ण हैं, विषधर के समान हैं अथवा हालाहल के तुल्य हैं, अतएव ये छोड़ने के योग्य हैं, कभी सेवन करने योग्य नहीं हैं ।।३५-३८।। जब तक मनुष्यों के चित्त में रञ्चमात्र भी भोगों की प्राशा विद्यमान रहती है तब तक चारित्र और तप सम्बन्धी दलेशों से कभी मुक्ति नहीं हो सकती ।।३। इसलिये मोक्षाभिलाषी जोधों को पहले ही मन वचन काय से मुक्ति के उद्देश्य से स्वप्न में भी भोग ग्रहण नहीं करना चाहिये ; क्योंकि ये भोग नागराज के समान दुःखदायक हैं ॥४०॥ जो सप्त धातुनों से तन्मय है, निन्दनीय है, विष्ठा प्रादि मल से परिपूर्ण है, जिसके नव द्वारों से दुर्गन्धित मल झर रहा है, जो हड्डियों को फुटो के समान है, समस्त दोषों का भाण्डार है, काम और इम्नियरूपी सपो के बिल के समान है तथा रज और वीर्य से उत्पन्न हना है ऐसा यह शरीर सत्पुरुषों की प्रीति के लिये कैसे हो सकता है ? ॥४१-४२॥ अहो ! जिस शरीर रूपी कुटो में क्षुधा, तृषा, काम, नाना प्रकार के रोग और क्रोध रूपी अग्नियां प्रज्व. लित हो रही हैं उसमें उत्तम बुद्धि के धारक मनुष्यों का आदर क्या है ? अर्थात कुछ भी नहीं है ।।४३॥ शरीर में पांचों इन्द्रियां एकत्रित है, उन इन्द्रियों से विषयों का समूह एकत्रित किया जाता है, उससे राग ष तथा मोह आदि का समूह उत्पन्न होता है, उससे कमो का समूह संचित होता है, कर्म समूह से चञ्चल, निःसार तथा दुःख रूपी व्याघ्र प्राधि
१ स्वर्गमूक्तिमुवाविना: ख• २. प्रकृष्टको कमकुरीराम ३. मामग्या ख० ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित सस्माद्घोरतरं दुःखं जायते प्राणिनां चिरम् । इति कृत्स्नात्यनर्थानां मूलं देह जगुजिना. ।।४६।। कायोऽयं शोषितोऽत्रापि 'स्वन्नपानादिभूषणः । पादक याति साढे न जीवेन दुर्जनादिवत् ।।४।। यपाहिः पोषितो दो विषं प्राणान्हरत्यहो । तथा शरीरशत्रुश्च रोगयले शादिदुर्गतीः ।।४।। पत्राने संस्थितो शानी कारागारोपमे२ भजेत् । प्रत्यहं रोगशोकादीन सुप्रीति सत्र कि व्यधात् ।।४।। यमात्र पाल्यते दक्षः सेवक: कार्यसिद्धये । ग्राममात्रप्रदानश्च बिना रागं तथा वपुः ।।५।। गावं कथितं वृत्ततपोयोगयमादिभिः । यस्तैश्च सफलं चके त्यक्त्वा तस्संभव सुखम् ।। ५.१५॥ प्रसारेण शरीरेण सारं वृत्तादिसेवनम् । कर्तव्यं मुक्तये येन भवेत्तत्सफलं भुवि ।। ५२।। पोषितं शोषितं चाङ्ग यमान्तं यदि यास्यति । अवश्यं तहि सिद्धधं हि वरं शोषितमञ्जमा ।। ५३।। विज्ञायेति चलाङ्गन' ग्रासमात्रादिदानतः। द्रुतं मुमुक्षुभिः साध्यमचलं पदमद्भुतम् ।। ५४।। नौषों से परे हर संसार रूपी पसली में बहुत भारी भ्रमरण होता है और उससे प्राणियों को चिरकाल तक तो दुःख होता है, इसीलिये जिनेन्द्र भगवान ने शरीर को समस्त भनयों का मूल कारण कहा है ॥४४-४६।।
उत्तम प्रन्न पान तथा भूषण प्रादि के द्वारा पोषित होने पर भी यह शरीर दुर्जनादि के समान एक पद भी जीव के साथ नहीं जाता है ॥४७॥ जिस प्रकार पोषा गया मर्प विष को देता है और प्रारणों को हरता है उसी प्रकार प्राश्चर्य है कि यह शरीररूपी शत्रु रोग क्लेश मावि दुर्गतियों को देता है ॥४८॥ कारागार के समान जिस शरीर में स्थित जामी जीव प्रतिदिन रोग शोक प्रादि को प्राप्त होता है उसमें वह उत्तम प्रीति को कैसे कर सकता है । ।।४६। जिस प्रकार इस जगत् में चतुर मनुष्यों के द्वारा कार्य की सिद्धि के लिये सेवक का पालन किया जाता है उसी प्रकार प्रासमात्र के दान से-भोजन मात्र देकर राग के बिना शरीर का पालन किया जाता है ॥५०॥ जिन्होंने चारित्र, तप, योग और यम, इन्द्रिय-वमन मादि के द्वारा शरीर को पीडित किया है उन्होंने शरीर से उत्पन्न होने वाले सुख को छोड़कर उसे सफल किया है।५१। जिस कारण निःसार शरीर से मुक्ति के लिये मारभूत चारित्र प्रादि का सेवन किया जाता है उसी कारण वह पृथियो पर सफल होता है । भावार्थ-जिस शरीर से तपश्चरण आदि किया जाता है वही शरीर सफल कहा जाता है ॥ ५२ ॥ शरीर का चाहे पोषण किया आय चाहे शोषरण, यह अवश्य ही यदि मृत्यु को प्राप्त होता है तो मुक्ति प्राप्ति के लिये उसका सम्यक् प्रकार से ( सल्लेखना विधि से ) शोषण करना ही अच्छा है ।।५३॥ ऐसा जानकर मोक्षाभिलाषी जीवों की शीघ्र ही चञ्चल शरीर के द्वारा मात्र पास प्रादि देकर पाश्चर्यकारी अविनाशी पद-मोक्ष
१. शोमनानपानप्रभृत्यलंकार २, बन्दीगृहमदृशे ३. नश्वरशरीरेण ।
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पञ्चम सर्ग -
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निःसारे विषमे भीमेऽनादौ कृत्स्नासुखाकरे । अनन्ते को रति कुर्यात् त्यक्त्वा धर्म भवे सुधीः ।।५।। मृत्युवाडवदुगलें जराजन्मजलाकुले । दुःखमीनादिसंकीर्ण रोगक्लेशोमिचञ्चले ॥५६॥ मिथ्यावाताकुले पापरावर्ते मोहात्तितस्करे । मजन्यहो भवाब्धी हि धर्मनावं विनाङ्गिनः ।।५७।। केचिदिष्ट वियोगेन पीरिताः शोककारिण: । चानिष्टयोगतः केचिद्रोगैस्ता हि केचन ॥५॥ केचिज्जरमा धा: चिद दारिद्रयदुःखितः । धृता बन्दीगृह केचित् केचिन्ने त्रादिवजिताः ।।६।। दुःखीजाता जनाः केचिन्मानभङ्गन मानिनः । देशाद्रधब्यटवी' केचिद् द्रव्याथं संभ्रमन्ति च ।। इत्यशर्ममये घोरे भवे दुःखकपूरिते । पुण्यवान् दृश्यते जातु न स योऽहो सदा सुखी ।।६।। सेवन विषयाणां यत्सुख जानन्ति रागिण: । भवेत्तद्विषमं दुःखं ज्ञानिनश्चाधवद्धं नात् ॥६२।। यदि स्यात्संसृति भंद्रा सहि क्रिश्रिया समम् । तां त्यक्त्वाशु कथं मोक्षं ससाधुस्तपसा जिनाः ।।६३।। की प्राप्ति कर लेना चाहिए ॥५४॥ ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो धर्म को छोड़कर निःसार, विषम, भयंकर, प्राविरहित तथा समस्त दुःखों की खान स्वरूप अनन्त संसार में प्रीति करेगा ? ॥५॥
अहो ! जिसमें मृत्युरूपी बडवानल के कारण दुःखदायक अनेक गर्त है, जो जरा और जन्मरूपी जल से भरा हुआ है, दुःखरूपी मगर मच्छ आदि से परिपूर्ण है, रोग अन्य क्लेशरूपी तरङ्गों से चंचल है, मिथ्यात्वरूपी वायु से आकुलित है-लहरा रहा है, पापरूपी भंवरों से युक्त है, तथा मोह जनित पीड़ारूपी चोरों से सहित है ऐसे इस संसाररूपी सागर में जीव धर्मरूपी नौका के बिना ड्रप रहे हैं ।।५६-५७॥
इस संसार में कोई इष्ट वियोग से पीडित होकर शोक कर रहे हैं, कोई अनिष्ट संयोग से, कोई रोगों से ग्रस्त होकर, कोई जरारूपी अग्नि से जलकर, कोई दरिद्रता का दुःख भोगते हुए, कोई बन्दीगृह में पड़कर, कोई नेत्रादि से रहित होकर, और कोई मानो जीव मानभङ्ग से दुःखी हो रहे हैं तथा कितने ही जीव धन के लिये देश, पर्वत, समुद्र और प्रवियों में भ्रमण कर रहे हैं । इस प्रकार दुःखमय तथा मात्र दुःखों से भरे हुए भयंकर संसार में कभी ऐसा कोई पुण्यशाली जीव दिखाई नहीं देता जो सदा सुखी रहता हो ॥५८-६१॥
रागी जीव विषयों के जिस सेवन को सुख मानते हैं जानी जीव को वह पाप पर्वक होने से विषम दुःख जान पड़ता है ।। ६२॥ यदि संसार अच्छा होता तो जिमेन्द्र भगवान चक्रवर्ती की लक्ष्मी के साथ उसका त्याग कर तप के द्वारा शीघ्र ही मोक्ष का साधन क्यों
१ देशपर्वतम मुरणपानि २. सहसास्तपसा जिन:: क ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित *
राज्यं रजोनिधं करस्नपारारम्भादिसागरम् । बहुवेर कर चिन्ताकर क: पानयेत्सुधीः ॥६४।। वेश्येव चपला लक्ष्मीः सेव्यानेकजन: खला । अतृप्ति जननी दुःप्रागा कथं रज्जयेत्मताम् ।। ६५१ । बन्धवो बन्धनान्येव भार्या मोहनकारिणी । पुत्राः पाशोपमाः पुंसां स्वजना: शृङ्खलानिभाः। ६६ । कुटुम्बमाहित धर्मतपोदानादिवारकम् । सावधप्रेरक विद्धि कृत्स्नपापनि बन्धनम् ।।६७।। रलत्रयतपोल्यानधर्मादिम्यो विना हितस् । न नृणां विद्यते जातु वस्तु किञ्चिन्महीतले ।।८।। प्रतो यावत्पदन्येव' पञ्चाक्षारिण दृढ वपुः । तपःक्षमं महाबुद्धिरायुर्नीरोगतोयमा:२ ॥६॥ तावद्धत्वात्र मोहारि सार्द्ध पञ्चेन्द्रियैः खलंः 1 सुनिर्वेदासिना' शीघ्र गृह्णामि परमं तपः ।।७।। इत्यादिचिन्तनाल्लब्ध्वा महत्संवेगमञ्जसा । विश्ववस्तुषु दीक्षायं चकारात्युद्यम नृपः ।।१।। ततस्त्यक्त्वाखिला लक्ष्मी तृण वच्चक्रिगोचरम् । कामिनीनिधिरत्नादिपूर्णा पटखण्डभूप्रजाम् ।।७।। संस्थाप्य स्वसुत राज्ये विभूत्या विधिना ततः । निःशल्यो नि:स्पृहः सोऽभूत्सस्पृहो मुक्तिसाधने ।।७३ ।
करते ? ॥६३।। जो रज के समान है, समस्त पाप तथा प्रारम्भ प्रादि का सागर है, बहुत वर को करने वाला है तथा चिन्ता को खान है ऐसे राज्य का कौन बुद्धिमान पालन करेगा? ॥६४॥ जो वेश्या के समान चञ्चल है, अनेक मनुष्यों के द्वारा सेवनीय है, दुष्ट है, अतृप्ति को उत्पन्न करने वाली है और उतने पर भी दुष्प्राप्य है, ऐसी लक्ष्मी सत्पुरुषों को अनुरक्त कैसे कर सकती है ? ॥६५।। पुरुषों के लिये बन्धु बन्धन हो हैं, स्त्री मोह उत्पन्न करने वाली है, पुत्र पाश के समान हैं, और स्वजन कुटुम्बी लोग सांकल के तुल्य हैं ॥६६॥ जो धर्म, तप तथा दान आदि को रोकने बाला है, पाप कार्य में प्रेरणा करने वाला है और समस्त पापों का कारण है ऐसे कुटुम्ब को अहित शत्रु जानना चाहिये ॥६७।। पृथिवी तल पर रत्नत्रय, तप, ध्यान और धर्म प्रादि के बिना कोई भी वस्तु कभी भी मनुष्यों के लिये हितकारी नहीं है ।।६७॥ इसलिये जब तक मेरो पांचों इन्द्रियां समर्थ हैं, शरीर दृढ़ तथा तप करने में समर्थ है, उत्सम खुसि है तथा प्रायु, नीरोगता और उद्यम प्रादि विद्यमान हैं तब तक उत्तम बराग्यरूपी तलवार के द्वारा दुष्ट पञ्चेन्द्रियों के साथ मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर मै शीघ्र हो परम तप को ग्रहण करता हूँ ।।६६-७०।। इत्यादि चिन्तन से समस्त वस्तुओं में बहुत भारी वास्तविक वैराग्य को प्राप्तकर राजा ने दीक्षा के लिये अत्यधिक उद्यम किया ॥७१।।
तदनन्तर चक्रवर्ती को समस्त लक्ष्मी और स्त्री, लिधि तथा रत्नावि से परिपूर्ण षट्खण्ड वसुधा की प्रजा को सृरण के समान छोड़कर उसने अपने पुत्र को विधिपूर्वफ वैभव के साथ अपने पद पर स्थापित किया । इस तरह वह निःशल्य तथा निःस्पृह होकर भी
१. समर्थानि २. नीरोगतोयमः १०३ प्रकृष्टवराग्यखड़गेन ४, पर वह भूभुजाय
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* पञ्चम सर्ग *
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क्षेत्राferrerबाह्य परिग्रहं द्विसप्तधा । अभ्यन्तरं विहायोस्त्रिशुद्धद्या च कृतादिभिः ।।७४|| जग्राह मुक्तये चक्री संगमं देवदुर्लभम् । राजभिर्बहुभिः सार्धं संवेगादिगुणान्वितैः ॥७ ततोऽतिदुष्करं घोरं द्विषड्भेदं तपोऽनघम् । स्ववीर्यं प्रकटीकृत्य वित्त मोघहानये ।१७६ ।। मनोऽक्षाषजयाय सः 113 911 अङ्गपूर्वश्रुतं सारं दुःकर्मघ्नं जगद्धितम् । पत्येवमादेन अरण्ये निर्जने स्थानेऽद्रिकन्दरगुहादिषु | शुन्यागारण्पसानेषु वनादौ तरुकोटरे ॥ ७६ ॥ व्याघ्रादिदृष्टसं की एकाकी निर्भयो मुनिः । व्यश्रात्म सिंहवन्नित्यं ध्यानाय शयनासनम् । प्रावृट्काले तमूंले पतीराहिमकुले | सर्वदुःखाकरे दध्याद्योगं योगनिरोधकम् ॥ ८० ॥ तुषार बहुलेऽसाध्ये हेमन्तेऽपि श्रुतुः पथे । ध्यानोमा हनन् शोतवाधा सोऽस्थात्सुनिर्मलः ॥ ८१ ॥ ग्रीष्मे भानुकस्तान पर्वताग्रशिलानले पिवन् ध्यानामृतं कुर्याद्युत्सर्गं सूर्यमन्मुखः ॥ ६२ ॥
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मुक्ति की साधना के लिये उत्कण्ठित हो गया ।।७२-७३ ।। पश्चात् क्षेत्र प्रादि के भेद से दश प्रकार के बाह्य और चौदह प्रकार के अन्तरङ्ग परिग्रह को छोड़कर चक्रवर्ती वचनाभि ने मन वचन काय की शुद्धि तथा कृत कारितादि पूर्वक मुक्ति के लिये संवेग प्रादि गुरणों से सहित बहुत राजानों के साथ देव दुर्लभ संयम को धारण कर लिया। भावार्थ- प्रनेक राजाओं के साथ मुनि दीक्षा ले ली ।।७४-७६ ।।
तदनन्तर वे आत्मशक्ति को प्रकट कर पापों को नष्ट करने के लिये बारह प्रकार का प्रतिशय कठिन घोर और निर्दोष तप करने लगे ||७६ || वह मन तथा इन्द्रिय सम्बन्धी पापों को जीतने के लिये प्रमाद रहित होकर दुष्कर्मों के नाशक तथा जगत् हितकारी प्र पूर्व रूप श्रेष्ठ श्रुत को पढ़ते थे । भावार्थ- प्रङ्ग पूर्व ग्रन्थों का निरन्तर स्वाध्याय करते थे ॥७७॥ वन में, निर्जन स्थान में, पर्वत की कन्दरा तथा गुफा आदि में शून्यागार तथा श्मसान में, वृक्ष की कोटर में तथा व्याघ्र आदि दुष्ट जीवों से भरे हुए वन प्रादि में वह सिंह के समान निर्भय मुनि एकाकी ध्यान के लिये निरन्तर शयनासन करते थे । भावार्थविविक्त शय्यासन तप का पालन करते थे ।।७८- ७६ ।। वे वर्षाऋतु में पड़ते हुए पानी तथा सांपों से युक्त और समस्त दुःखों की खानस्वरूप वृक्ष के नीचे योगों का निरोध करने वाला वर्षायोग धारण करते थे ||८०|| वे निर्मल मुनिराज तुषार से परिपूर्ण असाध्य हेमन्त ऋतु में ध्यान रूप गर्मी से शीत की बाधा को नष्ट कर चौराहे पर स्थित होते थे- शीतयोग को धारण करते थे ।। ८१ ।। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणों से संतप्त पर्वत के प्रभाग पर विद्यमान शिलातल पर सूर्य के सम्मुख हो ध्यानरूपी अमृत का पान करते हुए व्युत्सर्ग तप करते थे । भावार्थ- संतप्त शिलातलों पर ग्रासीन होकर ग्रीष्म योग को धारण करते
शम् ।
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•षी पाश्र्वनाथ चरित
प्रप्रसस्तं द्विधा ध्यानं त्यक्त्वा दूर दुरुत्तरम् । धर्मध्यानं भजेनित्यं चतुर्धा स सुखाकरम् ॥८॥ निःसंकल्पं मनः कृत्वा स्वसंवेदनसन्मुखम् । कृत्स्नचिन्तातिगं निमलं सुसंवेगवासितम् |1 अनन्तगुणराशेः स्वचिदानन्दमयात्मनः । ध्यानं शुक्लाभिधं घने कर्मन्धनहुताशनम् ।।८।। भनेकान् विहरन देशान् ग्रामझेटपुरादिकान् । वनाटव्यद्रिदुर्गादीन् निर्ममत्वाय वायुवत् ॥८६॥ घोपदेशना दद्याद्भव्येभ्यो मुक्तिहेतवे । स्वर्गमोक्षकरी दिव्यगिरा नित्यं मुनीश्वरः ॥८७।। पादौ क्षुधातृषाशीतोष्णदंशमशकाभिधाः । तथा नागन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्यापरीषहाः ।। शय्याकोशबधा याञ्चालामरोगसमाह्वयाः । तृणस्पर्शमलो सरकारपुरस्कारनामभाक ॥ प्रज्ञाशानाभिधी चादर्शन मेताम् हि दुई रान् । सहते धीरधीनित्यं द्वाविंशतिपरीषहान् ॥१०॥ दुःकर्मनिर्जरार्थ सन्मार्गाच्यवन हेतवे । सर्वशक्त्या प्रयत्नेन प्रतीकारं विनाजसा ॥१॥ उत्तमा क्षान्तिरेवादी मार्दवोऽन्वार्जवं ततः । त्यं शौचं तथा संयमतपस्त्याग एव हि ।।१२, पाकिञ्चन्यं वरं ब्रह्मचर्य चेति दशात्मकम् । धर्म स्वमुक्तिकरि विशुद्धघा स भजेत्सदा ।।६३||
ये ॥२॥ वे दो प्रकार के प्रप्रशस्त ध्यान को दूर से ही छोड़कर अतिशय कठिन तथा सुख की खान स्वरूप चार प्रकार का धय॑ध्यान निरन्तर धारण करते थे।।३।। वे मन को संकल्प रहित, स्वसंवेवन के सम्मुख, समस्त चिन्तामों से शून्य, निर्मल और उत्तम संवेग से सुवासित कर अनन्त गुणों की राशि स्वरूप ज्ञानानन्द से सम्मय स्वकीय शुद्ध प्रात्मा का चिन्तन करते हुए कर्मरूपी इन्धन को भस्म करने के लिये अग्नि स्वरूप शुक्लध्यान को धारण करते थे ॥८४-८५॥ अनेक वेस, प्राम, खेट, नगर, वन, अटवी, पर्वत और दुर्ग आदि स्थानों में ममता का प्रभाव करने के लिये वायु के समान बिहार करते हुए वे मुनिराज भव्य जीवों को मुक्ति प्राप्ति के लिये निरन्तर मधुर वाणी से स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त कराने वाले धर्म का उपदेश देते थे ।।६६-६७।। स्थिर बुद्धि को धारण करने वाले वे मुनिराज खोटे कर्मों की निर्जरा के लिये तथा समीचीन मार्ग से चयुत न होने हेतु अपनी समस्त शक्ति से प्रयत्नपूर्वक पथार्थ रूप से झुधा, तृषा, शीत, उष्ण, वंशमशक, नाम्न्य, परति, स्त्री, चर्या, निषथा, शय्या, प्राक्रोश, वध, पाञ्चा, प्रलाभ, रोग, तपस्पशं, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रमा, प्रज्ञान और प्रदर्शन इन दुर्धर बाईस परोषहों को सहन करते थे ।।११।। वे सदा त्रियोग की शुद्धिपूर्वक स्वर्ग और मोक्ष के करने वाले उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, स्याग, पाकिञ्चन्य और उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य इन दश धमों की पाराधना करते थे ॥६२-६३।।
१. सुखाकर: ब. २ परमार्थेन ।
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- पञ्चम सर्ग है
एकदा मुनिनायोऽसौ त्यनत्वा देहं बने दधौ । म्याने चित्तं नियोज्यातापनयोगं स्वमुक्तये ||४|| प्रथ सोजगरः प्राक्तनो नियंत्यायुषः क्षये । श्वभ्राद् दुःखं महद मुक्त्वा पापपाकेन पापधीः ।।६।। कुरङ्गाल्यो वने भिल्लोऽनेकसत्त्वक्षयंकरः । पापद्धांदिग्तो दुष्टो दुष्टकमकरोऽयभूत् ।।६।। भ्रमता तेन पापों बनेऽतिपापिनाऽशुभात् । क्रू रशियेन स दृष्टो मुनीन्द्रोऽतीवीरषी: ॥६॥ निस्सङ्गो वायुवच्छान्तमानसः स्वज्छनीरवत् । पृथिवीवत्क्षमायुक्तो मेरुवत्सुस्थिरो महान् ॥१८॥ कर्मेन्धनेऽग्निसादृश्यो गम्भीर इव सागरः । सिहनिर्भयोऽत्यन्तनि:स्पृहस्त्यक्तविक्रियः ॥ शोतवातोगदशादिकृतबाधासहः परः । ध्यानारूढः परित्यक्तकायोऽनेकगुणाम्बुधिः ।१०। ततः प्राक्तनवैरेण कोपारिणत लोचनः । भूत्वा घोरतरं पापी प्रोपसर्ग व्यपान्मने: ॥१० दुःसह विविध तीन प्राणघ्नं भीरुभीतिदम् । निर्भपनकरेक्यिः पटुक: कर्णभीतिदः ।।१०२।। श्रेदनर्भेदन स्तोत्रे बंधबन्धनसाढन : 1 सर्वदुःखाकरीभुतं श्चान्यः कातरभीतिदः ।।१०३।।
एक समय वे मुनिराज प्रपनी मुक्ति के लिये शरीर से ममता भाव छोड़कर तथा ध्यान में चित्त लगाकर वन में प्रातापन योग धारण कर रहे थे ।।६४॥ तदनन्तर वह पहले का अजगर प्रायु का भय होने पर बहुत भारी दुःख भोगकर नरक से निकला और पाप के उदय से धन में अनेक जोत्रों का क्षय करने वाला कुरङ्ग नाम का पापी भील हुदा । यह शिकार प्रादि में तत्पर रहता था, दुष्ट था और दृष्ट कार्यों को करने वाला भी था ॥५६६। एक बार वह तीव पापो शिकार के लिये वन में घूम रहा था, कि फर अभिप्राय वाले उसने अत्यन्त धीर बीर बुद्धि के धारक उन मुनिराज को देखा ॥६७॥ दे मुनिराज वायु के समाम निःसङ्ग थे, स्वच्छ जल के समान स्वच्छ अन्तःकरण के धारक थे, पृथियों के समान क्षमा से युक्त थे, मेरु के समान प्रत्यन्त स्थिर तथा महान् थे, कर्मरूपी इन्धन को भस्म करने के लिये अग्नि के समान थे, समुद्र के समान गंभीर थे, सिंह के समान निर्भय थे, अत्यन्त निःस्पृह थे, निविकार थे, शीत वायु, उष्ण तथा देशमशक प्रादि के द्वारा की हुई वाधा को सहन करने वाले थे, उत्कृष्ट थे, ध्यान में प्रारुढ थे, शरीर की ममता का त्याग कर कायोत्सर्ग मुद्रा में लीन थे तथा अनेक गुणों के सागर थे ।।६८-१००॥
- तदनन्तर पूर्व वैर के कारण क्रोध से लाल लाल नेत्रों वाला होकर उस पापो भोस ने मुनिराज पर अत्यन्त भयंकर उपसर्ग किया ॥१०१।। तिरस्कार करने वाले, कटुक तथा कानों को भय दायक वचनों के द्वारा, छेदन, भेवन, तीन वध, बन्धन, ताडन, समस्त दुःखों को खानभूत तथा कायर मनुष्यों को भय देने वाले अन्य साधनों द्वारा उसने दुःख से सहन करने योग्य, प्राणघातक, तथा भीरु मनुष्यों को भय देने वाला नामा प्रकार का सोन उप१. म्वनये ।। २. नरकान् . मृगयाव्यिवनामकः । मृगणाग भृगपोहे ध्ये नेदर्थ ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित * तस्मिन्नुपद्रवे सोऽतिनिःश को निभयो व्यपात् । घ्याने परात्मनोऽनन्तगुणसिन्धोनिजं मनः ।।१०४।। निःसंकल्पं निरावाचं द्विधाराधन-तत्परम् । भयसप्तवान:कान्तं संवेगादिगुणाङ्कितम् ।।१०।। न वेदयत्यसो धीरस्तस्कृतां बहुधा व्यथाम् । ध्यानाविष्टेन चितेन संकल्पाभावतस्तदा ।।१०६।। प्रभूत् स हत्यमानोऽपि सघानामृतपानतः । निःशल्पोऽतिनिराबाधो भयसप्तविनिर्गत: ।।१०७।। पीडधमानोऽपि सोऽगान्न मनागपि कुविक्रियाम् । चन्दनं च यथा लोके खण्डनं दहनादिकैः ॥१०|| क्षमा विधाय कर्मनां प्राणान्तेऽपि व्यधान्न सः । मनाककोप तपोधचित्तादिवनेऽनलम् ॥१०६।। अहो धन्यास्त एवात्र येषां याति न विप्रियाम् । मनः शत्रु कृतोरस्पद्रव कदम्बकः ।।११।। प्रशस्यारते मुनीन्द्रा हि महान्तो धैर्यशालिनः । येषां चालयितु पाक्यं ध्यानं नात्रात्युपदवः ॥१११।। वन्धाः स्तुत्यास्त एवात्र कायोत्सर्गयमादिकम् । मुञ्चन्ति प्राणनाशेऽपि ये न सर्वेः परोषहैः ॥११२।। सहित्वा तत्कृतां वा दशप्रारणान्तकारिणीम् । निश्चयव्यवहाराख्यां चतुराराधना बराम् ।।११३।।
सर्ग किया ॥१०२-१०३॥ उस उपद्रव के बीच अत्यन्त निःशड तथा निर्भय मुनिराज ने अपना मन प्रनन्त गुरणों के सागर स्वरूप परमात्मा के ध्यान में लगाया ॥१०४।। उस समय उनका मन संकल्प रहित था, वाधा रहित था, निश्चय और व्यवहार के भेद से दोनों प्रकार की प्राराधनाओं में तत्पर था, सात भयों से रहित था और संवेग प्रादि गुणों से युक्त था॥१०५॥ वे धीर बीर मुनिराज उस समय संकल्प का प्रभाव होने से ध्यान में लवलीन चित्त से उस भोल के द्वारा की हई नाना प्रकार की पीड़ा का देवन नहीं कर रहे थे ॥१०६॥ मारे जाने पर भी वे महामुनि सवर्मरूपी अमृत के पान से निःशल्य, अत्यन्त निरागाध, और सातभयों से रहित थे ॥१०७॥ जिस प्रकार लोक में चन्दन, खण्डित करने तथा अलाये जाने प्रावि से विकार को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार के मुनिराज पोरित किये जाने पर भी रकममात्र विकारभाव को प्राप्त नहीं हुए ॥१०॥ उम मुनीश्वर ने कमों को नष्ट करने वाली क्षमा धारण कर प्राणान्त होने पर भी, तप, धर्म, ज्ञान तथा चारित्र प्रादि वन को भस्म करने के लिये अग्नि स्वरूप क्रोध रञ्चमात्र भी नहीं किया था ।।१०६॥ महो ! इस संसार में ये ही मनुष्य धन्य हैं जिनका मन शत्रुनों के द्वारा किये हुए भयंकर उपसगों के समूह से विकारभाव को प्राप्त नहीं होता है ।।११०।। धर्य से सुशो. भित वे महामुनि ही प्रशंसनीय हैं जिनका ध्यान इस जगत् में उपद्रवों के द्वारा चलाया नहीं जा सकता ॥१११॥ समस्त परीषहों के द्वारा प्राणनाश की स्थिति पाने पर भी ओ इस लोक में कायोत्सर्ग तथा संयम प्रादि को नहीं छोड़ते हैं वे ही बन्बनीय तथा स्तवनीय हैं ॥११२॥ इस प्रकार यश प्राणों का अन्त करने वाली भिल्लकृत वाधा को सहन कर १. निश्चयपवहारभेदेन द्विघा २ गोरैः क. १. ३. उपद्रवमूहै. ४ नात्राप्युपद्रवैः खः ।
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* पञ्चम सर्ग *
प्राराध्यादाय, संन्यासं सर्वयलेन तत्क्षणम् । शुद्धि रत्नत्रये कृत्वा मुक्त्वा प्रासान् समाधिना ।११।। सुभद्राख्ये विमाने हि मध्य ग्रेवेपके शुभात् । अहमिन्द्रो मुनिः सोऽभूनमध्यत्रिकस्य मध्यमे ।। ११५।।
शालविक्रीडितम् एवं क्षान्तिजधर्मपाकविविधात्कोपारिसंहापनाद्र ।
वृत्ताद्या चरणात्परीषहजगाज्जातोऽहमिन्द्रो मुनिः ।। मत्वेतीह निहत्य कोपरिपु श्वभ्रार्गलोच्छाटका,
क्षान्ति विश्वगुणाकरा सुमनयो यत्नाद्भजध्वं सदा ।।११६।। मान्त्या शर्मपरम्परां नृसुरजां भुक्त्वा शिवं यान्त्यहो,
___ माः कोपवशाह रन्तकुगती: श्वभ्रादिका दुःसहाः । शाल्वैवं सुखदुःखदं बहुफलं सर्व क्षमाकोपयोः,
कुर्वीध्वं मुनिपुङ्गवास्तदखिलं स्वेष्टं च यद्भूतये ।।११।। उन्होंने निश्चय व्यवहार नामक चार प्रकार की उत्कृष्ट प्राराधनामों की प्राराधना की, संन्यास धारण किया और सब प्रकार के प्रयत्नों से उस समय रत्नत्रय में विशुद्धता उत्पा कर समाधि से प्रारण छोड़े । संन्यास मरण के फलस्वरूप वे मुनिराज पुण्योदय से मध्य में स्थित तीनग्रं वेयकों के मध्यमप्रबेयक सम्बन्धी सुभद्र नामक विमान में अहमिन्द्र हुए। भावार्य-सोलहवे स्वर्ग के ऊपर एक के बाद एक के क्रम से नौ प्रवेयक हैं। ये प्रयक तीन तीन के त्रिक से अधोग धेयक, मध्यमग्न धेयक, और उपरितन प्रवेयक कहलाते हैं। उनमें से मध्यम त्रिक के मध्यम विमान सम्बन्धी सुभद्र नामक विमान में वे महमिग्न हए ॥११३-११५।।
इस प्रकार क्षमा से उत्पन्न होने वाले धर्म के विविध प्रकार के उदय से, क्रोधरूप शत्रु का घात करने से, चारित्र आदि का प्राचरण करने से तथा परीषहों को जीतने से वे मुनिराज प्रहमिन्द्र, हुए ऐसा मानकर प्रहो मुनिजन हो ! क्रोधरूपी खोटे शत्रु को नष्ट कर सदा यत्न पूर्वक उस क्षमा को धारण करो जो नरक के द्वार पर पागल को देने वाली है तथा समस्त गुणों की खान है ।।११।। क्षमा के द्वारा मनुष्प, ममुष्य तथा वेवगति में उत्पन्न होने वाली सुख सन्तति का उपभोग कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं और क्रोध के बश नरकादिक दुःसह तथा दुःख दायक कुगतियों को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार क्षमा और क्रोध के सुख दुःला चायक सब प्रकार के बहुत फल को जानकर है मुनिराज हो ! प्रात्म संपदा के लिये जो तुम्हें इष्ट हो वह सब करो ॥११७॥ १. स्यक्त्वा व. २. क्रोधशत्रुसंत्यजनात् ।
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• श्री पार्श्वनाथ परित
मालिनी अखिलगुणसमुद्र विश्वतत्त्वप्रदीपं, रहितसकलदोषं भव्यसत्त्वैकबन्धुम् ।
दुरिततिमिरभानु विश्वविघ्नाग्निमेषं, ह्मसमममलबुद्ध पार्श्वनायं स्तुवेऽहम् ।।११८।। इति भट्टारक---श्री सकलकीतिविरचिते श्री पार्श्वनाथचरित्रे वजनाभिचक्रिवराम्योत्पात - तपो. घेवेयकगमननाम पञ्चमः सर्गः ।।५।।
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जो समस्त गुरणों के सागर हैं, समस्त तस्वों को प्रकाशित करने के लिये श्रेष्ठ बीपक हैं, समस्त दोषों से रहित हैं, भव्य जीवों के अद्वितोय बन्धु हैं, पापरूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिये सूर्य हैं, अखिल विघ्न रूपी अग्नि को शाम्त करने के लिये मेघ हैं तथा अनुपम है ऐसे पार्श्वनाथ भगवान की मैं निर्मल बुद्धि के लिये स्तुति करता हूँ॥११७॥
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में बच. माभित्रकवर्ती के वैराग्य को उत्पत्ति, तप तथा मध्यम प्रबेयक में जाने का वर्णन करने बाला पञ्चम सर्ग समाप्त हुप्रा ॥५॥
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.पष्ठ सर्ग .
षष्ठः सर्गः श्रीमते विश्वनाथाय जगदानन्ददायिने । नम: श्रीपार्श्वनाथाय मूर्ना तत्पासिद्धये ॥१॥ पथानणे स्फुरदीप्रे' ह्य पपादशिलातने । मन्तमुंहूतकालेन प्राप्य संपूर्णयौवनम् ॥२॥ उत्थाय रत्नपल्यान्महतीतूलिकान्वितात् ।अहमिन्द्रो दिशोऽपश्यत् साश्चर्योऽतिमनोहराः ।।३।। घममूतिमिघातीव दीप्ताहमिन्द्रसंचयम् । विमानर्धादिकं दृष्ट्वारविज्ञानमवाप सः ॥४॥ समस्तं प्राग्भवं शारया स्ववृत्तजमितं फलम् । स्वस्य तत्रोद्भवं भानात्सचाभूनिश्चलो वृषे ॥५॥ नतोऽमा दिव्यसामग्या सर्वाभरणभूषितः । प्रत्यक्षदृष्टसद्धर्मफलोऽगाजिनमन्दिरम् ॥६॥ गन्नहेममये तत्र जिनागारे जिने शिनाम् । प्रनाम जिनार्चाः स भामुकोटवधिकप्रभाः ।।७।। उत्थायानुमहाभूत्या चकारोच्चमहामहम् । विश्वाभ्युदयकर्तारं जिनेन्द्राणां स्वसिद्धये ॥८॥
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षष्ठ सर्ग अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी से युक्त, सब के स्वामी तथा जगद के समस्त जीवों को ग्रानन्द देने वाले श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र को मैं उनकी निकटता प्राप्त करने के लिये शिर मे नमस्कार करता हूँ ॥१॥
तदनन्तर अमूल्य तथा प्रत्यन्त देवीप्यमान उपपाव शिलातल पर अन्तर्मुहूर्त में संपूर्ण यौवन को प्राप्त कर यह अहमिन्द्र बहुतभारी तूलिका-हई से सहित रलमय पलंग से उठा और प्राश्चर्य से कित हो अतिशय मनोहर दिशामों को देखने लगा ॥२-३॥ धर्म की भूति के समान अत्यन्त देदीप्यमान महमिन्द्रों के समूह तथा विमानों को संपदा प्रादि को देखकर वह अवधिज्ञान को प्राप्त हुमा ॥४॥ उस अवधिज्ञान से अपने समस्त पूर्वभव, अपने चारित्र से उत्पन्न फल तथा प्रपनी वहां उत्पत्ति को जानकर वह धर्म में निश्चल स्थिर हो गया ॥५॥
तवनन्तर जो समस्त प्राभूषणों से विभूषित है और सबर्म का फल जिसने प्रत्यक्ष देख लिया है ऐसा वह अहमिन्द्र विन्यसामग्री के साथ जिम मन्दिर गया ॥६॥ उसने रत्म नथा स्वर्णमय जिन मन्दिर में जिनेन्द्र भगवान को करोड़ों सूर्य से अधिक प्रभा पाली जिन प्रतिमानों को प्रणाम किया ॥७॥ फिर खड़े होकर बहुत भारी विभूति से प्रारम सिद्धि के
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4.]
* श्री पारर्वनाम चरित . मुगन्धमिर्मस्तोयहमभृङ्गारनिर्गते. । 'विश्वाघौघहरैदिव्य नावणे विलेपनः ।। मुक्ताफलमयरक्षतपुजः कल्पशाखिजः । कुसुमैश्च सुधापिण्डनवेस्तृप्तिका रकः ॥१०॥ रहतादामहापः फल: मल्लतल्यः । कुसुमाञ्जलिभिश्चूर्णदिव्यैः पुण्यपितामहै. ॥११॥ मनोहरगिरा तेषां व्यधात्संस्तवनं परम् । तद्गुणोधमहापुण्यकरं धर्मरमालितः ॥१.। तस्मात्स्वस्थानमागल्याने कढिमहिमाकुलम् । स्थीचकार विभूति स्वां स्वसजर्मोदयापिताम् ।।१।। त्रिलोकस्यजिनागारेषु भक्त्या नमत्यन्वहम् । समस्ता जिनमूर्तीः शिरसा तत्रस्थ एव सः ।।१४।। कल्याणेषु नमस्कारं विनयेन व्यधात्सदा । उत्तमाङ्गेन' तीर्थेशी स्थानस्थोऽसौ मुदामरः ॥१५॥ केवलज्ञानिनां ज्ञाननिर्वाणसमयेऽनिशम् । प्रणामं मोऽमराधीशोऽकरोत्तद्गुणसिद्धये ।।१६।। पनाहूतागतंर्गोष्ठीमहमिन्द्रः समं क्वचित् । रत्नत्रयभवा घमंकरां कुर्यात्स मृक्तये ।।१७।। क्वचिनिनगुणोद्ध ता कथां च धर्मसंभवाम् । परस्परं प्रकुर्वन्ति तेऽहमिन्द्रा: शुभाप्तये ।।१८।।
लिये समस्त प्रभ्युदयों को करने वाली जिनेन्द्र भगवान की महामह नामकी उत्कृष्ट पूजा की ।।८।। सुवर्ण की भारी से निकले हुए निर्मल तथा सुगन्धित जल से, समस्त पाप समूह को हरने वाले नाना प्रकार के विख्य विलेपनों से, मोतियों के प्रक्षत समूह से, कल्पवृक्षों से उत्पन्न पुष्पों से, तृप्ति करने वाले प्रमृत पिण्ड के नैवेद्यों से, रत्नमय बोपों से महाभूप से, कल्पवृक्षों से उत्पन्न फलों से, पुष्पाञ्जलियों से तथा पुण्य के बाबा ( पितामह ) के समान दिव्य पूणों से पूजा की ॥६-१॥ धर्मरुपी रस से युक्त उस प्रहमिन्द्र में मनोहर पाणी के द्वारा उन जिन प्रतिमानों का उत्कृष्ट स्तवन किया। उनका बह सवन, भगवान के गुण समूह से महान पुण्य को उत्पन्न करने वाला है ॥१२॥
जिन मन्दिर से, अनेक ऋड़ियों की महिमा से युक्त अपने स्थान पर माकर उसने स्वकीय सतर्म के उदय से प्राप्त विमूत्ति को स्वीकृत किया ॥१३॥ वह अपने स्थान पर स्थित रहता हा ही प्रतिदिन त्रिलोकवती जिन मन्दिरों में विद्यमान समस्त जिन प्रतिमानों को भक्ति पूर्वक शिर से नमस्कार करता था ॥१४॥ अपने स्थान पर स्थित रहने वाला वह अहमिन्द्र तीर्थंकरों के कल्याणकों में विनयपूर्वक बड़े हर्ष से उन्हें मस्तक झुका कर सदा नमस्कार करता था ॥१५॥ वह महमिन्द्र केबलमानियों के ज्ञान तथा निर्धारण के समय उनके गुर्गों की सिद्धि के लिये निरन्तर प्रणाम करता था ॥१६॥ वह कहीं विना बुलाये पाये हुए अहमिन्द्रों के साथ रस्नत्रय से उत्पन्न तथा धर्म को करने वाली गोष्ठी तस्वचर्चा मुक्ति प्राप्ति के लिये करता था ॥१७॥ वे अहमिन्द्र कहीं शुभ की प्राप्ति के
१. सर्वपापसमूहापहारक. २. शिरसा ।
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* षष्ठ सर्ग . इत्यादि विविधं पुण्यं प्रत्यहं सोऽजयेन्महत् 1 सुपुण्याचरण: पुष्यं तत्त्ववित्स स्वसिद्धये ।।१९।। मणिज्योत्स्नातध्वान्ते विमाने रश्मिसंतुले । उक्त ङ्गं बने दो नीलाद्रय पवादिषु ॥२०॥ महमिन्द्रं नम क्रीडा वितनोति सुदुर्लभाम् । अपुण्यानां मृदा नित्यं विहारजल्पनादिभिः ।।२१।। स्वस्थानेऽनध्यंभूत्याड निसर्गसुखदायिनि । य रतिर्जायते तेषां न सा कुत्रापि शमंदा ।।२२।। तत: स्थान निज मुक्त्वा सर्बतुं सौख्यदायनम् । विद्यते गमनं तेषां न जातु परधामनि ॥२३।। अहमिन्द्रोऽस्म्यहं कोऽपि मत्त इन्द्रोऽपरोऽस्ति न । इति मंकल्पयोगेन ते भजन्ते सुखं हृदि ॥२४॥ शुद्धस्फटिकवनि विमानयत्र केवलम्' । योजनानामसंख्येतरविस्तीर्णानि सन्त्यत्रो ॥२५।। प्रामादा यत्र प्रोत्त ङ्गा रत्न रश्मिसमाकुला: । विश्व वस्तुनिधाना वा ह्यमिन्द्र भृता बभुः ।।२६।। शुद्धस्फाटिकभित्तीनां रश्मयः कुर्वते सदा । दिनश्रियं हतध्वान्ता नेत्रशर्मक गः परा: ॥२७॥ जयनन्दादियदोघः स्तुतिस्तोत्ररवोत्करैः । जिनमूनिवदिव्य गीतंधिश्च नननेः ।२।।
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लिये जिनेन्द्र भगवान के गुणों से उत्पन्न धर्म कथा को करते थे ।।१८। इस प्रकार तत्त्वों को जानने वाला वह ग्रहमिन्द्र, प्रात्म-सिद्धि के लिये श्रेष्ठ पुण्य के प्राचरण से पवित्र नाना प्रकार के बहुत भारी पुण्य का उपार्जन करता था ।।१६।।
मणियों की चांदनी से जिसका अन्धकार नष्ट हो गया है, तथा जो किरणों से जगमगा रहा है ऐसे विमान में, देदीप्यमान ऊचे भवन में, कोडागिरि तथा उपवन आदि में यह अहमिन्द्रों के साथ अत्यन्त दुर्लभ क्रीड़ा करता था । कभी अपने से अल्पपुण्य के धारक देवों के साथ हर्ष पूर्वक वार्तालाप आदि की क्रीडाओं से समय व्यतीत करता था ।१२०-२१।। अमूल्य श्रेष्ठतम विभूति से युक्त तथा स्वभाव से सुखदायक अपने स्थान में उन अहमिन्द्रों की जो सुख देने वाली प्रीति होती है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं होती। इस लिये समस्त ऋतुओं में सुखदायक अपने स्थान को छोड़कर उनका दूसरे स्थान पर कभी गमन नहीं होता है ॥२२-२३॥ मैं स्वयं इन्द्र हूँ, मुझ से अतिरिक्त कोई भी इन्द्र नहीं है इस संकल्प के योग से के हृदय में सुख को प्राप्त होते हैं ॥२४॥ यहां केवल शुद्ध स्फटिक के वर्ण वाले प्रसंख्यात योजन विस्तृत विमान हैं ॥२५।। जहां रनों की किरणों से व्याप्त तथा अहमिन्द्रों से भरे हुए ऊचे ऊचे महल, समस्त वस्तुओं के भाण्डार के समान सुशोभित हो रहे हैं ।।२६। जहां शुद्धस्फटिक की दीवालों को तिमिर बिनाशक तथा नयन मुखकारी श्रेष्ठ किरणें सदा दिन की लक्ष्मी को प्रकट करती रहती हैं ॥२७।। जहां के जिनालय, जय, नन्द प्रादि शब्दों के समूह से, स्तुति और स्तोत्रों के समूह से, जिन प्रतिमानों के समूह से, दिध्य गीतों से वाद्यों से, नृत्यों से तथा श्रेष्ठ रत्नों के उपकरणों से ऐसे सुशोभित
१. भात्यहा
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७० ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित
रत्नोपकरणं सारविभ्राजन्ते जिनालयाः । चैत्यवृक्षा महोतङ्गा इव धर्माब्धयः पराः ॥२३॥ दिव्यभूषणदीप्ताङ्गाः सप्तधातुमलातिगाः । दिव्यस्रग्वस्त्रशोभाढयाश्चारुलक्षणलक्षिताः ॥३०॥ भोगोपभोगा हि साहयद्भिविराजिता: समानविक्रियद्धिज्ञानविज्ञानकलान्विताः ॥३१॥ सर्व समानचातुर्य विवेकादिगुणाङ्किताः हीनाधिकपदातिगाः
F
| सर्वे सन्निभदीप्ति श्रीधामशोभा महर्द्धिकाः १०३२||
सर्व समपदारूढा
श्रप्रियप्रियसंयोगवियोगादिविवर्जिताः
| समसन्मानदानाः सुसाहव्य सुखभोगितः
॥३३॥
| समप्रथम संस्थानाः समवीर्यबलान्विताः ॥३४॥
परस्परमहास्नेहा
गवरबन्धनाः
| मायाक्रोधमदातीता जिनपूजापरायणाः ।। ३५ ।।
समान वृत्तपाकेन तेऽहमिन्द्राः शुभाषायाः | उत्पद्यन्तेऽत्र धर्मादधाः सर्वाशर्मातिगा विदः ||३६|| कामदाहा तिगास्तेऽहमिन्द्रा दिव्यं सुखं महत् । अप्रवीचारजं यद्धि स्त्रीसङ्गादिपराङ्मुखम् ||३७|| लभन्ते तदसंख्यातभागं च नाकिनः क्वचित् । न कामदाहसंतप्ताः स्त्रीसेवालिङ्गनादिभिः || ३८ || सप्तमावनपर्यन्तं सोऽहमिन्द्रश्वराचरम् 1 मूतं द्रव्यं विजानाति सर्वं स्वावधियोगतः ||३६|| होते हैं मानों प्रत्यन्त ऊंचे चत्यवृक्ष ही हों अथवा श्रेष्ठ धर्म के सागर ही हों
।। २८-२६ ।।
वहां के सभी अहमिन्द्र दिव्यभूषणों से भूषित शरीरवाले हैं, सप्त धातुओं तथा मल से रहित हैं, दिव्य माला और वस्त्रों की शोभा से युक्त हैं, सुन्दर लक्षणों से सहित हैं, समान भोगोपभोगों से युक्त हैं, एक सदृश ऋद्धियों से सुशोभित है, एक समान विक्रिया ऋद्धि, ज्ञान, विज्ञान तथा कला से सहित हैं, सभी एक समान चातुर्य, तथा विवेक प्रावि गुरणों से युक्त हैं, सभी एक समान दीप्ति, लक्ष्मी, तेज और शोभा से संपन्न हैं, सभी महान् ऋद्धियों के धारक हैं, समान पद पर श्रारूढ हैं, होनाधिक पद से रहित हैं, समान सम्मान और वान से युक्त हैं, अत्यन्त समान सुख को भोगने वाले हैं, अप्रिय संयोग और प्रियवियोग श्रादि से रहित हैं, सभी एक समान समचतुरस्त्र संस्थान से युक्त है, समान बीर्य और बल से सहित हैं, परस्पर महा स्नेह से युक्त हैं, ईर्ष्या, बेर और बन्धन से रहित हैं, माया, क्रोध और मद से परे हैं, तथा जिनपूजा में तत्पर हैं ।।३०-३५ ॥ समान चारित्र के फल स्वरूप वे ही श्रहमिन्द्र यहां उत्पन्न होते हैं जो शुभभाववाले हैं, धर्म से संपन्न हैं, सब दुःखों से दूर हैं तथा ज्ञानी हैं, ||३६|| काम की दाह से रहित वे अहमिन्द्र यहां प्रवीचार - मैथुन से रहित तथा स्त्री समागम श्रादि से विमुख जिस दिव्य महान् सुख को प्राप्त करते हैं, कामदाह से संतप्त देव स्त्री-सेवन तथा प्रालिङ्गन श्रादि के द्वारा उसका श्रसंख्यातवां भाग भी नहीं प्राप्त करते हैं ।। ३७-३८ ।।
यह श्रहमिन्द्र अपने अवधिज्ञान से सप्तम पृथियो पर्यन्त के चर अचर सभी मूर्तिक
१. समान २ समानममचरण संस्थानयुक्ताः ।
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७ षष्ठ सर्ग *
सत्समां विक्रियां कतु समर्थो विकिद्धितः । गमनादिकजां सोऽधान ता निकारण क्वचित् ।।४।। बिहात्तोतुङ्गदेहोऽसौ स्वाङ्गभूषणदीप्तिभिः । पुण्यभूतिरिव प्राभात्तजः पुजोऽथवा महान् ॥४१॥ सप्तविंशति- 'बारायायु: पगः । रोगलेशविषादादिदुःखहीनो भजेत्सुखम् ।।४।। गतवर्षसहस्र: स सप्तविंशतिसंख्यकैः ।भुक्त तृप्तिकरं दिव्यं हृदाहारं सुधामयम् ॥४३॥ तावस्पर्गते नमुछ वासं लभते मनाक 1 सुगन्धीकृतदिग्भागं सोऽखिलामयवजितः५ ॥४४।। शमानन्दभवं शर्म लभेत मुनिरुत्तमम् ।निरोपम्यं यथा तद्वद्धोनरागश्च सोऽमरः ।।४५।। परमानन्दजं सौख्यं कृत्स्नचिन्तातिगं महत् । भूजानोऽसौ न जानाति गतं कालं शुभाषितम् ।।४६।। प्रथ भिल्लः स पापात्माने करोगातिपीडितः । रौद्रध्यानेन संत्यज्य प्राणान् भुक्त्वाऽसुरवं महत् ।।४।। मुनिहत्याजपापौघ प्रारमारेणातिभारितः । निमग्नोऽखिलदुःखालय सप्तमे श्वभ्रसागरे 11४८1। तत्रोपपाददेशे समस्ताशर्मनिधानके । अन्त महतंकालेनाप्य पूर्ण कुत्सितं वपुः ।।४।। द्रव्यों को जानता है ॥३६॥ विक्रिया ऋद्धि से उतनी ही दूर तक की विक्रिया करने में समर्थ है परन्तु कारण के बिना वह अहमिन्द्र कहीं भी गमनादिक से होने वाली विक्रिया को नहीं करता है । दो हाथ ऊंचे शरीर वाला यह देव अपने शरीर सम्बन्धी प्राभूषणों की दीप्ति से ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसे पुण्य की मूर्ति ही हो अथवा तेज का महान समूह ही हो ॥४०-४१॥ सत्ताईस सागर की प्रायु से युक्त, समस्त विघ्नों से दूर और रोग, क्लेश तथा विषाद प्रादि के दुःखों से रहित वह अहमिन्द्र सदा सुख का उपभोग करता था ॥४२।। सत्ताईस हजार वर्ष बीत जाने पर वह तृप्ति को करने वाला अमृतमय मानसिक आहार प्रहरग करता था ॥४३॥ तथा समस्त रोगों से रहित वह महमिन्द्र सताईस पक्ष बीत जाने पर विग्विभागों को सुगन्धित करने वाला किञ्चित् श्वासोच्छ्वास लेता था ॥४४।। जिस प्रकार मुनि शान्तिरूप प्रानन्द से उत्पन्न होने वाले उत्तम सुख को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार अल्प राग से युक्त वह अहमिन्द्र निरुपम सुख को प्राप्त हो रहा था ॥४५॥ परमानन्द से उत्पन्न तथा समस्त चिन्तामों से रहित महान सुख को भोगता हुआ वह अहमिन्द्र पुण्योपाजित बीते ए काल को नहीं जानता था । भावार्थ-सुख में निमग्न रहने से वह, यह नहीं जान सका कि मेरा कितना काल व्यतीत हो चुका है ।।४६।।
तदनन्तर वह पापी भील अनेक रोगों की पीड़ा से पीडित होता हुआ बहुत भारी दुःख भोग कर रौद्रध्यान से भरा और मुनि हत्या से उत्पन्न होने वाले पाप के भारो भार से निखिल दुःखों से युक्त सप्तम नरकरूपी सागर में निमग्न हो गया । भावार्थ - मुनि हत्या के पाप से सातवें नरक गया ॥४७-४८॥ वहां समस्त दुःखों के निधानभूत उपपादशय्या पर अन्तर्मुहूर्त में निन्दनीय पूर्ण शरीर प्राप्त कर वह एक हजार बिच्छुओं के स्पर्श से भी १. सप्तविंशतिमागरमितावुष्कः २. भवे व मुस्त्रम् स्व० ३. मानयिकाहारं ४ अमृतमयं ५ मोऽखिलामायवरितम् ।
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७२ ]
avarastraमुखः
पाताघोघरापृष्ठ कण्टकसंकीर्णां महीं प्राप्यातिवेगत: उत्पत्य स पतत्येव बहुधा कुधरातले असिपत्रवनाकी ह्ययः कण्टकदुर्गमाम् अत्यन्तशीत संख्याप्तः कृत्स्नदुःखेकमातरम् प्रचण्डानिर्दयान्यापपण्डितान् क्रूरमानसान् | भीमोग्रान् हुण्डसंस्थानान् रौद्रध्यानपरायणः । । ५५ सर्वामनोज्ञताधारान् स्फुलिङ्गसदृशेक्षणान् । नारकान् दुःखसंपूर्णान् परपोडाविधायिनः ॥५६ ।। वैतरण्यादिकं चान्यादृष्टपूर्वं विलोक्य सः । भयकम्सिर्वाङ्गो मानसेनातिचिन्तयेत् ॥५७॥ दुःस्पर्धा पृथिनी केयं ह्येते के नारकाः खलाः । एते के गृदुद्धगोमायुस र्पशार्दूल मण्डलाः ॥५८॥ कोsहं कस्मादिहायात मानीतः केन कर्मणा । न कोऽपि स्वजनश्चाश्रारोन्दिना दृश्यते क्वचित्।। ५६ ।।
१
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
॥५०॥
| वृश्चिकं क सहस्रौघसंस्पर्शाधिकवेदने | उत्पतेत्स रुदन् दीनः शतपञ्चकयोजनात् ।। ५१ । । | लुत्कुच्छिन्नभिन्नाङ्गो वृक्षात्पतितपत्रवत् ॥५५॥ | प्रत्यन्तपूतिबीभत्स वसासूक्कमिकर्दमाम् ॥। ५३ ।। 1 श्वभ्रभूमि विलान्येव कारागाराधिकानि च ।। ५४ ।।
प्रधिक वेदना वाले पृथिवी तल पर नीचे पड़ा । नीचे पड़ते समय उसके पैर ऊपर थे और मुख नीचे की ओर था ।।४६ - ५०॥ वामय कांटों से युक्त भूमि को प्राप्त कर वह वीन हीन भील का जीव रोता हुआ पांच सौ योजन ऊपर उछला ।।५१॥ अनेकों बार उछल कर वह उसी निन्द्य पृथ्वी तल पर पड़ता था। पड़ते समय उसका शरीर छिन्न भिन्न हो जाता था तथा वृक्ष से पड़े हुए पत्र के समान उसी पृथिवी पर वह लोटने लगा या ।। ५२ ।।
जो प्रत्यन्त दुर्गन्धित तथा ग्लानि से युक्त थी, जहां चर्बी, खून और कीड़ों की कीचड़ faeमान थी, जो प्रत्यन्त शीत की वाघा से व्याप्त थी और समस्त दुःखों की एक माता थी, ऐसी नरक भूमि को, कारागार से अधिक दुःख देने वाले विलों को, क्रोधी, निर्वय, पापनिपुण, क्रूरचित्त, अत्यन्त भयंकर, हुण्डक संस्थान के धारक, रौद्रध्यान में तत्पर सम्पूर्ण कुरूपता के आधार, अग्नि के तिलंगा के समान नेत्रोंवाले, दुःख से परिपूर्ण तथा दूसरों को दुःखी करने वाले नारकियों को, और दूसरे लोगों ने जिसे पहले कभी नहीं देखा था ऐसी वैतरणी प्रादि को देखकर जिसका समस्त शरीर भय से कांप रहा था ऐसा वह नारकी मन से विचार करने लगा ।।५३-५७।।
दुःखदायक स्पर्शवाली यह पृथिवो कौन है ? ये वुष्ट नारको कौन हैं ? ये गीध, शृगाल, सांप, शार्दूल और कुक्कुर कौन हैं ? मैं कौन है ? प्रौर किस कर्म के द्वारा यहां आया हूँ, शत्रुओं के बिना यहां कहीं कोई स्वजन विखाई नहीं देता । इत्यादि विचार करने
१. मानसेऽतिविचिन्तयेत् स्व ० २ कुक्कुराः ।
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* षष्ठ सर्ग इत्यादिचिन्तनात्तस्य विभङ्गावधिराशु हि । प्रादुर्बभूव तुच्छप्राग्भववरादि सूचकः ॥६॥ तेन स्वं पतितं ज्ञात्वा दुरन्ते स्वभ्रसागरे । पश्चात्तापाग्निना दग्धमना इति स चिन्तयेत् ॥६१। ग्रहो हृता मयाने कजीवराशिर्वनोद्भवा । निरपराधिनी मयंमृगादिप्रमुखा मुदा ॥२॥ प्रालीक वचनं निन्द्य परपीडाकरं वृथा । सपापं कटुकं क्रूरं भाषितं 'शपनादिकृत् ॥६३।। परवाहनधस्तूनि धान्यश्रयाभरणानि च । चौर्यातीवप्रपञ्चेन गृहीतानि बलान्मया 11६४।। सेविता पररामा च वेश्या समान्धचेतसा ।महान परिग्रहोऽत्यन्तं लोभनस्तेन मेलितः ।।६।। मद्यमांसमधून्येव कन्दमूलानि संततम् ।प्रच्छानकानि जिह्वालम्पटेन भक्षितानि च ॥६६।। खादितान्यत्य खाद्यानि बहुकीट फलानि च । सचित्तादीनि रात्री संकृतं भोजनमेव हि ॥६७: ग्रामारण्यपुराण्येव मया दग्धानि पापिना । पीरितो बहुधा लोको बराको धनलोभतः ॥६॥ इत्यादिकुत्सितंनिन्ध': कर्मभिः प्राग्भवे मया । यजितं महत्पापं स्वस्य धातकरं परम् ।।६।। नल्पा के नात्र मे जातं संभत्रं श्वभ्रभूतले । प्रक्षिप्ता वेदना तोबा मम मूर्धिन दुरुत्तरा1०॥ हती वा वधबन्धाय मुनीन्द्रस्त्रिजगद्धितः । त्यक्तदोषोऽयहन्ता निरपराधो मया बने ॥७॥ से उसे शीघ्र ही पूर्वभव सम्बन्धी तुच्छ वर प्रादि को सूचित करने वाला बिभक्षावधि ज्ञान प्रकट हो गया ॥५८-६०॥ उस विभङ्गावधि ज्ञान के द्वारा अपने पापको दुःखवायक नरकरूपी सागर में पड़ा जानकर वह पश्चात्तापरूपी अग्नि से दाधचित्त होता हुमा इस प्रकार विचार करने लगा ।।६१।। महो ! मैंने वनमें उत्पन्न हुए मनुष्य तथा मृग प्रादि अनेक निरपराध जीवों को हर्ष पूर्वक मारा था ॥६२॥ दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले निन्थ, निरर्थक, पाप सहित, कटुक, कठोर और आक्रोश प्रादि को उत्पन्न करने वाले असत्य वचन कहे थे॥६३।। मैंने चौरी के अत्यधिक प्रपञ्च से दूसरों के वाहन, धान्य, लक्ष्मी तथा प्राभूषणादि को बलपूर्वक प्रहरण किया ॥६४॥ राग से अन्धचित्त होकर मैंने परस्त्री और वेश्या का सेवन किया था तथा अत्यधिक लोभ से प्रस्त होकर बहुत भारी परिग्रह इकट्ठा किया था ॥६५॥ जिह्वा का लालची होकर मैंने निरन्तर मद्य, मांस, मष, कन्दमूल तथा प्रचार, मुरखा प्रादि खाये थे ॥६६॥ न खाने योग्य बहुत कोड़ों से युक्त फल सचित्त प्रादि वस्तुएं तथा रात्रि में धना भोजन मैंने खाया था ॥६७।। मुझ पापी ने ग्राम जङ्गल तथा नगरों को जलाया था तथा धन के लोभ से बीन हीन लोगों को बहस प्रकार से पीडित किया था ॥६८॥ इत्यादि निन्दनीय खोटे कार्यों से मैंने पूर्वभव में अपने प्रापका घात करने वाला जो बहुत भारी पाप अजित किया था उसी के उदय से मेरा इस नरक भूमि में जन्म हुआ है । उसी पाप से मेरे मस्तक पर यह तीव्र वेदना पा पड़ी है जिसका उतारना कठिन है ॥६९-७०॥ अथवा तीनों जगत् का हित करने वाले, निकोष,
१. शासनाधिकृत ख. २. "प्रथाना" इति हिन्द्यां प्रमिद्धानि ३. जम्म, संबल क, शंबल ल ।
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७४ ]
* श्रो पार्श्वनाथ चरित - तइत्याजितपापौघोदयेनात्रभवं' महत् । इदं दुःखवजं सर्व मन्ये वाचामगोचरम् ।।७२।। ग्रहो ये मुनिनाथानां कुर्वन्त्युपद्रव शठा: । साक्रन्दं तेऽभारेण पतन्ति नरकार्णवे ॥७३।। शन्ति ये मुनीन्मूढा निन्द्याः स्युस्ते भवे भवे । मानिनोन नमन्त्यत्र ये मातङ्गा भवन्ति ते ।।७४।। अहो नीचकुलोत्पन्नदोषेण न कृतं मया । किञ्चित्पुण्यार्जनं जातु व्रतदानादिपूजनः ।।७५।। निरन्तरं कृतं पापं कृत्स्नमा वद्यकर्मणा । तत्पानात्र मे जातं जाम दुःस्वाधिमध्यगम् ।।७६ ।। इत्यादिस्मर्यमाणानि प्राक्कर्मचरितान्यहो । कृन्तन्ति मेऽखिलाङ्गानि कचानीव सन्ततम् ।।७७॥ प्रतोऽह क्व बजाम्यस्मारिक करोमि वदामि किम् । कं प्रच्छामीह गच्छामि शरणं कस्य सम्प्रति ।।७।। कथं तमि दुःखाब्धि मिमं दुष्कर्मसंभवम् । क्षिप्तं मे मूनि देवेन यावन्नात्रायुषः क्षयः ।।७६।। इति चिन्ताग्निना दग्धसर्वाङ्गो दीनमानसः । अशरण्योऽतिभीतात्मा यावदास्ते स नारकः ।।८।। तावदागत्य निर्भत्स्यं दुर्वा मर्क: पला । नारर नूतनं तं नारक संपीडयन्त्यष्टो ।।१।।
पाप प्रणाशक और निरपराध मुनि को मैंने वन में वध बन्धन प्रादि के द्वारा मारा था ॥७१॥ उन्हीं की हत्या से उपाजित पाप समूह के उदय से यहां होने वाला यह बहुतभारी वधनागोचर दुःख का समूह मुझे प्राप्त हुपा है ऐसा मानता हूँ ॥७२॥ ग्रहो ! जो मूर्ख मुनिराजों को उपद्रव करते हैं वे पाप के भार से रोते हुए नरकरूपी सागर में पड़ते हैं ॥७३॥ जो मूड मुनियों को गाली देते हैं वे भव भव में निन्ध होते हैं । जो मानी इस जगत में उन्हें नमस्कार नहीं करते हैं वे चाण्डाल होते हैं ॥७४।। अहो ! नीच कुल में उत्पन्न होने के दोष से मैंने कभी भी प्रत, वान तथा पूजन के द्वारा कुछ भी पुण्य का संचय नहीं किया ॥७५॥ समस्त सावध-पाप सहित कार्यों के द्वारा मैंने निरन्तर पाप किया था उसी के उदय से मेरा यहां दुःखरूपी सागर के बीच में जन्म हुना है ॥७६।। ग्रहो ! पूर्व भव में किये हुए अपने कार्यों का जब स्मरण होता है तब वे निरन्तर करोत के समान समस्त प्रक्षों को छेदते हैं ॥७७॥ अब मैं यहां से कहां जाऊ ? क्या करू ? क्या कहूँ ? किससे पूछ और इस समय यहां किसकी शरण में जा ? ||७८। जब तक प्रायु का क्षय नहीं होता है तब तक के लिये देव के द्वारा अपने शिर पर गिराये हुए इस दुष्कर्मजन्य दुःखरूपी सागर को कैसे तरू' ? ॥७२।। इस प्रकार की चिन्तारूपी अग्नि से जिसका सर्व शरीर जल गया था, जिसका मन अत्यन्त दोन भा, जो शरण रहित था, जिसकी प्रात्मा अत्यन्त भयभीत थी ऐसा वह नारकी ज्योंही वहां बैठा त्योंही दुष्ट नारको प्राकर उस नवीन नारकी को तोरण दुर्घचनों से डांटकर पीडित करने लगे ।।८०-८१॥
--.. -- - --- -- -- .. .-- .. १. अत्रोत्पन्न २. चापानाः ।
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* षष्ठ सर्ग *
केचिन्मुद्गरपातश्च चूर्णयन्त्यास्मि संचयम् । उत्पाटयन्ति नेत्राणि केचिरोदयान्मुदा ॥२॥ त्रोटयन्त्यपरे करा दन्तौघेरान्त्रमालिकाम् । निःपीडयन्ति यन्त्रेषु खण्डं खण्ड विधाय च ।।३।। केचित्तदङ्गखण्डानि दलन्ति विषमोपस: : पाल्मल. गिन्ति माहिता पम् ।।४।। केचिद् दुष्टाः करः पादः कुम्भीषु क्वाथयन्ति च । द्विधा कुर्वन्ति तं केचिन्मस्तकान् क्रकचेन हि ।।८।। मद्यपानाघपाकेब केचिद्विदार्य तन्मुखम् । संदशः प्रक्षिपन्ति प्रज्वलन्ति ताम्रजं रसम् ॥६६॥ मांसभक्षरजाघेन' तदङ्गसंभवं पलम् । खादन्ति नारकाः कृत्वा खण्ड खण्डं तिलोपमम् ।७। परस्त्रीसङ्गपापेन तप्तलोहाङ्गनाप्रजः । तस्यालिङ्गनमेवाहो कारयन्ति बलाश्च ते ।।८।। तस्मात्केचित्समागत्योत्थाप्य नीत्वाशु नारकाः । क्षिन्ति दुःखतप्तं तं तप्ततेलकटाहके तेन दग्धाखिलाङ्गोऽसौ तीवदाहकरालितः । गत्वा शमाय संमग्नो वैतरण्या जलेऽतुभे ॥१०॥ क्षारदुर्गन्धवीभत्स-शोणिताभसमेन सः । तन्नी रेणातितीव्रण तरां संतापितोऽप्यगाव असिपत्रवने घोरे शीतवातभयाकुले । विश्रपाय स दोनात्मा विश्वदुःखाकरेऽशुभे ॥१२॥
कोई मुद्गर के प्रहारों से हड्डियों के समूह को चूर चूर कर रहे थे, कोई घर के कारण हर्ष पूर्वक नेत्र उपाड़ रहे थे ।।८२॥ कोई दुष्ट दांतों के समूह से प्रांतों की पंक्ति को तोड़ रहे थे और कोई खण्ड खण्ड कर यन्त्रों में पेल रहे थे ॥५३॥ कोई विषम पत्थरों से उसके शरीर सम्बन्धो टुकड़ों को खण्डित करते थे, कोई पैर पकड़ कर शीघ्र ही सेमर के वृक्षों पर घसीटते थे ॥४॥ कोई दुष्ट नारकी हाथों और पैरों के द्वारा उसे बड़े बड़े कलशों में खोलाते थे, कोई करोत के द्वारा उसके मस्तक से दो टूक करते थे प्रर्याद शिर
और धड़ को अलग अलग करते थे ।।५।। कोई मदिरापान सम्बन्धी पाप के उदय से संडासियों से उसका मुख फाड़कर उसमें जलता हुमा ताम्बे का रस डालते थे ।।६।। कोई नारकी मांसभक्षरण से उत्पन्न पाप के कारण उसके शरीर सम्बन्धी मांस को तिल तिल के बराबर खण्ड खण्ड कर खाते थे ॥७॥ कोई परस्त्री के संगम से उत्पन्न पाप के कारण संतप्त लोहे की पुतलियों से उसका बलपूर्वक प्रालिङ्गन कराते थे । उसी पाप के कारण कोई नारकी प्राकर तथा शीघ्र ही उठा ले जाकर दुःखों से संतप्त उस नवीन नारकी को तपे हुए तेल के कड़ाहे में डाल देते थे ।।९-१०।। उस गर्म तेल से जिसका समस्त शरीर दग्ध हो गया है तथा जो तीन दाह से चीख रहा है ऐसा वह नारको शान्ति प्राप्त करने के लिये जाकर वैतरणी नदी के प्रशुभ जल में निमग्न होता है-डुबकी लगाता है ॥६१।। परन्तु खारे, दुर्गन्धित, घृणित और रक्त के समान प्राभावाले अत्यन्त लोरण जल से वह अत्यधिक संतापित होकर वहां से भागता है ।।६२॥ वह दोनात्मा, भयंकर,
१. मासभक्षण समुत्पन्न पापेन ।
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* श्री पाश्र्वनाथ चरित * खड्गधारासमैः पत्रर्वायुना पतितनंगात्' । खण्डिताङ्गोऽ'तबीभत्सोऽस्माद्गतो दुर्गमे गिरी।।१३। तत्र व्याघ्रादिरूपेण पक्षिवेषेण मारकः । प्रारब्धःखादितु सोऽधान्तरास्यैः खरे खः ।।६।। एवं स लभते दुःखं परस्परभवं महत् । यत्र कुत्र महीपृष्ठे तिष्ठन् धोरतरं सदा । ६५|| ये केचिद्द सहा रोगाः कृत्स्नाशमविधायिनः । ते भवन्ति स्वभावेन तद्गात्रेऽतिधृणास्पदे ।।६६।। सर्वाधितोयतोऽसाध्या पिपासा तस्य जायते । बिन्दुमात्र जलं पातु श्रयेन्नासौ कदाचन ॥१७॥ सर्वान्न भक्षणेनिःप्रतीकारः शुत्कवेदनः ।पीडितोऽप्यशितु नासो लभतेऽन्धस्तिलोपमम् । लक्षयोजनमानोऽयःपिण्डः क्षिप्रो हि केनचित् । शीघ्र विखण्डतां याति तत्रोग्रशीतपाततः ||६|| इत्यादिक्षत्रजं दुःखं मानसं कायसंभवम् । परस्परप्रभूतं चाघात् स भुक्त प्रतिक्षणम् ।।१०।। चक्षुरन्मेषमात्रं स सुखं जातु मजेन हि । केवलं सहते तीव्र वेदनां विविधां बलात् ॥११॥ उत्कृष्टरौद्रध्यानाधिष्ठितोह्यशुभदेहभान । कृष्णलेभ्योऽतिभीतात्मा पूर्वपापोदयाद्धितः ।।१०२।। शीत वायु के भय से युक्त तथा समस्त दुःखों की खान स्वरूप शुभ प्रसिपत्र वन में विश्राम के लिये जाता है ॥२॥ परन्तु वायु के कारण वृक्ष से पड़े हुए तलवार की धार के समान पत्रों से उसका शरीर खण्ड खण्ड तथा वीभत्स हो जाता है। वहां से निकल कर वह दुर्गम पहाड़ पर जाता है ॥३॥ वहां भी नारकी व्याघ्रादि के रूप से अथवा पक्षियों के वेष से रौतों, मुखों तथा तीक्ष्ण नखों से उसे खाना प्रारम्भ कर देते हैं ।।६४॥ इस प्रकार वह जहां कहीं पृथिवी पर स्थित होता था वहीं सदा परस्पर में उत्पन्न बहुत भारी भयंकर दुःख को प्राप्त होता पा |||
समस्त दुःखों को उत्पन्न करने वाले जो कुछ भी दुःसह-कठिन रोग हैं वे सव स्वभाव से ही उसके प्रत्यन्त घृरिणत शारीर में विद्यमान थे ।।१६।। उसे समस्त समुद्रों के जल से प्रसाध्य प्यास लगती थी परन्तु वह पीने के लिये विन्दुमात्र जल भी कभी नहीं प्राप्त करता था ॥७॥ समस्त अन्न के खाने से भी जिसका प्रतिकार नहीं हो सकता ऐसी सुधा की वेदना से वह यद्यपि पीडित था तो भी खाने के लिये यह तिल के बराबर भी पन्न नहीं प्राप्त करता था ।।८।।
एक लाख योजन प्रमारण लोहे का पिण्ड यदि किसी के द्वारा डाला जाता है तो बह वहां तीक्ष्ण शीत के पड़ने से शीघ्र ही खण्ड खण्ड हो जाता था ।।९।। इस प्रकार पापोग्य से वह क्षेत्रजन्य, मानसिक, शारीरिक तथा परस्पर उत्पन्न हुए दुःख को प्रतिक्षण भोगता था ॥१०॥ बह चक्षु के टिमकार मात्र समय के लिये भी कदाचित् सुख को प्राप्त नहीं होता था, केवल बलपूर्वक विविध प्रकार की तीव्र वेदना सहन करता था ।१०१।
१. मात् २. मुखैः ३. भोजनम् ।
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. षष्ठ सर्ग
सप्तविंशतिवाराशिमध्यमायुः कुदुःखभाक् । सर्वासातमये तत्रास्ते मग्नः पदभ्रवारिधी' ।।१०३।।
शार्दूलविक्रीडितम एवं स्वाविपाकत पनिदिनं भुक्त व्यतीतोपर्य
- दुःखं रौद्रतरं प्रतिक्षणभवं वाचातिगं नारकः । मत्त्वेतीह बुधाः कुदुर्गतिकरं प्रारणात्ययेऽत्राशुभं
___ मा कुर्वीध्वमनन्तदुःखजनक सकारणे: कोटिभिः ।।१४।। धर्म स्वगंगृहाङ्गणं ज्यघहरं' मुक्त्यङ्गनादायिनं,
__ ह्यन्तातीत सुखावं सुविमनं संवाञ्छितार्थप्रटम् । सर्वधीपितरं अनन्सगुणदं तीर्थेशभूतिप्रदं,
चक्र शेन्द्रपदादिदं बुधजना यत्नाद्भजध्वं सदा ।।१०।। धर्मः श्रीजिनभूतिदोऽसुखहरो धर्म व्यधुर्धामिका
धर्मर्णव किलाप्यतेऽखिलसुखं धर्माम सिद्धय नमः ।
वह पूर्व पाप के उदय से उस्कृष्ट रौद्रध्यान से युक्त था, अशुभ शरीर का धारक था, कृष्ण लेश्या वाला था तथा अत्यन्त भयभीत था ।।१०२॥ जिसकी सत्ताईस सागर की मध्यम प्रायु श्री तथा ओ खोटे दुःखों को प्राप्त था, ऐसा वह नारकी समस्त दुःखों से तग्मय नरक रूपी समुद्र में निमग्न था ।।१०३॥
इस प्रकार वह नारको अपने पाप के उदय से प्रतिविम अनुपम, अत्यन्त भयंकर, क्षण क्षरण में होने वाले बचनागोचर दुःख को भोग रहा था। ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो! प्रागविनाश का अवसर प्राने तथा करोड़ों कारण मिलने पर भी इस लोक में अत्यन्त दुर्गति के कारण स्वरूप प्रऔर अनन्त दुःखों को उत्पन्न करने वाले प्रशुभोपयोग को मत करो ॥१०४॥ जो स्वर्गरूपी घर का प्रांगन है, विविध प्रकार के पारों को हरने वाला है, मुक्तिरूपी स्त्री को देने वाला है, अनन्त सुख का सागर है, अत्यन्त निर्मल है, अभिलषित पदार्थों का दाता है, समस्त लक्ष्मियों का पिता है, अनन्तगुणों को देने वाला है, लोयंकर को विभूति का दायक है, और चक्रवर्ती तथा इन्द्र के पद प्रादि को प्रदान करने वाला है ऐसे धर्म का हे विद्वज्जन हो ! सदा यत्नपूर्वक सेयन करो ॥१०५॥ धर्म श्री जिनेन्द्र देव को विभूति-प्रष्ट प्रातिहार्य रूप ऐश्वर्य को देने वाला तथा दुःखों को हरने वाला है, धर्मात्मा जन धर्म को करते हैं, धर्म से ही समस्त सुख प्राप्त होता है, सिद्धि प्राप्त
१. नरकममुद्रे २ विविधपापहरं ।
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७८ ]
श्री पारवनाथ चरित धर्मानास्त्यपर: पितातिहितद्धर्मस्य मूलं सुदृग्,
धर्मे चित्तमहं दधेऽधहतये हे धर्म ! रक्षेह माम् ।।१०।। पाश्र्यो जन्मजराव्यथामृतिरुजाशान्त्यै जनानां महा
नक्षेहातिशमाय वैख इव यः प्रादुर्गभूषाभुतः । दुःकामज्यरशान्तयेतिदुरितव्याधिक्षयायव स
लोकेऽकारणबन्धुरेव मम भूयाज्जन्मव्युपिछत्तये ।।१७।। इति भट्टारक श्री सकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथ चरितेऽहमिन्द्रसुखभिल्लनारकदुःखपर्णनो नाम षष्ठः सर्ग: ।।६।।
करने के लिये मैं धर्म को नमस्कार करता है, धर्म से बढ़कर प्रत्यन्त हितकारी दूसरा पिता नहीं है, धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है, मैं पापों का नाश करने के लिये धर्म में अपना चित्त धारण करता हूँ, हे धर्म ! इस जगत् में मेरी रक्षा करो ॥१०६॥
जो मनुष्यों के जन्म-जरा सम्बन्धी कष्ट तथा मृत्युरूपी रोग को शान्त करने और इन्द्रियों की चेष्टा से उत्पन्न दुःखों का शमन करने के लिये प्राश्चर्यकारी महान वैध के समान प्रकट हुए थे, जो दुःखदायक काम ज्वर की शान्ति तथा तोख पापजन्य व्याधियों का क्षय करने के लिये लोक में मानों प्रकारण बन्धु ही थे वे पार्श्वनाथ भगवान हमारे संसार का बिच्छेव करने के लिये हो। भावार्थ-उन पार्श्वनाथ भगवान की कृपा से मैं जन्म मरण के चक्र से बच जाऊं ॥१०॥
___इस प्रकारक भट्टारक श्री सकलकीति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में महमिन्द्र के सुख और भील के नरकगति सम्बन्धी दुःखों का वर्णन करने वाला छठवां सर्ग समाप्त हुमा ॥६॥
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* सप्तम सर्ग *
[ ७६
सप्तमः सर्गः जगद्धितं जगन्नाचं जगन्धं जगत्गुरुम् । जगदातिहरं वन्दे श्रीपाश्वं तद्गुणाप्तये ॥१॥ प्रय जम्बूमति ठीपे क्षेत्र भारतनामनि । विषयः कोशलाख्योऽस्ति कौशल्यजनसंभृतः ।।२।। संवाहनपुरग्रामखेटद्रोणमुखादयः
। मटम्बपत्तना यत्र धनधान्यादिसंकुलाः ॥३॥ जिनचैत्यालयः सारैः सुधार्मिकजनोत्करैः । मुनिपण्डितसंधश्च भान्ति धर्माकरा इव ॥४।। मुनयश्च गणाधीमा: केवलज्ञानिनोऽमलाः । संधश्चतुर्विधः माद सुरासूर निषेविताः ॥५॥ विहरन्ति च भव्यानां मुक्तिमार्गप्रवृत्तये । धर्मोपदेशदातारो यत्रानुग्रहकारिण: ।।६।। इत्यादिवर्णनोपेतदेशस्य गुणशालिनः । मध्येऽयोध्यापुरीभात्यजय्यभूपभटवजैः ॥७॥ अनुल्लङ्घचमहातुङ्गप्राकारगोपुर- बजः । प्रगाघखातिकायश्चायोध्येब' या व्यभाप्तराम् ।।८।।
सप्तम सर्ग जगत हितकर्ता, जगत् के नाथ, जगद्वन्ध, जगद् गुरु और जगत् को पोडा को हरने वाले श्री पाश्र्वनाथ भगवान को मैं उनके गुरणों की प्राप्ति के लिये बन्दना करता है ॥१॥
अथानन्तर जम्यूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुशल मनुष्यों से परिपूर्ण कौशल नामका देश है ॥२॥ जहां धन धान्यादि से परिपूर्ण संवाहन, पुर, नाम, खेट, द्रोणमुख प्रादि तथा मटम्ब और पत्तन विद्यमान हैं ।।३।। श्रेष्ठ जिन मन्दिरों, अत्यन्त धार्मिक मनुष्यों के समूहों
और मुनि तथा विद्वज्जनों के सङ्खों से वे संवाहन, ग्राम, नगर प्रावि धर्म को खानों के समान सुशोभित हो रहे हैं ।।४। जहां भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने वाले परमोपकारी मुनि, गणधर और रागादिक मल से रहित तथा सुर-असुरों के द्वारा सेवित केवली भगवान् मोक्ष मार्ग को प्रवाने के लिये चतुर्विध संघ के साथ विहार करते रहते हैं ॥५-६।।
इत्यादि वर्णनों से सहित उस गुरणशाली कौशल देश के मध्य में एक अयोध्यापुरी है जो अजेय राजा तथा योद्धानों के समूह से सुशोभित हो रही है ।॥७॥ जो उल्लङ्घन करने के अयोग्य, बहुत ऊचे कोट, गोपुरों के समूह तथा अगाध परिखा प्रादि से सचमुच ही अयोध्या के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही है। भावार्थ-जिसके साथ युद्ध न किया जा सके वह अयोध्या है । वह नगरी ऊचे ऊंचे कोट तथा अगाध परिखा प्रावि के कारण सचमुच ही युद्ध करने के योग्य नहीं थी। इसलिये उसका अयोध्या नाम सार्थक था ॥८॥
१. योद्ध मशक्या । .
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५० ]
* श्री पाश्वनाथ चौरत * प्रासादशिखराग्रस्थकेतुहस्तैविराजते । याह्वयत्तीव नाकेशा' पुण्यभाजां विमुक्तये ॥६॥ उत्तु गातोरण रत्नबिम्बोधवंजपंक्तिभिः । धर्मोपकरणदिग्यातायातनृयुग्मकः ॥१०॥ गीतनतनवाशे च जयनन्दस्तवादिभिः ।विभ्राजन्ते जिनामारा उत्तु ङ्गारवा वृषाब्धयः।।११। यत्रत्या: सुजना: केचित्तपसा यान्ति नि तिम् । कल्पातीतास्पदं केचित्केचिन्नाकं शुभोदयात् ।।१२।। पात्रदानाजितायेन' केचिद्भोगान् श्यन्ति च । भोगभूमौ सुराज्यादिभूति केचिज्जिनाचया ।।१३।। पश्यन्ति स्वगृहद्वारं पात्रदानाय दानिनः । पात्रदानेन के चिच्च पञ्चाश्चयं भजन्त्यहो ॥१४।। तद्विलोक्य जना: केचित्पात्रदाने मति व्यधुः । पात्रालाभेन केचिद्धि विषादं परमं व्यगु: ।।१५।। ज्ञानविज्ञानसंपना व्रतशीलादिमण्डिता: ! जिन भक्ताः सदाचारा गुरुसे वापरायणा: ॥१६॥ नीतिमार्गरता जैना धनधान्यादिरांकुलाः । रूपलावण्यभूषाढ्या नरामार्यो विचक्षरणाः ।।१७।। यस्यां वसन्ति पुण्येन सुभगाश्च शुभाशयाः । धर्जिनपरा नित्यं दानपूजादितत्परा: ॥१८॥ भवन शिखरों के अग्रभाग पर स्थित पताका रूपी हाथों से जो नगरी ऐसी सुशोभित हो रही है मानों मुक्ति प्राप्त करने के लिये पुण्यशाली इन्द्रों को बुला हो रही है ॥६॥ जहां के ऊचे ऊचे जिन मन्दिर, उन्नत तोरणों, रत्नमय प्रतिमाओं के समूहों, ध्वजानों को पंक्तियों, धर्म के विष्य उपकरणों, माने जाने वाले मनुष्यों के युगलों, गीत नृत्य वावित्रों तथा जय, नन्व, स्तवन प्रादि के शब्दों से ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानों धर्म के सागर ही हों॥१०-११। जहां पर उत्पन्न होने वाले कोई सत्पुरुष तप के द्वारा निर्धारण को प्राप्त होते हैं, कोई पुण्योदय से कल्पातीत विमानों में और कोई फल्पों-सोलह स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं ।।१२।। पात्रदान से अजित पुण्य के द्वारा कोई भोगभूमि में भोगों को प्राप्त होते है और कोई जिन पूजा से उत्तम राज्यादि के वैभव को प्राप्त करते हैं ।।१३।। अहो ! कोई वामी पुरुष पायदान के लिये अपने घर का द्वारा प्रेक्षरण करते हैं और कोई पात्र दान के द्वारा पञ्चाश्चर्य को प्राप्त होते हैं ॥१४॥ पञ्चाश्चर्य को देखकर कोई लोग पात्रदान में बुखि लगाते हैं-पात्रदान की इच्छा करते हैं और कोई पात्र का लाभ न होने से परम विषाद को प्राप्त होते हैं ॥१५॥ जो ज्ञान और विज्ञान से संपन्न हैं, व्रत शील प्रादि से विभूषित हैं, जिनभक्त हैं, सदाचारी हैं, गुरु सेवा में तत्पर हैं, नीति मार्ग में रस हैं, जन हैं, धन धान्य प्रादि से सहित हैं, रूप, लावण्य और प्राभूषणों से युक्त हैं, विवेकी हैं, सौभाग्यशाली हैं, शुभ अभिप्रायवाले हैं, धर्म के उपार्जन करने में तत्पर हैं तथा निरन्तर दान पूजा प्रादि में संलग्न रहते हैं ऐसे मनुष्य पुण्योदय से जिस नगरी में निवास करते हैं ।।१६-१८॥
१. देबेन्द्राणा २. उत्त शाश्च वृपाययः क. ३. पात्रदानम मृत्पन्न-पुण्येन ४. प्रामु ५. नार्यों क. ६. सुण्दाग ।
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* सप्तम सर्ग *
इत्यादिगुणभूषाया नगर्याः श्रेयसा पतिः । वज्रशहुनृपो नाम्ना बभूव बलवान्महान् ॥१६॥ काश्यपान्वयसंभूत इक्ष्वाकु वंशरवांशुमान् । जैनधर्मरतो दानपूजावतगुगान्विता ॥२०॥ गुरुभक्तः सदाचारी न्यायमार्गप्रवर्तकः । भूषरगर्वमन : सर्वैः सोऽभाच्चकीव पुण्यवान् ।।२१।। प्रभरी महादेवी तस्याभूत्प्राण बल्लभा । पुण्य लक्षण संपूगर्भा दिव्यरूपोपलक्षिता ।।२२।। प्रानन्दाख्यस्तयोः सूनुः पुण्यपाकेन रूपवान् । व्युत्वा ग्रे वेयकात्मोऽहमिन्द्रो दिव्यगुरणोऽभवत् ॥२३॥ तत्पिता स्वजनैः साद्धं जिनेन्द्राणां जिनालये 1 महापूजां मृदाभूत्या पुत्रजातमहोत्मवे ॥२४।। चकार विश्वमाङ्गल्यवृद्धये शुभद्धिनीम् । सर्वाभ्युदयकीच कृत्स्नानिष्टविघातिनीम् ।।२१। बाल पन्द्र इवापासी वृद्धि स्वावयवैः समम् । तद्योग्यदुग्धपानाद्य : पित्रोः संवर्द्ध यन्मुदम् ।।२६।। कौमारत्वं कमात्प्राप्य वस्त्राभरणकान्तिभिः । व्यञ्जनेर्लक्षण: सोऽभाद्धीरोऽसुरकुमारबत् ११२७।। ततः कृत्वा जिनेन्द्रज्ञानगुरूणां प्रपूजनम् । कलाविज्ञानचातुर्य शारत्रविद्यादि सिद्धये ॥२८।।
___ इत्यादि गुणरूपी प्राभूषणों से सहित उस अयोध्या नगरी का स्वामी वह बनबाहु राजा था जो कल्यारणों का स्वामी था, बलवान तथा महान् था ॥१६॥ जो काश्यपवंश में उत्पन्न हुना था, इक्ष्वाकुवंशरूपी अाकाश का सूर्य था, जैनधर्म में रत था, दान पूजा तथा व्रतरूप गुणों से सहित था, गुरुभक्त था, सदाचारी था, न्यायमार्ग को प्रवर्ताने वाला था, तथा पुण्यवान् था ऐसा वह वज्रबाहु राजा समस्त वस्त्राभूषणों से चक्रवती के समान सुशोभित होता था ।।२०-२१॥ राजा वस्रबाहु को प्राणवल्लभा पुण्य लक्षणों से परिपूर्ण तथा दिव्य रूप से सहित प्रभङ्करी महादेवी यो ।।२२।।
दिव्य गुणों को धारण करने वाला वह अहमिन्द्र ग्रंवेयक से च्युत होकर पुण्योदय से उन्हीं वस्रबाहु और प्रभकरी महादेवी के प्रानन्द नामका रूपवान पुत्र हुप्रा ॥२३॥ उसके पिता ने पुत्र जन्म के महोत्सव में समस्त मङ्गलों को वृद्धि के लिये अपने कुटुम्बी जनों के साथ जिन मन्दिर में हर्ष तथा वैभव से जिनेन्द्र भगवान की महा पूजा की । वह महा पूजा शुभ को बढ़ाने वाली थो, सब अभ्युदयों को करने वाली थी तथा सम्पूर्ण अनिष्टों का विघात करने वाली थी ।।२४-२५।। माता पिता के हर्ष को बढ़ाता हा वह पुत्र उसके योग्य दुग्धपान प्रादि के द्वारा अपने अवयवों के साथ बालचन्द्र द्वितीया के चन्द्रमा के समान वृद्धि को प्राप्त होने लगा ।।२६॥ वह धीर धीर बालक क्रम क्रम से कुमारावस्था को प्राप्त कर वस्त्र, प्राभूषण, कान्ति, ध्यञ्जन तथा लक्षणों से असुर कुमार के समान सुशोभित हो रहा था ॥२७॥
तदनन्तर शुभलग्नादि के होने पर पिता ने उस बुद्धिमान धर्मात्मा पुत्र को कलाविज्ञान सम्बन्धी चातुर्य तथा शास्त्र विद्या मादि को सिद्धि के लिये देव शास्त्र गुरु की पूजा
१. इक्ष्वाकुवं मनभोदिवाकरः।
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८२ ]
* ओ पार्श्वनाथ चरित *
पित्रा समर्पितो जैनपाठकस्य सुधीः सुतः । महोत्सवेन धर्मात्मा शुभलग्नादिके सति ॥२६॥
महाप्रज्ञाप्रभावेन विनयेन शुभश्रिया । श्रगमत्सोऽचिरात्पारं सुशास्त्रार्थास्त्रविद्ययोः ॥ ३०॥ ततोऽभात्सोऽमरो वा समासाद्य यौवनं नवम् । सर्वैः स्वाभरणश्चारुलक्षणैः सुक्रियादिभिः ।। ३१ ।। ज्ञानविज्ञानचातुर्य कला दिगुण संचयेः | कान्त्या च तेजसा धर्मदान पूजादिकोद्यमैः ||३२|| अनु तादृग्विषं सूनुं दृष्ट्वा योवनभूषितम् । ज्ञानादिगुणसंपन्न परिणेतुं ददौ पिता ||३३|| विवाहविधिना तस्मै बह्वी राजसुता मुदा । सुखसन्तानवृद्धघणं रूपादिगुणशालिनी ।।३४।। ततः पितुः पदं प्राप्य बहुराज्यादिमाकुलम् । महोत्सवेन पुण्येन चाभिषेकपुरस्सरम् ।। ३५ ।। स्ववशे स्वीकारोच्चैः पौरुषेण नृपाधिप: | लक्ष्मीं बह्वीं महामण्डलीकास्पदकरां वगम् ।। ३६ ।। भुक्तभोगान्स्वरामाभिः सार्द्ध' 'स्वायोदयापितान् । स्वकीयपरिवारेण धर्मकार्यकरोऽपि सन् ।। ३७।। तस्य स्वामिहिताख्योऽस्ति महान्मन्त्री सुधर्मधीः । व्रतशीलगुणोपेतो जिनपूजादितत्परः ॥३८॥ एकदा स बभाषे सद्वचो भूवं प्रति स्वयम् । तवेयं चञ्चला राजलक्ष्मी राज्यादिगोचरा ॥३६॥ कर बहुत भारी उत्सव के साथ जैन गुरु को सौंपा ।। २६-२६|| तीव्र बुद्धि के प्रभाव से, विनय से तथा पुण्य लक्ष्मी से वह शीघ्र ही शास्त्र विद्या तथा शस्त्रविद्या के पार को प्राप्त हो गया ||३०|| तदनन्तर नव यौवन को प्राप्त कर वह अपने समस्त श्राभरणों, सुन्दर लक्षणों, उत्तम क्रियादिकों, ज्ञान विज्ञान सम्बन्धी चातुर्य तथा कला प्रावि गुणों के समूहों, कान्ति, तेज और धर्म, दान, पूजा आदि के उद्यमों से देव के समान सुशोभित होने लगा ।। ३१-३२ ।।
पश्चात् पिता ने उस पुत्र को यौवन से विभूषित तथा ज्ञानादि गुरंगों से संपन देख कर सुख और सन्तति की वृद्धि के हेतु विवाह की विधि पूर्वक विवाहने के लिये उसे रूपादि गुणों से सुशोभित बहुत सी राजपुत्रियां हर्ष पूर्वक दीं । ३३-३४।। तदनन्तर बहुतभारी उत्सव के साथ पुण्योदय से अभिषेक पूर्वक पिता का पद और विस्तृत राज्य को प्राप्त कर राजाधिराज आनन्द ने उत्कृष्ट पुरुषार्थ से महामण्डलेश्वर की प्रतिष्ठा प्राप्त कराने वाली बहुत भारी उत्कृष्ट लक्ष्मी प्रपने वश कर ली ।।३५-३६ ।। वह अपने परिवार के साथ धर्म कार्य करता हुआ भी अपनी स्त्रियों के साथ स्वकीय पुण्योदय से प्राप्त भोगों का उपभोग करता था ||३७|| महामण्डलेश्वर प्रानन्द का एक स्वामिहित नामका महामंत्री था जो धार्मिक बुद्धि का था, व्रत शोलरूप गुणों से सहित था तथा जिन पूजा आदि में
तत्पर रहता था ।। ३८ ।।
एक दिन वह स्वयं राजा से निम्नाङ्कित प्रशस्त वचन बोला- हे राजन् ! प्रापकी १. आत्मपुण्यप्रसाद २. राजलक्ष्मी ० ० ॥
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[ ८३
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maan
* सप्तम सर्ग * शाम्येन विद्यते नूनं बहुचिन्ताधकारिणी । महामोहकरानेकानर्थखानिः शुभाहते ॥11 एकं सुदानपूजाजिनार्याचैत्यालयादिकम् । मुक्त्वा श्रियोऽस्ति किञ्चिन्न सारं वा शुभकारणम्४१ पतो गजसुतैः प्राप्य बिय सावधकारिणीम् । कर्तव्यं दानपूजाजिनालया दिकं सदा ॥४२।। महापूजा विधेहि ' त्वं महीप श्रीजिनेशिनाम् । जिनागारे स्वधर्माय नन्दीश्वरदिनाष्टके ।।४३।। मन्त्र्युपदेशमादाय विभूत्या परया मृदा 1 करोति विविधां पूजां फाल्गुने मासि भूपतिः ।।४४।। जिनधामनि तीर्थेशां महाश्चर्यकरां पराम् । उपदेशं शुभं दक्षाः कि न कुर्वन्त्यहो सताम् ।।४।। एतस्मिन्नेव प्रस्तावे पूजां द्रष्टु मुदा गतः । विपुलादिमतिनाम्ना गणाधीशो गुणाकर: ।।४।। स्वालि कुड़मलीकृत्य नत्वा तच्चरणाम्बुजम् । त्रि:परीत्य विधायाची भूपोऽस्थासत्पदान्तिकम् ।।४।। दिव्यवाण्या गणाधीमोऽवदद्धर्म सुखार्णयम् । सर्वसत्त्वहितं दानपूजादिजं नृपं प्रति ॥४।। राजन् धर्मोऽत्र कर्तव्यो दृग्नताचरणः परैः । गुणशिक्षाव्रतः सर्वः पात्रदानैजिनार्चनः ॥४६11 गृहस्था येन यान्त्याशु नाकं घोडशक भुवि । निर्वाणं च क्रमाद् दृष्टिभूषिताः शर्मवारिधिम् ।।५०॥ यह राज्यादि विषयक लक्ष्मी निश्चय से बिजली के समान चञ्चल है, अत्यधिक चिन्ता
और पाप को करने वाली है, शुभ कार्यों के बिना महान् मोह को उत्पन्न करने वाले अनेक प्रनों की खान है ॥३६-४०॥ मात्र पात्रदान, पूजा, जिन प्रतिमा और चैत्यालय लाधि को छोड़कर लक्ष्मी का ऐसा कुछ भी सारभूत कार्य नहीं है जो शुभ का कारण हो ॥४१॥ इसलिये राजपुत्रों के साथ सावध कार्य कराने वाली लक्ष्मी को पाकर सवा दान पूजा जिनालय और प्रतिमानों का निर्माण करना चाहिये ॥४२॥ हे राजन् ! तुम नम्वीश्वर पर्व के पाठ दिनों में जिन मन्दिर में श्री जिनेन्द्र भगवान की महापूजा करो ॥४३॥
मन्त्री का उपदेश पाकर राजा ने फाल्गुन मास के प्राने पर जिन मन्दिर में उत्कृष्ट विभूति के साथ हर्ष पूर्वक जिनेन्द्र भगवान को महान् प्राश्वयं उत्पन्न करने वाली नाना प्रकार की उत्कृष्ट पूजा को सो ठीक ही है क्योंकि समर्थ मनुष्य सत्पुरुषों के शुभ उपदेश को पाकर क्या नहीं करते हैं ? अर्थात् सब कुछ करते हैं ॥४४-४५।। इसी अवसर पर पूजा देखने के लिये गुणों को खान स्वरूप विपुलमति नामक गणधर भी यहां हर्षपूर्वक पधारे ।।४६॥ राजा ने हाथ जोड़कर उनके चरण कमलों को नमस्कार किया, तीन प्रदक्षिणाए दी, पूजा की और पश्चात उनके चरणों के समीप खड़ा हो गया ॥४७॥ गणधर ने राजा के प्रति मधुर वाणी से सर्वसत्त्वहितकारी, दान पूजा प्रावि से उत्पन्न तथा सुख के सागर स्वरूप धर्म का उपदेश दिया ।।४।।
हे राजन् ! इस जगत् में श्रेष्ठ सम्यग्दर्शन, व्रताचरण, समस्त गुणवत शिक्षाबत, पात्रदान और जिन पूजन के द्वारा धर्म करना चाहिये ।।४।। जिस धर्म के द्वारा सम्यग्दृष्टि १. विधेहि भो महिमा स्व. ग. २. षोडशम क० ६० गः ।
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४]
* श्री पार्श्वनाथ रित *
इत्यादिधर्मसद्भावं श्रुत्वा भूपोऽवदत् सुधीः । भगवकिञ्चिदिच्छामि प्रष्टु मे संशयास्पदम् ।।५।। प्रचेतने कृता पूजा निग्रहानुपहच्युते । जिनबिम्बे जनाराच्ये शिल्पिनिर्मापित्ते शुभे ॥५२।। भक्तिर्वा महता पुण्यं कथं फलति वा दिवम् । तत्सर्व कृपया नाथ ! संशयं मे निराकुरु ।।५३।। यथा सूर्याहते जातु तमो नंश्यं' न नश्यनि । तथा मे संशयध्यान्तं भवद्वाक्यांशुभिविना ।। ५४।। श्रुत्वा तद्वचनं वाममो समीइस्तदनुग्रहम् । स प्राह शृणु हे राजन् वक्ष्ये बिम्बादिकारणम्।।५।। पुण्यकारणसंभूतं चैत्यं चैत्यालयादि च । जिनेन्द्राणां भवत्येव भव्यानां नात्र संशयः ।। ५६॥ जिनेन्द्राणां सुबिम्बादि पश्यतां धर्मकाक्षिणाम् । परिणाम शुभं सारं तस्ारण जायतेतराम् ।।५।। श्रीजिनस्मररगं साक्षाज्जिनध्यानमनारतम् । तत्साहश्य महाबिम्बदर्शनाच्चाघरोधनम् ॥५८।। शस्त्राभरणवस्त्राणि विकाराकृतयः क्वचित् । सगादयो महादोषाः करताद्य गुण वजाः२ ११५६।। जिनेन्द्रप्रतिमानाञ्च यथा सन्ति म भूतले । तथा श्रोजिनदेवानां धर्मती प्रवतिनाम् ॥६० ।। गृहस्थ शीघ्र ही इस जगत् में सोलह स्वर्ग प्राप्त करते हैं और क्रम से सुख के सागर स्वरूप निर्धारण को प्राप्त होते हैं ॥५०॥
इत्यादि धर्म का सद्भाव सुमकर बुद्धिमवि राजा ने कहा कि हे भगवन् ! मैं कुछ संशयास्पद बात को पूछना चाहता है ॥५१॥ निग्रह और अनुग्रह-अपकार और उपकार को सामर्थ्य से रहित, मनुष्यों के द्वारा प्राराधनीय तथा शिल्पकार के द्वारा बनाई हुई अचेतन शुभ जिन प्रतिमा के विषय में की हुई पूजा एवं भक्ति महापुरुषों को पुण्य का कारण कैसे होती है और स्वर्गरूप फल को कैसे फलती है ? हे नाथ ! दया कर मेरे इस सर्व संशय को दूर कीजिये ॥५२-५३।। जिस प्रकार सूर्य के बिना रात्रि का अन्धकार नष्ट नहीं होता है उसी प्रकार प्रापके वचनरूप किरणों के बिना मेरा संशयरूपी अन्धकार नष्ट नहीं हो सकता है ।।५४।।
__ राजा के वचन सुनकर प्रशस्त वचन बोलने वाले मुनिराज उसका उपकार करने की इच्छा करते हुए बोले-हे राजन् ! सुनो मैं बिम्ब प्रादि का कारण कहता हूँ ॥५५॥ जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा तथा मन्दिर प्रादि भव्य जीवों के पुण्य का कारण नियम से हैं इसमें संशय नहीं है ॥५६॥ जिनेन्द्र भगवान् के उत्तम बिम्ब प्रादि का दर्शन करने वाले धर्माभिलाषी भव्य जीवों के परिणाम तत्काल शुभ श्रेष्ठ होते ही हैं ।।५७॥ जिनेन्द्र भगबान का साहश्य रखने वालो महा प्रतिमाओं के दर्शन से साक्षात् जिनेन्द्र भगवान का स्मरण होता है, निरन्तर उनका साक्षात घ्यान होता है और उसके फल स्वरूप पापों का निरोध होता है ॥५६॥ शस्त्र, प्राभरण, वस्त्रादि, धिकार पूर्ण प्राकार, रागादिक महान
१. रात्रिभवं २. क्रूरतादि-पगुणवजाः इतिच्छेदः ।
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* सप्तम सगं .
[ २५ साम्यतादिगुणाः कीतिकान्तिशान्त्यादयोऽखिलाः। दृश्यन्ते जिनबिम्बे च तथा श्रीजिनपुङ्गवे ॥६१ ।। स्थिर वज्रासनं यन्नासाग्रदृष्टिरेव च । मुक्तिसाधन मर्चानां तथा धर्मविधायिनाम् ।।६।। इत्येवं तीर्थकत प्रति मालक्षरणदर्शनात् ।निश्चयः परमो भूयाग्जिने तद्भक्तिवारिणाम् ।।६३।। अतस्तत्परिणामेन तद्धधानम्मरणादिभिः ।तन्निश्नपेन जायेत महापुर्ण्य सुमिणाम् ।।६।। पुण्यपाकेन लोकेऽस्मिन् विश्वाभीष्टार्थसिद्धयः । संपद्यन्ते सुपुण्यानां चात्राभुन जगत्त्रये ॥६५॥ अतस्तीर्थशबिम्बादी भक्त्या करणात्मताम् । मनोऽभीष्ट फलं सर्व जायते दिवि भूतले ॥६६।। संकल्पितान्महाभोगान् दध : कल्पद्रुपा यथा । दशघा दानिमा तहज्जिनविम्बाश्च पूजिताः ।।६।। मनसा चिन्तित दत्त पथा चिन्तामरिणः सताम् । प्रचेतना जिनार्चा च तथा तद्भक्तिकारिगाम् ॥६॥ विध रोगादिकान् घ्नन्ति मारण मन्त्रोषधादयः । अचेतनास्तथा पापं त्याद्यास्तद्विधायिनाम् ।।६।। दोष और क्रूरता प्रादि अवगुरषों का समूह जिस प्रकार पृथिवी तल पर जिनप्रतिभाओं में नहीं हैं उसी प्रकार धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले श्री जिनेन्द्र देव में नहीं है ॥५६-६०॥ साम्यता प्रावि गुण तथा कीति, कान्ति और शान्ति प्रादि सब विशेषताए जिस प्रकार जिन बिम्ब में दिखाई देती हैं उसी प्रकार श्री जिनेन्द्र देव में विद्यमान हैं ।।६१। जिस प्रकार जिन प्रतिमाओं में मुक्ति का साधन भूत स्थिर वज्रासन और नासाप्रष्टि देखी जाती है उसी प्रकार धर्म के प्रवर्तक जिनेन्द्र भगवान् में वे सब विद्यमान हैं ॥६२।। इस प्रकार तीर्थकर प्रतिमाओं के लक्षण देखने से उनकी भक्ति करने वाले पुरुषों को तीर्थकर भगवान का परम निश्चय होता है। भावार्थ-वस्त्राभूषण तथा राग हुष सूचक अन्य चिह्नों से रहित जिन प्रतिमाओं के दर्शन से वीतराग सर्वज्ञ देव के यथार्थ स्वरूप का अवबोध होता है।।६। इसलिये उन जैसे परिणाम होने से. तथा उनका ध्यान और स्मरा पाने से तथा उनका निश्चय होने से धर्मात्मा जनों को महान् पुण्य होता है ॥६४॥ पुण्योदय से इस लोक में पुण्यशाली जनों की इस भव तथा परभव में त्रिलोक सम्बन्धी सभी अभिलषित पदार्थों की सिद्धियां संपन्न होती हैं ॥६५॥ अतः तीर्थकर प्रतिमाओं की भक्ति पूर्वक पूजा करने से सत्पुरुषों के समस्त मनोवाञ्छित फल पृथिवी तल पर तथा स्वर्गलोक में प्राप्त होते हैं ॥६६॥ जिस प्रकार दशाङ्ग कल्पवृक्ष दान देने वाले पुरुषों को संकल्पित महान भोग देते हैं उसी प्रकार पूजी हुई जिन प्रतिमाए' पूजा करने वाले पुरुषों को महान भोग देती हैं ॥६७॥ जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न सत्पुरुषों को मन से चिन्तित पदार्थ देता है उसी प्रकार प्रचेतन प्रतिमा भी भक्ति करने वालों को मन से चिन्तित पदार्थ देती है ॥६॥ जिस प्रकार अचेतन मरिण, मन्त्र, औषध प्रादि विष तथा रोगादिक को नष्ट
१. तीर्थकतृ णां प्रतिमा क.
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१६ ]
* श्री पाश्वनाथ चरित * इत्यादिहेतुदृष्टान्त रुत्पाद्य निश्चयं शुभम् । भूपतेः श्रीजिनार्यादौ धर्म पूजादिके सथा ।।७।। तत्कथाबमरे लोकप्रयचत्यालयाकृती: । सम्यग्वर्णयितु वाञ्छन् विस्तरेण महाद्भुताः ।७११ प्रागादित्यविमानस्थजिनेन्द्रभवनं महत् । स्वर्णरत्नमयं दिध्यं महाभूत्युपलक्षितम् ।।७।। भानुकोट्यधिकातीवते जो—बिम्बीघसंभृतम् । मुनीशो वर्णयामास सूर्य देवनमस्कृतम् ॥७३॥ तदसाधारणां भूति महता जिनधामजाम् । श्रुत्वा वहन् परां श्रद्धामानन्दोऽतिमुदान्विसः ।।७४।। दिनादौ च दिनान्ते च जिने शां रविमण्डले । स्वकरौ कुड्मलीकृत्य करोति स्तवनं परम् ।।७५।। पानम्रमृकुटो धोमांस्तद्गुणग्रामरञ्जितः । धर्म मुक्त्यादिसिद्धयर्थ ज्ञानादिगुणसंचयः ।।६।। पुनर विमानं स शिल्पिभिर्मणिकाञ्चनैः । जिनेन्द्रभवनोपेतं कारयामास चाद्भुतम् ॥७७।। तत्र त्यालये भक्त्या महापूजां जिनेशिनाम् । प्राष्टाह्निकी महाभूत्या व्यधाद्भूपोऽघशान्तये 1७८) चतुर्मुखं रथावत सर्वतोभद्रमूजितम् । कल्पवृक्षं च दीनेभ्यो दददानरवारितम् ।।७।।
... - . -... . . . .. .... . .. . . . --- -...-. -.--. करते हैं उसी प्रकार अचेतन प्रतिमाए' भी पूजा भक्ति करने वाले पुरुषों से विट तथा रोगादिक को नष्ट करती हैं ॥६६॥ इत्यादि हेतु और पृष्टान्तों के द्वारा राजा को जिन प्रतिमादिक तथा पूजादिक धर्म के विषय में शुभ निश्चय उत्पन्न कराया । पश्चात् उसी कथा के प्रसङ्ग में त्रिलोकवतों चैत्यालयों की महान आश्चर्यकारी प्राकृतियों का विस्तार से सम्यक् वर्णन करने की इच्छा करते हुए गणधर देव ने सब से पहले सूर्यविमान में स्थित विशाल जिन मन्दिर का वर्णन किया । वह मन्दिर स्वर्य तथा रत्नमय था, दिव्य था, महाविभूति से सहित था, करोड़ों सूर्य से भी अधिक तेज वाली प्रतिमाओं के समूह से युक्त था, और सूर्य देव के द्वारा नमस्कृत था ।।७०-७३।।
सूर्यबिम्ब में स्थित जिन मन्दिर की असाधारण महाविभूति को सुनकर परम श्रद्धा को धारण करता हुआ राजा आनन्द अत्यधिक हर्ष से युक्त हो गया। वह दिन के प्रारम्भ और दिन के अन्त समय अपने दोनों हाथों को कुण्डलाकार कर सूर्यमण्डल में स्थित जिन प्रतिमाओं की उत्कृष्ट स्तुति करने लगा ।।७४-७५।। जिसका मुकुट भक्ति से नम्रोभूत रहता था तथा जो उन प्रतिमाओं के गुरण समूह से अनुरक्त था ऐसे उस बुद्धिमान राजा अानन्द ने ज्ञानादि गुणों के संचय से धर्म और मुक्ति प्रादि की सिद्धि के लिये कारीगरों द्वारा मरिण और सुवर्ण से सूर्य के एक ऐसे श्रद्ध त विमान का निर्माण कराया जो जिन मन्दिर से युक्त था ॥७६-७७॥ उस मन्दिर में राजा प्रानन्द ने पापों की शान्ति के लिये जिनेन्द्र भगवान की प्राष्टाह्निक महा पूजा भक्ति पूर्वक बड़े वैभव के साथ की ॥७॥ इसी प्रकार चतुर्मुख, रथावर्त, सर्वतोभद्र और अतिशय श्रेष्ठ कल्पवृक्ष पूजा भी उसने को। पूजा के समय वह दोनों के लिये मन चाहा दान देता था ।।७६।। यह देख, उसकी प्रामा
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* सप्तम सर्ग में तद्विलोक्य जना: सर्वे तत्प्रामाण्यात्स्वयं च तत् । स्तोतुमारेभिरे भक्त्या पुण्याय रविमण्डलम् ।।८।। प्रहो लोकाः प्रवर्तन्ते नृपाचारेण भूतले । सद्विचारं न जानन्ति कार्याकार्य शुभाशुभम् १८१॥ तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् बभूवार्कोपसेवनम् । मिथ्याकारं च मूढानां विवेकनिकलात्मनाम् ।।२।। अतो राजा जिनेन्द्राणां करोति विविधाचनाम् । भक्त्या सिद्धच जिनागारे विश्वाभ्युदयकारिणीम् । दानं ददाति पात्रेम्यश्वनुर्धानेक शर्मकृत् । भक्त्या च विधिना नित्यं पापहान्यमहीपतिः ।।४।। स्वर्गमुक्तिकर वारंगी सारा श्रीजिनभाषिताम् । त्रैलोक्यदीपिका नित्यं वैराग्याय शृणोति स: ।।८।। प्रणुव्रतानि सर्वाणि गुण शिक्षाव्रतानि च । प्रतीचारान्विना भूपः पालन्मुक्तये सदा ।।६।। सम्यग्दर्शनसंशुद्धि विधत्त' प्रत्यहं नृपः । मद शवाविमूढादिदोपस्त्यिवत्वाखिलान् हृदि .१८७१। धर्मोपदेशनां दत्त सभान्तःस्ट विहाय रः ! बन्ध नबादीनां मां भूमिपर्नु नः ।।८।। जिनेन्द्राणां मुनीनां केवलिना धर्मोपदेशिनाम् । विभूत्या परियारेगा कुद्यात्रा मसिद्धये । ६ ।। रिणकता से सब लोग पुण्य प्राप्ति के लिये भक्तिपूर्वक सूर्यमण्डल की स्तुति करने लगे १८०। अहो ! पृथिवी तल पर लोग राजा के आचारानुसार प्रवृत्ति करते हैं अर्थात् जैसा राजा करता है वैसा करने लगते हैं कार्य, अकार्य, शुभ, अशुभ आदि के ममीचीन विचार को नहीं जानते हैं ।।८।। उसी समय से इस लोक में विवेक रहित मूढ जीवों के बीच सूर्य को उपासना तथा उसके मिथ्या प्रकार की परम्परा चल पड़ी है ॥८२॥
तदनन्तर राजा प्रानन्द, जिन मन्दिर में सिद्धि प्राप्त करने के लिये भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र भगवान की विविध प्रकार की पूजा करने लगा। वह पूजा समस्त अभ्युदयों को करने वाली थो॥५३॥ वह पापों की हानि के अर्थ नित्य ही पात्रों के लिये भक्ति पूर्वक यथा विधि अनेक सुखों का करने वाला चतुर्विध दान देता था ॥८४॥ जो स्वर्ग और मोक्ष को करने वाली है, सारभूत है तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करने के लिये दीपिका स्वरूप है ऐसी श्री जिनेन्द्र प्रतिपादित वापी को वैराग्य प्राप्ति के लिये नित्य ही सुनता था ॥८॥ वह राजा मुक्ति के लिये सदा अतिचार रहित समस्त प्रावत, गुरगवत और शिक्षावतों का पालन करता था ।।६। वह प्रानन्द राजा, मद, शङ्का तथा विमूढना आदि समस्त दोषों को छोड़कर प्रतिदिन हृदय में सम्यग्दर्शन की विशुद्धता को धारण करता था ॥८७॥ कभी यह सभा के बीच बैठकर राजाओं के द्वारा स्तुत होता हुमा बन्धु, सेवक, साधारण जन तथा राजाओं के हित के लिये धर्मोपदेश देता था ।।८८॥ वह सिद्धि प्राप्त करने के लिये वैभव पूर्वक परिवार के साथ श्री जिनेन्द्र भगवान्, मुनि तथा धर्मोपदेश देने वाले केवलियों की यात्रा करता था। अर्थात् उनके दर्शन के लिये जाता था ॥८६॥ वह
१. सूसिद्धये क. ।
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८८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित. मुनिकेवलितीर्थेशां ह्यनन्स गुणशालिनाम् । तद्गुणाय विधत्तेऽसौ सदा पून िनमस्कियाम् ।१०। प्रष्टभ्यां च चतुर्दश्यां भजते प्रोषधं' सुधीः । त्यक्त्वा राज्यादिकारम्भान सोऽनिशं कर्महानये।६।। कालत्रये सदा दध्यान्मुक्त्यै सामायिकं मुदा । मुनीन्द्र सदृशो भूत्वा त्यक्तदोषं सुखार्णवम् ।।१२।। इत्याचाचरण: सारै नाभेदैः शुभाकरः । अरणवतेगुणात्यैश्च सर्व शिक्षानतः सदा ।।६३॥ बानपूजोपवासाजिनभक्त्याक्षनिग्रहः । गुर्वादेः सेवया शुद्धमनोवाक्कायकर्मभिः ॥१४॥ करोति विविध धर्म स्वर्गमुक्तिगृहाङ्गणम् । प्रत्यहं मुक्तये भूपो विश्वसौख्याकरं परम् ॥१५॥ धर्मादर्थस्तसः कामः कमान्मोक्षपय जायते । इति मत्वा नराधीशो व्यधाम स सर्वदा ।।६।। सामन्तभूमिपः सेव्यमानो मन्ठ्यादिभिः सदा । निमग्नः शर्मवाओं स गतं कालं न वेत्ति च ॥१७||
मालिनी इति सुकृतविपाका हिट्यसौख्यं स भुक्त, क्षणभवमति रम्यं राज्यभूत्यादिजातम् । इति विबुधजना ज्ञात्वा वृषकं कुरुध्वं, सकलसुखसमुद्र यत्नसो योगशुरषा ॥९८||
समा अनन्तगुणों से सुशोभित मुनि, केवली तथा तीर्थकरों को उनके गुरण प्राप्त करने के लिये शिर से नमस्कार करता था ॥१०॥ वह बुद्धिमान, कर्मक्षय के लिये निरन्तर मष्टमी और चतुर्दशी के दिन राज्यादि का प्रारम्भ छोड़कर प्रोषध करता था ॥१॥ वह सवा मुक्ति प्राप्त करने के लिये तीनों काल मुनिराज के समान होकर निर्दोष तथा सुख के सागरभूत सामायिक को हर्ष पूर्वक करता था ॥२॥ इत्यादि शुभ को खान स्वरूप नाना प्रकार के श्रेष्ठ माचरणों, समस्त प्रणवतों, गुणवतों, शिक्षावतों, दान, पूजा, उपवास पादि, जिनभक्ति, इन्द्रिय-निग्रह, गुरु आदि की सेवा तथा मन, वचन, काय को शुद्ध क्रियामों से वह राजा प्रतिदिन मुक्ति प्राप्त के उद्देश्य से विविध प्रकार उत्तम धर्म करता था। उसका बह धर्म स्वर्ग तथा मुक्ति के घर का प्रांगन तथा समस्त सुखों को खान था ॥६३-६५।। धर्म से अर्थ, अर्थ से काम और क्रम से मोक्ष होता है ऐसा मानकर वह राजा सरा धर्म किया करता था ।।६६॥ सामन्त राजा तथा मन्त्री प्रादि जिसकी सेवा करते ये ऐसा वह राजा मानन्द से सदा सुखरूपी सागर में निमग्न रहता हुमा व्यतीत हुए काल को नहीं जानता था ॥७॥ इस प्रकार बह राजा पुण्योदय के कारण राज्य वैभव प्रावि से उत्पन्न क्षणिक तथा अत्यन्त रमणीय दिव्यसुख का उपभोग करता था। हे विद्वज्जन हो ! ऐसा जानकर यत्न पूर्वक त्रियोग की शुद्धि द्वारा समस्त सुखों के सागर स्वरूप एक धर्म को करो ॥६॥
१. प्रोषधं ... कशेति विविध धर्म हृदयासाकारणम् । स्वर्गमुक्तये धूपो विरहसौख्याकरं परम् ।।..
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* सप्तम सर्ग .
-. .
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विश्वाच्यं विश्ववन्धं निखिलसुखनिधि नाकसोपानभूतं,
__पापम शर्मया शिवाशिबनकं सारपायेयमुच्चैः । प्रातयं श्रीजिनोक्त कुगतिपथहरं विश्वभूत्येकहेतु,
सेवध्वं सौख्यकामा भनुदिनममलं सर्वष त्रिशुद्धपा ॥१६॥
उपनातिः भवे भवे यः क्षमया सहित्वा चोरोपसर्ग कमठाङ्गिजातम् ।
व्यक्तं स्ववीयं प्रविषाय लोके' शर्माप सारं सुगतौ समीरे ॥१०॥ इति भट्टारक-श्रीसकलकोति-विरचिते श्रीपार्श्वनाथरिने प्रानन्दास्यमहामणसीकभवद्धि वर्णनो नाम सप्तमः सर्गः ।।७।।
प्रहो सुख के इच्छुक जन हो ! जो सब के द्वारा पूज्य है, सब के द्वारा वन्दनीय है, समस्त गुणों का भण्डार है, स्वर्ग का सोपान स्वरूप है, पापों को नष्ट करने वाला है, सुख का सागर है, सिद्धगति का जनक है, घेष्ठ संबल स्वरूप है, प्रातः काल प्यान करने योग्य है, कुत्तियों के मार्ग को हरन करने वाला है समस्त संपदानों का अद्वितीय हेतु है तथा निर्मल है ऐसे श्री जिमोक्त सर्व धर्म की प्रतिदिन त्रियोग की शुद्धि पूर्वक उपासना करो
जिन्होंने भव भव में कमठ के जीव द्वारा किये हुए घोर उपसर्ग को क्षमाभाव से सहन कर प्रात्मबीर्य को प्रकट किया तथा उसके फल स्वरूप लोक में शुभगति सम्बन्धी सुख को प्राप्त किया उन पाश्वनाथ भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥१०॥
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति विरचित भी पार्श्वनाथ चरित में मानन्द नामक महामण्डलेश्वर की सांसारिक विभूति का वर्णन करने वाला सप्तम सर्ग समाप्त हुमा ॥७॥
TME
१.बम मुहम पाप प्राप २.
सौमि।
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० ]
श्री
अष्टमः सर्गः
धर्मसाम्राज्यनायकम् । वृषोपदेशिनं पार्श्वनाथं तद्गतये स्तुवे
१
सिद्धान्ततीर्थकर्ता मथान्यदा किलानन्दमहीट् शिरसि पुण्यतः । विलोक्य पलितं केशं काललब्ध्येति चिन्तयेत् ॥ २ ॥ अहो मे ग्रसितुं चागता जरा राक्षसी बलात् । पतितच्छधना नूनं यथा निन्द्या जगत्त्रये ॥३॥ तथा गमिष्यति प्राणान् हिंसितु मे यमोऽधमः । निर्दयो हि जराकान्तो विश्वलोकक्षयंकरः ॥४॥ प्रतो यावत्समायाति तावत्कार्यो महान् बुधैः । श्रप्रमत्त ेन यत्नस्तद्रोधको वा तदन्तकृत् अहो निवार्यतेऽप्यत्र यमः सिद्धर्न चापरैः | मतस्तत्पदसिद्ध्यर्थं क्रियते प्रोद्यमो महान् ||६|| बिना रस्नत्रयेणैव जातु सिद्धिपदं सताम् । जायते क्वापि काले न ह्यनन्तसुखपूरितम् ।।७।। राज्यभार)धिमग्नानां बहुचिन्तातिवतिनाम् । गृहिणां जातुभूयान्न सारं रत्नत्रयं दृढम् ॥८॥
॥५॥
श्रष्टम सर्ग
मैं प्रागम और धर्माम्नाय के कर्ता, धर्मरूपी साम्राज्य के नायक, तथा धर्म का उपबेश देने वाले श्री पार्श्वनाथ भगवान् को उनकी सिद्धावस्था प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूँ ॥१॥
प्रथानन्तर एक समय प्रानन्दभूपति शिर पर सफेद बाल देख कर पुण्योदय से काललब्धि के अनुसार इस प्रकार विचार करने लगा ॥२॥ ग्रहो ! जान पड़ता है कि तीनों लोकों में निन्दनीय राक्षसी के समान यह वृद्धावस्था मुझे बलपूर्वक ग्रसने के लिये सफेद बाल के बहाने श्रा पहुँची है ||३|| जिस प्रकार यह वृद्धावस्था प्रायी है उसी प्रकार वृद्धाबस्था का पति, निर्दय और तीन लोक का क्षय करने वाला मोच यमराज भी मेरे प्राणों को नष्ट करने के लिये श्रा पहुंचेगा ||४|| अतएव जब तक वह भ्राता है तब तक विद्वानों को प्रसाद रहित होकर उसे रोकने वाला प्रथवा उसका प्रन्त करने वाला महान प्रयत्न कर लेना चाहिये ||५|| अहो ! इस जगत में वह यमराज, सिद्ध भगवान के द्वारा ही रोका जा सकता है अन्य के द्वारा नहीं, इसलिये उनके पद की प्राप्ति हेतु बहुत भारी उत्कृष्ट प्रयत्न करना चाहिये ||६|| अनन्त सुख से परिपूर्ण सिद्धि पर सत्पुरुषों को रत्नत्रय के बिना कहीं भी किसी भी काल में नहीं प्राप्त हो सकता है ||७|| जो राज्य के भार रूपी समुद्र में डूबे हुये हैं तथा अनेक चिन्ताओं को पीड़ा में वर्तमान हैं ऐसे गृहस्थों को श्रेष्ठ
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* श्रष्टम सर्ग *
[ e१
प्रतस्तत्प्राप्तये शीघ्र त्याज्यं राज्यसुखादि च । हन्तव्योऽत्र महामोहमल्लः कामारिया समम् || || तघाताय ग्रहीतव्यः संयमो मुनिगोचरः । रामाश्रीराज्यगेहादीन् हित्वा मुक्तिनिबन्धकान् ॥ १०॥ यावत्स्वस्थमिदं देहं रोगसपने पीडितम् । तावद्धितं प्रकर्तव्यं पश्चात्कर्तुं न शक्यते ॥ ११॥ यावन दश्यते कायकुटीरकं जराग्निना । तावत्कार्यो वृषः पश्चात् स विधातुं न शक्यते । १२ ।। इन्द्रियाणि समर्थानि यावरस्थस्वार्थबोधने । तावद्दीक्षा ग्रहीतव्या मन्दाक्षाणां हि सा कुतः । १३० यावदबुद्धिः प्रणश्येन तावत्कार्या मतिबुधैः । साधने परलोकस्य धीहीनानां कुतोऽस्ति तत् ॥११४॥ मादपुः क्षमं कार्यं मापने यौवनान्वितम् । तावत्कार्यं तपो घोरं वृद्धत्वे तत्कथं महत् ।। १५ ।। यावत्र क्षीयते स्वायुदुर्लभं यत्नकोटिभिः । तावद्धर्मो विधातव्यस्तत्क्षये नास्ति जातु सः ।। १६ ।। यौवनं जरया ग्रस्तं स्वायुः "कालास्यमध्यगम् । भोगा रोगोपमा जीवितव्यं दर्भाविन्दुवत् ॥ १७॥ राज्यं रजोनिभं कालकूटाभं स्वःक्षजं सुखम् । लक्ष्मीः पाशोपमा सर्वे बान्धवा बन्धनोपमाः ।।१८।
तथा दृढ रत्नत्रय कभी प्राप्त नहीं हो सकता है ||८|| इसलिये उसकी प्राप्ति के लिये शीघ्र ही राज्यसुख प्रावि का त्याग करना चाहिए और कामरूपी शत्रु के साथ मोहरूपी महामरुल को नष्ट करना चाहिये ॥६॥ उसका घात करने के लिये मुक्ति को रोकने वाले स्त्री, लक्ष्मी, राज्य तथा घर प्रादि को छोड़कर मुनि सम्बन्धी सकल संघम ग्रहण करना चाहिये ।।१०।। जब तक यह शरीर रोगरूपी सर्पों के द्वारा पीडित नहीं हुआ है तब तक हित कर लेना चाहिए पश्चात् नहीं किया जा सकता है ||११|| जब तक यह शरीररूपी कुटी वृद्धावस्था रूपी अग्नि के द्वारा नहीं जलती है तब तक धर्म करने के योग्य है; क्योंकि वह पीछे नहीं किया जा सकता है ||१२|| जब तक इन्द्रियां अपना अपना विषय प्रहरण करने में समर्थ हैं तब तक दीक्षा ग्रहण करने योग्य है; क्योंकि जिनकी इन्द्रियां शिथिल हो गई हैं। उन्हें वह दीक्षा कैसे प्राप्त हो सकती है ? ||१३|| जब तक बुद्धि नष्ट नहीं हो जाती है तब तक विद्वानों को परलोक के सिद्ध करने का विचार कर लेना चाहिये; क्योंकि बुद्धिहीन मनुष्यों को वह विचार कैसे हो सकता है ? ॥। १४ ।। जब तक यौवन से सहित शरीर कार्य सिद्ध करने में समर्थ है तब तक घोर तप करने योग्य है; क्योंकि वृद्धावस्था में वह महान् तप कैसे किया जा सकता है ? ।। १५ ।। जब तक दुर्लभ प्रायु नष्ट नहीं हो जाती है तब तक करोड़ों यत्नों द्वारा धर्म कर लेना चाहिये; क्योंकि आयु का क्षय होने पर वह कभी नहीं किया जा सकता है ॥ १६ ॥
यौवन वृद्धावस्था से प्रस्त है, अपनी आयु यमराज के मुख में स्थित है, भोग रोगों के समान हैं, जीवन डाभ के अग्रभाग पर स्थित पानी की सून्य के समान है ।।१७।। राज्य
१. शिवनेद्रियाणां
यमराजमुख मध्य स्थितम् :
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६२.
* श्री पाश्वनाथ चरित.
rmer
शत्रुतुल्यं कुटुम्बं च भार्या पापखनी खला । किंचिन्न शाश्वतं लोके गेहसैन्यधनादिकम् ||१६॥ यत्किञ्चिद् दृश्यते रूपि वस्तु लोकत्रये महत् । कालानलेन तत्सर्व भस्मीभावं प्रयात्यहो ॥२०।। प्रतो नश्येदलं यावत्सामग्री मेऽखिलात्र न । मायुह ढाङ्गखाद्या महोद्यमादिभवा परा ।।२१।। तावदक्षकषापारीन्मोहरागादिशात्रवान् । समतातोश्रणखड्गेन हत्वा गृह्णामि संयमम् ।।२२।। इत्यादिविविधालाः प्राप्य संवेगमजसा । देहभोगभवश्रीराज्यवस्त्वाद्यस्त्रिलेषु सः ।।२३।। काललब्ध्या चकाराशु प्रोद्यमं परमं नृपः । त्यक्तु राज्यमहाभार ग्रहीतु संयम परम् ।।२४।। ततो दत्वाखिलं राज्यं सतां त्याज्यं श्रिया समम् । स्वज्यष्ठसूनवे भूत्याभिषेकादि पुरस्सरम् ।।२।। तृणवद्राज्यधामश्रीकुटुम्बादि विहाय सः । यते: समुद्रदत्तस्य जगाम सन्निधि नृपः' ।।२६।। जगद्धितं मुनीन्द्र तं मुक्तिकान्तं गुणार्णवम् । त्रिःपरीत्य महाभक्त्या नत्वा मूर्ना मुदा नृपः ।।२७॥ हित्वा बाह्यान्तरं सङ्ग सर्व जग्राह संयमम् । भूमिपंहुभिः सार्धं त्रिशुद्धया रागदूरगः ॥२८॥ रज के समान है, इन्द्रिय जन्य सुख कालकूट के तुल्य है, लक्ष्मी पाश के सदृश है, सब बन्धु जन बन्धन के समान हैं ॥१८॥ कुटुम्ब शत्रु के तुल्य है और दुष्ट भार्या पाप की खान है । जगत् में घर, सेना तथा धन प्राविक कुछ भी शाश्वत नहीं है ॥१६॥ अहो ! तीनों लोकों में जो कुछ भी महान रूपी वस्तु दिखाई देती है वह सम्म कालरूपी अग्नि के द्वारा भस्म भाव को प्राप्त हो जाती है ।।२०।। इसलिये प्रायु, हड शरीर, उपभोग योग्य पदार्थ तथा महोबम प्रावि से उत्पन्न होने वाली मेरी सब उत्कृष्ट सामग्री जब तक यहां सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो जाती है तब तक मैं समतारूपी पनी तलवार के द्वारा इन्द्रिय, कषाय, मिथ्यात्व तथा रागादि शत्रुओं को नष्ट कर संयम ग्रहण करता हूँ ।।२२।
इत्यादि विविध प्रकार के वचनों से शरीर, भोग, सांसारिक लक्ष्मी तथा राज्य प्रादि समस्त वस्तुओं में वास्तविक बराग्य को प्राप्त कर राजा ने काललब्धि से राज्यरूपी महाभार को छोड़ने और उत्कृष्ट संयम को ग्रहण करने का शीघ्र ही उत्कृष्ट प्रयत्न किया ॥२३-२४॥ तवनन्तर वैभव पूर्वक अभिषेकादि कर अपने बड़े पुत्र के लिये सत्पुरुषों के छोड़ने योग्य समस्त राज्य, लक्ष्मी के साथ प्रदान किया और राज्य, घर, लक्ष्मी तथा कुटुम्ब प्रादि को तृण के समान छोड़कर राजा प्रानन्द, समुद्रदत्त मुनिराज के समीप गया ।।२५२६॥ जगत् हितकारी, मुक्ति के स्वामी तथा गुरणों के सागर स्वरूप उन मुनिराज को तोन प्रदक्षिणाएं देकर राजा ने बहुत भारी भक्ति से हर्ष विभोर हो उन्हें शिर से नमस्कार किया ॥२७॥ पश्चात् बाह्याभ्यन्तर समस्त परिग्रह का त्याग कर राग से दूर रहने वाले अनेक राजाओं के साथ त्रिशुद्धि पूर्वक संयम ग्रहण कर लिया-मुनि दीक्षा ले ली ॥२८॥
१. नुपः क.।
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[ ex
| मनः शुद्धघाषहन्त्री स महाशुभविधायिनीम् ||२६| । विश्वशर्माकरं दक्षः प्रशस्तं ध्यानमाददे ||३०|| | पारं जगाम वेगेन महाप्राज्ञो मुनीश्वरः ।। ३१ ।। त्रिशुद्धयाराधयामास सखीमुक्तिश्रियः पराः ॥ ३२॥ | विध्याप्य क्षान्तिनीरेण स्वीचकारोत्तमां समाम् । ३३० सोपानमाददे धर्मसिद्धये
* अष्टम सर्ग *
हत्वा त्र्यशुभलेश्य त्रिशुभलेश्यां समाददी प्रप्रशस्तं द्विधा ध्यानं प्रहस्य शुद्धचेतसा संतताभ्यास पोतेन * कादशाङ्गवारिधेः प्रतीचार विनिर्मुक्ताश्चतुर्धाराधना मुनिः ज्ञानवृत्तरत्नादिदाहक कोषपावकम् मनःकौमल्याए कठिन प्रसूर्य छित्वा मायामहावल्ली मृजुचित्तायुधेन सः वमित्वाऽसत्यवाग्हालाहलं विश्वासनाशनम् संतोषदारिरणा लोभमल प्रक्षाल्य संयमी
१३४।।
| जग्राह प्रार्जवं सारं चेतसा घर्मलक्षणम् ||३५|| | सूनुतोषधयोगेन वृषाय सद्वचोऽवदत् ॥१३६॥ । अभ्यन्तरे व्यधाच्छीचं सद्धर्मसाधनं परम् ||३७|| बद्ध वा वैराग्यपाशेन पञ्चेन्द्रियमृगान्मुनिः । सर्वाङ्गिषु दयां दत्त्वा विधत्त संयमं परम् ||३८|| तीन अशुभ लेश्याओं को नष्टकर मन की शुद्धि द्वारा पापों को नष्ट करने वाली तथा महान् पुण्य को उत्पन्न करने वाली तीन शुभ लेश्याए ग्रहण की ||२६|| प्रत्यन्त कुशल प्रानन्द मुनिराज ने दो प्रकार के अप्रशस्त ध्यान को नष्ट कर शुद्ध चित्त से समस्त सुखों को खान स्वरूप प्रशस्त ध्यान को ग्रहण किया ||३०|| महा बुद्धिमान् मुनिराज निरन्तर अभ्यासरूपी · जहाज के द्वारा ग्यारह प्रङ्गरूपी समुद्र के पार को येग से प्राप्त हो गये |३१| जो अतिचार से रहित थीं तथा मुक्तिरूपी लक्ष्मी की उत्कृष्ट सखी थी ऐसी चार धाराधनाओं का वे सुनि त्रिशुद्धि मन वचन काय की शुद्धता पूर्वक प्राराधना करते थे ||३२|| दर्शन ज्ञानचरित्ररूप रत्नादि को भस्म करने वाली क्रोधरूपी प्रग्नि को क्षान्तिरूपी जल से बुझाकर उन्होंने उत्तम क्षमा को स्वीकृत किया था ||३३|| मन को कोमलता रूपी वस्त्र के द्वारा कठोरता रूपी पर्वत को घूर कर उन्होंने धर्म को सिद्धि के लिये उस मार्दव धर्म को ग्रहण किया था जो स्वर्ग की सीढी के समान था ।। ३४ । उन्होंने कोमल चित्तरूपी शस्त्र के द्वारा मायारूपी बड़ी लता को छेव कर हृदय से प्राजंवरूपी श्रेष्ठ धर्म के लक्षण को ग्रहण किया था ||३५|| सत्य और प्रिय वचन रूपी श्रौषध के योग से विश्वास को नष्ट करने वाले प्रसत्य वचनरूपी हालाहल को उगल कर धर्म के लिये सत्य वचन बोलते थे ।। ३६ ।। उन मुनिराज ने संतोष रूपी जल के द्वारा सोभरूपी मैल को धोकर अन्तरङ्ग में समीचीन धर्म के साधन स्वरूप शौच धर्म को धारण किया था ||३७|| वैराग्यरूपी पाश के द्वारा पञ्चेन्द्रिय रूपी मृगों को बांधकर तथा समस्त जीवों को क्या प्रदान कर वे मुनि उत्कृष्ट संयम को धारण करते थे । भावार्थ-वे मुनि इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयम के भेद से दोनों प्रकार के संयमों का अच्छी तरह पालन
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१. एषः श्लोक ० प्रती मास्तिर निरन्तराभ्यासनीकथा १. धर्माय ।
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६४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित. द्विषड्भेदं तपः कुर्यात्स्वशक्त्या सोऽनघं महत् । धर्मसिद्धिकरं सारं वृषायाधर्मनाशकर' १३९|| द्विधा सङ्गपरित्याग चियादानमद्भतम् । स्वर्गमोक्षविधातारं विधत्तेऽसौ वृषाप्तये ।।४।। कायादो ममता त्यक्त्वा कायोत्सर्ग दधात्यसो । माकञ्चन्यवृषाप्त्यै संत्यत देहोऽतिनि:स्पृहः।।४।। मातृपश्यादिकं वासो रूपिणं स्त्रीकदम्बकम् । पश्येच्च शीलसंपूर्को नवधा ब्रह्मसिद्धये ॥४२॥ दर्शक लक्षणान्यत्रेमानि धर्माकराण्यसौ । क्षमादीन्यनिशं योगी व्यधाज्ञान सुधर्मवित्॥४३|| रत्नत्रयात्मक धर्म सम्यक्त्वज्ञानवृसजम् । विश्व शर्माकरीभूतं सर्वत्रागी भवेन्मुनिः ॥४४॥ प्राशापायविपाकायसंस्थानविचयान्सदा ।धर्मध्यानान्सुमोक्षाय शुक्लायातिशुभान व्यधात्।४५॥ गिरिकाजीगोसानादी साहितांदुने ! गुरप्रेतादिसंताने श्मशानेऽसि भयंकरे ॥४६॥ प्रदेशे निर्जने क्लीवस्त्रीपश्वादिविजिने । शून्यागारगुहा वृक्षकोट शदिवनाश्रिते
) सर्वत्राप्रतिबद्धोऽमावेकाकी सिंहवस्सदा ।ध्यानाध्ययमसिद्धयर्थ निर्भयोऽधाद्वरासनम् ।।४।। करते थे ॥३८॥ अधर्म का नाश करने वाले वे मुनि अपनी शक्ति के अनुसार धर्म के लिये धर्म की सिद्धि करने वाला बारह प्रकार का निर्दोष श्रेष्ठ महान तप करते थे ॥३६॥ जिसमें जीव दयारूपी दान दिया जाता है, जो स्वयं पाश्चर्यकारी है तथा स्वर्ग और मोक्ष को वेने पाला है ऐसे द्विविध परिग्रह के त्यागरूपी त्यागधर्म को ये मुनिराज धर्म प्राप्ति के लिये करते पे ॥४०॥ जिन्होंने शरीर का त्याग कर दिया था जो शरीर से निर्ममत्व ये सथा अत्यन्त निःस्पृह थे ऐसे वे मुनिराज प्राकिञ्चन्य धर्म की प्राप्ति के लिये शरीर प्रावि में ममता का त्याग कर कायोत्सर्ग करते थे ॥४१॥ संपूर्ण शीलवत को धारण करने वाले वे मुनि नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य की सिद्धि के लिये सुन्दर स्त्री समूह को माता तथा पुत्री प्रादि के समान देखते थे ॥ ४२ ॥ उत्तमधर्म के ज्ञाता थे योगी-मुनिराज धर्म की जान स्वरूप इन क्षमा मादि दश लक्षण धर्मों को निरन्तर धारण करते ये ॥४३॥ समस्त सुखों की खान स्वरूप सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से होने वाले रस्मनय रूप धर्म को वे मुनि सब जगह धारण करते थे ॥४४॥
वे उत्तम मोक्ष के लिये शुक्लघ्याम के साधन स्वरूप प्राजाविचय, अपायविचय, विपाकधिचय, और संस्थानविचय नामक चार शुभ धर्मध्यानों को धारण करते थे ॥४५॥ व्याघ्र मावि जीवों से परिपूर्ण पर्वत की गुफा तथा जीर्ण उद्यानावि में नृत्य करते हुए प्रेतादि के समूह से सहित अत्यन्त भयंकर श्मशान में, नपुसक, स्त्री तथा पशु प्रादि से रहित निर्जन स्थान में, और शून्यागार, गिरिगुहा, पक्ष, कोटर और निर्जन वन प्रादि शून्य स्थानों में सिंह के समान निर्भय सर्वत्र प्रतिबन्ध से रहित तथा एकाकी निवास करने वाले
१. प्रधर्मनामक इतिच्योरः, विषयाधमाशजत् क. २. यासाभ्यन्तरभेदेन विविधपरिग्रहत्याग ३. नवकोरिभिः ।
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* अष्टम सर्ग *
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भातापनद्व मूलाभ्रावकाश योगधारणः
पुरामाटवी देशान्
वायुवहिरेन्मुनिः
| कायक्लेशं परं कुर्यान्नित्यं सोऽङ्गसुखातिगः ॥४६॥ 1 मुक्तिमार्गोपदेशा भग्यानां सोऽतिनिर्ममः || ५०१२ रविरस्तं पश्यत्र तत्रास्थात् स दयार्द्रधीः । व्युत्सर्गेण च हित्वाङ्ग रक्षायै निखिलाङ्गिनाम् । ५१ । भावयत्यनिशं योगी भावनाः पञ्चविंशतिम् । महाव्रतविशुद्धधर्म वाग्गुप्याचा व्रतप्रदाः ॥५२॥
निरन्तरमनुप्रेक्षाश्चिन्तयत्येवमानसे
सर्वान्पूल गुगान्धीमान तीचारातिगान् द्विषड्भेदतपोभिच भ्रष्टादशसहस्रप्रमैः
सोढव्यपरीष है: शारीि
तपः शस्त्रश्च दितो ममसे हन्तु दु:कर्मश च सच्चारित्ररणावनी
सदा
। वैराग्याम्बाः समस्ताः स निर्वेदत्रिवृद्धये ॥५३॥ | पालयत्येव सर्वेषां गुणानां मूलकारणात् ॥ ५४॥ । उत्तराख्यगुणात्विश्वान्पालयेद् गुणसिद्धये ॥ ५५॥ । भूषितश्चतुरशीतिलक्षसद्गुणवम्मितः
।। ५६ ।।
माहरूको गुप्त्यङ्गरक्षकै बृं सः ॥५७॥ । मुक्तिराज्याय भातीष मुनीशोऽत्र महाभटः ।।५८॥
वे मुनिराज ध्यान और अध्ययन को सिद्धि के लिये उत्कृष्ट श्रासन जमाते थे । भावार्थविविक्त शय्यासन तप की साधना करते थे ।।४६-४८ ।। शरीर सम्बन्धी सुख से दूर रहने वाले वे मुनिराज प्रातापन, वृक्षमूल तथा प्रभावकाश योगों को धारण कर निरन्तर कायक्लेश नामका उत्कृष्ट तप करते थे ||४६ ॥
अत्यन्त ममता से रहित वे मुनि भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देने के लिए पुर ग्राम तथा अटवी आदि स्थानों में वायु के समान विहार करते थे ।। ५० ।। विहार करते करते जहां सूर्य अस्त हो जाता था वे दयार्द्र बुद्धि मुनि समस्त जीवों की रक्षा के लिये व्युत्सर्ग तप के द्वारा शरीर को छोड़कर अर्थात् प्रतिमा योग धारण कर वहीं स्थित हो जाते थे ।।५१ || वे योगिराज महावतों की विशुद्धि के लिये व्रतों को देने वाली वचन गुप्ति आदि पच्चीस भावनाओं की निरन्तर भावना करते थे ।।५२|| वे तीनों प्रकार के वैराग्य की वृद्धि के लिये वैराग्य की माताओं के समान समस्त प्रनुप्रेक्षाओं का निरन्तर मन में चितवन करते थे ।। ५३ ।। वे बुद्धिमान मुनिराज समस्त गुणों के मूलकारण होने से पतिचार रहित समस्त मूलगुणों का सदा पालन करते थे ।। ५४ ।। वे गुणों की सिद्धि के लिये बारह तप तथा बाईस परिषह जय के द्वारा समस्त उत्तर गुणों का पालन करते थे ।। ५५॥ जो शील के अठारह हजार मेव रूपी ग्राभरणों से विभूषित हैं, चौरासी लाख उत्तर गुरु रूपी कवच से युक्त हैं, तपरूपी शस्त्र, विशारूपो वस्त्र और संयमरूपी सैनिकों से युक्त हैं, शान्ति परिणति रूपी वाहन पर सवार हैं तथा गुप्तिरूपी भङ्ग रक्षकों से घिरे हुए हैं ऐसे वे मुनिराज सम्यक् चारित्ररूपी रणभूमि में दुष्कर्म रूपी शत्रुओं को नष्ट करने और मुक्तिरूपी राज्य को प्राप्त करने के लिये महाभट - महान योद्धा के समान सुशोभित होते थे । ५६-५८। १. सर्गेणाहितं स्वाङ्ग क० २. पचवतानां पच पच भेदेन पचविंशतिर्भावना भवन्ति १ समदाहून मारूको व
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२६]
* श्री पार्श्वनाथ चरित
तसोऽसौ भावमेत्रित्यं कारणान्यपि षोडश | बन्धकारणभूतानि तीर्थ कृनामकर्मणः ॥५॥ देवलोकारूपमूढत्वं संमयाख्यमिति' त्रिघा 1 मूढत्वं मूढलोकार्ना महापापासवाकरम् ॥६०॥ सज्जा तिसत्कुलैश्वर्य रूपज्ञान तपोबलाः | शित्पश्चेति सदा प्रष्टौ स्याज्या घातितोऽशुभाः ६१ मिथ्याज्ञानचारित्राणि सत्संसेविनो जनाः 1 इत्यनापशनं हेयं षड्विधं श्वभ्रकारणम् ॥६२॥ श्री जिने गुरुसिद्धान्ते सूक्ष्मतत्वविचारणे । हत्वा शङ्कां विधत्तेऽसौ निःशङ्कां मुक्तिमातरम् ॥ ६३ ॥ त्यक्त्वा कांक्ष सुभोगादौ स्वगंराज्यादिगोचरे । तपसारातिघाते वाऽधाभिःकांक्षां स मोक्षदाम् ॥६४॥ मलजल्लाविलिप्ताङ्ग स्वाजसंस्कारवजिते । सन्मुनौ विचिकित्सां हत्वाधानि विचिकित्सताम् । ६५ । धर्म तत्वे गुरौ दाने देवे शास्त्रेऽशुभादिके मूडभाव प्रत्यासी प्रमूढत्वं दधेऽनिशम् ।। ६६ ।। जिनेन्द्रशासनस्याशु बालाशक्तजनाश्रयात् | श्रागतं दोषमाच्छाद्य ह्य ुपगूहनमाचरेत् ॥६७॥ हग्यतादेः परिज्ञाय चलतो धर्मदेशनै: । तद्धर्मादी स्थिरीकृत्य संस्थितीकरणं भजेत् ॥ ६८ ।
तदनन्तर वे निरन्तर तीर्थंकर नाम कर्म के बन्ध में कारणभूत सोलह कारण भावनाओं की भावना करने लगे ॥५६॥ वेब सूढता, लोक मूढता और धर्म भूढता (गुरुमूढता ) ये तीन मूढताए हैं जो मूढ मनुष्यों के महान् पापास्रव की खान है ॥६०॥ सत् जाति, सत्कुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल और शिल्प ये सम्यग्दर्शन को घातने वाले माठ अशुभ मद छोड़ने के योग्य है ।।६१॥ मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और इनके सेवक ये नरक के कारणभूत यह प्रनायतन छोड़ने के योग्य हैं ।। ६२ ।। वे मुनिराज श्री जिनेन्द्र वेव, निम्यगुरु, जनसिद्धान्त और सूक्ष्म तत्वों की विचारणा में शङ्का को नष्ट कर मुक्ति की मातारूप निःशङ्क श्रद्धा को धारण करते थे अर्थात् वे सम्यग्दर्शन के निःशङ्कित पङ्ग का अच्छी तरह पालन करते थे ।। ६३ ।। वे स्वगं तथा राज्यादि विषयक उत्तम भोगाविक में अथवा तप के द्वारा शत्रुओंों का घात करने में कांक्षा का त्याग कर मोक्ष को देने बाली निःकांक्ष श्रद्धा को धारण करते थे अर्थात् वे सम्यग्दर्शन के निःकांक्षित मङ्ग की अच्छी तरह रक्षा करते थे ।। ६४ ।। जिनका शरीर मल तथा जल्ल शादि से लिप्त है और जो अपने शरीर के सस्कार से रहित हैं ऐसे उत्तम मुनि में ग्लानि को नष्ट कर वे निधिचिकित्सा अङ्ग को धारण करते थे ।। ६५ ।। वे अशुभ धर्म, प्रशुभ तर, अशुभ गुरु, अशुभ दान, अशुभ देव और प्रशुभ शास्त्र में मूढता का त्याग कर निरस्तर प्रमूढ दृष्टि अंग को धारण करते थे ।। ६६ ।। वे बालक अथवा शक्तिहीन मनुष्यों के माश्रय से होने वाले जिन शासन के दोष को शीघ्र ही छिपा कर उपगूहन अङ्ग का श्राचरण करते थे ।। ६७ ।। ये सम्यग्वर्शन तथा व्रताबिक से विचलित होते हुए लोगों को जान कर धर्मोपदेश के द्वारा उन सद्धमं प्रादि में स्थित करते थे। इस प्रकार वे स्थितीकरण प्रङ्ग की
१. संयमाख्य २, ग्रभ्यग्दर्शन घातका ३ प्रकृष्टता
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* अष्टम सर्ग.
कायादौ त्यक्तभोहोऽपि सद्यः प्रसूतधेनुवत् । कृत्वा साधर्मिके स्नेहं कुर्यादात्सल्यमद्भुतम् ॥१६॥ प्रकटीकृत्य सीर्थेश शासनं मुक्तिकारणम् ।शानेन तपसा दध्यात्सखी मुक्त: प्रभावनाम् 11७०॥ एवं सोऽष्टविधरङ्गई ढीभूतं सुदर्शनम् ।चकार मुक्तिसोपानमाद्य कर्मारिहानये ॥७॥ तद्विपक्षा हि हदोषा अष्टौ शङ्कादयोऽशुभाः । ये सन्ति ताश्च सदृष्टिर्जातु स्वप्नेऽपि न स्पृशेव।७२ एवं सर्वान् 'मलांस्त्यक्त्वा पञ्चविंशति संख्यकान् । मूत्वदुर्मदादींश्च सम्यक्त्वमलदायिमः ॥७३॥ दर्शनस्य विशुदि स्वमनोकाक्कायचेष्टितैः । चकार महती मुक्त्यै तीर्थराजविभूतिवाम् ।।७४।। शानदर्शनचारित्रतपस्सु तात्मसु । सोऽकरोद्विनयं नित्यं विद्यादिगुणसागरम् ॥७॥ अष्टादशमहाशील सहस्राणां गुणात्मनाम् । सपोऽखिलवतादीनां नातीचारं व्यषालवचित्।।७६।। प्रगपूर्वाणि धीमान्सोऽभीषणमज्ञानहानये । केवलाय पठत्येव सतां पाठयति स्फुटम् ॥७७॥ देहभोगभवादी स सर्वत्रानिशमादधे । वैराग्यं रागमाहत्य 'स्वर्गमोक्षाध्वदर्शकम् ।।७।। प्राराधना करते थे ॥६६॥ यद्यपि वे शरीरावि में मोह का त्याग कर चुके थे तथापि समान धर्मी बन्धु में तत्काल प्रसूता गाय के समान स्नेह करते हुए अद्भुत वात्सल्य प्रङ्ग का पालन करते थे ॥६६॥ वे मुक्ति के कारणभूत जिनशासन को ज्ञान और तप के द्वारा प्रकट कर मुक्ति को सभी स्वरूप प्रभावना को धारण करते थे ॥७०। इस प्रकार के कर्मरूपी शत्रुनों का क्षय करने के लिये मुक्ति की प्रथम सीढ़ी स्वरूप सम्यग्दर्शन को हड करते थे ।।७।। सम्यम्बर्शन के विरोधी ओ शङ्का प्रादिक पाठ दोष हैं सम्यग्दृष्टि मुनिराज स्वप्न में भी उनका स्पर्श नहीं करते थे ॥७२॥ इस प्रकार वे सम्यग्दर्शन में मल उत्पन्न करने वाले मूढता तया दुष्टमा प्रादि समस्त पच्चीस दोषों का त्याग कर अपने मन वचन काय की चेष्टामों द्वारा तीथंकर की महान विभूति को देने वाली दर्शन विशुद्धि नामक महाभावना की मुक्ति प्राप्त करने के लिये सबा भावना करते थे ॥७३-७४।। वेशान, वर्शन, चारित्र तप और इनके धारक जीवों में विद्या प्रादि गुणों के सागर स्वरूप विनय को नित्य करते थे॥७५।। वे सोल के अठारह हमार भेदों तथा समस्त व्रताबिक गुरगों में कहीं भी प्रतिबार नहीं लगाते थे। अर्थात् शीलवतेष्वनतिचार नामक भावना का चिन्तवन करते थे ॥७६।। वे बुद्धिमान मुनिराज मात्र प्रज्ञान की हानि के लिये निरन्तर प्रङ्ग और पूर्वो का स्वयं पाठ करते थे और दूसरों को स्पष्ट रूप से पाठ कराते थे। भावार्थ-वे प्रभीक्षण शानोपयोग भावना का चिन्तवन करते थे ।।७।। के सर्वत्र राग को नष्ट कर शरीर भोग तपा संसार मावि के विषय में निरन्तर स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग दिखाने वाला वैराग्यभाव धारण करते थे प्रति संवेग भावना का जिम्तवन करते थे ॥७८।। वे बुद्धिमान मुनिराज
१. दोषात २. स्वगंमोक्षपयप्रदयम् ।
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*श्री पार्श्वनाथ चरित - जानाभयादिसदानं दस धोमानिरन्तम् । मुनीनां च सुपात्राणां स्वान्ययोहिंतकारणम् ।।६।। स्ववीयं प्रकटं कृत्वा द्वादशैव तपांसि स: । कर्मेन्धनेऽग्निसादृश्यान्यधासोराणि सिद्धये ॥१०॥ प्रसमाधिमतां साधूनां च प्रत्यूहसंस्थितैः । शुश्रूषागमदेशः साधुसमाधि सदाभजत् ।।१।। यतीनां त्यक्तसङ्गाना रोगादिपीडितात्मनाम् । करोति दशधा' वैयावृत्यं योगेन शर्मदम् ।। ८ ।। महंता तीर्थनाथानां ध्यामपूजास्तवादिभिः । अनन्यशरगोभूत्वा विदध्याक्तिमूजिताम् १८३।। पञ्चानारत शिष्यारामाशारोपवेशिता । प्रानार्याणां त्रिशुद्धघासो पत्ते भक्ति गुणाबनिम् ।८।। बहप्तवतां योगिनां ज्ञानाच्य वाहिनाम् । भक्ति दृढतरां सोऽधाद्विवपूर्वाङ्गदशिनीम् ।।८।। स्वर्गमुक्तिपचोंडोतिन्यमानध्वान्तनाशिनि । भक्ति प्रवचने मोऽधानि:शेषतत्त्वशिनि ।।८।। निन्दास्तुती हषस्वर्णे श्मशाने दिव्यधामनि । पल्यडू कण्टकामे पजीणि दिव्ययोषिति ८५ निरन्तर मुनि प्राति सुपात्रों के लिये स्वपर हित कारक ज्ञान तथा प्रभय आदि समीचीन दान घेते थे अर्थात् शक्तितस्त्याग भावना का चिन्तधन करते थे ॥७६।। वे सिद्धि प्राप्त करने के लिये प्रात्मशक्ति को प्रकट कर कर्मरूपी ईधन को जलाने के हेतु अग्नि को समा. नता रखने वाले बारह तप करते थे, अर्थात् शक्तितस्तप भावना का चिन्तवन करते थे ॥५०॥ विघ्न उपस्थित होने पर असमाधि युक्त साधुओं की सेवा तथा प्रागम के उपदेश के द्वारा सवा साधु समाथि को प्राप्त होते थे अर्थात् साधुनों को अच्छी तरह सेवा करते हुए साधु समाधि भावना का पालन करते थे ॥१॥ रोगादि से पीडित निनन्य साधुनों की सुखदायक दश प्रकार की यावृत्य मन वचन काय रूप योगों से किया करते थे अर्थात् बंगावृत्य भावना का चिन्तन करते थे ॥८२॥ अनन्यशरण होकर ध्यान पूजा तथा स्तवन प्रादि के द्वारा तीर्थ के नायक प्ररहन्त भगवान को प्रत्यधिक भक्ति करते थे अर्थात् महबूक्ति भावना का चितवन करते थे ।८३१ जो स्वयं पञ्याचार का पालन करते थे तथा शिष्यों को उनका उपदेश देते थे ऐसे प्राचार्यों की बे त्रिशुद्धि पूर्वक गुरषों की भूमिस्वरूप भक्ति करते थे अर्थात् प्राचार्य भक्ति भावना का पालन करते थे।८४। वे ज्ञानरूपी सागर में प्रवगाहन करने बाले बहुश्रुतवन्त साधुनों को समस्त पूर्व प्रौर प्रङ्गों को दिखलाने वाली प्रत्यात दृढ भक्ति करते थे अर्थात् बहुश्रुत भक्ति की भावना करते थे ॥८५।। जो स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग को प्रकाशित करने वाला है, प्रज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाला है तथा समरत तस्यों को विखलाने वाला है ऐसे प्रवचन में भक्ति धारण करते थे अर्थात् प्रवचन भक्ति भावना की साधना करते थे॥८६॥ प्रावश्यकापरिहारिण भावना के अन्तर्गत शान्त चित्त का
१. पाचार्योपाध्यायनम्विक्ष्यालानगरकुलसंघम धुमनोज्ञानामनि दविषमुनाना भेदेन यादृत्य दशधा जायते । २. नागिनी ख० ३ दशनीय स्व.।
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* प्रष्टम सर्ग. चर्मबीनांशुके मित्रे रिपो शतरेऽखिले । मरणे जीवितादो समतां सोऽधाग्छमी हृदि ।।८।। चतुविशति तीर्थे शामनन्तगुए शालिनाम् । तद्गुणोघः स्तवं कुर्यात्तद्गुरणार्थी स प्रत्यहम् ।।८।। एकतीर्थकृतः पञ्चसत्परमेष्ठियोगिनाम् । त्रिकालवन्दनां दक्षोऽवश्यं स कुरुते विधा ।।१०।। कृतातीचारशुद्धयर्थ प्रतिक्रमणमन्वहम् निन्दागर्हणाभ्यां स विधत्त दोषनाशकृत् ।।११।। प्रयोग्यद्रव्यक्षेत्रादीनां ग्रोग्यानां सवानिशम् । तप:सिद्धधं स्वसामर्यात्प्रत्याख्यानं भजेम्महत् ।। "पूर्वकृत्यापहान्य) पक्षमासादिगोचरम् । ग्युत्सर्ग भजते नित्यं त्यक्तदेहोऽघ घातकम् ॥१९॥ इसीपानि परामजसा । प्रमादेन विना कुर्यास्काले काले स यत्नतः ।।६।। मार्गप्रभाव ना सोऽधाजने धर्म सुखार्णवे । लोके भक्त्या तपोज्ञानाद्याचारदुं करैः सदा ।।६।। तपोऽधिकमुनीन्द्राणां पारगाणा श्रुताम्बुधेः । धत्ते प्रवचनस्यासी वात्सल्यं विनयादिभिः ।।६।। इमाः म भावयामास भावना: षोडशानिशम् । अनन्तशर्मदा: कौस्तीर्थकृश्नामकर्मणः ॥६७11
धारण करने वाले वे भगवान् निन्दा और स्तुति, पाषाण और सुवर्ण, श्मशान और सुन्दर महल, पलंग और कीटों का अग्रभाग, जीर्ण शरीर और दिव्य स्त्री, चमं और चीनवस्त्र, मित्र और शत्रु, समस्त सुख और दुःख, तथा मरण और जीवन के विषय में सदा हृदय में समता भाव धारण करते थे ।।८७-८८॥ प्रतिदिन उनके गुणों के इच्छुरू होते हुए अनन्त गुणों से सुशोभित चौबीस तीर्थकरों का स्तवन उनके गुरण समूह का उच्चारण करते हुए करते थे ।।६।। अतिशय कुशल मुनिराज एक तीर्थकर और पांच परमेष्ठियों की त्रिकाल बन्दमा मन बचन काय से अवश्य ही करते थे ।।६। दोषों का नाश करने वाले वे मुनिराज किये हुए प्रतितारों की शुद्धि के लिये निम्बा और गर्दा के द्वारा प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते थे ॥५१॥ वे तप की सिद्धि के लिये अपनी सामर्थ्य को अनुसार अयोग्य प्रथवा योग्य तथ्य क्षेत्र आदि का बहुत भारी प्रत्यास्यान करते थे अर्थात् अयोग्य घ्य क्षेत्र प्रादि का त्याग तो करते हो थे किन्तु यातायात सम्बन्धी विकल्प को कम करने के लिये योग्य द्रध्य क्षेत्रावि में भी पाने जाने का परिमारण करते थ ॥१२॥ पूर्वकृत पापों को नष्ट करने के लिये थे शरीर से ममताभाव छोड़ कर निरन्तर पक्ष माह आदि विषयक, पापघातक व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग करते थे ।।१३॥ इस प्रकार वे प्रमाद रहित होकर समय समय पर यत्नपूर्वक सम्यक प्रकार से निरतिखार पडावश्यकों का पालन करते थे ।।१४।। वे लोक में सबा भक्तिपूर्वक प्रतिशय कठिन तप तथा ज्ञान आदि प्राचारों के द्वारा सुख के सागर स्वरूप जैनधर्म में भाग प्रभावना करते थे ।।१५।। वे शास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी तपस्वी मुनियों को विनय प्रादि के द्वारा प्रवचन वात्सल्य को धारण करते थे ।।६६।। इस प्रकार के निरन्तर अनन्त सुख को
है सदियो ख: २. पूर्वकृत्वापहारार्थ खः ।
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१०० ]
* श्री पार्श्वनाथ परित * तत्फलेन बबन्धाशु दृग्विशुद्धिविभूषितः । तीर्थकृष्नामकर्मासो बैलोक्यक्षोभकारणम् ॥१८॥ अनन्तमहिमोपेतं नृसुराधिपवन्दितम् । जगत्त्रयहितं पूज्यं मुक्तिकान्ता विवाहकत |||| एकदा विहरन् देशानटम्यादीन्महातपाः ।धीरः क्षीरवने 'सोज्गादेकाक्यतिभयङ्करे ।।१०।। प्रायोपगमनास्यं संशाप्य संन्यासमद्भतम् । प्रतिमायोगदामाय त्यक्त्वा कायादिकोपधिम् । १०१। अभीप्सुः सिद्धिकान्तां स निर्ममत्वो जितेन्द्रियः । कायोत्सर्गेण तत्रास्थास्थिरोऽचलनिभो महान्। १०२। अथ स प्राक्तन: पापी कमठोऽधविपाकतः । प्रच्युत्य नरकात्तत्र रौद्रः कण्ठीरखोऽभवत् ॥ १०३।। नि:स्पृहं ध्यानसंलीनं त्यक्तकार्य शुभाशयम् । जिनपादाब्जसंसक्त स्थिरं पर्वतराजवत् ॥१०४।। कषायाक्षारिजेतारं कर्मणो जेतुमुद्यतम् । भ्रमन सिंहो वनं यायात्त ददर्श मुनीश्वरम् ।।१०५।। तत: प्राग्भवबैरेण प्राप्य कोपं हि दारुणम् । अग्रहीत्स मुनेः कण्ठं तीक्ष्णदंष्ट्र : क्षुधातुरः ।।१०६॥ देने वाली तथा तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध कराने वाली इन षोडश कारण भावनामों का मिरन्तर चिन्तवम करते थे ॥६॥ दर्शन विशुद्धि से विभूषित उन मुनिराज ने शीघ्र ही पूर्वोक्त भावनाशों के फलस्बहर तीन लोक सोभका कारण तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध किया । वह तीर्थकर पद अनन्त महिमा से सहित है, मनुजेगा तथा देवेन्द्रों के द्वारा मक्षित है, लीनों जगत् का हितकारी है, पूज्य है और मुक्तिरूपी काता के विवाह को करने वाला है ॥१८-९६॥
नानादेश तथा अटवी प्रादि में विहार करते हुए वे महातपस्वी धीर धीर मुनि एक समय अकेले ही प्रत्यन्त भयंकर क्षीर वन में पहुंचे ॥१००। वहां उन्होंने पाश्चर्यकारी प्रायोपगमन नामक संन्यास प्राप्त किया और शरीरादिक उपाधि का स्याग कर प्रतिमायोग चारण किया ॥१०१॥ जो मुक्तिरूपी वधू के इच्छुक थे, सब प्रकार की ममता से रहित
तथा जिन्होंने इग्नियों को जीत लिया था ऐसे मुनिराज कायोत्सर्ग द्वारा पर्वत के समान प्रत्यन्त स्थिर हो गये ।।१०२।।
प्रधानन्तर वह पहले का पापी कमठ पापोवय के कारण नरक से निकल कर उसी बन में कर सिंह हुमा पा ॥१०३॥ वन में भ्रमण करते हुए सिंह ने उन मुनिराज को देखा जो निःस्पृह थे, ध्यान में लीन थे, शरीर की ममता को छोड़ चुके थे, सुभपरिणामों से पुक्त थे, जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में संलग्न थे, पर्वतराम के समान स्थिर थे, कषाय मोर इन्द्रिय रूपी शत्रुमों को जीतने वाले थे, तथा कर्मो को जीतने के लिये उपत थे॥१०४-१०५॥ तदनन्सर पूर्वभय के बर से उस क्षुधातुर-मूह से पीडित सिंह ने तीन
1. मोऽयादेकाक्य स. २. सिंहः ।
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* अष्टम सर्ग .
[ १०१
दन्तनख महातीक्ष्णमुंखेनातिकदर्थनः कृत्स्नदुःखाकर नानाविधं कातरभीतिदम् ।।१०७11 स पापी दुःसहं घोरं चोपसर्ग व्यवान्मुनेः । भक्षणस्ताउनः छेदनभेदनादिकर्मभिः ॥१०८।। एतस्मिन्नन्तरे दत्त स्वचित्त क्लेशदूरगम् । बिनपादाम्बुजे तेन निश्चलं मुनिना द्रुतम् ।।१०।। मनोजयेन सिंहेन पीडधमानोऽपि घोरधीः । न वेत्ति तस्कृतां बाघा बह्वीं ध्यानस्थमानसः ।११०। प्रतोऽसौ निर्भयो धीमान् जित्वाखिलपरीषहान् । मेरुशृङ्गनिभः सोऽस्थादामृत्यन्तं शुभाशयः ।।१११।। कायाम्मनः पृथक् कृत्वा संवेगादिगुणाङ्कितम् । साहित्वा तद्भवो वाधां स्वाराध्याराधनाः शुभाः।११२ विधिनोत्कृष्टधर्म्यध्यानेन स्वकाग्रचेतसा । समस्तातिप्रयत्नेन त्यक्त्वा प्राणान् शुभादयात् ११३। इन्द्रो महद्धिकः सोऽभूत्कल्पे हानतनामनि । विमाने प्राणतास्येऽतिशमंदे मुनिनायक: ।।११४।। मुनिहत्याजपापोधभारेणातिप्रपीडितः ।रौद्रध्यानेन मृत्वा पपात सिहोऽतिदुःकरे ।।११।। घूमप्रभाभिधे श्वधे दुस्सहे विषमेऽणुभे । सर्वदुःखाकरीभूते पापिस स्वकुल पृहे ! कुलापदे ११६।
क्रोध प्राप्त कर तीक्ष्ण दादों से उन मुनि का कण्ठ पकड़ लिया ॥१०६॥ उस पापी ने अत्यन्त तीक्ष्ण तथा अत्यधिक दुःख देने वाले दांतों से, नखों से, भक्षण से, ताडन से तथा छेदन भेदन प्रादि कार्यों से उन मुनिराज पर ऐसा घोर उपसर्ग किया जो समस्त दुःखों की खान था, नाना प्रकार का था, कायर मनुष्यों को भय देने वाला था, तथा दुःसह दुःख से सहन करने योग्य पा ॥१०७-१०८। इस बीच में मुनिराज ने क्लेशों से दूर रहने वाला अपना निश्चल चित्त शीघ्र हो जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में संलग्न कर लिया ॥१०६॥ जिनकी बुद्धि प्रत्यन्त धीर थी तथा जिनका मन ध्यान में स्थिर था ऐसे धे मुनि मन को जीत लेने से सिंह के द्वारा पीडित होते हुए भी उसके द्वारा की हुई बहुत भारी बाधा का वेवन नहीं करते थे ॥११०।। यही कारण है कि निर्भय, बुद्धिमान तथा शुभ अभिप्राय बाले वे मुनिराज समस्त परिषहों को जीत कर मरणपर्यन्त के लिये मेह शिखर के समान निश्चल विराजमान हो गये ॥१११॥ संवेगावि गुणों से प्रति मन को शरीर से पृथक कर वे मुनिराज सिंह कृत बाधा को सहते रहे तथा शुभ प्राराधनाओं की माराधना कर अपने एकाग्रचित्त से विधि पूर्वक उत्कृष्ट धर्पध्यान के द्वारा समस्त प्रयत्नों से प्राणों का त्याग कर पुण्योदय से मानत नामक स्वर्ग के अतिशय सुखदायक प्राणत विमान में महान ऋड़ियों के धारक इन्द्र हुए ॥११२-११३-११४॥
मुनिहत्या से उत्पन्न पाप समूह के भार से प्रत्यन्त पीडित हुमा यह सिंह रौद्रध्यान से मर कर धूमप्रभा नामफ पांचवें नरक में जा पड़ा । वह नरक अत्यन्त दुरकर, दुःसह, विषम, प्रशुभ, समस्त दुःखों की खान तथा पापी जीवों का कुलगृह था ॥११५-११६॥
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१०२ ]
* श्री पाश्वनाथ चरित * तत्र भुक्त चिरं घोरं दुःखं वाचामगोचरम् 1 तीव्र प्राग्वर्णनोपेतं छेदनादिभवं परम् ।।११७।। कृष्णलेश्योऽतिरोदात ध्यानध्याता सुलातिगः । सर्वाङ्गपीडितः सप्तदशसागरजीवितः ॥११८।।
शार्दूलविक्रीडितम् एव 'सरक्ष मयामराखिलनुतं भोगोपभोगाकर,
प्रातः शक्रपदं गुनिश्च विमलं कोपाच्च वैराशुभात् । सिंहः प३ भ्रमतीव दुःखकलितं ज्ञात्वेसि हे धोधना,
हत्वा कोषमसाररमशुभ यस्ताद्भजव्वं क्षमाम् ।।११६।। सर्वानर्थपरम्पर पंणपरं दुःखार्णवे मज्जकं,
धर्मारण्यताशानं कुरनिट भाभाकर ग्वान्ययोः । कृत्स्नाधाकरमात्मनाशजनक शर्माद्रिवजोपमं,
कोपारि सुदुधा हनन्तु ? (जयन्तु) कुरिपु यत्नेन भान्यायुधः ।। १२०॥
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यहां यह चिरकाल तक पूर्व वर्णना से सहित, छेदन भेवन प्रादि से उत्पन्न होने वाले पचना. गोचर प्रत्याधिक तीव्र घोर दुःख भोगने लगा ॥११७॥ वह नारको कृष्णलेण्या का धारक था, तीव्र रोड़ और प्रासंध्यान से सहित था, सुख से शून्य था, सर्वाङ्ग से पीडित था और सत्तरह सागर की प्रायु वाला था ॥११८॥
इस प्रकार उत्तम क्षमा से मुनि समस्त देवों के द्वारा स्तुत तथा भोगोषभोगों की जान स्वरूप निर्मल इन्त्र पद को प्राप्त हुए और सिंह बेर के कारण प्रशुभ क्रोध से प्रत्यधिक दुःख युक्त नरक को प्राप्त हुना—ऐसा जान कर हे विद्वज्जन हो ! असार घर से पुक्त कोष को नष्ट कर यस्न पूर्वक अमा को माराधना करो ॥११॥ जो समस्त प्रनों की. परम्परा को प्रदान करने में तत्पर है, दुःखरूपी सागर में उबाने वाला है, धर्मरूपी वन की अग्नि है, खोटो रति को देने वाला है, निज पर को वाधा करने वाला है, समस्त पापों को स्थान है, प्रात्मनाश का जनक हैं, तथा सुखरूपी पर्वत को वज्र तुल्य है ऐसे क्रोधरूपी दुष्ट शत्रु को हे विद्वज्जन हो ! क्षमारूपी शस्त्रों के द्वारा यत्न पूर्वक नष्ट करो ।।१२०।। जो पाप को नष्ट करने वाली है, धर्म की खान है, शिवसुख की जननी है, स्वर्ग की सीडी स्वरूप है, सबके द्वारा पूज्य है, विश्ववन्ध है, समस्त गुणों को भण्डार है, क्लेश और संताप से दूर है, नरक रूपी घर की अर्गला है, समस्त श्रुत ज्ञान को प्रकट करने वाली रे
१.म क्षमया स्व.।
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* अष्टम सर्ग *
[ १०३
स्रग्धरा पापनां धर्मवानि शिवसुख जननी स्वर्गसोपानमालां.
विश्वाच्या विश्ववन्या निखिलगुणनिधि क्लेशसंतापदूराम् । प्रचभ्रागारागला सच्छ त सकलकर कोपशत्रु प्रहत्य.
क्षान्ति त्यक्तोपमा नित्यमपि सुकृतिनो यस्नत: संभजध्वम् ।। १२१।।
मालिनी
इह निरुपमदेवो विश्वविघ्नाद्रिवमः, प्रकटितनिजवीर्यः शत्रुघोरोपसर्गात् । प्रमलगुणनिधान: पार्श्वनाथो ममास्तु. दुरित चयबिहान्य संस्तुतस्तद्गुणाय ।। १२२।।
इति भट्टामा पकलकोतिविचिते पार्श्वनाथ चार प्रानन्दमुनिगम्योत्पतितपोवर्णनो नामाष्टमः सर्गः ।।८।।
तथा निरुपम है ऐसी क्षमा को हे पुण्यशाली जन हो ! क्रोधरूपी शत्रु को नष्ट कर यत्नपूर्वक उपासना करो ॥१२१।।
जो समस्त विघ्नरूपी पर्वत को नष्ट करने के लिये वन के समान हैं, शत्रुकृत घोर उपसग से जिन्होंने प्रात्मबल को प्रकट किया है, तथा जो निर्मल गुरणों के भण्डार हैं ऐसे अनुपम देव श्री पार्श्वनाथ भगवान मेरे द्वारा संस्तुत होते हुए मेरे पाप समूह को नष्ट करने तथा अपने उन गुणों को प्रदान करने के लिये हों ।।१२२।।
इस प्रकार भट्टारक मकल कीर्ति द्वारा विचित पाश्वनाथ चरित में प्रानन्द मुनि के बराग्य की उत्पनि तथा तप का वर्णन करने वाला अष्टम सर्ग ममाप्त हमा८॥
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१०४ ।
+भी पार्श्वनाथ चारत *
नवमः सर्गः धीमते विश्वनाथाय विश्वदुःखाग्निवाचे' । त्रिजगत्स्वामिने मूनां श्रीपाश्र्वाय नम: सदा ।।१।। प्रथासो प्राप्य संपूर्णयौवनं घटिकादयात् । उपपादशिलागर्भ रत्नरश्मिसमाफुले ॥२।। उत्थाय दिव्यशय्यायाः सर्वाभरणमण्डितः ।वीक्षते स्म दिश: सर्वा बह्वाश्चयंसुमानसः ।। ३।। कोऽहं कस्मादिहायातः कोऽयं देश: सुखाकरः । केन वा कर्मणा नीतः स्वप्नो वायं ममोजित: ।।४।। अथवा विजगन्नाथसेव्यो देशो महानयम् । सर्वशर्माकरीभूतो विश्वविद्धिसागरः ।।५॥ इमानि स्वविमानानि पुरषामभृतान्यपि । सर्वश्रीसंकुलान्येव सन्ति दृश्यानि भूतले ।।६।। स्वर्णरत्नमयास्तुङ्गा इमा: प्रासादपंक्तयः । मनोहराः प्रहश्यन्ते दिव्यस्त्रीवृन्दसंकुला: ।।७।। उत्सङ्गोऽयं महान दिव्यसभामण्डप एव हि । मणितेजोहतध्वान्तो देवानीकादिदुर्गमः ।1।। इदं मिडासन रम् मे हमिवान जम ! इदं च नर्तनं प्रेक्ष्यं धध्यमीतचयं महत् ॥६॥
नवम सर्ग जो अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी से सहित हैं, सब के नाथ है, समस्त दुःखरूपी अग्नि को बुझाने के लिये मेघ है, और तीनों जगत् के स्वामी हैं उन श्री पारनाथ को मैं शिर से सदा नमस्कार करता हूँ ॥१॥
तदनन्तर वह इन्द्र रस्नों की किरणों से व्याप्त उपपाद शिमा के मध्य में दो घड़ी के भीतर संपूर्ण यौवन प्राप्त कर दिव्य शय्या से उठा, और समस्त प्राभूषणों से सुशोभित सथा समस्त प्राश्चयों से परिपूर्ण चित्त होता हुआ सब विशात्रों की मोर देखने लगा 1॥२-३।। मैं कौन हूं? यहां कहां से पाया है ? सुख की लान स्वरूप यह देश कौन है ? किस कर्म से यहां लाया गया हूं? प्रयदा यह क्या मेरा प्रबल स्वप्न है ? अथवा यह त्रिजगत् के स्वामियों के द्वारा सेवनीय, समस्त सुखों की खान और संसार की समस्त ऋषियों का सागर महान देश है ? ॥४-५॥ नगर और महलों से परिपूर्ण तथा समस्त लक्ष्मी से युक्त ये स्वर्ग के विमान पृथिवी तल पर दिखाई दे रहे हैं ॥६॥ ये देवाङ्गनाओं के समूह से युक्त, सुवर्स रत्नमय ऊंची ऊंची मनोहर महलों की पंक्तियां दिखाई दे रही है ।।७।। मरिणयों के तेज से अन्धकार को मष्ट करने वाला तथा देवों की सेना प्रादि से दुर्गम यह ऊंचा बहुत भारी सभा मण्डप ही है ॥८॥ यह मेरु शिखर के समान त सुन्दर सिंहासन है, यह सुन्दर गीत समूहों से युक्त, देखने योग्य बहुतभारी
१ मेघाय २. श्रन्यं गीतपय मा.।
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* नवम सर्ग .
[१०५ लावण्यजलधेलाः शृङ्गाररसखानयः ।एता दिव्यस्त्रियः सेव्याः कलाविज्ञानभूषिताः ।। इदं मत्तगजानीकमतोऽश्वीयं मनोजवम् । एते हेमरपास्तुना बलान्येते पदातयः ॥११॥ नमन्ति मे पदद्वन्द्व सर्वकार्यकराण्यहो ।एतानि सप्तसन्यानि भक्त्या विज्ञप्तिपूर्वकम् ॥१२॥ अमी क्रीडाद्रयो रम्या एते विजय केतवः । चत्यवृक्षा इमे तुङ्गा जिनचत्यचयारिताः ॥१३॥ प्रयं चैत्यालयो रम्यस्तेजःपुजनिभो व्यभात् । बिम्बरन_माणिक्यमय ररननजासितः ।।१४।। मामुद्दिश्य समस्तोज्यं जन प्रानन्दनिर्भरः । विनीत: सुन्दरः केन कारणेनात्र वर्तते ।।१।। इत्यादि चिन्तमानस्य तस्येन्द्रस्य विनिश्चयः । साश्चर्यमनसो यावन्नायास्प्राम्जन्मसूचकः ॥१६॥ तदाकृतं परिज्ञाय सचिवा ज्ञानचक्षुषः । तावदागत्य वर्तन्ते नत्वा वक्तु तदीहितम् ॥१७॥ प्रसादः क्रियता नाथ नतानां नो दृशेछया । श्रूयतां नो वचः सत्यं सर्वसन्देहनाशकम् ॥१८॥ अद्य स्वामिन्वयं धन्याः सफलं नोऽध जीवितम् । यतः पवित्रिता: स्वर्गसंभवेन त्वयाघुना ॥१६॥ प्रसीद जय जीव स्वं नन्द बर्द्ध स्व भूतले । प्रभुभव समग्रस्य देवलोकस्य सम्प्रति ॥२०॥
नृत्य हो रहा है ॥६॥ ये सौन्दर्य सागर की वेला, शृङ्गाररस को खान, और कलाविज्ञान से विभूषित, सेवन करने के योग्य देवाङ्गनाएं हैं ॥१०॥ यह मदमाते हाथियों की सेना है, यह मन के समान वेग वाला घोड़ों का समूह है, ये ऊचे सुवर्ण रय हैं और ये पैदल सैनिक हैं ॥११॥ ग्रहो ! समस्त कार्यों को करने वाली ये सात प्रकार की सेनाएं' भक्ति से प्रार्थना करती हुई मेरे चरण युगल को नमस्कार करती हैं ॥१२॥ ये मनोहर क्रीडा गिरि है, ये विजय पताकाएं हैं, ये जिन प्रतिमानों के समूह से युक्त ऊचे ऊचे चस्य वृक्ष हैं ॥१३॥ सेजपुञ्ज के समान रमणीय तथा रत्नों के समूह से युक्त यह चैत्यालय प्रमूल्य मरिणमय प्रतिमानों से सुशोभित हो रहा है ॥१४॥ यहाँ मानन्द से भरा हुआ यह समस्त सुन्दर जन समूह मुझे लक्ष्य कर किस कारण विनीत हो रहा है ? ॥१५॥ इत्यादि विचार करने वाले साश्चर्यचित्त से युक्त उस इन्द्र के जब तक पूर्वजम्म को सूचित करने वाला निश्चय नहीं होता है॥१६।। तब तक उसकी चेष्टा जानकर जाननेत्र के धारक मन्त्री पाये और नमस्कार कर उसकी इष्ट बात को कहने लगे ॥१७॥
हे नाथ ! हम नम्रीभूत लोगों पर स्वेच्छा से दृष्टिपात कर प्रसन्नता कीजिये तया समस्त सन्देह को नष्ट करने वाले हमारे सत्य वचन सुनिये ॥१८॥ हे स्वामिन् । प्राज हम धन्य हुए, माज हमारा औवन सफल हो गया, क्योंकि इस समय स्वर्ग में जन्म लेकर प्रापने हम सब को पवित्र किया है॥१६॥ प्राप इस लोक में प्रसन्न रहो, जयवन्त प्रवर्तो, जीवित रहो, समृद्धिमान् होत्रो, वृद्धि को प्राप्त होते रहो, और अब समस्त स्वर्ग के
१. अश्व समूहः ।
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१०६ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित
कृत्स्नकल्याण सागरः ||२२||
देव पूर्वभव पुण्यं यत्किञ्चिद्धि स्वयाजितम् । महद्येनात्र ते जातमिन्द्रत्वं विश्ववन्दितम् ||२१|| आनताख्योऽप्ययं कल्पः संकल्पित सुखप्रदः । देवीदेवांद्र संपूर्णः प्रतीन्द्रप्रमुखा देवा दशधा दिव्यमूर्तयः । इहोत्पन्नस्य शक्रस्य प्रीत्या सेवां प्रकुर्वते ॥ २३ ॥ अत्र संकल्पिताः कामा योवनं शाश्वतं महत् । नित्याश्र महती लक्ष्मीः सुखं वाचामगोचरम् ||२४|| एता व महादेव्य इमा हि बल्लभाङ्गनाः । परिवारस्त्रियो होता रूपलावण्य खानयः ॥२५॥ भतीय सुकुमाराङ्गास्ते' स्नेहासक्तबुद्धयः । स्वेच्छया वेषधारिण्यस्तव नाथ समर्पिताः ॥ २६॥ गावः कामदुधाः सर्वे पादपाः कल्पशाखिनः । स्वभावेनात्र रत्नानि विन्तामाय एव हि ।। २७ । रात्रिर्नादिनं नैव केवलं स्फाटिकोपलं: । शुक्लरत्नविमानंश्च विनश्रीः क्रियतेऽनिशम् ||२८|| प्रावृशीतोष्णकालाधर ऋतवः सन्ति जातु न प्रकः साम्यकालोऽस्ति सर्वोपद्रवदूरगः ॥२६॥ न चात्र दुःखितो दोनो बुढो रोगी गतप्रभः । विकलाङ्गो मदान्धोऽतिशोकक्लेशा दिपीडितः ।। ३० ।।
स्वामी हो ||२०|| हे देव ! पूर्वभव में आपने जो कुछ महान प्रबल पुण्य का संचय किया था उसीसे आपको यह विश्वयन्दित इन्द्र पद प्राप्त हुआ है ||२१|| यह संकल्पित सुखों को देने वाला, देवी देव तथा ऋद्धियों से परिपूर्ण समस्त सुखों का सागर धानत नाम का स्वर्ग है ||२२|| सुन्दर वैऋियिक शरीर को धारण करने वाले ये प्रतीन्द्र श्रादि देश प्रकार के देव यहां उत्पन्न हुए इन्द्र की प्रीतिपूर्वक सेवा करते हैं ।। २३ ।। यहां संकल्पित मनोरथ पूर्ण होते हैं, निरन्तर स्थिर रहने वाला बहुतभारी यौवन प्राप्त रहता है, नित्य स्थित रहने वाली बहुत बड़ी लक्ष्मी और वचनागोचर सुख यहां उपलब्ध रहता है || २४||
ये यहां महादेवियां हैं, ये बल्लभाङ्गनाएं हैं और ये रूपलावण्य की खान परिवार स्त्रियां हैं ॥२५॥ ये प्रतीव सुकुमाराङ्गी हैं, और स्नेह से प्रासक्त बुद्धिवाली हैं, हे नाथ ! ये स्वेच्छा से वेषधारिणी श्रापको समर्पित हैं ॥ २६ ॥ यहां की सब गाए' कामदुधा हैं और सारे वृक्ष कल्पशाली हैं और यहां के सारे रत्न स्वभाव से ही चिन्तामरिग हैं अर्थात् यहां की गाए, वृक्ष और रत्न स्वभाव से ही इच्छित पदार्थों के देने वाले हैं ||२७|| यहां न रात्रि होती है और न दिन होता है, केवल स्फटिकमरियों एवं शुवल रत्न वाले विमानों की श्राभा से सदा ही दिन के समान प्रकाश रहता है ||२८|| यहां वर्षा शोन एवं उष्णकाल आदि ऋतुएं किञ्चित् भी नहीं हैं, यहां तो सम्पूर्ण उपद्रवों से रहित एक साम्यकाल ही वर्तता है ॥२६॥ | यहां कोई दुखी, बीन, वृद्ध, रोगी, प्रभाहीन, विकलाङ्ग मवान्ध, प्रतिशोक, क्लेश आदि से पीड़ित, कुरूप, निर्गुण, अन्यायमागंगामी, प्रविनयी,
१. सुकुमालाङ्का क० ० ।
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* नवम सर्ग *
[ १०७ कुरूपी निर्गुणोऽन्यायमार्गगो विनयच्युतः । उन्मत्तो विह्वलो जातु दृश्यते नव निधनः ।।३१।। विमानपुरसद्धामानीकदेवद्धिसंकुलम् । अप्सरश्चयसंपूर्ण विश्वगीर्वाणवन्दितम् ॥३२॥ सरोवनसभागेहच्छत्रचामरशोभितम् । म कहिमोपेतं विद्धिकुलमन्दिरम् ॥३३॥ गृहाण स्वर्गसाम्राज्यमिदं त्वं देव सम्प्रति । अथ त सन्मुखीपूत प्रामजित--शुमोदमात् ।।३४॥ पाकर्ण्य तद्वचः प्राप्यावधिज्ञान विसंशयम् । ज्ञात्वा प्रावस्वभवं धर्मफलं सोऽत्रेति चिन्तयेत् ॥३५॥ महो तपः पुरा चीर्ण मया घोरतरं महत् । निर्दग्धं विषयारण्यं त्रिधानिवेदन हिना ॥३६॥ मदनारिमहामल्लो हतो ब्रह्मासिना खलः । कषारिपवो दुष्टाः क्षान्तिशस्त्रेण मारिताः ॥३५॥ वितीर्ण भयं दानं भीतानां सर्वदेहिनाम् । महाप्रतानि सर्वाणि पालितान्यपराणि च ॥३८॥ प्रात रोद्रादिदुनि वै हित्वानन्तशर्मकृत् । स्वात्मनश्च कृतं ध्यान त्रिशुद्धया परमेष्ठिनाम् ।३६ "दशलक्षणको धमों मुक्तिस्त्रीचित्तरजकः । अनन्त गुणरत्नाविधर्मया संचरितो महान् ।।४-11 रविवृत्ततपास्याराधितानि प्राग्भवे मया। सर्वशत्या प्रयत्नेन मनोवाकायकर्मभिः ॥४१॥ उन्मत्त, विह्वल, एवं निर्धन विखाई ही नहीं देता ॥३०-३१।। हे देव, विमान, पुर, सद्धाम, अनोक देव प्रावि की ऋद्धि से संकुलित, अप्सरात्रों के समूह से पूर्ण, समस्त देवों द्वारा वन्दित, तालाब, बन, सभाघर, छत्र चामर से सुशोभित, अनेक महिमानों का स्थान, सम्पूर्ण ऋद्धियों के कुलमदिर स्वरूप इस स्वर्ग के साम्राज्य को प्राप अब ग्रहण करें जो पूर्योपाजित शुभ कर्मों के उदय से आपके सामने उपस्थित हैं ।।३२-३४॥ उनके ये वचन सुनकर, संशय रहित अवधिज्ञान को प्राप्त करके तथा अपने पूर्वभव को एवं धर्म के फल को जानकर वह इस प्रकार विचार करने लगा ॥ ३५ ।। अहो ! मैंने पहले महान घोर दारुण तपस्या की थी, तीन प्रकार को निवेदरूपी प्राग से विषयरूपी बन को जलाया था, दुष्ट कामदेवरूपी महान योद्धा को ब्रह्मरूपी तलवार से मारा था, दुष्ट कषायरूपी शत्रुनों का क्षान्ति के शस्त्र से वध किया था, भयभीत समस्त देहधारियों को प्रभयदान का वितरण किया था, समस्त महाव्रत और समिति प्रादि अन्य व्रतों का पालन किया था, मातरौद्र अादि दुानों को छोड़कर त्रिशुद्धि पूर्वक अपने प्रात्मा तथा परमेष्ठियों का अनन्तसुखदायक ध्यान किया था, मुक्तिरूपी स्त्री के चित्त को प्रसन्न करने वाला वशलक्षणिक धर्म धारण किया था, अनन्तगुणरूपी रस्नों के महासागर में संचार किया था, पूर्वभव में मैंने मन वचन काय से सम्पूर्ण शक्ति के द्वारा प्रयत्न पूर्वक दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को अाराधना की थी ॥३६-४१॥ जो जगत् में सारभूत है, समस्त पापरूपी अन्धकार को नष्ट
१. विमानयुगद्धा मदेवटिकृलमन्दिरम् क. २. इमास्तिस्रः पङक्तयः क. प्रतौ न सन्ति, लेखकप्रमादेन धुटिता. प्रतीयन्त ३. देवराट् क ४, दशलक्षणिको धर्मो खः ।
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१०८ ]
* श्री पाश्वनाथ चरित. रत्नत्रयं जगत्सारं सर्वेनोध्वान्तभास्करम् । पाराधितं मनःशुद्धया केवलज्ञानकारकम् ।।४२।। कालत्रयभवा योगा: शीतातापादिसंकुलाः । दुःकरा मोक्षदातारः कृता ध्यानादिभिताः ।।४३॥ रागद्वेषमहामोहमदादिशत्रवोऽखिलाः ।हता निर्वेदखड्गेन दुराचारादिभिः समम् ।।४४।। दुस्सहाः सहिताः सर्वे क्षुत्तृषादिपरीषहाः । भाविता भावना: सर्वास्तरित्यागमवारिधिम् ।।४।।
खारण्यभ्रमणासक्तो मनोदन्ती नियन्त्रितः । ज्ञानशृङ्खलया वैराग्यस्तम्भे स्ववशीकृतः ॥४६।। व्युत्सर्गासनयोगायः कृत: कायः स्थिरो महान् । दृषन्मूतिरिवात्यंत वचो मोने प्रतिष्ठितम् ।।४।। माराधितो जगन्नाथोऽनाईद्देवः सतां गुरुः । अनन्यशरणीभूय विश्वकल्याणकारकः ॥४८|| तीर्थकृद्धिकतृ रिण कारणान्यपि षोडश । भावितानि भया कल्याणादिशर्माकराग्यपि ॥४६।। इत्याद्याचरणैः प्राग्यः कृतो धर्मो मयानघः । शकराज्यादिकं नूनं तस्येदं प्रवरं फलम् ॥१०॥ महो धर्मस्य माहात्म्यं पश्येदं ह्य पमाच्युतम् । येनाहं स्थापितोऽप्यत्र नाकराज्ये सुखावे ।।५।। उद्धृत्य दुर्गतेनूनं धर्मों धारयति स्वयम् । प्राणिनो नाकलोकेऽस्मिन् मोक्षे वा विश्ववन्दिते । ५२। करने के लिये सूर्य है तथा केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाला है ऐसे रत्नत्रय की मैंने मन की शुद्धि द्वारा प्राराधना की थी ॥४२॥ शीत तथा प्राताप प्रादि की बाधा से युक्त पतिशय कठिन, मोक्ष को देने वाले तथा ध्यान प्रादि से सहित तीन काल सम्बन्धी मोगों को मैंने धारण किया था ॥४३।। वैराग्यरूपी खड्ग के द्वारा दुराचार प्रादि के साथ राग द्वेष महामोह सथा मद आदि समस्त शत्रुओं को नष्ट किया था ॥४४॥ अत्यन्त कठिन क्षुधा तृषा पादि सब परिषह सहन किये थे, प्रागमरूपी समुद्र को तैर कर समस्त भावनाओं का चितवन किया था ।।४।। इन्द्रियरूपी वन में भ्रमण करने वाले मनरूपी हाथो को ज्ञानरूपी सांकल से वैराग्यरूपी खम्भे में बांधकर अपने अधीन किया था ॥४६॥ कायोत्सर्ग, प्रासन तथा योग प्रादि के द्वारा अपने महान शरीर को पाषाण को मूर्ति के समान अत्यन्त स्थिर किया था और वचन को मौनरूप में प्रतिष्ठित किया था ।।४७।। अनन्यशरण होकर जगत् के स्वामी, सत्पुरुषों के गुरु तथा सब का कल्याण करने वाले प्ररहन्त देव की पाराधमा की थी ॥४८॥ तीर्थकर नाम कर्म की वृद्धि करने वाली, तथा कल्याणक प्रावि सुखों की खान स्वरूप सोलह कारण भावनाओं का भी मैंने चिन्तवन किया था ।।४६॥ इत्यादि प्राचरणों के द्वारा पूर्वभव में मैंने जो निर्दोष धर्म किया था, जान पड़ता है यह इन्द्र का राज्याविक उसी का उत्कृष्ट फल है ।।५०॥
महो ! धर्म का यह अनुपम उत्कृष्ट माहात्म्य देखो, जिसने मुझे सुख के सागर स्वरूप इस स्वर्ग के राज्य पर स्थापित किया है-लाकर बैठा दिया है ॥५१॥ निश्चित ही १. निखिलपापतिमिरसूर्यम् २. इन्द्रियवनभ्रमणासक्तः ३ पाषाणमूतिरिव ।
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* नवम सर्ग *
[१०६ उद्धतु श्वभ्रपातालारक्षमो धर्मोऽखिलाङ्गिनाम् । दातु लोक्यसाम्राज्यं सुखं सर्व च विश्वजम् ।।५३।। धर्मों हन्तु समर्थोऽत्र समस्तै नोऽतिविद्विषः । कषारिपुभिः साधं धर्मोऽनन्तगुणप्रदः ॥५४।। धर्मः कल्पद्र मोऽनेक संकल्पितसुखप्रदः । धर्मश्चिन्तामणिः सर्वचिन्तितार्थविधायकः ।।५।। पतो धर्मः पिता माता धर्मो बन्धुहितङ्करः । धर्मः स्वामी जगत्पूज्यो धर्मः पापक्षयंकरः ।।५६।। अत्रामुत्र महामित्रं धर्मो दुःखान्तकृत्सताम् । विश्वशर्मविधाता य सहगामी गुणाम्बुधिः ।।५७।। न धर्मसदृशो जातु प्राणिना हितकारक: । पापणजिनेन्द्रोक्तः सत्त्वघातादिदूरगः ।।५।। दृङ मूलो भव्यलोकोधराराध्योऽनन्तशर्मकृत् । त्यसले मुनीन्द्रश्च सारै रत्नत्रय महान् ॥५६॥ उत्पद्यतेऽखिलोधर्मो वृत्तन मुक्तिदायकः । तपसा वात्र देवानां जातु तत्सुलभं न हि ।।६०।। तथा रागानयो नैव शाम्यन्ते 'वृत्तवारिणा । विना जन्मशतरत्र किं कुर्मस्तदभावतः ॥६॥ मतस्तत्वार्थश्रद्धा मे श्रेयसी स्वहितप्रदा । शङ्कादिदोषनिमुक्ता गुणाष्टकविभूषिता ।।६२।। धर्म प्राणियों को दुर्गति से निकाल कर स्वयं इस स्वर्गलोक में अथवा सर्वजन यन्दित मोक्ष में धारण करता है--पहुँचा देता है ॥५२॥ धर्म, समस्त प्राणियों को नरकरूपी पाताल से निकालने तथा तीन लोक का राज्य और संसार का समस्त सुख देने के लिये समर्थ है ॥५३॥ इस जगत् में धर्म, कषायरूपी शत्रुओं के साथ समस्त पापरूपी शत्रुनों को नष्ट करने के लिये समर्थ है ॥५४॥ धर्म अनेक संकल्पित सुखों को देने वाला कल्पवृक्ष है, तथा धर्म ही समस्त चिन्तित पदार्थों को देने वाला चिन्तामणि रत्न है॥५५॥ इसलिये धर्म पिता है, माता है, धर्म हितकारी बन्धु है, धर्म जगत्पूज्य स्वामी है, धर्म पाप का क्षय करने पाला है ॥५६॥ धर्म इस लोक तथा परलोक में महामित्र है, धर्म सत्पुरुषों के दुःख का अग्त करने वाला है, समस्त सुखों का कर्ता है, साथ जाने वाला है और गुणों का सागर है ।।५७।। जो पाप का शत्रु है, जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा हुआ है तथा जीव हिंसा आदि से दूरगामी है ऐसे धर्म के समान जीवों का हित कारक दूसरा कोई नहीं है ।५८। सम्यगवर्शन जिसका मूल है, जो भव्य जीवों के समूह द्वारा पाराधना करने के योग्य है, अनन्त सुख को करने वाला है, सारभूत रत्नत्रय से महान् है, तथा सम्यक् चारित्र और सम्यक तप के द्वारा मुक्ति को देने वाला है ऐसा सम्पूर्ण धर्म निर्ग्रन्थ मुनिराजों के द्वारा उत्पन्न किया जाता है। वह देवों को कभी सुलभ नहीं है ।।५६-६०॥ सम्यक् चारित्ररूपी जल के बिना रागरूपी अग्नियां संकड़ों जन्म में भी शान्त नहीं की जा सकती हैं परन्तु यहां उसका प्रभाव होने से हम क्या कर सकते हैं ? ॥६१।। इसलिये शङ्कादि दोषों से रहित तथा पाठ गुरणों से विभूषित श्रेष्ठ तस्वार्थ श्रद्धा ही मेरे लिये हितकारी है ।।६२॥ त्रिलो
१. चारित्रजलेन ।
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११० ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित * भाराष्यो जगतां नाथो देवः श्रीजिनपुङ्गवः । मुनीन्द्रा गुरवो वन्द्यास्त्रिशुद्धया पूजनादिभिः।। ६३।। पूजनीया मया सर्व प्रैलोक्यस्थ जिनालया: । अत्रजः पूजनद्रव्यर्भक्त्या तोर्थेशमूर्तय: ॥६४।। कतंव्यानि जिनेन्द्राणां कल्याणान्यखिलान्यपि । कृत्स्नकल्याण सिद्धयर्थं विभूत्या परया मया ॥६५॥ धर्मार्थकाममोक्षाणामादी धमों जिनमतः । तेषां सर्वपदार्थानां निष्पत्त मूलकारणः ॥६६।। अत: पूर्व विधायोच्चैधर्मकार्य सुखाकरम् । पश्चादाज्यं ग्रहीष्यामि महापुण्योदयापितम् ।।६७।। इति मत्वा जगामासौ वापिका स्नानहेतवे । स्वर्णनीरजसंछन्नां जिनध्यानात्तमानसः ॥६८।। तत्र स्नानं विधायोच्चः सोऽगाच्चैत्यालये मूदा। 'वेष्टितोऽमरसंघातः स्वर्णरत्नमये शुभे ॥६६।। विपरीत्य जिनागारं मूर्ना श्रीजिननायकम् । जयनन्दादिशब्दोघने नाम भक्तिनिर्भरः ॥७०।। चकारोच्चस्ततस्तत्र जिनार्चाणारे महामहम् । सर्वाम्युदयसिद्धयर्थ विश्वाभ्युदयकारणम् ॥७१।। गोरपार कर मारनाग. । चन्दन : स्वर्णवभिः सुगन्धीकृतदिग्मृखैः ।।७।। मुक्ताफलमर्यदिव्याक्षतरक्षयसौख्यदः । पुष्पैः कल्पद्र मोत्पन्न ; सुधापिण्डचरूत्कटः ॥७३।। कोनाथ श्री जिनेन्द्र देव मेरे लिये प्राराध्य हैं, सद्गुरु मुनिराज, पूजन प्रादि के द्वारा मन बच्चन काय की शुद्धिपूर्वक वन्दनीय हैं तीन लोक में स्थित समस्त जिनालय और उनमें स्थित तीर्थङ्करों को प्रतिमाएं यहां उत्पन्न होने वाले पूजा के द्रव्यों द्वारा भक्ति पूर्वक मेरे पूजनीय हैं ।।६३-६४।। समस्त कल्याणों को सिसि के लिये मुझे जिनेन्द्र भगवान के सभी कल्याणक उत्कृष्ट विभूति के द्वारा करना चाहिये ॥६५।। धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों में धर्म को ही जिनेन्द्र भगवान ने प्राधि सर्व प्रथम माना है क्योंकि यह समस्त पदार्थों की उत्पत्ति का मूल कारण है ।।६६।। इसलिये सबसे पहले सुख की खानस्वरूप उत्कृष्ट धर्म को करके पीछे महापुण्योदय से प्राप्त राज्य को ग्रहण करूंगा ॥६७।। ऐसा विचार कर यह इन्द्र जिनेन्द्र भगवान के ध्यान में चित्त लगाता हुमा स्नान के हेतु स्वर्णकमलों से प्राच्छावित वापिका में गया ।। ६८॥ वहां स्नान कर यह देव समूहों के द्वारा परिवृत होता हुमा बड़े हर्ष से स्वर्ण रत्नमय शुभ चैत्यालय में गया ॥६६॥
वहां जिन मन्दिर की तीन प्रदक्षिणाएं वेकर भक्ति से परिपूर्ण उस इन्द्र ने जय नन्द प्रादि शब्द समूह के द्वारा मस्तक से श्री जिनेन्द्र देव को नमस्कार किया ।।७।। तदनन्तर वहाँ समस्त प्रभपुवयों की सिद्धि के लिये समस्त प्रभ्युदयों का कारणभूत, जिन प्रतिमानों का महामह नामक पूजन किया ॥७१।। स्वर्णमय झारी की नाल से निकली हुई स्वच्छजल की धाराओं से, दिशाओं के अग्रभाग को सुगन्धित करने वाले स्वर्ण वर्ण पीले रङ्ग के चन्दन से, अविनाशी सुख को देने वाले मुक्तामय विध्य प्रक्षतों से, कल्पवृक्षों से
१. विशिष्टामरसंघातः क. २. बिनप्रतिमानां।
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• नवम सर्ग 2
[ १११ रत्नदीपैर्महाधूपः फल कल्पतरूद्भवः । कुसुमाञ्जलिसवातीत 'नृत मनोहरेः ॥७४।। यादिवर्जयशब्दावस्तुतिस्तोत्ररनेकधा ।पुण्यकारणभूतैश्च स्वानन्देन महोत्सवैः ॥७॥ अनु चैत्यनगस्थानां बिम्बानामर्चनं परम् । स व्यधात्परया भक्त्या सिद्धयेऽष्टविधं मुदा १७६।। ततोऽमरगरणः साकमभिषेकपुरस्सरम् ।विभूत्या परया शक्र: स्वराज्य स्वोचकार सः ||७७!! करोति तीर्थकतृणां पञ्चकल्याण केऽर्चनाम् । सा स्वपरिवारेण गत्वा सिद्धर्ष महोत्सवः ११७८।। ज्ञाननिरिणकालेऽसौ केवलज्ञानिनां सदा । महामहं विधत्ते ऽति भक्त्याभूत्यावहानये ॥७॥ मंवेगजननी सारां दिव्यां विश्वहितंकराम् । स्वकोष्ठे ह्य पविष्टोऽसौ जिनवाणीं शृणोत्यपि।८०॥ त्रैलोक्यतिनों सर्वा जिनार्चा सोऽनयेन्मुदा । मेरुनन्दीश्वरादी च निरन्तं कृत्रिमेतराम् ॥८॥
हरिविष्टरमारूढः सभायां नाकिनां सदा । हिताय बुरुते दक्षः सम्यक्त्वगुणवर्णनम् ।।२।। अनेकान्तात्मक मार्ग जिननाथमुखोद्भवम् । तत्वसंगभितं दृष्टिविशुद्धघं दिशति स्फुटम् ।। ८३।। हविहीनाः सुरास्तत्रोत्पद्यन्ते ये तपोबलात् । तेषां धर्मोपदेशाद्य ग्राहयत्याशु दर्शनम् ॥८४।। समुत्पन्न पुष्पों से, अमृतमय पिण्ड द्वारा निर्मित उत्कृष्ट नैवेद्य से, रत्नमय बीप से, महाधूप से, कल्पवृक्षों से उत्पन्न फलों से, पुष्पाञ्जलियों के समूह से, मनोहर गीत नृत्य वादित्र जय जय प्रादि शब्द, अनेक प्रकार के स्तुति-स्तोत्रों तथा पुण्य के कारणभूत अनेक महोत्सवों से निजानन्द पूर्वक महामह पूजा की ।।७२-७५।। चैत्यालयस्थ जिनप्रतिमाओं की पूजा के अनन्तर उसने सिद्धि के लिये चैत्यवृक्षों के नीचे स्थित जिनप्रतिमानों को उत्कृष्ट अष्टविष पूजा परम भक्ति से हर्षपूर्वक की ॥७६।।
तदनन्तर उस इन्द्र ने वेव समूह के साथ अभिषेक पूर्षक परमविभूति से अपना राज्य स्वीकृत किया ॥७७॥ वह तीर्थंकरों के पञ्चकल्याणकों में अपने परिवार के साथ जाकर सिद्धि के लिये महोत्सव पूर्वक पूजन करता था ॥७॥ वह केवलज्ञानियों के ज्ञान और निर्वाण के समय सदा पापों की हानि के लिए प्रत्यन्त भक्ति से वैभव पूर्वक महामह पूजा करता था ॥७९।। अपने कोठा में बैठा हुअा वह इन्द्र वैराग्य को उत्पन्न करने वाली, सारभूत, विध्य तथा सफल जन हितकारी जिनवारगी को भी सुनता था 11०। वह मेरु तथा नन्दीश्वर आदि में विद्यमान त्रिलोकवर्ती समस्त कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाओं की हर्षपूर्वक पूजा करता था।८१। सभा में सिंहासन पर बैठा हुआ यह चतुर इन्द्र देवों के हित के लिये सम्यक्त्व के गुणों का वर्णन करता था ॥२॥ सम्यग्दर्शन की विशुद्धता के लिये जिनेन्द्र भगवान के मुख से उत्पन्न, तत्त्वभित, अनेकान्तात्मक मार्ग का स्पष्ट उपदेश देता था ।।८३।। यहां तप के बल से जो मिथ्याइष्टि देव उत्पन्न होते थे उन्हें धर्मोपदेश आदि के द्वारा शीघ्र ही
१ न स्य. २. ऐश्वर्यण ३. मोर्चयन क. ४. मिहामनं ५. देवानाम् ।
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११२ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित - तत्रत्यश्रीजिनानां चैत्यवृक्षे जिनालये । सर्वासां विविधां पूजां करोति प्रत्यहं मुदा ॥८५।। इत्यादिविविधाचारमहापुण्यनिबन्धनः । विधत्तं परमं धर्म दृग्ज्ञानाम्यां स देवराट् ।।६।। स्वचित्त वृषमाधाय भुक्त पुण्योदयापितम् । महत्सुखं स्वदेवीभिः कृत्स्नदुःखातिगं समम् ।।८।। क्वचिन्मनोहरं गीतं शृण्वन् कणंसुखावहम् । पश्यन्नृत्यं क्वचिन्ने त्रप्रियं दिव्याङ्गनोद्भवम् ।।८।। कोहाद्विवनसौधादावसंख्यद्वीपवाधिषु । कुर्वन् क्रीडा स्वरामाभिः क्वचिद्गोष्ठी सुरैःसमम्।। क्वचिद्विमानमारुह्म महीं भ्रमन्निजेंच्छया ।क्वचिद्विलोकयन् दिव्य शृङ्गारं दिवषयोषिताम्।।६।। विलासं च क्वचित्सारं मुखाद्यनमनोहरम् । मज्जन शर्माम्बुधौ शको गतकालं न वेत्ति सः ।।६।। साद्धं हस्तत्रयोन्मेषदिव्यदेहधरो महान् ।नेत्रस्पन्दमलस्वेदनखकेशातिगाङ्गभाक् ॥२।। सहजाम्बरस्रग्भूषाकान्त्युयोतितदिक्चय: ।विशत्यब्धिप्रमाणायुः शुक्ललेश्य: शुभासय: ।।६।। दशमासान्तनिःश्वाससुगन्धीकृतदिग्मुखः । खचतुष्कद्विवन्ति मनसाहारमाहरन् ।।१४।। सम्यग्दर्शन धारण कराता था ॥८४॥ यहां जितने चैत्यक्ष तथा जिनालय थे उनमें स्थित समस्त प्रतिमानों की वह प्रतिदिन हर्षपूर्वक विविध पूजा करता था ॥५॥ महापुण्य के कारणभूत इत्यादि विविध कार्यों से वह इन्द्र सम्यवर्शन और सम्यग्ज्ञान के द्वारा परम धर्म करता था ॥८६॥ अपने हृदय में धर्म धारण कर वह अपनी देवियों के साथ पुण्योदय से प्राप्त समस्त दुःखों से दूरवर्ती महान सुख का उपभोग करता था ।।७।।
वह कहीं तो कानों को सुख देने वाला मनोहर गीत सुनता था, कहीं नेत्रों को प्रिय लगने वाला देवाङ्गनाओं का नृत्य देखता था । कहीं असंख्यात द्वीप समुद्रों के क्रीडा चल तथा बन भवन प्रादि स्थानों में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीडा करता था, कभी देवों के साथ गोष्ठी करता था ।।८-६॥ कहीं विमान में बैठ कर अपनी इच्छानुसार पृथियो पर भ्रमण करता था। कहीं देवाङ्गनामों के दिव्य शृङ्गार को देखता था, और कहीं देवाङ्गनामों के मुख प्रावि प्रङ्गों के मनोहर हावभाव को देखता था। इस प्रकार सुखरूपी सागर में निमग्न हुमा वह इन्द्र बीते हुए काल को नहीं जानता था ।।६०-६१॥
वह श्रेष्ठ इन्द्र साढ़े तीन हाथ ऊचे दिव्य शरीर को धारण करता था, नेत्रों की टिमकार, मल, स्वेद, नख तथा केश प्रादि की वृद्धि से रहित शरीर से युक्त था, सहज जन्मजात वस्त्र माला तथा प्राभूषण प्रादि की कान्ति से दिशात्रों के समूह को प्रकाशित करता था, बीस सागर प्रमाण प्रायु वाला था, शुक्ल लेश्या और शुभ प्राशय से सहित था, वश माह के अन्त में श्वासोच्छ्वास से विशात्रों के अप्रभाग को सुगन्धित करता था, दो हजार वर्ष बाद दिव्य अमृतमय तथा अपनी समस्त इन्द्रियों को प्राल्लाद उत्पन्न करने १. वितिसहस्रवर्षान्ते ।
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* नबम सर्ग *
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दिव्यं सुधामयं सर्वस्वेन्द्रियाहादनक्षमम् ।प्राप्तकामसुखश्चित्त न स्वस्त्रीस्मरणात् स्वयम्।।५।। मापञ्चमक्षितिव्याप्ततृतीयावगमेक्षण:' । स्वावधिक्षेत्रपर्यन्तविक्रियाद्धवलान्धितः ।।६।। सामानिकादिदेवोघर्भक्त्या नुतकमाम्बुजः । देवीनिकरमध्यस्थोऽतिशर्माम्बुधिजीवित: ॥६७।। मनोऽभिलषितैर्भोगः परिपूर्णमनोरथः । असंख्यसुरसंघातसेव्यमानोऽप्यहोऽनिशम् ॥६८| अङ्गदीप्त्या सुनेपथ्य रश्मिजालैः सुराधिपः । तेजः पुञ्ज इवाभाति सभामध्ये यशोऽथया ||६||
शार्दूलविक्रीडितम् एवं धर्मविपाकतोऽमरनुतो भूतिञ्च शक्रोद्भवां
लब्ध्या दिव्यसुराङ्गनां स विविध सौख्यं सुवाक्यातिगम् । भुक्त दिव्यमनारतं सुविबुधः ज्ञात्वेति यत्नं परं
सेवं जिन शो दिमागले गर्ग सागर: ।।१०।। धर्मो नाकन रेएबरादिसुस्वदो धर्म पिता धमिणो
धर्मेणाशु समाप्यते शिवगतिर्धर्माय मुक्त्यै नमः । में समर्थ मानसिक पाहार ग्रहण करता था, हदय में अपनी देवाङ्गनामों के स्मरण मात्र से उसे स्वयं कामसुख प्राप्त हो जाता था, उसका अवधिज्ञानरूपी नेत्र पञ्चम पृथिवी तक ध्याप्त था अर्थात यहां तक के पदार्थों को जानता था, अपने प्रवधिज्ञान के क्षेत्र पर्यन्त ही यह विक्रिया द्धि की शक्ति से युक्त था ।।६२-६६॥ सामानिक प्रादि देवों के समूह भक्ति पूर्वक जिसके चरण कमलों की स्तुति करते थे, जो देवी समूह के मध्य में स्थित पा, जिसका जीवन अत्यधिक सुख का सागर था, मनोभिलषित भोगों के द्वारा जिसका मनोरष पूर्ण था, और असंख्य देवों के समूह जिसकी निरन्तर सेवा करते थे ऐसा वह इन्द्र, शरीर को कान्ति तथा वेषभूषा की किरणावली से सभा के मध्य में तेजः पुस्ज के समान अथवा यश के समान सुशोभित होता था|६७-६६॥
इस प्रकार देवों के द्वारा स्तुत वह इन्द्र, धर्म के फल से इन्द्र की विभूति और सुम्बर देवाङ्गनामों को प्राप्त कर निरन्तर विविध प्रकार के वचनागोचर विव्य सुख का उपभोग करता है ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो! जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपविष्ट अतिशय निर्मल धर्म के विषय में उत्कृष्ट व्रतादिक के द्वारा परम प्रयत्न करो ॥१००॥ धर्म, स्वर्ग तथा चक्रवर्ती प्रादि के सुख को देने वाला है, धर्मात्मा जन धर्म का प्राश्रय लेते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र ही मोक्षरूपी गति प्राप्त होती है, मुक्ति के हेतु धर्म के लिये नमस्कार है, धर्म
१. अवधिज्ञानलोचन: २. मरनुतेः क... वचनागोचरम् ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित - पर्मानास्त्पपरो जगत्सुहितधर्मस्य बीजं सुदृग्
धर्मे चित्तमनारतं विदधतां धर्माऽस्तु नो मुक्तये ।।१०।। यो विश्वकपितामहो हितकरो विघ्नीघहन्सा भुवि
धर्म धर्मविधायिना निरूपमो विख्यातकीतिर्महान् । अन्तातीतगुणार्णवस्त्रिभुवने 'प्रार्यो नृवेवाधिप
मान्यो भक्तिभरण सोऽस्तु च मया मे विघ्नशान्त्यै शिवः ॥१०२॥ इति भट्टारक श्री सकलकोतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथचरित्रे प्रानतेन्द्रविभूतिसुखवर्णनो नाम नवमः सर्गः । से बढ़कर दूसरा जगत् का उत्तम हित करने वाला नहीं है, धर्म का बीज सम्यग्दर्शन है, धर्म में निरन्तर चिस लगायो, हे धर्म ! तुम हमारी मुक्ति के लिये होप्रो ॥१०॥
__जो विश्व के अद्वितीय पितामह है, हितकारी हैं, पृथिवी पर धर्म करने वाले मनुष्यों के धर्म में प्राने वाले विद्यम समूह का घात करने वाले हैं, प्रमातगुणों के सागर हैं, तीनों लोकों में मनुष्य और इन्द्रों के द्वारा परम पूज्य है तथा मेरे द्वारा भक्ति के भार से मान्य हैं वे भगवान वृषभ वेव रूपी महादेव मेरे विघ्नों की शान्ति के लिये हों ।।१०२।।
इस प्रकार भट्टारक श्री सफलकोति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित्र में पानतेन्द्र की विभूति तथा सुख का वर्णन करने बाला नवम सर्ग समाप्त हुआ ॥६॥
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१.प्रपूज्यः ।
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* बसम सर्ग *
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दशमः सर्गः जगद्धितो अगनाथो अगढन्यो जगद्गुरुः । वन्दिप्तो यो मया सोऽस्तु पाश्चों मे स्वगुणाप्तये ॥१॥ द्वीपेऽस्मिनथ विख्याते प्रथमे भरताभिधे । क्षेत्रेऽस्ति काशिदेशोऽनेकधार्मिकबुधाकुलः ॥२॥ प्रामखेटमटम्बद्रोणमुखाः पुरवाहनाः ।यश्र धान्यादिसंपूर्णा विभान्ति पत्तनादयः ।।३।। धर्मवद्भिर्जनैर्दक्षः सानोपयनादिभिः । तुङ्गकूटैजिनागारैदिव्या धर्माकर इव ॥४॥ रति कुर्वन्ति यत्रोच्चैः सच्याये सफले बने । ध्यानाध्ययनसंसिद्धय मुनीन्द्रा निर्जने शुभे ॥५॥ व्युत्सर्गस्यमुनी शौघतटभूषाङ्किताः शुभाः ।वहन्ति सृड्यनाशिन्यो यत्र नद्यो मनोहराः ।।६।। वापीकूपसरांस्यत्र खतृष्णास्फेटकानि च । महास्वच्छानि शोभन्ते यतेर्वा हृदयान्यपि ||७|| तुङ्गानि सफलान्युच्चस्तर्पकाणि सतां सदा । शालिक्षेत्राणि भान्त्यत्र मुनेराचरणानि वा' ||६|| केवलज्ञानिनो पत्र त्रिजगज्जनवेष्टिताः । विहरन्ति महाभूत्या मुक्तिमार्गप्रवृत्तये ||
दशम सर्ग जगत् हितकारी, जगन्नाथ, जगद्वन्ध और जगद्गुरु जो पार्श्वनाथ मेरे द्वारा वन्दित हए है वे मुझे अपने गुरगों की प्राप्ति के लिये हों ॥१॥
अथानन्तर इस विख्यात प्रथम जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक काशी नामका देश है जो अनेक धर्मात्मा विद्वज्जनों से व्याप्त है ॥२॥ जिस देश में धन धान्यावि से परिपूर्ण ग्राम, खेट, मटम्ब, द्रोणमुख, पुर, वाहन तथा पत्तन प्रावि सुशोभित हो रहे हैं ॥३॥ चतुर धामिक जनों से, उत्तम बन उपवन प्रावि से तथा अंचे कंधे शिखरों वाले जिन मन्दिरों से मनोहर वे पत्तन प्रादि धर्म को खानों के समान सुशोभित हैं ॥४॥ जहां पर मुनिराज ध्यान और अध्ययन की सिद्धि के लिये चे, उत्तम छाया से युक्त, फलों से सहित शुभ
और निर्जन वन में प्रीति करते हैं ॥५॥ जहां कायोत्सर्ग में स्थित मुनिराजों के समूह से उपलक्षित तटरूपी प्राभूषणों से सहित, प्यास को नष्ट करने वाली शुभ तथा मनोहर नदियां बहती हैं ॥६॥ जहां इन्द्रियों को तृष्णा को नष्ट करने वाले, अतिशय स्वच्छ, वापी कूप और सरोवर, मुनि के हृदय के समान सुशोभित होते हैं ॥७॥ जहां पर ऊचे, फलों से युक्त तथा सत्पुरुषों को सदा संतुष्ट करने वाले धान के खेत मुनि के प्राचरण के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं ॥८॥ जहां पर तीनों लोकों के प्राणियों से घिरे हुए केवली
१. च न. २ विहरन्ति निरन्तर भूत्या मुक्तिप्रवृत्तये क० ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित - प्राचार्याश्च गणाधीशाश्चतुःसङ्घविराजिताः । भ्रमन्ति यत्र भव्याना धर्मोपदेशहेतवे ।।१०।। मुनिकेवलियात्राय वर्तते प्रत्यहं महान् यत्राल्यन्तोत्सवो धर्मकरणो धार्मिकैर्बुधः ।।११।। तत्रत्या धार्मिकाः केचिदस्यङ्गा यान्ति नि तिम् । तपोरत्नत्रयाचारैः केचिच्छेष शुभोदयात् ।।१२॥ सारां सर्वार्थसिद्धिं च केचिद् वेयकं दिवम् । अन्ये स्वाचरणायोग्यं गृहिधर्मादिना परे ।।१३।। जिनपूजादिमाहात्म्यादिन्द्रभूति भजन्त्यहो । केचिच्च पात्रदानेन भोगभूमौ सुखं महत् ।।१४।। 'सुधाभुजोऽपि यत्रोच्चैर्जन्मने स्यु: स्पृहालवः । मुक्तिस्त्रोव शहेत्वर्थ तत्र का वर्णनापरा ।।१५।। इत्यादिवर्णनोपेतदेशस्य धर्मकारिणः । मध्ये वाराणसी भाति स्व:पुरीव परापुरी।।१६।। तुङ्गशालप्रतोलीभिर्दीर्घस्वातिकया भृशम् । अयोध्या वा परा याभाद्भटे राजसुनादिभिः ।।१७।। उत्तु ङ्गपामशृङ्गस्थध्वजनात भीतराम् ।आयतीव नाकेश या धर्मशिवसिद्धये ॥१८॥ स्वर्णरत्लादिबिम्बोपर्धर्मोपकरगीवरे: । तत्कुट शिखरोपान्तकेतुमालाभिरत्यहम् ।।१६।।
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भगवान मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के लिये महान विभूति के साथ विहार करते हैं ॥६॥ अहाँ गरपों के स्वामी तथा चार संघों से सुशोभित प्राचार्य, भव्यजीवों को धर्मोपदेश देने के लिए भ्रमण करते रहते हैं ॥१०॥ जहां मुनियों तथा केवलज्ञानियों को यात्रा के लिये धामिक मानी जनों के द्वारा किया हुमा धर्म प्रवर्तक बहुत भारी उत्सव प्रतिदिन होता रहता है ॥११॥ वहां वे कोई धर्मात्मा तो तप तथा रत्नत्रय के प्राधरण से शरीर रहित होते हुए निर्वाण को प्राप्त होते हैं और कोई शेष पुण्योदय से श्रेष्ठ सर्वार्थसिद्धि को, कोई प्रधेयक को तथा कोई गृहस्थ धर्म प्रादि के द्वारा अपने अपने प्राचरण के योग्य स्वर्ग को प्राप्त होते हैं ॥१२-१३॥ कोई जिनपूजा आदि के माहात्म्य से इन्द्र की विभूति को प्राप्त होते हैं पौर कोई पात्रदान से भोगभूमि में महान सुख का उपभोग करते हैं ॥१४॥ मुक्तिरूपी स्त्री को वश करने के लिये देव भी जहां उत्पन्न होने के हेतु इच्छुक रहते है वहां प्रन्यपर्णना क्या है ? ॥१५॥ इत्यादि वर्णना से सहित उस धर्म प्रवर्तक देश के मध्य में स्वर्गपुरी के समान उत्कृष्ट वाराणसी नगरी सुशोभित है ।।१६।। उन्नत प्राकार ऊंचे ऊंचे गोपुरों तथा विस्तृत परिखा से युक्त जो नगरी योद्धाओं तथा राजपुत्र आदि से ऐसी सुशोभित होती थी मानों दूसरी अयोध्या ही हो ।। १७ ।। ऊंचे ऊने महलों के शिखरों पर स्थित ध्वजानों के समूह से जो नगरी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों धर्म के द्वारा मोक्ष की सिद्धि के लिये इन्द्र को बुला हो रही हो ॥१८।। जहां स्वर्ण तथा रत्न प्रादि से निर्मित प्रतिमाओं के समूह से, धर्म के उत्कृष्ट उपकरणों से, शिखरों के समीप फहराती हुई पताकाओं को पंक्ति से गीत नृत्य तथा वावित्र प्रावि से, जयकार तथा स्तवन प्रादि की कोटियों
१. देवा अपि २. खगपुरीव ३. पुरा पुरी क. 1
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* दशम सर्ग
[ ११७ गीतवर्तन वाद्यार्जियस्त्वादिकोटिभिः । पूजोपलक्षितैयु ग्मैर्यातायात योषिताम् ॥२०॥ यत्र चैत्यालयास्तुङ्गा विभ्राजन्ते मनोहरा: । परा धर्मान्धयो गतिगर्जन्तो जनसंकुलाः ॥२१।। दिव्यनेपथ्यधारिण्यो गच्छन्त्यो जिनधामनि । काश्चिद्वभुस्तरां नार्थो रूपाचर्वामराङ्गनाः ॥२२॥ जिनाभिषेकसंभूतमहापूजोद्भवः क्वचित क्वचिम्मुनीन्द्रयात्रोत्थो व्रतोद्यापनकात्मकः ।। २३॥ क्वनि बागोल्पाः कल्याणेषु जिने शिनाम । धर्मप्रभावनोद्भूतः संयमादानजः क्वचित् ॥२४॥ क्वचित्सुपात्रदानेन रनवृष्टयादिजो महान् । क्वचिज्जिनेन्द्रबिम्बोधप्रतिष्ठा दिकरोऽद्भुतः १२५।। इत्यादिकोऽपरो नित्यं धर्मकार्यसमुद्भवः । महोत्सवोऽतिवाचाथै वर्तते यत्र मङ्गलैः ॥२६।। पुत्रादिजातकर्मोत्थो विवाहादिविधिप्रजः ।गीतनर्तनतूर्याच रुत्सवो जायतेतराम् ॥२७॥ जना विचक्षणा यस्यां विवाहादिमहोत्सवे । महापूजां जिनागारे कुर्यु माङ्गल्यवृद्धये ॥२८॥ क्वचिच्छोके समुत्पन्न प्राक्तनासातपाकत: । तन्नाशाय व्यधुर्दक्षाश्चत्यागारे महामहम् ।।२६।। इत्यादिविविधाचारैः कुर्वन्ति प्रत्यहं प्रजा: । अहिसालक्षणं धर्म विचारशाः सुखाएंवम् ।।३।।
से पूजा की सामग्री से सहित पाते जाते हुए स्त्री पुरुषों के युगलों से मनोहर तथा मनुष्यों से परिपूर्ण उन्नत जिन मन्दिर ऐसे सुशोभित होते हैं मानों तीव गर्जना करते हुए धर्म के उत्कृष्ट सागर ही हों ॥१९-२१॥
जहां सुन्दर वेषभूषा को धारण कर जिन मन्दिर को जाती हुई कितनी ही स्त्रियां रूप प्रादि से देवाङ्गनाओं के समान अत्यधिक सुशोभित होती हैं ॥२२॥ जहां कहीं तो जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के साथ होने बालो महापूजाओं से उत्पन्न, कहीं मुनिराजों की यात्रा से उत्पन्न व्रतोद्यापन प्रावि रूप, कहीं तीर्थङ्करों के कल्याणकों में देवों के प्रागमन से उद्भूत, कहीं उत्तम पात्र दान के द्वारा होने वाली रत्नदृष्टि प्रादि से उत्पन्न, कहीं जिन प्रतिमाओं के समूह को प्रतिष्ठा आदि को करने वाला, कहीं प्रतिदिन होने वाले धर्म कायों से उत्पन्न प्रौर कहीं माङ्गलिक प्रत्यधिक बाजों आदि से उद्धत आश्चर्यकारक बहुत भारी महोत्सव होता रहता है ।।२३-२६।। जहां पुत्र प्रादि के जातकर्म तथा विवाह आदि के समय होने वाला उत्सव गीत नृत्य और वावित्र प्रादि के द्वारा अत्यधिक मात्रा में होता रहता है ॥२७॥ जहां विवेकोजन विवाह आदि महोत्सवों के समय मङ्गल वृद्धि के लिये जिन मन्दिरों में महापूजा करते हैं ॥२८॥ कहीं पूर्वभव सम्बन्धी पापकर्म के उदय से यदि शोक उत्पन्न होता था तो उसका नाश करने के लिये चतुर मनुष्य जिनमन्दिर में महामह पूजा करते थे ।।२६॥ इत्यादि विविध प्राचारों के द्वारा जहां के ज्ञानीजन प्रतिदिन सुख के सागर स्वरूप अहिंसामय धर्म को करते हैं ॥३०॥वत शील उपवासादिक दान पूजना. १. देव्य इव २. पूर्वास द्वे चोदवान् ३. विचारज क ।
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११८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित * व्रतशीलोपवासाय दर्शनपूजनकर्मभि: । दृष्टिज्ञानक्षमा श्च बैराग्यभावनादिभिः ॥३१॥ भोगोपभोगसंपूर्ण नीतिमार्ग रताः शुभाः । रूपलावण्यनेपथ्यचीनांशुकविमण्डिताः ॥३२॥ दानिनोऽतिसदाचारास्तीर्थेशगुरुसेवनाः । ज्ञानविज्ञानसंपन्ना धनधान्यादिसंकुलाः ॥३३।। धर्मकार्यकरा यस्यां सुखिन: पुण्यपाकतः । नरास्ताहांग्वधा मार्यो वसन्ति तुङ्गधामसु ।।३४।। तस्या मध्ये विभात्युच्चैनरेन्द्र भवनं महत् । गिरीशिखराकारं तुङ्गप्राकारकेतुभिः ॥३५।। तत्पतिविश्वसेनाख्योऽप्यभूद्विश्वगुणकभूः । काश्यपास्यसुगोत्रस्थ इक्ष्वाकुवंशखांशुमान् ॥३६॥ स शशीवकलाधारस्तेजस्वी भानुमानिव । प्रभुरिन्द्र इवाभीष्टफलद: कल्पशाखिवत् ॥३७॥ जिनेन्द्रपादसंसक्तो गुरुसेवापरायग: ।धर्माधारः सदाचारी रूपेण जितमन्मथ: ।।३।। दाता भोक्ता विचारज्ञो नीतिमार्गप्रवर्तकः । गुणी प्रजाप्रियो दक्षो ज्ञानत्रयविभूषितः ॥३६।। दिव्याम्बर सुभूषाष्टितः स्वजनादिभिः ।शको वा यशसा सोऽभाद्विश्वभूपशिरोमणिः ।।४।। निरौपम्या महारूपा बभूव प्राबल्लभा । तस्य ब्राह्मो जगत्ख्याता परब्रह्मोद्भवक्षितिः ।।४।। दिक, सम्यग्दर्शन सम्यगज्ञान क्षमादिक, और वैराग्यभावना प्रादि के द्वारा जहां मनुष्य धर्म किया करते हैं ॥३०॥ जो भोगोपभोग से परिपूर्ण हैं, नीति मार्ग में रत हैं, शुभ हैं, रूप लावण्य वेषभूषा तथा क्षोम वस्त्रों से विभूषित हैं, दानी हैं, सदाचारी हैं, तीर्थकर तथा गुरुओं के सेवक हैं, ज्ञान-विज्ञान से संपन्न हैं, धन धान्यावि से युक्त हैं, धर्म कार्य करने वाले हैं, तथा पुण्योदय से सुखी हैं ऐसे मनुष्य जहां उत्तुङ्ग भवनों में निवास करते हैं तथा ऐसी ही स्त्रियां जहाँ ऊचे चे महलों में निवास करती हैं ।।३२-३४॥
उस वाराणसी के मध्य में गिरिराज के शिखराकार ऊचा विशाल राजभवन है ओ उन्नत कोट तथा पताकाओं से सुशोभित है ॥३५।। उस नगरी का राजा विश्वसेन था ओ समस्त गुरगों की अद्वितीय भूमि था, काश्यप गोत्र में स्थित था तथा इक्ष्वाकुवंशरूपी प्राकाश का सूर्य था ॥३६।। वह राजा विश्वसेन चन्द्रमा के समान कलाओं का प्राधार था, सूर्य के समान तेजस्वी था, इन्द्र के समान प्रभु था और कल्पवृक्ष के समान अभीष्टफल को देने वाला था ॥३७।। बह जिनेन्द्र भगवान के चरणों में संलग्न था, गुरुनों की सेवा में तत्पर रहता था, धर्म का प्राधार या, सदाचारी था, रूप से काम को जीतने वाला था, दानी था, भोक्ता था, विचारश था, नीति मार्ग का प्रवर्तक था, गुरणी था, प्रजा को प्रिय था, चतुर था, तीन मानों से विभूषित था, दिव्य वस्त्र तथा उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित था, प्रात्मीय जनों से सवा परिवृत रहता था, समस्त राजाओं का शिरोमणि था और यश से इन्द्र के समान सुशोभित था ॥३८-४०॥
राजा विश्वसेन की प्राबल्लभा ब्राह्मी थी, जो निरुपम थी, महारूपवती थी, जगत् प्रसिद्ध थी, और परब्रह्म-तीर्थकर की जन्मभूमि थी ॥४१॥ वह कान्ति से चन्द्रमा
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- दशम सर्ग *
[ ११६ सा कलेबन्दवी' कान्त्या जगदानन्ददायिनी ! स्वगंस्त्रीरूपसर्वस्वमरदाघेव विनिर्मिता ॥४२।। तन्वङ्गी सुकुमाराङ्गा विश्वनेपथ्यधारिणी ।सुरचरा मधुरालापा भारतीव व्यभात्तराम् ।। ४३।। सुरेभगमनी तस्या नखचन्द्रमनोहरी । जितपो प्रगच्छन्तो धर्मकार्ये सुलक्षणो ॥४४।। मणिनूपुरझाकारैर्वधिरीकृतदिग्मुखी । रणभृङ्गयुतो भातः पडूजाविव सत्क्रमौर ।।४।। शोभा जसादये यास्याः क्याप्यन्यत्र न सास्त्यत: । कदल्यादिभषे गर्ने सस्मारिक वयंतेतराम् ।।४।। ऊरुद्वयं सुकान्त्यावध स्निग्धं स्थूलं सुखावहम् । स्पद्धं येयामरस्त्रीभिरतिरम्यं बभार सा ।।४७।। कल प्रस्थानमेतस्याः स्थानीकृत्य मनोभुवा । विनिजितं जगत्सर्वमनूनपरिमण्डलम् ॥४८|| कटीमण्डलमस्याः सुकाञ्चोशालपरिष्कृतम् । दुर्ग वाभादनङ्गस्य लसदंशुकसंवृतम् ।।४।। तनु मध्यं बभारासौ कृतं हि निम्ननाभिकम् । शरनदीव सात भर्तृ कीडागृहोपमम् ।।५०॥ हृदयं कुचकुम्भाम्यां बभौ तस्या मनोहरम् । सुहारनिर्भरण्या स्वभूपक्रीडाचलोपमम् ॥११॥ को कला के समान जगत् को प्रानन्द देने वाली थी तथा ऐसी जान पड़ती थी मानों देवाङ्गना के रूप सर्वस्व को लेकर ही बनायी गई हो ॥४४॥ जो तब भी, जिसका शरीर अत्यन्त सुकुमार था, जो समस्त वेषभूषा को धारण करती थी, सुन्दर स्वर और मधुर पालाप से सहित थी ऐसी वह ब्राह्मी सरस्वती के समान अत्यधिक सुशोभित होती थी।४३। ऐरावत हाथी के समान गमन करने वाले नखरूपी चन्द्रमानों से मनोहर, कमलों को जीतने वाले, धर्म कार्य में प्रगतिशील, उत्तम लक्षणों से युक्त और मरिणमय नूपुरों की झङ्कार से विशाओं के अग्रभाग को बहिरा करने वाले उसके सुन्दर चरण गुजार करने वाले भ्रमरों से युक्त कमलों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥४४-४५॥ इसको दोनों पिण्डरियों में जो शोभा थी वह अन्यत्र कहीं नहीं थी इसलिये कवली आदि के गर्भ में उसका क्या वर्णन किया जाय ? ॥४६॥ वह देवाङ्गनामों के साथ स्पर्धा से ही मानों ऐसे ऊरु युगल को धारण करती थी जो उत्तम कान्ति से युक्त था, स्निग्ध था, स्थूल था, सुख को धारण करने वाला था और अत्यन्त रमणीय था ॥४७।। इसके नितम्ब स्थल को अपना स्थान बनाकर कामदेव ने अतिशय विस्तृत समस्त जगत् को जीत लिया था ॥४८।। उत्तम मेखलारूपो कोट से परिष्कृत तथा सुन्दर वस्त्र से प्राच्छावित उसका कटीमण्डल-कमर का घेरा कामदेव के दुर्ग के समान सुशोभित था ।।४६। जिस प्रकार शरद् ऋतु की नदी भंवर सहित कृशमध्यभाग को धारण करती है उसी प्रकार यह ब्राह्मी पति के क्रीडागृह के समान गहरी नाभि से युक्त कृशमध्यभाग को धारण करती थी ॥५०॥ उसका मनोहर वक्षस्थल स्तनरूप कलशों से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों हाररूपी उत्तम निरिणी
१. इन्दुसम्बन्धिनी २. सच्चरणौ ।
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१२० ]
*श्री पार्श्वनाथ चरित मखेन्दुरश्मिभिवाह मृदू तस्या विरेजतुः । 'भूषाकल्पामशाखे वा मरिणनेपथ्यदीप्तिभिः ।।५२।। सुस्वरं कोमलं कण्ठं सा दधे रत्नभूषितम् । पुत्रगीतादिसंसक्त सरस्वत्या गृहोपमम् ॥५३॥ कान्तितेजोभिराभाति मुखमस्या मनोहरम् । दन्तादिज्योत्स्नया दीप्तं पूर्ण वा शशिमण्डलम्। ५४।
कपोलावलकानस्या दधतुः प्रतिबिम्बितान् । स्वकान्तिसंचये यद्वर्पणी च मुखादिककान् ।। ५५।। तस्या नासानमव्यग्रं तन्मुखानं स्थितं बम । 'आस्थामादामवाधातु सनि:स्वसितमुत्थितम् १५६।। तस्या नेत्रोत्पले भातः पुत्ररूपविलोकने । लोलुपे तारके बा सविभ्रमेऽनङ्गदीपके ॥५७।। कर्णाभरणाविन्यासः करणों तस्या रराजतु: । सरस्वत्या इवास्थानी जिनवाधवरणोत्सुको ।।८।। अष्टमीचन्द्रसादृश्यमस्या भालं तरां व्यधात् । मण्डनानादिरश्म्योधैर्दपैराश्रीविडम्बकम् ॥५६।। उत्तमाङ्ग बभौ तस्याः कचभारेण सुन्दरम् । पुष्पस्रग्भूषणायश्च जिनादौ नमनोत्सुकम् ।।६।। से सहित अपने राजा का क्रोडाचल ही हो ॥५१॥ उसको कोमल भुजाएं नखरूपी चन्द्रमा की किरणों से ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों मरिणमय प्राभूषणों की कान्ति से युक्त भूषणाङ्ग कल्पवृक्ष की शाखाएं ही हों ॥५२॥ वह सुन्दर स्वर और रत्नों से विभूषित जिस कोमल फण्ठ को धारण करती थी वह पुत्रों के गीतादि से सहित सरस्वती के गृह के समान जान पड़ता था ॥५३।। दन्त आदि की किरणों से देदीप्यमान उसका मनोहर मुख, कान्ति और तेज से पूर्ण चन्द्र बिम्ब के समान सुशोभित हो रहा था ॥५४॥ जिस प्रकार दर्पण अपने कान्तिकलाप में प्रतिबिम्बित मुख प्रादि को धारण करते हैं उसी प्रकार उसके कपोल अपने कान्तिकलाप में प्रतिबिम्बित अलकों-केशों के अग्रभाग को धारण करते थे ॥५.५।। उसके मुखाग्रभाग में स्थित उसका निराकुल नासिका का अग्रभाग ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों उत्तम श्यासोच्छ्वास से सहित मुख को सुगन्ध को सू घने के लिये ही उद्यत हुआ हो ॥५६॥ हाय भाव से सहित तथा काम को उत्तेजित करने वाले उसके नेत्रोत्पल ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों पुत्र का रूप देखने के लिये सतृष्ण नेत्रों की कनीनिकाए पुतलियां ही हों ।।५७।। करालंकारों के विन्यास से उसके कान ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों जिनेन्द्र भगवान के वचन सुनने के लिये उत्सुक सरस्वती के प्रास्थान-सभामण्डप ही हों ।।५।। प्राभूषण तथा शरीर प्रादि की किरणों के समूह से दर्पण की शोभा को तिरस्कृत करने वाला उसका ललाट अष्टमी के चन्द्रमा की समानता को अच्छी तरह धारण कर रहा था ॥५९।। केशों के भार से सुन्दर तथा पुष्पमाला और प्राभूषणों आदि से मनोहर उसका शिर ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों जिनेन्द्र देव आदि को नमस्कार
१. भूषणाङ्गकल्पवृक्ष शाखा सहशे भूषाकपाङ्ग का ख• २. दीप्तं क. ३. कपोलो अलमान अस्या इतिच्छेदः ४ यादपणौ च क... मुबसगंघ ६. शिर: ।
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* दशम सर्ग ,
[ १२१ समसुप्रविभक्ताङ्गमित्यस्या वपुरद्भुतम् । स्त्रीसगस्य प्रतिच्छन्दभावेनेब व्यधाद्विधिः ।।१।। सा' खनी नररत्नानां गुणानामाकामा परा । पतनी ध्रुतानी ना संपद' ला महानिधिः ।।६२।। सौभाग्यस्य परा कोटि: सौरूप्यस्योत्तमाकरा । सौहार्दस्य महाप्रीतिः सौजन्यस्य परा स्थितिः ।६३।। कलाविज्ञानचातुविवेकानां च भारती । राशिर्वा यशसां सासी सतीत्वस्य परा धृतिः ।।६४।। रूपलावण्यसंपत्त्या जनानन्दविधायिनी ।सा बभी नितरां लोके परा लक्ष्मीरिवोज्जिता ॥६॥ किमत्र बहुनोक्त न स्युर्यानि लक्षणान्यपि । स्त्रीणां तानि समस्तानि श्रेष्ठान्यस्या भवन्त्यहो ६६ पुसां संजायते रागः शृङ्गाररसवर्णनेः । ततोऽतिरिणतोऽस्माभिर्न सवैराग्यमानसः ।।६७।। प्रेयसी साभवद्भतु : प्रारणेभ्योऽतिगरीयसी । इन्द्राणीव सुरेशस्य परप्रणयभूमिका ।।६।। सुखसन्तानवृद्धयर्थ दम्पतो तो मनोहरी । भोगकोडा प्रकुर्वन्तौ मग्नौ स्तः शर्मवारिधौ ।।६।। अथ संक्रन्दन: प्राह धनदं प्रति धर्मधीः । पानतेन्द्रस्य विज्ञाय शेषषण्मासजीवितम् ।।७।। करने के लिये उत्सुक ही हो ॥६०। जिसके समस्त प्रङ्ग समानरूप से अच्छी तरह विभक्त हैं ऐसा उसका आश्चर्यकारक शरीर ऐसा जान पड़ता था मानों विधाता ने स्त्रीसृष्टि का प्रतिबिम्ब रखने के अभिप्राय से ही उसकी रचना को थी ।।६।।
__ यह नररूपी रत्नों की खान थी, गुणों की उत्कृष्ट खदान थी, सरस्वती देवी के समान पवित्र करने वाली थी अथवा संपदानों की बड़ी भारी निधि थी ॥६२।। सौभाग्य की चरम अवधि थी, सौन्दर्य की उत्तम खान थी, सौहार्द की महाप्रीति थी, सौजन्य की उत्कृष्ट स्थिति थी, कला विज्ञान चातुर्य और विवेक की सरस्वती थी, यज्ञ की राशि थी और सतीत्व की उत्कृष्ट प्राधार थी ॥६३-६४॥ रूप तथा सौन्दर्यरूपी सम्पत्ति के द्वारा मनुष्यों के प्रानन्द को उत्पन्न करने वाली वह ब्राह्मी लोक में उत्कृष्ट तथा प्रबल लक्ष्मी के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥६५॥ अहो ! यहां बहुत कहने से क्या लाभ है ? स्त्रियों के जो भी श्रेष्ठ लक्षण हैं वे सभी इसके विद्यमान थे ॥६६॥ क्योंकि शृङ्गार रस के वर्णन से पुरुषों को राग उत्पन्न होता है इसलिये वैराग्य सहित चित्त को धारण करने वाले हमने उसका अधिक वर्णन नहीं किया है ॥६७॥ उत्कृष्ट स्नेह की भूमि स्वरूप बह रानी इन्द्र को इन्द्राणी के समान पति के लिये प्रारणों से भी अधिक प्रिय यो ॥६८।। सुख सन्तति की वृद्धि के लिये भोग क्रीडा करते हुए वे मनोहर दम्पति सुखसागर में निमग्न रहते थे ॥६६॥
अथानन्तर धर्म में बुद्धि रखने वाले इन्द्र ने, 'प्रानतेन्द्र को प्रायु छह माह शेष रही हैं' ऐसा जानकर कुबेर से कहा ॥७०।। हे धनद ! त्रिलोकीनाथ पाश्वनाथ तीर्थकर मुक्ति १. मा व नीद मुगलानां क० २. इन्द्रः ।
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१२२ ]
* श्री पारनाथ चरित *
रैद' पार्वतीर्थेशो विश्वसेननुपालये । बाह्मीगर्भ जगन्नाथोऽवरिष्यति मुक्तये ॥७॥ ततो गत्वा विधेहि त्वं देवैः सार्द्ध शुभाप्तये । रत्नदृष्टयादिभिः सारं पञ्चाश्चयं सुखावहम् ।७२।। तदान शिरसादायायामरैः सह भूतलम् । तस्मात्स पातमामास रत्नवृष्टि नृपालये ॥७३|| रेषाररावतस्पूनमहायातकराकृतिः । धर्मकल्पद्रुमस्येव बभो प्रारोहसंततिः ।।७४।। सध्याकाशं पतन्ती सा जसमासरा दिशि । स्वर्गमारिवायान्ती सेवितु जिनमातरम् ।।७।। वात्पतन्ती मणीनां सा धारा संप्रेक्षिता क्षरणम् । ज्योतिर्मालेष तपित्रोरागच्छन्त्यत्र सेक्या ।।७६।। मागणे' गणनातीता रत्नहेममयी व्यभात् । सा धारा कुर्वती चात्र अगत्तेजोमयं महत् ।।७७।। ममर्थं रत्नसंघात रुवं दृष्ट्वा नृपाङ्गणम् । संकुलं मरिणतेजोभिज्योतिश्चक्रमिवादभुतम् ।।७।। परस्परं अगुर्दक्षा इति धर्मविदो जनाः । अहो पश्येदमत्यर्थ धर्ममाहात्म्यमीदृशम् १७६।। पद्गीर्वाणे पागारं साङ्गणं पूरितं मुदा । जिनोत्पत्तिप्रभावन स्वर्णमाणिक्यराभिः ।।८०॥ परे प्राहुः किपरमात्रमिदं भीषर्मपाकल: । पित्रो: सेवां करिष्यन्ति सुरेशा: किरा इव ॥८॥
के लिये विश्वसेन राजा के घर ब्राह्मी के गर्भ में अवतार लेंगे ॥७१॥ इसलिये तुम देवों के साथ जाकर कल्याण की प्राप्ति के लिये रत्तवृष्टि प्रादि के द्वारा सुखदायक श्रेष्ठ पञ्चास्वयं करो ॥७२।। तदनन्तर इन्द्र की प्राज्ञा को शिर से स्वीकृत कर कुबेर देवों के साथ पृथिवी तल पर पाया और राजभवन में रत्नवृष्टि गिराने लगा ॥७३॥ ऐरावत हाथी के स्कूल तथा बहुत लम्बे शुण्डाण्ड के समान प्राकृति को धारण करने वाली रत्नों की वह धारा धर्मरूपी कल्पवृक्ष के अंकुरों की संतति के समान सुशोभित हो रही थी ॥७४॥ प्राकाश को घेर कर पड़ती हुई वह रत्नधारा अपने तेज से दिशामों में ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों जिनमाता की सेवा करने के लिये स्वर्ग की लक्ष्मी हो पा रही हो ॥७॥ प्राकाश से पड़ती हुई यह रत्नों की धारा क्षणभर के लिये ऐसी दिख रही थी मानों मिनेन्द्र भगवान् के माता पिता की सेवा करने के लिये ज्योतिष्क वेदों की पंक्ति हो यहां पा रही हो ॥६॥ प्राकाशाङ्गण से पड़ती हुई वह असंख्य रत्नों तथा सुवर्ण को धारा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों इस महान जगत् को तेजोमय हो कर रही हो ।।७७।। प्रमूल्य रत्नों के समूह से व्याप्त तथा रत्नों के तेज से परिपूर्ण राजा के अङ्गण को प्राश्चर्यकारक ज्योतिश्चक्र के समान देखकर धर्म के ज्ञाता कुशल मनुष्य परस्पर ऐसा कहने लगे कि महो ! यह धर्म की ऐसी सातिशय महिमा देखो ।।७८-७६।। देवों ने जिनेन्द्रमन्म के प्रभाव से प्राङ्गरण सहित राजमहल को हर्षपूर्वक स्वर्ण और मरिणयों की राशि से पूर्ण कर दिया है ॥८॥ अन्य मनुष्य कहने लगे कि यह कितनी सी बात है ? श्री धर्म के परिपाक
१. कुवेर २, नभोऽङ्गणे।
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* नाम *
[ २३ धन्ये प्राहरहो सरिक यन संप्राप्यतेऽद्भुतम् । दूरं वा दुर्लभं सर्व धार्मिकैश्च जगत्त्रये ॥१६२ || केचिन्मणिसुवर्णीषं तद्विलोक्य सुरोभवम् । प्राकर्ण्य तद्ववो दक्षा मति धर्मे व्यधुर्ह दाम् ॥८३॥ कल्पद्र मसुपुष्पाणां वृष्टिदेवता भी । कुर्वन्त्यत्र विभोर्गानं पतन्ती' वालिभास तैः ||४|| गन्धterant वृष्टिरागच्छन्ती व्यभात्तराम् । पोषयन्तीव लोकेऽस्मिन् दिव्यमुक्ताफलधियम् ।। ८५ ।। देवानकः सुराः कुर्युर्दुन्दुभ्याख्यं स्वरोजितम् । प्रविनिर्घोषसंकाशं वधिरीकृतदिग्मुखम् || ६६ || जयनन्देश वर्धस्व कल्याण शतभाग्भव । भूप स्वरामया सार्द्ध विश्वराजशिरोमणिः || ८७१ धन्यस्त्वं जगतां मान्यो धन्या देयं जगत्पतिः । जिनो जगत्त्रयीनाथो यद्गर्भेऽवतरिष्यति ॥८८॥ इत्यादिशब्दसंघातैः सुराः कोलाहलं व्यधुः । खाङ्गणे तुष्टिमापन्ना जयादिश्वसंकुलम् ||८६ ॥ एवं षण्मासपर्यन्तं पञ्चाश्चर्यं महाद्भुतम् । जगदाश्चर्यकर्तारं व्यघुदेवा दिनं प्रति ॥१०॥ प्रयेकदा महासोधे मनोशे मृदुतल्प के । कृत्वा स्नानं चतुर्थं सुसुप्ता देवी सुधर्मणा ।। १ ।। से इन्द्र किङ्करों के समान माता पिता की सेवा करेंगे || ८१|| दूसरे पुरुष कहने लगे कि ग्रहो ! तीनों लोकों में वह कौन श्रद्भुत, दूरवर्ती अथवा दुर्लभ पदार्थ है जो धार्मिक जनों के द्वारा प्राप्त नहीं किया जाता हो ? ।।६२।। कितने ही चतुर मनुष्यों ने देवों से उत्पन्न हुई उस मरिण और सुवर्ण की राशि को देखकर तथा उनके वचन सुनकर धर्म में बुद्धि को दृढ किया ॥८३॥ देवकृत, कल्पवृक्ष के सुन्दर पुष्पों की दृष्टि यहां पड़ती हुई ऐसी जान पड़ती यी मानों भ्रमरों की झाङ्कार से प्रभु का गुणगान ही कर रही हो ॥ ८४॥ श्राती हुई गन्धोक की वृष्टि ऐसी सुशोभित हो रही यो मानों इस लोक में विष्य मोतियों की लक्ष्मी को ही पुष्ट कर रही हो ।।६५॥ वेव, देवों के नगाड़ों से जिस दुन्दुभिनामक सबल स्वर को कर रहे थे वह समुद्र की गर्जना के समान था तथा दिशाओं के अग्रभाग को बहरा कर रहा था ।। ८६ ।। हे ईश ! तुम अपनी प्राणवल्लभा के साथ जयवंत होश्रो, समृद्धिमान होश्रो वृद्धि को प्राप्त होश्रो और सैकडों कल्याणों के भाजन होश्रो । हे राजन् ! तुम समस्त राजाश्रों में शिरोमणि हो, तुम धन्य हो, जगन्मान्य हो, और यह आपकी प्राणबल्लभा भी धन्य है कि जिसके गर्भ में जगत्पति त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्र भगवान् अवतीर्ण होंगे ॥६७-६८ ॥ इत्यादि शब्दों के समूह से संतोष को प्राप्त हुए देव गगनाङ्गरण में जय जय आदि की ध्वनि से परिपूर्ण कोलाहल करने लगे । ८६|| इस प्रकार छह माह पर्यन्त देव प्रतिदिन जगत् को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले प्रतिशय अद्भुत पञ्चाश्चर्य करते थे ॥ ६०॥
प्रथानन्तर एक समय ब्राह्मी देवी चतुर्थ स्नान करके मनोहर महाभवन में कोमल शय्या पर सुख से शयन कर रही थी ॥ ६१ ॥ शयन करते समय उसने रात्रि के पिछले
१.
इव मलिका तः इतिच्छेदः ।
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१२४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
सापश्यत्षोडश स्वप्नानिमान् पुत्रफलाङ्कितान् । निशायाः पश्चिमे यामे जिनजन्मानुशंसिनः ॥२॥
सुरेमं पर्वताकारमुत्तङ्ग मन्द्रवू हितम् गवेन्द्र दुन्दुभिस्कन्धं कुन्दमुक्ताफलद्य ुतिम् मृगेन्द्र चन्द्रसच्छायशरीरं रक्तकन्धरम् लक्ष्मी रत्नमयोत्तङ्गविष्टरे देवदन्तिभिः १ दामनी कुसुमामोदाकृष्टलग्नमदालिनी
के
। त्रिमस्त्र तमद्राक्षीदुध्चनन्तं वा शरदूधनम् ||६३।। । पीयूष पुज्जनीकाशं सापश्यन्मदनिःस्वनम् ॥६४॥ प्रतापं वा स्वपुत्रास प्रदर्श महेज्जितम् ।।५।। | स्नाप्यां हिरण्मयैः कुम्भैरपश्यत्स्वामिव श्रियम्। ६६ ।। | तज्झांकृरिवारब्धमाने जिनस्य संक्षत॥६७॥ सम्पूर्णबिम्बमुज्ज्योत्स्नं ताराश्रीशं सतारकम् । कान्तिव्रजं स्वसूनोर्वा सा सानन्दमलोकयत् ।। ६८ । निधूं तध्वान्तमुद्यन्तं भास्वन्तमुदयाचलात् | मूर्तीभूतमिव ज्ञानं साद्राक्षीत्स्वात्मजस्य वे ॥६६॥ कुम्भौ स्वर्णमय पद्मपिहितास्यो ददर्श सा । स्वकीयस्नानकुम्भ वा मुखलग्नकराम्बुजी ।। १०० ॥ ॥ । दर्शयन्ताविवापश्यत्स्वनेत्रायाममद्भुतम् ।। १०१ ।। झर्षो सरोवरे फुल्लकुमुदाब्जच ये सती प्रहर में पुत्र रूप फल से सहित जिनेन्द्रजन्म को सूचित करने वाले ये सोलह स्वप्न देखे ॥६२॥ सर्व प्रथम जिसका प्राकार पर्वत के समान था, जो ऊंचा था, गम्भीर गर्जना कर रहा था, तीन स्थानों से मद भरा रहा था और गर्जते हुए शरद् ऋतु के भेघ के समान था ऐसे ऐरावत हाथी को देखा || ६३|| तदनन्तर दुन्दुभि के समान कांधोल से युक्त, कुन्द श्रौर मुक्ताफल के समान कान्ति से सहित अमृत पुज्ञ समान तथा मद से जोरदार शब्द करने वाले उत्तम बल को देखा || ६४॥ पश्चात् जिसका शरीर चन्द्रमा के समान कान्ति वाला था, जिसकी ग्रीवा लाल थी और जो अपने पुत्र के प्रताप के समान जान पड़ता था ऐसा महा बलवान सिंह देवा ||५|| तदनन्तर जो रत्नमय कंचे सिंहासन पर श्रारूढ है देवराज सुवर्ण कलशों से जिसका अभिषेक कर रहे हैं और जो अपनी ही लक्ष्मी के समान जान पड़ती है ऐसी लक्ष्मी को देखा ।।६६|| पश्चात् फूलों की सुगन्ध से प्राकृष्ट होकर जिन पर भ्रमर लग रहे हैं और उन भ्रमरों की झांकार से जो जिनेन्द्र देव के गुणगान ॥६७॥ तदनन्तर जो करती हुई सी जान पड़ती हैं ऐसी वो मालानों को उसने देखा संपूर्ण मण्डल से सहित है, उत्कृष्ट चांदनी से युक्त है, तारानों से परिवृत हैं और अपने के कान्ति समूह के समान जान पड़ता है ऐसे चन्द्रमा को उसने बड़े हर्ष के साथ देखा पुत्र ||१८|| पश्चात् जिसने अन्धकार को नष्ट कर दिया है, जो उदयाचल से उदित हो रहा है और अपने पुत्र के साकार ज्ञान के समान जान पड़ता है ऐसे सूर्य को उसने देखा ॥६६॥ तदनन्तर जिनका मुख कमलों से आच्छादित है, तथा जो मुख पर संलग्न कर कमलों से युक्त अपने स्नान कलशों के समान जान पड़ते हैं ऐसे स्वर्णमय को कलश देखे ॥१००॥ पश्चात् जिसमें कुमुद और कमलों का समूह खिल रहा है ऐसे सरोवर में विद्यमान उन दो
१. सुरगजे : २ मा ३ मा+ऐवत ४. चन्द्रमसम् ।
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* दशम सर्ग
[१२५ सरत्सरोजवि मल्यापासचम् । विद्यार्णवं स्वसूनोर्वेक्षन दिव्यं सरोवरम् ।। १०२।। क्षुभ्यन्तमब्धिमुवेल सादर्शन्मरिणसंकुलम् । दृग्ज्ञानवृत्तरत्नानां स्वस्य पुत्रस्य वाकरम् ।।१०३।। सिंहविष्टरमुत्त ङ्ग मरिण रश्मिचयाकुलम् । सापश्यामेशृङ्ग वा स्थितं सिंहासन परम् ।।१०४।। स्वविमानं व्यलोकिष्ट पराद्धर्ष रत्नभास्वरम् । भाण्डागारं स्वसूनोर्वा गादिमरिणतेजमाम् ।।१०।। मागेन्द्र भवनं पृथ्वीमुद्भिद्योद्गतमक्षत । स्वसूनो: प्रसवागारमिव देवापितं महत् ।।१०६।। रत्नराशि महोत्सर्पदंशुपल्लविताम्बरम् । सा ददर्श स्वपुत्राङ्गभामण्डलमिधोत्थितम् ॥१०७।। ज्वलभिद धूममद्राक्षीत्सा दीप्त विषमाचिषम् । स्वात्मजस्य ज्वलन्तं वा ध्यानाकर्मन्धनोत्करम्।१०। स्वप्नान्ते सा व्यलोकिष्ट गजमैरावताभिषम् । प्रविशन्तं स्वचक्त्रार्ज जिने शतुग्विधायिनम् ।।१०।।
मालिनी इति सुकृतविपाकादिव्यस्वप्नान् ददर्श जिनवरसुतजन्मासूचकान्सा जिनाम्बा ।
विविधविभवकीत्यों द्यादिसपादनाद्धि त्रिभुवनपतिमोदाकारकान् सद्गजादीन् ।। ११०॥ मछलियों को देखा जो अपने नेत्रों की अद्भुत लम्बाई को ही मानों दिखला रही थों, ।।१०।। तदनन्तर तैरते हुए कमलों की केशर से जिसके जल का समूह पीला पोला हो रहा है तथा जो अपने पुत्र के विद्यारूप सागर के समान जान पड़ता था ऐसा सुन्दर सरोघर देखा ।।१०२॥ पश्चात् जो तट का उल्लङ्घन कर रहा है, मरिणयों से व्याप्त है और अपने पुत्र के दर्शन ज्ञान चारित्ररूपी रत्नों की खान के समान प्रतीत हो रहा है ऐसे लहः राते हुए समुद्र को देखा ॥१०३॥ तदनन्तर उसने मरिणयों के किरण कलाप से व्याप्त उस ऊंचे सिंहासन को देखा जो मेरु के शिखर पर स्थित दूसरे सिंहासन के समान्य जान पड़ता था ॥१०४॥ पश्चात् उत्कृष्ट रत्नों से वेदोप्यमान यह स्वविमान देखा जो अपने पुत्र के सम्यग्दर्शनादि मणियों के तेज का मानों भाण्डार ही था ।१०५॥ पश्चात् पृथिवी को भेव कर प्रकट हुए नागेन्द्र के उस भवन को वेखा जो अपने पुत्र के देव प्रदत्त महान प्रसूतिगृह के समान था ॥१०६।। तदनन्तर ऊपर की ओर उठती हुई अपनी बड़ी बड़ी किरणों से जिसने प्राकाश को पल्लवित कर दिया है ऐसी रत्नराशि को देखा । वह रत्नराशि ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने पुत्र के शरीर का भामण्डल ही उठकर खड़ा हुआ हो ॥१०॥ पश्चात् उसने देदीप्यमान जलती हुई निधूम अग्नि देखी। वह अग्नि ऐसी जान पड़ती थी मानों ध्यान से अपने पुत्र के कर्मरूपी इन्धन के समूह को ही जला रही हो ॥१०।। स्वप्नों के अन्त में उसने अपने मुख कमल में प्रवेश करता हुमा ऐरावत नामका हाथी देखा। वह ऐरावत हाथी यह सूचना दे रहा था कि तेरे तीर्थकर पुत्र उत्पन्न होगा ॥१०॥
इस प्रकार पुण्योदय से जिन माता ने तीर्थकर पुत्र के जन्म को सूचित करने वाले वे उत्तम मज प्रादि दिध्य स्वप्न देखे जो विविध प्रकार के वैभव और कीर्तिसमूह प्रादि के
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* भी पाश्वनाथ चरित.
गाईंसविक्रीडितम् धर्मातिए समनितोऽतिविमलः सूनुस्तयोस्तीर्घकृद्
विश्वानन्दकरो महानिरुपमः पाश्चों भविष्यत्यहो। ज्ञात्वेतीह बुधाः कुरुष्वमनिशं स्वमोक्षसंपादक
विश्वसुखाकर सुचरणैः सर्वार्थसिद्धय परम् ॥१११।। पार्यो दुःखविनाशकः सुखकरः पाय पिता धर्मिणः
पाइँणात्र विलम्यते गुणचयः पाय तस्मै नमः । पार्षापास्त्वपरः स्वपापर्यजनकः पार्श्वस्य मुक्तिः प्रिया
पार्वे चित्तमहं दधे जिनप मा पार्श्व स्वपावं नय ॥११२॥ इति भट्टारक श्री सकलकोतिविरचिते पार्श्वनापरित्रे रत्नवृष्टिषोडशस्वप्नवर्णनो नाम दशमः सर्गः ॥१०॥ सम्पावन से त्रिलोकीनाथ के हर्ष को प्रकट करने वाले थे ॥११०॥ धर्म से उन दोनों के सर्वपूजित, प्रत्यरत निर्मल, सबके प्रानन्य को करने वाला, महान, निरुपम, पाश्र्व नामक तीर्थकर पुत्र होगा ऐसा जामकर महो विद्वज्जन हो ! सर्व मनोरथों की सिद्धि के लिये उत्तम पाचरणों से स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त कराने वाला समस्त सुखों को सान उत्कृष्ट धर्म मिरमतर करो ।।१११॥
पार्थ जिनेन्द्र दुःख के विनाशक तथा सुख को करने वाले हैं, धर्मारमा जनों ने पावं जिनेन्द्र का प्राश्रय लिया है, पाय जिनेन्द्र के द्वारा गुणों का समूह प्राप्त किया जाता है, उन पार्य जिनेन्द्र के लिये नमस्कार है, पाव जिनेन्द्र से बढ़कर दूसरा अपनी मिकटता को प्राप्त कराने वाला नहीं है, पार्व जिमेन्द्र को मुक्ति प्रिय है, मैं पाव मिनेन्द्र में अपना चित्त लगाता हूँ, हे पाश्वं जिनेन्द्र मुझे अपने पास ले चलो ॥११२॥
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति द्वारा विरचित पार्श्वनाथ चरित में रत्नवृष्टि और सोलह स्थानों का वर्णन करने वाला वशम सर्म समाप्त हुा ।।१०।।
१। समन्वितोका।
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* एकादश सर्ग *
[ १२७
एकादशः सर्गः
येनोत्पाद्याशु फैवल्यं जित्वारिजपरीषहान् | बोधितास्तापसाः सर्वे नमस्तस्मै चिदात्मने ||१|| अथातो मङ्गलोद्गीती: शृण्वती वन्दिनां सती । तुर्यैः प्राबोधिकैः शीघ्र ध्वनद्भिः प्रत्यबुद्ध सा ||२|| एतस्याः सुप्रबोधाय दिव्यवाण्या सुपाठकाः । तदा प्रपेडुरित्युच्चैमंङ्गलानि शुभान्यपि ॥३॥ प्रबोधसमयोऽयं ते देवि सन्मुखमागतः | वर्तते धर्मयोग्योऽयं कालः प्राभातिको महान् ||४|| उत्थाय शयनास्के विश्वच सामायिकं महत् । समभावं समालम्ब्य धर्मात सुखावहम् ।।५ ध्यानं प्रकुर्वन्ति स्वकचित्त ेन चार्हताम् । 'एनः शान्ये "सुग्युत्सर्ग केचिद्धीरा दृढव्रताः ||६ ॥ गुरूणां पञ्चनामोत्थं मन्त्रराजं जगद्धितम् १ परे जपन्ति पापघ्नं स्वर्गमुक्तिवशीकरम् ॥७॥ इत्येवं स्तवनार्थ: सुदक्षो लोकः प्रवर्तते । धर्मेध्याने प्रभातेऽत्र सिद्ध विश्वसुखावे ॥ ८ ॥ ॥ • जिनवाक्यांशुभिर्यदगान्मोह्तमः क्षयम् । तद्वत्सूर्यांशुभिभित्र तमो नैश्यं सुदृष्टिहृत् ॥६॥
एकादश सर्ग
जिन्होंने शत्रुकृत परिषहों को जीतकर तथा शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न कर समस्त तापसों को संबोधित किया उन चैतन्यस्वरूप पार्श्वनाथ को नमस्कार हो || १ ||
अथानन्तर वन्दोजनों के मङ्गलमय गीतों को सुनती हुई वह जिनमाता जागरण के लिये बजते हुए बाजों से शीघ्र ही जाग गई || २ || उत्तम पाठ पढ़ने वाले मागषजन इसे जगाने के लिये उस समय सुन्दरवारणी से इस प्रकार शुभमङ्गल उच्चस्वर से पढ़ रहे ये || ३ || हे देवि ! यह जागने का समय तुम्हारे सन्मुख श्राया है । यह प्रातःकाल का महान् समय धर्म के योग्य है || ४ || कितने ही लोग शय्या से उठकर तथा साम्यभाव का प्रालम्बन लेकर धर्म को सिद्धि के लिए सुखदायक महान् सामायिक करते हैं ||५|| कोई अपने एक चित्त से अर्हन्तों का ध्यान करते हैं और दृढता से व्रतों का पालन करने वाले कोई पापों को शान्ति के लिये कायोत्सर्ग कर रहे हैं || ६ || कोई गुरुनों के पांच नामों से उत्पन्न, जगत् हितकारी, पाप विनाशक तथा स्वर्ग और मोक्ष को वश करने वाले मन्त्रराज का जप करते हैं ||७|| इस प्रकार चतुर मनुष्य इस प्रभातकाल में सिद्धि के लिये स्तवन आदि के द्वारा समस्त सुखों के सागर स्वरूप धर्म्यध्यान में प्रवृत्त होते हैं ||८|| मिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के वचनरूपी किरणों से सुदृष्टि-सम्यग्दर्शन को हरने वाला मोह
१. पाणमनाय २. कायोत्सर्ग ३ नमस्कारः ४. एष श्लोकः ख० प्रती नास्ति ।
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१२. ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित * जिन भानूद्गमे यद्वद् भ्रमन्ति साधवो भुवि । कुलिङ्गितस्करा नष्टास्तथा चौरा 'इनोद्गमे । १०१ जिनवाररश्मिभिर्यद्वत्सन्मार्गा नाकमोक्षयोः । दृश्यन्ते च सुधर्मादीनां लोके भानुरश्मिभिः ।।११।। भवन्ति निःप्रभा यज्जिनोदये कुलिङ्गिनः । तथा सूर्योदयेऽकिञ्चित्करा ज्योतिर्गग्गा भुवि ।।१२।। विकन्ति यथा भव्य मनोन्जानि जिनेशिन: । वचोंऽशुभिस्तथान्जानि सरसीन करोत्करः ॥१३॥ रूयते कलमामन्द्रमित: सरसि सारसैः । कुकवाकरितो रम्यं रथाङ्गमिथुनेरितः ।। १४!! इत्यादिविविघानन्दवर्तते मोदनिर्भरः । प्रभातेऽत्र जगल्लोको धर्म्यध्यानादिकर्मभिः ।।१५।। मतो देधि विमुञ्च त्वं तला कुरु वृषाप्तये । धम्यंध्यानं स्तवाश्च कल्याण शतभाग्भव ।।१६।।
सुस्वप्नदर्शनावी प्रबुद्धा प्राक्तरां पुन: । प्रबोधितेति मापश्यत्प्रमोदकलितं जगन् ।।१७।। ततस्तदर्शनोद्भूततोषनिर्भर मानसा । उत्थाय शयनाच्छीघ्र धर्म्यध्यानं चकार सा ।।१८।। रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सूर्य की किरणों से सुदृष्टि उत्तमदृष्टि को हरने वाला रात्रि का अन्धकार नष्ट हो गया है ॥६॥ जिस प्रकार जिनेन्द्ररूपी सूर्य का उदय होने पर साधु, पृथियो पर भ्रमण करने लगते हैं और कुलिङ्गी तथा चोर नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्योदय होने पर साधुजन पृथ्वी पर विचरण करते हैं और चौर नष्ट हो गये हैं ॥१०॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के वचनरूपी किरणों से स्वर्ग और मोक्ष के.समीचीन-मार्ग मिस ई.पेने मगले हैं की हार लोक में गर्व की किरणों से उत्तम धर्म प्रादि के मार्ग दिखाई दे रहे हैं ॥११॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान का उदय होने पर कुलिङ्गी-मिथ्या तापस प्रादि निष्प्रभ हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्य का उदय होने पर ज्योतिषी वेवों के समूह पृथ्वी पर प्रकिश्चित्कर हो गये हैं अर्थात् पृथिवी पर उनका कुछ भी प्रकाश नहीं प्रसरित हो रहा है ।।१२।। जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान के वचनरूपी किरणों से भध्यजीवों के हृदयकमल खिल जाते है उसी प्रकार सूर्य किरणों के समूह से तालाब में कमल खिल रहे हैं ।।१३। इधर सरोवर में सारस पक्षी अव्यक्त मधुर शब्द कर रहे हैं तो इधर मुर्गे मनोहर शब्द कर रहे हैं तो इधर चकवा चकवियों के युगल सुन्दर शब्द कर रहे है ।।१४।। इस प्रकार इस प्रभातकाल में हर्ष से परिपूर्ण जगत् के जीव धर्म्य ध्यान आदि करते हुए विविध प्रकार के ग्रानन्द का अनुभव कर रहे हैं ।।१५। इसलिये हे देवि ! तुम शय्या छोड़ो और धर्म की प्राप्ति के लिये स्तवन आदि के द्वारा वयध्यान करो तथा सैकड़ों कल्याणों को प्राप्त होप्रो ।।१६।।
- उत्तम स्वप्नों के देखने से वह देवी यद्यपि बहुत पहले जाग गयी थी तथापि बन्दी. जनों के द्वारा पुनः ज गायी गयो । जागने पर उसने हर्ष से परिपूर्ण जगत् को देखा।।१७।। तदनन्तर हर्षपूर्ण जगत् के देखने से उत्पन्न संतोष से जिसका हृदय भरा हुनर है ऐमो उस १. मुर्वोवय २.मरसी मोकसंतरे व मसि-इनरोत्कर: इतिच्दः ५. वयान ८ प्रमोदकस्पिन क..।
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• एकादशम सर्ग
[ १२६
जिनेन्द्रस्मरणाश्च सामायिकस्तवादिभिः । सर्वमाङ्गल्यसिद्धयर्थ कृत्स्नाभ्युदयकारणम् ॥१६॥ ततः मुस्नाननेपध्यायः कृत्वा स्वाङ्गमण्डनम् । दिब्याम्बरधरा दक्षा कियत्स्वजनवेष्टिता ॥२०॥ सिंहासनाधिरूढस्य भर्तुरन्त जगाम सा ।सभायां सर्वस्वप्नानां फलार्थनिश्चयाप्तये ।।२।। भूपोऽप्युचितसम्मान ष्ट्वा संभाष्य संददौ । सस्या पर्वासनात्मीय प्रीत्या प्रीतिकर द्रुतम् ।।२२।। स्मेरमास्यं विधायोच्चः सुखासीना व्यजिज्ञपद । तस्मै नपासनस्थाय भत्रे दिव्यागरा सती ।।२।। देवाद्य यामिनाया। पश्चिमेरे सुखनिद्रिता । स्वपुण्येनाहमद्राक्षमिमान्स्वप्नांश्च षोडश ॥२४॥ गजेन्द्राधनलान्तान्सुमहान्युदयकारणान् ।विधाय मयां नाय तेषां फलं ममादिश 11२५।। प्रथाबोचन्नृपो दिव्यावधिजानबलान्मुदा । शृणु देवि प्रवक्ष्येऽहं स्वप्नानां फलमूजितम् ॥२६॥ गजेन्द्रदर्शनात ऽद्य महान्पुत्रो जगद्धितः । भविता विबुधाराध्यो विश्वराजशिरोमणिः ।।२।। समस्तभुवने ज्येष्ठो महावृषभदर्शनात् । जगत्यस्मिन्महाधर्मरथधौर्यप्रवर्तकः ॥२८॥ सिंहेनानन्तवीर्योऽसौ स्वकर्मगजघातकः ।दाम्ना सद्धर्मसज्जामतीर्थकर्ता सुखाकरः ॥२६॥ देवी ने शीघ्र ही शय्या से उठकर धर्म्यध्यान किया ॥१८॥ समस्त मङ्गलों की सिद्धि के लिये उसने जिनेन्द्र भगवान् के स्मरण आदि तथा सामायिक स्तधन प्रादि के द्वारा सर्व अभ्युक्य का कारण भूत धर्म्यध्यान किया था ॥१६।। तत्पश्चात् उत्तम स्नान और वेषभूषा आदि के द्वारा अपने शरीर अलंकृत कर जिसने सुन्दर वस्त्र धारण किये हैं ऐसी वह रानी कितने ही प्रास्मीयजनों से परिवृत्त हो समस्त स्वप्नों के फल का निश्चय करने के लिये सभा में सिंहासन पर पाल्तु पति के समीप गयी ।।२०-२१॥ राजा ने भी उसे देख कर योग्य सन्मान के साथ उससे संभाषण किया तपा शीघ्र ही प्रीतिपूर्वक प्रीति को उत्पन्न करने वाला अपना अर्धासन दिया ॥२२॥ उत्तम सुख से बैठी हुई पतिव्रता रानी ने मुखको मन्दहास्य से युक्त कर राजसिंहासन पर स्थित अपने पति के लिये मनोहर वाणी द्वारा मिवेदन किया ॥२३॥ हे देव ! प्राज सुख से सोयी हुई मैंने रात्रि के पिछले प्रहर में अपने पुण्योदय से मजराज को प्रादि लेकर अग्नि पर्यन्त महान अभ्युदय के कारण ये सोलह स्वप्न देखे हैं । हे नाथ ! मुझ पर क्या कर मेरे लिये उनका फल कहिये ॥२४-२५॥
तदनन्तर दिग्य प्रयधिज्ञान के बल से जानकर राजा ने हर्षपूर्वक कहा कि हे देवि ! सुनो, मैं स्वप्नों का उत्तम फल कहता हूँ ॥२८॥ प्राज गजराज के देखने से तेरे जगत् हितकारी, देवों के द्वारा प्राराधनीय और समस्त राजानों का शिरोमरिण महान पुत्र होगा ॥२७॥ महावृषभ के देखने से वह समस्त लोक में श्रेष्ठ होगा और इस जगत में धर्मरूपी महान रथ को प्रवत्ताने वाला होगा ॥२८॥ सिंह के देखने से वह अपने कमरूपी हाथियों ६. सत्रियहरे २, अन्ते ।
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१३० ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित - लक्षभ्याभिषेकमाप्तासौ मेवंग्रहरिविष्टरे ।क्षोरोदतोयकुम्भौधेः सर्वशक: सुवर्णज' ॥३०॥ पूर्णेन्दुना मनाहाती सशर्मामृतवृशिनी ।भ समाऽनित्तमोहन्ता स्वाङ्गभायोतिलावियत्। ३१। कुम्भाभ्यां सोऽत्र भोक्ता नवनिधीनां जिनेश्वरः । मत्स्ययुग्मेक्षणास स्थात् सुखी भोगनु देवजः ।।३।। सरसा लक्षण: पूर्णः सोऽष्टोत्तरसहस्रके: । हक्कंबल्यादिग्लानां रत्नाकरोऽत्र सोऽब्धिना ।३३।। सिंहासनेन साम्राज्यमवाप्स्यति जगस्त्रये स्वविमानेन ताशः स्वर्गादयतरिष्यति ॥३४।। नागेन्द्र भवनालोकात्सोऽवधिज्ञाननेत्रभाक् । दृग्ज्ञानादिगुणानां स पाकरो रत्नजतः ।। ३५।। कृत्स्नकर्मेन्धनानां स भस्मराशि करिष्यति । शुक्लध्यानाग्निना नूनं नि मज्वलनेक्षणात् ।।३६। सुरेभाकारमावाय भवत्यास्मप्रवेशनात् । त्वद्गर्भ पार्श्वतीर्थेशः स्वमाधास्यति निर्मल ।। ३७।। इति तेषां फलं श्रुत्वा दधे रोमाञ्चितं वषुः । हर्षाङ्क रेरिवाकीर्णं प्राप्तपुत्रेव सा तदा ।। ३८।। का घात करने वाला अनन्त बलशाली होगा। मालाओं के देखने से सम्यगधर्म और सम्यग्ज्ञान की प्राम्नाय को करने वाला तथा सुख की खान होगा ॥२६॥ लक्ष्मी के देखने से वह मेर के अग्रभाग में स्थित सिंहासन पर समस्त इन्द्रों द्वारा क्षीरसागर के जल से परि. पूर्ण सुवर्ण कलशों के समूह से अभिषेक को प्राप्त होगा ॥३०॥ पूर्णचन्द्रमा के देखने से वह मदमरूपी अमृत की दृष्टि से समस्त जीवों को प्राङ्गाविस करने वाला होगा । सूर्य के देखने से प्रज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाला तथा अपने शरीर की कान्ति से प्राकाश को प्रकाशित करने वाला होगा ॥३१॥ कलशयुगल के देखने से वह नौ निधियों का भोक्ता तीर्थकर होगा और मीनयुगल के देखने से वह मनुष्य तथा देवों के भोगों से सुखी होगा ॥३२॥ सरोवर के देखने से वह एक हजार पाठ लक्षणों से पूर्ण होगा तथा समुद्र के देखने से सम्यग्दर्शन तथा केवलज्ञान प्रादि रत्नों का सागर होगा ॥३३॥ सिंहासन के देखने से बह तीनों जगत् के साम्राज्य को प्राप्त होगा और स्वर्ग का विमान देखने से वह तीर्थकर, स्वर्ग से अवतीर्ण होगा ॥३४॥ नागेन्द्र का भवन देखने से वह प्रवधिज्ञानरूपी नेत्र का धारक होगा मोर रस्नराशि के देखने से वह वर्शन ज्ञान प्रादि गुणों की खान होगा ॥३५॥ नि म अग्नि के देखने से वह निश्चित ही शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा समस्त कर्मरूपी धन को भस्मराशि कर वेगा ॥३६॥ देव गज का प्राकार लेकर मुख में प्रवेश करने से सूचित होता है कि तुम्हारे निर्मल गर्भमें पार्श्वनाथ तीर्थकर अपने प्रापको धारण करेंगे ॥३७॥
___ इस प्रकार स्वप्नों का फल सुनकर उसने रोमाञ्चित शरीर को धारण किया । उस समय वह ऐसी जान पड़ती पी मानों उसने पुत्र को प्राप्त कर ही लिया था और हर्ष के अंकुरों से उसका शरीर व्याप्त हो गया था ॥३॥
१. कुम्भाय : स्व.।
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* एकावशाम सर्ग .
[ १३१ अथ सौधर्मनायः प्राह श्यादिदेवताः प्रति । जिनगावतारं स ज्ञात्वा धर्माय घमंधीः ।।३।। विश्वसेनयतेबाह्म याः सद्गर्भेऽवतरिष्यति ।श्रीपार्श्वनाथ एवाय तीर्थकर्ता जगद्गुरुः ।।४।। तस्या गत्वा शुधिद्रव्य भवन्त्यो गर्भशोधनम् । कुरुवं भक्तितः सेवां स्वं स्वं नियोगमाशु च।।१।। मूर्नादाय तदाज्ञा साः कृत्वा तद्गर्भशोधनम् । स्वर्जे: शुचिमहाद्रव्यस्तस्याः सेवां व्यधुस्तराम्।४२ श्रीही विश्व कीर्तिश्च बुद्धिलक्ष्मीरिमाः स्त्रियः । श्रियं लज्जा सुधैर्य न स्तुति बोधि सुसंभवम् ।।४।। तस्या अभ्यर्णवतिन्य मादधुः स्वान्गुणानिमान् । स्वभक्त्या परिचारिण्यो धर्महृष्टा वृषाप्तये ॥४४॥ निसर्गनिर्मला राशी ताभिः संस्कारिता पुन: । तगं राजति दिव्याला संस्कृतेधाग्निना मणिः।४५॥ पैशाखकृष्णपक्षस्य द्वितीयायां निशात्यये । विशास्त्रः सुलग्नादौ सुमुहूर्ते सुरेश्वरः ॥४६॥ अवतीर्णो दिवएव्युत्वा भुक्त्वा भोगान सुनिर्मले । राझ्या गर्भ निरोपम्ये शुद्धस्फाटिकषिभे ।।४।। तद्गर्मागमनं ज्ञात्वा स्वचिह्नावधिभिद्रुतम् । स्वस्ववाहनमारूढा: सकलत्राः सनिर्जसः ।।४।।
सवनन्तर धर्मबुद्धि सौधर्मेन्द्र ने यह जानकर कि धर्म के लिए तीर्थकर का गर्भावतरण होने वाला है, श्री प्रावि देवियों से कहा ॥३६॥ राजा विश्वसेन को बाह्मी देवी के प्रशस्त गर्भ में प्राज ही अगगुरु श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर प्रवतीर्ण होंगे इसलिये भाप लोग माकर पवित्र द्रव्यों द्वारा उनका गर्भशोधन करो, भक्ति से उनकी सेवा करो और शीघ्र ही अपना अपना नियोग पूरा करो ।।४०-४१।। श्री प्रादि देवियाँ शिर से सौधर्मेन्द्र की प्रामा को स्वीकृत कर तथा स्वर्ग में उत्पन्न होने वाले पवित्र महाद्रव्यों से गर्भशोषन कर माता की सेवा करने लगीं ॥४२॥ श्री देवी ने श्री को, ह्री देवी ने लम्मा को, सि देवी ने उसम पर्य को, कीतिदेवी ने स्तुति को, बुद्धि देवी ने बुद्धि को और लक्ष्मी देवी ने उत्सम वैभव को उत्पन्न किया था। इस प्रकार जिनमाता के समीप रहने वाली सपा अपनी भक्ति से उनको परिचर्या करने वाली इन देवाङ्गनामों ने धर्म से प्रसन्न हो धर्म की प्राप्ति के लिये जिनमाता में अपने इन गुणों को अच्छी तरह धारण किया था ।।४३-४४॥ रामी स्वभाव से ही निर्मल थी फिर उन देवियों के द्वारा संस्कारित की गयी थी प्रतः सुन्दर शरीर को धारण करने वाली यह रानी अग्नि के द्वारा संस्कारित मरिण के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥४५॥
बैशाख मास के कृष्णपक्ष सम्बन्धी-द्वितीया तिथि में विशाखा नक्षत्र, उत्तमलग्न मावि तथा शुभमुहूर्त के रहते हुए प्रातःकाल के समय वह इन्द्र भोग भोग कर स्वर्ग से व्युत हुमा तथा रानी के अत्यन्त निर्मल, निरुपम और शुद्ध स्फटिक के सहश गर्भ में प्रवत्तीर्ण हुमा ॥४६-४७।। अपने चिह्नों से उत्पन्न अवधिज्ञान के द्वारा पाश्र्व जिनेन्द्र का गर्भावत
र एवाथ २. स्वाँस्वनः ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित *
स्वाङ्गभूषादिदीप्त्यवतयन्तो नभोऽङ्गलम् । गीतवाद्यजयध्वानः पूरयन्तो दिशोऽखिलाः ॥४६॥ चतुणिकाय देवेशा ग्राजग्मुर्भू पमन्दिरे | गर्भकल्या निष्पत्यै सोत्सवा धर्मसिद्धये ॥५०॥ मृपाणं पुरीं खं च सुवीथीश्च तदाभराः । रुद्ध्वा तस्थुः परीवारैर्योषितः सुरसैन्यकाः ।। ५१ ।। जिन पित्रोदा चक्र: कल्याणाभिषवोत्सवम् । हेमकुम्मै महाभूत्या सुरेशा जिनभक्तिकाः || ५२ || त्रिःपरीत्य ततो नत्वा गर्भस्थं तीर्थनायकम् । जिनेन्द्रपितरो भक्त्या प्रपूज्यामरनायकाः ।।१३।। दिव्यभूषण वस्त्रार्थं दिक्कुमारी नियोज्य ते । शुश्रूषाय जिनाम्बायाः प्रययुः स्वं स्वमाश्रयम् । ५४ । काश्चिन्मङ्गलधारिण्यः काश्चित्ताम्बूलदायिकाः । काश्चिन्मज्जन पालिन्यस्तस्याश्चासन् सुराङ्गना: ५५ काश्चिन्महानसे 1 युक्ताः पादसंवाहने पराः । शय्याविरचने काश्चिच्चास्या श्रासनसंस्थितौ ।। ५६ ।। प्रसाधनविधौ काचित्स्पृशन्तो तन्मुखाम्बुजम् । सुगन्धद्रव्यपारिस्था धाविव बभौ मुदा ||५७|| | विरेजे कल्पवल्लीय शाखास्रोद्भिनभूषणा ।। ५८ ।। काचिदाभरणान्यस्मै ददती मृदुपामिना
र जानकर, जो शीघ्र ही अपने अपने वाहनों पर श्रारूढ़ हैं। स्त्रियों से सहित हैं, देवों से परिवृत हैं, अपने शरीर तथा श्राभूषण प्रादि की कान्ति के समूह से गगनाङ्गण को प्रकाशित कर रहे हैं तथा गीत, बाबित्र तथा जय जय की ध्वनि से समस्त दिशाओं को पूर्ण कर रहे हैं ऐसे, उत्सवों से युक्त चारों निकायों के इन्द्र धर्मसिद्धि के लिये राजमहल में श्रा पहुंचे ।।४६ - ५० ।। उस समय देव, देवाङ्गनाएं और देवों के सैनिक अपने घरों से राजाङ्गरण, नगरी, प्राकाश और गलियों को रोककर स्थित थे अर्थात् सब स्थानों पर देव ही देव दृष्टिगोचर होते थे ।। ५१ ।। जिनभक्त इन्द्रों ने हर्षपूर्वक बड़े वैभव से जिनेन्द्र भगयात् के माता पिता का सुवर्ण कलशों के द्वारा गर्भकल्याणक सम्बन्धी अभिषेकोत्सव किया ।। ५२ ।। तदनन्तर इम्मों ने गर्भस्थित तीर्थंकर की तीन प्रवक्षिरणाए देकर उन्हें नमस्कार किया। दिव्य प्रासूषरण तथा वस्त्र आदि से उनके माता पिता की भक्तिपूर्वक पूजा की तथा जिनमाता की सेवा में दिवकुमारी देवियों को नियुक्त किया । पश्चात् यह सब कर चुकने के बाद वे अपने अपने स्थान पर चले गये ।।५३-५४।।
कोई बेवाङ्गनाएं जिनमाता के प्रागे दर्पण प्रावि माङ्गलिक द्रव्य धारण करती थीं, कोई पान देतीं थीं और कोई स्नान कराती थीं । ५५। कोई रसोई घर में नियुक्त रहती थीं, कोई पैर दाबने में तत्पर थीं, कोई शय्या बिछाने में मग्न थीं और कोई ग्रासनों को अच्छी तरह रखने में लीन रहती थीं ।। ४६ ।। प्रसाधन-सजावट के समय उसके मुखकमल का स्पर्श करती तथा सुगन्धित द्रव्य को हाथ में लिए हुए कोई देवी हर्ष से धुलाने वाली के समान सुशोभित हो रही थी ।। ५७ ।। कोमल हाथ से माता के लिये श्राभूषण देती हुई
१. भोजनपाकशालायाम् ।
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* एकादशम सगँ *
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बासः क्षौम त्रजो रम्या बहुधा भोगसंपदः । तस्मै समर्पयामासुः काश्चित्कल्पलता इव ।। ५६ ।। भङ्गरक्षाविधी काश्चिदुत्खाता सिकराम्बुजाः । तदभ्यर्णे बभुर्दभ्यः शम्या' वा खेऽतिनिर्मले ।। ६० ।। पुष्प रेणुभिराकी सम्ममार्जुर्नृपाङ्गरणम् । काश्चिदन्याः प्रकुर्वन्ति चन्दनच्छटयोक्षितम् ।। ६१ । महीमाद्रशुकैः काचिशिर्भमाजुर्मुदा पराः । कुर्वते वलिविन्यासं रत्नचूर्णेर्मनोहरम् ।।६२।। कल्पवृक्ष जपुष्पौधेरन्या उपहरन्ति तम् । काश्चित्खे निशि सीधाग्रे कुर्वति मणिदीपकान् ६३ । नभोभागे स्थिता: काश्चिदनालक्षितमूर्तयः । रक्ष्यतां यत्नतो राज्ञीत्युच्चेगिरमुदाहरन् ।। ६४ ।। जल कोड। दिभिस्ताश्च
कदाचिद्वाद्यवादनैः । कथागोष्ठीभिरन्येद्युर्गीतगानं मनोहरैः ।। ६५ ।। रम्यविलासहास्य जल्पनैः । विचित्रवेषधारिण्यो देव्यस्तस्मै धृति दधुः ||६६॥ शयने यत्र कुत्रचित् । कुर्वन्ति विविध सेवां सर्वत्र ताः सुराङ्गनाः ॥६७॥ रेजे जिनाम्बा परिचर्यया । उपनीता जगल्लक्ष्मीरिवकध्यं कथञ्चन ।। ६८|| कोई देवी उस कल्पलता के समान सुशोभित हो रही थी जिसकी शाखा के अग्रभाग में आभूषण प्रकट हुए हैं ।। ५६ ।। कोई देवियां कल्पलतानों के समान उसके लिये रेशमी वस्त्र मनोहर मालाएं और प्रनेक प्रकार को भोग सम्पदाएं समर्पित कर रही थीं ।। ५६ ।। श्रङ्गरक्षा के कार्य में जिन्होंने अपने करकमलों से सलवार उठा थी ऐसी कितनी ही afari उसके निकट ऐसी सुशोभित हो रही थीं जैसी अत्यन्त निर्मल प्राकाश में बिजलियां सुशोभित होती हैं ।। ६० ।। कोई देवियां फूलों की पराग से व्याप्त राजाङ्गण को अच्छी तरह झाड़ती थीं और कोई उसे चन्दन से सींचती थीं ॥ ६१ ॥ कोई हर्वपूर्वक मीले कपड़ों से पृथिवी की अच्छी तरह साफ करती थीं और कोई रत्नों के चूर्ण से उस पर मनोहर वेलबूटे बनाती थीं ।। ६२ ।। कोई कल्पवृक्ष उत्पन्न फूलों के समूह से उन वेलबूटों पर उपहार चढ़ाती थीं और कोई रात के समय प्रकाश तथा महल के अग्रभाग पर मणिमय दीपक प्रज्वलित करती थीं ।। ६३ ।। जिनका शरीर नहीं दिख रहा था ऐसी feart ही देवियां श्राकाश में स्थित होकर उच्चस्वर से यह शब्द कह रही थीं कि रानी की यत्न से रक्षा की जाय ।। ६४ ।। विचित्र वेषों को धारण करने वाली वे देवियां कभी जलक्रीडा श्रादि के द्वारा, कभी बाजों के बजाने से, कभी कथा की गोष्ठियों से, कभी मनोहर गीतों गाने से, कभी रमणीय नृत्यों से और कभी विलासपूर्ण हास्य विनोद से उसे संतोष प्रदान कर रही थीं ।। ६५-६६ ।। ये देवियां उसके जहां कहीं जाने, ठहरने और सोने आदि के समय उसकी सब जगह विविध प्रकार को सेवा करती थीं ||६७।। इस प्रकार उन देवियों के द्वारा की हुई सेवा से जिनमाता ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों
१. विद्युत इव ।
अन्यदा नर्तन गमने वासने तस्याः इति तत्कृतथा
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* श्री पार्श्वनाथ चरित *
सादरं दिवकुमारीभिः सा धन्या पर्युपासिता । तत्प्रभावेरिवाविष्टः संगमार परां श्रियम् ||६६ ॥ अन्तर्वत्नी मथाभ्यर्णे नवमे 1 मासि संभ्रमम् । दिव्यार्थ काव्यगोष्ठीभिर्देव्यस्तामित्यरञ्जयन् ॥७०॥ निगूढार्थक्रियापादविन्दुमात्राक्ष रच्युतैः | श्लोकं रम्यैश्च तां देव्यो रमयामासुर तैः ॥ १७१ ॥ का भवत्या समा नारी जगत्त्रयसुरचिता । या सूते लीयंकर्तारं सा गरिष्ठा न चापरा ।।७२। के शुरा ये जयन्त्यत्र कषायाश्व दुर्जयान् । पञ्चाक्षसुभटान् घोरान परीषहानचापरे ।। ७३ ।। के कातरा जगत्यस्मिन् नश्यन्ति वृत्तसङ्गरे । परीषहरूषायासंजिता ये ते परे न ज ।। ७४ । । के सत्पुरुषा ये सत्तपोवृत्तमादिकात् । स्वीकृत्म नैव मुञ्चन्ति जातु प्राणात्ययेऽपि ते ॥७५॥ केऽत्र कापुरुषा धृत्वा तपो वा चरणादि ये परीषभयान्मुञ्चन्ति तेऽन्ये न भवन्ति च ।। ७६ ।।
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किसी तरह एकरूपता को प्राप्त जगत् की लक्ष्मी ही हो ।। ६८ ।। दिक्कुमारी देथियों के द्वारा प्रादरपूर्वक जिसकी सेवा की जा रही थी ऐसी वह भाग्यशालिनी माता अपने आप में प्रविष्ट हुए के समान दिखने वाले उन देवियों के प्रभाव से अत्यधिक शोभा को धारण कर रही थी ।। ६६ ।।
अथानन्तर नवम मास के निकट प्राने पर वे देवियां गर्भिणी जिन माता को दिव्य अर्थ से युक्त काव्यगोष्ठियों के द्वारा हर्षपूर्वक इस प्रकार प्रसन्न करती थीं ॥७०॥ वे वैवियां निगूढार्थ, निगूढक्रिया, निगूढपाद, बिन्दुष्युत, मात्राच्युत, अक्षरभ्युत, तथा अन्य आश्चर्यकारक श्लोकों के द्वारा उसे प्रानन्वित करती थीं ।।७१|| कभी प्रश्नोत्तरावली के रूप में वे देवियां जिनमाता से प्रश्न करती थीं कि तीनों जगत् के देवों से पूजित प्रापके समान दूसरी स्त्री कौन है ? इस प्रश्न का माता उत्तर देती थी कि जो स्त्री तीर्थकर को उत्पन्न करती है वही श्रेष्ठ स्त्री मेरे समान है अन्य नहीं ।। ७२ ।। कभी देवियां पूछती थीं कि शूरवीर कौन है ? माता उत्तर बेली थो कि जो इस जगत् में बुर्जेय कषायरूपी शत्रुम्रों को, पञ्चेन्द्रिय रूप सुभटों को तथा घोर परिषहों को जीतते हैं वे ही शूरवीर हैं, अन्य नहीं ||७३ || कभी देवियों पूछती थीं कि इस जगत् में कायर कौन है ? माता उत्तर देती थी कि जो चारित्ररूपी युद्ध में परिषह, कषाय और इन्द्रियों के द्वारा पराजित होकर नष्ट हो जाते हैं वे ही कायर हैं। अन्य लोग नहीं ||७४ || कभी देवियां प्रश्न करती थीं कि इस लोक में सत्पुरुष कौन है ? माता उत्तर देती थीं कि जो उत्तम तप, चारित्र तथा यम, इन्द्रिय-दमन श्रादि को स्वीकृत कर प्राणघात होने पर भी कभी उन्हें छोड़ते नहीं हैं वे ही सत्पुरुष हैं ||७५ || कभी वेवियां पूछती थीं कि इस जगत् में कापुरुष कौन हैं ? माता उत्तर
९. गभिशीम् ।
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के विद्वांसोऽत्र ये ज्ञात्वागमं पापं चरन्ति न । दुराचारं च दुर्मागं ते विदः स्युः शठाः परे ॥७७॥ के मूर्खा ये परिशाय ज्ञानं मुञ्चन्ति जातु न । विषयासक्तिमेनश्च ते जडाः स्युः परे न च ॥ ७८ ॥ के धन्या यौवनस्था में प्राप्य चत्र्यादिजां श्रियम् । श्यजन्ति तृणवद्धन्यास्त एवान्ये न सन्स्थहो ।। ७६ ।। seमा विषयासक्ति हन्तु जातु क्षमा न ये । दारिद्रयोपहतास्तेऽत्राधमा ज्ञेया न चापरे ।। ८० hse निन्द्याः सतां मध्ये कुर्वन्तो निन्द्यकर्म ये । परश्रीरत्र्यादिजं श्वभ्रकारणं ते जगत्त्रये ।। ८१ ।। स्तुत्याः केऽत्र गृहस्था ये सिद्ध वा मुनयोऽनिशम् । सत्कर्माण्याचरन्त्येव स्वयोग्यानि त एव हि ।। ८२|| कस्माद्भूयोऽय कर्तव्यः श्रेयान्पापिजनाश्रयात् । व्रतभङ्गादुराचारान्मिथ्यात्वादेनं चान्यतः ॥ ८३॥ विद्भिः किं स्वरित कार्यं छेदं संसारसन्ततेः । पापवृक्षस्य धर्मादि हितं पथ्यं न चापरम् ॥८४॥
वेती थीं कि जो तपश्चरण तथा चारित्र को स्वीकृत कर परिषह के भय से छोड़ देते हैं वे ही कापुरुष हैं अन्य नहीं हैं ||७६ || कभी देवियां पूछतों कि इस जगत् में विद्वान कौन हैं ? माता उत्तर देती थीं कि जो ग्रागम को जानकर पाप का आचरण नहीं करते हैं, दुराचार और दुर्मार्ग का सेवन नहीं करते हैं वे ही विद्वान हैं अन्य लोग मूर्ख हैं ।।७७|| कभी देवियां पूछती थीं कि मूर्ख कौन है ? माता उत्तर देती थीं कि जो ज्ञान को जानकर भी कभी विषयासक्ति और पाप को नहीं छोड़ते हैं वे सूर्ख हैं अन्य नहीं ||७८ ।। कभी देवियां पूछती थीं कि धन्य कौन हैं ? माता उत्तर देती थीं कि जो युवावस्था में स्थित होकर भी ahan प्रादि की लक्ष्मी पाकर उसे तृरण के समान छोड़ देते हैं वे ही धन्य हैं अन्य नहीं ||७|| कभी देवियां पूछती थीं कि नोच कौन हैं ? माता उत्तर देती थीं कि जो विषयासक्ति को नष्ट करने के लिये कभी समर्थ नहीं हैं दरिद्रता से पीडित रहने वाले वे ही मनुष्य नीच जानने के योग्य हैं अन्य नहीं ||८०|| कभी देवियां पूछती थीं इस जगत् में निन्दनीय कौन हैं ? माता उत्तर बेती थीं कि जो सज्जनों के बीच परलक्ष्मीहरण तथा परस्त्रीसेवन प्रावि नरक के कारणभूत निन्द्य कर्म करते हैं ये ही तीनों जगत में निन्दनीय हैं। ॥८१॥ कभी देवियां पूछती थीं कि इस जगत् में स्तुत्य, स्तुति के योग्य कौन हैं ? माता उत्तर देती थीं कि जो गृहस्थ प्रथवा मुनि निरन्तर अपने योग्य सत्कर्मोंों का श्राचरण करते हैं वे ही स्तुत्य हैं ॥ ८२॥ कभी देवियां पूछती थीं कि इस लोक में किससे भय करना श्रेष्ठ है ? माता उत्तर देती थीं कि पापी जनों के प्राश्रय से, व्रतभङ्ग से, दुराचार से और मिथ्यात्व भावि से भय करना श्रेष्ठ है, प्रम्य से नहीं ।। ६३ ।।
कभी देवियां पूछती थीं कि विद्वानों को शीघ्र ही क्या करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि संसार की सन्तति और पापरूपी वृक्ष का छेदन शीघ्र ही करना चाहिये । इसी प्रकार धर्म आदि हितकारक कार्य शीघ्र करना चाहिये अन्य नहीं || ८४|| कभी
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* श्री पार्श्वनाथ चरित * उद्वेगः क्वात्र कर्तव्यः प्राक्तने निन्द्य कर्मणि । अयोग्याचरणे पापे कुसने संसृता विधौ ।।८।। र ति: क्वात्र विधेया सद्ध्यानाध्ययनकर्मसु । धर्म रत्नत्रये मुक्तिनायाँ गुर्वादिसेवने ।।८६॥ कर्तव्या क्वारतिदक्षरिन्द्रियादिसेवने । कुमार्गे कुत्सिताचारे कुसङ्ग च भवादिषु ।।८।। क्वात्र क्रोधोऽप्यनुष्ठेयो दुःकारातिनिर्जये । हनने मदनाक्षाणां मोहरागादिशत्रुषु 11८८।। प्रादेयः क्वात्र लोभो हि तपोध्यानश्रुतादिषु । मोक्षसौख्ये सुधर्मादी नचान्यत्राक्षशमणि ।।६।। संसोषः क्व बुधैः कार्यों भोजने शयने शुभे । विषयादिकसेवायां न च दानवृषादिषु ॥१०॥ कि श्लाघ्यं तुच्छद्रव्येऽपि पात्रदानमने कमाः । निःपापाचरणं यच्च तपो बाल्येऽतिदुःकरम् ।।१।। किमनयं सतां लोके रत्नवितयसेवनम् । जिनधर्म सदाचारं सद्गुरोः पर्युपासनम् ॥१२॥ का श्रेष्ठा गतिरत्रैव यामीहन्ते मुनीश्वराः । इन्द्रादयो निरौपम्या नित्या सा भुवनत्रये ।।६३|| देवियां पूछती यों कि इस जगत् में उग किस में करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि पहले किये हुए निन्हाकार्य में, अयोग्याचरण में, पाप में, कुसङ्गति में, संसार में तथा कर्म में उद्वेग करना चाहिये ॥६५॥ कभी देवियां पूछती थी कि यहां प्रीति किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि प्रशस्त ध्यान और अध्ययन में, रत्नत्रयरूप धर्म में, मुक्तिरूपी स्त्री में तथा गुरु प्रावि की सेवा में प्रीति करना चाहिये ॥८६॥ कभी देवियां प्रश्न करती थीं कि धतुर मनुष्यों को अप्रीति किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि इन्द्रियों के विषय प्रादि के सेवन में, कुमार्ग में, खोटे आचरण में, कुसंगति में और शरीर प्रादि में अप्रीति करना चाहिये ।।८७॥ कभी देवियां पूछती थीं कि यहां क्रोध भी किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि दुष्कर्म रूपी शत्रुओं को जीतने में, काम तथा इन्द्रियों के घात करने में तथा मोह और रागादि शत्रुओं में क्रोध भी करना चाहिए 1॥ कभी देवियां पूछती थीं कि यहां लोभ किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थी कि तप, ध्यान, और शास्त्र आदि में, मोक्ष सुख में और उत्तम धर्म आदि में लोभ करना चाहिये अन्य इन्द्रिय सुख में नहीं । कभी देवियां पूछती थीं कि विद्वानों को संतोष किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि भोजन में, शयन में, शुभ कार्य में, और विषयाविक के सेवम में संतोष करना चाहिये, दान धर्म प्रादि में नहीं ॥६॥
___ कभी देवियां पूछतो थों कि प्रशंसनीय क्या है ? माता उत्तर देती थीं कि द्रव्य के अल्प होने पर भी अनेक वार पात्रदान देना, निष्पाप आचरण करना और बाल्य अवस्था में भी प्रत्यन्त कठिन तप करना प्रशसनीय है ।।११।। कभी देवियां पूछती थीं कि लोक में सत्पुरुषों का श्रेष्ठ कार्य क्या है ? माता उत्तर देती थी कि रत्नत्रय का सेवन, जैनधर्म, सदाचार और सद्गुरु की उपासना श्रेष्ठ कार्य है ॥२॥ कभी देवियों पूछती थीं कि इस
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* एकादशम हो -
[ १३७ कि कुत्यं सुजनैरत्र धर्मदानादिपूजनम् । स्वकुलाचारनिःपापाचरणं हिसमात्मनः ।।१४।। किमकृत्यं सतां लोके येनाकीयंघसंचयम् । महद्द खमिहामुत्र जायतेऽकृत्यमेव तत् ॥६५॥ क्वात्र मैत्री विधेया च सर्वसत्त्वेषु सज्जनः । एकेन्द्रियाद्यवस्थाप्राप्तेषु नित्यं दयाप्तये ।।६६11 पवं कर्तव्यः प्रमोदोऽत्र चित्तादिशालिषु । मुमृक्षुषु सदा कार्यों गुणवत्सु तपस्विषु ।।७।। करुणा कात्र कर्तव्या रोगक्ले शाद्यशर्मभिः । पीडितेषु महादुःखाब्धिमग्नेषु व जन्तुषु ।।१८।। माध्यस्थं क्वाप्यनुष्ठेयं विपरीतेषु पापिषु । तीव्रमिथ्यात्वकोपादिग्रस्तेषु दुर्जनेषु च ।।६।। क: शत्रुर्विषयो लोके घमं दानं तपो हितम् । दीक्षादिग्रहणं पुसा निषेधयति चैव सः ।।१०॥ को बन्धुः परमो नृ णां तपो दानं हितं वृषम् । बलाद्यः कारयत्यत्र वृत्तादिग्रहणं च सः ॥१.१।।
जगत् में श्रेष्ठ गति क्या है ? माता उत्तर देती थीं कि मुनिराज प्रौर इन्द्रादिक जिसकी इच्छा करते हैं, जो निरुपम है तथा नित्य है वही सिद्धगति तीनों लोकों में श्रेष्ठ है ।।१३॥ कभी देवियां पूछती थों यहां सज्जनों को क्या करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि धर्मवानाविक, पूजन, अपने कुलाचार का निर्दोष प्राचरण और प्रास्मा का हित करना चाहिये ॥६४॥ कभी वेवियां पूछती थीं कि लोक में सत्पुरुषों को न करने योग्य क्या है ? माता उत्तर देती थी कि जिससे अकीर्ति और पाप का संचय होता है, तथा इस लोक और परलोक में बहुत भारी दुःख होता है वही कार्य नहीं करने योग्य है ॥६५॥ कभी देवियां पूछती थीं यहां मित्रता किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि सज्जनों को क्या की प्राप्ति के लिये एकेन्द्रियादि अवस्था को प्राप्त हुए सभी जीवों पर निरन्तर मित्रता करना चाहिये ॥६६।। कभी देवियां पूछती थी कि यहां प्रमोदभाव किस पर करना चाहिये? माता उत्तर देती थीं कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्रादि से सुशोभित मोक्षाभिलाषी जीवों पर तथा गुणवान तपस्विजनों पर सदा प्रमोद भाव करना चाहिये ॥१७॥ कभी देवियां प्रश्न करती थीं कि यहां करुणा किस पर करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि रोग क्लेश प्रावि दुःखों से पीडित तथा महादुःन रूपी सागर में निमग्न जीवों पर करुणा करना चाहिये ॥६॥ कभी देवियां पूछती थीं कि माध्यस्थ्यभाव किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि विपरीत, पापी, तीन मिथ्यात्व तथा कोषादि से ग्रस्त बुर्जनों में माध्यस्थ्यभाव करना चाहिये ॥६६ कभी देवियां पूछती थीं कि लोक में शत्रु कौन है ? माता उत्तर देती थीं कि जो पुरुषों के लिये धर्म, वान, तप, हित, तथा दीक्षा आदि ग्रहण करने का निषेध करता है वही शत्रु है ॥१०॥ कभी देवियां पूछती पी कि मनुष्यों का उत्कृष्ट बन्धु कौन है ? माता उत्तर देती थीं कि जो बलपूर्वक तप, दान, हित, धर्म और चारित्र प्रादि को ग्रहण कराता है वही उत्कृष्ट अन्धु है ॥१०१॥ कभी
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* श्री पार्श्वनाथ चरित - कि संबलं परत्रात्र तपोवृत्तयमादिभिः । यत्कृतं दानपूजाधधर्मपृपयादिकं च तत् ।।१०२।। को विवेकी महांल्लोंके बिचारं वेत्ति योनिशम् । देवादेवेघधर्मादो पात्रापात्रे श्रुताश्रुते ।। १.३॥ एयगने का हातमायबा मुभा निगुढा बिबिक्ता या सा कस्येह जगद्धिता ।१०४।
प्रहेलिका नित्यनार्या सुरक्तोऽपि कामुकोऽकामुको महान् । सकामोऽप्यतिनि:कामो योऽसौ कोऽत्र नुतोनुतः १०५
प्रहेलिका चित्त हर हरीणां च त्वद्गर्भण जगत्सताम् । फरणाफणीन्द्रभूस्वर्गेऽयंतां देवि गुणात्मिके ! १०६।
क्रिपागोपितम् वेधियां पूछती थीं कि इस भव तथा परभव में संवल क्या है ? माता उत्तर देती थीं कि तप चारित्र इन्द्रियवमन तथा दान पूजा आदि के द्वारा जो धर्म पुण्य प्रादिक किया जाता है वही संबल है ॥१०२।। कभी देवियां पूछती थीं कि लोक में महान विवेको कौन है ? माता उत्तर वेती थीं कि जो निरन्तर देव प्रदेव, पाप पुण्य, पात्र अपात्र और शास्त्र अशास्त्र का विवार जानता है वही महान विवेको है ।।१०३॥
प्रहेलिका पूछने वाली किसी देवी ने पूछा कि जो एक होकर भी अनेक है, अक्षर रूप होकर भी अनक्षर है, शुभ है, निगूढार्थ है, पवित्र है और जगत् हितकारी है ऐसी भाषा इस जगत् में किसकी है ? माता ने उत्तर दिया-'फस्य'-क अर्थात् जिनेन्द्र भगवान को ।।१०४।
प्रहेलिका किसी अन्य देवी ने पूछा कि जो नित्य नारी मुक्तिरूपी स्त्री में सुरक्त तथा कामुक होकर भी महान अकामुक है, सकाम होकर भी अत्यन्त निष्काम है और नुत स्तुत होकर भी अनुत प्रस्तुत है ऐसा इस जगत् में कौन है ? माता ने उत्तर दिया कः अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् ।।१०५॥
प्रहेलिका क्रियागुप्ति का प्रश्न करने वाली किसी देवी ने कहा कि-हे गुरणों से तन्मय रहने वाली देवि ! तुम अपने गर्भ से हर हरि तथा जगत् के सत्पुरुषों का चित्त (?) यहां 'हर' किया गुप्त है अतः उसे लेकर श्लोक का अर्थ होता है-हे गुणात्मिके देवि, तुम अपने गर्भ के द्वारा हरि-इन्द्र तथा जगत के अन्य सत्पुरुषों के चित्त को हर-हरण करो। तथा फणों से सहित फरपीन्द्र-नागेन्द्र की भूमि-प्रधोलोक और स्वर्ग में तुम प्रर्यता-पूज्यता को (?) यहाँ 'फरण' क्रिया गुप्त है अतः उसे लेकर श्लोक का अर्थ होता है कि तुम अाफगोन्द्र भू स्वर्गे-अधोलोक से लेकर स्वर्ग तक अय॑ता-पूज्यता को फरण प्राप्त होनो।१०६।
( क्रियागुप्ति)
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* एकादशम सर्ग -
[ १३९ जगद्धितो जगनाथ: सुराधीशो गुणाकरः । त्रिजगज्जनताराध्यः कुर्यात्नस्ते हितं सुतः ।।१७।।
निरोष्ठयम् तीर्थकर्ताघसंहर्ता दाता दानं जगत्सप्ताम् । ईहादयोऽत्र निरीहो यो जिनो बयतु सोऽसकृद १०८
निरोष्ठयम् इत्यादिप्रश्नमालानां दुःकराणां सुखाप्तये । प्रयुक्तानां सुरस्त्रीभिः सा' प्रोत्तरं ददौ सती । १०६। जानाना सकलायं देवी जगत्त्रयपण्डिता। विबोधाधीशगर्भस्थमाहात्म्यात्सविशेषतः ॥११॥ धृतिस्तस्या निसर्गेण परिज्ञानेऽभवत्तसम् । प्रज्ञामयं सुचिन्मूर्तिमुदहन्त्या निजोदरे ॥१११।। सा' स्वकीये सुगर्भेऽन्तर्गतं तेजोमयं सुतम् ! दधाना|शुगर्भव प्राची रेजेऽतिरूपिणी ।।११।। नररत्नेन तेनासो गर्भस्थेन परां द्युतिम् । बभार च श्रियं श्रेष्ठां रत्नगर्भव भूमिका ।।११३॥ स जनयुदरस्थोऽपि मास्या: पीडामजीप्रनत् । दर्पणे प्रतिबिम्बोऽत्र याति कि विक्रिया क्वचित् ११५
निरोष्ठय काध्य की रचना करती हुई किसी देवी ने कहा कि जो जगत् का हितकारी है, जगन्नाथ है, देवों का स्वामी है, गुरणों की खान है और तीनों जगत् की जनता के द्वारा पाराघनीय है ऐसा तुम्हारा पुत्र हमारा हित करे ॥१०७॥ निरोष्ठय
पुनः निरोष्ठच कविता की रचना करती हुई किसी देवी ने कहा कि जो तीर्थकर्ता है, पाप संहर्ता है, जगत् के सत्पुरुषों को दान का दाता है, और ईहा-उधम-पुरुषार्थ से सहित होकर भी निरीह-उद्यम से रहित है ( पक्ष में इच्छा से रहित है ) वह जिनेन्द्र अनेकवार जयवंत हो ॥१०॥
निरोष्ठ्य इस प्रकार सुख प्राप्ति के लिये देवाङ्गनामों के द्वारा पूछे गये अतिशय कठिन प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर वह शीलवती माता देती थी॥१०६।। तीनों जगत् में निपुण देवी पहले ही समस्त पदार्थों को जानती थी परन्तु उस समय गर्भ में स्थित तीन ज्ञान के स्वामी जिन बालक की महिमा के कारण विशेष रूप से जानने लगी थी ॥११०। बुद्धि से तन्मय, चतन्य मूति जिन बालक को अपने उदर में धारण करने वाली उस जिन माता को अनेक पदार्थो के जानने में स्वभाव से ही संतोष होता था ॥१११॥ अपने उत्कृष्ट गर्भ में अन्तर्गत तेजोमय पुत्र को धारण करती हुई अतिशय रूपवती जिनमाता सूर्यरश्मियों को गर्भ में धारण करने वाली पूर्व दिशा के समान सुशोभित हो रही थी॥११२॥ गर्भ स्थित उस नररत्न से वह माता रत्नगर्भा भूमि के समान उत्कृष्ट कान्ति तथा श्रेष्ठ शोभा को धारण कर रही थी ॥११३।। माता के उदर में स्थित होने पर भी वह जिन बालक माता को पीडित नहीं कर रहा था सो ठोक ही है क्योंकि यहां दर्पण में पड़ा प्रतिबिम्ब १. सा युक्त्या प्रोतां ददौ ख. २. सा स्वकीयगर्भान्तर्गत तेजोमय सुतम् .
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१४० ।
* श्री पार्श्वनाथ परित. त्रिवली भड- गुरं तस्यास्तथैवास्थातनूदरम् । तथापि ववृधे गर्भः प्रभावं तज्जिनेशिनः ।।११।। शकरण प्रहितेन्द्राणी सिषेवे तां परां सतीम् । प्रप्स रोभिः समं भक्त्या निगुढं जिनभक्तये ।११६॥ किमत्र बहुनोक्तेन सैका श्लाघ्या जगत्त्रये । या पत्युर्जगतां स्रष्ट्री बभूव भुवनाम्बिका ॥११॥ पुनश्चकार रंदोऽत्र नवमासान्नृपालये । रत्नस्वर्णमयं पञ्चाश्चर्य भूत्या शुभाप्तये ।। ११८।। नवमे मासि संपूर्णे पौषे मासि वृषोदयात् । कृष्ण रक्षेऽनिले योगे शुभे ोकादशीतिथी ।।११।। शुभलग्नमुहूत्तदिौ सुषुवेऽतिसुखेन सा । सती देवकुमारीभिः सेव्या तीर्थकर सुतम् ।।१२०।। ज्ञानत्रयपरं धीरं जगन्नाथं जगद्गुरुम् । धर्मतीर्थस्य कर्तारं जगदाश्चर्यकारकम् ॥१२१।।
मालिनी इति सुकृतविमाकाद्विश्वतत्त्वैकदीपो। नृसुरपतिभिरुच्चैरचितो वन्दितश्च । शिवसुख मिह भोक्तु कर्म हन्तु सुगर्भा-दसमगुण निधानः प्रादुरासी जिनेन्द्रः ।।१२२।।
धर्माद्दिव्यसुखामृतं निरुपम भुक्त्वा नुदेवोद्भव,
___ जातस्तीर्थकरो जगत्त्रयगुरुविश्वकचूडामणिः । क्या कहीं विकार को प्राप्त होता है ? अर्थात नहीं ॥११४॥ त्रिवलियों से सुन्दर उसका उबर यद्यपि पहले के ही समान कृश था तथापि गर्भ बढ़ रहा था। वास्तव में यह जिनेन्द्र का ही प्रभाव था ।।११५॥ इन्द्र के द्वारा भेजी हुई इन्द्राणी अप्सराओं के साथ गुप्तरूप से जिनभक्ति के लिये भक्तिपूर्वक उस उत्कृष्ट सती की सेवा करती थी ॥११६।। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है? जो त्रिलोकीनाथ की जन्मदात्री होने से जगन्माता थी ऐसी बही एक तीनों जगत में श्लाघनीय थी ।।११।।
कुबेर ने पुनः नौ माह तक कल्याण की प्राप्ति के लिये वैभव पूर्वक राजभवन में रत्म और स्वर्णमय पञ्चाश्चर्य किये ॥११॥ नवम मास के पूर्ण होने पर देवकुमारियों के द्वारा सेवनीय उस सती ने पुण्योदय से पौष कृष्ण एकादशी के दिन अनिल नामक शुभयोग के रहते हुए शुभलग्न और शुभ मुहर्त में सुख से तीर्थकर पुत्र को उत्पन्न किया ॥११६--१२०॥ वह तीर्थकर पुत्र तीन ज्ञान का धारक था, जगत् का स्वामी था, जगद्गुर था, धर्मतीर्थ का कर्ता था और जगत में प्राश्चर्य उत्पन्न करने वाला था ॥१२१॥
इस प्रकार पुण्योदय से जो समस्त तस्धों को प्रकाशित करने के लिये प्रतितीय बीपक थे, मनुजेन्द्र और देवेन्द्रों के द्वारा पूजित तथा नमस्कृत थे ऐसे अनुपम गुणों के भाण्डार जिनेन्द्र, मोक्षसुख का उपभोग करने तथा कर्मों को नष्ट करने के लिये उसम गर्भ से प्रकट हुए ॥१२२॥ पार्श्वनाथ का जीव, धर्म के प्रभाव से मनुष्य और देवगति में होने
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* एकादशम सर्ग *
भोक्तु मुक्तिवराङ्गनां बुषजना मस्वेति यत्नात्परं,
[ १४१
कुर्वीवं सुखसिद्धयेऽप्यनुदिनं धर्मं जिनेन्द्रोदितम् ।। १२३ ।।
लगभग
पार्थो विघ्नोषहन्ता सकलगुण निर्धािविश्वलोकैकभर्ता,
हन्ता दुःकर्मशत्रोः शिव सुखजनकः सर्वधर्मे कहेतुः 1
लोकाप्रज्ञः शरण्यो भवरिपुकुभयाल्लोकनार्थः स्तुतोऽर्यो,
वन्यः पूज्यो मया संहरतु स चरणे विध्नजालं सतां मे ।। १२४ ।। इति भट्टारक श्री सकलकीति विरचिते श्री पार्श्वनाथ चरित्रे तीर्थंकरगर्भजन्मवनीनामेकादशः सर्गः ।। ११ ।।
वाले अनुपम दिव्यसुख रूपी श्रमृत का भोग कर तीर्थङ्कर, जगत्त्रय का गुरु तथा मुक्तिरूपी उत्कृष्ट स्त्री का उपभोग करने के लिये त्रिलोक का प्रद्वितीय चूडामरिण हुआ, ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो ! सुख की प्राप्ति के लिये प्रतिदिन जिनेन्द्रोक्त उत्कृष्ट धर्म को धारण करो ।। १२३ ।।
जो विघ्न समूह को नष्ट करने वाले हैं, समस्त गुणों के भाण्डार हैं, अखिल विश्व के द्वितीय स्वामी हैं, दुष्कर्म रूपी शत्रु को नष्ट करने वाले हैं, मोक्षसुख के जनक हैं, संपूर्ण धर्म के एक कारण हैं, लोका के ज्ञाता हैं, संसाररूपी शत्रु के खोटे भय से रक्षा करने वाले हैं, त्रिलोकपतियों के द्वारा स्तुत और पूजित हैं तथा मेरे द्वारा अन्दनीय और पूजनीय हैं ऐसे भी पार्श्वनाथ भगवान् मेरे सबाचरण में आने वाले विघ्न समूह को नष्ट करें १२४
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में तीर्थङ्कर के गर्भ और जन्म का वर्णन करने वाला ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुप्रा ॥। ११॥
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१४२ ]
* श्री पार्श्वनाथ परित -
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द्वादशः सर्गः नमः श्री मुक्तिकान्ताय काम मल्लविनाशिने । श्रीपाबस्वामिने सिद्धयं जगद्भत्रै चिदात्मने ।।१।। दिग्भिः साधु नभोऽयासीनिर्मलं जिनजन्मतः । अम्लानकुसुमैश्चक्र : पुष्पवृष्टि 'सुरद्रुमाः ॥२॥ अनाहता महाध्धाना दध्वनुदिविजानका: । ववी तदा महन्मन्दं सुगन्धिः शिशिर: स्वयम् ।।३।। अभूद् घण्टारवोऽतीवगम्भीरो निर्जरान्प्रति । वदन्निव जिनेन्द्रस्य अन्म नाकालये स्वयम् ।।४।। यासनानि सुरेणानामकस्मात्प्रचकम्पिरे । देवानुच्चासनेभ्योऽधः पातयन्तीव भक्तये ।।५।। शिरांसि प्रचलन्मौलिमणीनि प्रति दधुः । कुर्वन्तीव नमस्कारं भस्या तीर्थेशपादयोः ।।६।। दृष्ट्वेत्यादि महाश्चर्य ज्ञात्वा तीर्थशजन्म ते । कल्पेशा अवविज्ञानाजन्मस्नाने मति व्यधुः ।।७।। कण्ठीरवमहाध्वानो ज्योतिषामालयेष्वभूत् । स्वयं तथा परं सर्व बह्वाश्चयं च नाकवत् ।।८।।
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द्वादश सर्ग जो अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी से युक्त मुक्ति के कारत हैं, काम सुभट को विनष्ट करने वाले हैं, जगत् के स्वामी हैं तथा चैतन्यरूप हैं उन पार्श्वनाथ भगवान् को मैं सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूं ॥१॥
अथानन्तर जिनेन्द्र भगवान् के जन्म से प्राकाश विशाओं के साथ निर्मल हो गया और कल्पवृक्ष ताजे फूलों से पुष्पवृष्टि करने लगे ।।२।। उस समय महान शब्द करने वाले देवदुन्दुभि बिना बजाये ही शब्द करने लगे तथा सुगन्धित और शीतल वायु धीरे धीरे स्वयं बहने लगी ॥३॥ स्वर्ग में अपने माप अत्यन्त गम्भीर घण्टा का शब्द होने लगा। वह घण्टा का शब्द ऐसा जान पड़ता था मानों देवों को जिनेन्द्र जन्म की सूचना ही ये रहा हो ॥४॥ इन्द्रों के प्रासन अकस्मात् कम्पित हो उठे उससे थे ऐसे जान पड़ते थे मानों भक्ति के लिये देवों को उच्चासनों से भीवे ही गिरा रहे हों ॥५॥ चञ्चल मुकुटमरिणयों से युक्त इन्द्रों के शिर अपने पाप नम्रीभूत हो गये उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों भक्ति पूर्वक तीर्थङ्कर के चरणकमलों में नमस्कार ही कर रहे हों ॥६॥ इत्यादि महान आश्चर्य को देखकर तथा प्रविज्ञान से तीर्थकर का जन्म जानकर उन इन्द्रों ने जन्माभिषेक में बुद्धि लगायो अर्थात अन्माभिषेक करने का विचार किया ॥७॥ ज्योतिषो वेषों के विमानों में अपने सिंहों का महान शम्ब हुा । इसी प्रकार स्वर्ग के समान अन्य सम अनेक आश्चर्य १. कल्पवृक्षाः, २. वेबदुन्दुभयः, ३. स्वर्ग. ४. सिंहध्यनि:, ।
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* द्वादशम सर्ग . भेरीनादो महानासीद्वयन्तराणां सुधामसु । प्रासनादिप्रकम्पं वा तथा सर्व सुरेशिनाम् ।।६।। शङ्खशब्दोऽप्यभूद्दिव्यसौधेषु भवनेशिनाम् । जिनेन्द्रजन्ममाहात्म्याच्छेषाश्चर्य तथा महत् ।।१०।। इत्यादिविविधाश्चर्यान् संयिलोक्य सुरेशिनः । ज्ञात्वावधिबलात्कुयु बुद्धि तज्जन्मकर्मणि ॥११॥ तत्र शक्राशया देवपृतना निर्ययुर्दिवः । सवानास्तारतम्येन महाब्धेरिव वोचयः ।।१२।। हस्तिनोऽश्वा रथा गन्धर्वा नर्तक्य: पदातयः । वृषा इति सुरेशानां सप्तानीकानि निर्ययुः ।।१३।। अथसौधर्मकल्पेश इभमैराबताभिधम् । आरुह्य सममिन्द्राण्या प्रतस्थे निर्जरैवतः ।।१४।। ततः सामानिकास्त्रायस्त्रिशपारिषदामराः। प्रात्मरक्षा दुतं लोकपालास्तं परिवनिरे ।।१५।। तर्थशानादिकल्पेशाः स्वं स्वं वाह्नमाश्रिताः । सार्द्ध स्वपरिवारेरण महाभूत्या विनिर्ययः ।।१६।। तदाभवन्महाध्वानो देवानां जयघोषणः । दुन्दुभीनाञ्च शब्दोधर्देवानीकेषु विस्फुरन् ।।१७।। केचिद्धसन्ति गायन्ति वल्गन्त्यास्फोटयन्ति च । पुरो धान्ति नृत्यन्त्यमरास्तत्र प्रमोदिनः ।।१।। ततो नभोऽङ्गणं कृत्स्नमारभ्य स्वस्ववाहनः । विमान एच सृजन्तो वाधान्यस्वर्गान्तरं दिवः ।।१६।। हुए ॥६॥ भ्यन्तर देवों के निवास गृहों में बहुत भारी मेरी का शब्द हुग्रा और इन्द्रों के प्रासन आदि का कम्पन सब कुछ मुसा भानती देवों के सुन्दर भवनों में शङ्खनाद भी हुमा और जिनेन्द्र जन्म के माहात्म्य से अन्य महान् प्राश्चर्य भी हुए ॥१०॥ इत्यादि अनेक प्राश्चयों को देखकर तथा प्रवधिज्ञान से उनका कारण जान कर इन्द्रों ने जिनेन्द्र जन्म सम्बन्धी अभिषेकादि कार्यों के करने में बुद्धि लगाई ॥११॥
वहां इन्द्र की आज्ञा से सब्ब करती हुई देव सेनाएं क्रमशः स्वर्ग से ऐसी निकली जैसे किसी महासागर से तरङ्ग निकलती हैं ॥१२॥ हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पवाति, और वृषभ, इस प्रकार इन्द्रों की ये सात सेनाएं बाहर निकलीं ॥१३॥ तदनन्तर सौधर्मेन्द्र, इन्द्राणी के साथ ऐरावत हाथी पर सवार होकर देवों से परिवृत्त होता हुमा चला ।।१४॥ तत्पश्चात् सामानिक, प्रायस्त्रिश, पारिषय, प्रात्मरक्ष और लोकपाल देवों ने उस सौधर्मेन्द्र को घेर लिया अर्थात् ये सब इन्द्र के साथ चलने लगे ॥१५॥ इसी प्रकार ऐशान प्रादि कल्पों के इन्द्र भी अपने परिवार के साथ अपने अपने वाहनों पर प्रारूद्ध होकर बड़े वैभव से बाहर निकले ॥१६॥ उस समय देवों की जय घोषणा और दुन्दुभियों के शब्द समूहों से देव सेनामों में बहुत भारी कोलाहल प्रकट हो रहा था ॥१७॥
वहां हर्ष से भरे हुए कोई देव हंस रहे थे, कोई गा रहे थे, कोई इधर उधर टहल रहे थे, कोई जोरदार शब्द कर रहे थे, कोई प्रागे दौड़ रहे थे और कोई नृत्य कर रहे थे ॥१॥ तदनन्तर अपने अपने वाहनों और विमानों से समस्त गगनाङ्गण को रोककर १. प्रकम्प प २. सुरसेनासु ।
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श्री पार्श्वनाथ चरित घोतयन्तो दिश: स्वाङ्गदीप्तिभूषण रश्मिभिः । अवतीर्याम्बरामि पुरी प्रापुदिवौकसः ।।२०।। ज्योतिष्का: पञ्चधा सर्व दशधा भवनामरा: । व्यन्तरा मष्टधा सेन्द्रा: सकलत्राः सवाहनाः ।२२॥ विभूत्या परयाजग्मुस्तत्र धर्मरसाङ्किताः । देवाः पुण्याप्तये तीर्थेशजन्माभिषवोत्सवे ।।२२।। तां पुरी तनं वीथीविश्वगावेष्टय सर्वतः । साई स्वस्वपरीवारस्तदास्युर्देवसैन्यकाः ।।२३।। इन्द्राणोनिकररिन्द्रसमूहै: समहोत्सवः । राजाङ्गमभूद्ध देवा ङ्गमिवापरम् ।।२४।। शचीभिर्वासर्वदेवः सुरानीकैस्तदा श्रिया। विमानैरप्सरोभिः स्वःपुरीव सा पुरी बभौ ॥२५॥ ततः शची प्रविश्याशु प्रसवागारमूर्जितम् । कुमारेण सहापश्यज्जितलक्ष्मी जिनाम्बिकाम् ॥२६॥ त्रिः परीत्य प्रणम्योच्चैः शिरसा तं जगद्गुरुम् । जिनमातुः पुरः स्थित्वेन्द्राणी तां पलाधते स्पिति:२० मातस्त्वं जगतां माता कल्याणकोटिभागिनी । सुमङ्गला सपुण्यासि त्वं सती च यशस्विनी ।।२।। महादेवप्रसूतेस्त्वं महादेवी जगद्धिप्ता । स्तुत्यात्र त्रिजगनायरा दन्येव भारती ॥२६॥
जो प्राकाश में अन्य स्वर्ग की रचना करते हुए से जान पड़ते थे, तथा जो अपने शरीर को दीप्ति और आभूषणों की किरणों से विशात्रों को प्रकाशित कर रहे थे ऐसे देव प्राकाश से पृथिवी पर उतर कर नगरी को प्राप्त हुए ॥१६-२०॥ पांच प्रकार के ज्योतिष्क, रश प्रकार के भवनवासी और पाठ प्रकार के व्यन्तर देव अपनी अपनी स्त्रियों और वाहनों के साथ बड़ी विभूति से धर्मस्नेह से युक्त होते हुए पुण्य प्राप्ति के लिये तीर्थकर के उस जन्माभिषेक महोत्सव में प्राये थे ॥२१-२२।। उस समय देवों के सैनिक सब भोर से उस पूरी को, उस वन को और उन गलियों को घेर कर अपने अपने परिवारों के साथ बैठे हुए थे ॥२३॥ महोत्सवों से सहित इन्द्र इन्द्राणियों के समूह से रुका हुआ राजाङ्गण ऐसा जान पड़ता था मानो दूसरा देवाङ्गण हो हो ॥२४॥ उस समय वह नगरी, इन्द्राणियों, इन्द्रों, देवों, देव सेनाओं, लक्ष्मी, विमानों और अप्सरानों से स्वर्गपुरी के समान सुशोभित हो रही थी ॥२५॥
तवनन्तर इन्द्राणी ने शीघ्र ही सुदृढ प्रसूतिका गृह में प्रवेश कर कुमार के साथ, लक्ष्मी को जीतने वाली जिनमाता को देखा ॥२६॥ उन जगद्गुरु की तीन प्रदक्षिणाएं देकर तथा शिर से अच्छी तरह प्रणाम कर इन्द्राणी जिनमाता के प्रागे खड़ी हो गयो
और उसकी इस प्रकार स्तुति करने लगी ॥२७॥ हे माता ! तुम जगत् की माता हो, कल्याणों की कोटी को प्राप्त हो, उत्तम मङ्गल से सहित हो, पुण्यवती हो, पतिव्रता हो और यशस्वती हो ॥२८॥ महादेव जिनेन्द्र देव को उत्पन्न करने के कारण तुम महादेवी हो, जगत् का हित करने वाली हो, तीन जगत् के स्वामियों के द्वारा स्तुत्य हो, पूज्य हो, और सरस्वती के समान बन्दनीय हो ॥२६।। इस प्रकार स्तुति कर तिरोहित शरीर से
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2 द्वावशम सर्ग *
[ १४५
इत्यभिष्टुत्य गूढाङ्गो तां मायानिया युजत् । तस्याः पुरो निधायासौ मायाशिशुमथापरम् ॥३०॥ प्रादाय तं जगन्नाथं पाणिभ्यां सागमन्मुदम् । चूडामणि मिवोत्सर्वत्त जसा व्याप्तदिक्चयम् ॥३१॥ सुदुर्लभं तदासाद्य तगात्रस्पर्शमाशु सा । मुहस्तन्मुखमालोक्य भेजे प्रीति परां मुदा ।।३२॥ ततो बभौ व्रजन्ती सा कुमारेण सम भृणम् । तदङ्गदीप्ति रश्म्योपः प्राचीव भामुनोजिता ।।३३।। भृङ्गारं कलशं छत्रं चामरं सुप्रतिष्ठकम् । ध्वजं च दर्पण तालमित्यादाय तदा मुदा ।।३४।। मङ्गलाष्टकमन्यन्तभूत्या भतु: पुरो ययुः । दिव्या मङ्गलधारिण्यो दिक्कुमार्यो महोत्सवे' ।३५ पानीय देवराजस्याधात २ करतले शची । प्राचीव ह्य दयाद्रेः शिखरे बालार्क मूर्जितम् ।।३६।। मोधर्मेन्द्रस्तदेन्द्राण्या हस्तादादाय संभ्रमम् । मुहस्तन्मुखमालोक्येच्छन् स्तवं कर्तुं मुथयो ।।३।। त्वं देव त्रिजगत्स्वामी त्वं नाथ महतां गुरुः । अज्ञानध्वान्तहन्ता त्व दोपो विश्वार्थदर्शने ॥३८।। केवलज्ञानभानोस्त्वमुदयाद्रिभविष्यसि । अकारणजगबन्धुस्त्व त्र विश्वहितङ्करः ॥३६।।
युक्त इन्द्राणी ने माता को मायामयी निद्रा से युक्त कर दिया तथा उसके प्रागे मायानिर्मित दूसरा पुत्र रख कर चूडामरिण के समान श्रेष्ठ तथा बढ़ते हुए तेज से दिक्समूह को व्याप्त करने वाले अगत्पति जिनबालक को हाथों से उठा लिया । यह सब करती हुई वह परम मानन्द को भारत - उ सध्य शीघ्र ही प्रत्यरत दुर्लभ उनके शरीर का स्पर्श पाकर तथा बार २ उनका मुख देख कर इवाणी हर्ष से परम प्रीति को प्राप्त हो रही यो॥३२॥
___ तदनन्तर जिन बालक के साथ जाती हुई श्रेष्ठ इन्द्राणी उनके शरीर को कान्ति तथा किरणों के समूह से सूर्य सहित पूर्व दिशा के समान प्रत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥३३।। उस समय झारी, कलश, छत्र, चामर, ठोमा, ध्वजा, वर्पण और पल्ला इन पाठ मङ्गल द्रव्यों को हर्षपूर्वक लेकर मङ्गल द्रव्यों को धारण करने वाली सुन्दर विक्कुमारी देवियां उस महोत्सव में बहुत भारी भन से जिनबालक के प्रागे धागे चल रही थीं ॥३४-३५॥ इन्द्राणी ने जिनबालक को लाकर इन्द्र के करतल पर उस प्रकार रख दिया जिस प्रकार कि पूर्व दिशा देदीप्यमान प्रातःकाल के सूर्य को उदयाचल के शिखर पर रख देती है ।।३६।। उस समय सौधर्मेन्द्र, इन्द्राणी के हाथ से हर्षपूर्वक जिनबालक को लेकर तथा बार बार उनका मुख देखकर स्तवन करने की इच्छा करता हुमा उखत हुमा ॥३७॥
हे देव ! तुम तीन जगत् के स्वामी हो । हे नाथ ! तुम महान पुरुषों के गुरु हो। तुम समस्त पदार्थों को देखने के लिये प्रमान तिमिर के नाशक दीपक हो ॥३८॥ तुम
१.महोत्सव.क. २. इन्द्रस्य ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित *
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स्वत्तः प्रबोधमासाच भव्या यास्यन्ति निर्वृतिम् । हनिष्यन्ति व्यधाराति मोहशत्रुच केचन ।।४।। उद्गतस्त्वं जिनेशात्र प्रमोदं कर्तुमद्भ तम् । इन्तु मोहतमो दर्शयितु सन्मार्गमञ्जमा ।।४।। त्वयि प्रणयमाषत्त मुक्तिषी: स्वयमुत्सुका । स्वविवाहाय यास्यन्त्युत्कृष्टता निखिला गुणाः ४२ नमस्तुभ्यं जिनेन्द्राय नमस्ते गुणसिन्धवे । नमस्तेऽचिन्त्यमाहात्म्याय ते भव्याजभानवे ।४३। इति स्तुत्वा तमारोप्य स स्वार देवनायकः । करमुच्चालयामास मेरुप्रस्थानसंभ्रमी ।।४४।। मादिकल्पेशिनोऽप्यनुमध्यासीनं जगद्गुरुम् । भेजे सितातपत्रेणशानेन्द्रोऽपि तवा स्वयम् ।।४।। सनत्कुमारमाहेन्द्रस्वामिनी जिनपुङ्गवम् । चामरैस्तं ध्यधुन्वातां क्षीराब्धिीचिसन्निभैः ।४६। अयेश नन्द वर्चस्व भव लोकत्रयाधिपः । इत्युच्चः सद्गिरो देवाश्चक्रुः कोलाहलं तदा १४७। खमुत्पेतुस्ततः शकाः प्रोच्चरज्जयघोषणा: । तन्वन्त: सुरचापानि स्ववपुर्भूषणांशुभिः ।।४।। केवलज्ञान रूपी सूर्य के लिये उदयाचल होप्रोगे । तुम अकारण जगत् के बन्धु हो तथा सबका हित करने वाले हो ॥३६॥ प्रापसे प्रबोध को पाकर भव्यजीव निर्वाण को प्राप्त होंगे और कितने ही भव्यजीव नाना प्रकार के पापरूपी शत्रु तथा मोहरूपी वैरी को नष्ट करेंगे ॥४०॥हे जिनेन्द्र ! तुम यहां अद्भुत हर्ष को करने, मोह तिमिर को हरने और सन्मार्ग को अच्छी तरह दिखाने के लिये उत्पन्न हुए हो ॥४१॥ मुक्तिरूपी लक्ष्मी प्रपने विवाह के लिये स्वयं उत्कण्ठित होकर प्राप में स्नेह को धारण कर रही है तथा समस्त गुण प्रापमें उत्कृष्टता को प्राप्त होंगे ॥४२॥ श्राप जिनेन्द्र के लिये नमस्कार हो । गुणों के सागरस्वरूप प्रापके लिये नमस्कार हो । अचिन्त्य महिमा से युक्त आपके लिये नमस्कार हो और भव्यजीव रूप कमलों को विकसित करने के लिये सूर्यस्वरूप आपके लिये नमस्कार हो ॥४३॥
इस प्रकार स्तुति कर इन्द्र ने जिनबालक को अपनी गोद में लिया और मेरु पर्वत के लिये प्रस्थान करने की शीघ्रता करते हुए उसने अपना हाथ ऊपर की ओर चलाया ॥४४॥ उस समय सौधर्मेन्द्र की गोद में स्थित अगद्गुरु जिनबालक के ऊपर सफेद छत्र लगा कर ऐशानेन्द्र भी स्वयं उनकी सेवा कर रहा था ।४५। सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र क्षीरसागर की लहरों के समान चामरों के द्वारा जिनेन्द्र बालक को कम्पित कर रहे ये अर्थात् उन पर सफेद चामर ढोर रहे थे ॥४६॥ हे ईश ! अयवंत होमो, समृद्धिमान होमो, वृद्धि को प्राप्त होओ, और तीनलोक के स्वामी होमो-इस प्रकार उच्चस्थर से उत्तम वचन कहने वाले देव उस समय कोलाहल कर रहे थे।॥४७॥ तदनन्तर जो उच्चस्बर से जयजयकार कर रहे थे, तथा अपने शरीर और आभूषणों को फिरणों १. मोशम् २ विविध पापात्रुम ३. एष श्लोक; मा प्रतौ नास्ति ।
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* द्वादशम सर्ग
[ १४७ पुरोऽस्याप्सरसो नेटुर्गीतर्गन्धर्वजैः समम् । भ्रूपताको समुरिक्षप्य हावविर्मनोहरैः ॥४६॥ जिनेन्द्रगुणहव्यानि दिव्यगीतानि सादराः । तदा गायन्ति किन्नों वीणाभिः सुस्वरमुंदा ॥५०॥ देवदुन्दभयोऽम्भोधिध्वाना: सुरकराहताः । ध्वनन्ति घोषयन्तो वा यशः शुभ्रं जिनेशिनः ।५।। दिव्यं जिनाङ्गसौन्दर्य पश्यन्तोऽनिमिषेक्षणाः । निनिनिभेषसुनेत्राणां फलं प्रापुस्तदा सुराः ।।५।। दृष्ट्वा तदातनी शोभा भूति केचित्कुदृष्टयः । स्वीकुर्युर्दर्शनं देवाः शक्रप्रामाण्यमाश्रिताः ॥१३॥ केचित्तन्महिमा २ दृष्ट्वा जैनधर्मे मति व्यधुः। केचित्संवेगवैराग्यादीनगुर्धर्मवासिता: ॥५४॥ ज्योतिष्पटल मुल्लङ्घय प्रययुः कल्पनायकाः । द्योतयन्तो दिशःखं च स्वाङ्गभूषांशुभिस्तराम् ॥५५॥ तत: 'कल्पाधिपाः प्रापुस्सं गिरीन्द्र सपुच्छ्रितम् । योजनानां सहस्राणि नवति हि नवाधिकम् ॥५६।। सहस्रकन्दहेमाद्रे रस्य मूनि सुचूलिका । मुकुटोरिवाभाच्चरवारिंशद्योअनोच्छिता (५७॥ चूारत्नमिवाभाति तस्या उपरि शाश्वतम् । नरक्षेत्रमितं दिव्यं विमानमृजुसंज्ञकम् ।।५।। से इन्द्र धनुषों को विस्तृत कर रहे थे ऐसे इन्द्र प्रकाश में ऊपर की ओर गये ॥४॥ जिनबालक के आगे अप्सराए मनोहर हावभावों से भौंहरूपी पताका को ऊपर उठकार गन्धवों के गान के साथ नृत्य कर रही थी अर्थात् गन्धर्व गीत गा रहे थे और अप्सराए लय के साथ नृत्य कर रही थीं ॥४६।। उस समय पावर से भरी किन्नरियां जिनेन्द्र देव के गुणों से रचित दिग्य गीत वीणानों द्वारा मनोहर स्वर से हर्षपूर्वक गा रही थीं ॥५०॥ समुद्र के समान शब्दों वाली तथा देवों के हाथों से ताडित देवदुन्दुभियां शम कर रही थी और ऐसी जान पड़ती थीं मानों जिनेन्द्र देव के शुक्ल यश की ही घोषणा कर रही हों ॥५१॥
उस समय जिनेन्द्र भगवान के शरीर सम्बन्धी विष्य सौन्दर्य को देखते हुए देवों में अपने टिमकार रहित नेत्रों का फल प्राप्त कर लिया था ॥५२॥ उस समय की शोभा और विभूति को देखकर कितने ही मिथ्यादृष्टि देवों ने इन्ध्र की प्रामाणिकता को प्राप्त हो सम्यग्दर्शन स्वीकृत किया था अर्थात् इन्द्र को प्रामाणिक पुरुष समझ सम्पग्दर्शन धारण किया था ॥५३॥ किसने ही देवों ने उनकी महिमा देख जैनधर्म में बुद्धि लगाई थी और धर्म की वासना से युक्त किसने हो देव संवेग और वैराग्य को प्राप्त हुए थे ॥५४॥ अपने शरीर और प्राभूषणों की किरणों से विशाओं तथा प्राकाश को प्रत्याधिक प्रकाशित करते हुए थे इन्द्र ज्योतिष्पटल को लांघकर पागे निकल गये ॥५५॥ तदनन्तर इन्द्र उस मेर पवंत पर जा पहुंचे जो निन्यानवे हजार योजन ऊंचा है ॥५६॥ एक हजार योजन प्रमाण जिसकी जड़ है ऐसे उस सुमेरु पर्वत के शिखर पर चालीस योजन ऊंची चूलिका मुकुट के समान सुशोभित हो रही थी ।।५७॥ उस बूलिका के ऊपर चूडारत्न के समान शाश्वत
१. देवाः २. माकारान्त स्त्रीनिझमहिमा पम्दस्य प्रयोगो महाकविना असगेनापि 'वद मानपरित' कृतः ३. सौधर्मेन्द्रायः ४ सोधर्मेन्द्रादयः ।
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१४८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित * स्वाधोभागे विधत्ते यो भद्र शालाभिधं वनम् । परिधानमिव स्वस्य जिनमन्दिरभूषितम् । ५६।। मेखलायामयाधायां नन्दनं विभृते दनम् । यः कटीसुत्रदामेव तीर्थेशागारमण्डिलम् ।।६।। तत: सोमनसोद्यान यो बिभर्ति शुकच्छवि । चतुश्चैत्यालयोपेतं 'पर्य संख्यानमूजितम् ।।६१।। यस्यालङ्क रुते मूनि वनं पाण्डुकसंज्ञकम् । चैत्यगेहणिलाचूलिकाद्र माय ग्लंकृतम् ॥६॥ यत्रायान्ति च पूआय जिनार्यानां सुगसुराः । खगेशाश्चारणा नित्यं तत्र का वर्णना परा ।।६३।। तत्र हीशान दिग्भागे पाण्डु काख्या शिला परा । प्रद्धन्दुसन्निभा शुद्धस्फाटिकोपलसंमया ।। ६४।। योजनानां शतायामा तदर्द्ध विस्तरामला । अष्टोत्सेधा जिनस्नान घौ तेवाभाद्धराष्टमी२ ॥६५॥ भरतोत्पन्नतीर्थेशमन्मस्नानमहोत्सवे । बहुशः क्षालिता शके: क्षीरोदचिवारिभिः ।।६६।। क्रोशपादोज्छितं तत्प्रमारणं भूमौ च बिस्तरम् । तदई मूर्धिन तस्या उपरि सिंहासनं महत् ।।६७।। हैम मणिमयं दिव्यं तेजसा व्यारत दिक्तम् । मध्यस्थमस्ति तीर्थशजन्मम्नानविषितम् ।।६८।।
पैतालीस लाख योजन विस्तार वाला ऋजु नामक दिव्य विमान है ।।५८।। जो मेरु पर्वत अपने अधोभाग में जिनमन्दिरों से विभूषित भद्रशाल नामक धन को धारण कर रहा है । बह भद्रशाल वत ऐसा जान पड़ता है मानों मेरु पर्वत का अधोवस्त्र ही हो ॥५६॥ तदनन्तर जो प्रथम मेखला पर जिनमन्दिरों से विभूषित कटीसूत्र की माला के समान नन्दन वन को पारण करता है ॥६॥ उसके ऊपर जो चार चैत्यालयों से साहित, शुक के समान कान्ति बाले, पत्रों से सुशोभित बहुत बड़े सौमनस बन को धारण करता है ॥६॥ जिस सुमेरु पर्वत के मस्तक पर चैत्यालय पाण्डक शिला, धूलिका और वृक्ष प्रादि से प्रलंकृत पाण्डुक वन सुशोभित हो रहा है ॥६२॥ जहां जिन प्रतिमाओं की पूजा के लिये सुर असुर विद्याधर तथा चारणऋद्धिधारी मुनिराज निरन्तर पाया करते हैं वहां अन्य क्या परर्णन किया जाय ? अर्थात् कुछ नहीं ॥६३॥
उस पर्वत पर ऐशान दिशा में अर्धचन्द्र के समान प्राकार वाली शुद्धस्फटिकमणिमय उत्कृष्ट पाण्डुक शिला है ।। ६४॥ यह पाण्डक शिला सौ यौमन लम्बो, पचास योजन चौड़ी तथा पाठ योजन ऊंची है और जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक से पवित्र होने के कारण अष्टम भूमि-ईषत्प्राम्भार भूमि के समान सुशोभित हो रही है ॥६५॥ भरतक्षेत्र में उत्पन्न तीर्थकरों के जन्माभिषेक महोत्सव में यह शिला अनेकों बार इन्द्रों द्वारा क्षीरसागर के उज्ज्वल जल से पखारी गई है ॥६६॥ उस पाण्डुक शिला पर एक विशाल सिंहासन है जो पाय कोश ऊंचा है तथा जिसकी चौड़ाई भूमि पर पाय कोश और ऊपर उससे प्राधी है ॥६७॥ वह सिंहासन सुवर्ण और मरिणयों से तन्मय है, सुन्दर है, तेज से दिशामों के
१, चोपसंख्यात स्व० २. पत्प्रारभारनाम्ना अष्टमभूमिरिव ।
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* द्वादशम सर्ग *
[ १४६ स्तो दिसिंहासने तपार्श्वयोहे मे निरोपमे । सौधर्मशानकल्पेशयोः स्थित्यं तन्महोत्भवे ।। ६६ ।। कलशध्वजभृङ्गारसुप्रतिष्ठकदर्पणान । छत्रचामरतालानि मङ्गलानि विर्भात्त या ।।७० ॥ ततः परीत्य तं मेरु' देवराज: सुरैः समम् । न्यधात्त प्राड मुख देवं मध्यस्थे सिंहविष्टरे ।७१ । तामावेष्ट्यामरास्तस्थर्य थायोग्यमनमान् । दिक्ष द्रष्टु जिनाधीशजन्मस्नान महोत्मयम् ।।७२।। यथास्वं दिग्यिदिग्भागेषु दिक्पाला: स्थिति व्यधुः । साद्धं स्वे: स्वनिकायजिनकल्याण दिदृश्यया ।।७३।। कल्पनार्थस्तदा चाभूत्सरुद्ध पाण्डुकं वनम् । शचीभिरखिलं खं शप्सरोभिः सुम्सन्यकैः ।।७।। तत्र मण्डपविन्यासो महाश्च के मुदामरः । सर्व त्रिभुवनं यत्र सुखेनास्ते मिथोऽव्ययम् ।।७।। कल्पानोकह जाता: स्रजस्त त्रावलम्बिताः । रेजुर्धमरझाङ्कारैर्गातुकामा इव प्रभुम् ।।७।। कि स्वर्गपचलितः स्वस्थानाद्वा कि प्राप स्वर्गसाम् । मेरुस्तदुत्मत्रं दृष्ट्वा तिशङ्का व्यधुः बगा: ।७४। ततोऽभिषेचन कतु सोधर्मशः प्रचक्रमे । हर्यासनस्थ तीथेशोऽशेषकल्पाधिप: समम् ।।७८।। तट को व्याप्त करने वाला है, मध्य में स्थित है तथा तीर्थंकरों के जन्माभिषेक से पवित्र है ॥६८।। उस सिंहासन के दोनों प्रोर उस महोत्सव के समय सौधर्मेन्द्र और ऐशानेन्द्र के खड़े होने के लिये सुवर्णमय दो अनुपम सिंहासन और थे॥६६॥ जो पाण्डुक शिला कलश, ध्वजा, भारी, ठौना, दर्पण, छत्र, चामर और व्यजन इन पाठ मङ्गल द्रव्यों को धारण करती है ।।७।।
तदनन्तर इन्द्र ने बेवों के साथ उस मेरु पर्वत को प्रदक्षिणाएं देकर बीच के सिंहासन पर उन जिनबालक को पूर्वाभिमुख विराजमान कर दिया ।।७१। जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक सम्बन्धी महोत्सव को देखने के लिये देव लोग उस पाण्डक शिला को घेर कर यथायोग्य अनुक्रम से सब दिशात्रों में स्थित हो गये ॥७२॥ जिन कल्याणक के देखने को इच्छा से विषपाल, अपने अपने निकायों के साथ यथायोग्य दिशानों और विदिशाओं में स्थित हो गये ।।७३॥ उस समय पाण्डक धन और संपूर्ण प्राकाश स्वर्ग के इन्द्रों, इन्द्रारिणयों, अप्सराभों और देध सैनिकों से व्याप्त हो गया ।७४।। वहां देवों ने हर्षपूर्वक इतना बड़ा मण्डप बनाया कि जिसमें तीनों लोक परस्पर पीड़ा पहुंचाये बिना सुख से बैठ सकते थे ॥७५॥ उस मण्डप में जहां तहां कल्पवृक्षों से उत्पन्न मालाएं लटकाई गई थीं जो भ्रमरों की झाङ्कार से ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों प्रभु का गुणगान ही करना चाहती हों ।।७६।। यहां यह उत्सव देखकर विद्याधर ऐसी शङ्का कर रहे थे कि क्या स्वर्ग अपने स्थान से विचलित हो गया है ? या मेरु ही स्वर्गरूपता को प्राप्त हो गया है ॥७७।।
तदनन्तर सौधर्मेन्द्र, सिंहासन पर स्थित तीर्थङ्कर का स्वर्ग के समस्त इन्द्रों के १. पोद्वारहित यथा स्यात्तथा २. मिहामन म्यतीर्थकरस्य ।
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१५० ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित है तदापूर्य नभोऽशेषं देवदुन्दुभयोऽध्वनन् । समन्तादप्सरोभिः प्रारेभे मृत्यं मनोहरम् ।।७।। कालागर्वादिसद्ध पमहान धूमस्तदोदगात् । पुण्यार्था बहवः क्षिप्ताः शान्तिपुष्टयाद्यकाङ क्षिमिः। सोचमोऽधादिकल्पेशो विभोः प्रथममज्जने । प्रस्तावनाविधिकृत्वा कलशोद्धारमादधे ।।१।। प्राददे कलशं हैममैशानेन्द्रोऽपि धर्मधीः । चचितं चन्दनाद्यैः सत्कलशोद्धारमन्त्रवित् ।।२।। शेषः कल्पाधिपभैजे परिचारकता मुदा । जयनन्दादिघोषोपर्यथोक्तपरिचर्यया ॥३॥ देव्यः साप्सरसः सर्वाः शच्यादिकाः परिचारिकाः । बभूवुः परिचारिण्यो मङ्गलद्रव्यपारणयः ।।१४।। पूतं स्वायंभुवं देहं स्प्रष्टु दुग्धाच्छशोणितम् । योग्यं नान्यज्जलं ह्यस्ति विना क्षीराब्धिवारिणा। मत्वेति स्नानसंसिदयं प्रभोर्नाकाधिपैदा । स्नानीय कल्पितं नूनमम्भः 'पञ्चमवारिधेः १८६। तत: श्रेणीकृता देवा पानेतु प्रसृताः पयः 1 शातकुम्भमयः कुम्भः शुचि-क्षीराम्बुधे मुंदा ।८७
तदा तेषां किसान्योन्यकराग्रस्थ लाभृतः । कलशानशे व्योम दिव्यः, सान्च्यरिवाम्बुदः।८८ साथ अभिषेक करने के लिये उद्यत हुआ ॥७॥ उस समय वेवों के नगाड़े समस्त प्रकाश को व्याप्त कर शव कर रहे थे और अप्सराओं द्वारा सब ओर मनोहर नृत्य प्रारम्भ किया गया ।।७६।। उस समय कृष्णागुरु प्रादि की उत्तम घूप से बहुत भारी धुवां उठ रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानों शान्ति तथा पुष्टि प्रावि की इच्छा करने वाले वेवों ने पुण्य के लिये बहुत सी पताकाए ही फहराई हों ।।१०।। तदनन्तर भगवान के प्रथम अभिबेक में तत्पर सौधर्मेन्द्र ने प्रारम्भिक विधि कर कलश उठाया ।।८।। धर्मबुद्धि मोर कलश रामे के उत्तम मन्त्रों को जानने वाले ऐशानेन्द्र ने भी चन्दनादि से चश्चित सुवर्णकलश उठाया ।।२।। शेष इन्द्रों ने जय नन्द आदि घोषणामों के समूहों तथा पयोक्त परिचर्या
द्वारा हर्षपूर्वक परिचारकपना प्राप्त किया अर्थात् शेष इन्द्र, सौधर्म और ऐशानेन्द्र की पासामुसार कार्य सम्पन्न कर रहे थे ।।८३॥ जो चारों प्रोर घूम रही थी तथा हाथों में मङ्गल तव्य लिये हुए थीं ऐसी अप्सराओं सहित इन्द्राणी प्रादि समस्त वेवियां परिचारिकाएं बब पई थी अर्थात् अभिषेक के कार्य में सहायता कर रही थीं ॥४॥
दूध के समान शुक्ल रुधिर से युक्त भगवान के पवित्र शरीर को छूने के लिये क्षीरसागर के जल के बिना अन्य जल योग्य नहीं है ऐसा मान कर इन्द्रों ने भगवान के प्रभिबेक लिये पञ्चमसागर-क्षीरसागर का जल ही स्नान के योग्य निश्चित किया ॥८५८६॥ तदनन्तर पंक्तिबद्ध देव, सुवर्णमय कलशों द्वारा क्षीरसागर का पवित्र जल लाने के लिये हर्षपूर्वक चल पड़े ।।७।। उस समय उनके परस्पर हाथों के अग्रभाग में स्थित जल से भरे हुए दिव्य कलशों से प्राकाश ऐसा व्याप्त हो गया जैसे सन्ध्या के बादलों से ही १. बोरसमुद्रस्थ २. मुवर्णमयः ३. ए२ श्लोकः ७० प्रती नास्ति ४. अलेन प्राभृताः ते ।
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• द्वादशम सर्ग
[ १५१ स्वाग्निर्ममे बहून बाहून स्तानादित्सुः शताध्वरः । स तैः साभरणभेंजेभूषाङ्गकल्पशाखिवत् १८६॥ दोःसहस्रोत: कुम्भमुक्ताफलस्रगचितः । भेजे सौधर्म कल्पेशो नाजनाङ्गमोपमाम् ।।१०।। वारत्रयं जयेत्युक्त्वात्राद्यां धारां स्यपासयत् । सौधर्मेन्द्रः प्रभोमूनि छिन्नधुनिम्नगोपमाम् १९१ ततः समन्तत: शक : सर्वेर्धारा निपातिताः । सौवर्नीरसंपूर्ण: कुम्भंवर्षाम्वुर्दरिव ।। ६२।। तदा कलकलो भूपातुसंख्यसुरकोटिभिः । प्रमोदनिर्भरैश्चक्रे वषिरी कुतखाङ्गणः ।।६३|| महानच वापप्तन् वार्धा रास्तस्य मूर्धनि । हेलया स्वमहिम्ना स ताः प्रतीच्छेद्गिरीन्द्रवत् ६४ पतन्ति यगिरे धिन या धारा वेगवत्तराः । गङ्गाप्रवाहसादृश्या यात्यसौ शतखण्डताम् ॥१५॥ अप्रमाणमहावीर्यो मन्यते ता जिनाधिपः । पुष्पाणीव स्ववीर्येण सिंहविष्टरमाश्रितः ।।६६।। उच्छलन्त्यो नभोभागे विरेजुई रमुच्छलाः । जिनाङ्गस्पर्शमावेण पापान्मुक्ता इबोर्वगाः।६७ स्नानाम्भःशीकराः केचिद्वभुस्तिर्य ग्विसारिणः । कर्णपूरश्रियं प्राप्ता इव स्त्र्यिास्यमण्डने ।६८। व्याप्त हो गया हो ।।८। उन फलशों को ग्रहण करने के इच्छुक इन्द्र ने अपनी बहुत सी भुजाएं बना ली और प्राभरणों से सुसज्जित उन कलशों से वह भूषणाङ्ग नाति के कल्पवृक्ष के समान गुरवित होने लगा एक हजार भुजाओं से उठाये तथा मोतियों की मालानों से सुशोभित उन कलशों से सौधर्मेन्द्र भाजनाङ्ग जाति के कल्पवृक्ष को उपमा को प्राप्त हो रहा था ॥६०|| तीन बार जय जय शब्द का उच्चारण कर सौधर्मेन्द्र ने प्रभु के मस्तक पर प्रथम धारा छोड़ी। वह धारा प्राकाशगङ्गा को उपमा को छिन्न भिन्न कर रही थी अर्थात् आकाशगङ्गा की धारा से भी अधिक स्थूल थी ॥६॥ तदनन्तर समस्त इन्द्रों ने वर्षाऋतु के मेघों के समान जल से भरे हुए सुवर्ण कलशों के द्वारा सब प्रोर से धाराएं छोडी ॥२॥ उस समय हर्ष से भरे हुए असंख्य देवों को कोटियों द्वारा गगनाङ्गरण को बहरा करने वाला बहुत भारी फोलाहल किया जा रहा था ॥६३।। महानदियों के समान जल की धाराए प्रभु के मस्तक पर पड़ रही थीं और वे उन्हें अपनी महिमा से गिरिराज सुमेरु के समान अनायास ही झेल रहे थे ।।६४॥ गङ्गा प्रवाह के समान अतिशय वेग से युक्त जो धाराए' यदि पर्वत के शिखर पर पड़ें तो वह पर्वत शतखण्डपने को प्राप्त हो जाय अर्थात् जिन धाराओं के पड़ने से पर्वत भी चूर चूर हो जाते हैं उन धारामों को अपरिमित महान वीर्य से युक्त सिंहासनारूढ जिनेन्द्र अपने वीर्य से फूलों के समान मानते थे ।।६५-६६॥ प्राकाश में दूर तक उछलती हुई जल धाराएं ऐसी जान पड़ती थीं मानों जिनेन्द्र शरीर के स्पर्श मात्र से वे पाप से मुक्त होकर ऊर्ध्वलोक को ओर आ रही थीं ॥७॥ तिर्यग दिशा में फैले हुए स्नान जल के कितने ही छींटे दिशा १. सान कलशान्, मादिः ग्रहीतुमिच्छु २ इन्द्रः ३. भुज सहस्रोत्थापिनैः ४ छिन्ना निम्न गाया पाषाणगङ्गाया उपमा व्या ताम् ५. दिगङ्गानामूखमण्डने ।
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१५.२ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित * नानारत्नमयीभूतकुम्भाम्या २ पतिता
कोख बभुम्तज्जलगशय: ।।६।। मेर्वग्रात् स पतन् स्नानजलपूरोऽप्यधस्त राम् । प्लावयित्वास्त्रिलं मेरु निरिण्या निभो व्यभात् ।। बभूव तदनं तस्मिन्काले क्षोराम्बुसंभृतम् । निमग्नपाद शुक्लं मीरार्णवमिवापरम् ।।१०।। नर्तनविविधः प्रेक्ष्य रप्सरःसंभवैः समम् । जन्माभिषेकसम्बधिगीत र्गन्धर्वदेवजः ।।१०२।। मुरदुन्दुभिनादौधजयजीवादिघोषणः । इत्याद्यन्यनिरौपम्य महोत्सव शतश्च ते ॥१०३।। कल्प माथा जगन्नाथस्याभिषेकं वृषाप्तये ।परिपूर्ण मुदा चक्रुः शुद्धाम्बुस्नपनेऽद्भ तम् ।१०४। पुनः सौधर्मकल्पेशोऽभिषेक्तु श्रीजिनाधिपम् । सुगन्धिद्रव्य सम्मिश्रर्गन्धोदकः प्रचक्रमे ।।१०।। अभ्यषिञ्चविधानको भक्त्या भूत्यादिदेव राट्' । दिव्यामोदैत्रिभु श्रीमच्छिशुगन्धोदकाम्बुभिः। १०६ । मणिभृङ्गारनालाद्धारा पतन्ती प्यभात्तराम् । दिम्पगन्धे जिनाङ्ग सा पुण्यधारेच पिजरा ।१०७। पूरयन्त्यखिला प्राधा जगदानन्दवद्धिनी । पुनातु नोऽत्र धारासो जिनवाणीव मानसम् ।१०।
रूपी स्त्रियों के मुख को अलंकृत करने लिये कर्णाभरण की शोभा को प्राप्त हुए के समान जान पड़ते थे ll नानारत्नमय कलशों के अग्रभाग पर पतित रङ्ग विरङ्ग कमलों से वे जल की धाराएं अनेक वर्ण की हो गयी थीं ॥६६मेरु के प्रप्रभाग से बहुत नीचे पड़ता हुआ वह स्नानजल का प्रवाह समस्त मेरु को डुबाकर निझरिणी के समान सुशोभित हो रहा था ॥१००। उस समय वह वन क्षीरसागर के जल से भर गया तथा उसके वृक्ष उस जल में डूब गये, सब पोर से शुक्ल ही शुक्ल दिखने लगा इससे जान पड़ता था मानों दूसरा क्षीरसागर हो है ॥१०१॥
अप्सरानों से होने वाले नाना प्रकार के दर्शनीय नृत्यों, गन्धर्व देवों से होने वाले जन्माभिषेक सम्बन्धी गीतों, देबदुन्दुभियों के शब्दसमूहों 'जय जीव' आदि की घोषणाओं तथा इसी प्रकार के अन्य अनुएम सैकड़ों महोत्सवों के साथ इन्द्रों ने धर्म की प्राप्ति के लिये हर्षपूर्वक जिनेन्द्र देव का शुद्ध जल से पाश्चर्यकारक अभिषेक पूर्ण किया ॥१०२१०४।। तदनन्तर सौधर्मेन्द्र सुगन्धित द्रष्यों से मिले हुए गन्धोदक के द्वारा श्री जिनेन्द्र का अभिषेक करने के लिये उदास हुआ ।।१०।। विधि विधान को जानने वाले सौधर्मेन्द्र ने भक्तिपूर्वक बड़े वैभव के साथ दिव्य सुगन्धि से युक्तं सुगन्धित जल के द्वारा जिन बालक का अभिषेक किया ॥१०६॥ मणिमय झारी के नाल से भगवान के सुगंधित शरीर पर पड़ती हुई वह पीली पीली धारा पुण्य को धारा के समान प्रत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥२०७॥ जो समस्त दिशाओं अथवा प्राशानों को पूर्ण कर रही थी तथा जो जगत्
१. नानारत्नमग्रीभूति क. नानारत्नमयोभूमि व. २. कलश मुख ३. सौधर्मेन्दः ।
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* द्वादशम सर्ग *
। १५३ या पुण्यात्रवधारेव सुते लक्ष्मी परां सताम् । 'साश्वस्माकं करोत्वत्र धारा लोकाग्रजां श्रियम् । धर्मविघ्ननजं हन्ति यासिधारेव मिणाम् । सा नो रत्नत्रयायानां हन्तु प्रत्यूहमञ्जसा ।११. जिनाङ्गस्पर्शमासाद्य या पवित्रा व्यभूद्भ,शम् । पवित्रयतु सास्माकं मनोवाक्कायमजसा । १११॥ इस्र्थ गन्धोदकः कृत्वाभिषेकं सुरनायक शादि से पोषणमासुमागाधनारने ११२॥ चकुः शिरसि भाले च नेत्रे सर्वाङ्गपुद्गले । स्वर्गस्योपायन पूतं तद्गन्धाम्बु सुराः स्त्रियः ११३ गन्धाम्बुस्नपनस्यान्ते जयनन्दादिसस्वर: । "व्यातुक्षीममराश्चक्रुः सचूर्णेगन्धवारिभिः ।११४॥ निर्वृत्तावभिषेकस्य जिनस्नानविधायिनः । प्रानचु: परया भक्त्या श्रीजिनं भुवनाचितम् ११५ धीखण्डाक्षतपुष्पौधेश्चभिर्दीपकवरैः धूपैः फलश्च स्वर्लोकमवैदिव्यमनोहरैः ।।११६।। *कृतेष्टयो हतानिष्टप्रजा विहितपौष्टिकाः । जम्माभिषेकमित्युच्चैः सुरेन्द्रा निरतिष्ठपन् । ११७॥ के प्रानग्य को बढ़ाने वाली थी ऐसी वह धारा जिनवाणी के समान हमारे मन को पवित्र करे ॥१०॥ जो पुण्यात्रव की धारा के समान सत्पुरुषों को उत्कृष्ट लक्ष्मी उत्पन्न करती है वह पारा इस जगत में शीघ्र ही हम लोगों को मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करे ॥१०६॥ जो तलवार को धारा के समान धर्मात्मा जीवों के धर्म में पाने वाले विघ्न समूह को नष्ट करती है वह धारा हमारे रत्नत्रय रूप पुण्य कार्यों में आने वाले विघ्नों को अच्छी तरह नष्ट करे ॥११०।। जो जिनेन्द्र भगवान् के शरीर का स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हो गई यी वह धारा हमारे मन वचन काय को अच्छी तरह पवित्र करे ॥१११॥ इस प्रकार उन इन्द्रों ने मन्धोषक से अभिषेक कर संसार सम्बन्धी पापों की शान्ति के लिये उच्चस्वर से शान्ति की घोषणा की ॥११२॥
देव और देवाङ्गनामों ने स्वर्ग के उपहारस्वरूप उस पवित्र गन्धोदक को शिर पर, ललाट पर, नेत्रों पर तथा समस्त शरीर रूप पुद्गल पर लगाया था ॥११३॥ गन्धोदक का अभिषेक समाप्त होने पर देवों ने जय नन्द आदि प्रशस्त शब्दों के उच्चारण के साथ वर्ण सहित सुगन्धित जल से परस्पर फाग की अर्थात् एक दूसरे पर गन्धोदक को उछाला ।।११४॥ जिनाभिषेक करने वाले देवों ने अभिषेक की समाप्ति होने पर बड़ी भक्ति से लोकपूजित जिनेन्द्र देव की पूजा की ॥११॥ स्वर्गलोक में उत्पन्न होने वाले सुन्दर और मनोहर चन्दन, अक्षत, पुष्प समूह, नैवेद्य, उत्कृष्ट दीपक, धूप और फल के द्वारा जिन्होंने पूजा की है, जिनके अनिष्टों का समूह नष्ट हो गया है, तथा जिन्होंने पुष्टि कार्य को पूर्ण किया है ऐसे इन्द्रों ने उत्कृष्ट रूप से जन्माभिषेक को समाप्त किया ॥११६-११७॥ इन्द्राणियों के साथ इन्त्रों ने तथा भक्ति से भरे हुए १. मा+प्रागा अस्माकम् इनिनदेदः २. रत्नत्रयकर पुण्यानाम् ३. भवाधिशाम्तये क. ४. 'फाग' इति हिन्दी ।
ना डोट चम्न कृतजाः ।
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१५४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित
छन्द्राणीभिः समं चेन्द्रा विश्वे देवा जगत्पतिम् । देव्य: परीत्य मूर्ना तं प्रणेमुर्भक्तिनिभरा: १११८ । सदापद्दिवः पौष्पी वृष्टिीरकणेः समम् । मातरिश्या बबो मन्दं स्नानाम्भःशीकररान्किरन् । यत्र स्नापयिता शक्रः स्नानपीठः सुदर्शनः । देवाङ्गनाः सुनर्तक्यो गन्धर्वा गोतगायिन: ।१२०। चतुर्षा किरा देवाः स्नानद्रोणी पयोऽर्णव: । जगद्गुरुः समाराध्य' सञ्चनीयं महन्छुभम् । १२१॥ सर्वातिशयसंपूर्ण जिनस्नानमहोत्सवम् । छद्मस्थस्तं निरौम्यं क्षमो वर्णयितु हि क: १२२
मालिनी इति सकलसुरौघा जन्मकल्याणमुच्चैः-परमनिखिलभूत्या तीर्थकृत्पुण्यपाकात् । शिवगतिसुखहेतोर्यस्य चकु: स नोऽब्याद् भवजलनिधिपातासंस्तुतस्तद्गुणोघः ।।१२३।।
शार्दूलविक्रीडितम् धभात्ताप महोत्सव सुरगिरी कल्पाधिस्तीयकृद्
धर्मात्पूज्यपदं सुखं नृसुरजं बाल्येऽपि लोकत्रये ।
समस्त देब देधियों ने प्रदक्षिणा देकर उन्हें शिर से प्रणाम किया ॥११।। उस समय बल करणों के साथ प्राकाश से फूलों की वर्षा पड़ रही थी और अभिषेक सम्बन्धी जल के कणों को बिखेरता हुमा पवन मम्द मन्द चल रहा था ॥११६॥ जिसमें अभिषेक करने वाला इन्द्र धा, सुदर्शन मेर स्नानपीठ था, देवांगनाएं' उत्तम नृत्यकारिणी थीं, गंधर्व गीत गाने वाले थे, चतुणिकाय के देव किङ्कर थे, क्षीर सागर स्नान का कुण्ड था, जगद्गुरु-जिनेंद्र माराधना करने योग्य थे, महान पुण्य संचय करने योग्य था, जो समस्त प्रतिशयों से परिपूर्ण था तथा उपमा से रहित था उस जन्माभिषेक के महोत्सव का वर्णन करने के लिये कौन छमस्थ समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥१२०-१२२।।
इस प्रकार तीर्थकर प्रकृति नामक पुण्यकर्म के उदय से समस्त देवसमूह ने अत्यंत उत्कृष्ट तथा सम्पूर्ण विभूति के साथ जिनका जन्म कल्याणक सम्पन्न किया था, जो मोक्षपति के सुखों की प्राप्ति में कारण थे तथा अपने गुण समूह के कारण जो अच्छी तरह स्तुत हुए थे वे भगवान पार्श्वनाथ हम सबको संसार सागर के पतन से रक्षा करें ॥१२३॥ तीर्थकर पार्श्वनाथ धर्म से सुमेरु पर्वत पर इन्द्रों के द्वारा किये हुए महोत्सव को प्राप्त हुए तथा धर्म से उन्होंने बाल्यावस्था में ही त्रिलोक पूज्य पद तथा मनुष्य और देवनति सम्बंधी सुख प्राप्त किये ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो ! तुम निरन्तर यत्नपूर्वक
१. पवनः २. क्षीरसागरः।
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* द्वादशम सर्ग *
मत्तीह बुधाः कुरुध्वमनिशं धर्मं जिनास्योद्भवं
मनन्त गुण दोगुणहरो धम्मं व्यधुर्धार्मिकाः
शुद्धघादिसुभावनाभिरमलाभिश्चैव यत्नात्परम् ।। १२४ ।।
धर्मेणा किला शिवपदं धर्माय मूर्ध्ना नमः ।
धर्मान्नास्त्यपरो गुरुस्त्रिभुवने धर्मस्य मूलं मनः-
[ १५५
पित्रोर्भवने चकार धनदो वृष्टि मगोनां परां
शुद्धिमिह दधे वरवृषे मे तिष्ठ चित्त वृष ।। १२५ ।।
१. इन्द्रः ।
षण्मासान् जिनपस्य पूर्वमसमां गर्भावतारास्पुनः ।
विश्वाश्चर्यकरां दिवश्च नवमासान्गर्भमासादिते जाते मेरुगिरी हरिश्च' स्नपनं नः सोऽस्तु तद्भूतये ।। १२६ ।। इति भट्टारक श्रीसकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथचरित्रे जन्माभिषेकवर्णनो नाम द्वादशः सर्गः ।। १२ ।। दर्शनविशुद्धि आदि निर्मल भावनाओं के द्वारा जिनमुखोद्भत - जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म का प्राचरण करो ।।१२४॥ धर्म अनन्त गुणों को देने वाला तथा प्रमुखों को हरने वाला है, धार्मिक पुरुष धर्म करते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र ही मोक्ष पद प्राप्त होता है, धर्म के लिये मस्तक से नमस्कार करता हूँ, तोनों लोकों में धर्म से बढ़कर दूसरा गुरु नहीं है, धर्म का मूल मन की शुद्धि है, मैं उत्कृष्ट धर्म में वित्त धारण करता है, हे धर्म ! तुम मेरे चित्त में स्थित होम्रो ।। १२५ ।। जिन जिनेन्द्र के गर्भावतार के छह माह पूर्व से कुबेर ने माता पिता के घर में मणियों को उत्कृष्ट दृष्टि की। पश्चात् गर्भ में आने पर लगातार नौ मास तक श्राकाश से सब को श्राश्वर्य उत्पन्न करने वाली रत्नवृष्टि की और उत्पन्न होने पर इन्द्र ने मेरु पर्वत पर जिनका अभिषेक किया ये पार्श्वनाथ भगवान् हमें अपनी विभूति के लिये हों अर्थात् हमें अपनी विभूति प्रदान करें ।। १२६॥
इस प्रकार भट्टारक सकलकीति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में जन्माभिषेक का वर्णन करने वाला बारहवां सर्व समाप्त हुआ ||१२||
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१५६ ]
* श्री पारर्वनाथ चरित *
त्रयोदशः सर्गः नमः श्रीपञ्चकल्याणभागिनेऽनन्तशर्मणे ।हन्ने विश्वायविध्नानां श्रीपाश्र्वाय जितात्मने ।। १५ प्रपाभिषेके संपूर्णे होन्द्राणी त्रिजगद्गुरोः । प्रसाधन विधौ यत्नमरोबहुकौतुका ॥२॥ निसर्गतिपवित्रस्याभिषिक्ताङ्गजिने शिनः । ममार्जाङ्गास्यलग्नाम्भःकणान्सात्यमलांशुक: ।।३।। शमी गात्रं जिनेन्द्रस्य दिव्यामोदविलेपनः । मन्वलिप्यत लिम्पद्भिरिवामोदर्जगद्गृहम् ।।४।। त्रैलोक्यतिलकस्यास्य ललाटे तिलकं महत् । शची चक्रे मुदा केवलं स्वाधार प्रसिद्धये ॥५॥ जगन्धुगमणेरस्य मूनि मन्दारमालया । उस्तसं च दधे चूडामणिसान्निध्यमूर्जितम् ॥६॥ जगन्ने त्रस्य तीर्थेशस्य महादिव्यचक्षुषोः । साधादजनसंस्कार स्वाचार इति लभ्यते ॥७।। कर्णावविक्षसचिछद्रावलंचक्रे शची मुदा ।कुण्डलाम्यां विजितेन्दुभ्यां मरिण रश्मिकोटिभिः८॥
पोश सर्ग जो पञ्चकल्यारण को प्राप्त हैं, अनन्तसुख से संपन्न हैं, समस्त पुण्य कार्यों में प्राने वाले विघ्नों के नाशक हैं तथा जितेन्द्रिय हैं उन पाश्वनाथ भगवान के लिये नमस्कार हो॥१॥
प्रयानन्तर अभिषेक पूर्ण होने पर बहुत भारी कौतूहल से युक्त इन्द्राणी तीनों जगत् के गुर जिनेन्द्र देव को अलंकार धारण कराने में यत्न करने लगी॥२।। सर्व प्रथम इन्द्राणी ने स्वभाव से पवित्र तया अभिषिक्त अङ्ग वाले जिनेन्द्र के शरीर और मुख में लगे हुए जलकरणों को प्रत्यन्त निर्मल वस्त्रों से साफ किया ।।३।। जो अपनी सुगन्ध से जगवरूपी घर को लिप्त कर रहे थे ऐसे विव्यगन्ध वाले विलेपनों से इन्द्राणी ने जिनेन्द्र के शरीर को लिप्त किया ॥४॥ तीन लोक के तिलस्वरूप इन भगवान् के ललाट पर इन्द्राणी ने हर्षपूर्वक जो बड़ा तिलक लगाया यह मात्र अपने नियोग की पूर्ति के लिये लगाया था शोभा के लिये नहीं ॥५॥ जगत् के चूडामरिण स्वरूप इन जिनेन्द्र के मस्तक पर मन्चार माला द्वारा चूडामरिण के सन्निधान से श्रेष्ठ प्राभूषण धारण किया अर्थात् उनके चूडामणि के समीप कल्पवृक्षों की माला पहिनाई ॥६॥ जगत् के नेत्रस्वरूप तीर्थकर के महान् विष्य नेत्रों में जो उसने अञ्जन लगाया था वह अपने नियोग से ही लगाया था ऐसा जान पड़ता है ॥७॥ विना वेधे हो छिव सहित उनके कानों को इन्द्राणी ने रत्तरश्मियों के अग्रभाग २. निसिलपुण्यान्तरायाणां ।
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* त्रयोदशम सर्ग *
[ १५७ परिणहारेण कण्ठेऽस्य कुर्याच्छोभा परा च सा । बाह्वोः कटककेयूरमुद्रिकाङ्गदभूषणः ।। दधे मणिमयं दाम किङ्किणीभिविराजितम् । सा कट्यामस्य कल्पाङ्गधारोहनियमुहत् ।।१०।। पादाब्जी गोमुखाभासमरिणभिः शोभिती व्यधात् । झारितो सरस्वत्या कृतसेवाविवात्र सा ।।१।। इत्यादिविविधैः संस्कारश्च मण्डनकोटिभिः । निसर्गरुचिराङ्गस्य परां शोभा व्यधाच्छची ॥१२॥ तेजोनिधिरिवोद्भूतो यशोराशिरिवोजिता । सौभाग्यस्य परा कोटि: संपूवेन्दुमण्डलम् ॥१३॥ सौन्दर्यस्येव सन्दोहः पुण्यागूनामिवाकरः । लक्ष्म्यास्थानस्तदा सोऽभाषितोऽत्रासने विभु॥१४ मणिभूषणविन्यस्तस्वाङ्गकान्तिप्रदीप्तिभिः । कल्पशाखीव रेजे स शाखाग्रस्थविभूषणः ।।१५।। इति प्रसाध्य तं देवं शक्रोत्सङ्गगतं शची। विस्मयं स्वयमायासीत्पश्यन्ती रूपसम्पदम् ।।१६।। तद्रूपातिशयं दृष्ट्वा हृत्तृप्तिजनक हरिः । 'स्पृहालुस्तं पुनद्रष्टु सहस्राशोऽभवत्तदा ।।१७।। निमेषविमुग्वैदिव्यैर्लोचनस्तं जगद्गुरुम् । निधान वा मणीनां च ददृशुः कृतकौतुकाः ।।१८।। से चन्द्रमा को जीतने वाले कुण्डलों से हर्षपूर्वक अलंकृत किया था । उसने मरिणयों के हार से इनके कण्ठ में तथा कटक, बाजूबन्द, मुद्रिका और प्रगाव प्रादि प्राभूषणों के द्वारा इनकी भुजाओं में परम शोभा उत्पन्न की थी ॥६॥ उसने इनकी कमर में क्षुद्रष्टिकानों से सुशोभित, तथा कल्पवृक्ष के अंकुर की शोभा को धारण करने वाली मरिणमय मेलला पहिनाई थी ॥१०॥ उसमे इनके चरणकमलों को गोमुख के समाम माभा बाले मरिणयों से सुशोभित किया। उनके झाङ्कार से युक्त चरण कमल ऐसे जान पड़ते थे मानों सरस्वती ही उनकी सेवा कर रही हो ॥११॥ इत्यादि नाना प्रकार के संस्कारों और प्राभूपरपों के अग्रभाग के द्वारा इन्द्राणी ने स्वभावतुभग शरीर वाले जिनबालककी परम शोभा उत्पन्न की ॥१२॥ जो प्रकट हुए प्रताप के मानों भाण्डार थे, अतिशय विस्तृत यशोरासि के समान थे, सौभाग्य की परम कोटि थे अथवा संपूर्ण चन्द्र मण्डल के समान थे, सौन्दर्य के समूह थे, पुण्य परमाणुषों की खान थे और लक्ष्मी के सभागृह थे ऐसे वे विभूषित विभु प्रासन पर सुशोभित हो रहे थे।।१३-१४।।
मणिमय प्राभूषणों से युक्त अपने शरीर को कान्ति और दीप्ति से वे उस कल्पवृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे जिसकी शाखाओं के अग्रभाग पर आभूषण स्थित है ॥१५॥ इस प्रकार इन्द्र की गोद में स्थित उन जिनबालक को अलकृत कर उनकी रूपसंपदा को देखने वाली इन्द्राणी स्वयं विस्मय को प्राप्त हो रही थी ॥१६॥ हृदय में संतोष उत्पन्न करने वाले उनके रूपातिशय को देखकर इन्द्र उन्हें फिर से देखना चाहता था इसी लिये क्या वह उस समय सहस्राक्ष-हजार नेत्रों वाला हो गया था ॥१७॥ कौतुक
१. 'स्पृहयालुः' इति प्रसिद्ध रूपम् ।
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१५८ ]
*श्री पारवनाथ चरित विश्वेऽसुराः सुराः शक्रा: शभ्यो देव्योऽन्स रोवराः । निरौपम्यं तदात्ययं जगदानन्ददायिनम् ॥१६॥ ततस्तं स्तोतुमिन्द्राद्याः प्राकमन्तामरा मुदा । माहात्म्यं प्रकटीकृत्य पुष्कलं तीर्थकद्भवम् ॥२०॥ स्वं देव परमानन्दं दातुमस्माकमुद्गतः । बोधितु जगतो यद्भानुरब्जाकरान् भुवि ।।२१॥ मिथ्यामानान्धकूपेऽस्मिनिपतन्तमिमं जनम् । ऊरिष्यसि नाप त्वं मंहस्साबलम्बनः ।।२२।। भवद्वारिकरणः स्वामिन् दुश्छेचं नो मनस्तमः । पुरा प्रलीयते लोके यथा भास्वत्करेस्तमः ।।२३।। स्वं देव जगतां भर्ता बन्धुस्त्वं कारणं विना । त्वं त्राता भवभीरूणां त्वं पिता च हितकरः ॥२४॥ रवं पूसात्माखिलान्भध्यान्पुनासि धर्मवृष्टिभिः । दुःकर्मव्याधिशान्त्यै त्वं दास्यस्योषषं सताम् ।।२।। वरिष्यन्ते गुणाः सर्वे वपुषामा प्रभो त्वयि । संख्यातिगा ध्र वं चान्धौ शुक्लपक्षे यपोर्मयः ।।२६।। प्रस्नासपूतगात्रस्त्वं स्नापितोऽद्यात्र वारिभि: । नः पवित्रयितु चित्त दु:कर्मादिमलीमसम् ।।२७॥ से युक्त समस्त सुर, असुर, इन्द्र, इन्द्राणियों, देवियों और अप्सराओं ने निरुपम तथा जगत को प्रत्यधिक प्रानन्द देने वाले मरिणयों के निधान के समान उन जगत्गुरु को टिमकार रहित विम्य नेत्रों से देखा था ॥१८-१६॥
तदनन्तर इन्वादिल देष, तीवार नामकर्म से होने वाले बहुत भारी माहात्म्य को प्रकट कर हर्षपूर्वक उनकी स्तुति करने के लिये तैयार हुए ॥२०॥
हे देव ! जिस प्रकार पृथिवी पर जगत् को जागृत करने और कमल धन को विकसित करने के लिये सूर्य उदित होता है उसी प्रकार प्राप हम सब को परमानन्द देने तथा जगद को बोधित-ज्ञानयुक्त करने के लिये उदित हुए हैं ॥२१॥ हे नाथ ! इस मिथ्याज्ञान रूपी अन्धकूप में पड़ते हुए इस जन समूह को पाप धर्मरूपी हस्त का अवलम्बन देकर निकालेंगे ॥२२॥ हे स्वामिन् ! जिस प्रकार सूर्य की किरणों से अन्धकार मष्ट हो जाता है उसी प्रकार प्रापके वचनरूपी किरणों से हमारे मन का दुश्छेद्य कठिनाई से छेवन करने योग्य प्रमानान्धकार पहले ही नष्ट हुमा जाता है ॥२३॥ हे देव ! तुम जगत् के स्वामी हो, तुम जगत् के अकारण बन्धु हो, तुम संसार से भयभीत मनुष्यों के रक्षक हो और तुम हितकारी पिता हो ।।२४।। पवित्र प्रात्मा से युक्त तुम, धर्मवृष्टि के द्वारा समस्त भव्य जीवों को पवित्र करते हो और तुम वुष्कर्मरूपी रोग को शान्ति के लिये सत्पुरुषों को पौषध प्रदान करोगे ।।२५॥ हे प्रभो ! जिस प्रकार शुक्ल पक्ष के समय समुद्र में असंख्य लहरें बढ़ने लगती हैं उसी प्रकार निश्चित ही आप में शरीर के साथ समस्त गुण बढ़ने लगेंगे ॥२६॥ प्रापका शरीर तो स्नान के बिना ही पवित्र है, फिर प्राज जो यहां जल के द्वारा स्नपन किया गया है वह दुष्कर्म प्रावि से मलिन अपने चित्त को पवित्र करने के
१. प्रारभन्त २. शरीरेण सह ।
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* प्रयोदशम सर्ग
[ १५९
प्रतीक सुन्दरो नाथामण्डितस्त्वं विभूषणः । मण्डितो मण्डनीभूत केवलं मण्डनाय नः ॥२८।। मणिः शुद्धाकरोद्भूतो यथा संस्कारकर्मभिः । दीप्यतेऽधिकमेव त्वं जातकर्मादिसंस्कृतः ॥२६॥ प्रहनिष्यसि नाथ त्वं मोहमिथ्यादि धीमताम् । द्योतयिष्यसि स्वमुक्तिमार्गों दिव्यवचोंऽशुभिः।।३।। चतुर्शानधरा देव त्वां स्तोतु च क्षमा न हि । मुनयोऽति मत्यास्माभिः स्तुती न कृतः श्रमः।।३।। प्रतः पूतात्मने तुभ्यं नमस्ते गुणसिन्धवे । त्रिजगत्स्वामिने तुम्यं नमो भीतिभिदे सताम् ।।३२।। जगदालादिने तुभ्यं नमोऽस्तु गुरवे सताम् । नमस्ते निर्विकाराय सर्वातिशयशालिने ॥३३।। निःस्वेदाय नमस्तुभ्यं निसर्गनिर्मलाय ते । क्षीराच्छशोणिताङ्गाय चाद्यसस्थानमूर्तये ॥३४।। वज्रर्षभादिनाराचदृढसंहननाय च नमस्ते दिव्यरूपाय सुगन्धवपुषे नमः ॥३५॥ सर्वलक्षणपूर्णाय नमस्ते तीर्थकारिणे ।प्रप्रमाणसुवीर्याय वचःप्रियहितात्मने ॥३६॥
लिये किया गया है प्रापको पवित्र करने के लिये नहीं ॥२७॥ हे नाथ ! पाप तो आमूषरणों से विभूषित किये बिना ही अत्यन्त सुन्दर हैं फिर हे प्राभूषण स्वरूप ! प्राज जो प्रापको विभूषित किया गया है वह मात्र हम लोगों को विभूषित करने के लिये किया गया है ॥२८॥ जिस प्रकार शुद्ध बाद से उत्पना मा मणि मंकार क्रिया से अत्यधिक देदीप्यमान हो जाता है उसी प्रकार शुद्ध माता से उत्पन्न हुए पाप जातकर्म-जन्माभिषेक आदि से संस्कृत होकर अत्यधिक देदीप्यमान हो रहे हैं ॥२६॥ हे नाथ ! तुम बुद्धिमानों के मोह मिथ्यात्व प्रावि को नष्ट करोगे और दिव्यध्वनि रूप किरणों के द्वारा स्वर्ग तथा मोक्ष के मार्ग को प्रकाशित करोगे ॥३०॥ हे वेब ! हार शाम के धारक मुनि प्रापकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं यह मान कर हमने प्रापकी स्तुति में भ्रम नहीं किया है ॥३१॥ जिस कारण प्राप पवित्रात्मा तथा गुणों के सागर हो इसलिये पापको नमस्कार हो । जिस कारण माप तीन जगत् के स्वामी और सत्पुरुषों के भय को नष्ट करने वाले हैं इसलिये प्रापको नमस्कार हो ॥३२॥ पाप जगत् को प्राल्लावित करने वाले हैं सपा सत्पुरुषों के गुरु है प्रतः प्रापको नमस्कार है। माप विकार से रहित तथा समस्त प्रतिपायों से शोभायमान है प्रतः प्रापको नमस्कार है ॥३३॥ माप पसीना से रहित हैं, स्वभाव से ही निर्मल है आपका शरीर दूध के समान सफेद रुधिर से सहित है और पाप समचतुरमा संस्थान के धारक हैं अतः प्रापको नमस्कार हो ॥३४॥ माप बकामनाराच नामक सुदृढ संहनन से युक्त हैं, दिव्यरूप के धारक हैं, तथा सुगन्धित शरीर से सहित हैं इसलिये प्रापको नमस्कार हो ॥३५॥ प्राप समस्त लक्षणों से पूर्ण हैं, तीर्थकर है, अतुल्य बल से सहित हैं तथा हित मित प्रिय वचन बोलने वाले हैं इसलिये प्रापको नमस्कार हो ॥३६॥ इस प्रकार आप जन्म के दश प्रतिशयों से सहित हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो । पाप अन्य
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१६. ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित. एवं दशसहोत्पन्नातिशयसंयुजे' नमः । अन्यामितगुणायैव नमस्ते विश्वदशिने ॥३७॥ भवन्तमित्यभिष्टुस्य देव नाशास्महे वयम् । सर्व त्रैलोक्यसाम्राज्यं तत्र निर्लोभिनोऽखिले ॥३८।। किन्तु देहि त्वमसालकमक्ष सिसो समाघि र शुभति त्वद्गुणान् द्र तम् ॥३६॥ बह्वधा प्रार्थनया कि या विधेयका सुनिर्भराम् । भक्ति त्वयि समस्तं सा स्वाभीष्टं नः करिष्यति ।४०। अन्मकल्याणकस्तुत्यादौ पूर्णे सति सोत्सवाः । भूयो मति हि शका वाराणसीगमने व्यधुः ।।४।। तथैव प्रहता भेयस्तथोक्ता जयघोषणाः । तथवैरावतस्कन्धे स्वाक्षारूढं जिन व्यघात् ।।४२।। जयदुन्दुभिनिर्घोषीत त्य महोत्सवैः । नमोऽङ्गणं समुत्पत्य द्रामाजग्मुः सुराः पुरीम् ।।४३।। तामारुध्य पुरीं विश्वगनीकानि सुरेशिनाम् । देवा देव्यश्च ख वीथीनं तस्थुः स्ववाहनः ।।४४।। ततो जिनेन्द्रमादाय देवैः कतिपयैः समम् । स विवेश नृपागारं पराद्धर्ष मणिमण्डितम् ॥४५॥ तत्रानेकमहारत्ननिबद्ध श्रीगृहाङ्गणे । हैमसिंहासने देवं सौधर्मेन्द्रो न्यबीविशत् ।।४६।।
अपरिमित गुणों से सहित तथा सर्वदर्शी हैं प्रतः आपके लिये नमस्कार हो ॥३७॥ हे देव! इस प्रकार प्रापकी स्तुति कर हम उसके फलस्वरूप तीन लोक का सम्पूर्ण राज्य नहीं चाहते हैं पयोंकि हम समस्त सांसारिक पदार्थों में निर्लोभी है किन्तु हे विभो ! पाप हमें दुःखदायक कर्मों का भय, रत्नत्रय , समाधि-वित्त की स्थिरता, सुमरण-सरलेखमा में और शीघ्र ही अपने गुण वें ॥३८-३६॥ अथवा बाहत प्रार्थना से क्या लाभ है ? प्राप अपने पाप में सातिशय एक भक्ति ही वे दीजिये-मेरी सुदृढ भक्ति पाप में बनी रहे ऐसा कर बीजिये वह एक भक्ति ही हमारे समस्त मनोरथ सिद्ध कर देगी ॥४०॥
इस प्रकार जन्मकल्याणक सम्बन्धी स्तुति प्राधि के पूर्ण होने पर उत्सवों से सहित इन्द्रों ने पुनः वाराणसी जाने का विचार किया ॥४१॥ उसी प्रकार भेरियां बजाई गई उसी प्रकार जय जयकार को घोषणाएं की गई और उसी प्रकार इन्द्र ने ऐरावत हाथी के कन्धे पर जिनबालक को अपनी गोद में प्रारुल किया ॥४२॥ जय मेरियों के जोरदार शब्बों, गीतों, नृत्यों तथा महोत्सवों से प्राकाशाङ्गण को लांघकर देव शीघ्र ही वाराणसी मगरी में प्रा पहुंचे ॥४३॥ देवों की सेनाएं, देव और देवियां-सभी लोग अपने अपने वाहनों द्वारा चारों ओर से उस नगरी को, आकाश को, गलियों को तथा बन को रोक कर स्थित हो गये ॥४४॥
तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान को लेकर कुछ देवों के साथ श्रेष्ठ मरिणयों से सुशोभित राज भवन में प्रवेश किया ॥४५॥ वहां उसने अनेक महारत्नों से खचित श्री
१. संपुरणे ख० ग० २. स्तुत्पादिपूणे स. ग. 1
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* त्रयोदशम सर्ग *
[ १६१ विश्वसेनः समुद्भिन्नपुलकं गात्रमुहन् ।विस्फारित सनेत्राम्या पोमा सन् दन नम्॥४७॥ मायानिद्रा निराकृत्य शच्या देवी प्रबोधिता । समं स्वपरिवारेणैक्षिष्ट हृष्टा अगरपतिम् ॥४८॥ तेजःपूजमिवोमूतं शुभाणूनां चयं विषा । परब्रह्मस्वरूपं वा साक्षात्प्रत्यक्षमागतम् । ४६।। साई शमादिकल्पेशं तावद्राष्टां जगत्पते: । पितरौ निसरां प्रीतो परिपूर्णमनोरथी ।।५।। ततस्तौ त्रिजगस्पूज्या पूजयामास देवराट् । महाप्रविचित्रश्च भूषण: सम्भिरंसुकैः ॥५॥ प्रोत्या नो प्रशशंसेति सौधर्मेन्द्रः सहामरैः । पुण्ययन्तौ युवां धन्यौ ययोः पुत्रो जगद्गुरुः ।।५२॥ सौभाग्यम्य पर कोटिं युवां प्राप्नो जगदितो । विश्वग्रण्यौ युवां लोके युधौ कल्याणभागिनी।। ५३॥ पूज्यो स्तुत्यो सतां मान्यौ युवा लोकत्रयेऽद्भुतो । युक्योर्न तुला लोके पितरी त्रिजगत्पितुः ।।४।। जिनागारमियागारमिदमाराध्यमद्य नः । सेव्यो चाच्यों यतोऽस्मद्गुरीगुरूपमिणो युवाम् ।५५॥ इत्यभिष्टुन्य सौ सूनुमर्पयित्वा स तत्करे । शक: प्रोतःक्षणं तस्थौ कुर्यस्तत्तीर्थकृस्कयाम् ॥५६।। गृहागरण में सुवर्णमय सिंहासन पर जिनेन्द्र देव को बैठा दिया ॥४६॥ रोमाञ्चित शरीर को धारण करने वाले राजा विश्वसेन ने विस्तृत नेत्रों द्वारा प्रीतिपूर्वक उस पुत्र को देखा ॥४७॥ मायामयी निद्रा को दूर कर इन्द्राणी के द्वारा जगाई हुई बाह्मी देवी ने भी हर्ष विभोर होकर अपने परिवार के साथ जगत्पत्ति-जिनेन्द्र को देखा ॥४८॥ उस समय जगस्पति-जिनेन्द्र, कान्ति से ऐसे जान पड़ते थे . मानों तेज का पुञ्ज हो प्रकट हुमा है, अथवा सुभ परमाणुत्रों का पिण्ड है अथवा प्रत्यक्ष माया हुमा परब्रह्म का स्वरूप हो है ।।४।। चिने के माता पिता ने जिमेल के साथ इन्द्राणी तथा सौधर्मेन्द्र को भी देखा जिससे वे प्रत्यन्त प्रसन और परिपूर्ण मनोरय हो गये अर्थात् उनके मनोरथ पूर्ण हो गये ॥५०॥ सामन्तर सममेंद्र ने तीन जगद के द्वारा पूज्य उन माता पिता को महामूल्यवान विचित्र मालपणों, मालामों और वस्त्रों से पूजा की ॥५१॥ सौधर्मेन्द्र ने देवों के साथ प्रीसिपूर्वक उनको इस प्रकार प्रशंसा की-पाप बोनों महान पुण्यवान् तथा धन्यभाग हैं जिनके कि जगदगुरु पुत्ररूप से प्रवतीर्ण हुए हैं ।।५२।। प्राप दोनों सौभाग्य की परम कोटि को प्राप्त हए हैं, जगत् हितकारी हैं, लोक में सबके अग्रणी हैं, विद्वान है, कल्याण के भागी हैं, पूज्य है, स्तुत्य है, सत्पुरुषों के मान्य हैं, और तीनों लोकों में पद्धत हैं । लोक में प्राप दोनों की उपमा नहीं है क्योंकि आप त्रिलोकीनाथ के माता पिता है । यह घर माज हम लोगों को जिनमन्दिर के समान पूज्य हो गया है। धर्म से युक्त प्राप दोनों हम लोगों के सेवनीय तथा पूजनीय है क्योंकि प्राप हमारे गुर के गुरु-माता पिता है।५३-५५। इस प्रकार माता-पिता की स्तुति कर तथाउनके हाथ में पुत्र को समर्पित कर प्रीति से भरा हुमा इन्द्र क्षण भर खड़ा
१. तो प्रनाष्टाम् इतिच्छेदः ।
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१६२ ]
• श्री पारवनाथ चरित है कृत्स्नमिन्द्रोवितं श्रुत्वा मेरो जन्ममहोत्सवम् । प्रमोदविस्मयादेस्तो परां कोटि समाश्रितो ।५।। भूयः सकानया भूत्या जातकर्ममहोत्सबम् । कुरुतस्तो समं पोरबन्धुभिः समहोत्सवः ॥५८।। नानापर्णध्वजैदिव्यतोरण रचनाकितैः । महोत्सर्जनाचक्र : स्वःपुरी वा तवा पुरीम् ।।६।। भूपामोदिशो सेवाः पटवासैस्ततं नमः । गीतमङ्गलवायाचदिक्वक बधिरीकृतम् ॥६०।। पुरीबीध्यस्ता भान्ति रत्नघूर्णजस्वस्तिकः । धन्यनद्रवससिक्ता स्व:पुर्ण इव वीषयः ॥६॥ तदुस्समेऽसिमः पौरो गोतवाचंच नर्तन: । मङ्गले राजलोकोऽभूत्सुप्रीत्यानन्दनिर्भरः ॥६२।। पादौ हि परया भूस्या जातकर्ममहोत्सवे । मिनागारे जिने शानो विश्वकल्याण वृद्धये ॥६३।। परमोत्सवमाचक निश्वसेनादयो जनाः ।महाभिषेक पूजाः सर्वाम्युदयसाधनम् ॥६४।। दीनानाथाङ्गिपविम्यो दयो बानाम्यनेकशः । स्वजने म्यो यथायोग्यं वस्त्रभूषादि भूपतिः ।।६।। म सदा दृश्यते कोऽपि दीनो वा 'दुबिधो जनः । कृपणो वाष्पपूर्णाक्षो निःप्रमोदोऽप्यकौतुकः।।६६।। रहा और उन्हीं तीर्थकर की कथा करता रहा ॥५६॥ इन्द्र के द्वारा कथित, मेरु पर्वत पर होने वाले समस्त जन्म महोत्सव को सुनकर माता पिता हर्ष तथा प्राश्चर्य प्रावि की परम कोटि को प्राप्त हुए ॥७॥
तवनम्तर इन्द्र को माता से उन्होंने महोत्सव से परिपूर्ण नागरिक जनों तथा बन्धु वर्ग के साथ बंभव के अनुसार जम्ममहोत्सव किया ॥५८॥ उस समय लोगों ने रङ्ग विरङ्गी बजामों, नाना रचनामों से युक्त विष्य तोरणों तथा अन्य महोत्सवों से अपनी नगरी को स्वर्गपुरी के समान बना दिया था ।।५६॥ धूप की सुगन्ध से विशाए रुक गई सुगन्धित पूर्णो से आकाश व्याप्त हो गया और गीत तथा मङ्गल बाजे प्रादि से दिशात्रों का समूह बहिरा हो गया ॥६॥ उस समय रत्न यूरणं से निर्मित स्वस्तिकों से नगर को गलियां पन्दन के प्रप से सींची गई स्वर्गपुरी की गलियों के समान सुशोभित हो रहीं थीं ॥५१॥ उस उत्सव में समस्त नागरिक लोग, गायन वादन नृत्य तथा अन्य मङ्गलाचारों से उत्तम प्रीति तपा मामय से परिपूर्ण राज परिवार हो गये थे प्रर्याद जैसा उत्सव राज परिवार में किया जा रहा था बंसा ही उत्सव समस्त नागरिक लोग कर रहे थे ॥६२।।
जातकर्म के महोत्सव में राजा विश्वसेन प्रावि जनों ने सबसे पहले जिन मन्दिर में समस्त कल्यारणों की वृद्धि के लिये परम विभूति के साथ जिन प्रतिमानों के महाभिषेक सभा पूजा मावि के द्वारा सब अभ्युदयों का साधनभूत परम उत्सव किया था ॥६३-६४।। राजा ने दोन प्रनाथ जनों तथा स्तुति पाठकों को अनेक बार दान दिया और प्रात्मीय जनों को यथायोग्य वस्त्राभूषणावि दिये ॥६५।। उस समय कोई ऐसा मनुष्य नहीं दिखाई । परिनः २. पश्रुपूर्णनेत्रः।
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[ १६३
* त्रयोदशम सर्ग
संप्रमोदमयं विश्वमित्यालोक्य शचीपतिः
॥६७॥
| जन्माभिषेक सादृश्यमत्यर्थ कौतुकेरितः स्वं प्रमोद परां भक्ति स्वानुरागं प्रकाशयन् | सार्धं देवं मनोवृति प्रारब्धानन्दनाटकम् ||६६ ॥ १६६।। वृत्तारम्भे तदेन्द्रस्य सज्जो गीतचयो महात् । गन्धर्वैस्तद्विधानज्ञेस्तद्योग्यवाद्यवादनः प्रेक्षका विश्वसेनाच्चाः सकलत्राः सबान्धवाः । जिनेन्द्र ेण समं तस्थुर्नाटकेऽस्मिस्तदीक्षितुम् ।। ७० ।। प्रादौ समवतारं कृत्वा त्रिवर्गफलप्रदम् | जन्माभिषेकसंबद्ध प्रायुक्त'नं मुदा हरिः ॥७१ । नदावतार संदर्भमधिकृत्य जगद्गुरोः | ताण्डवारम्भमेवासाग्रही दषहानये
ततोऽकरोद्वरान्यत्स रूपकं बहुरूपकम्
॥७२॥
पूर्व रङ्गप्रसङ्ग ेन
पुष्पाञ्जलिपुरस्सरम्
।।७३॥
नान्दी प्रयोज्य सोऽन्ते ऽस्यादिशन् रङ्ग महदुमभौ । धृतमङ्गलने पच्यः कल्पशास्त्रीय देवराट् ॥७४॥ सलयैः पादविन्यासः परितो रङ्गमण्डलम् 1 परिक्रामन्नसी रेजे मिमान इव तद्धराम् ॥७५॥ कृतपुष्पाञ्जली ताण्डवाग्म्मसंभ्रमेऽस्य हि । दिवोऽमुचन् सुराः पुष्पवर्ष तद्भक्तिमोदिता: । ७६॥ वीणा मधुरमारेणुः कलं वंणा विसस्वनुः । मन्द्र मनोहरं गानं किन्नरोभिः समुज्जगे ।।७७।।
देता था जो वीन हो, बरित हो, कृपण हो, प्रभुपूर्ण नेत्रों वाला हो, हर्ष रहित हो और कौतुक से शून्य हो ।। ६६ ।। समस्त लोक मानव से पूर्ण हो रहा है यह देख जो प्रत्यधिक कौतुक से प्रेरित हो रहा था तथा जन्माभिषेक के अनुरूप अपने हर्ष, परमभक्ति, स्वानुराग और मनोवृत्ति को प्रकट कर रहा था ऐसे खोधर्मेन्द्र ने देवों के साथ प्रानन्द नामक नाटक प्रारम्भ किया ।।६७-६८ ।। उस समय रूद्र के नृत्यारम्भ में नृत्य के विधान को जानने वाले तथा उसके योग्य बाजा बजाने वाले गन्धर्षो ने गीतों का बहुतभारी समूह तैयार किया था ॥ ६६ ॥ स्त्री तथा बन्धुजनों से सहित विश्वसेन भादि दर्शक उसे देखने के लिए इस नाटक में जिनेन्द्र के साथ बैठे थे ||७०1। सबसे पहले इन्द्र ने त्रिवर्गरूप फल को देने वाला मान्यो प्रावि रङ्गावतार किया और उसके पश्चात् जन्माभिषेक से संबद्ध नाटक किया ।। ७१|| तदनन्तर जगद्गुरु के नौ भवों के संदर्भ को लेकर अन्य अनेक रूपक किये ॥७२॥ पापक्षय के लिये पूर्वरङ्ग के प्रसङ्ग से पुष्पाञ्जलि बिखेरते हुए उसने ताण्डव नृत्य का ही प्रारम्भ किया ।। ७३ ।। नान्दी कर उसके अन्त में जो रङ्गस्थल को बहुत भारी प्रावेश वे रहा था तथा जिसने मङ्गलमय देव धारण किया था ऐसा इन्द्र कल्पवृक्ष के समान सुशोभित हो रहा था ।। ७४ । । रङ्गभूमि के चारों छोर लय सहित पादविन्यास से घूमता हुआा इन्द्र ऐसा जान पड़ता था मानों उस भूमि को नाप ही रहा हो ।।७५।। पुष्पाञ्जलि विखेरमे के बाद ज्यों ही इन्द्र का ताण्डव नृत्य प्रारम्भ हुआ त्यों ही उसकी भक्ति से प्रसन्न देवों ने उस पर प्रकाश से पुष्प बरसाये ||७६ || बोरणाएं मधुर गान करने लगीं, बांसुरियों ने मधुर तान छेड़ दी और किनरियों ने गम्भीर तथा मनोहर गान गाना प्रारम्भ कर दिया
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१६४ ]
* धो पाश्वनाथ चरित - मृदङ्गा दध्वनुश्चान्यस्तयोग्यबधिकोटिभिः । कलं गायन्ति गम्भस्तियोग्यं गीतसञ्चयम् ।।७।। प्रयुज्यामरराट् शुद्ध पूर्वरङ्ग मुदा क्रमात् । करण रङ्गहारविचित्रं प्रायुक्त तं पुन: ॥५६॥ रेचविविधैः पादकटीकण्ठकराश्रितः । ननाट नाटक शक्रो महान्तं दर्शयन् रमम् ।।१०।। तदा बाहुसहस्राणि विकृत्येन्द्रप्रनर्तन: । चरणन्याससंघातः स्फुटन्तीव मही चलेत् ।।१।। विक्षिप्तधाहुविक्षेपैः सभूषगंगने हरिः । कल्पवृक्ष इवानर्तीदर्शयन्प्राग्भवं सताम् ।।२।। एकरूपः सणाद्दिश्योऽनेकरूपः क्षणात्परः ।क्षणास्थूलः क्षणात्सूक्ष्मः क्षणादग्याम्नि मरणाद्भुषि कारणाहीतरः काय: मणाल्लघुतरोऽद्भुतः । क्षणाद् द्विबाहुमानरूपी क्षणाद् बहकरराकृितः ।८।। इति प्रतन्वतात्मीयं सामध्यं विक्रियोद्भवम् । इन्द्रजालामवेन्द्रण दर्शितं धीमतां तदा ।।८।।
टुरप्सरसो भलु करशास्त्रासु सस्मिताः ।सलीलचूलतोरक्षेपरङ्गहारः सचारिभिः ।।८६।। वर्व मानलयः काश्चिदन्यास्ताण्डवलास्यकः । ननूतुर्देवनतश्विरभिनयस्तदा ॥७॥ काश्चिदरावती पण्डीमैन्द्रीबध्या सुराङ्गनाः । नेटू रम्यै: प्रवेशश्च नि:क्रम : सुनियन्त्रितैः ।।८।। ॥७॥ अपने योग्य प्रम्य बाजों के साथ मृदङ्ग शब्द कर रहे थे और गन्धर्व उसके योग्य मधुर गीत गा रहे थे ।।७८१ ले हर्ष मुनगुना हो सफाई का पश्चात् करण तथा अङ्गहारों से विचित्र माटक प्रारम्भ किया ॥७६।। पर कमर काठ तथा हाथों के प्राश्रय से होने वाले नाना प्रकार के रेषकों-वतुंलाकार भ्रमण से बहुतभारी रस को प्रकट करता हुमा इन्न नाटक का अभिनय कर रहा था ।।। उस समय विक्रिया से हमार भुजाएं बना कर इन्द्र मृत्य कर रहा था। मृत्य करते समय उसके पावविक्षेप के माधात से पृथिवी ऐसी कांपने लगी थी मानों फटी ही जा रही हो ॥१॥ प्राभूषणों से युक्त भुजाओं के विक्षेप से जो कल्पवृक्ष के समान जान पड़ता था ऐसा इन्द्र सरपुरुषों को भगवान के पूर्वभव विखलाता हुमा प्राकाश में नृत्य कर रहा था ।।२॥ इन्द्र का विम्य शरीर मरणभर में एक हो जाता था, भरणभर में अनेक हो जाता था, भरणभर में स्थूल हो जाता था, क्षणभर में सूक्ष्म हो जाता था, क्षणभर में प्राकाश में चलने लगता था, क्षणभर में पृथिवी पर मा जाता था, क्षणभर में प्रत्यन्त वीर्घ हो जाता था और भरणभर में प्रत्यात लघु बन जाता था, क्षणभर में दो हाथों से युक्त रूप धारण करता था और क्षणभर में अनेक हाथों से युक्त हो जाता था. इस प्रकार अपनी विक्रिया जन्य सामर्थ्य को विस्तृत करने वाले इन्द्र ने उस समय विद्वज्जनों के लिये मानों इन्द्रजाल ही दिखाया मा ।।८३-८॥ इन्द्र की अंगुलियों पर मन्द मुसक्यान से सहित अप्सराए लोला सहित भौहें चलाती हुई, शरीर मटकाती हुई तथा फिरकी लगाती हुई मत्य कर रही थीं ॥८६॥ कोई अन्य देवनतंकिया उस समय बड़ते हुए लय से युक्त ताण्डव नृत्य से तथा अन्य अनेक प्रकार के अभिनयों से नृत्य कर रही थीं ।।७।। कितनी ही देवाननाएं इन्द्राणी के साथ ऐरावत हाथी के शरीर में
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* प्रयोदशम सर्ग *
[ १६५ रेजिरे ताः सुरेन्द्रस्य भुजदण्डेषु सम्मिताः । कल्पवल्ल्यइवोद्भूताः शास्त्रासु कल्पनाविनः ।।६।। साई ताभिः स प्रारब्धरेचको व्यरुचत्तराम् । तेजःपुञ्ज इव स्वागतदङ्गाभरणांशुभिः ।।१०।। हस्तांगुलीष शक्रस्य न्यस्यन्त्यः परपल्लवान् । सलील ननृतुः काश्चित्सूचीनाटयमिवाधिता:।।६।। वंशयष्टीरिवारुह्य देव राजकरांगुलीः । सपर्वा अपरा अमुस्तदापितनामयः ॥२१॥ प्रतिबाह सुरेन्द्रस्य सनटन्यः स्त्रियो मुदा । सयत्न संचरन्त्यो 'वाभुः शम्या वाङ्गदोप्तिभिः।६३ स्फुटग्निव कटाक्षेषु वक्त्रेषु विहश्रिव । स्फुरग्निव कपोलेषु पादेषु प्रसरनिय ॥१४॥ विलसन्निव हस्तेषु नेत्रेषु विकसमिव । रज्यनिवाङ्गरःगेषु निमज्यभित्र नाभिषु ।।१५।। वजन्निव कटीष्वासा काञ्चीदामसु चास्खलन् । तदा नाटपरसोऽङ्गेषुववृधे सोत्सवो महान् ।।६।। प्रत्यङ्गया: सुरेन्द्रस्य विक्रिया नृत्यतोऽभयन् । विधिमा तासु देवीषु ता विभक्ता इवारुचन् १९७ रमणीय प्रवेश तथा अच्छी तरह नियन्त्रित निक्रमण के द्वारा नृत्य कर रही थीं। भावार्थ-- कितनी हो देवियां ऐरावत हाथो के विक्रिया--निर्मित शरीर में व्यवस्थित रूप से प्रवेश करतो और निकलती हुई नृत्य कर रही थीं १८८1 इम्म्र के भुजवण्डों पर एकत्रित हुई देवियां कल्पवृक्ष को शाखामों पर उत्पन्न कल्पलतानों के समान सुशोभित हो रही थीं ।।८।। उन देवियों के साथ फिरकी लगाता हुमा इन्द्र अपने तथा उन देवियों के शरीर सम्बन्धी प्राभूषणों को कान्ति से तेजपुज के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥६॥ कितनी ही देवियां इन्द्र के हाथ की अंगुलियों पर अपने कर पल्लव रख कर लीला पूर्वक नृत्य कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानों सूचीनाक्ष्य हो कर रही हों ॥११॥ कोई बेवाङ्गनाएं पदं सहित बांस की लकड़ियों के समान इन्द्र के हाथ को अंगुलियों पर चढ़ कर तथा उनके अग्रभाग में अपनी नाभि रख कर घूम रही थीं ।।१२।। इन्द्र की प्रत्येक भुजा पर हर्ष से नृत्य करती हुई देवाङ्गनाए अपने शरीर को कान्ति से ऐसी जान पड़ती थीं मानों यत्नपूर्वक बिजलियां ही चल रही हों।।६३॥ उस समय उत्सव से सहित बहुत भारी नाट्यरस उन वेवाङ्गनामों के कटाक्षों में स्पष्ट होते हुए के समान, मुखों में हंसते हुए के समान, कपोलो में स्फुरित होते हुए के समान, पैरों में फैलते हुए के समान, हाथों में सुशोभित होते हुए के समान, नेत्रों में विकसित होते हुए के समान, अङ्गरागों में रंगीन होते हुए के समान, नाभियों में निमग्न होते हुए के समान, कटिभागों में चलते हुए के समान, और मेखलाओं में सब प्रोर से स्खलित होते हुए के समान इस प्रकार समस्त अङ्गों में वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ॥९४-६६।। नृत्य करते हुए इन्द्र के प्रत्येक प्रङ्ग में जो परिवर्तन होते थे वे सब उन देवियों में भी होते थे इससे ऐसे जान पड़ते में मानों विधि--देव के द्वारा उनमें विभक्त ही कर दिये गये हैं।१७। इन्द्र उन देवियों को ऊपर
१. वा प्रमुः इतिश्छेदः ।
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* भी पार्श्वनाथ चरित - अध्वमुच्छालयस्ताः झे नटन्तीदर्शयन्पुन: । अदृश्यास्ता: क्षणात् कुर्वन् सोऽभून्माहेन्द्रजालिकः । इत्यादिननैश्विनिरौपम्यमनोहर: । प्रेक्षकारणां तदा शकः परं शर्म व्यजीजनत् ॥६६॥ विश्वसेन नृपः साद देव्या बन्धुजनस्तराम् ।प्रीतिमायाति साश्चर्यो दृष्ट्वा तन्नाट घमूजितम् ।। नयतीति स्वपाल यो भव्यानतो हि सार्थकम् । प्रस्य चकुः सुराः पार्श्व नाम पित्रो: प्रसाक्षिकम् ।। कृत्वेति जन्मकल्याणं धात्रीः सुरकुमारकान् । तयोवेषकतश्च नियोज्य देवकन्यकाः ।।१०२।। स्वभक्रया परिचर्याय कृतकार्याः सुराधिपाः । उपाय॑ बहुधा पुण्यं प्रजग्मुः स्वस्वमा त्रयम् । १०३
मालिनी इति सुकृतविपाकाज्जन्मकल्याणमाप, परमनिखिलभूत्या सोऽमरेन्द्र जिनेन्द्रः । अखिलसुखनिधानं शर्मकामा विदित्वे-तिविशदचरणोधंधमंमेकं भजध्वम् ।।१०४।।
शार्दूलविक्रीडितम् धर्मः शर्मपरम्परार्पणपरो धर्म श्रिता शानिनो
धर्मणाशु किलाप्यते जिनपद धर्माय भक्त्या नमः । उछाल कर कभी प्राकाश में नृत्य करती हुई दिखाता था और कभी क्षणभर में उन्हें महत्या कर देता था। इस प्रकार वह जादूगर हुमा या II इत्यादि नाना प्रकार के अनुपम और मनोहर नृत्यों के द्वारा उप्त समय इन्द्र वर्शकों को अत्यधिक सुख उत्पन्न कर रहा था | राजा विश्वसेन, वेदो तथा बन्धुजनों के साथ उस श्रेष्ठ नाटक को देखकर प्राश्चर्ययुक्त होते हुए प्रीति को प्राप्त हुए थे ॥१.०॥ जो भव्यजीवों को अपने पास में ले जाता है वह पार्श्वनाथ है इस प्रकार वेवों ने माता पिता के समक्ष देवों ने उनका पाश्वं' यह सार्थक नाम रक्खा ॥१०१।। इस प्रकार इन्द्र, जन्मकल्याणक करके धायों को, उन उन वेषों को धारण करने वाले देवकुमारों को और स्वकीय भक्तिवश परिचर्या सेवा में निपुण देवकन्याओं को नियुक्त कर तथा बहुत भारी पुण्योपार्जन कर अपने अपने स्थानों पर चले गये ।।१०२-१०३॥
इस प्रकार पुण्योदय से वे जिनेन्द्र समस्त उत्कृष्ट विभूति के साथ जन्म कल्याणक को प्राप्त हुए थे ऐसा जानकर हे सुख के अभिलाषीजन हो ! निर्मल चारित्र के समूह से समस्त सुखों के निधानभूत एक धर्म की प्राराधना करो ॥१०४॥ धर्म सुख सन्तति के समर्पित करने में तत्पर है, ज्ञानी जन धर्म को प्राप्त होते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र ही जिवेन का पद प्राप्त होता है, धर्म के लिये भक्तिपूर्वक नमस्कार है, धर्म से बढकर दूसरा संसार
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* त्रयोदशम सर्ग -
[१७ धर्मानास्ति सुरक्षको भवभयाद्धर्मस्य वीज कृपा
धर्मे चित्तमहं दधेऽप्यनुदिनं हे धर्म मेऽवं हर ।।१०।।
मन्दाक्रान्ता विश्वेन्द्रार्यो गुणगणनिधिमक्तिकान्तकभर्ता
बन्यो भव्यः प्रकटितवृषो मिणा लोकमध्ये । शर्माधिः संस्तुत इह मया पार्श्वनाथश्च दद्याद्
घ्यातो नित्यं स्वपरमगुणानाशु कारुण्यतो मे ॥१०॥ इति श्रीभट्टारक श्रोसकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनामचरित्र जिनेन्द्र मण्डनानन्दनाटकवर्णनो नाम त्रयोदशः सर्गः। के भय से रक्षा करने वाला नहीं है, धर्म का बीज क्या है, मैं धर्म में प्रतिदिन चित्त लगाता हूँ, हे धर्म ! मेरे पाप को हरो॥१०॥
जो समस्त इन्द्रों के द्वारा पूज्य है, गुगसमूह के भाणार है, मुक्तिरूपी स्त्री के एक स्वामी हैं, भव्य जीवों के द्वारा बन्दनीय हैं, लोक के मध्य में धर्मात्मानों के लिये जिन्होंने धर्म प्रकट किया है, जो सुख के सागर हैं और मैंने यहां नित्य ही जिनकी स्तुति तथा ध्यान किया है वे पार्श्वनाथ भगवान् व्याकर मेरे लिये शीघ्र ही अपने उत्कृष्ट गुण प्रदान करें ॥१०६।।
____ इस प्रकार भट्टारक भी सकलकोति द्वारा विरचित श्री पानाप चरित में जिमेना पार्श्वनाथ को प्राभूषण धारण करने तथा मानन्द नाटक का वर्णन करने वाला तेरहवां सर्ग समाप्त हुमा ॥१३॥
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१६८ ]
• श्री पार्श्वनाथ चरित .
चतुर्वशः सर्गः नर्भस्थो वन्दितो योऽत्र तरो जन्मनि संस्तुतः । त्रिजगत्पतिभिर्भक्त्या सोऽस्तु मे मतिसिद्धये ॥१।। मथ काश्चित्कुमारं तं भषयन्ति शिभूषणः । स्नापयन्स्यपरा मण्डयन्ति मण्डनवस्तुभिः ।।२।। कोहयन्ति मुदा काश्विदेव्य: संस्कारयन्ति च । प्रीत्या काचित्गृह रणन्ति कराम्बुजः परस्परम् ।। सतोऽसो स्मितमातन्वन् संसर्परिणभूतले । मुदं पियोस्ततानात्यन्तं वाल्या सवेष्टया ।।४।। विजगज्जनतानन्दकरं मेत्रप्रियं परम् । कलोज्ज्वलं तदास्यासीचन्द्रादधिकशवम् ।।५।। चन्द्रिकामलमस्यास्येन्दो' मुग्धस्मिसज्जितम् । प्रभूत्ते न ममस्तोषाधिः पित्रोर्ववृषेतराम् ।।६।। रम्ये मुखाम्बुजेऽस्यासोकमान्मनमनभारती । विश्वानन्दकरा रम्या मधुरा कर्णशर्मदा ।।७।। स्सलरपदं सनै रत्ननभूमौ स संचरन् । नेपथ्यमण्डितो रेजे पुण्यभूतिरिवापरा ॥
चतुर्दश सर्ग ओ गर्भ में प्राने पर यहां तीन जगत के स्वामियों के द्वारा बन्वित हुए और अम्म होने पर भक्तिपूर्वक संस्तुत हुए वे पार्श्वनाथ भगवान हमारी बुद्धि की सिद्धि के लिये हों ॥१॥
प्रधानन्तर कोई देवियां उन कुमार को आभूषणों से विभूषित करती थी, कोई स्नान कराती थीं, कोई सजावट की वस्तुओं से सुसज्जित करती थीं ॥२॥ कोई हर्ष से खिलाती थी, कोई संस्कारित करती थों और कोई प्रीतिपूर्वक करकमलों के द्वारा परस्पर बहरण करती थीं ॥३।। तदनन्तर मन्द मन्द मुस्काते और मणिमय पृथिवी तल पर इधर उधर चलते हुए वे बाल्यावस्था को प्रद्भुत चेष्टाओं से माता पिता के हर्ष को प्रत्याधिक विस्तृत करने लगे ।।४।। उस समय तीनों जगत् की जनता को प्रानन्वित करने वाला, नयनवल्लभ और कलाओं से उज्ज्वल उनका शंशव, चन्द्रमा से भी अधिक उत्कृष्ट जान पड़ता था ।।५।। इनके मुखरूपी चन्द्रमा पर चांदनी के समान निर्मल जो उत्कृष्ट सुन्दर मुस्कान थी उससे माता पिता के हृदय सम्बन्धी संतोष का सागर प्रत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ।६।। क्रम क्रम से उनके सुन्दर मुखकमल में सब जीवों को पानंद करने वाली, रमणीय, मधुर और कानों को सुखदायक तोतली बोली प्रकट हुई ॥७॥ आभूषणों से सुशोभित तथा रत्नखचित भूमि पर मरनड़ाते परों से धीरे धीरे चलते हुए वे ऐसे १ मुख चन्द्र ।
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पतुर्वशम सर्ग. पमृताहारपानाचं वृषेऽवयवव्रजम् । मादस्म गुणैः साद्धं सेषितस्प सुराविमिः ॥६॥ बाल्यावस्थामतीरयाप कौमारलं क्रमाविभुः । कीतिकान्तिवयोज्ञानरूपाविमुणभूषितम् ॥१॥ मतिश्रुतावधिज्ञानान्येवास्य सहजान्यहो । तरबोषि स निःशेषं तस्वं विश्वं शुभाशुभम् ॥११॥ कलाविज्ञानभातुर्य श्रुतज्ञानं महामतिः । विश्वार्थावगमं तस्य स्वयं परिणति ययौ ॥१२॥ 'प्रसोऽखिलजनाना स शिक्षां दातु समोऽप्यभूत् । गुरुश्च नापरोऽत्रास्माद्गुरुवा पातु विश्वचित् ।११ घेतोऽस्यालंकृतं विश्वहितं क्षायिकदृष्टिना [दर्शनात् ] । निसर्गेणाभवदक्ष निर्मलं रागदूरणम् ॥१४॥ जगत्रयहिता पाणी समस्तार्थप्रदर्शिनी । निःसन्देहा विविक्तास्य बभूवाशु स्वभावतः ॥१५॥ निरोपम्यं वपुः कान्तं शाम्यकान्त्यादिभूषितम् । पूर्षाशुभियंभावस्येव पूर्ण पन्द्रमण्डलम् ॥१६॥ वर्षाष्टमे स्वयं देवस्त्रिज्ञानज्ञः स पञ्चषा । पाददेणुव्रतान्येव गुणशिक्षावतानि च ॥१७॥ सप्सधा स्वर्गाणि स्वयोग्यान्यपराशि च । निशुसमा निरतीबाराणि मागारषाप्तये ॥१८॥ सुशोभित हो रहे थे मानों दूसरी पुण्य की पूर्ति ही हों ।। रेव प्रावि के द्वारा सेवित इन जिनबालक के अवयवों का समूह अमृतमम पाहार पान प्रावि से गुणों के साथ साथ पति को प्राप्त हो रहा था ॥६॥
कम क्रम से प्रभु बाल्य अवस्था को व्यतीत कर नीति, कान्ति, बचम, भारतमा रूप प्रादि गुरषों से विभूषित कुमार अवस्था को प्राप्त हुए ॥१०॥ महो। मति, भुत पौर अवधि ये तीन शान इन्हें जन्म से ही थे । इन शानों के द्वारा ये समस्त शुभ अशुभ तत्वों को संपूर्णरूप से जानते थे ॥११॥ कला विज्ञान सम्बन्धी चतुराई, श्रुतज्ञान, महामतिमान और समस्त पदार्थों का ज्ञान उनके स्वयं हो परिपाक को प्राप्त हुमा पा ॥१२॥ यही कारण है कि ये समस्त जीवों को शिक्षा देने में समर्थ थे। इस जगत में इनसे अधिकोष्ठ समस्त पदार्थों को जानने वाला दूसरा गुरु कभी पा भी नहीं ॥१३॥ सब जीवों का हित करने वाला इनका चित्त क्षायिक सम्यग्दर्शन से अलंकृत था, स्वभाव से चतुर था, निर्मल था और राग से दूर रहने वाला था ॥१४॥ तीनों लोकों का हित करने वाली, समस्त पदार्थों को दिखाने वाली, सन्देह रहित और पवित्र वारयो इन्हें शीघ्र ही स्वभाव से प्राप्त हई थो ॥१५॥ अनुपम, सुन्दर तथा शान्ति पौर कान्ति प्रादि से विभूषित इनका शरीर शाभूषणों को कांति से पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान सुशोभित हो रहा था ॥१६॥ तीन माग के ज्ञाता श्री पार्श्वनाथ देव ने पाठ वर्ष की अवस्था में स्वयं ही पांच प्रावत, गुणवत पौर शिक्षाबत के भेद से सात शोलवत तथा स्वर्ग प्राप्त कराने वाले अपने योग्य अन्य मिरतिचार व्रत गृहस्थ धर्म को प्राप्ति के लिये मन बचन काय की शुद्धता पूर्वक प्रहरण
१. नतोऽसिल ग. ।
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१७० ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
गजाश्वविक्रियापन्नैर्दिव्यैः सुरकुमारकैः । प्रारोहणादिभिः प्रीत्या कदाचिद्रमते विभुः ||१६| मयूरकी चहंसादिकृतवेषामरैः समम् । क्रोडेदसौ मुदान्येषु रूपनेपथ्यमण्डितः ।। २० ।। कदाचिद्रूपमादाय सुरास्तद्वयसा समम् । नानाजल वनक्रीड़ादा क्रीडयन्ति तम् ।। २१ ।। कदाचित्स्वं यशः शृण्वन् गन्धर्वैरुदितं महत् । स्वगुणोत्पन्नगीतानि किनारीणां च कर्हिचित् । २२ । ग्रन्यदाप्सरसां नृत्यं पश्यन्नेव सुखावहम् । कुर्वन् काव्यादिगोष्ठीं स लभते समंवान्वहम्।। २३ ।। इत्यादिविविधैः क्रीडाविनोदः स परं सुखम् । भजनाप क्रमाद्दिध्यं यौवनं श्रीजिनेश्वरः ।। २४ । इन्द्रनीलनिभं रम्यं स्वेदादिदूरगम् । नवहस्तसमुत्त ुङ्ग समतादिगुणाङ्किनम् ||२५|| दिव्यादिसमसंस्थानं वास्थिबन्धनम् । भूषाङ्गदीप्तिभिः कार्य यौवनेऽस्य व्यभात्तराम् । २६ नील शिरोरुहम् । शिरोऽस्य मरिणतेजोभिर्मेरोः शृङ्गमिवाभी|२७| निसर्गरुचिरेऽप्यभूत् । विभोः शोभा परा सर्वशुभानामिवाकराः ||२८|
दिव्यमुकुटार्थ भूषितं पट्टे ऽतिविस्तीर
किये
७-१६
कभी हाथी घोड़ा आदि की विक्रिया को प्राप्त विम्य देवकुमारों के साथ प्रारोहण आदि के द्वारा प्रीतिपूर्वक क्रीडा करते थे । भावार्थ - देव कुमार कभी विक्रिया से हाथी घोड़ा प्रावि का रूप रखते थे और पार्श्व प्रभु उन पर चढ़ कर कोड़ा करते थे ||१६|| वे पार्श्वनाथ, किसी अन्य समय रूप तथा वेषभूषा से सुशोभित मयूर, कोच और हंस श्रादि का वेष धारण करने वाले देवों के साथ हर्वपूर्वक छोड़ा करते ये ||२०|| कभी वेब उनकी अवस्था के समान रूप रखकर नाना प्रकार की जल क्रोडा तथा वन क्रीडा प्रावि के द्वारा उन्हें क्रीडा कराते थे ।। २१ ।। कभी गन्धवों के द्वारा गाये हुए अपने महान यश को सुनते थे तो कभी अपने गुणों से उत्पन्न किनरियों के गीत श्रवरण करते थे। किसी समय अप्सराधों का सुखोत्पादक नृत्य देखते थे और कभी काव्याविक की गोष्ठी करते थे । यह सब करते हुए वे प्रतिदिन सुख को प्राप्त हो रहे थे ।।२२-२३। इत्यादि नाना प्रकार के क्रीडा- विनोदों से परम सुख को प्राप्त होते हुए वे जिनेन्द्र क्रम क्रम से दिव्य यौवन को प्राप्त हुए ||२४||
यौवन के समय जो इन्द्रनीलमणि के समान था, मनोहर था, मल तथा पसीना धादि से दूर था, नौ हाथ ऊंचा था, समता आदि गुणों से सहित था, समचतुरस्र संस्थान से युक्त था, और वज्रवृषभनाराच संहनन का धारक या ऐसा उनका शरीर प्राभूषण तथा शरीर की कान्ति से अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।। २५-२६ ।। दिव्यमाला और मुकुट प्रावि से विभूषित तथा नील केशों से युक्त इनका शिर मणियों के तेज से मेरु पर्वत के शिखर के समान सुशोभित होने लगा ||२७|| प्रत्यन्त विस्तृत और स्वभाव से सुन्दर
१. हस्तमं तु ० २. मिवाकरा ।
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• चतुर्वशम सर्ग .
[ ११ जगन्ने त्रस्य देवस्य सुदीर्घ नयनोत्पले । धेजतुर्विभ्रमा मदनराज्ञः शराविव ॥२६॥ मणिकुण्डलभूषाम्यां प्रभोः कणों रराजतुः । सेवतावित चन्द्रार्काम्या सुगीतादिपारगौ ॥३०॥ मुखेन्दोः किं पृथक् शोभा वय॑तेऽस्य तरां यदि । जगद्धितोध्वनिरस्मानिःसरत्यमृताधिकः ॥३१।। स्मिताशु सुन्दरं तस्य मुखमापाटलाधरम् । चन्द्रमाण्डलमानित्य नभी दन्ताविशिषिः । ३२। रेजेऽस्य नासिका तुझा 'ह्यायता विधिना परा । मुखामोदं समाधातु कल्पितेव 'प्रणालिका ।३३। मणिहारेण बक्षोऽम्य विस्तीर्ण रुचिरं ब्यभात् । वीरविद्याधियो रम्यं क्रीडास्थलमिवोजितम् । ३४० केयूरकटकायंभूषिती वाहू दधे जिनः । कल्पद्रुमाधिवाभीष्टप्रयो गजकरोपमो ॥शा जिनस्याङ्ग लयो भान्ति मुद्रिकानस्वरश्मिभिः । उन्नतान्दश सद्धर्मान् व्यक्तीक मिवोचताः॥३६॥ मध्येऽसौ दिव्यदेहस्य गम्भीरी नाभिमादधौ । सरसीमिव साता लक्ष्मीहंसीनिषेविताम् ॥३७॥ मेखलांशुकभूषाचे रेजे तस्य कटीतटम् । अलप मदनारेरिस प्रायभूमुजो पहम् ॥३॥ प्रभु के ललाट तट पर भी समस्त शुभ परमाणुषों की खान के समान परम शोभा विधमान भो ॥२८॥ जगत के नेत्र स्वरूप पावदेव के प्रत्यन्त विशाल नेत्र अपने विभ्रम-हाव भाव विलास प्रावि के द्वारा कामभूपाल के बाणोंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥२६॥ सुन्दर गीत प्रादि के पारगामी प्रभु के काम मणिमय कुण्डलों से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों चन्द्र पौर सूर्य के द्वारा सेवित ही हो रहे हों ॥३०॥ इनके मुखरूपी चन्द्रमा की शोभा का पृथक् पया वर्णन किया जाये जबकि उससे जगहितकारी और प्रमृत से भी अधिक विम्यध्वनि निकलेगीप्रकट होगी।३१॥ मन्द मुसकान से सुन्दर और गुलाबी पोठ से सहित उनका मुख संतों पारि की किरणों से घर मण्डल को जीत कर सुशोभित हो रहा था।३२॥ इनकी ऊंची और लम्बी नाक ऐसो सुशोभित हो रही थी मानों मुख को सुगन्ध को सूधने के लिये विधाता के द्वारा बनाई हुई नाली ही हो ॥३३॥ इनका चौड़ा और सुन्दर वक्षःस्थल मणियों के हार से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों वोर विद्यारूप लक्ष्मी का मनोहर तथा उत्कृष्ट कीगस्थल हो हो ।॥३४॥ पार्व जिनेन्द्र बाजूबन्द तथा बलय प्रादि से विभूषित और हाथी की संड की उपमा से सहित जिन भुजानों को धारण कर रहे थे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानों प्रभोष्ट फल को आने वाले कल्पवृक्ष ही हों ॥३५॥ जिनेन्द्र भगवान को अंगुलियां अंगूठी तथा नखों की किरणों से ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों उत्तम क्षमा प्रादि वंश भेष्ठ धर्मों को प्रकट करने के लिये ही उद्यत हो रही हों ॥३६॥ वे भगवान् सुन्दर शरीर के मध्य में भवर से सहित तथा लक्ष्मीरूपी हंसी से सेवित सरसी के समान गहरी नाभि को धारण कर रहे थे ॥३७॥ मेखला, वस्त्र तथा प्राभूषण मावि के द्वारा उनकी कमर ऐसी
१. सूतादिपारमःस. २. हापितास, ग. ३. प्रनालिका स.ग.।
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१७२ ]
* श्री पार्वनाप परित. समारोतयं कान्तं व्युत्सर्गाविक्षमं जिनः । जोऽतिकोमले रम्ये निरौपम्ये च निर्मले ।।३।। जिताम्बावस्म सत्पादो भेजतुर्न सरश्मिभिः। गिविताप्रमादाय मामिनः ।। इत्यादि परमा शोभा गावाला नखापतः । याभूदस्यात्र तां सर्वा विद्वान्को गदितु क्षमः १४१। पत्र वचमवास्थीनि चलयितानि । वनाराषभिन्नानि प्रभोः संहननं हि तत् ।।४।। न त्रिदोषोद्भवा पस्यातङ्का देहे 'व्यधुः पदम् । स्वप्नेऽपि जातु वा मान्ये पुद्गला दुःखहेतवे ।।३।। बपुः कान्तिसुनेपथ्यमरिणतेजश्चयः समम् । निसर्गनिर्मलाङ्गस्य लक्षणानि विरेजिरे ।।४।। श्रीवृक्षशङ्खपप्रस्वस्तिकाशप्रकीर्णकाः । सुतोरणं स्थित' छत्रं सिंहदिष्टरकेतने ।।५।। कुम्भी झषो तपा कूर्मश्चक्रमब्धिसरोवरम् । विभानं भवनं नागो नरो नारी मृगाधिपः ।।४।। वाणो वारणासमं गङ्गा देवराट् मेरुरेष हि । गोपुरं पुरमिन्द्रकों जात्यश्वस्तालवृन्तकम् ॥४॥ बीणा बेगुवङ्गरण सजी पट्टांशुकापरणौ । उद्यान फलितं क्षेत्र विचित्राभरणानि च ।।४।। सुशोभित हो रही थी मानों काम के शत्रु परमब्रह्मरूपी राजा का प्रलनीय घर हो हो ॥३८॥ पार जिनेन्द्र सुम्बार तथा कायोत्सर्ग प्रादि में समर्थ ऊर युगल को तथा अत्यन्त कोमल, मनोहर, अनुपम पौर निर्मल वो अङ्खामों को धारण कर रहे थे ॥३६॥ कमलों को जीतने वाले उनके उत्तम चरण नखकिरणों से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों अपने मापके वशल्प रखकर चन्द्रमा ही उनकी सेवा कर रहा हो ॥४०॥ इस प्रकार नल के अप्रभाग से लेकर केशों के अग्रभाग तक इनकी जो उत्कृष्ट शोभा थी उस सबको कहने के लिये कौन विद्वान समर्ष है? अर्थात् कोई नहीं ॥४२॥ जिसमें वन्नमय हड्डियां बन के बेष्टनों से वेष्टित तथा बच को कोलों से कीलित होती हैं ऐसा बनवृषभनाराच संहनम प्रभु का था।४। वात पिस और कफ इन तीन दोषों से उत्पन्न होने वाले रोगों ने उनके शरीर में पैर नहीं रख पाया था और न अन्य पुद्गल हो स्वप्न में भी कभी उनके छुःख के कारण हो सके पे ॥४३॥ इनके स्वभाव से निर्मल शरीर में शरीर को कान्ति तथा उत्तम मणियों को तेजोराशि के साथ निम्नास्ति लक्षरण सुशोभित हो रहे थे ॥४४॥
श्रीवृक्ष, शहा, पन, स्वस्तिक, अंकुश, चमर, उत्सम तोरण, सफेद छत्र, सिंहासन, पताका, कसरायुगल, मीन युगल, कच्छप, वक्र, सागर, सरोवर, विमान, भवन, नाग, नर, पारी, सिंह, वाण, धनुष, गङ्गा, इन्द्र, मेरु, गोपुर, पुर, चन्द्र, सूर्य, उत्तम जाति का अश्व, तालवृत्त, बोरगा, वेणु, मृवङ्गी मालायुगल, पाट का वस्त्र, बाजार, उद्यान, फला हुमा खेत, नाना प्रकार के प्राभरण, रस्नद्वीप, वन, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, गाय, पृषभ, चूडारस्न, महानिषि, सुवर्ण कल्पलता, जम्बूवृक्ष, गरुड, चैत्पवृक्ष, भवन, नक्षत्र, तारा, ग्रह, दिव्य
१. रकुः २. सितं ग.।
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चतुर्तास
[ १७३
रत्नद्वीपस्तथा वयं बरा लक्ष्मी सरस्वती । 'सुरभि: "सौरभेयश्च गृहारत्नं महानिधिः १४६८ हिरण्यं कल्पवल्ली व जम्बुबुको हि पक्षिराट् । सिद्धार्थपादपः सौषमुनि तारका प्रहाः ॥ ५० ॥ प्रातिहार्याणि दिव्यानि मङ्गलान्यपराण्यपि । इत्यादिलक्षणान्यस्य सर्वाष्यष्टोत्तरं शतम् । ५१ ।। दिव्यदेहे विभोः सन्ति व्यञ्जनान्यपराण्यपि । श्रागमोक्तानि रम्याणि नवैव हि शतान्यपि ॥५२॥ पुदुमला दिव्यरूपा ये शुभाः सन्ति जगस्त्रये । तानादायास्य मन्येऽङ्ग वेवसा रचितं मुदा । ५३ । रूपलावण्यसौभाग्यहक्चिदादिगुण व्रजं । शतसम्बत्सर । युष्कोऽयपुञ्ज" इव स व्यभात् । ५४० ग्रथ स प्राक्तनः सिंहो भुक्त्वा दुःखमधापितम् । निःसृत्य नरकाद्दोषं भ्रमिरवा कुभवाटवीम् । ५५० सस्थावरज घोरां महीपालपुरेऽभवत् । नुपालभूभुजः सूनुर्महीपालाभिषः शुभात् ||५६ ॥ ब्राह ्मम्या: पिता कदाचित्स पट्टराज्ञीवियोगतः । प्राषये तापसः सेव्यं तपः पञ्चाग्निगोचरम् । ५७।। प्राश्रमादिवने शठमानसः । पञ्चाग्निसाधनं कुर्वन्नास्ते स कष्टपीडितः ।। ५८ ।। नवयौवनः । क्रीडार्थ स्वबलेनामा पारवनाथो वनं ययो ॥५६॥ भूदेवकुमारकैः । क्रीडामुदा पुरीमागच्छम् दृष्ट्वा शात्रवं निजम् । ६००
तस्मादागस्य
षोडशाब्दावसानेऽच कदा कोडाथो यथेष्ट च
प्रातिहार्य तथा अन्य मङ्गल द्रव्य इन्हें भावि लेकर एक सौ माठ लक्षण भगवान् के सुन्दर शरीर में विद्यमान ये । इनके प्रतिरिक्त श्रागम में कहे हुए नौ सौ सुम्बर व्यञ्जन भी सुशोभित हो रहे थे ।।४५-५२ ।। तीनों जगत् में जो सुन्दर और शुभ पुद्गल हैं उन्हें लेकर ही विधाता ने हर्षपूर्वक इनका शरीर रचा था ऐसा जान पड़ता है ।।५३॥ जो रूप, लाभण्य, सौभाग्य, दर्शन तथा ज्ञान प्रावि गुणों के समूह से सहित थे सभा सो वर्ष प्रमाण जिनकी श्रायु थी ऐसे वे पार्श्व प्रभु पुण्य समूह के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ५४ ।।
अथानन्तर वह पहले का सिंह पाप के द्वारा प्रदत्त दुःख को भोगकर नरक से निकला और जस स्थावर जोवों की भयंकर भवावलीरूपी प्रदवी में चिरकाल तक भ्रमरण कर पुण्योदयसे महोपाल पुर में राजा नृपाल का महीपाल नामक पुत्र हुआ ।।५५-५६ ।। वह पार्श्व जिनेन्द्र की माता ब्राह्मी का पिता था। कदाचित् अपनी पट्टरानी के वियोग से उसने तापसियों के द्वारा सेवनीय पञ्चाग्नि नामका सप ग्रहण कर लिया ।। ५७ ।। उस सप के कारण वह मूर्ख प्राश्रमादि के वन में मा गया और पञ्चाग्नि तप करता हुआ कष्ट से पीडित रहने लगा ॥५८॥
तदनन्तर सोलह वर्ष समाप्त होने पर एक समय नव यौवन को धारण करने वाले पारखंनाथ क्रीडा करने के लिये अपनी सेना के साथ वन को गये ।। ५६|| पश्चात् राजाओं और देव कुमारों के साथ इच्छानुसार क्रीडा कर क्रीडा के हर्ष से हर्षित होते हुए जब वे नगरी की १. गौः २ वृषभ: ३. नक्षत्राणि ४. पुष्यराशिरिब ५. स्वसैन्येन सह ।
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१७४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित.
पञ्चपावकमध्यस्थ गजारूढो जिनेश्वरः । प्रागस्य सत्समीपेऽस्थादनस्वनमनादरः ।।६१।। तदसम्मानमेवासाववधार्या
तापसः । सदा कोपारिणा प्रस्तो मनस्येवं विचिन्तयेत् ।६२। कुलीनोऽहं तपोवृटो वा पितास्य गुरुर्महान् । दीक्षितो धीमतां मान्यताएसनतपारगः ॥६३।। एवम्भूतस्य मेऽकृत्वा नमस्कार कुमार्गगः । कुमारोऽयं मदाविष्टः स्थितवान्मम सन्निधौ' ६४ इस्पन्स:क्षोभमासाद्य प्रशान्तेऽग्निधये पुनः । निक्षेप्तु स्वयमेवोच्चकत्क्षिप्य परशु बलात् ॥६५॥ छिन्वन् काष्ठमसो मूखों निषिसः श्रीजिनेशिना। महियुग्मं तदन्तःस्थं विशाय स्वावधिश्विषा ।६६। प्रस्यान्तरे बराकं हि नागयुग्मं प्रवियते । इति मा छेदयस्वेदमिति प्रोक्तो मुहमुहुः ।।६।। श्रुत्वेति तदवः पापी भूस्खा कोषाग्निमस्मितः । प्राग्जन्मायातवरेण छेदयामास तत्क्षणम् ॥६८|| नागो नागी च तदधाता द्विधा खण्ड तदागमत् । तो निरीक्षय कुमारः कामोदरीद Iii महं गुरुस्तपस्वीति मुषा गर्व स्वमुदहन । महापापासवस्ते तस्माद्भवत्येव न संशयः ।।७।।
मोर पा रहे थे तब उन्होंने पञ्चाग्नि के मध्य में स्थित अपने शत्रु को देखा। उस समय वे हाथी पर सवार थे। उस तापस के पास प्राकर उसे नमस्कार किये बिना हो वे मनावर से खड़े हो गये ॥६०-६१॥ यह तो मेरा अपमान ही है ऐसा निश्चय कर वह तापस शीघ्र ही क्रोध रूपी शत्रु से प्रस्त हो गया और मन में ऐसा विचार करने लगा।६२।
में कुलोन हूँ, तप से बड़ा हूँ, इसके पिता तुल्य हूँ, महान गुरु हूँ, दीक्षित हूं, विद्वसानों का मान्य हैं और तापस के व्रत का पारगामी हूँ। इस प्रकार की विशेषता से सहित होने पर भी यह कुमार्गगामी अहंकारी कुमार मेरे लिये नमस्कार न कर मेरे पास बड़ा है ॥६३-६४॥ इस प्रकार वह मन में क्षोभ को प्राप्त हो रहा था । इसी के बीच उसकी अग्नि का समूह शान्त हो गया जिससे उसमें डालने के लिये वह मूर्ख स्वयं बलपूर्वक फरसा ऊपर उठाकर लकड़ी काटने लगा। यह देख अपने प्रदधिज्ञानरूपी ज्योति के द्वारा उस सकड़ी के भीतर स्थित सांपों के युगल को जान कर श्री पार्श्व जिनेन्द्र ने उसे मना किया ॥६५-६६। इसके भीतर बेचारे सांपों का एक युगल विद्यमान है इसलिये इसे मत काटो। ऐसा उन्होंने बार मार कहा ॥६७।। उनके इन वचनों को सुनकर पापी तापस ने क्रोध रूपी अग्नि से भस्म होकर पूर्व जन्मों से चले आये वर के कारण उस लकड़ी को तत्काल काट डाला ॥६॥ लकड़ी के फटने से सर्प और सपिरणी उसी समय दो खण्ड को प्राप्त हो गये । उन्हें देख कुमार ने दयावश उस तापस से कहा ॥६६॥ 'मैं गुरु है', 'मैं सपस्थी हूँ इस प्रकार का पर्व तू व्यर्थ ही धारण कर रहा है । इस गर्व से तुझे पापों का १. सनिधिम् ग० २. मर्पयुगलं ।
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- चतुर्दशम सर्ग .
[ १७५ तेन दुःखमिहामुत्र चाज्ञानतपसा महत् । दुर्गत्यादिभवं तो ते भविष्यति दुधियः ॥७॥ इति तद्वाक्यमाकर्ण्य मलित्वा कोपर्वाह्नना । इस्थमाह तपस्वी स कुमारं प्रति मूढधीः ।।७२। महं ज्येष्ठस्तपस्वी चाम्बापिता' तव किं मम । दुर्मदेन कुमार त्वं करोषि मानखण्डनम् ।।७।। तपसो मेऽतिमाहात्म्यमबुद्ध्वैव बीषि किम् । मानभङ्गकर वाक्यं निन्दाकरणमस्परम् ॥७४।। पञ्चाग्निमध्यवर्तित्वं मरुदाहारजीवनम् । ऊर्ध्वकरेफपादेन दुःकरा सुचिरं स्थितिः ।।७।। स्वयंपतितपर्णादीनां प्रोषधेन पारणम् । अधाशीतोष्णवातादिपरीषहजयं परम् ।।७।। इत्याधतातिसंश्लेशितापसाना सुदुरम् । महत्तपोऽस्ति नास्मादधिक त्वं विद्धि जातुधित् ।। तदाकर्ण्य जिनोऽवादीद्र' दुरात्मन् वयो मम । शृणु पथ्यं हितं सार ते कुमार्गनिषेधकम् ||८|| मिथ्यात्वेनाधिरत्या च प्रमादेन कषायतः । दुष्टयोगेन भूठाना महापापं प्रजायते ॥६॥ पञ्चाग्निसाधनेनैव पृथिव्याङ्गिराशयः । नियन्ते षड्विधाः सर्वदिक्षु तत्तापतो मृशम् ।। जीवघातेन घोराधं तस्य पाकेन दुर्गतौ । जायते च महदुःखं तापसाना जहात्मनाम् ।।१।। महान मात्रय नियम से हो रहा है इसमें संशय नहीं है ॥७०।। उस प्रशान तप से तुझ मूर्ख को यहां महान वास हो रहा है और परभव में दुर्गति प्रावि से होने वाला तीव दुःख होगा ॥७१॥ इस प्रकार समके बचन सुनकर तथा क्रोधाग्नि से जलकर उस मूड बुद्धि तापस ने कुमार के प्रति कहा ॥७२॥
मैं बड़ा है, तपस्वी है और तुम्हारी माका पिता है फिर भी हे कुमार तू दुब महंकार से मेरा मानखण्डन क्यों कर रहा है ?॥७३॥ मेरे तप के बहुत भारी माहात्म्य को न जानकर ही मानभङ्गकरने वाले तथा निम्दा करने में तत्पर वचन क्यों कह रहा है ? ।।७४।। पञ्चाग्नियों के बीच में रहना, मात्र वायु के प्राहार से जीवन निर्वाह करमा,
और एक हाथ ऊपर उठाकर एक पैर से चिरकाल तक खड़ा रहमा कठिन है ।।७५॥ उपवास के बाव स्वयं पड़े हुए पत्तों आदि से पारणा करना, तथा सुधा शीत उष्ण और वायु प्रादि का परिषह जीतमा इत्यादिक शरीर को अत्यन्त संक्लेशित करने वाला तापसों का तप प्रस्यन्त कठिन है। इससे अधिक बड़ा तप कभी नहीं है यह तू समझ ॥७६-७७॥
यह सुन पाय जिनेन्द्र ने कहा-रे दुष्ट ! मेरे वचन सुन, जो तेरे लिये पभ्य, हितकारी, सारभूत तथा कुमार्ग का निषेष करने वाले हैं ॥७॥ मिथ्यात्व से, अविरति से, प्रमाद से, कषाय से और दुष्टयोग से प्रज्ञानीजनों को महापाप होता है ।।७६।। पश्चाग्मियों की साधना से उनके ताप के कारण सब दिशाओं में पृथिवी प्रावि छह काय के जीवों के समूह अत्यधिक मात्रा में मरते हैं ॥५०॥ जीवघात से घोर पाप होता है, और १. मातामहः २. हे दुरास्मन कः ।
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•भी पानाय परित. जानहीमो वपुःकमेनो व्यर्थः पापानवान्नृणाम् । दयां विना तपोधर्मः सर्वमस्ति निरर्थकम् ।।२।। तुषलण्डनयोगेन 'सम्यन्ते मा RISATIसष्टेग मोजमानोदयः क्वचिद ॥३॥ पपायुमपनाम्नवोस्पचते आतुचिद्धृतम् । तथा हिंसाकरेणेव तपसात्र सुखादि ॥४॥ प्रभाम्बरमायषा स्वर्ण गोशाच्च पयो न हि । जायते जातु धर्मों वा सुखं पञ्चाग्निसाधमात् ।। रावभीत्या यथान्धो धावन्नपि प्रियते पया। कुर्वन्नपि तपोऽशानी मज्जस्येव भवाणंवे ।।६।। हेबाहेयविचार - पुण्यं पापं हिताहितम् । देवादेवं भवं मोक्षं स्वासवं संवरं शुभम् ।।८७॥ निर्जरा तस्वविज्ञानं गुरु क फुगुक' श्रुतम् । कुशास्त्रं वेत्ति नाजानी आत्यन्ध इव दन्तिनम् ८८ पतो जैनमतं तथ्यं धर्म जीवदयावहम् । तपोऽनघं गृहाण स्वं त्यक्त्वेमं च दुराग्रहम् ।।८।।
सन्ध्यतपसा मोक्षः सुखं वाचामगोचरम् । प्रज्ञानसपसा दुःखं भ्रमणं च अवाटवीः ||१०|| भवस्नेहेन सप्पं से हितं च धर्मसाधनम् । वचः प्रोक्तं मयेति त्यां होच्छता शुभमञ्जमा ६१ । उसके उदय से सुगंति में मूर्ख तापसों को बहुत भारी दुख होता है ॥१॥ मनुष्यों का माम हीन कायक्लेश, पापाखव का कारण होने से निरर्थक है। वास्तव में बया के बिना सप और धर्म सबमिरर्थक है ।।१२। जिस प्रकार तुषों के खण्डन से चांवल नहीं प्राप्त होते है उसी प्रकार पूर्ण कष्ट सहन करने से कहीं मोक्षमार्ग प्रादि प्राप्त नहीं होते
॥३॥जिस प्रकार जल के मथने से कभी भी पृत उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार हिसा केबान स्वरूप तप से यहां सुखादिक उत्पन्न नहीं होते हैं ॥४॥ इस जगत् में जिस प्रकार अन्धपापारण से स्वर्ण और गाय के सींग से दूध नहीं उत्पन्न होता है उसी प्रकार पञ्चाग्नि तप से कभी धर्म और सुख उत्पन्न नहीं होता है ॥८॥ जिस प्रकार अन्धा मनुष्य बाबा
के भय से भागता हुमा भी मरता है, उसी प्रकार प्रशानी पुरुष तप करता हुमा भो संसार-सागर में सूखता ही है ॥८६॥ हेय-महेय के विचार को, पुण्य-पाप को, हित-अहित को, देव-प्रोब को, संसार-मोक्ष को, शुभानव और शुभ संबर को, निर्जरा को, तस्वविज्ञान को, गुरु कुगुरु को, सुशास्त्र और कुशास्त्र को प्रज्ञानी जीव उस प्रकार नहीं जानता है जिस प्रकार जम्मान्ध मनुष्य हाथी को नहीं जानता है ॥८७-८८। इसलिये तुम इस धुरायह को छोड़कर जीव दया को धारण करने वाले जैनमत और सत्यधर्म को स्वीकृत करो, तथा निर्दोष तप को ग्रहण करो ॥८६॥ नियंग्य तप से मोक्ष तथा बचनागोचर सुख प्राप्त होता है और महान तप से दुःख तथा संसाररूप प्रवियों में परिभ्रमण प्राप्त होता है॥१०॥ तेरो वास्तविक भलाई की इच्छा करते हुए मैंने पापके स्नेह से सत्य, हितकारी तबा धर्म को सिद्ध करने वाले बचन कहे हैं ॥६॥ इसलिये हे मित्र ! मन से विचार
१. मभन्ते ग. २. भवाटवीम् मा।
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* चतुर्दशम सर्ग *
[ १७७ प्रतो बिचार्य हे मित्र मनसेह' परत्र च यद्धितं कुरु तच्छीनं हत्वा स्वमतदुर्मदम् ।।२।। इत्यादि तद्वचः श्रुत्या पूर्ववैरानुबन्धनात् । निजपक्षानुरागिरवादीर्घसंसारयोगतः ॥३॥ दुष्टप्रकृतितो वाघीः कोपाग्निज्वलितोऽवदत् । पराभवसि मामेव कुमार त्वं मुहुर्मुहुः ।।१४।। तस्मिन् क्रोधातुरः प्राप्य सशल्यो दुःकरां मृतिम् । बभूध हीनदेवोऽसौ ज्योतिलोंके कुमार्गगः ।।१।। तपसा कुत्सितेनाहो यामी निर्जरोऽभवत् । कुर्वन्ति ये तपो ननं तेषां कि दुर्लभ ततः ॥६६|| ततोऽ'तकृपया ताभ्यां खण्डिताम्यां जिनाधिपः । ददौ पश्चन मस्कारान् कर्णे विश्वहितंकरान् ।।१७। धर्मादिश्रवणेनामा कृत्स्नदुःखान्तकारिणः । गुरुपञ्चकनामोत्थानस्वर्गमुक्तिकरायरान् ॥६॥ श्रुत्वा तो तानमस्कारान् धर्मादिसूचकं वचः । प्राप्य चोपशमं चित्त शुभध्यानेन संमृतौ ॥६॥ सतो नागो नमस्कारफलेनामरनायकः । पृथु यलङ्कतः सोऽभूद धरणेन्द्रो महद्धिकः ।१०० नागी पुण्यफलेनास्य पद्यावती व्यभूत्तदा । दिव्य देहासुखानीला जिनशासनवत्सला |१.१॥
कर तेरे लिये इस लोक तथा परलोक में जो हितकारी हो उसे अपने मत का मिथ्या गर्व नष्ट कर शीघ्र ही संपन्न कर ॥१२॥
इत्यादि उनके वचन सुनकर पूर्व और के संस्कार से, अपने पक्ष के अनुराग से, दीर्घ संसार के योग से अथवा दुष्ट स्वभाव से यह मूर्ख क्रोधाग्नि से जलता हुप्रा बोला अरे कुमार ! तू बार बार मेरा ही तिरस्कार कर रहा है ।।६३-६४।। पार्श्व जिनेंद्र पर क्रोध से पीडित हुमा बह तापस शल्य सहित कुमरण कर ज्योतिर्लोक में कुमार्गगामी हीन देव हमा
५अहो ! खोटे तप से भी जब तापस देव हो गया तब जो जैन-जिन प्रतिपावित तप करते हैं उनके लिये दुर्लभ क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥६६॥
तदनन्तर जिनराज ने उन खण्डित सर्प सपिणी के लिये कान में अत्यधिक दयाभाव से सर्वहितकारी पञ्चनमस्कार मंत्र दिया ॥१७॥ धर्म आदि को सुनने के साथ समस्त दुःखों का अन्त करने वाले, पञ्च परम गुरुओं के नाम से उत्पन्न स्वर्ग तथा मुक्ति को करने वाले उन श्रेष्ठ नमस्कारों को और धर्मादि की सूचना देने वाले अन्य वचनों को सुनकर वे सर्प सपिणी चित्त में उपशमभाष को प्राप्त कर शुभ ध्यान से मरे ॥९८-९९ तदनन्तर नमस्कार मंत्र के फल से मर कर सर्प बहुत भारी लक्ष्मी से अलंकृत, महान ऋद्धियों को धारण करने वाला धरणेन्द्र नामक इन्द्र हुमा और सपिणी पुण्य के फल से इसकी पद्मावती नामको देवी हुई । उस समय वह पनावती दिव्य-वक्रियिक-सुन्दर शरीर से सहित थी, सुख से सहित थी तथा जिन शासन से स्नेह रखने वाली थी ॥१००-१०१।।
१ मनसाहब. ग. २. वा अधी: मूर्खः ३. दिव्यदेहासुम्बातीता ग.
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• श्री पार्श्वनाथ चरित * अहियुग्ममही करं जीवभक्षणतत्परम् । नमस्कारेण यद्येवं सुखं प्राप्त महत्ततः ।। १०२।। त्रिशुद्धघा में नमस्कारान् जपन्त्यत्रानिशं बुधाः । त्रिलोकीपतयः किन्नामुत्र स्युस्तेऽतिधार्मिकाः १०३ मनाचनिधनो मन्त्रराजोऽयं सार जितः । मध्येऽखिलाङ्गपूरण जिनेन्द्रशासनस्य च । १०४। यथारपोश्च परं नापं नभसो न महत्परम् । मन्त्रेशादपरो मन्त्रः सर्वसिद्धिकरोऽस्ति न ।।१०५॥ पौरारिदुष्टभूपालदुर्जनादिभवा द्रुतम् । उपद्रवा विलीयन्ते महामन्त्रेण धीमताम् ।। १०६ । दुःसहाः सकला रोगा कुष्ठदोषश्योद्भवाः । 'मन्त्रजापाक्षयं यान्ति वजणाशु यथाद्रयः १०७ दुष्टा भूला: पिशाचाश्च शाकिन्यो दुधिडामरा: । कतुं पराभवं पाता न मन्त्रापितचेतसाम् ।।१८८। शृखलादिमहापाशा दृढाश्व बन्धनादय: । मन्त्रस्मरणमात्रेण शतखण्डं प्रयान्यहो ॥१०६।। प्रधौ च विषमेऽरण्ये दावाग्नी दुद्धरे रणे । सर्वत्रापदि सद्वन्धुर्मन्त्रोऽयं रक्षकोऽङ्गिनाम् । ११०। जिनेन्द्रचशिकादीनां भूतयः सुखादयः । परमेष्ठिप्रसादेन जायन्ते धर्मिणां पराः ।।१११।। सप्तव्यसनिनो मा धेऽ...सार न..: । रिले गमासाद्य मन्त्रं मृत्यो दिवंगताः १११२ जीवभक्षरण करने में तत्पर रहने वाला सर्प सपिणी का कर युगल भी यदि नमस्कार मंत्र से ऐसे महान् सुख को प्राप्त हुआ है तो जो विद्वज्जन मन पचन काय की शुद्धतापूर्वक निरन्तर नमस्कार मंत्र को जपते हैं वे परलोक में क्या प्रत्यन्त धार्मिक त्रिलोकीनाथ नहीं होंगे ? अर्थात अवश्य होंगे ॥१०२-१०३।। जिनेन्द्र धर्म के समस्त प्रा और पूर्वो के बीच यह अनादि निधन मंत्र राज अत्यन्त सारभूत कहा गया है ।।१०४।। जिस प्रकार परमाणु से अल्प दूसरा नहीं है और जिस प्रकार प्राकाश से बड़ा दूसरा नहीं है उसी प्रकार मंत्रराज से बढ़कर सर्वसिद्धि को करने वाला दूसरा मंत्र नहीं है ।।१०५॥ चौर, शत्रु, दुष्ट राजा, तथा दुर्जन आदि से होने वाले विद्वज्जनों के उपद्रव, महामंत्र के द्वारा शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं ।।१०६॥ जिस प्रकार बच से पर्वत शीघ्र ही क्षय को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार कुष्ठ तथा वात पित्त कफ इन तीन दोषों से उत्पन्न होने वाले समस्त कठिन रोग मंत्र के जपने से शीघ्र ही भय को प्राप्त हो जाते हैं ।।१०७॥ दुष्ट भूत, पिशाच, शाकिनी तथा मूर्ख प्रेत आदि देव, मंत्र में चित्त लगाने वाले जीवों का पराभव करने में समर्थ नहीं हैं ॥१०॥ अहो ! शृङ्खला प्रादि महापाश तथा दृढ बन्धन प्रादि, मंत्र के स्मरणमात्र से शतखण्ड को प्राप्त हो जाते हैं ॥१०६। समुद्र में, विषम अटवी में, वावाग्नि में, भयंकर युद्ध में और सब प्रापत्तियों में यह मंत्र प्राणियों की रक्षा करने वाला उत्तम बन्धु है ।।११०॥ परमेष्ठी के प्रसाद से धर्मात्मा जीवों को तीर्थकर चक्रवर्ती तथा इन्द्रादि को उत्कृष्ट विभूतियां और सुख प्रादिक प्राप्त होते हैं ॥१११॥ सप्त व्यसनों का सेवन
१. मन्त्रजाप्यात् सं. गं.
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* चतुर्दशम सर्ग *
[ १७६
कल्पत्रृक्षोऽप्ययं मन्त्र: संकल्पिताखिलार्थदः । चिन्तामणिश्च निःशेषचिन्तितार्थकरो नृणाम् ॥ कामधेनुश्च मन्त्रोऽयं कामिताशेषवस्तुकृत् । निधिः स्वामी पिता माता सुहुतास्माद्धितोऽपरः । यत्किञ्चिन्वा दुःसाध्यं स्थितं दूरेऽतिदुर्लभम् । मन्त्रेशध्यानिनां शीघ्र तत्सर्वं जायते करे । ११५ सत्तामालिनं दत्तं मुक्तिस्त्री स्वयमेत्य च। भार्येव मन्त्रमाकृष्टा का कथा नाकयोषिताम् ।। किमत्र नोक्तेन यद्यदङ्गी समीहते । तत्तदेव भवे नूनं मन्त्रराजप्रसादतः ।। ११७ ॥ प्रथास मोहल्लोकान् रूपकान्त्यादिसद्गुरोः कुमारः स्वपुरीं भूत्या जगामाहीन्द्रलीलया ११८ ततस्त्रिशत्ययामानं सुखमुल्वणम् । देवमर्पितं दिव्यं भुञ्जन्नास्ते मुदा जिन: ११६ जयसेनाख्यभूपतिः । धर्म्मप्रीत्यान्यदासौ प्राहिणोच्छ्री पार्श्वसनिधिम् ।। कृत्स्नकार्यकरं हितम् । भगलीदेशसंजातयादिप्राभृतैः समम् ।। १२१ ।। भक्तिपूर्वकम् । स्वकरी कुड्मलीकृत्य ननाम तत्पदाम्बुज । १२२ ।।
साकेतनगरेशोऽथ
निसृष्ट थे महादूतं सोऽयागस्य समयशु प्राभृतं
कुमारः
करने वाले जो प्रज्जन श्रादि चौर तथा प्रत्यन्त क्रूर तिर्यञ्च थे वे भी मृत्यु के समय जिस मंत्र को प्राप्त कर स्वर्ग गये ||११२|| संकल्प किये हुए समस्त पदार्थों को देने वाला यह मंत्र कल्पवृक्ष भी है तथा समस्त चिन्तित पदार्थों को देने वाला यह मंत्र मनुष्यों के लिये चिन्तामणि भी है ॥ ११३॥ समस्त मन चाही वस्तुनों को देने वाला यह मंत्र कामधेनु है । इस मंत्र से अधिक हितकारी न तो कोई निधि है, न स्वामी है, न पिता है, न माता है, और न मित्र है ।। ११४ ।। इस जगत् में जो कुछ भी वस्तु कष्टसाध्य, हूर स्थित और दुर्लभ है वह सब मत्रराज का ध्यान करने वालों के हाथ में शीघ्र ही उत्पन्न हो जाती है ।। ११५ ॥ जब मंत्र की लक्ष्मी से आकर्षित मुक्तिरूपी स्त्री स्वयं श्राकर भार्या के समान सत्पुरुषों को प्रालिङ्गन देती है तब बेवाङ्गनानों की तो कथा ही क्या है ? ।। ११६ ॥ । इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ है ? प्राणी जो जो चाहता है मंत्रराज के प्रसाद से वही वही निश्चित ही प्राप्त हो जाता है ॥११७॥
प्रथानन्तर रूप तथा कान्ति प्रावि सद्गुरणों से लोगों को मोहित करते हुए पार्श्वकुमार धरन्द्र जंसी लीला से वैभवपूर्वक अपनी नगरी में वापिस श्रा गये ||११८ || तदनन्तर तीस वर्ष तक कुमार देव और मनुष्यों के द्वारा प्रति उत्कट दिव्य सुख का उपभोग करते हुए हर्षपूर्वक रहे ।।११६|| पश्चात् किसी अन्य समय साकेत नगर के स्वामी जयसेन नामक राजा ने धर्मप्रीति से श्री पार्श्वकुमार के निकट समस्त कार्यों को करने वाला हितकारी प्रधान महादूत, भगली देश में उत्पन्न श्रश्व आदि उपहारों के साथ भेजा ।। १२०-१२१।। तदनन्तर उस दूत ने आकर शीघ्र ही भक्तिपूर्वक उपहार समर्पित किया १. जगाम होन्द्रलीलया वः ग० २. त्रिशद्धप्रमाण ।
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१८० ]
* भो पाश्र्वनाप चरित . गृहोस्वोपायनं दूतोत्तमं सम्मान्य त मुदा । साकेतस्य विभूति पप्रच्छ श्रीजिनपुङ्गवः ॥१२३।। सोऽपि भट्टारक पूर्व वर्णयित्वा जगद्गुरुम् । कीतिकात्यादिकल्याणभूत्या ज्ञानादिसद्गुणः ।। पश्चात्पुरं स्वकीय व्यावर्णयामास सच्छि या । विचारमतुराः प्राज्ञा भवन्ति ऋमदिनः ।। १२५ सच्छु त्वा तत्र कि जातस्तीर्थकृष्नामवद्भयात् । । एष एव पुनर्मोक्षमापदित्युपयोगवान् ।।१२६।। स्मृत्वा लधु निजातीतभवसन्ततिमञ्जसा । संवेगं परमं प्राप कर्मलाघवतो जिनः 11१२७।। ततो विभूतिभोगादिपरित्यक्तमना विभुः। हुदोति चिन्तयामास वैराग्यादिगुणाङ्किते ।१२८१ अहो य. प्राक्त मागदेव राजापिसोय : नाति न कि 'ह्यत्ययश्रत्य खमिश्रितः । इन्धनैरनलो यद्वज्जलधिर्वा नदीशतैः । एति जातु न संतोष तथाङ्गी स्वाक्ष : सुखे: १३० येषां यथा यथा भोगा भवन्त्यत्र समीहिताः। तथा तथाऽनिषिद्धाशा तेषां विश्व प्रसर्पति । १३.११ मत्वेति दूरतस्त्याज्या बुधभोंगा इवोरगाः । अतृप्तिजनकाः सामिन्द्रियादिसुखंद्र तम् । १३२॥ और अपने हाथ जोड़कर उनके चरणकमलों को नमस्कार किया ॥१२२॥ श्री जिनेन्द्र पार्श्वनाथ ने उपहार लेकर सथा हर्षपूर्वक उस उत्तम दूत का सम्मान कर उससे साकेतअयोध्या की विभूति पूछो ॥१२३॥ उस दूत ने भी पहले कीति कान्ति प्रादि कल्यारणों तथा ज्ञानावि सद्गुणों के द्वारा जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव का वर्णन कर पश्चात उत्तम लक्ष्मी से अपने नगर का वर्णन किया तो ठीक ही है क्योंकि विचार करने में चतुर मनुष्य क्रम को मानने वाले होते हैं ॥१२४-१२।। यह सुनकर उनके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि यहाँ तीर्थकर नाम कर्म के उदय से ऋषभदेव तीर्थकर हुए पश्चात् वहो मोक्ष को प्राप्त हो गये। उसी समय शीघ्र ही अपनी पूर्वभवावली का स्मरण कर पाय जिनेन्द्र कर्मोदय को लघुता से सम्यक प्रकार उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त हो गये ।।१२६-१२७।।
तदनन्तर विभूतियों के भोग प्राबि से जिनका मन हट गया है ऐसे विभु पावं जिनेन्द्र वैराग्यादि गुणों से अङ्कित हृदय में ऐसा विचार करने लगे ।।१२।। अहो ! जो प्रारणी इन्द्र प्राधि को पर्याय में प्राप्त होने वाले पूर्व भोगों से तृप्ति को प्राप्त नहीं हुमा वह क्या यहां के दुःख मिश्रित भोगों से तृप्ति को प्राप्त होगा ? अर्थात् नहीं ॥१२६।। जिस प्रकार इन्धन से अग्नि और सैकड़ों नदियों से समुद्र कभी संतोष को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार प्राणी अपनी इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सुख से संतोष को प्राप्त नहीं होता है ॥१३०।। इस जगत् में जिन प्राणियों को मन चाहे भोग जैसे जैसे प्राप्त होते जाते हैं वैसे वैसे ही उनकी तृष्णा किसी रुकावट के बिना, विश्व में फैलती जाती है ॥१३१॥ ऐसा मानकर विद्वज्जनों के द्वारा प्रतृप्ति को उत्पन्न करने वाले, भोग, इन्द्रि यादि सुखों के १. भवान् ग. २. प्राकृत स्व० ३. हि इति अली अत्रत्यः इतिच्छेदः ।
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* चतुर्दशम सग *
[ १८१
प्रतिस्वल्पमहो ह्यायुः शतवर्षादिगोचरम् । विज्ञाय विषयासक्ति को विधत्ते सचेतनः ।।१३३।। इयन्ति मम वर्षाणि संयमेन विना वृया । गतानि मधुना कि तद्ग्रहणे 'काललम्बनम् १३४
शार्दूलविक्रीडितम् यावन्नायुरहो सुदुर्लभतरं संभोयते चाखिन
यावद्रोगजराग्निभित्रपुरिदं पामेब नादह्यते । यावत्स्वेन्द्रियशक्तिरस्ति पदता.देहोद्यम: सम्मति
स्ताद्विश्वहितं चरन्ति निपुणा वृत्तादिभिः सिद्धये ॥१३॥ एवं मोहविधेः क्षयोपशमतः सत्काललब्ध्या वर
निवेदं परमं समाप्य भवभोगाङ्गस्वराज्यादिषु । सर्वानर्थविधायिषु ज्यघकरेल्वेवामलं संयम
ह्यात्तु श्रीजिन एवं चोद्यममघात् करिनाशाय सः ।।१३६।।
साथ शोघ्र ही छोड़ देने के योग्य हैं ।।१३२॥ अहो ! मेरी सौ वर्ष की आयु अत्यन्त प्रल्प है ऐसा जानकर कौन सचेतन प्राणी विषयों में प्रासक्ति करेगा ? अर्थात् कोई नहीं।१३३॥ मेरे इतने वर्ष संयम के बिना ध्यर्थ गये । अब उसके ग्रहण करने में काल व्यतीत करना क्या है ? भावार्थ-प्रब संयम धारण करने में विलम्ब करना उचित नहीं है ।।१३४॥ अहो ! जब तक प्रत्यन्त दुर्लभ संपूर्ण मनुष्यायु क्षीरण नहीं होती है, जब तक यह शरीर घर की तरह रोग तथा वृद्धावस्थारूप अग्नियों के द्वारा सब प्रोर से भस्म नहीं होता है
और जब तक अपनी इन्द्रियों की शक्ति, समर्थता, शरीर का पुरुषार्थ तथा अच्छी बुद्धि विद्यमान है तब तक चतुर मनुष्य सिद्धि के लिये चारित्र आदि के द्वारा संपूर्ण हित कर लेते हैं ।।१३५॥
इस प्रकार मोह कर्म के क्षयोपशम से तथा उत्तम काल लब्धि के द्वारा समस्त अनर्थों को करने वाले एवं विविध पापों के कारणभूत संसार भोग शरीर तथा अपने राज्य प्रादि के विषय में परम वैराग्य को प्राप्त कर श्री पार्श्व जिनेन्द्र ने कर्मरूप शत्रुओं का नाश करने के लिये निमंल संयम प्राप्त करने का ही उद्यम किया ॥१३६॥
१ समस्यापनम् २. न पादह्यते इलिच्छवः ३. विविध पापक रेषु ।
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१८२ )
* श्री पाश्वनाथ चरित -
इन्द्रवम्रा बाल्येऽपि यो व्याप जिनाधिनाथः । संवेगमेकं सकलाक्षसौख्ये । मुक्तिस्त्रियापितचित्तवृत्ति । तं पार्श्वनाथं प्रणमामि भक्त्या ।। १३७।।
इति श्री भट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथचरित्रे बालक्रीडाबेराम्योत्पत्तिवर्णनो नाम चतुर्दशः सर्गः ।
जिन जिनेन्द्र ने बाल्य अवस्था में ही समस्त इन्द्रिय सुखों में एक संवेगभाव को प्राप्त किया है तथा जिनको चित्तवृत्ति मुक्तिरूपी स्त्री में लग रही है उन पाश्र्वनाथ भगवान को मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूं ॥१३७।।
इस प्रकार श्री भट्टारक सकलक्रोति के द्वारा विरचित श्रीपार्श्वनाथ चरित में बालक्रीडा प्रौर वैराग्योत्पत्ति का वर्णन करने वाला चौदहयां सर्ग समाप्त हुभा ॥१४।।
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* पञ्चदशम सर्ग *
[ १८३
पञ्चदशः सर्गः रागादिदोषसंत्यक्तं संवेगादिगुणामृतम् । संवेगाय स्तुवे पार्श्वमनन्तगुणवारिधिम् ।।१।। चिन्तयत्पथ देवोऽसौ संवेगगुणवृद्धये । अनुप्रेक्षा द्विषड्भेदा वैराग्यशिवमातरः ॥२॥ प्रनित्याशरणे संसारकत्वान्यत्वमेव हि । अशुच्यासवनामानौ संवरो निर्जरा तथा ॥३॥ लोकोऽपि दुर्लभा बोधिधर्मश्चेति' द्विविधाः । अनुप्रेक्षा बुधया रागारिमयकारिकाः ।।४।। अनित्यानि शरीराणि विद्युत ल्यानि देहिनाम् । क्षणादेव क्षयं यान्ति विषाम्न्यारिमृत्युतः ।।५।। चञ्चलं यौवनं प्रासदर्भाग्रबिन्दुसग्निभम् । गच्छेन्नाशं क्षणान जीवितव्यं रुजादिना ।।६।। वेश्येव चपला लक्ष्मीजंगत्प्राऽिशुभाकरा । दुःप्राप्या दुर्धरा कुर्यात्केचिन रति सदा ।।७।। सुग्वं वैषयिक पुसा विश्वानर्थनिबन्धनम् । दुःप्रापं दुःखपूर्व स्याद्गन्धर्वनगरोपमम् ।।८।। राज्यं रजोनिभं चक्रिणामयीहासुखाकरम् । बहुचिन्ताकर छायोपमं धर्मादिनाशकृत् ।।६।।
पञ्चदश सर्ग जो रागादि दोषों से रहित हैं और संवेगादि गुणों से सहित हैं, अनन्त गुरणों के सागरस्वरूप उन पार्श्वनाथ भगवान् को मैं संवेग प्राप्ति के लिये स्तुति करता हूँ ॥१॥
अथानन्तर वे पार्श्वनाथ देव संवेग गुरण की वृद्धि के लिये बारह अनुप्रेक्षामों का चिन्तबन करने लगे क्योंकि वे अनुप्रेक्षाए' वैराग्य की उत्पत्ति के लिये उत्तम मासास्वरूप हैं ॥२॥ अनित्य, प्रशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, मानव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्म ये बारह अनुप्रेक्षाएं विद्वज्जनों के द्वारा मानने योग्य हैं। ये सभी अनुप्रेक्षाए रागरूपी शत्रु का क्षय करने वाली हैं ।।३-४॥
प्रारिषयों के शरीर विजली के समान अनित्य हैं तथा विष, पग्नि, सर्प, शत्रु और मृत्यु के द्वारा क्षणभर में ही क्षय को प्राप्त हो जाते हैं ॥५॥ यौवन प्रातःकाल के राम के अग्रभाग पर स्थित प्रोस की दून्द के समान चञ्चल है। और जीवन रोग प्रादि के द्वारा क्षरणार्धभाग में नाश को प्राप्त हो जाता है।॥६॥ लक्ष्मी बेश्या के समान चपल है, समस्त जगत् इसे चाहता है, अशुभ की खान है, कठिनाई से प्राप्त होती है, बड़ी कठिनाई से रखी जाती है और किन्हीं में यह सदा प्रीति नहीं करती है ॥७॥ पुरुषों का विषय सम्बन्धी सुख समस्त अनर्थों का कारण है, दुष्प्राप्य है, दुःख का कारण है और गन्धर्व नगर के समान है ।।८। इस जगत् में चक्रवतियों का राज्य भी धूलि के समान है, १. द्वादश विदः।
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१८४ ]
• श्री पार्वनाथ चरित -
'कुटुम्ब चञ्चलं शम्या समस्तासुखप्रदम् । धर्मध्वंसकर पापप्रेरक शत्रुसन्निभम् ।।१०।। पृह वाहनवस्तूनि राज्याल करणानि च । बनधान्यपदार्थान्यत्राधारेभान्यपराप्य हो ।।११।। यत्किञ्चिद् दृश्यते दस्तु श्रेष्ठ लोकत्रये स्थितम् । कालानलेन तत्सर्व भस्मीभावं प्रयास्यति ।१२।। इत्यनित्यं परिज्ञाय विश्व वस्तु चराचरम् । साधयध्वं बुधा मोक्षं नित्यमाशुगुणार्णयम् ।।१३।।
शार्दूलविक्रीडितम् मायुश्चाक्षचयं बलं निजवपुः सर्व कुटुम्बं धनं ।
राज्यं वायुकथिताम्बुलहरीतुल्ये जगच्चञ्चलम् । ज्ञात्वेतीह भिवं जगत्त्रयहितं सौख्याम्बुधि शाश्वत दृञ्चिद्वृत्तयमैद्रतं बुधजना मुक्त्यै भजन सदा ।।१४।।
नित्यानुप्रेक्षा वने लामहोतस्य मृगस्म शरण यथा । विद्यते न तथा पुसां मृत्युव्याघ्रादिना क्वचित् १५ दृग्वृत्तधर्मसद्दान तपोज्ञानय मादय: ।जिनाः सिद्धा मुनीन्द्राश्च स्युः शरण्याः सतां भवान् दुःखों की खान है, बहुत पिता को करने वाला है, छाया के समान है और धर्मादिक का नाश करने वाला है ।। कुटुम्ब बिजली के समान चञ्चल है, समस्त दुःखों को वेने वाला है, धर्म का विनाश करने वाला है, पाप का प्रेरक है और शत्रु के तुल्य है ।।१०।। ग्रहो ! घर वाहन प्रादि वस्तुए राज्य के अलंकारभूत छत्र चमरादि, धन धान्यादि पदार्थ तथा अन्य पदार्थ इस जगत् में मेघ के समान हैं ।।११।। तीनों लोकों में स्थित जो कुछ भी श्रेष्ठ बस्तु दिखाई देती है वह सब कालरूपी अग्नि के द्वारा भस्मभाव को प्राप्त हो जायगी ॥१२।। इस प्रकार समस्त चराचर वस्तुओं को अनित्य जानकर हे विद्वज्जन हो ! निरन्तर शीघ्र ही गुणों के सागर स्वरूप मोक्ष की साधना करो-मोक्ष प्राप्त करने का उद्यम करो ॥१३॥ आयु, इन्द्रिय समूह, शारीरिक बल, अपना शरीर, समस्त कुटुम्ब, धन, राज्य और जगद वायु से ताडित जल को तरङ्ग के समान चञ्चल है ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो ! मुक्ति प्राप्ति के लिये सदा वर्शन ज्ञान चारित्र तथा इन्द्रियदमन के द्वारा शीघ्र ही यहां उस मोक्ष की उपासना करो जो तीनों जगत् के लिये हिलकारी है, सुख का सागर है तथा स्थाई है ॥१४॥
( इस तरह अनित्यानुप्रेक्षा का चिन्तवन किया ) जिस प्रकार वन में ध्यान के द्वारा पकड़े हुए मृग को शरण नहीं है उसी प्रकार मृत्युरूपी व्याघ्र प्रादि के द्वारा पकड़े हुए पुरुषों को कहीं शरण नहीं है ।।१५।। दर्शन, चारित्र, धर्म, सम्यग्दान, तप, ज्ञान, इन्द्रियदमन प्रावि, अरहंत सिद्ध और मुनिराज हो सत् १. एक अलोक: ख• पुग्नक नास्ति २. मेघनुल्यानि ।
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• पञ्चदश सर्ग *
[ १५ खगमय॑सुराधीशचण्डिकाव्यन्तरादयः । वातारो जातु न नू.णां मणिमन्त्रोषधादयः ।।१७। परमेष्ठिवषादीनां शरणं ये वजन्यहो । सेऽचिरात् स्युभवत्रस्ता जन्ममृत्युजराच्युताः ॥१८॥ क्षेत्रपालौषधादीनां यान्ति ये शरणं शठाः । तेऽधभारेण रागार्ता यमास्ये संपतन्त्य हो ॥१६॥ यया पोतच्युतः पक्ष्यशरण्योऽधौ च मज्जति । तथा धर्मच्युतः प्राणी श्वभ्रानो पापभारत: ।२०। मणिमन्त्रौषधाचविश्वर्देवनराधिपः ।यमेन नीयमानोऽङ्गीर क्षणं त्रातुन शक्यते ॥२१॥ इति ज्ञात्वा बुधः कार्याः शरण्याः परमेष्ठिन: । तपोधर्मादयश्चात्र दुःकर्मयमहानये ।।२२।। शरण्यो मुनिभिः कार्यों नित्यो मोक्षः सुखार्णवः । दृश्चित त्तादयस्वातारो विधेया: शिवप्रताः ॥२३॥
__ शार्दूलविक्रीडितम् नेन्द्रा नैव खग। न म्यन्तरगरणा नेयात्र चक्राधिपा
मन्त्रश्चौषधराशयश्च सकला धर्म विना देहिनः । पुरुषों को संसार से बचाने के लिये शरण्यभूत हैं ॥१६॥ विद्यापर, मनुष्य, इन्द्र, चण्डिका, व्यन्तर आदि देव तथा मरिण मंत्र औषध प्रादि पदार्थ मनुष्यों के कभी रक्षक नहीं हैमृत्यु से कोई बचाने वाले नहीं हैं ॥१७॥ अहो ! संसार से भयभीत हुए जो मनुष्य पञ्चपरोही तथा भारत की सरया को प्राप्त होते हैं वे शीघ्र ही जन्म मृत्यु मोर जरा से च्युत हो जाते हैं-इनके चक्र से बच जाते हैं ।।१८॥ जो मूर्ख क्षेत्रपाल तथा औषध प्रावि की शरण को प्राप्त होते हैं वे पाप के भार से रोग पीडित होते हुए यमराज के मुख में पड़ते हैं ॥१६।। जिस प्रकार जहाज से छूटा हुअा पक्षी शरण रहित हो समुद्र में डूबता है उसी प्रकार धर्म से छूटा हुमा प्राणी पाप के भार से नरकरूपी समुद्र में डूबता है ॥२०॥ यम के द्वारा ले जाया जाने वाला प्राणी मरिण, मंत्र औषध धन प्रादि पदार्थों तथा समस्त देव और राजाओं के द्वारा क्षणभर के लिये भी नहीं बचाया जा सकता ॥२१॥ ऐसा जान कर विद्वज्जनों को दुष्कर्म तथा यम मृत्यु को नष्ट करने के लिये परमेष्ठियों को ही शरण्य रक्षक बनाना चाहिये ॥२२॥ मुनियों को नित्य तथा सुख के सागर स्वरूप मोक्ष को ही शरण्य-रक्षक बनाना चाहिये । इसी प्रकार मोक्ष को देने वाले दर्शन ज्ञान तथा चारित्र प्रावि को रक्षक बनाना चाहिये ॥२३॥ पूर्योपार्जित कर्मोदय से होने वाले दुःखरूप मरण से प्राणियों को क्षणभर बचाने के लिये धर्म को छोड़ कर न इन्द्र समर्थ हैं न विद्याधर, न व्यन्तरगरण, न चक्रवर्ती, न मंत्र, न प्रौषधराशि-सभी असमर्थ हैं-ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो | कर्म से सुरक्षित रखने वाले धर्म को ही निरन्तर रक्षक बनायो ॥२४॥
( इस प्रकार प्रशरण अनुप्रेक्षा का चिन्तवन किया ) १. यममुखे २, प्राणी।
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१८६ ]
* श्री पाश्वनाथ चरित. पूर्वोपाजितकर्मदु:खमरणास्त्रातु क्षमा न क्षरणं विज्ञायेति बुधाः कुरुध्वमनिशं धर्म शरण्यं विधेः ॥२४॥
अशरणानुप्रेक्षा अस्मिन्ननादिसंसारे कृत्स्नदुःखाकरेऽशुभे । धर्माहत भ्रमन्त्यङ्गिनोऽखिलाः कर्मणानिशम्। २५॥ द्रव्यक्षेत्रेण कालेन भवभावेन जन्तवः । पञ्चप्रकार संसारं भ्रमन्ति विधिवञ्चिताः ।।६। पाहारकर्मनोकमंगाखिलाः पुद्गलाय 1 गृहोस, ये न यश कसे सन्ति जनश्रये ।।२७, पुद्गलयः शुभरत्र ते कायोऽयं विनिमितः । प्राग्भवे तैस्तवाङ्गान्यनन्तश: खण्डितान्यहो ।२८। असंख्ये खप्रदेशेऽस्मिन् यत्र जातो मृतो न च । कर्मशङ्खलबद्धोऽङ्गी स प्रदेशोऽस्ति जातु न ।।२६। उत्सपिण्यवसर्पिण्योः सर्वस्मिन् समयेऽशुभात् । यत्रोत्पन्नो मृतो नाङ्गो विद्यते समयो न सः ।३०। स्वभ्रतियंग्नदेवेषु यावद्द्मवेयकं च या । न गृहीता न मुक्ता सा योनिजोंवर्न भूतले ॥३१॥ मिथ्यादिप्रत्यय व रागद्वेषादिजः सदा । बध्नात्याखिला जीवा अनन्ताकर्मपृद्गलान् ।३२ भ्रमन्तोऽत्रभवारण्ये कर्मारिभिर्गलेधृताः। भुञ्जन्यमन्तदुःस्त्रानि शमीशं न भजन्त्यहो ।।३३।। चिो जडात्मनां भाति सुखदुःखद्वयं भवे । न सुखं 'ह्यश मात्रं च सर्व दुःखं विदेकिनाम् ३४॥
समस्त दुःखों की खानस्वरूप इस अशुभ अनादि संसार में धर्म के बिना समस्त प्राणो कर्मोदय से निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ।।२५।। कर्मों से ठगे हुए प्रारणी द्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव के भेद से पांच प्रकार के संसार में भ्रमण करते हैं ॥२६ प्रथिवी पर जो समस्त पुद्गल हैं उनमें से प्राहार, कर्म और नोकर्म के रूप में इस जीव ने जो न प्रहरण किये हों और न छोड़े हों ऐसे पुद्गल तोनों लोकों में नहीं हैं ।।२०।। अहो ! इस जगत् में जिन शुभ पुद्गलों से तेरा यह शरीर रचा गया है पूर्वभव में उन्हीं पुदगलों से अनन्त वार तेरे शरीर खण्डित हुए है ।।२८।। कर्मरूपी शृङ्खला से बन्धा हा यह प्राणी आकाश के असंख्य प्रदेशों में से जिस प्रदेश में न उत्पन्न हुया हो और न मरा हो वह प्रदेश कभी नहीं है ॥२६॥ पापोवय से उत्सपिरणी और प्रवपिणी के सभी समयों में से जिस समय में यह जीव न उत्पन्न हुआ हो और न मरा हो वह समय नहीं है ।।३०।। नरक तिर्यञ्च मनुष्य और देवों में ग्रंबेयक पर्यन्त यह योनि नहीं है जो लोक में जीवों के द्वारा न ग्रहण की गई हो और न छोड़ो गई हो ॥३१॥ मिथ्यात्व प्रादि प्रत्ययों तथा रागद्वेषादि से उत्पन्न भावों के द्वारा समस्त जीव इस जगत् में अनन्त कर्म पुद्गलों को बांधते रहते हैं ॥३२॥ अहो ! कर्मरूपी शत्रुओं ने जिनका गला पकड़ रक्खा है, ऐसे संसाररूपी वन में भ्रमण करते हुए जीव अनन्न दुःख भोगते हैं, सुख का अंश भी प्राप्त नहीं करते ।।३३।। अज्ञानी जनों के चित्त में ऐसा भाव रहता है कि संसार में सुख दुःख दोनों हैं परन्तु ज्ञानी १.गुमाग.।
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- पञ्चदश सर्ग .
[ १७ इति मत्वा भवं त्यक्त्वा कृत्स्नाशर्माकरं बुधाः । यत्नेन तपसा मोक्षं साधयध्वं सुखार्णवम् ॥३५॥
शार्दूलविक्रीडितम् श्वभ्रे दुःखमनारतं घनतरं तिर्यग्गतौ केवलं
मानुष्येऽपि वियोगशोकजनितं दारिद्रघरोगादिजम् । देवत्वेऽपि सुराङ्गनाच्यवनजं दाहप्रदं मानसं मत्वेतीह जनाः शिवं सुखनिधि यत्नाद् भजध्वं द्रुतम् ।। ३६।।
संसारानुप्रेक्षा एको जातो मृतश्चक: सुखी दुःखी धनेश्वरः । निर्धनो रोगवाने को भ्रमत्यत्र 'चतुर्गतीः ।।३।। मिथ्याहिंसान्नान्यस्त्रीचौर्य रौबादिकर्मभिः ।उपायनो जन: श्वभ्रं यात्येकोऽत्रासुखाकरम् ।३८। मायाकौटिल्य शोकातंत्र्यानाचै रघमञ्जसा । अयित्वा बजत्येकस्तियं म्योनीरनेकशः ॥३६॥ हचिद त्ततपोयोगापूजायमादिभिः
। पुरुष प्रशारेक: स्वर्ग सर्वसुखाएंवम् ॥४०॥ जनों के चित्त में यह भाव रहता है कि यहां सुख अंशमात्र भी नहीं है सब दुःख ही दुःख है ॥३४।। ऐमा जानकर हे विद्वज्जन हो! समस्त दुःखों की खानस्वरूप संसार को छोड़ कर यत्नपूर्वक तप के द्वारा सूख के सागरस्वरूप मोक्ष की साधना करो ॥३५॥ नरक में निरन्तर तीव्रतर दुःख है, तिर्यञ्चगति में मात्र दुःख है, मनुष्यगति में वियोग और शोक से उत्पन्न तथा दरिद्रता और रोग आदि से होने वाला दुःख है और देवपति में भी देवाङ्गनामों के च्युत हो जाने से उत्पन्न, दाह को देने वाला मानसिक दुःख है ऐसा जान कर हे ज्ञानोजन हो ! शोघ्र ही सुख के भाण्डारस्वरूप मोक्ष की उपासना यत्न से करो ॥३६॥
( इस प्रकार ससार अनुप्रेक्षा का चिन्तबन किया ) यह जीव अकेला उत्पन्न होता है, अकेला मरता है, अकेला सुखी होता है, अकेला दुःखी होता है, अकेला धनपति होता है, अकेला निधन होता है, अकेला रोगी होता है और अकेला ही चारों गतियों में भ्रमण करता है ।।३७१। यह जीव इस जगत में मिथ्यादर्शन, हिमा, सत्य, परस्त्री सेवन, चोरी तथा कर प्रादि कर्मों से पाप का उपार्जन कर अकेला ही दुःख की खान स्वरूप नरक में जाता है ।।३।। मायाचार, कुटिलता, शोक, और प्रातध्यान आदि के द्वारा पाप का संचय कर अकेला ही अनेक प्रकार की तिर्यञ्चयोनियों में जाता है ।।३६॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तए के योग से तथा दान पूजा और इन्द्रियदमन प्रादि के द्वारा पुण्य कर अकेला ही समस्त सुखों के सागरस्थरूप स्वर्ग को प्राप्त
१. र दुर्गना: खः ।
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श्री पार्श्वनाथ चरित. दानपूजार्जवाद्यश्च किञ्चित्पुण्यं विधाय ना । भजत्येको नृयोनौ च श्रियं राज्यादिगोचराम् ।४। एको दीक्षा समादाय हत्वा कर्माणि शुद्धधीः । तपोरत्नत्रयादयो निर्वार गच्छेद्गुरणाम्बुधिम् ।४२ एको रोगादिभिस्तो मृत्वा कष्टेन पापभाक् । वायुवत्संभ्रमेद्विश्वं स्वनसाऽशर्मपूरितः ॥४३।। इत्येकत्वं परिशाय जन्ममृत्य्वोच' सर्वथा । त्यक्त्वाङ्गादिपरद्रव्यं भजेकत्वं बुधात्मनः ।।४४।।
शार्दूलविक्रीडितम् एको दुःखमनारतं च कुगतो पापोदयात्प्राणभृ---
देकः सौख्यमपारमद्भ ततरं स्वर्गऽत्र भुङ्क्ते शुभात् । एको मोक्षमनन्तशमंजलधि कर्मक्षय बुद्धवेत्याशु बुधा भजध्वमनिश स्वास्मान मेक विधेः ॥४५।।
एकत्वानुप्रेक्षा देहायत्र भवेदन्यो जडादात्मा हि निद्वपुः । स्वकीयं तत्र फिञ्चान्यस्कुटुम्बस्त्रीगृहादिकम् ।४६ मन्या माता पिताप्यन्यो' भार्याः पुत्राश्च बान्धवाः । अन्ये च स्वजना नूनं जायन्ते सर्वजातिषु ।।४।। होता है ॥४०॥ दान पूजा तथा प्रार्जय-सरलता प्रादि के द्वारा किञ्चित पुण्य का उपा
न कर यह मनुष्य अकेला ही मनुष्ययोनि में राज्यादि विषयक लक्ष्मी को प्राप्त होता है॥४१॥ अकेला ही दीक्षा लेकर तथा कर्मों को नष्ट कर शुद्ध बुद्धि और सप एवं रत्नत्रय से युक्त होता हुमा गुणों के सागरस्वरूप निर्धारण को प्राप्त होता है ।।४२॥ पापी जीव अकेला ही रोगादि से ग्रस्त होता हुमा कष्ट से मरता है और अपने पाप के फलस्वरूप दुःख से युक्त होता हुमा वायु के समान संसार में भ्रमण करता है ॥४३।। इस प्रकार जन्म
और मरण में यह जीव सब प्रकार से अकेला ही रहता है यह जानकर हे ज्ञानीजन हो ! शरीरादि परद्रव्य को छोड़कर प्रात्मा के एकत्व की प्राराधना करो अर्थात् प्रात्मा अकेला ही है ऐसी हर प्रतीति करो ॥४४।। पाप के उदय से यह प्राणी अकेला ही कुगति में निरमार दुःख भोगता है मौर पुण्योदय से स्वर्ग में अपार तथा प्राश्चर्यकारक सुख भोगता है। तया कमों के क्षय से अकेला ही अनन्त सुख के सागरस्वरूप मोक्ष को प्राप्त होता है ऐसा जान कर अहो विद्वज्जन हो ! शीध्र ही निरन्तर एक अपनो प्रात्मा को कम से पृथक उपासना करो ॥४५॥
( इस प्रकार एकत्व अनुप्रेक्षा का चिन्तबन किया ) जहां चिम्मूति प्रात्मा जड शरीर से अन्य है यहां कुटुम्ब, स्त्री तथा घर प्रादिक अन्य पदार्थ अपने कैसे हो सकते हैं ? ॥४६॥ निश्चय से सभी योनियों में माता अन्य है, १. जम्ममृत्यो २०४० ग. २. पितापल्यो खः ।
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* पञ्चदश सर्ग
[ १८६
अन्नपानादिताम्बूल पोषिसं
वस्त्रभूषणैः । यदङ्ग ं तन्न यात्युच्चरङ्गिना सह किं परः ||४८ ||
तिष्ठन्ति फलिते चात्र भुक्त्यर्थं पक्षिणो यथा । फलापाये प्रयान्त्येव तथा च स्वजना जनाः ॥४६ कर्मकार्येभ्यो योगेभ्यः कर्मभ्यः परमार्थत: । मूर्तभ्यश्च पृथग्भूत प्रात्मा 'ज्ञानमयोऽभवेत् ॥५०॥ गृहस्त्रीधनपुत्रादीन्मे मे कुर्वन्ति ये शठाः । ते तांस्त्यक्त्वा भ्रमन्यत्र दुःखिनो हि चतुर्गतौ ५१ यत्किञ्चिद्यते वस्तु मूर्त सर्व विनश्वरम् । कर्मजं तत्पृथग्भूतं विज्ञेयं स्वात्मनो ध्रुवम् ।। ५२ ।। इति मत्वाखिलं वस्तु सर्वं त्वत्कर्मजं बुधाः । स्वकीयं परमात्मानं सेवध्वं मुक्तये सदा ॥ ५३ ॥ शार्दूलविम्ि अन्यत्कायम सारवस्तुनिचितं सर्वं कुटुम्बं स्वतो
राज्यं केन्द्रियश पूर्वविधिज रामादिदोष व्रजः । ज्ञात्ती चिदेकमूर्तिमसमं भिन्नं स्वदेहादित --- श्वात्मानं शिवसिद्धयेऽतिनिपुणा यत्नाद्भजध्वं हृदि || ५४ || अन्यत्वानुप्रेक्षा
पिता श्रन्य है, स्त्री अन्य है, पुत्र अन्य है, बान्धव अन्य हैं और कुटुम्बी जन अन्य हैं ||४७ || जो शरीर अश, पान, ताम्बूल प्रादि तथा वस्त्राभूषरणों से पोषित किया जाता है वह भी अब जीव के साथ ऊपर नहीं जाता तब दूसरा पदार्थ साथ कैसे जा सकता है ? ||४८ || जिस प्रकार पक्षी खाने के लिये फले हुए श्राम्रवृक्ष पर ठहरते हैं और फलों का प्रभाव होने पर नियम से चले जाते हैं उसी प्रकार कुटुम्बीजन भोगोपभोग के लिये सम्पन्न दशा में साथ रहते हैं और सम्पत्ति के नष्ट हो जाने पर प्रत्यत्र चले जाते हैं ॥ ४६ ॥ ज्ञान से तन्मय मा कर्मों के कार्यस्वरूप योगों से तथा मूर्तिक कर्मों से वास्तव में पृथक् है । ५०१ जो सूर्ख घर स्त्री धन तथा पुत्रादिक को मेरे मेरे करते हैं वे उन्हें छोड़कर दुःखी होते हुए चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमरण करते हैं ।। ५१|| कर्म से उत्पन्न होने वाली जो कुछ मूर्तिक निश्चित ही पृथग्भूत है वस्तु दिखाई देती है वह सब विनश्वर है तथा अपने श्रात्मा ऐसा जानना चाहिये ।। ५२ ।। इस प्रकार अपने कर्म से उत्पन्न हुई समस्त वस्तुओं को पृथक जानकर हे विद्वज्जन हो ! मुक्ति प्राप्ति के लिये सदा स्वकीय परमात्मा की सेवा करो ।। ५३ ।। निःसार वस्तुओं से भरा हुआ शरीर समस्त कुटुम्ब, राज्य, पूर्व कर्म से उत्पन्न हुआ इन्द्रिय सुख तथा रागादि दोषों का समूह अपने ग्रापसे अन्य हैं-पृथक् हैं ऐसा जानकर हे चतुरजन हो ! इस जगत् में एक चैतन्य मूर्ति, अनुपम, तथा अपने शरीरादि से भिन्न प्रात्मा का मोक्ष सिद्धि के लिये हृदय में यत्नपूर्वक भजन करो १५४ ॥
( इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षा का चित्तवन किया )
१. ज्ञानमयोऽभवत् ब ० 1
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१६० ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित * कृत्स्नदुःखाकरीभूते सप्तधातुमयेऽशुचौ । शुक्रशोणित बीजेऽझे विवेकी को रति व्यधात् ॥५५॥ क्षुत्त लक्कोपमानाग्नयो ज्वलन्त्यनिशं सप्ताम् । यत्र कायफुटीरेऽस्मिन्कि वासस्तत्र शस्यते ।।५६।। अमेध्यघातुसंपूर्ण जन्तुकोटिशनाकुलम् । यद्यमास्ये स्थितं कायं तत्सतां रतये कुतः ।।५७।। वस्त्रभूषानपानाद्यः शरीरं पोषन्ति ये । प्रत्र तेषां रुजो दद्यादमुत्र दुर्गति च तत् ।।१८।। तर्वपुः सफलं चके योक्षाय कथितम् । विरज्य कामभोगेषु तपोवृत्तपरीष हैः ।। ५६।। कलेवरे सारेऽस्मिन्सार कार्य तपोऽनघम् । ध्यानाध्ययनसद्योगवृत्तवानजपादिकम् ॥६०।। इति विज्ञाय हत्वाले ममलं दुरिताकरम् । पवित्रं मूक्तिसाम्राज्यं साधयचं विदो द्रुतम् । ६१।
मालिनी प्रशुचिसकलपूर्ण धातुविष्टादिधाम दुरितनिखिलबीजं कृत्स्नदुःखैकहेतुम् । वपुरपगतसारं संविदित्वात्र दक्षा: प्रभजत शिवकामा यत्नतो मोक्षप्तारम् । ६२।।
अशुचित्वानुप्रेक्षा जो समस्त दुःखों को खानस्वरूप है, सप्तधातुनों से तन्मय है, अपवित्र है, रज और वीर्य से उत्पन्न है तथा ज्ञान रहित है, ऐसे शरीर में कौन विवेकी पुरुष प्रीति करेगा ? अर्थात कोई नहीं ॥५५॥ सत्पुरुषों के जिस शरीररूप झोपड़े में क्षुधा तृषा रोग क्रोध और मानरूपी अग्नियाँ निरन्तर जलती रहती हैं उसमें निवास करना क्या प्रशंसनीय है ? अर्थात नहीं ॥५६॥ जो अपवित्र धातुओं से भरा हुआ है, जीवों की सैकड़ों कोटियों से व्याप्त है और यमराज के मुख में स्थित है बह शरीर सत्पुरुषों को प्रीति के लिये कैसे हो सकता है ? ।।५७।। जो मनुष्य वस्त्र प्राभूषण तथा अन्न पान आदि के द्वारा शरीर का पोषण करते हैं उन्हें वह शरीर इस भव में रोग देता है और परभव में दुर्गति प्रदान करता है ॥५८। उन्हीं पुरुषों ने शरीर को सफल किया है जिन्होंने काम भोगों में विरक्त होकर तप चारित्र और परिषहों के द्वारा मोक्ष प्राप्ति के लिये उसे पीडित किया है ॥५६॥ इस प्रसार शरीर में निर्दोष तप तथा ध्यान अध्ययन प्रशस्त योग चारित्र दान और अप प्राविक सारभूत कार्य है ।।६०॥ ऐसा जानकर हे ज्ञानी जन हो ! शरीर में पापों को खानभूत ममता को छोड़ो और शीघ्र ही पवित्र मुक्ति के साम्राज्य की साधना करो ॥६१।। यह शरीर समस्त अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है, धातु तथा विष्ठा प्रादि का स्थान है, समस्त पापों का बीज है, सब दुःखों का प्रमुख कारण है और सार रहित है ऐसा जान कर हे मोक्षाभिलाषी चतुर जन हो ! इस जगत् में यत्नपूर्वक मोक्षरूप सार पदार्थ की आराधना करो ॥६२॥
( इस प्रकार अशुचित्वानुप्रेक्षा का चिन्तयन किया )
१.मोक्षपारम् ख. ।
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! सच्छिद्रं च यथा पोते मज्जत्यब्धी जलासवः । तथा कर्मासवर्जीवो विषयान्धो भवार्णवे ।।६३॥ मिथ्यात्वं पञ्चधा द्वादशधा विरतयोऽशुभाः । 'त्रिपञ्चैव प्रमादा हि कषायाः पञ्चविंशतिः।६।। योगाः पञ्चदशाप्येते प्रत्ययाः२ शत्रवः पराः । त्याज्या मुमुभूभिर्यत्नात्कुकर्मास्त्रबहेतवः ॥६५॥ मनोवाक्काययोशा सर्व संजायतेतराम् । विधा क्रम तत: कार्यों यत्नस्तद्रोधने बुधः ।। ६६ ।। संचिनोत्यशुभं कर्म रागद्वेषमलीमसम् । मन: "साम्यादिकापन्न शुभं कर्म नृणां सदा ।६७। मृषादिदूषितं वाक्यं चास्ते पापमद्भ तम् । सत्या हिता मिता वारगी सत्पुण्यं च सुखाकरम् ६८ कायोत्सर्गादिमापन्न वपुः सूते महच्छुभम् । दुरितं दुःखसंतानं विक्रियाद्यन्वितं च तत् ।।६।। रुद्धा योगाश्च येर्दानाध्ययनकर्मभिः । तैश्चात्र प्रत्ययाः कर्मास्रवाः सर्वेऽशुभप्रदाः ।।७।। इति मत्वासवान्योगान् निरुन्धध्वं बुधा द्रुतम् । सर्वशर्मशिवाद्याप्त्यै यत्नाद्ध्यानादिकर्मभिः १७१।
___ शार्दूलविक्रीडितम् सर्मिपरम्परापरणपरं चौरं सुमुक्तिश्रियः
संसाराम्बुधिमज्जकं मुनिवरयानासिना नाशितम् । जिस प्रकार छिद्र सहित जहाज जल के आने से समुद्र में डूबता है उसी प्रकार विषयान्ध जीव कर्मों के प्रास्रव से संसाररूपी सागर में डूबता है ।।६३॥ पांच प्रकार का मिथ्यात्व, बारह प्रकार की अशुभ प्रविरतियां, पन्द्रह प्रमाद, पच्चीस कषाय और पन्द्रह योग ये प्रत्यय-बन्ध के कारण परम शत्रु हैं तथा निन्ध फर्मास्त्रव के हेतु हैं । मुमुक्षु जनों को यत्नपूर्वक इनका स्याग करना चाहिये ॥६४-६५।। मन वचन काय रूप योगों के द्वारा पुण्य पापरूप द्विविध कर्म का अत्यधिक मात्रय होता है इसलिये जानीजनों को उनके रोकने में यत्न करना चाहिये ॥६६॥ मनुष्यों का राग द्वष से मलिन मन अशुभ कर्म का संचय करता है और साम्यभाव प्रादि को प्राप्त हुमा मन सदा शुभ कर्म का संचय करता है ॥६७॥ असत्य प्रादि मे दूषित वचन, आश्चर्यकारक पाप को उत्पन्न करता है और सत्य मित तथा हितकारी वारणी सुख की खानस्वरूप उत्तम पुण्य को उत्पन्न करती है ।।६।। कायोत्सर्ग प्रादि को प्राप्त हुमा शरीर बहुतभारी शुभ-पुण्य कर्म को उत्पन्न करता है और विकार प्रादि से सहित शरीर पाप तथा दुःखों की सन्तति को जन्म देता है ।।६६।। जिन चतुर मनुष्यों ने ध्यान तथा अध्ययन कार्य के द्वारा योगों को रोका है उन्हीं ने इस जगत में प्रकल्याण को देने वाले समस्त कर्मास्त्रध रोके हैं ॥७०॥ ऐसा जानकर हे विद्वयन हो ! माप लोग समस्त शिव सुख की प्राप्ति के लिये ध्यान आदि कार्यों के द्वारा शीघ्र ही यत्नपूर्वक प्रास्त्र व स्वरूप योगों को निरुद्ध करो ॥७१॥ जो समस्त दुःखसन्तति के देने
१. पञ्चदशा २. बन्धकारणानि ३. हेतवे ख: घ० ४. शामादि स्व. ध ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित #
धर्माराम हुताशनं यतिवराः सर्वास्रवं कर्मणा
तपोभिराशुहि निराकुर्वीध्वमेवादरात् ।। ७२ ।। पासवानुप्रेक्षा
सर्वानिरोधो यस्तपसा त्रयोदशप्रकारा हि द्विषड्भेदा धनुप्रेक्षाः मनोवाक्कायरोधातिशुभलेश्याः
शानिनां महान् । संवरो मुक्तिदाता स कीर्तितो जिनपुङ्गवैः ११७३ ॥ समितिव्र गुप्तवः । दशैव लक्षणान्येव धर्मस्य साधनानि च ।। ७४ ।। परीष जयोऽखिलः । संयमः पञ्चधा घशुक्लध्यानाक्षनिग्रहाः ।।७५।। सुभावनाः । एते कारणभूताः संवरस्य मुनिभिर्मताः ।। ७६ ।।
संवरेण विना
संवरेण समं किञ्चित् तपोवृत्तयमादिकम् । स्तोकं हि यष्कृतं तत्स्यात्सर्व] मुमसे निबन्धनम् ॥७७॥ पुस तपोवृत्तादिसेवनम् । शास्त्रादिपठनं कृत्स्नं यावत्स्यात्त ु बखण्डनम् ॥७८ सवरः परमो मित्रो मुक्तिनाथां पितामहः । अनन्तकर्मशत्रुनोऽनेक शर्माकरो भवेत् १७६१ ज्ञात्वेति सोऽनिशं कार्यस्तपोध्यानश्रुतादिभिः । निवार्याधास्रवं यत्नान्मुक्तयेऽनन्त शर्मकृत् ||८०||
में तत्पर है, मुक्तिरूपी लक्ष्मी को चुराने वाला है, संसार सागर में डुबाने वाला है, मुनिराजों ने ध्यानरूपी खड्ग के द्वारा जिसका नाश किया है, और जो धर्मरूपी उपवन को जलाने के लिये अग्निस्वरूप है ऐसे समस्त कर्मों के प्राव को है मुनिवर हो ! सम्यग्वर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र और सम्यक तप के द्वारा बड़े श्रादर से शीघ्र ही नष्ट करो ॥७२॥ ( इस प्रकार भावानुप्रेक्षा का चितवन किया )
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ज्ञानी जीवों के तप के द्वारा जो समस्त प्रात्रव का रुक जाना है उसे जिनेन्द्र भगवान् ने मुक्ति को देने वाला महान् संबर कहा है ||७३|| पांच समिति पांच महाव्रत और तीन गुप्ति के मेव से तेरह प्रकार का चारित्र, धर्म के साधन स्वरूप उत्तम क्षमा आदि दश लक्षरण धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएं, सब परोषहों का जीतना, सामायिक आदि के भेद से पांच प्रकार का संयम, धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान तथा इन्द्रिय निग्रह, मन वचन काय को रोकना, अत्यन्त शुभ लेश्श और मैत्री आदि उत्तम भावनाए मुनियों ने इन्हें संवर का का कारण माना है ||७४-७६ ।। संवर के साथ जो कुछ भी तप चारित्र तथा इन्द्रियदमन आदि किया जाता है वह सब मात्रा में अल्प होने पर भी मोक्ष का कारण होता है ||७७।। संदर के बिना पुरुषों का जो तप और चारित्र का सेवन तथा शास्त्रादि का पढ़ना है वह सब तुम खण्डन के समान है || ७८ ॥ संवर परम मित्र है, मुक्तिरूपी स्त्री का पितामह है, अनन्त कर्म शत्रुनों को नष्ट करने वाला है तथा प्रनन्तसुख की खान है ।७६ | ऐसा जानकर मुक्ति की प्राप्ति के लिये यत्नपूर्वक पापात्रय को रोकना चाहिये तथा तप ध्यान और शास्त्र
१.पापात्स्यात बखण्डनम् स० घ० ।
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* पञ्चदश सर्ग
अंबरा
शर्मा मुक्ति हेतु निखिलगुणनिधि स्वर्ग सोपानभूतं
पोतं संसारवार्षी भवभयचकिताः संवरं सर्वयत्नात्
[ १६३
कर्मघ्नं धर्ममूलं ह्यसुखचयहरं सेवितं तीर्थनार्थः ।
निर्जराज द्विधा प्रोफा
संवरेण समं यात्र निर्जरा क्रियते निर्जरा जायते पुंसां कर्मणां हि यथा यदारावतयात्र स्यात् सर्वेषां कर्मणां मुक्तिस्त्रीजननी farari अपक्वा स्रफलान्यत्र पच्यन्ते हा मरणा
कुर्वीध्वं मोक्षहेतोश्चरणसुतपसा ध्यान रत्नत्रयाद्यैः ॥ ८१ ॥ संवरानुप्रेक्षा सविपाकाविपाकतः | जिनंराद्या च सर्वेषां सुनीनां तपसा परा ॥ ८२ ॥ ॥ बुधैः । तपोवृत्तादिना देया साविपाका शिवप्रदा ||८३॥ यथा । निकटीभावमायाति मोक्षलक्ष्मीस्तथा तथा ।। ६४ ।। क्षयः । तदा मोक्षो यतीशानामनन्त गुणसागरः ||५|| करा । जगद्धिता सतां मान्या निर्जरा कर्मताशिनी ॥ ८६ ॥ यथा । तथा कर्माणि हग्ज्ञानत्तपोवृत्तयमादिभिः ॥८७॥
स्वाध्याय आदि के द्वारा अनन्त सुख को करने वाला संवर निरन्तर करना चाहिये ॥ ८० ॥ जो सुख का सागर है, मुक्ति का कारण है, समस्त गुणों का भाण्डार है, स्वर्ग की सीढी रूप है, कर्मों को नष्ट करने वाला है, धर्म का मूल है, दुःख समूह को हरने वाला है, तीर्थङ्करों के द्वारा सेवित है, और संसार सागर में जहाजस्वरूप है ऐसे संवर को है संसार के भय से भीत पुरुषो! मोक्षप्राप्ति के लिये ध्यान तथा रत्नत्रय यादि के द्वारा संपूर्ण प्रयत्न से प्राप्त करो ॥८१॥ ( इस प्रकार संवर अनुप्रेक्षा का चिन्तवन किया )
इस जगत् में जिनेन्द्र भगवान् ने सविधाक और प्रविपाक के भेद से निर्जरा दो प्रकार की कही है। उनमें से पहली सविपाक निर्जरा सभी जीवों के होती है और दूसरी प्रविपाक निर्जरा तप के द्वारा मुनियों के होती है ।। ६२ ।। इस जगत् में विद्वज्जनों के द्वारा तप और सम्यक् चारित्र श्रादि से संबर के साथ जो निर्जरा की जाती है वह मोक्ष को देने वाली प्रविपाक निर्जरा ग्रहण करने योग्य है ||८३|| पुरुषों के जैसे जैसे कर्मों की निर्जरा होती जाती है वैसे वैसे ही मोक्ष लक्ष्मी निकटभाव को प्राप्त होती जाती है || ८४|| जब यहां मुनियों के आराधना के द्वारा समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है तब अनन्त गुणों का सागर स्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है । ६५। निर्जरा मुक्तिरूपी स्त्री की माता है, समस्त सुखों की खान है, गुणों का प्राकर है जगत् हितकारी है, सत्पुरुषों को मान्य है तथा कर्मों का नाश करने वाली है ।। ८६ ।। जिस प्रकार यहां गर्मी द्वारा बिना पके श्राम के फल पका लिये जाते हैं उसी प्रकार दर्शन ज्ञान तप चारित्र तथा इन्द्रिय दमन आदि के द्वारा उदयावली में प्रप्राप्त
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• श्री पाश्वमाय चरित - इति मत्वा प्रयत्नेन कार्या सात्र मुमुक्षुभिः । कर्मणां मुक्तिलाभाय चियानतपसादिभिः ।।८८ रत्नत्रयेण सारेण त्रिकालयोगदुःकरैः । मनोऽक्षदमनेनैव कायक्लेशपरीषहैः ।।८६।
शार्दूलविक्रीडितम् संसाराम्बुधितारिका भयकरो दुःकर्मशत्रोः परां
सेव्यां श्रीक्षितपुष्ट गवैगुंगनिषि मुक्ति लियो मातरम । दुःखादौ पविसन्निभां सुखख मी श्वभ्रालयेष्वर्गला कुर्दीध्वं शिवलब्धये सुतपसा दक्षा: सदा निर्जराम् ।। E011
निर्जरानुप्रेक्षा पषोमध्योद्ध्यभेदेन लोको नित्यस्त्रिधात्मकः । प्रकृत्रिमो जिनः प्रोक्तो भृत: पडद्रव्यसंचयः ॥११॥ दरकाण्यप्यघोमागे सप्त दुःलाकराणि च । भवन्येकोनपञ्चाशत्पटलान्यखिलानि च ।१२।। चतुरशोतिलक्षाणि कुरिसतानि विलान्यपि । सर्वाशर्माकरीभूतानि स्युः कृत्स्नानि संग्रहै: ।।३।। ये सप्त व्यसनासक्ताः परस्त्रीधनलम्पटा: । क्रूरा रौद्राशया रौद्रकर्मध्यानादितत्परा: ||४|| कर्म पका लिये जाते हैं-निर्जीर्ण कर दिये जाते हैं ॥७॥ ऐसा जानकर यहां मोक्षाभिलाषी जीवों को मोक्ष की प्राप्ति के लिये ज्ञान ध्यान तप प्रावि, सारभूत रत्नत्रय, अतिशय कठिन त्रिकाल योग, मन तथा इन्द्रियवमन और कायक्लेश तथा परीषह जय के द्वारा पत्नपूर्वक कर्मों की अविपाक निर्जरा करना चाहिये ॥८८-८६॥ जो संसाररूपी समुद्र से तारने वाली है। दुष्टकर्मरूपी शत्रु का क्षय करने वाली है, उत्कृष्ट है, श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा सेवनीय है, गुणों का भाण्डार है, मुक्तिरूपी स्त्री की माता है, दु.खरूपी पर्यंत को नष्ट करने के लिये बच समान है, सुख की खान है तथा नरकरूपी घर की प्रागल है ऐसी निर्जरा को है चतुरजन हो ! मोक्ष की प्राप्ति के लिये उत्तम तप के द्वारा निरन्तर करो ॥६॥
( इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा का चिन्तयन किया ) जिनेन्द्र भगवान् ने अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से लोक तीन प्रकार का कहा है। यह लोक नित्य है, प्रकृत्रिम है और छह द्रव्यों के समूह से भरा हुआ है ॥१॥ अधोभाग में दुःखों को खानस्वरूप सात नरक हैं। इन सात नरकों के सब मिला कर उनचास पटल हैं और चौरासी लाख निन्द्य बिल्ल हैं। ये संपूर्ण बिल समस्त दुःखों की खान हैं ॥६२-६३॥ जो मनुष्य सात व्यसनों में प्रासक्त है, परस्त्री पौर परधन के लोभी है, क्रूर है, रौद्र परिणामी हैं, रौद्र कार्य तथा रौद्रध्यान में तत्पर हैं, मिथ्यात्व की वासना १. वयातुल्या।
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* पञ्चदश सर्ग
[ १ex
1
घर्मवजिताः । निन्दका देवधर्मादेस्ते यान्ति तासु भूमिषु ||१५|| कायजं महत् । भुञ्जते तत्र से पापात्कविवाचामगोचरम् ।। ६६ ।। लवणोदादयोऽब्धयः । श्रसंख्याता जिनैरुक्ता वलयाकारधारिणः ॥७ जिनागारादिमण्डिता: । ह्रदा नद्यादय: क्षेत्र भोगकर्मधरादयः ॥ ६८ ।। ह्यार्यम्लेच्छ्रजनं भृतः । क्वचिद्देवैश्च विज्ञेयः पुण्यपापादिकारणः ।। ६६ ।।
चैश्यागारयुतान्यपि । 'चन्द्रनग्रहनक्षत्रतारकाणां भवन्त्यहो ||१०० ।। सौधर्मादय एव च ग्रैवेयकादयः कल्पातीताः सर्वसुखाकराः । १०१ ।।
मिध्यात्ववासिता मूढाः पापिनो छेदनादिभवं दुःखं मानसं जम्बूद्वीपादयो बीपा मेर्वादिपर्वता ज्ञेया
इत्यादिमध्यलोकोऽस
असंख्येयविमानानि
स्वर्गाः षोडश विज्ञेयाः
से सहित हैं, मूर्ख हैं, पापी हैं, धर्म से रहित हैं, तथा देव और धर्म प्रादि के निन्दक हैं ये जीव उन भूमियों में जाते हैं ।।६५।। वहां वे पाप के कारण छेदन आदि से होने वाले faraनागोचर कायिक और मानसिक महान् दुःख भोगते हैं ।। ६६ ॥
मध्यमलोक में जिनेन्द्र भगवान् ने जम्बूद्वीप को प्रावि लेकर असंख्यात द्वीप और लवण समुद्र को प्रावि लेकर प्रसंख्यात समुद्र कहे हैं। ये द्वीप समुद्र चूडी के आकार एक दूसरे को घेरे हुए हैं ||७|| जिन चैत्यालयों से सुशोभित मेरु आदि पर्वत, सरोवर, नदी प्राडि, क्षेत्र, भोग भूमि कर्मभूमि आदि सब मध्यम लोक है । यह मध्यम लोक आर्य तथा म्लेच्छजनों से और कही देवों से भरा हुआ है तथा पुण्य पाप श्रादि का कारण है। भावार्थमध्यलोक के प्रढाई द्वीप में आर्य तथा म्लेच्छ मनुष्यों का अस्तित्व है और उसके आगे असंख्य द्वीप समुद्रों में देवों का निवास है । तिर्यञ्चों का निवास सर्वत्र है । कहीं कहीं अढाई द्वीप में भी व्यन्तर और भवनवासी देवों का निवास है ।६८-६६|| ग्रहो ! जिन चत्यालयों से युक्त चन्द्रमा सूर्य ग्रह नक्षत्र और तारों के असंख्यात विमान भी इसी मध्यमलोक में हैं । भावार्थ - मध्यलोक का विस्तार मेरु पर्वत के एक हजार योजन नीचे से लेकर मेरु पर्वत की चोटी तक माना गया है इसलिये ज्योतिषी देवों का निवास भी मध्यमलोक में ही है ऐसा जानना चाहिये ।। १०० ॥
ऊर्ध्वलोक में सौधर्म श्रादि सोलह स्वर्ग और प्रवेयक आदि कल्पातीत विमान जानना चाहिये । ये सभी विमान सब सुखों की खान हैं। भावार्थ- मेरु पर्वत की तुलिका के ऊपर एक बाल का अन्तर छोड़कर ऊर्ध्यलोक की सीमा शुरू होती है। सौधर्मादि सोलह स्वर्ग कल्प कहलाते हैं क्योंकि इनमें इन्द्र सामानिक श्रादि दश भेदों की कल्पना रहती है और उसके ऊपर नव प्रवेयक श्रादि कल्पातीत कहलाते हैं क्योंकि उनमें इन्द्रादिक मेवों की
१. चन्द्र भूग्रह |
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१९६ ]
• श्री पार्श्वनाथ चरित - चतुरशीतिलशास्त्रयोविंशतियुप्ता दिवि । त्रिसहस्रोनलक्षश्च विमानाः सन्ति चालिला: १. २ अनेकरिसमायुक्ता बिनधामविभूषिताः । विश्वशर्माकरीभूताः कृत्स्नदुःस्वादिदूरगाः ।।१०३॥ रत्नत्रयतपोभूषा ज्ञानध्यानपरायणाः ।जिनभक्ताः सदाचारा यतशीलादिमण्डिताः । १०४ त्यक्तरागादिदोषौघा निष्पापा धर्मवासिताः । यान्ति स्वर्ग यथायोग्यं सदाचारा नरोत्तमाः ।१०५ ते सत्र विविधं शर्म दिन्यस्त्रीभिः समं सदा । भुजाना न गतं कालं जानन्ति पुण्यपाकतः ॥१०६ मोक्षास्यास्ति शिला लोकाने शुवस्फटिका शुभा । 'नरक्षेत्रसमा वृत्ता रुन्द्रा द्वादशयोजना ।।१०।। सवाष्टकमनिमुक्ता गुणाष्टकविभूषिताः । वन्द्या मया च भव्यानित्या: सिद्धा हि चिन्मयाः । भुजते प्रोत्तमं शर्म निरौपम्यसुखोद्भवम् । अनन्तं विषयातीतं स्वात्मजं शाश्वतं सदा ।।१०।। एवं लोकत्रयं ज्ञात्वा सुखदुःखादिसंकुले । वैराग्यिणो यतन्तेऽत्र मुक्तौ रत्नत्रयादिभिः । ११०
शार्दूलविक्रीडितम् सर्वद्रव्यभृतं ह्यनादिनिधनं शर्मासुखाद्याकर
नित्यं हग्विष जनस्य नियतासंस्यप्रदेशात्मकम् । कल्पना नहीं रहती है ॥१०॥ कयलोक के सब विमान चौरासी लाख सतानवे हजार तेईस हैं ॥१०२॥ ये सभी विमान अनेक ऋद्धियों से सहित हैं, जिन मन्दिरों से विभूषित है, समस्त सुखों की खान हैं तथा सब दुःख प्रावि से दूर हैं ।।१०३॥ जो रत्नत्रय तथा तपरूपी प्रासूषण से सहित हैं, ज्ञान ध्यान में तत्पर रहते हैं, जिनेन्द्र भगवान के भक्त हैं, सवाचारी हैं, व्रतशील प्रादि से अलंकृत हैं, जिन्होंने रागादि दोषों के समूह को छोड़ दिया है, जो पाप रहित हैं और धर्म की धासना से सहित हैं ऐसे समीचीन प्राचार विचार वाले उत्तम मनुष्य यथायोग्य स्वर्गों में जाते हैं ॥१०४-१०५॥ वे वहां पुण्योदय से देवाङ्गनाओं के साथ सवा सुख भोगते हुए गत काल को नहीं जानते । भावार्थ-निरन्तर सुख में निमग्न रहने से वे यह नहीं जानते कि हमारा कितना काल व्यतीत हो चुका है ।।१०६॥
लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला है जो शुद्ध स्फटिक को है, शुभ है, मनुष्य क्षेत्र के बराबर पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाली है, गोल है और बारह योजन मोटी है ॥१०७॥ वहां पाठ कर्मों से रहित, पाठ गुणों से विभूषित, मेरे तथा भव्यजनों के द्वारा बन्दनीय, नित्य तथा चिन्मूर्ति सिद्ध भगवान् सदा उस उत्तम सुख का उपभोग करते हैं जो निरुपम-निराकुल सुख से उत्पन्न है, अनन्त है, विषयों से रहित है, स्वकीय प्रात्मा से उन्मूत है और शाश्वत है ।।१०८-१०६॥ इस प्रकार तीनों लोकों को जानकर सुख दुःख से परिपूर्ण लोक में पैराग्य को धारण करने वाले मुनि रत्नत्रय प्रावि के द्वारा मुक्ति के लिये प्रयत्न करते हैं ॥११०॥ जो सब द्रव्यों से भरा हुआ है, अनादि निधन है, सुख दुःख । पञ्चचत्वारिंगधोजनविस्तृता २. निरौपम्य सुखोद्भवम् स. १० ।
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* पञ्चदश सर्ग *
[ १९७ पुण्यापुण्यगृहं जिनेन्द्रगदितं ज्ञात्वेह लोकत्रयं हत्वा रागमनारतं सुतपसा मोक्षं भजवं बुधाः ।।११।।
लोकानुप्रेक्षा मानुष्यं दुर्लभं विद्धपत्रानन्ते भवसागरे । चिन्तारत्नमिवान्धौ दुःकर्मारिक्शवर्तिनाम् ॥११२१ तत्प्राप्तेऽस्यतिदुःप्राप्यमार्यखाई वृषाकरम् । कञ्चिद्धि तदाप्तेऽतिदुर्लभं कुलमुत्तमम् ।।११३॥ तल्लब्धेऽप्यङ्गिनामायुर्न दीर्घ सुलभं क्वचित् । दीर्घायुषामपि न णां मति: साध्वी 'खपूर्णता ।। कपायहीनता धर्मे बुद्धिदहनिरोगता । देवगु दिसामग्री मणिवत्सुष्ठदुर्लभा ।।११।। लब्धेष्वेतेषु मुञ्चन्ति मिथ्यात्वं ये न निःफला । सामग्री साविला तेषां धर्महीना यथा मतिः । ११६ । तत्यागेऽपि श्रुतं वृत्त तपश्चात्यन्तदुर्लभम् । निःपापाचरणं पुसा भवेकल्पद्रुमोपमम् ।।११७।। इत्यादि बोधिलब्धानां समाधिमरणं महत् । निधानं वानघाचारं यावज्जी सुदुर्लभम् ।।११।। प्रादि की खान है, नित्य है, जिनेन्द्रदेव के दृष्टिगोचर है-केवलज्ञान का विषय है, नियत असंख्यात प्रदेश वाला है, तथा पुण्य और पाप का घर है ऐसे जिनेन्द्र कथित तीनों लोकों को जानकर हे बुधजन हो ! राग को नष्टकर निरन्तर तप के द्वारा मोक्ष की प्राराधना करो ॥११॥
( इस प्रकार लोकानुप्रेक्षा का चिन्तन किया ) दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओं के वश में रहने वाले जीवों को इस प्रनन्त संसार सागर में मनुष्य पर्याय उसी प्रकार दुर्लभ है जिस प्रकार कि समुद्र में चिन्तामणि दुर्लभ होता है ॥११२॥ उस मनुष्य पर्याय के प्राप्त होने पर भी धर्म की खान स्वरूप आर्य खण्ड का मिलना कठिन है। कथंचित् प्रायखण्ड के मिलने पर भी उत्तम कुल का मिलना अत्यन्त कठिन है ।।११३॥ कदाचित् वह भी मिल जाय तो वीर्घ आयु का मिलना सुलभ नहीं है तथा दीर्घ प्रायु मिलने पर भी मनुष्यों की उत्तम बुद्धि, इन्द्रियों को पूर्णता, कषाय को हीनता, धर्म की बुद्धि, शरीर को नोरोगता और देव गुरु प्रादि की सामग्री का मिलना मरिण के समान अत्यन्त दुर्लभ है ।।११४-११५।। इन सबके मिलने पर भी जो मनुष्य मिथ्यात्व को नहीं छोड़ते हैं उनको यह समस्त सामग्री उस प्रकार निष्फल है जिस प्रकार कि धर्म से रहित बुद्धि निष्फल होती है ॥११६॥ मिथ्यात्व का त्याग होने पर भी सम्यरज्ञान, सम्यक चारित्र और मम्यक् तप अत्यन्त दुर्लभ है । वास्तव में पाप रहित पाचरण मनुष्यों के लिये कल्पवृक्ष के समान है ।।११७।। इत्यादि रूप से बोधि को प्राप्त हुए मनुष्यो को बडे भारी निधान के समान निर्दोष आचरण से युक्त समाधिमरण का प्राप्त
२ इन्द्रियोता
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१९८]
• श्री पार्श्वनाथ चरित . इत्यादि बोधिमासाद्य समाधिमरणे बुधैः । महायनो विधातव्यो येन सा सफला भवेत् १११६। प्राप्य बोधि प्रमादं ये तद्रक्षादौ च कुर्वते । समाधिमरणे तेऽघाद्भवारण्ये प्रमन्त्य हो ।।१२०॥ इति मत्वा जन : कार्यो बोधिरक्षाविधौ महान् । यत्नश्चोत्तममृत्यवादों प्रमादेन विनानिशम् १२१
शालविक्रीडितम् संसारेऽत्र च दुःख राशिधिकटे नृत्वं कुलं चोत्तम
स्वायुः कायमनामयं खसकल सारं विवेक वृषम् । चिन्तारत्नमिवातिदुर्लभतरं दक्ष मनोहश्रुतं बुद्ध्वेत्याशु जना यतध्वमनिशं धर्मे च रत्नत्रये ।।१२२।।
बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा भवाब्धी पतनाच्छीघ य उद्ध त्याङ्गिनः शुभे । स्थापयत्यचलस्थाने तं धर्म विद्धि तत्त्वतः ।।१५३।। उत्तमादौ क्षमा मार्दवमार्जवं सुसत्यवाक् । शौचं संयम एवानुतरस्त्यागस्तयोत्तमः ।।१२४।।
आकिञ्चन्यं महब्रह्मचर्य चेति दशात्मकः । धर्मः साध्योऽप्य मीभिः सल्लक्षणदेशभिर्बुधः १२५॥ होना जीवन पर्यन्त प्रत्यन्त दुर्लभ रहता है। भावार्थ-बोधि के प्राप्त होने पर भी यथाविधि समाधिमरण का प्राप्त होना कठिन है ।।११८॥ इत्यादि रूप से बोधि को प्राप्त कर ज्ञानी जीवों को समाधिमरण के विषय महान् यत्न करना चाहिये जिससे वह बोधि सफल हो सके ||११६॥ जो मनुष्य बोधि को प्राप्त कर उसकी रक्षा प्रावि करने तथा समाधिमरण में प्रमाव करते हैं वे पाप से संसार सागर में भ्रमण करते हैं ।।१२०।। ऐसा जानकर मनुष्यों को बोधि की रक्षा तथा उत्तम समाधिमरण प्रादि में प्रमाद रहित होकर निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये ॥१२१॥ दुःखसमूह से परिपूर्ण इस संसार में मनुष्यभव, उत्तमकुल, दीर्घ प्रायु, नोरोग शरीर, इन्द्रियों की पूर्णता, श्रेष्ठ विवेक, धर्म, समर्थ मन, सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान ये सब चिन्तामणि के समान अत्यन्त दुर्लभ हैं ऐसा जानकर हे ज्ञानीजन हो ! धर्म तथा रत्नत्रय के विषय में शीघ्र ही निरन्तर प्रयत्न करो ॥१२२॥
( इस प्रकार बोधिदुर्लभभावना का चिन्तन किया ) ___ जो संसाररूपी सागर में पतन से निकाल कर जीवों को शीघ्र ही शुभ और अविनाशी स्थान में स्थापित कर दे उसे परमार्थ से धर्म जानो ।।१२३।। सब से पहले विद्वानों को उत्तमक्षमा, मार्दय, प्रार्जव, सत्यवचन, शौच, संयम, तप, उत्तमत्याग, प्राकिञ्चन्य और महान ब्रह्मचर्य यह दशरूप धर्म, इन उत्तम क्षमा प्रावि दश लक्षणों के द्वारा सिद्ध करना
1. निरन्तरम् ।
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* पञ्चदश सर्ग
[ KAT
धर्मो नरकपातालान रानुद्धरितु क्षमः । तथा स्थापयितुं शक्रराज्येऽनन्तसुखेऽथवा ।। १२६ ।। धर्मोमुत्र सुपाथेयं सहगामी वृषोऽङ्गनाम् । सर्वत्र व्यसने बन्धुर्धर्मः पापारिनाशकृत् ।। १२७ ।। मुक्तिश्रीः स्वयमासक्ता याति धर्मात्सुर्षार्मणः । स्वभार्येव द्रुतं लोके का कथा परसच्छियः १२८॥ ये कुर्वन्ति सदा धर्मं दृचिह्न सं क्षमादिभिः । तेषां कि दुर्लभं लोकत्रये सौख्यं च सत्पदम् । १२६ । भासते सफलं तेषां जन्मायुर्ये निरन्तरम् । सर्वशक्त्या भजन्त्येकं धर्मं यत्नेन मुक्तये ।। १३० ।। बिना धर्मेण लोकानां मानुष्यं दुर्लभं वृथा । सत्कुलं च मतिर्यस्मात् तत्स्याच्छ्वभ्रस्य कारणम् । जीवन्तोऽपि मृता ज्ञेया मानवा धर्मबर्जिताः । धर्मवन्तोऽमृता नूनमहामुत्र च जीविताः ।। १३२ ।। विज्ञायेति न नेतृव्य का कालकला क्वचित् । विना धर्मेण संप्राप्यं मानुष्यं दुर्लभं जनैः ।। १३३ ।।
शाहू विक्रीडितम्
धर्मो विश्वसुखप्रदोऽहतको धर्मं व्यधुर्षार्मिका,
धर्मेण विलभ्यते शिवपदं धर्माय मूर्ध्ना नमः ।
चाहिये ।।१२४ - १२५।। धर्म, मनुष्यों को नरकरूपी पाताल से निकालने तथा इन्द्र का राज्य अथवा अनन्त सुख -मोक्ष में स्थापित करने के लिये समर्थ है ।। १२६ ।। धर्म, परलोक के लिये उत्तम पाथेय-संबल है, धर्म प्राणियों के साथ जाने वाला है, धर्म सभी संकटों में बन्धु है और धर्म पापरूपी शत्रु को नष्ट करने वाला है || १२७॥ धर्म से जब मुक्तिरूपी लक्ष्मी स्वयं श्रासक्त होकर अपनी स्त्री के समान शीघ्र ही समीप श्रा जाती है तब प्रत्य afक्ष्यों की क्या कथा है ? ।।१२८ ।। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तथा क्षमा आदि के द्वारा सदा धर्म करते हैं उनके लिये तीनों लोकों में कौन सुख और कौन उसम पद दुर्लभ है ? अर्थात् कोई भी नहीं ।। १२६ ॥ उन्हीं का जन्म और जीवन सफल मात्रम होता है जो संपूर्ण शक्ति से मुक्ति के लिये निरन्तर एक धर्म की उपासना करते हैं । १३० धर्म के बिना लोगों का दुर्लभ मनुष्य भव, उत्तम फुल और उत्तम बुद्धि व्यर्थ है क्योंकि उसके बिना यह सब नरक का कारण है ।।१३१ || धर्म से रहित मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृत है और धर्म सहित मनुष्य मर कर भी इस लोक तथा परलोक में जीवित है ऐसा जानना चाहिये ।। १३२ ।। ऐसा जानकर तथा दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त कर मनुष्यों को धर्म के बिना कहीं काल की एक कला भी नहीं व्यतीत करना चाहिये ।। १३३ ।।
धर्म समस्त सुखों को देने वाला तथा पापों का नाश करने वाला है, धार्मिकजन धर्म करते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र ही मोक्षपद प्राप्त होता है, धर्म के लिये शिर से नमस्कार हो, धर्म से भिन्न दूसरा हितकारी पिता नहीं है, धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है, मैं प्रतिदिन
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२०० ]
* श्री पाश्र्धनाथ चरित . धमांन्नास्त्यपरः पितात्र हितद्धर्मस्य बी सुम्,
धर्मेऽहं विदधे मनः प्रतिदिनं हे धर्म मेऽघं हर ।।१३४।। इत्येता हृदि चिन्तयन्त्यनुदिनं मुक्त : सुसख्योप्यनु
प्रेक्षा येऽत्र पलायतेऽघसहितो रागश्च तेभ्यः खलः । तमाशाच्च विज्ञायतेऽति परमो निर्वद एवाधहन
निर्वदात्तप एवं दु:करमतस्तेषां शिवोऽघक्षयात् ॥१३५।।
मालिनी सकलगुणनिधानाः सर्वसिद्धान्तमूला जिनवरमुनिसेव्या रागपापारिहन्त्रीः । शिवगतिसुखखानी: सिद्धयेमुक्तिकामा अनवरतमनुप्रेक्षा भजध्वं प्रयत्नात् ॥१३॥
पार्दूलविक्रीरितम् यो रागादिरिपून विजित्य जिनपो निर्वेदतीक्ष्णासिना
वाल्येऽप्यत्र धकार संनिजवशे वैराग्य राज्यं महत् । हत्वा शर्म नदेव च विभवं त्रैलोक्य राज्याय तं
स्तोष्ये तद्गुणसिद्धये गुणगणविघ्नौघनाशंकरम् ।।१३।। इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथचरित्रेऽनुप्रेशावरणनो नाम पञ्चदशः सर्गः ॥१५॥ धर्म में मम लगाता हूं, हे धर्म ! मेरा पाप नष्ट करो ॥१३४॥ मुक्ति की सखी स्वरूप इन अनुप्रेक्षात्रों का जो प्रतिदिन हृदय में चिन्तन करते हैं उनके समीप से पाप सहित रागरूपी दुर्जन भाग जाता है, राग के नष्ट हो जाने से पाप को नष्ट करने वाला अत्यन्त उत्कृष्ट वैराग्य ही उत्पन्न होता है, वैराग्य से कठिन तप प्राप्त होता है और तप से पापों का भय होकर मोक्ष प्राप्त होता है ॥१३५।। जो समस्त गुरणों को निधान है, समस्त सिद्धान्तों की मूल हैं, जिनेन्द्र देव तथा छड़े बड़े मुनियों के द्वारा सेवनीय हैं, राग और पापरूपो शत्रु को नष्ट करने वाली हैं, और मोक्षगति के सुखों को खान हैं, ऐसो अनुप्रेक्षानों का हे मोक्षाभिलाषी जीवो ! मोक्ष के लिये निरन्तर प्रयत्नपूर्वक चिन्तन करो ॥१३६॥
जिन्होंने वैराग्यरूपी तीक्ष्ण तलवार के द्वारा रागादि शत्रुनों को जीतकर बाल्य अवस्था में भी बहुत बड़े वैराग्यरूपी राज्य को अपने वश कर लिया था तथा मनुष्य और देव पर्याय में होने वाले सुख और वैभव को छोड़कर जो तीन लोक का राज्य प्राप्त करने के लिये समर्थ हुए थे, गुरणसमूह के द्वारा विघ्नसमूह को नष्ट करने वाले उन पार्श्व जिनेन्द्र की, उनके गुणों की प्राप्ति के लिये स्तुति करता हूँ।।१३७।।
इस प्रकार श्रीभट्टारक सकलकोति के द्वारा विरचिन श्री पार्श्वनाथ चरित में मनुप्रेक्षामों का वर्णन करने वाला पन्द्रहवां सर्ग समाप्त हवा ।।१५।।
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-वोडश सर्ग.
[ २.१
षोडशः सर्गः श्रीमन्त त्यक्त रागादिदोषं लोकत्रयाचितम् । वैराग्यादिगुणापन्नं पाश्वनाथं नमाम्यहम् ॥१॥ अथ सारस्वता देवा प्रादित्या वह्नयोऽरुणा: । निर्जरा गर्दतोयाख्यास्तुषिता दिव्यमूर्तयः ।।२।। अध्यावाधा अरिष्टा: स्युरेते लोकान्तिकामराः । अष्टमा त्रिदर्शन्यिा ध्र वमेकावतारिणः ॥३|| 'विश्वपूर्वधराः सौम्या देवीरागादिवजिता: । जिननिःक्रान्तिकल्यारणशंसिनो मुक्तिकाक्षिणः।४। ब्रह्मलोकालयावासा: स्याता देवर्षयोऽमलाः । स्वावविज्ञानयोगेन शानिःक्रमणोत्सवाः ।।५।। पाजग्मुर्योतयन्तः रेवं स्वाङ्गभूषादिदीप्तिभिः । तत्र ते स्वनियोगाय निसर्गब्रह्मचारिणः ।।६।। तदंहिकमलो नत्वा पूर्धाम्यय॑ मनोहरौ । कल्पवृक्षप्रसूनागंर्भक्त्या संयमकारणः ॥७।। घचोऽमलमनोजस्ते तद्गुणग्रामशंसिभिः । भक्त्या प्रारेभिरे स्तोतु जिनवैराग्यवृद्धये ।।८।।
षोडश शर्ग जो अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरङ्ग और प्रष्टप्रातिहार्यरूप बहिरङ्ग लक्ष्मी से सहित हैं, जिनके रागादि दोष छुट गये हैं, जो तीनों लोकों के द्वारा पूजित हैं, तया वैराग्यादि गुरखों से संपन्न हैं उन पारर्वनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥
प्रधानन्तर सारस्वत, प्राधिस्य, बलि, प्ररण, गर्दतोय, दिव्य शरीर के धारक तुषित, प्रधावाध और परिष्ट ये आठ प्रकार के लौकान्तिक देव, जो कि देवों के द्वारा मान्य हैं, नियम से एकभवावतारी हैं, समस्त पूर्यों के पाठी हैं, सौम्य है, देवी सम्बन्धी रागादि से रहित हैं, जिनेन्द्र भगवान के दीक्षा कल्याणक को सूचित करते हैं, मुक्ति के अभिलाषी हैं, ब्रह्मलोक-पञ्चम स्वर्ग के निवासी हैं, देवषि नाम से विख्यात हैं, निर्मल हैं, अपने अवधिजान के द्वारा जिन्होंने दीक्षा कल्याणक के उत्सव को जान लिया है, जो अपने शरीर तथा प्राभूषणादि को बीप्ति से प्राकाश को प्रकाशित कर रहे हैं तथा स्वभाव से ब्रह्मचारी हैं, अपना नियोग पूरा करने के लिये यहाँ प्रा पहुँचे ॥२-६॥ पाते ही साथ उन्होंने भगवान के मनोहर चरण कमलों को नमस्कार किया, संयम के कारणभूत कल्पवृक्ष के पुष्प मावि से भक्तिपूर्वक पूजा को और उसके पश्चात् वे भगवान के गुरणसमूह को सूचित करने वाले मनोहर निर्मल वचनों के द्वारा जिनेन्द्र देव के वैराग्य की वृद्धि के लिये भक्तिपूर्वक स्तुति करने को उद्यत हुए ॥७-८॥ १. चतुदंगपूर्वपराः २. गगनं ।
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२०२ ]
मोहारा जियोद्योगमधुना प्रकम्पतेऽद्य कामारि:
जगत्त्रयमिदं
देव
* श्री पार्श्वनाथ चरित #
संविधित्सुना । भव्याङ्गितां जगन्नाथ बन्धुकृत्यं स्वहितम् ॥६॥ संवेगातिकराङ्कितम् । दृष्ट्वा त्वां हा हतो हीत्युक्त्वा नाथ द्विप्रियायुतः
धर्महस्तावलम्बनंः । श्रज्ञानकूपपातात्त्वं कारुण्यादुद्धरिष्यसि ।।११।। निष्पादितं धर्मपोतमारुह्य दुस्तरम् । उत्तरिष्यन्ति भव्यौषा जिनानन्तभवाम्बुधिम् ।१२ वागंशुभिर्मोहनिद्रास्तचेतनम् । बोधयिष्यसि विश्वं त्वं स्वर्गमोक्षाध्वदर्शिभिः ॥ १३ निमग्नान्प्राणिनस्त्वमुद्धरिष्यसि । कृपया नाथ धर्मोपदेश हस्तावलम्बनः | १४ || त्रातारं शरणार्थिनाम् । हन्तार कर्मशत्रूणां त्वां वदन्ति विचक्षणाः ११५॥ एवं स्वयम्भूः स्वयंबुद्धस्त्रिज्ञानालङ्कतः सुधीः । अस्मान्मुक्तिपथं नाथ बोर्घापितासि निष्तुषम् | १६ | बोध्यस्त्वमस्मदादिभिरेव हि । दीयते कि प्रकाशाय रवेर्दीवी जगद्गुरो ।।१७।। पुष्पैरचंन क्रिमते शठः । तथा संबोधनं तेऽस्माभिनियोगाय केवलम् ।। १८ ।।
ज्ञानमूर्त न "वनस्पतेर्यथा
त्वया
देव
पापप
मोहमल्ल विजेतारं
हे जगन्नाथ ! इस समय मोहरूपी शत्रु को जीतने की इच्छा करते हुए आपने भव्य जीवों के प्रति बन्धु का कार्य करने की चेष्टा की है । हे नाथ ! जिनका हाथ संवेग रूपी खड्ग से सहित है ऐसे प्रापको देखकर श्राज रति और प्रीतिरूपी दो प्रियानों से युक्त कामदेव 'हाय मारा गया' यह कहकर थर थर कांपने लगा है ।।१०।। हे देव ! आप दया भाव से धर्मरूपी हाथ का आलम्बन देकर इस जगत्त्रय को प्रज्ञानरूपी कूप में पतन से उधृत करोगे || ११ || हे जिन | आपके द्वारा निर्मापित धर्मरूपी जहाज पर श्रारूढ होकर भव्य जीवों के समूह कठिनाई से पार करने के योग्य अनन्त संसाररूपी सागर को पार करेंगे ।। १२ ।। हे देव ! मोहरूपी निद्रा से जिसको चेतना नष्ट हो गई है ऐसे विश्व को आप स्वर्ग तथा मोक्ष का मार्ग दिखलाने वाली वचनरूपी किरणों के द्वारा जागृत करेंगे ||१३|| हे नाथ ! प्राप दयाभाव से धर्मोपदेशरूपी हाथ का आलम्बन देकर पापपङ्क में डूबे हुए प्राणियों का उद्धार करेंगे || १४ || विद्वान् लोग श्रापको मोहरूपी महल के विजेता, शरणाथियों के रक्षक तथा कर्मरूपी शत्रुओं का धात करने वाला कहते हैं ।। १५१ । हे नाथ ! प्राप स्वयंभू हैं, स्वयं बुद्ध हैं, तीन ज्ञानों से अलंकृत हैं तथा उत्तम बुद्धि से युक्त हैं अतः हम सबको निर्दोष मुक्ति का मार्ग बतलायेंगे ||१६|| हे ज्ञानमूर्ते ! यह निश्चित है कि प्राप हम लोगों के द्वारा बोध्य नहीं हैं अर्थात् श्रापको संबोधित करने की योग्यता हम लोगों में नहीं है। यह ठीक ही है क्योंकि जगद्गुरो ! सूर्य को प्रकाशित करने के लिये क्या वीपक दिया जाता है ? अर्थात् नहीं दिया जाता ||१७|| जिस प्रकार प्रज्ञानी जमों द्वारा फूलों से वृक्ष का पूजन किया जाता है उसी प्रकार हम लोगों के द्वारा प्रापका संबोधन मात्र
१. द्विप्रिया ययौ ख० द्वित्रिय यो घ० २. जगद्गुरुः ग० जगद्गुरुम् ० ० ३. वनस्पत्या ० ० ब० ।
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•षोडश सर्ग -
[ २०३ प्रयवा बोधिसोऽस्मान् संबोधयस्यखिलं हितम् । त्वं नाथात्र यथा दीपस्तमोनाश्वार्थदर्शक: ।१६) कुर्वन्ति रहितं निशास्त्र धीजिनाधिप । स्वान्ययोः स्वहितं की भविष्यस्ययदर्शनात् ।२०।। केवलज्ञान मेघस्त्वं भूत्वा दिव्यवचोऽम्बुभिः । सतां मोक्षफलप्राप्त्य धर्मवृष्टि करिष्यसि ।।२१॥ भवनिर्देशितं मार्ग केचिदासाद्य धोधनाः । देव हत्वा स्वकर्मारीन् वृत्ताधास्यन्ति निई तिम्।२२५ तव धर्मोपदेशेन केचियादाय संयमम् । गमिष्यन्ति जिनाषीश सर्वार्थसिद्धिमत्र हि ॥२३॥ स्वया निगदितं तीर्थं प्राप्य केचिद्विवलोक जम् । भुक्त्वा शर्म भविष्यन्ति मुक्तिनाथाः क्रमावधाः ।। केवलेन भवन्तं नाथासाद्य केचिदप्यहो । प्रज्ञानध्वान्तमाहत्य भविष्यन्ति भवत्समाः ।।२५१ भवत्सूर्योदयं प्राप्य मोहनिद्रा प्रहत्य वै । प्रभो चिच्चक्षुषा केचिल्लोकयिष्यन्ति सच्छिवम् ।। भवत्संबोधनाद्विश्वसुकल्याणपरम्पराम् । संलप्स्यन्ते बुधाः स्वामिन् दुःखं हत्वा जगत्त्रये ।। धन्या भयाशा दूलभतरास्तेऽत्र हे प्रभो। हत्वा बाल्येऽपि कामारीन ये गृह्णन्ति तपोऽना दुस्सहान् कोमलाङ्गेऽपि ये सहन्ते परोषहान् । धन्यास्त एव लोकेऽस्मिन्महान्तो धैर्यशालिनः।२६। नियोग के लिये है अावश्यकता की पूति के लिये नहीं ॥१८॥ अथवा हे नाथ ! हम लोगों के द्वारा बोधित हुए आप हम लोगों को समस्त हित का बोध करायेंगे जिस प्रकार हम लोगों के द्वारा जलाया हुआ दीएक हम लोगों के अन्धकार को नष्ट करता है और घटपटादि पदार्थों को दिखाता है ॥१६॥ हे जिनेन्द्र ! कितने चतुर लोग अपना हित करते हैं परन्तु पाप पुण्य का मार्ग दिखला कर निज और पर दोनों के हित कर्ता होंगे ॥२०॥ श्राप केवलज्ञानरूपो मेघ होकर दिध्यवचनरूपी जल के द्वारा सत्पुरुषों को मोक्षरूप फल की प्राप्ति के लिये धर्मरूप वृष्टि करेंगे ॥२१॥ हे देव ! आपके द्वारा दिखलाये हुए मार्ग को प्राप्त कर कितने ही बुद्धिमान चारित्र से अपने कमरूपी शत्रुओं को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त होंगे ॥२२॥ हे जिनेन्द्र ! आपके उपदेश से संयम ग्रहण कर कितने हो लोग सर्वार्थ सिद्धि जाओंगे ॥२३।। आपके द्वारा कहे हुए तीर्थ को प्राप्त कर कितने ही विद्वज्जन दोनों लोकों का सुख भोग कर क्रम से मुक्ति के स्वामी होंगे ॥२४॥ अहो नाथ ! कितने ही लोग प्रापको प्राप्त कर केवलज्ञान के द्वारा प्रज्ञान तिमिर को नष्ट कर आपके समान होंगे ॥२५॥ हे प्रभो ! कितने ही लोग पाप जैसे सूर्य का उदय प्राप्तकर तथा निश्चय से मोहरूपी निद्रा को नष्ट कर ज्ञानरूपी चक्षु के द्वारा समीचीन मोक्ष को देखेंगे ॥२६॥ हे स्वामिन् ! अापके सम्बोधन से विद्वज्जन तीनों लोकों में दुःख को नष्ट कर समस्त कल्याणों की परम्परा को प्राप्त करेंगे ॥२७॥ हे प्रभो ! इस जगत् में प्राप जैसे धन्यभाग मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ हैं जो बाल्यावस्था में भी कामशत्रु को नष्ट कर निर्दोष तप ग्रहण करते हैं ॥२८॥ जो कोमल शरीर में भी कठिन परिषहों को सहते हैं वे ही इस लोक में धन्य हैं, महान हैं १ पुण्यदर्शनान् ।
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* श्री पार्श्वनाथ चरित - तस्वया विहितं भद्रं स्वल्पायुष्केऽपि यत्कृतम् । वैराग्याधिष्ठितं चेतो दीक्षाय त्रिजगद्गुरो'॥३०॥ मतः शीघ्र कुरूद्योगं स्वान्ययोहितकारणम् । संयमाप्त्यै जगद्भूतॊ हत्या मोहादिविद्विषः॥३१॥ संयमग्रहणे स्वामिनेष कालः समागतः । कर्मारातीन् विजेतु स्रष्टु धर्मतीर्थमेव च ।।३२।। अतो जयेश देव त्वं कर्मारीश्च तपोऽसिना। मोहमल्लं स्मराराति वराग्यास्त्रेण खानि च ३३|| परीषहभटान्नाथ त्वं घातय तपोऽसिना । केवलज्ञानमासाद्य स्वाधीनं कुरु सच्छिनम् ।।४।। उत्तिष्ठतां भवाम्मुक्ती कुमार धर्मवर्तने । स्त्रीभोगादीन भुक्त्वापि ह्यतृप्तिजनकान् द्रुतम्॥३५।। सर्ववस्तुषु संवेगसंप्राप्ताय नमोऽस्तु से ! नि:स्पृहाय स्वराज्यादौ सस्पृहाय 'शिवे जिन । ३६ ।। मुमुक्षवे नमस्तुभ्यं नमः कामारिनाशिने । श्रीक्षोद्यताय ते प्रभो त्यक्तरागाय ते नमः ।।३७।। नमस्ते दिव्यरूपाय सदालब्रह्मचारिणे । मोहनाय नमस्तुभ्यं त्रिजगरस्वामिने नमः ।।३८ ।। देवतत्स्तवने नात्र प्रार्थयामो अगच्छि,यम् । न हि त्वां किन्तु नो देहि " बाल्ये वृत्त भवे भवे ३६ / और धर्यशाली हैं ॥२६॥ हे तीन जगत् के गुरु ! आपने यह बहुत भला किया जो अल्पायु में भी घेराग्य से युक्त अपना मित्त धोक्षा के लिये उद्यत किया ॥३०॥ इसलिये हे जगत्पते ! मोहादि शत्रुओं को नष्ट कर संयम की प्राप्ति के लिये स्वपरहितकारक उद्योग शीघ्र ही कीजिये ॥३१॥ हे स्वामिन् ! यह समय संयम के ग्रहण करने, कर्मशत्रुओं को जीतने और धर्मतीर्थ की सृष्टि करने के लिये प्राया है ।।३२।। इसलिये हे ईश ! हे देव ! तुम तपरूपी तलवार के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं को जीतो और वैराग्यरूपी शस्त्र के द्वारा मोहरूपी मल्ल, कामरूपी शत्रु तथा इन्द्रियों को परास्त करो ॥३३॥ हे नाथ ! तुम तपरूपी खडग के द्वारा परिषहरूपी योद्धामों का घात करो और केवलज्ञान प्राप्त कर उत्तम मोक्ष को अपने अधीन करो ॥३४॥ हे कुमार ! जो भोगकर भी प्रवृत्ति को उत्पन्न करने वाले हैं ऐसे स्त्रीभोग प्रावि को शीघ्र ही छोड़ कर प्राप धर्म के प्रवर्ताने और मुक्ति प्राप्त करने के लिये उद्यमयुक्त होमो ॥३॥ है जिन ! जो सब वस्तुओं में संवेग को प्राप्त हैं, अपने राज्य मादि में निःस्पृह हैं तथा मोक्ष में स्पृहा-इच्छा से सहित हैं ऐसे आपके लिये नमस्कार हो ॥३६॥ हे प्रभो ! आप मुमुक्षु हैं अतः पापको नमस्कार है। प्राप कामशत्रु को नष्ट करने वाले हैं प्रतः प्रापको नमस्कार है । प्राप दीक्षा के लिये उद्यत हैं इसलिये आपको नमस्कार है । आप वीतराग हैं अतः पापको नमस्कार है ॥३७॥ प्राप दिव्य रूप के धारक होकर भी उत्तम बाल ब्रह्मचारी हैं अतः पापको नमस्कार है । पाप मोह को नष्ट करने वाले हैं प्रतः प्रापको नमस्कार है। प्राप तीन जगत के स्वामी हैं प्रतः प्रापको नमस्कार है ।।३६॥ हे देव ! इस स्तवन के द्वारा हम प्रापसे यहां जगत् को लक्ष्मी नहीं चाहते हैं १ त्रिजगद्गुरोः स ० ५० २ जगद्भर्ता ग० ३. इन्द्रियाणि ४. विशेषतः ख० घ० १. कल्ये वृत्त स्व० ।
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* षोडश सर्ग .
[ २०५ इति स्तुत्वा जिनाधोशं संप्रायं स्वेष्टवस्तु च । स्वं नियोग विधायोच्चनस्वा तपादपङ्कजम् ।४।। महुमूर्ना व्युपााप्तिपुण्यं स्तवन पूजया । शुद्धाशयाः सुरास्तेऽतः कृतकार्या दिवं ययुः ।।४।। तेषां वचोऽसवः प्रागुजिनस्य सहकारिताम्' । मोहध्वान्त विनाशे च यथा दीप: सचक्षुषाम् ॥४२॥ सतोऽवबुध्य घण्टादिनादेनावधिमा तदा । तन्निःक्रमणकल्याणं सामरा: कम्पिसासनाः ।।३। घोतयन्तो दिशः खं च स्वाङ्गने पथ्यरश्मिभिः । अनेकविक्रियोपेतदिव्यस्त्रीवृन्दवेष्टिताः ॥४। चतुरिणकायजा: सर्वो स्वस्वभृत्युगलक्षिताः । अाजग्मुनिजधर्माय तवेन्द्रा हर्षिताननाः ।।४।। नभोऽङ्गण मथारुध्य वनं च परितः पुरीम् । वीथी तस्थुः सुरानीकाः सकलत्राः सवाहनाः ।४६ अप्सरोभिश्च गीर्वाणीत नृत्यमहोत्सवैः 1 तदा बभी पुरी सातिरम्या स्वनं गरी यथा ।।४।। ततोऽस्य परिनिष्क्रान्ति महाकल्याणसिद्धये 1 महाभिषेकमाचक्रुर्देवेन्द्राः सामरा मुदा ॥४८॥ किन्तु हम लोगों को भव भव में बाल्यावस्था में चारित्र प्रदान करो ॥३६॥ इस प्रकार जिनेन्द्र की स्तुति कर, अपनी इष्ट वस्तु को प्रार्थना कर, अपना नियोग पूरा कर, उनके चरण कमलों में मस्तक से बार बार नमस्कार कर तथा स्तवन रूप पूजा से प्रत्यधिक पुण्य उपार्जन कर, शुद्ध अभिप्राय से सहित वे देव कृतकृत्य होते हुए यहां से स्वर्ग चले गये ।।४०-४१॥
जिस प्रकार दीपक चक्षु सहित मनुष्यों का अधिकार नष्ट करने में सहकारिता को प्राप्त होता है उसी प्रकार उन लोकान्तिक देवों के बचनरूपी किरणें जिनराज के मोहरूपी तिमिर के नष्ट करने में सहकारिता को प्राप्त हुई थीं ।।४२॥
तदनन्तर जो देवों से सहित हैं जिनके पासन कम्पित हुए हैं, जो अपने शरीर और प्राभूषणों को कान्ति से विशाओं तथा प्राकाश को वेदीप्यमान कर रहे हैं, जो अनेक विकियात्रों से सहित देवाङ्गमाओं के समूह से वेष्टित हैं, अपनी अपनी विभूति से साहित हैं, तथा जिनके मुख हर्षित हो रहे हैं ऐसे चतुर्रिणकाय के इन्द्र घण्टा प्रावि के शब्द तमा अवधिज्ञान के द्वारा उस समय भगवान का निःक्रमण कल्याणक-दीक्षाकल्याणक जानकर अपने धर्म के लिये-अपना कर्तव्य पूर्ण करने के लिये आ पहुँचे ॥४३-४५॥ तदनन्तर स्त्रियों और वाहनों से सहित वेघ सेनाए गगनाङ्गण, वन, नगरी और गलियों को चारों पोर से घेरकर खड़ी हो गई ॥४६।। उस समय अप्सरानों, देवों, और गीत नृत्य के महोत्सवों से अत्यन्त रमणीयता को प्राप्त हुई यह नगरी स्वर्गपुरी के समान सुशोभित हो रही पी ॥४७॥
तवनन्तर देवों से सहित इन्द्रों ने तपः कल्याणक की सिद्धि के लिये हर्षपूर्वक भग
१. सहक रिणीम् ग०२. कल्वारगममरा ग.३. दीक्षाकल्याण-1
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*श्री पार्श्वनाथ चरित है क्षीराणवाम्बुसंपूर्ण मुक्तादामादिभूषितः । हेमकुम्भमहाभूत्या ह्यारोप्य हरिविष्टरे ॥४६।। पुननिभूषयामासुनिसर्गसुन्दरं जिनम् । ते वा मुक्तेवर दिव्यपालाभूषाम्बरादिभिः ।५७।। ततः संबोध्य वैराग्यवयोभिः पितृबान्ध्यवान् । मातरं चातिकष्टेन विसृज्य जिनपुङ्गवः ।।५१।। शाकहस्तं समालम्ब्य' शिविका विमलाभिधाम् । देवोत्पन्नां प्रतिज्ञां वा दीक्षायामारोह सः ।।१२।। चन्दनालिप्तदीप्ताङ्गः स्रग्वी भूषाचलङ्क,तः । स रेजे शिविकारूढः मदरो वा तपःश्रियः ।। ५३।। पादौ सरावान्यूहमा तां शिधिका नृपा । तता मिन्युः स्वगाधीशा ब्योम्नि सप्तपदान्तरम् ५४ सत: सुरासुराः स्वस्पस्कन्धेष्वारोप्य भक्तितः । तामुत्पेतुर्न भो भूत्या सानन्दा ह्यविलम्बितम् ।५५। महो पर्याप्तमत्रास्य विभोर्माहात्म्यशंसनम् । कल्पनाथास्तदा यभूवुयुग्मकवाहिनः ।।१६।। पुष्पवर्षं तदा चकुः कुसुमैः कल्पशाखिजैः । देवा व बी मरुद्गङ्गा शीकराहारशीतलः ।। ५७।। प्रस्थानमङ्गलान्युच्चेदर्दीक्षोत्साहक रायपि । दिव्येन वचसा ग्रेऽस्य प्रपेडुः सुरवन्दिनः ।।५८। वान का महाभिषेक क्रिया ॥४८॥ इन्द्रों ने वह अभिषेक, भगवान् को बड़े वैभव से सिंहासन पर बैठा कर क्षीर सागर के जल से परिपूर्ण तथा मोतियों की माला प्रावि से सुशोभित सुवर्ण कलशों के द्वारा किया था ।।४६।। अभिषेक के पश्चात् इन्द्रों ने स्वभाव से सुन्दर जिनराज को दिव्य मालाएं प्राभूषण और वस्त्र प्रादि से मुक्ति के दुलह के समान विभूपित किया ।।१०।। तदनन्तर जिनेन्द्र पार्श्वनाथ ने पैराग्यपूर्ण वचनों के द्वारा पिता को, भाई-बान्धवों को और माता को बड़े कष्ट से समझा कर उन्हें विदा किया पश्चात् इन्द्र का हाथ पकड़ कर वे दीक्षा की प्रतिमा के समान देव निमित विमला नाम की पालकी पर प्रारूढ हुए ॥५१-५२।। जिनका देदीप्यमान शरीर चन्दन से लिप्त था, जो मालानों से सहित थे तथा आभूषण प्रादि से अलंकृत थे ऐसे पालकी पर बैठे हुए पार्श्वकुमार तपोलक्ष्मी के वर के समान सुशोभित हो रहे थे ॥५३।। सब से पहले मनुष्यों ने बड़े हर्ष से सात कदम तक उस पालिकी को धारण किया, फिर सात डग विद्याधर राजा उसे प्राकाश में ले गये और उसके बाद मानन्द से भरे हुए सुर प्रसुर उसे भक्ति से अपने अपने कन्धों पर रखकर शीघ्र ही वैभव के साथ आकाश में जा उड़े ॥५४-५५।। अहो ! इन विभु का माहात्म्य वर्णन इतना ही पर्याप्त है कि उस समय स्वर्ग के इन्द्र उनको पालकी के वाहक हुए थे ॥५६।। उस समय देव कल्पवृक्षों से उत्पन्न फूलों के द्वारा पुष्पवर्षा कर रहे थे और गङ्गा के छींटों को बाहरण करने से शीतल वायु बह रही थी ।।१७।। दीक्षा के उत्साह को करने वाले प्रस्थान-कालिक मङ्गलाचार भी अच्छी मात्रा में हो रहे थे और भगवान के प्रागे आगे देवों के चारण विव्य वचनों द्वारा विरुदावली का पाठ कर रहे थे ॥५॥
१. चतुरन्तयानम् ।
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* षोडश सर्ग
[ २०७
तदा प्रयाणभेर्योऽत्र शश्वदास्फालिताः सुरैः । गीर्वाणकरसंस्पर्शाध्वनुश्चामरानकाः ॥५६॥ मोहारालिजयोद्योगसमयोऽयं जगत्पतेः । इत्युच्चै?षयामासुर्देवाः शक्राज्ञया तदा ।।६।। जयकोलाहलं कुटुंह ष्टा देवाः खगा मुदा । भतु रग्रे खमारुध्य वधिरीकृतदिग्मुखम् ।।६१।। तदा मङ्गलगीताजयनन्दादिघोषणः । सुरानकमहाध्यानयंभूद्रुद्ध नभोऽङ्गणम् ।।६२॥ नभोरङ्ग नटन्तीषु नाकस्त्रीषु सविभ्रमम् । विचित्रः करणं रम्यैपछत्रबन्धादिलाधवैः ।। ६३।। गायन्तीषु सुकण्ठीषु किन्नरीषु फलस्वनम् । गीतोषं स्वगुणब्धं विभोनिष्क्रमरणोत्सवे' १६४।। मङ्गलानि जिनाधीशगुणहब्धानि सुस्वरैः । मुदा कालोचितान्युच्चः पठत्सु सुरवन्दिषु ।।६।। देवेषूद्भ तहर्ष
नानाकेतनहारिषु । इतोऽमुतः प्रधावत्सु ससंहर्ष नभस्तले ।।६६।। अग्रेसरीषु लक्ष्मीषु पङ्कजापितपाणिषु । साधं समङ्गलार्धाभिदिक्कुमाराभिरादरात् ।।६७।। ध्वनन्तीषु दिशो व्याप्य देवेन्द्रानककोटिषु । इत्यमीषु विशेषेषु प्रभवत्सु महोत्सवम् ।।६।। परार्द्ध घमणिनिर्माणं दिव्ययानधिष्ठितः । वीज्यमानोऽमराधी मनोज्ञः सुप्रकीरणक: ।।६।। उस समय देवों के द्वारा निरन्तर ताडित प्रयाग-मेरियां और देवों के परह, देवों के हाथ का स्पर्श पाकर जोरदार शब्द कर रहे थे ।।१६।। उस समय इन्द्र की प्राज्ञा से देव उच्च स्वर से ऐसी घोषणा कर रहे थे कि यह जगत्पति का मोहरूपी शत्रु को जीतने के उद्योग का समय है ॥६०॥हर्ष से भरे हुए देव और विद्याधर स्वामी के प्रागे आकाश को घेर कर दिशात्रों के अग्रभाग को बहरा बना देने वाले जय जयकार का कोलाहल हर्ष से कर रहे थे ॥६१॥ उस समय मङ्गलगीत प्रादि से, जय नन्द प्रावि की घोषणाओं से और देव दुन्दुभियों के महान शब्दों से प्राकाशाङ्गण व्याप्त हो गया था ॥६२॥
जब आकाशरूपी रङ्गभूमि में देवाननाएं हावभावों के साथ नाना प्रकार के रमणीय करणों और छत्र बन्ध आदि को शीघ्रता से नृत्य कर रही थीं । जब उत्तम कण्ठों वाली किन्नरियां दीक्षा कल्याणक के उत्सव में अपने गुणों से युक्त भगवान के गीतसमूह को मधुर स्वर से गा रही थीं। जब देवों के बन्दीजन जिनदेव के गुणों से युक्त तत्काल के योग्य मङ्गल पाठों के हर्ष पूर्वक अच्छे स्वरों द्वारा उच्चस्थर से पढ़ रहे थे। जब प्रकट हुए हर्ष से युक्त, नानाप्रकार की पताकानों को लिये हुए देव हर्षसहित प्राकाश में इधर से उधर दौड़ रहे थे। जब हाथों में कमल लिये हई लक्ष्मी नामक देधिया मङ्गल द्रव्यों से युक्त दिपकुमारियों के साथ आदर पूर्वक प्रागे आगे चल रही थीं । जब देवों के करोड़ों बाजे दिशात्रों को व्याप्त कर शब्द कर रहे थे। और जब ये सब विशेष कार्य महोत्सव को प्रभावपूर्ण बना रहे थे ॥६३-१८॥ अब श्रेष्ठ मरिणयों से निर्मित दिव्य
१. निष्कमणोत्सवै ख. ध ।
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२०८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
इन्दुना । हारपखरका बीदामादिभूषण राशिभिः ॥ ७० ॥ | कुर्वन्दु सा परां प्रीति सौभाग्येन च संपदा ॥ ७१ ॥ वृतः । जिन पुर्या विनिःक्रामन् परैरित्यभिनन्दितः ॥७२॥ शत्रूणां नन्द वद्धं स्व मव कल्याणभाजनः २०७३।। इदम् । यतोऽयं तपसे याति कौमारश्वेऽपि सङ्घनम् ॥७४॥ यतोऽप्ययम् । बाल्येऽपि मदनाराति दुर्जयं स्वेन्द्रियैः समम् ।। ७५ ।। नरोत्तमाः । केचिन्मोहारिमाहन्तु शक्ता ये कर्म तस्करान् ॥७६॥ केचित् 'तत्स्तवनं चक्रुरित्यत्रायं जगद्गुरुः । धन्यो जगत्त्रयीनायो बाल्ये त्यक्तु महान् क्षमः ७७ शक्रखगमत्यधिपार्पिताः । जगद्विजयिनं कामं हन्तु चाक्षादितस्करात् ७८ ।। भवतु घोरतरं तपः । कतु" परीषहारातीन् जेतु' शक्तस्तपोऽसिना ॥७६
शिरःस्य सित सेव्यमान faraiशु विभूषितश्चन्दनादिभिः इत्यादिकृतमाहात्म्यो देवेन्द्र परितो ब्रज सिद्धयं विभो तेऽस्तु शिवः पन्था द्रुतं जय केचिद्विचक्षणाः पौरा प्राहुश्चित्रमहो प्रहरन्ये महाश्चर्यमिदं हन्ति पुराहो उत्पद्यन्ते
ईग्विधाः श्रियः एकाकी कर्मसैन्यं च
पालकी पर जो प्रारूढ़ थे, इन्द्र जिन पर मनोहर चामर ढोर रहे थे, जिनके शिर पर चन्द्रमा के समान धवल छत्र लग रहा था, जो हार, शेखर तथा मेखला दाम प्रादि प्राभूचरणों के समूहों, सब प्रकार की दिव्य मालाओं और वस्त्रों तथा चन्दन प्रावि से विभूषित थे, जो सौभाग्य और सम्पत्ति के द्वारा मनुष्यों को उत्कृष्ट प्रोति उत्पन्न कर रहे थे, इत्यादि कार्यों से जिनकी महिमा बढ़ रही थी, और जो देवों द्वारा सब प्रोर से घिरे हुए थे ऐसे जिनेन्द्रदेव नगर से बाहर निकल रहे थे। उस समय नागरिक लोग उनका इस प्रकार अभिनन्दन कर रहे थे कि हे येथ ! सिद्धि के लिये जाश्रो, प्रापका मार्ग कल्याणरूप हो, श्राप शीघ्र ही शत्रुओं को जीतो, समृद्धिमान् होमो और कल्याण के पात्र बनो ।।६६-७३ ।।
कितने ही बुद्धिमान नगरनिवासी जन कह रहे थे- अहो ! यह आश्चर्य है कि ये भगवान् कुमार अवस्था में भी तप के लिये वन को जा रहे हैं ।।७४ | | अन्य लोग कह रहे ये कि यह महान आश्चर्य है जिस कारण यह प्रभु बाल्य अवस्था में भी अपनी इन्द्रियों के साथ दुःख से जीसने योग्य कामरूप शत्रु को नष्ट कर रहे हैं ।। ७५ ।। कोई यह कह रहे थे कि अहो ! इस संसार में कोई ऐसे भी उत्तम मनुष्य उत्पन्न होते हैं जो मोहरूपी शत्रु और कर्मरूपी चौरों को नष्ट करने में समर्थ हैं ।। ७६ ।। कोई इस प्रकार उनका स्तवन कर रहे थे कि इस जगत् में यह जगद्गुरु त्रिलोकीनाथ धन्य हैं जो बाल्यावस्था में हो इन्द्र विद्याधर तथा च के द्वारा समर्पित इस प्रकार को लक्ष्मियों को छोड़ने में अत्यन्त समर्थ हैं । जगद्विजयी काम और इन्द्रिय आदि चौरों को नष्ट करने, कर्मों की सेना को अकेले ही भग्न करने, अत्यन्त कठिन तप करने और तपरूपी तलवार के द्वारा परीषहरूपी शत्रुश्र १. नरमेयन ग० २. जगद्विजयन व ०ग०० ३. भोष० ।
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* षोडश सर्ग #
[ २०६ केचिद् दो: कुड्मलीकृत्य नेमुस्तं तीर्थेनायकम् । साश्चर्य हृदयाः केचित्पश्यन्ति स्म निरन्तरम् |८०| इत्यादिस्तदेवः श्लाध्यमानः पुरीजनैः । वन्द्यमानो मुहुर्मू न पुरोपान्तं व्यतोयिवान् ॥८१॥ श्रथ संप्रस्थिते पुत्रे जिनाम्बा तच्छुखा हता । बन्धुभिश्च वृतामात्यैः स्वसूनुमनुनिर्ययौ ॥ ८२ ॥ कियांग महादायदाघवल्लीविभास | । गतशोभा विशोकार्ता रोदनं सेति संव्यधात् ॥ ८३ ॥ हा पुत्र कोमलाङ्गस्त्वं बालो घोरपरीषहान् । वर्षातापतुषारादीन् कथं ससि भीतिदाम् ||८४ अरण्ये निर्जने भीमे श्मशाने वा भयङ्करे । कथं वससि चकाकी व्याघ्रादिपचुरे सुत ||६|| कथं जयसि हारीन्मदुदरस्थ खदुर्जेयान् । उपसर्गाग्निसंपातान् कषायमदनादि च ॥ १८६॥ FE गतोऽस्यधुना वत्स मां विहाय श्रिया समम् । वत्र पश्यामि पुनस्त्वां सुमुक्ति श्री रञ्जिताशयम् ८७ हाँ नन्दन क्षणं सोढुं त्वद्वियोगं क्षमा न हि । यावज्जीवं विनातस्त्वां कथं प्राणान्धराम्यहम् । प्रलपमाना सा व्रजन्तो जितमातृका । प्रस्खलत्पदविन्यापै बन्धुभिः सह शोकिभिः ।। ८६ ।।
इति
को जीतने के लिये समर्थ हैं ।।७७-७६ ।। कोई हाथ जोड़कर उन तीर्थंकर को नमस्कार कर रहे थे और कोई श्राश्चर्यपूर्ण हृदय होकर उनकी प्रोर निरन्तर देख रहे थे ||८०|| नगर निवासी लोग इत्यादि स्तवनों से जिनकी प्रशंसा कर रहे हैं और मस्तक झुका कर जिन्हें बार बार नमस्कार कर रहे हैं ऐसे पाश्यं जिनेन्द्र ने नगर के समीपवर्ती प्रदेश को व्यतीत किया ||१||
पुत्र
प्रथानन्तर पुत्र के प्रस्थान कर चुकने पर उसके शोक से पीडित और बन्धुजनों तथा मन्त्रियों से घिरी हुई जिनमाता अपने पुत्र के पीछे-पीछे जा रही थी ||६२|| जो वास्तव के योगरूपी महादावानल से जली हुई लता के समान थी, जिसकी शोभा नष्ट हो गयी थी और जो शोक से दुखी थी ऐसी वह माता इस प्रकार रोदन कर रही थी ||३|| हाय पुत्र ! तुम कोमल शरीर के धारक बालक हो, अतः वर्षा, घाम तथा तुषार आदि के भयदायक घोर परिषहों को कैसे सहन करोगे ? ॥६४॥ हाय पुत्र ! तुम व्याघ्रादि से परिपूर्ण, भयदायक निर्जन वन अथवा भयंकर श्मशान में प्रकेले कैसे निवास करोगे ? ॥८५॥ हाय मेरे पुत्र ! तुम इन्द्रियरूपी दुर्जेय शत्रुओं को, उपसर्ग, अग्नि, तथा घोर वृष्टि को और कषाय एवं काम को कैसे जीतोगे ? ||८६ ॥ वत्स ! लक्ष्मी के साथ २ मुझे छोड़कर इस समय कहाँ चला गया है ? मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने जिसके वित्त को अनुरक्त कर लिया है ऐसे तुझे फिर कहां देखूं ? ॥८७॥ हाय पुत्र ! मैं तेरा वियोग क्षणभर भी सहन करने के लिये समर्थ नहीं है फिर जीवन पर्यन्त तेरे बिना कैसे प्रारूप धारण करूंगी? ।। ८८ ।। इस प्रकार प्रलाप करती हुई वह जिनमाता शोकयुक्त बन्धुजनों के साथ गिरते १. व्यतीपवान् स्व० ०० २. पुत्रवियोग
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२१. ]
* श्री पानाप चरित . मनोहरगिरागरम प्रोक्तेति तन्महत्तरैः । हे मातः किन जानाति वृत्तमस्य जगत्पतेः ।।६०॥ अयं ज्ञानत्रयीनाथः पुत्रस्ते धीमतो गुरु । 'पूर्व स्वमुद्धरित्वानु सद्भठ्यानुरिष्यति ।।१।। प्रकाश्म मुक्तिपन्यानं केवलज्ञानरश्मिभिः । हत्वा कर्मारिसन्तानं मोक्षं यास्यति निश्चितम् ।।२ पाशवदो यथा सिंहो नै तिष्ठति कदाचन । तथा पुरुषांसहस्से मोहपाशावृत: सुप्तः 163|| प्रयं त्रिवगतीभर्ता विश्वं पातु भमो महान् । हन्तुकर्माक्षसन्यं च कथं गेहे च तिष्ठति ॥li प्रतो देवि न कर्तव्यः शोको दुःकर्मकारणः । न किञ्चिच्छाश्वतं लोके मरवेति धर्मनाशकृत।।५। पतो मूर्मा हिशोबन्ति स्वजनं कर्मभोगिनम् । नात्मानं यमदंष्ट्रान्तःस्पिस बुद्धिविपर्ययात् ।।६६॥ पाठा इष्टवियोगेन घोकं कुर्वन्त्यधार्णवम् । बुधाः संगतो धर्म तपश्चानिष्टघातकम् ।।१७।। विजायेति दुतं देवि शोकं हत्वाधुनाशुभम् । कुरु धर्म गृहं गत्वा शुभध्यानेन सिद्धये ।।१८। इत्यादितपश्चन्द्रांशुभिः शोकतमोऽन्तरे। हत्या देवो ययौ गेहं धृत्वा धर्मे मनो निजम् ।।६।।
पड़ते परों से जा रही थी ॥६॥ उसी समय घर के वृद्धजनों ने आकर मनोहर वाणी द्वारा उससे कहा--हे मातः ! क्या तुम इन जगत्पति का वृतान्त नहीं जानती ? ॥६॥ तुम्हारा यह पुत्र तीन शाम का स्वामी तथा बुद्धिमानों का गुरु है । यह पहले अपना उद्धार कर पश्चात भव्यजीवों का उद्धार करेगा ॥४१॥ यह केवल ज्ञानरूप किरणों के द्वारा मोक्षमार्ग को प्रकाशित कर तथा कर्मरूप शत्रुनों की सन्तति को नष्ट कर नियम से मोक्ष मार्ग को प्राप्त होगा ।।२। जिस प्रकार पाराबद्ध सिंह कभी नहीं ठहरता उसी प्रकार तुम्हारा पुत्र यह श्रेष्ठ पुरुष मोहपाश से प्रावृत होकर कभी नहीं ठहर सकता ।।१३।। यह त्रिलोकीनाथ समस्त संसार की रक्षा करने तथा कर्म और इन्द्रियरूपो सेना को नष्ट करने में समर्थ है अतः घर में कैसे रह सकते हैं ? ॥१४॥ इसलिये हे देवि ! लोक में कुछ भी शाश्वत स्थायी नहीं है ऐसा मानकर दुष्कर्मों का कारण तथा धर्म का नाश करने वाला शोक नहीं करना चाहिये ॥६५॥ क्योंकि मूर्खजन कर्मका फल भोगने वाले प्रात्मीयजन के प्रति शोक करते हैं किन्तु बुद्धि की विपरीतता से पमराज की दाढ़ों के बीच स्थित अपने अापके प्रति शोक नहीं करते ॥६६॥ मूर्खजन इष्टवियोग से पाप का सागरस्वरूप शोक करते हैं और ज्ञानीजन संवेग से अनिष्ट को नष्ट करने वाला धर्म तथा तप करते हैं ।१७। ऐसा जान कर हे देवि ! इस समय अशुभ शोक को शीघ्र ही नष्ट करो और घर जाकर सिद्धि के लिये शुभध्यान से धर्म करो ॥८॥ वृद्धजनों के इन वचनरूपी चन्द्रमा की किरणों से हृदय में विद्यमान शोकरूपी अन्धकार को नष्ट कर तथा धर्म में अपना मन लगाकर जिनमाता घर चली गयी ।MEn १. [पूर्वमारमान मुद्धृत्य ] इति पाठः सुष्ठ भाति ।
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* घोडश सर्ग *
[ २११
नातिदूरे खमुत्पश्य
लोकार्ना
तस्मिन्प्रदेशेऽतिरम्ये
॥१०३॥
नेत्रगोचरम् । नातिदूरे नगर्यास्तस्या नातिनिकटे चिरात् । १०० ।। . ययोक्तं मंङ्गलारम्भेर्मोक्ष लक्ष्मीसमुत्सुकः | कुमारोऽमवदनं प्रायात्मनोशं सुरवेष्टितः ।। १०१ ॥ रम्यशिलासले | चन्द्रकान्तमये 'वृस' देवः प्रागुपकल्पिते ।। १०२ ।। पुष्पवृष्टिसमाकी तदच्छायातिशीतले । शची स्वकरविन्यस्तमशिवरापहारके पर्यन्तमङ्गलद्रव्ये केतुमालावृताम्बरे । धूपवासितदिग्भागे चिमण्डप ॥ १०४ ॥ इत्यादिबहुशोभाद्धं वास्तुप्रतिष्ठितं । यानादवातर वोऽमरैः कमावतारितात् ।। १०५॥ प्रशान्तेऽथ जनक्षोभे गीतवाद्यादिस्वने । सर्वत्र समतां सम्यग्भावयम् शुभभावनाम् ।। १०६ ।। तत्रासीनोऽरिमिश्रादी हेम दिवस्तुषु । क्षेत्रादिदशधा वाह्मपरिग्रहांश्चतुवंश ।।१०७॥ मिथ्यात्वाद्यन्तरङ्गांश्च त्रिशुद्धया परिहाप्य सः । वस्त्राभरणमाल्यानि व्युत्सृजेन्मोहहानये ||१०८ ॥ धनूत्तरमुखो भूत्वा कृत्वा सिद्धनमः क्रियाम् । समादायाष्टमाहारत्यागं सोऽश्यन्तनिःस्पृहः ॥ १०६ ॥
शस्ते
तदनन्तर मोक्षरूपी लक्ष्मी में उत्कण्ठित और देवों से परिवृत पार्श्वकुमार, जहां तक लोग देख सकते थे वहां तक कुछ दूर आकाश में चलकर उस नगरी के न अधिक दूर और न अधिक समीप मनोहर अश्ववन में बहुत विलम्ब से पहुंचे ।। १०० - १०१ ॥ | वहां feit एक अत्यन्त सुन्दर प्रवेश में देवों द्वारा पृथ्वी पर उतारी हुई पालकी से निकलकर भगवान् पार्श्व वेब, जो चन्द्रकान्तमरिण से निर्मित था, गोल था, देवों के द्वारा पहले से ही निश्चित था, फूलों की वर्षा से व्याप्त था, वृक्षों को छाया से अत्यन्त शीतल था, इन्द्राणी ने अपने हाथ से जिस पर मणियों के चूर्ण द्वारा बलि रचना की थी, जिसके पास मङ्गल द्रव्य रखे हुए थे, जिसने पताकाओं के समूह से भ्राकाश को व्याप्त कर रक्खा था, जिसको दिशाओं का भाग ध्रुप से सुवासित होरहा था, जो चित्र विचित्र मण्डप से सुशोभित था, इत्यादि बहुत प्रकार की शोभा से सहित था, प्रशस्त था और वस्तुदेव की प्रतिष्ठा से सहित था ऐसे मनोहर शिलातल पर अवतीर्ण हुए ।।१०२ - १०५ ।।
तदनन्तर जब मनुष्यों का कोलाहल तथा गीत वादित्र आदि का सुन्दर शब्द शान्त होगया तब उस शिलातल पर विराजमान तथा शत्रु मित्र और तृरण सुवणं आदि सभी regsों में समता नामक शुभ भावना की भावना करने वाले भगवान् पार्श्वनाथ ने क्षेत्र प्रादि दश प्रकार के बाह्य और मिथ्यात्व श्रादि चौदह प्रकार के अन्तरङ्ग परिग्रहों का मन वचन काय की शुद्धि पूर्वक त्याग कर मोह को नष्ट करने के लिये वस्त्र श्राभूषण तथा माला प्रादि को छोड़ दिया ।।१०६-१०८ ॥
तदनन्तर जो चेतन प्रचेतन और मिश्र नामक सभी परिग्रहों में अत्यन्त निःस्पृह हैं, साथ हो तप श्रादि लक्ष्मी तथा मुक्तिरूपो रमरगी के मुख में सस्पृह - प्रभिलाषा से सहित २. वास्तुदेवप्रतिष्ठयुक्ते ।
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२१२ ]
*श्री पारर्धनाथ चरित - चेतनेतरमिश्रेषु सर्वसङ्गेषु तीर्थ राट् । सस्पृहः तपसादिश्रीषु मुक्ति रमणीसुग्थे ।।११।। पञ्चमुष्टिभिरुत्पाटय केशान्मूलात्स्वपाणिना । प्राददे परमां दीक्षा मुक्तिनारीवश कराम् ।।१११।। पौषे मास्यत्तिते पक्षे एकादश्यां स्वमुक्तये । पूर्वाह्न साम्प्रतापनः पत्यकासनमाश्रितः ।। ११२।। तस्साहसं विलोक्याशु भूभुजस्त्रिशतप्रमाः। 'निर्वेदाच्छ जिनेनामा जगृहः संयम परम ११३॥ भूषासम्वस्त्रसंत्यागाजातरूप जगद्गुरोः । इन्द्रनीलमणीनां सत्तेजःपुमिवावभो ।।११४।। विरम्य सर्वसावयाच्छि ,त: सामायिक यमम् । व्रतगुप्तिसमित्यादीन् समस्तापनिवारकान् ।११५।। महोत्तरगुणेभूलगुणान् विश्वगुणप्रदान् । अष्टाविंशतिभेदांचाददे प्रीजिनपुङ्गवः ।।११६।। 'बालान भगवतो मूनि वासाद्रम्यान् पचित्रितान् । प्रत्यच्छन्मघवा रत्नपटल्यां मानहेतवे ।।११७।। ततो नीत्वा महाभूस्या देवेशा अंशुकावृतान् । वहुमानकृतान्पूताक्षी राब्धी ताग्निविक्षिपु: । ११८।। तदो जगत्त्रयाधीशं ज्ञानज्योतिगिरीपतिम् । देवं तुष्टुवुरित्युच्चैः "कल्पनःथा गुणवजैः ।।११६।। हैं ऐसे तीर्थपति भगवान पार्श्वनाथ ने शिला पर उत्तराभिमुख होकर सिखों को नमस्कार किया, तीन दिन के उपवास का नियम लिया । पञ्चमुष्टियों द्वारा अपने हाथ से केशों को जड़ से उखाड़ डाला और इस तरह मुक्तिरूपी नारी को वश करने वाली उत्कृष्ट वीक्षा पहरण कर लो ।।१०६-१११॥ पौष मास के कृष्णपक्ष की एकादशी के दिन पूर्वाल के समय पर्यङ्कासन से स्थित हो तथा साम्पभाव को धारण कर प्रात्ममुक्ति के लिये उन्होंने दीक्षा ली थी॥११२।। उनका साहस देख तीन सौ राजाओं ने शीघ्र ही वैराग्य होने से श्री जिनेन्द्र के साथ उत्कृष्ट संयम ग्रहण किया अर्थात् भगवान के साथ तीन सौ अन्य राजाओं ने भी दीक्षा ली ॥११३।। प्राभूषण, माला तथा वस्त्रों का सर्वथा त्याग करने से जगद्गुरु का बालक जैसा निर्ग्रन्थ रूप इन्द्रनीलमणियों के उत्तम तेज समूह के समान सुशोभित होने लगा ।।११४॥ जिनराज पार्श्वनाथ ने समस्त सावध सपाप कार्यों से निर्धत्त होकर सामायिक संयम को धारण किया तथा उत्तर गुणों के साथ समस्त पापों का निवा. रण करने वाले और समस्त गुरगों को देने वाले अढाईस मूलगुरग ग्रहण किये । ११५-११६। भगवान के मस्तक पर निवास करने से पवित्र रमणीय केशों को इन्च ने सम्मान के हेतु रत्नमय पिटारे में रक्खा ।।११७।। तदनन्तर जो वस्त्र से मुके हुए हैं, जिनका बहुतभारी मान किया गया है और जो पवित्र हैं ऐसे उन फेशों को इन्द्रों ने बड़ी विभूति के साथ ले आकर क्षीर समुद्र में क्षेप विया ।।११।। पत्पश्चात् इन्द्र, तीनों जगत् के स्वामी, जानरूपी ज्योति तथा वाणी के अधीश्वर श्री पार्य देव की गुणसमूह के कारण इस प्रकार उच्च स्वर से स्तुति करने लगे-॥११॥ १. वैराग्यात् २. केशान् ३, मंशकास्थितान ख. प. ४. स्व गेंन्द्राः ।
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षोडश तर्ग
[ २१३ त्वां हि जगत्त्रयोनार करणा परमं गरुम । निश्वानिष्टविघाताय नाथाभिष्टुमहे वयम् । १२०।। ते प्रभो गणनातीता मनल्पविषया गुणाः । प्रशक्या वस्तुमस्माभिरसमास्तुच्छबुद्धिभिः ।१२१॥ मस्वैवं देव मश्चित्तं स्तुती दोलायतेऽद्य ते । तथापि त्वद्गुणः सम्यक् स्वं पवित्री प्रकुर्महे १२२। बहिरन्तमलाचापानिमलास्ते गुणा: प्रभो । स्फुरन्ति मेघनिर्मुक्ता रम्या इव करा रवः । १२३॥ निरस्ताखिलमंतापा जगच्छुद्धिविधायिनी । भारतीय पुनीयान्नो दीक्षेयं 'पारमेश्वरी ॥१२४।। जगदानन्दधा नाथ विश्वानिष्टक्षयंकरी । सुवागिय सुनिःक्रान्तियौं धमाकीयं धिनोति न: १२५ राजलक्ष्मी चला हत्वा तपोलक्ष्मी पगं शुभाम् । दधतो मुक्तिधात्री ते नैर्ग्रन्थ्यं क्वास्ति धर्मराट १२६ प्रस्तरान् रत्नसंज्ञान संत्यक्त्वा संदधतस्तव । रत्नत्रयमनध्यं परं क्याहो ग्रन्थविध्युतिः ।।१२७।। स्त्रयगुच्यने विहायाशु रागं ते कुर्वतः परम् । मुक्तिनायो महारागं व लोकेऽस्ति विरागता १२५ स्वल्पेश्वयं परित्यज्य जगदपत्रयमीहत: । कुतस्ते लोनिमुक्तिभंगवतिलोभिनः ।।१२।।
हे नाथ ! हम समस्त अनिष्टों को नष्ट करने के लिये तीनों लोकों के नाथ तथा गुरुषों के परमगुरु प्रापको स्तुति करते हैं ॥१२०।। हे प्रभो ! जो गणना से रहित हैं, बहुत भारी हैं तथा अनुपम हैं ऐसे प्रापके गुण हम तुच्छ बुद्धियों के द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं ।।१२१॥ हे वेव ! ऐसा जानकर आज आपकी स्तुप्ति करने में हमारा चित्त यद्यपि चञ्चल हो रहा है तो भी हम अापके गुरगों द्वारा अपने प्रापको अच्छी तरह पवित्र कर रहे हैं ।।१२२॥ हे प्रभो ! बाह्याभ्यन्तर मल के नष्ट हो जाने से निर्मलता को प्राप्त हुए प्रापके गुण मेघ से निर्मुक्त सूर्य की सुन्दर किरणों के समान देदीप्यमान हो रहे हैं । १२३॥ जिसने समस्त संताप को नष्ट कर दिया है, तथा जो जगत् को शुद्धि करने वाली है ऐसी यह प्रापको वीक्षा सरस्वती के समान हम लोगों को पवित्र करे ।।१२४॥ हे नाथ ! जो जगत् को प्रानन्य देने वाली है तथा समस्त अनिष्टों का क्षय करने वाली है ऐसी प्रापकी यह दोमा विष्यवाणी के समान हम सबको संतुष्ट करती है ।।१२५।। हे धर्मेश्वर ? चंचल राजलक्ष्मी को छोड़कर मुक्ति की धायस्वरूप परम शुभ तपोलक्ष्मी को धारण करने वाले आपके निर्ग्रन्थपना कहां है ? ॥१२६॥ रत्न नामक पाषारणों का त्याग कर जब पाप प्रमूल्य तथा उत्कृष्ट रत्नत्रय को धारण कर रहे हैं तब प्रापका परिग्रह त्याग कहां हुमा ? ॥१२७॥ स्त्री के अपवित्र शरीर में शीघ्र ही राग छोडकर जब पाप मुक्तिरूपी नारी में अत्यधिक महान् राग को धारण कर रहे हैं तब लोक में आपके विरागता कहां हुई ? ।।१२।। हे भगवन् ! अत्यन्त अल्प ऐश्वर्य का त्यागकर जब पाप समस्त जगत् के ऐश्वर्य की इच्छा कर रहे हैं तम अत्यधिक लोभ करने वाले प्रापके लोभ का त्याग कहां हुमा ?
१.परमेसरस्येयं पारमेरो २ संत्यज्य:
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२१४ ]
* भो पावनाप चरित -
तुच्छे भोगे स्पृहां हत्वा मुक्तिकान्तोद्भवान् परान् । भोगानासक्तपित्तस्य नि:स्पृहत्वं क्व ते जिन' १३० बन्धूनल्पान् वै हित्वा त्रिजगतां बन्धुता पराम् । कुर्वतः स्वगुण : स्वामिन् कथं ते मोहसंच्युतिः १३१ रतिप्रीत्योस्त्वया नाय कुतं वैधव्यमञ्जसा । बाल्ये तद्भदृ धातेन कुतस्ते हृदये दया ॥१३२।। हेयाहेयं परिज्ञाय हत्वा हेयं परं महत् । स्वीकुर्वत उपादेयं कुतस्ते समभावना ।।१३३॥ पराषीनं सुम्न स्यक्त्वा स्वाधीनं सुखमिच्छतः । नित्यं मुक्तित्रियोपेतं कुतस्ते निःस्पृहं मनः ।।१३४।। मोहमलं विलोक्याशु हत्यमान' विधेः पतिम् । भोत्वाधानि विहाय स्वामगुः पाश्वं कुलिङ्गिनाम् । "देव, निगृह्ममारणं स्मरभूपं विश्वतापिनम् । प्रक्षसैन्यं विहाय त्वां रागिरणा निकट व्यगात् ॥ त्वया बाल्येऽपि देवात्र दुईरो मन्मयो जितः । जगज्जयीन्द्रियैः साई महच्चित्रमिदं सताम् । १३७ प्रतो न भवता तुल्यां धीरोऽनेकगुणाकरः । सर्वानिष्टहरी दक्षो ज्ञानवानपरो भुवि ।।१३८॥
॥१२६।। तुच्छ भोग में स्पृहा लालसा को छोडकर जद्ध पाप मुक्ति स्त्री से उत्पन्न होने वाले उत्कृष्ट भोगों के प्रति आसक्त चित्त हो रहे हैं तब हे जिनेन्द्र ! पाएके निःस्पृहपना कहाँ है ? ।।१३०॥ हे स्वामिन् ! निश्चय से अल्प बन्धों को छोडकर जब आप अपने गुरखों के द्वारा तीन जगत् को उत्कृष्ट बन्धुता को कर रहे हैं तब आपके मोह का त्याग कैसे हमा? ३१३१॥ हे नाथ ! अापने नमाजस्था में ही रति परि प्रीति के पक्ष का घात कर उन्हें वास्तव में विधवा बना दिया है अतः आपके हृदय में क्या कहां से प्राई ? ॥१३२॥ प्रापने हेय-छोडने योग्य और अहेय-न छोडने योग्य वस्तु को अच्छी तरह जान कर हेय-छोडने योग्य परपदार्थ को छोड़ दिया है और बहुत भारी उपादेय-ग्रहण करने योग्य पदार्थ को ग्रहण किया है अतः प्रापके समभावना कहां से प्राई ? ॥१३३॥ अब पाप पराधीन सुख को छोडकर मुक्ति लक्ष्मी से सहित स्वाधीन नित्य सुख की इच्छा कर रहे हैं तब आपका मन निःस्पृह कैसे हो सकता है ? ॥१३४।। कर्मों के राजा मोह मल्ल को पापके द्वारा शीघ्र ही नष्ट किया जाता देख पाप डर गये इस लिये वे प्रापको छोडकर कुलिसियों-मिथ्या तापसों के समीप चले गये हैं ॥१३५।। हे देव ! समस्त संसार को संतप्त करने वाले कामदेवरूपी राजा को प्रापके द्वारा दण्डित किया जाता देख इन्द्रियों को सेना
आपको छोड़कर रागी जीवों के निकट चली गई है ।।१३६।। हे देव ! प्रापने इन्द्रियों के साथ जगद्विजयी दुर्धर कामदेव को यहां बाल्य अवस्था में ही जीत लिया है यह सत्पुरुषों के लिये दड़े प्राश्चर्य की बात है ।।१३७।। इसलिये पृथियो पर अापके समान दूसरा धीर वोर, अनेक गुणों को खान, ममस्त अनिष्टों को हरने वाला चतुर और ज्ञानवान नहीं है
१
: स्व. ग. २. पण: ६. पापानि, पानि ख• ग घ. ४. देव निराधमानं स्व. ५ जगाम ।
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[ २१५
* षोडश सगँ *
परमेष्ठिने ||१३६ ॥
ततस्तुभ्यं नमो नाथ वि संख्यगुणशालिने । नमस्ते जगदानन्ददायिने नमस्ते तीर्थनाथाय विष्टिविघातिने । दीक्षिताय नमस्तुभ्यं मुक्तिकान्तात्तचेतसे ।। १४० ।। दिगम्बराय तुभ्यं नमो बालब्रह्मचारिणे । निजात्मध्यानलीनाय नमस्ते गुण सिन्धवे ।। १४१|| हिताय स्वान्ययोर्नाय नमस्ते दिव्यमूर्तये । कामारिनाशिने तुभ्यं नमोऽक्षजयिने विभो । १४२ । असंवृत्ताय विश्वाशापूरणाय च ते नमः । चतुर्ज्ञानविभूषाय नमस्तेऽवहृताय च ।।१४३।। इत्यभिष्टुत्य देव स्त्रां प्रार्थयामोऽधुना वयम् जगत्त्रितयसाम्राज्यं नात्र निलोभिनो भुवि ॥ १४४ ॥ किन्तु देहि जगनाथ बाल्येऽष्टवर्ष संमिते । दीक्षां भवे भवे साद्ध" सारैः सर्वभवद्गुः । १४५॥ स्तुत्वेति कल्पनाथाः कृत्वा मीष्टप्रार्थनां पराम् । उपा बहुधा दृष्यं श्रेष्ठाचारं स्तवैः || १४६।। त्रिः परीत्योत्तमाङ्ग ेन त्वा तच्चरणाम्बुज । प्रमोदनिर्भरा जग्मुः स्वं स्वं स्थानं सहामरः ११४७ जिनेन्द्रस्तत्क्षणं प्राप्य चतुर्थज्ञानमञ्जसा । निश्चलाङ्गोऽतिशान्तात्मा व्यधाद् ध्यानं स्वमुक्तये ॥१३८ ।। हे नाथ ! असंख्यात गुणों से सुशोभित श्रापके लिये नमस्कार है । जगत् को श्रानन्व देने वाले परमेष्ठी स्वरूप प्रापको नर है ९३६ ॥ समस्त प्रनिष्टों को नष्ट करने वाले आप तीर्थंकर के लिये नमस्कार है । दीक्षित तथा मुक्तिरूपी कान्ता में संलग्न चित्त वाले प्रापको नमस्कार है ।। १४०|| जो दिगम्बर हैं तथा बालब्रह्मचारी हैं ऐसे प्रापके लिये नमस्कार है । श्रात्मध्यान में लीन तथा गुणों के सागर स्वरूप आपके लिये नमस्कार है ।। १४१ ।। हे नाथ ! स्वपर के हितकारक तथा दिव्य शरीर को धारण करने वाले आपके लिये नमस्कार हो । हे विभो ! कामरूपी शत्रु को नष्ट करने तथा इन्द्रियों को जीतने वाले प्रापको नमस्कार है ।। १४२ ।। जो स्वयं श्रसंपन्न रहकर भी समस्त जीवों की आशाओं को पूर्ण करने वाले हैं ऐसे प्रापको नमस्कार हो और जो चार ज्ञानों से सहित हैं तथा पापों को नष्ट करने वाले हैं ऐसे प्रापके लिये नमस्कार है ।। १४३|| हे देव ! इस प्रकार स्तुति कर इस समय आपसे हम तीन लोकों का राज्य नहीं चाहते हैं क्योंकि पृथिवो पर हम लोभ रहित हैं ।। १४४ ।। किन्तु हे जगन्नाथ ! यह तो दीजिये कि भव भव में आठ वर्ष की बाल्यावस्था में सारभूत प्रापके समस्त गुरणों के साथ हम दीक्षा धारण कर सकें ।। १४५ ।। इस प्रकार स्तुति कर प्रत्यधिक अभीष्ट प्रार्थना कर, श्रेष्ठ श्राचार और गुरणों के स्तवन से बहुतभारी पुण्य का उपार्जन कर, तीन प्रदक्षिणाए देकर और मस्तक द्वारा उनके चरण कमलों को नमस्कार कर हर्ष से भरे हुए इन्द्र देवों के साथ अपने अपने स्थानों पर चले गये ।११४६ - १४७॥ भगवान् पार्श्वनाथ उसी समय मन:पर्ययज्ञान को प्राप्त कर स्थिर शरीर हो गये धौर प्रत्यन्त शान्त चित्त होकर अपनी मुक्ति के लिये ध्यान करने लगे ।। १४८ ।।
१ शालिनः ख०२ स्वर्गेन्द्राः ।
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२१६ ]
* श्री पार्श्वनाथ परित.
मालिको इति विगतविकारो ध्यानलीनोऽघहन्ता निखिलगुणसमुद्रो दीक्षितो विश्वनाथः । रहितसकलदोषः पूजितः संस्तुतश्च त्रिभुवनपतिभव्यर्य: स नोऽव्याद्भवाम्धेः' ||१६||
वसम्ततिलका बाल्येऽपि योऽत्र मदनारिनृपं विपित्य वैराग्यशस्त्रसबलः 'खभटः सहाशु । अङ्गीचकार परमं तप प्रास्मशुद्धच दद्यात् स नो जिनपतिः सकलां स्वभूतिम् ।।१५।।
स्रग्धरा विश्वार्यो विश्ववन्धो निखिलगुणनिधिः सर्वदोषातिदूरः
कर्मध्नो मोक्षहेतुविजितमदनखो दीक्षितो शाननेत्रः । पार्माधिधर्मकर्तारिखलदुरितहरः संस्तुतो वन्दितश्च
__ मुर्ना नित्यं मया मे भवतु भवभवे संपमाप्त्य कुमारः ।।१५१॥ इति श्री भट्टारक सकलकीगिनि निजी पर्यायरितो दीक्षावर्गानो नाम षोडशः सर्गः ।।१६।।
इस प्रकार जो विकार से रहित हैं, ध्यान में लीन हैं, पापों का नाश करने वाले हैं, समस्त गुणों के सागर हैं, दीक्षित हैं, सबके स्वामी हैं, सकल दोषों से रहित हैं, और तीन लोक के पतियों द्वारा पूजित तथा अच्छी तरह स्तुत हैं वे पार्श्वनाथ भगवान संसार सागर से हमारी रक्षा करें॥१४६।। वैराग्यरूपी शस्त्र से सबल होकर जिन्होंने यहां बाल्यावस्था में भी इन्द्रियरूपी मुभटों के साथ शीघ्र हो कामरूपी राजा को जीतकर प्रात्मशुद्धि के लिये उत्कृष्ट तप स्वीकृत किया था वे पाश्य जिनेन्द्र हम सबके लिये अपनी समस्त विभूति प्रदान करें प्रर्थात् हम लोगों को भी अपने ही समान चौतराग तथा सर्वज्ञ बनावें ॥१५०।।
जो सबके द्वारा पूज्य हैं, सबके द्वारा वन्दनीय है, ममस्त गुणों के भाण्डार है, सर्व दोषों से अत्यन्त दूर हैं, कर्मों का नाश करने वाले हैं. मोक्ष के कारण हैं, जिन्होंने काम तथा इन्द्रियों को जीत लिया है, जो दीक्षा से युक्त हैं, ज्ञान नेत्र के धारक हैं, सुख के सागर हैं, धर्म के कर्ता हैं, समस्त पापों को हरने वाले हैं, मेरे द्वारा संस्तुत हैं और मैं नित्य ही मस्तक से जिनको बन्दना करता हूँ वे पाशवकुमार भय भव में मुझे संयम की प्राप्ति के लिये हों ।।१५।।
इस प्रकार श्री भट्टारक सकलकीति द्वारा विरचित श्री पाश्र्धनाथचरित में दीक्षा का वणन करने वाला सोलहवां सगं समाप्त हया ।।१६।। १. स्याह भयो ।
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1
-7
* सप्तदश सर्ग
[ २१७
सप्तदशः सर्गः
भोग | ङ्गभववस्तुषु ||२|
सुखदुःख समाशयः ॥३॥
दीक्षान्तं जगद्वन्द्यं त्रिश्वार्थ्यं त्रिजगद्गुरुम् । त्यक्ताङ्ग' शिरसा वन्दे पार्श्वनाथं यमाप्तये ||१|| अथ योगं विमुच्याशु स्वय्र्यापश्रविलोचनः । भावयंस्त्रिक संवेगं निर्धनोऽयं धनेशोऽयं मनागित्यविचारयन् । सर्वेन्द्रियजयोद्युक्तः दानिनां परमं तोषं कुर्वस्तीर्थाधिराट् परम् । गुल्मखेटपुरं कार्यस्थित्यर्थं प्राविशच्चिदे || ४ तत्र मत्याखभूपाल: श्यामवर्णो गुणोज्ज्वलः । निधानमिव तं दृष्ट्वा परं पात्रं जगद्गुरुम् 11 ५ 11 प्राप्यानन्दं मुहुर्नत्वा शिरसा तत्पदाम्बुजी । तिष्ठ तिष्ठेति संप्रोक्त्वा स्थापयामास तत्क्षणम् । श्रद्धा शक्तिनिरीहत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा । एतान्सप्तगुणान्प्राप दानकाले स भूपतिः ||७|| प्रतिग्रहस्तयोच्चस्थानं पादक्षालनार्चनम् । प्रणामं कायवा चित्तशुद्धीनां त्रितयं परम् ||८||
सप्तदश सर्ग
जो दीक्षा को प्राप्त हैं, जगत् के द्वारा बन्दनीय हैं। सबके द्वारा पूज्य हैं, तीन जगत् के गुरु हैं, तथा शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हैं उन पार्श्वनाथ भगबान् को में सयम को प्राप्ति के लिये शिर से नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
प्रथानन्तर तीन दिन का योग समाप्त होने पर जो शीघ्र ही अपने मार्ग का प्रवलोकन करते हुए ईर्या समिति से चल रहे हैं, जो भोम शरीर और संसार की वस्तुओं में त्रिविध संवेग की भावना कर रहे हैं, यह निर्धन है यह धनाढय है ऐसा रञ्चमात्र भी विचार नहीं कर रहे हैं, समस्त इन्द्रियों के जीतने में उद्यत हैं, सुख और दुःख में जिनका साम्यभाव हैं तथा जो दानियों को परम संतोष उत्पन्न कर रहे हैं ऐसे तीर्थराज - पार्श्वनाथ तीर्थंकर ज्ञानादि गुणों की साधना के निमित्त शरीर की स्थिरता के लिये गुरुमखेट नगर में प्रविष्ट हुए ।। २-४ ।। यहाँ शरीर से श्याम किन्तु गुणों से उज्ज्वल मत्याल नामक राजा ने विधान के समान उत्तम पात्रस्वरूप जगद्गुरु को देखकर परम हर्ष का प्रनुभव किया। उसने उनके चरणकमलों में शिर झुका कर नमस्कार किया और 'तिष्ठ तिष्ठ' कहकर उन्हें तत्काल पड़गाह लिया ।। ५-६ ।। उस राजा ने वानकाल में होने वाले श्रद्धा, शक्ति, निरीहता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा इन सात गुणों को प्राप्त कर लिया || ७ प्रतिग्रह-पडगाहना, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, प्ररणाम, कायशुद्धि, वचन शुद्धि, मनः
१. स्वक्तार ग० २. मन्यख ग० ३. [ संप्रोच्य ]
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* श्री पारवनाथ चरित - एषणाशुद्धिरिस्थतान्पुण्योपार्जनकारणान् । प्रकारानव तत्काले स्वीचकार महीपतिः ।।६।। सतोऽतिमधुरं हृद्यं तपोज्ञानादिवर्धकम् । प्रासुकं. सरस क्षुत्त इनाशनं दोषदूरगम् ।।१०।। 'कृतादिवजितं भक्त्या परमानं जिनेशिने । त्रिशुद्धया मुक्तये तस्मै ददो सुविधिना नृपः ।।११।। तत्कालाजितपुण्येन करमुक्ता दिवौकसाम् । महती रत्नवृष्टिः खादपप्ततेजसाकुला ।।१२।। महादानफलं लोके व्यक्तं वा कुर्वती सताम् । पत्र स्वर्भोगभूमुक्त्यादौ परत्र नृपालये ॥१३॥ सदापप्तदिवो वृष्टिमुक्ता देवकरैः शुभा । कल्पथाखिजपुष्पाणां सुगन्धीकृतभूतला ॥१४।। मन्द्रं सुरानका देवकरस्पर्शात्प्रदम्बनुः । बहवो घोषयन्तोऽत्रेव दातुः परम यशः ।।१५।। संचचार मरुच्छीत: सुगन्धि: स्पर्शनप्रिय: । देवोपनीत एवाहो गन्धोदककणान् किरन् ॥१॥ पाहो परमपात्रोऽयं जिनेणो दाततारकः । धन्योऽयं जगता मान्यो दाता तद्वत्तस क्ष्यकृत् १५॥ अहो दानं पर चेदं धर्मदं दातृपात्रयोः । दानतोषात्सुराः क्षेत्रेऽत्युच्चं चक्रुमहावनिम् ।१८।। पुद्धि और प्राहार शुद्धि ये नौ पुण्योपार्जन के कारण हैं। राजा ने उस समय उपयुक्त नौ कारणों को स्वीकृत किया ।।। तदनन्तर राजा ने मुक्ति प्राप्ति के हेतु उन जिनराज के लिये मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक भक्ति से अत्यन्त मधुर, रुचिकर, तप तथा ज्ञानादि की वृद्धि करने वाला, प्रासुक, सरस, क्षुधा तृषा को नष्ट करने वाला और कृत कारितावि दोषों से रहित परमान-खीर का प्राहार विधिपूर्वक दिया ॥१०-११॥ तत्काल उपाणित पुण्य के द्वारा देवों के हाथ से छोड़ी हुई सेजपूर्ण बहुतभारी रत्नवृष्टि प्राकास से पढ़ने लगी ॥१२॥ राजभवन में पड़ती हुई रत्तवृष्टि ऐसी जान पड़तो थी मानो लोक में सत्पुरुषों के लिये दान का महाफल प्रकट करतो हुई यह बता रही हो कि दान से इस भव में तथा स्वर्ग, भोगभूमि और मोक्ष प्रादि में परम सुख की प्राप्ति होती है ॥१३॥ उस समय पृथिवी को सुगन्धित करने वाली, देवों के हाथ से छोड़ी कल्पवृक्ष के पुष्पों की वर्षा पाकास से पड़ रही थी ॥१४॥ देवों के हाथ के स्पर्श से वेबों के बहुत भारी नगाड़े गम्भीर सम्म कर रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानों इस लोक में दाता के परम यश की घोषणा हो कर रहे हो ॥१५॥ अहो ! उस समय शीतल, सुगन्धित स्पर्शनेन्द्रिय को प्रिय, देवोपनीत वायु सुगन्धित जल के कणों को विखेरती हुई सब ओर चल रही थी ॥१६॥ अहो ! दाताओं को तारने वाले ये तीर्थङ्कर जिनेन्द्र परमपात्र हैं और उनके चारित्र का साक्षात करने वाला, जगन्मान्य यह वाता भी ज्यभाप है ॥१७॥ अहो । दाता और पान-दोनों के लिये धर्म को देने वाला परम दान है, इस प्रकार वान के संतोष से उस क्षेत्र में सेव लोग उच्चस्वर से महान शम्ब कर रहे थे। भावार्थ-उस समय पात्रवान के प्रभाव से देखों ने
१. उहिष्टादिदोषरहितं . तमापतरियो स्व. प.।
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* सप्तदश सर्ग.
[ २१६ कृतार्थतरमात्मानं मेने धूपः सुवानसः । गार्हस्थ्य सफल स्वस्प जीवितं च धनार्जनम् ।१६।।
ममोदतः पण्यं तदन्ये बहवोऽभजन । परं रत्नं यथासाद्य स्फटिकस्तच भजेत ॥२०॥ ययात्र लभ्यते लक्ष्मी: पात्रदानारसुलोद्भवा । तथा मुत्र स्फुटं मोगधरा नाकालये परा॥२१॥ अहो घन्यास्त एघार दातारो ददतेऽत्र ये। अन्वहं परमं दानं यतिवृत्तिप्रबद्धं काः ॥२२॥ अग प्रायस्सवाहार गृहीरवा समचित्ततः । राग हत्वा यपालब्ध पाणिपात्रेण संस्थितः ॥२३॥ पृत्तज्ञानादिबुद्धयर्थ पवित्र संविधाय सः । तद्गृहं ध्यानसंसिद्ध ह्येकाकी सदनं ययौ ।२४१ पाहारवीर्यसामाज्जिनो भेजे परं सपः । कर्माचरीन् ममो हन्तुग्रासपुष्टो यथा हरिः ॥२५॥ मोहान्धतमसध्वंसकारिणी विश्वशिनी । दिदीऽस्य मनोगेहे महती बोधदीपिका ॥२६॥ गुणास्थया गुणान्पश्येत् दोषान् दोषास्थयात्र य: । हेयाहेयादिवित्स स्यात्क्यापरस्येष्टमी गतिः ॥२७॥ १. रस्नवृष्टि २. पुष्पवृष्टि ३. देवदुन्दुभिताडन ४. मन्द सुगन्धित बायु का संचार और ५. 'हो दानं ग्रहो पात्रं ग्रहो दाता' को घोषणा ये पञ्चाश्चर्य किये थे ॥१८॥ उस उत्तम दान से राजा ने अपने पापको कृतकृत्य माना तथा गृहस्थता, अपना जीवन तथा धनार्जन को सफल समझा ॥ १६ ।। जिस प्रकार उत्कृष्ट रत्न को पा स्फटिकमरिण उल रत्न के समान कान्ति को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार वान की अनुमोवना से उस समय अन्य बहुत लोगों ने पुण्य प्राप्त किया था ॥२०॥ जिस प्रकार पात्रदान से इस जगत में सुख से प्राप्त होने वाली लक्ष्मी उपलब्ध होती है उसी प्रकार पर भव में भोगभूमि और स्वर्ग की उत्कृष्ट संपदा प्राप्त होती है ।२१। ग्रहो ! इस लोक में वे ही दाता धन्य हैं जो पहा मुनिवृत्ति को बढ़ाते हुए प्रतिदिन उत्तम दान देते हैं ॥२२॥
तवनन्तर सम्यक् प्रकार से खड़े हुए भगवान ने जैसा कुछ प्राप्त हुमा वैसा आहार समचित्त से पाणिपात्र द्वारा ग्रहण किया था। उन्होंने यह प्राहार राग को नष्ट कर चारित्र तथा ज्ञानादि की वृद्धि के लिये ग्रहण किया था। आहार लेकर तथा राजा मत्याख के घर को पवित्र कर वे ध्यान की सिद्धि के लिये अकेले ही उत्तम बन की ओर चले गये ॥२३२४।। माहार जनित शक्ति की सामर्थ्य से जिनेन्द्र देव उत्कृष्ट तप की पाराधना करने लगे तथा प्रास से पुष्ट सिंह के समान कर्मादिक शत्रुनों को नष्ट करने के लिये समर्थ हो गये ॥२५॥ इनके मनरूपी गृह में मोहरूपी गाढ अन्धकार को नष्ट करने वाली तथा सबको दिखाने वाली बहुत बड़ी ज्ञानरूपी दीपिका देवीप्यमान होने लगी ॥२६॥ इस जगत में जो गुरगों को गुणों की श्रद्धा से और दोषों को दोषों को श्रद्धा से देखता है वही हेयोपादेय प्रावि पदार्थों का ज्ञाता हो सकता है अन्य की ऐसी गति कहां होती? अर्थात् कहीं मही२७॥ १ तद्गृहे ग.।
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२२० ।
* श्री पार्श्वनाथ चरित . सावविरति सर्वामूरीकृत्याखिलावित् । तद्भदान्पालयामास निर्मलाचवताप्तये ।।२।। सत्यमहावतं मौनी मीनेन पालयेत्रिषा । प्रस्तेयत्रततात्पर्य व्यधात्सर्वत्र निःस्पृहः ।।२६।। मात्रादिसपृशा मर्या स्त्री विधाय स्वमानसे । नवधा ब्रह्मवयं स दध्यात्कृस्न 'मलालिगम् ।।३०। बाह्याभ्यन्तरसङ्गषु मूछो हत्वातिनि:स्पृहः । दिग्दशाम्बर एवाधात पूर्ण स प्रतपञ्चमम् ।३१।। महाव्रतानि पञ्चवमनिशं पालयत् जिनः । तच्छुद्धयर्थ सदैताः स भावयामास भावना: १३२॥ बचोगुप्तिर्मनोगुप्तिरीसिमितिसंशिका । तथैवादाननिक्षेपोत्सर्गाच्या समिति: परा ।।३३।। चाभ्यां हि दिनालोकितपानभोजनं विमाः । भावनाः पञ्च विज्ञेयाः प्रथमवतशुद्धिदाः ।। ३४॥ कोषलोभभयत्यागाः सर्वथा हास्यवर्जनम् । वाणी सूत्रानुगाहीति' द्वितीयव्रतभावनाः ।।३।। मितोचिताम्यमुशातग्रहणान्य ग्रहोऽन्यथा । संतोषो भक्तपाने च तृतीयवतभावनाः ३६।। स्त्रीशृङ्गारकथारागाश्रवणं चानिरीक्षणम् । स्त्रीमनोहररूपस्य नारीणां सङ्गवर्जनम् ।।३७॥ पूर्वसेवितभोगानां हृद्यनुस्मरणापहम् । वृष्येष्टानरसत्यागः पञ्चेति ब्रह्मभावनाः ।।३।।
समस्त पदार्थों को जानने वाले भगवान् ने समस्त सायद्य-सपाप कार्यों का त्याय स्वीकृत कर निर्मल हिसावत की प्राप्ति के लिये उसके भेदों का पालन किया ।।२८॥ मौम को धारण करने वाले जिनेन्द्र ने मन बचन काय के भेद से तीन प्रकार के मौन द्वारा सत्य महावत का पालन किया था। समस्त पदार्थों में नि:स्पृह रहने वाले पार्श्व जिनेन्द्र मे प्रचौर्य महावत में तत्परता को थी ।।२६।। अपने मन में समस्त स्त्रियों को माता प्रादि के समान समझकर उन्होंने नौ प्रकार का निर्दोष ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया था ॥३०॥ अत्यन्त निःस्पृह पार्य जिनेन्द्र बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों में मूर्धा को छोड़ कर दिगम्बर हो हो गये थे इस प्रकार उन्होंने पूर्ण पञ्चम महायत अपरिग्रह महाव्रत को धारण किया था ॥३१॥ इस प्रकार निरन्तर पांच महावतों का पालन करते हुए पाश्वं जिन, उन महावतों को शुद्धि के लिये सदा इन भावनाओं का चिन्तबन करते थे ॥३२।।
वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, प्रादाननिक्षेपणसमिति, मोर नेत्रों से बेखकर विनालोकितपानभोजन ये पांच भावनाएं अहिंसावत की शुद्धि को देने वाली जाननी चाहिये ।।३३-३४॥ क्रोधत्याग, लोभत्याग, भयत्याग, सब प्रकार का हास्यत्याग और अनुवोचिभाषण ये सत्य महावत की भावनाएं हैं ॥३५।। मितग्रहरण, उचितग्रहण, अभ्यनुशाप्त ग्रहण, अन्यथा प्रग्रहण और भक्तपान में संतोष ये पांच प्रचौर्य महावत को भावना हैं ।।३६॥ स्त्रियों की भृङ्गार कथा में राग बढ़ाने वाले गीत प्रादि का नहीं सुनना, स्त्रियों के मनोहर रूप का नहीं देखना, स्त्रियों का सङ्ग छोड़ना, पूर्व सेषित भोगों के स्मरण का १. निखिलदोषरहितम् । २. सूत्रानुगहीति नः ।
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सप्तदश सर्ग
[ २२१ बाह्याभ्यन्तरसङ्गषु सचित्ताचिसवस्सुषु । पञ्चाक्षविषयेष्वेव सुखदुःखविधायिषु ॥ ३६।। सुमनोज्ञामनोशेषु
रागद्वेषादिवर्जनाः । पञ्चेमा भावना भाव्या: पञ्चमवतशुद्धये ॥४०।। महाननिशुस्य : आनिगतिः। भाषयामास तीर्थेश एता: सह सशुद्धिदाः ।।४।। प्रष्टो 'प्रवचनाम्बा: स मातृवद्धितकारिणीः। त्रिशुबचा पालयामास सर्वात्रविहानये ।।४२॥ पानि कानि त्रिशल्यानि शल्यवद्द :सदानि च । मिध्यादीनि जिनाधीशगंहितानि जिनागमे ।।४३॥ व्युत्सृज्य तानि सर्वाणि नि:शल्यः भीजिनाप्रणी: । ग्रामखेटपुराटव्यादिषु संपिहरेत्सदा ।।४।। विहरन्सोऽप्य र यादों यास्तं रविरन्यगात् । कायोत्सर्ग विधायाशु तत्रैवास्थासुनिर्भयः ।। ४५।। श्मशाने भीषणे रोने वने चाद्रिग्रहान्सरे । एकाकी सिंहवद्रात्रौ निःशङ्कः सोऽनिशं वसेत् ।४६। अष्टादशसहस्रप्रशीलसनामित:
। चतुरशीतिलक्षप्रगुणभूषणभूषितः ।।४।। रत्नत्रयशरोपेतस्तपोधनुर्विमण्डितः ।महाशमगजारूतो धैर्यशाली जगद्गुरुः ।।४।। निघ्नन्कर्मारिसन्तानं सुचारित्ररणाङ्गणे । ध्यानखड्गेन भाति स्म सोऽपूर्यो वा भटोत्तम: ४६। त्याग करना और गरिष्ट तथा इष्ट प्राहार का त्याग करना ये पांच ब्रह्मचर्य महाव्रत को भावनाएं हैं ॥३७-३८।। बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों में, सचित्तापित्त वस्तुमों में तथा सुख दुःख करने वाले पञ्चेन्द्रियों के इष्ट-प्रनिष्ट विषयों में रागद्वषादि को छोड़ना ये पांच भावनाए पञ्चमवत-परिग्रह त्याग महावत में शुद्धि उत्पन्न करने के लिये हैं ॥३६-४०॥ इस प्रकार तीर्थ के स्वामी श्री पार्वजिनेन्द्र महावतों को विशुद्धि के लिये सम्पचारित्र में शुद्धि प्रदान करने वाली इन पच्चीस भावनामों का चिन्तवन करते थे ॥४१॥
के समस्त प्रालय को नष्ट करने के लिये माता के समान हित करने वाली पाठ प्रवचन मातृकानों-पांचसमिति और तीन गुप्तियों का त्रिशुद्धिपूर्वक पालन करते थे।४२१ जिनेन्द्र भगवान ने जिनागम में शल्य के समान दुःल बेने वाली जिन मिथ्यात्व प्रावि तीन शल्यों को निन्वित बताया है उन सबको छोड़कर पाय मुनिराज निःशल्प होते हुए ग्राम खेट पुर तथा अटवी आदि में सदा विहार करते रहते थे ।।४३-४४।। बन प्रादि स्थानों में विहार करते हुए वे, जहां सूर्य अस्त हो जाता था वहीं पर शोध कायोत्सर्ग कर प्रत्यन्त निर्भयरूप से ठहर जाते थे ॥४५।। वे रात्रि के समय सिंह के समान अकेले तथा निःशङ्क होकर भयकर श्मशान, शैद्रवन और पर्वत की गुफाओं में सवा निवास करते थे ॥४६॥ जो अठारह हजार शील के भेवरूप कवच से युक्त थे, चौरासी लाख उत्तर गुणरूपी प्राभूषणों से विभूषित थे, रत्नत्रयरूपी बाणों से सहित थे, तपरूपी धनुष से मण्डित थे, महाशान्तपरिणामरूप हाथी पर सवार थे, धैर्यशालो थे, जगत् के गुरु थे और सम्यकचारित्र
१. पञ्चसमितित्रिगुतिरूपा अष्टप्रवचन मातरः ।
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२२२ ]
● श्री पाश्वनाथ चरित *
द्विषभेदं तपः सोऽघात् परं कर्मवनानलम् । प्रागजित विषेर्हन्यै मुक्तिनारीवशीकरम् ||५०|| पञ्चेन्द्रियकुलौरान समस्तानर्थविधायिनः । निर्वेदतीकरणखड्गेन जघान मुक्तिर्म ।। ५१ ।। 'जजूम्भे ध्यानह्निमंनोगारे कपनाति । विभोः काष्ठानां 'भस्मीमाकरः परः । ५२ । माद्रादिदुर्ष्याना नायकाश जन्महो । जात्वस्य हृदये धर्म्यशुक्लध्याना' भिवासिते । ५३१ दुश्या न पदं चक्रुश्चिसेोऽस्य मलदूरगे । शुभलेश्याकृतावासे वचिद्धयामपरायणे । । ५४ ॥ भ्रमन्तं विषयारण्ये चलं चितमर्कटम् । ज्ञानशृङ्खलया ध्यानस्तम्भे शुद्ध मबन्ध सः । ५५ । नयन् स तु मासांच्याद्मस्थ्येनागमज्जिनः । प्रत्यासनभवप्रान्तः प्राग्दीक्षा प्रहरो बने । । ५६ ।। तत्रैवाधस्तले देवभूमिहीरुहः । अष्टमाहारसंत्यागं कृत्वा त्यक्त्वा निज वपुः ॥ ५७ योगं सप्त दिनावधिम् । व्यधात्कर्मवनाग्नि समस्त योगनिरोधकम् || १८ || रूपी रणाङ्गण में ध्यानरूपी खड्ग के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं की सेना का घात कर रहे थे ऐसे वे पम्प मुनि प्रपूर्व सुभट के समान सुशोभित हो रहे थे ।।४७-४६ ।।
पातिकमायास)
ये पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा के लिये कर्मरूपी वन को भस्म करने हेतु प्रग्नि के समान तथा मुक्तिरूपी स्त्री को वश करने के लिये वशीकरण मन्त्र के तुल्य बारह प्रकार का तप करते थे ।। ५० ।। वे मुक्ति सम्बन्धी सुख के लिये समस्त अनर्थों को करने वाले पञ्चेन्द्रियरूपी दुष्ट चौरों को वैराग्यरूपी तीक्ष्ण तलवार के द्वारा नष्ट करते थे ।।५१|| नाना प्रकार की कल्पनाओं से रहित उनके मनरूपी मन्दिर में दुष्ट कर्मरूपी काष्ठों को भस्म करने वाली ध्यानरूपी उत्कृष्ट प्रग्नि प्रज्वलित रहती थी ।। ५२ ।। ग्रहो ! धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान से सुशोभित इनके हृदय में कभी भी प्रातं रौद्र आदि खोटे ध्यान अवकाश नहीं प्राप्त करते थे ।। ५३|| शुभलेश्यानों से युक्त तथा ध्यान में तत्पर रहने वाले इनके निर्मल चित में अशुभ लेश्याएं कहीं भी स्थान नहीं प्राप्त कर सकती थीं । । ५४ ।। उन्होंने विषयरूपी वन मे घूमते हुए चञ्चल चित्तरूपी दानर को शुद्धि के लिये ज्ञानरूपी सांकल के द्वारा व्यानरूपी स्तम्भ में बांध रक्खा था ॥ ५५॥
जिनके संसार का किनारा प्रत्यन्त निकट रह गया है ऐसे पार्श्वजिन छद्मस्यभाव से चार माह व्यतीत कर पहले के दीक्षावन में श्राये ।। ५६ ।। वहीं उन्होंने देवदारवृक्ष के नीचे तेला का नियम लेकर कायोत्सगं किया और घातिया कर्मों का क्षय करने के लिये सात दिन तक का योग-ध्यान धारण कर लिया। उनका वह योग कर्मरूपी वन को प्रग्नि स्वरूप था तथा समस्त योगों-मन वचन काय की प्रवृतियों का निरोध करने वाला था ।।५७ – ५६।।
१. ०२. भस्मीभावकरः परः स० ग० ३. शुक्लष्यनिवासि ग
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• सप्तश सर्ग .
[ २२३ पावरसोऽस्थाज्जिनाधीशम्स्यक्तदेहोऽचलोपमः ।सरवसारोऽतिरिमा घHध्यान प्रवर्तयन् ।।५।। तावरस प्राक्तनः पापी 'संबराख्योऽति दुष्टधीः । ज्योतिष्कनिर्जरो गच्छन् खे तस्योपरि तत्क्षणम् ६० विमानरूक एवं श्रीजिनयांगप्रतापतः निमः सविमानोऽभूत्कीलितो बार केनचित् । ११ ॥ स्वं निरुवं विबुद्धघाशु विभङ्गन पुरातनम् । वैरं पाप महाकोपं सोऽनन्तभवकारणम् ॥६२।। सतः कोपाग्निना दग्धसर्वाङ्गो पहिरन्तरे । भूत्वाङ्गारमिभो नेत्रे चोपसर्गे मति व्यपात् ।६३ ।। वित्रियद्धिबलात्पापो कुर्याद्वरतरं प्रभोः । दुस्सहं प्रोपसर्ग कातराणा मोतिदायकम् ।।६।। मुशलोपमधारोघवर्षणैश्चापउम्बरेः । झञ्झायातसमूहश्च धद्विवनमज्जनः ।।६।। सदरण्यं तदा काले निमग्नमाद्रिपादपम् । सर्वत्र जलसंपूर्ण बभूवेव महारणंवम् ।।६६।। सधैव सोऽतिपास्मा महोग्रोप्रतरानधात् । बहून् सुविविधान् शक्त्या प्रोपसर्गान्सुदुस्सहान् ६७। ध्यानध्वंसकरस्तीक्ष्णः शपनाटिकुजल्पनः । प्रन्योरैश्च शैलोपनिपालाई भयरः ।।६।।
जिन्होंने शरीर से ममताभाव छोड़ दिया है, जो पर्वत के समान स्थिर है, बलयुक्त है और प्रत्यधिक धेयंशाली हैं ऐसे पावं जिनेन्द्र पर्यध्यान को प्रवति हुए ज्यों ही वहां स्थित हुए श्यों ही वहां पूर्व का पापी, संवर नामका ज्योतिषी देव जो कि दुष्ट बुद्धि था तथा उस समय विमानारूढ हो आकाश में जा रहा था, जब पारवं जिनेन्द्र के ऊपर से जाने लगा तब उनके ध्यान के प्रताप से वह विमान सहित ऐसा रक गया मामों किसी ने कोल दिया हो ।।५६-६१॥ अपने प्रापको का हुमा जानकर उसने शीघ्र ही विभङ्गावधि का प्रयोग किया। उसके द्वारा पूर्व वैर को जानकर वह अनन्त संसार के कारण स्वरूप महान् क्रोष को प्राप्त हुमा ॥६२।। तदनन्तर कोषाग्नि से भीतर बाहर जिसका समस्त शरीर बग्ध हो गया था तथा जिसके नेत्र अंगार के समान लाल लाल हो रहे थे. ऐसे उस संवर देव ने उपसर्ग करने का निश्चय किया ॥६३॥ विक्रिया ऋद्धि के बल से उस पापी ने प्रभु के ऊपर ऐसा भारी उपसर्ग किया जिसमें तीन बर भरा हुमा पा, जो दुःसह था तथा कायर मनुष्यों को भय उत्पन्न करने वाला था ॥६४॥ उसने वह 'उपसर्ग इन्द्र धनुष के विस्तार से सहित तथा पृथिवी पर्वत और धन को डुबा देने वाली मुसल के समान बड़ो मोटी धारा समूह को वर्षा और झमा वायु के समूह के द्वारा किया था ।॥६५॥ उस समय, जिसमें पृथिवी, पर्वत और वृक्ष डूब गये हैं ऐसा जल से भरा हुमा वह पन महासागर के समान हो गया था ।।६६३ जिसकी प्रात्मा प्रत्यन्त पाप से युक्त है ऐसा वह संवर देव शक्तिपूर्वक नाना प्रकार के बहुतभारी असह्य, तीक्ष्ण से तीक्ष्ण महान उपसर्ग करता रहा। कभी वह ध्यान में बाधा डालने वाले कठोर अपशब्दों का उच्चारण करता, कभी बड़ी १. संवारास्मो ख. ग. २. शिलोप ५० शीलोप ख. ग. ।
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२२४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित . यत्किञ्चिद्विशते तस्य सामथ्र्य विक्रियोद्भवम् । तेन सप्तदिनान्तं स चकारोपद्रवं परम् ।।६।। प्रस्तावेऽस्मिन्महादक्षहढबराग्यवासितम् । संक्लेशादिविनि:क्रान्तं तत्त्वचिन्तावसम्बितम् ।। निर्भयं निर्विकारं स ज्ञानध्यानपरायणम् । निर्विकल्पपदापन दधेऽसौ स्वं मनो जिन: ।।७१।। अनेकगुणसपूर्ण ज्ञानमूर्ती निजास्मनि । अनन्तमहिमोपेत'चंतन्यगुणशालिनि ॥७॥ अतो निश्चलचित्त न धैर्यादिगुणराषिभिः । जाननपि न येत्यभ्यन्तरे वाधां म तस्कृताम् ।७३॥ न मनाक चलितो ध्यानान्न क्लेशदुःख वेदकः । न मनाग विकियापन्न: सुखरूपोऽभवत्सुधीः ।७४। अतोऽसो ज्यानसनीनो निष्कम्पो मेरुव द्विभुः । प्रस्थाज्जित्वा समस्तान तत्कृतान् सर्वानुपद्रवान् । चलत्यचलमालेयं क्वचि वादहो भुवि । न पुनर्योगिनां चित्त ध्यानात्सर्वपरीषहैः ।।७६।। अहो धन्यास्त एवात्र येषां न स्खलितं मनाक । वीर्य वा साहसं जातु महोपद्रवकोटिभिः ॥७७।। तदा जिनमहायोगसामाद्धरणेशिनः । पातयन्निव तं भूमौ स्वासनं कम्पितं तराम् ।।७।। बड़ी शिलानों को लाकर समोप में गिराता और कभी अन्य भयकर उत्पात करता था। उसकी विक्रिया को जिसनी सामर्थ्य थी उसके अनुसार वह सात दिन तक अत्यधिक उपद्रव करता रहा ॥६७-६६।।
इस अवसर पर जिनेन्द्र भगवान ने जो अत्यन्त समर्थ हद वैराग्य से युक्त था, संवलेशादि से रहित था, तत्त्वचिन्ता में लीन था, निर्भय था, निर्विकार था, ज्ञानध्यान में तत्पर था, तथा निर्विकल्प पद को प्राप्त था ऐसे अपने मन को अनेक गुणों से परिपूर्ण, ज्ञानमूति तथा अनन्त महिमा से युक्त चैतन्यगुण से सुशोभित अपनी प्रात्मा में स्थिर किया था ॥७०-७२।। यही कारण था कि वे घेर्यादि गुणों के समूह से निश्चलता को प्राप्त हुए चित्त से उस देवकृत बाधा को जानते हुए भी अन्तरङ्ग में उसका बेवन नहीं करते थे ॥७३॥ न वे रञ्चमात्र ध्यान से चलायमान हुए थे, न क्लेशजन्य दु.ख का बेवन करते थे पोर न रञ्चमात्र विकार को प्राप्त हुए थे। किन्तु इसके विपरीत सुखी और सुधुद्धि के धारक हए थे ।।७४।। जो ध्यान में लीन थे तथा मेरु पर्वत के समान निष्कम्प थे ऐसे प्रभु पाश्वनाथं देवकृत समस्त उपद्रवों को जीत कर वहां स्थिर रहे ।।७५।। प्रहो! पृथिवी पर कहीं दैववश यह पर्वतों को पंक्ति भी चलायमान हो जाती है परतु समस्त परिषहों से योगियों का मन ध्यान से चलायमान नहीं होता ।।७६॥ अहो ! इस जगत में वे ही अन्य हैं जिनका वीर्य और साहस करोड़ों महोपद्रयों से कभी रञ्चमात्र भी स्खलित नहीं होता७७
उस समय जिनेन्द्र भगवान के महाध्यान की सामध्यं से धरणेन्द्र का अपना प्रासन इतना अधिक कम्पायमान हुमा मानों उसे पृथिवी पर गिरा ही रहा हो ।।७।। सबनन्तर १.महिमोपेत खक ग० २. सुम्ब रूपे ख..।
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* सप्तदश सर्ग .
[ २२५ ततोऽवबुध्य तीर्थेशस्योपसर्ग सुदुस्तरम् । स्वावधिज्ञानसम्पस्या होत्यसो चिन्तये दि ७६।। प्रहो यस्य प्रसादेन प्राप्तास्माभिरियं गतिः । तस्य मत्स्वामिनः प्रोपद्रवः संजायतेऽसुरात् ।। ८०।। पत्रहं न करोम्यद्य प्रत्युपकारमेव हि । पृथिव्या मत्परः कोऽत्र पापी वात्यघमो भवेत् ८१॥ विचिन्त्येति किलोद्भिध परी साई स्वकान्तया । पाजगाम द्रुतं पाश्वं जिनेन्द्रस्य फणीश्वरः ।।२।। त्रिपरीस्याशु त धेर्यशालिनं प्रोपसांगणम् । ननाम घरगन्द्रश्च भवत्या पपावती मुदा ।।८।। भट्टारकमथोड त्य प्रस्फुरत्फणपङि क्तभिः । भुवः प्रोत्थाप्य वेवोऽस्यात्तद्वाषाहानये द्रुतम् ।।४।। तस्योपरि विधायोज्य: सघनं फणमण्डपम् । वचतुल्यं जलाभेधे स्थिता देवी स्वक्तितः ।८।। तरसर्वोपद्रवं तस्याशु तकाम्यां निवारितम् । स्वशक्त्या परया भक्त्या फर्णविद्युच्चमत्कृतेः ८६। ततो निरर्थको जातः स चाकिञ्चित्करोऽमरः । प्रतृणे पतितो वह्निर्यथा मन्दरुचिः स्वयम् ।।७।। महो क्व भुदि तीर्थेश: क्य तो पातालवासिनौ । सति पुण्ये न कि पुसा जायते दूरदुर्घटम् ।।८।। अपने भवधिज्ञान की सम्पत्ति से तीर्थंकर पर होने वाले बहुत भारी उपसर्ग को जानकर वह हृदय में ऐसा विचार करने लगा ॥७९॥ अहो ! जिनके प्रसाव से हमने यह गति प्राप्त की, हमारे उन स्वामी पर असुर से बहुत भारी उपसर्ग हो रहा है।1८०॥ यदि मान मैं प्रत्युपकार नहीं करता हूं तो पृथिवी पर मुझ से अधिक पापी पौर नीम दूसरा कौन होगा? ॥१॥ ऐसा विचार कर धरणेन्द्र पृथिवी का भेदन कर अपनी स्त्री के साथ शीघ्र हो जिनराज के समीप आ पहुंचा ॥२॥ धैर्य से सुशोभित तथा बहुत भारी उपसर्ग से पुक्त भगवान पार्श्वनाथ की तीन प्रदक्षिणाएं देकर भरणेन तथा पयावती ने भक्ति से हर्षपूर्वक उन्हें नमस्कार किया ॥३॥
तवनन्तर धरणेन्द्र शीघ्र ही भगवान को बाधा दूर करने के लिये उन्हें देवीप्यमान फरणानों की पंक्ति द्वारा पृथिवी से उठा कर खड़ा हो गया ।।४।। और उनके ऊपर पावती देवी अपनी भक्ति से उन्नत, सघन, वनसदृश तथा जल के द्वारा प्रमेय फणामण्डप तान कर खड़ी हो गई ॥८॥ धरणेन्द्र और पपावती ने अपनी शक्ति पौर परम भक्ति से बिजली के समान चमकते हुए फरणों के द्वारा उनका यह समस्त उपसा दूर कर दिया ॥६६॥ तदनन्तर जिस प्रकार तृण रहित भूमि में पड़ी हुई अग्नि स्वयं मन्दकान्ति हो जाती है उमो प्रकार वह संवर देव भी निरर्थक तथा प्रकिञ्चिकर हो गया ॥७॥ अहो ! पृथिवी पर विद्यमान पार्श्व तीर्थकर कहां और पाताल में निवास करने वाले वे धरणेन्द्र और पचायती कहाँ ? ठीक है पुण्य के रहते हुए पुरुषों का कौनसा असंभव कार्य संभव नहीं हो जाता ? ।।८।।
१. तत्ताभ्यां ख. गल।
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२२६ ।
* श्री पाना रित*
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भार्थवावसरे तस्मिन् पाण्याप्रमत्तता पराम् । निर्विकल्पपदारूढः परमध्यानतस्परः ॥८६॥ अम्लनिर्ममता सम्बारोह पकाभिधाम् । श्रेणी स जगतो नायो निःश्रेणी मोक्षसद्मनः । वनाश्वष्टकषायारीन् देखसर्वव्रतान्सरान् । रागमूलास्त्रिवेदांश्च नोकपारिपून्परान 18 क्रोनं संज्वलनं मान माम संज्वलनाभिधाम् । अपान क्रमतो योगी ह्याबशुक्सासिना तदा ।।२।। अयभूमि सतो लम्वा सूक्ष्मलोभमहारिपुम् । जवान श्रीणिनः सूक्मसापराययमासिना ।।३।। गुणस्थाममपास्पृश्य होकादशममेष । उत्पत्य प्राभवरक्षीणकषायो मोहनाशात् ॥६४।। ततो द्वादशमं.. प्रारुह्य गुणस्थाममजसा । तस्यान्ते शेषधातीनि विकर्माणि निहत्य स: ।१५।। सवेकत्वरितकावीचारशुक्लायुधेन हि । महाभट इवात्ययं स्वीकार जिनोसमः ॥१६॥ केवलभानसाम्राज्यं विश्वमूत्येकमन्दिरम् । अनन्तशर्मकर्तारं त्रिजगत्पतिमानितम् ॥६७|| चैत्रमासे शुभे कृष्णपक्षे विशाखनामनि । नक्षत्रे च चतुर्दश्यां पूर्वाहे मासिघातकृत् 16|| स्वशक्स्योत्पादयामास केवलज्ञानमद्भुतम् । अनन्तमहिमोपेतं लोकालोकाग्रदीपकम् ।।EET
प्रधानन्तर उसी अवसर पर उत्कृष्ट अप्रमत्त दशा प्राप्त कर जो निर्विकल्प पर पर पारन है तथा परात्मास्वकीयशुद्धस्वरूप के ध्यान में तत्पर हैं ऐसे जगत्पति पार्य निमेन्द्र, अन्तरङ्ग को निर्मलता को प्राप्त कर मोक्ष महल की सीढी स्वरूप क्षपक श्रेणी पर पाहुए ॥६-६०॥ वहां योगिराज पारर्य जिनेन्द्र ने उस समय पृथक्त्ववितर्कवीचार मामक प्रथम शुक्लध्यान के द्वारा शीघ्र ही देशचारित्र तथा सकलचारित्र को धातने वाले प्रात्याल्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण नामक माठ कषायरूप सबुओं को, राग के मूलभेद तीन वेदों को, नो कषायरूप परम शत्रुओं को, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संदलन माया को क्रम से मष्ट किया ॥६१-६२ तबमातर भी जिनेन्द्र ने विजयभूमि को प्राप्त कर सूक्ष्म सांपराय संयमरूपी तलवार के द्वारा सूक्ष्मलोभ नामक महाशत्रु का घात किया ॥३॥ तत्पश्चाद मोह कर्म का क्षय करने वाले भगवान् ग्यारहवें गुरणस्थान का स्पर्श किये बिना ही क्षीण कषाय-बारहवें गुणस्थान वर्ती हो गये ॥४॥ तदनन्तर बारहवें गुरणस्थान में चढ़ कर उसके अन्त समय में उन्होंने शेष तीन घातिया कर्मों का वास्तविक नाश किया ॥६५॥ वहां उन्होंने एकत्ववितकवीचार नामक शुक्लध्यानरूपी शस्त्र के द्वारा महान योद्धा के समान उस केवलज्ञानरूपी साम्राज्य को प्राप्त किया जो समस्त संपदाओं का एक अद्वितीय मन्दिर है, अनन्त सुख को करने वाला है और तीन जगत् के स्वामियों द्वारा सन्मानित है ॥६६-६७।। चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्वाद्ध काल में विशाखा नक्षत्र में घातिया कर्मों का घात करने वाले पाश्वं जिनेन्द्र ने अपनी मात्मशक्ति के द्वारा वह केवलज्ञान उत्पन्न किया जो अद्भुत था, अनन्तमहिमा १. तत्र प्राणु प्रष्टकायारीन इतिच्छेदः ।
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. सप्तश सर्ग -
[ २२७ मनन्तं दर्शनं ज्ञानं वीर्य क्षायिकदर्शनम् । वृत्त दानं च लामं भोगोपभोगौ किलेत्यही ।१०। नव केवललपी: स स्वीपकार जिनाग्रणीः । धातिकर्मक्षयोत्पता लोकेऽसाधारणाः परा: १०१।
मालिनी भगवति जिलमोहे केवलज्ञानभूत्या स्फुरति सति सुरेन्द्राः प्रानमन् भक्तिभाराव । नभसि अनिनादो निर्जराय जुम्मे सुरपटहरवौघ रुखमासीत्तदा सम्' ।।१०२॥
सुरकुजकुसुमानो दृष्टिरापप्तदुमच-भ्रंमरघननिनादर्गीतमातन्वतीय । शिशिरतरतरङ्गानास्पृसन्मातरिश्वा मृदुतरमभितस्सम्यानशे दिग्मुलानि ॥१०३।। सकलविभवपूर्ण धर्मरत्नादिखानि बहुविधमणिसदिष्यभूत्या चकार । समवसृतिभनयां यक्षराड् यस्य सोऽज्याद् भवजलनिधिपातास्पार्श्वनायः सतां नः ||१०४॥
सार्दूलविक्रीडितम एवं श्रीजिननायकोच परया क्षान्त्या अगदयोतकं
प्राप्तः केवललोचनं सुविमल भुक्त्वा त्रिलोके सुखम् । से सहित था तथा लोकालोक के अग्रभाग को प्रकाशित करने वाला था ॥९E-En प्रनम्तमान, अनन्तदर्शन 'अनन्तवीर्य, क्षायिक सम्यक्रव, क्षायिकचारित्र, दान, लाभ, भोग
और उपभोग इन नौ केवललब्धियों को उन जिनेन्द्र ने स्वीकृत किया था। पे नौ केवललब्धियां चातिया कर्मों के भय से उत्पन्न होती है तथा लोक में परम असाधारण हैं ॥१००-१०१॥
मोह को जीतने वाले भगवान पार्श्वनाथ अब केवलज्ञान रूप विभूति के द्वारा देवीप्यमान हो रहे थे तब इन्द्रों ने भक्तिभार से उन्हें प्रणाम किया । देवों प्रावि ने प्राकाश में जय जयकार का शम्ब विस्तृत किया और देवदुन्दुभियों के शग्ध समूह से प्राफाश उस समय व्याप्त हो गया था ॥१०२॥ जो भ्रमरों की सघन गुजार से मामों गीत गा रही यो, ऐसी कल्पवृक्ष के फूलों को वृष्टि ऊपर से नीचे पड़ रही थी तथा अत्यन्त शीतल तरङ्गों का स्पर्श करने वाली वायु ने धीरे धीरे समस्त विशात्रों के अग्रभाग को व्याप्त कर लिया ॥१३॥
यक्षाधिपति कुबेर ने नाना प्रकार के मरिण समूहों तथा स्वर्गीय विभूति के द्वारा जिनकी समस्त भव से पूर्ण तथा धर्मरस्न की प्रथम खानस्वरूप प्रमूल्य समवसरण रचा था वे पार्श्वनाथ भगवान हम सत्पुरुषों को संसार सागर के पतन से रक्षा करें ॥१०॥
इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् इस जगत में परम क्षमा के द्वारा त्रिलोक सम्बन्धी अत्यन्त निर्मल सुख भोग कर जगत्प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त हुए थे ऐसा जानकर हे १. गगनम् २. कल्पवृक्षपुष्पाणां ३. कुबेर: ४. पस्मान् ।
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२२८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित - मवेतीह जनाः कुरुध्वमनिशं सारां क्षमा मोक्षदा
सर्वत्रापि निहत्य कोपरिपु स्वमुक्तिसंसिद्धये ।।१०५।।
स्रग्धरा सर्वशो विश्वदर्शी त्रिभुवनशरणो धर्म तीर्थादिकर्ता
हन्ता कर्माक्षशन समवसृतियतो वन्दितः संस्तृतो यः । पूज्यः कल्याणकाले सुरखगपतिभिर्विश्वनाथर्मया च
सोऽयं श्रीपाश्वनायः प्रभवतु मम दुर्घातिकर्मक्षयाय ।। १०६।। इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीपार्वनाथचरित्रे केवलज्ञानोत्पत्तिवर्णनो नाम सप्तदशः सर्गः ।।१७॥ भव्यजन हो ! स्वर्ग और मुक्ति की प्राप्ति के लिये सभी जगह कोधरूपी दुष्ट शत्रु को नष्ट कर निरन्तर सार स्वरूप मोक्षवायक क्षमा को धारण करो॥१०॥
जो सर्वज्ञ थे, सर्ववर्शी थे, त्रिभुवन के रक्षक थे, धर्म तीर्थ प्रावि के कर्ता थे, कर्म तथा इन्द्रियरूपी शत्रुनों को नष्ट करने वाले थे, समवसरण से सहित थे, वन्दित थे, संस्तुत घे, तथा कल्याणकों के काल में देवेन्द्र विद्याधरेन्द्र, सबके नाप तथा मेरे द्वारा पूज्य थे, वे भी पार्श्वनाथ जिनेन्द्र हम सम के दुष्ट धातिया कर्मों के क्षय के लिये हों ॥१०६।।
इस प्रकार श्रीभट्टारक सकलकोति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में केवल. मान की उत्पति का वर्णन करने वाला सत्रहवां सर्ग समाप्त हवा ॥१७॥
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अष्टादरा सर्ग
[ २२६
अष्टादशः सर्गः दिव्यौदारिकदेहाय केवलज्ञान चक्षुषे । गुरूणां गुरवे मूर्ना श्रीपाश्र्वाय नमः सदा ।।१।। पथ केवलमाहात्म्याज्जिताधिध्वनिरभुता । घण्टा मुखरयामास वदन्तीय तदुत्सवम् ॥२॥ समन्तात्पुष्पवृष्टि प्रचक्र : कल्पमहीरुहाः । दिशो निर्मलतां प्रापुर्बभ्राजे 'व्यभ्रमम्बरम् ॥३॥ विष्ट राणि सुरेन्द्राणामन प्रचम्पिो भनु कटा नसाः शिशिरो मरुदाववो ।।४।। इत्यादिविविधश्चिहरवबुध्य तदुत्सवम् । सिंहासनात्समुत्थाय परोक्षभक्तिनिर्भरः ॥५॥ संयोजितावधिज्ञान प्रादिकल्पाधिपो द्रुतम् । ननाम तं जिनाधीसं केवलमानभूषितम् ।।६।। किमे सदिति पृच्छन्तोमिन्द्राणीमतिसंभ्रमात् । शक्रः प्रबोधयामास प्रभोः कैवल्यसंभवम् ।।७।। प्रयाणपटहेपूच्चैः प्रध्वनत्सु मुराधिपः । विभोः कैवल्यपूजाय निश्च काम वृतः सुरे. ॥६॥ ततो बलाहकाकारं विमानं 'कामुकाभिधम् । देवो "वलाहकश्चक्रे विस्तीर्ण सक्षपोजन : ।।६।।
अष्टादश सर्ग परमोवारिक शरीर से सहित, केवलज्ञानरूपी नेत्र से युक्त, गुरुषों के गुरु श्रीपार्वमाथ भगवान को सदा शिर से नमस्कार करता हूँ ॥१॥
प्रथानन्तर केवलज्ञान के माहात्म्य से समुद्र के शब्द को जीतने वाला घण्टा, कबलनाम महोत्सव की सूचना देता हुमा ही मानों शब्द करने लगा ।।२।। कल्पवृक्ष सब पोर पुष्पवर्षा करने लगे, दिशाए' निर्मलता को प्राप्त हो गई और मेघ रहित प्राकाश सुशोभित होने लगा ॥३॥ इन्द्रों के प्रासन जोर से कम्पित होने लगे, मुकुट नम्रीभूत हो गये और शीतल वायु बहने लगी ॥४|| इत्यादि विविध चिह्नों से केवलज्ञान का उत्सव जान कर परोक्ष भक्ति से परिपूर्ण, अवधिज्ञानी, सौधर्मेन्द्र ने शीघ्र ही सिंहासन से उठ कर केवलज्ञान से अलंकृत पार्श्व जिनेन्द्र को नमस्कार किया ॥५-६।। 'यह क्या है' इस प्रकार पूछती हुई इन्द्राणी को सौधर्मेन्द्र ने बड़े हर्ष से बतलाया कि पाप्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुमा है ॥७॥
तदनन्तर जब प्रस्थान काल में बजने वाले नगाड़े जोर जोर से शम्द कर रहे थे तब देवों से घिरा इन्द्र प्रभु के केवलज्ञान की पूजा के लिये निकला ॥८॥ तत्पश्चात् बलाहक नामक वेव ने मेघ के प्राकार, एक लाख योजन विस्तार वाला कामुक नामका १. मेघहितम् २. सौधर्मेन्द्रः ३. मेघाकारं ४. कामकाभिघ ख. ५० ५. बलाहकनाम देवः ।
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२३. ]
* भी पाबनाय परित. मुक्तालम्बनदामोधः किङ्कणोस्वनकोटिभिः । प्रहसम्भिव तोषात्तद्रश्मिभिमणिनिर्मितम् ॥१०॥ शरद भ्रमिवात्यन्तशुक्लं श्वेतितदिम्मुखम् । तुङ्गवंशं सुदोङ्ग सवृत्तोनतमस्तकम् ॥११॥ लक्षणव्यंजनेयुक्त जवनं नलिनं परम् । तिर्यग्लोकायतस्थूलक्रमवृत्तणुसकरम् ॥१२॥ वृत्तगात्रं सुलीलाढय महान्तं दुन्दुभिस्वनम् । मदनिर्भरव्याप्ताङ्ग कल्याणप्रकृतिं वरम् ।।१३॥ लक्षयोजनविस्तीर्ण हेमकक्षं गुणान्वितम् । अषयमालया षण्टाद्वयेन परिपूषितम् ॥१४॥ अनेकवर्णनोपेतं दिव्यरूपं झयुत्तोपमम् ।'नागवत्तामियोग्येशो नागमैरावतं ध्यषात् ||१५| तमैरावणमारूढः सहस्रामो व्यभातराम् । उदयाचलमाटो यथा भानुः स्वसेजसा ॥१६॥ द्वात्रियवदनान्यस्य सादृश्णनि भवन्ति । शास्यमष्टदताः स्यूला दीर्घा: किरणाकुसाः ।११ प्रसिदन्तं सरो होक स्वच्छनीरभृतं महत् । सर: प्रति महारम्याप्यस्मिन्येका वरोत्पला ।।१।। द्वात्रिशरकमलान्यासा प्रत्येक स्युमेहान्ति हि । कमल प्रति द्वात्रिंशद्दोधपत्राणि निश्चितम् ।।१७। तेष्वायतेषु सर्वेषु नर्तक्योऽभुतदर्शनाः । विच तो वा नन्ति स्म द्वात्रिंशसंख्यकाः पृथक्॥२०॥ विमान बनाया ॥६॥ वह मरिणनिर्मित विमान मोतियों को लटकती हुई मालाओं के समूहों, फिरिणयों क्षुद्र घष्टिकानों की करोड़ों रुणभुमों और मणियों की किरणों से ऐसा जान परता था मानों हंस ही रहा हो ॥१०॥ मागवत नामक प्राभियोग्य जाति के देव ने ऐसा ऐरावत हाथी बनाया जो शरदऋतु के मेघों के समान अत्यन्त शुक्ल था, जिसने विशामों के अग्रभाग को श्वेत कर दिया था, जिसकी रीह बहुत अची थी, जिसका शरीर बहुत लम्बा था, जो गोल तथा ऊंचे मस्तक से सहित था, लक्षण और व्यजनों से सहित था, वेगशाली था, अत्यन्त बलिष्ठ था, जिसकी सूड मध्यम लोक के बराबर लम्बी, मोटी, क्रम से बढ़ती हुई गोलाई से युक्त तथा सीधी थो, जो एक लाख योजम विस्तार पाला था, सुवर्य की मालाओं से युक्त था, अनेक गुणों से सहित था, कण्ठमालामों और वो अन्टामों से विभूषित था, अनेक वर्णनामों से सहित था, विष्यरूप का धारक तथा निरुपम या।१५॥ उस ऐरावत हाथी पर बैठा हुमा सौधर्मेन्द्र अपने तेज से, उदयाचल पर पारुढ सूर्य के समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥१६॥ इस ऐरावत हाथी के एक समान बत्तीस मुख थे और प्रत्येक मुख में स्यूल, दीर्घ तथा किरणों से युक्त पाठ पाठ दांत थे॥१७॥ प्रत्येक बात पर स्वच्छ जल से भरा हुमा एक एक विशाल सरोवर था, और एक एक सरोवर में उत्तम कमलों से युक्त अत्यन्त सुन्दर एक एक कमलिनी थो॥१८॥ एक एक कमलिनी में बत्तीस बत्तीस बहुत बड़े कमल थे और एक एक कमल में निश्चित रूप से बत्तीस बत्तोस विशाल पते थे ॥१६॥ उन लम्बे पत्तों पर अद्भुत दिखाई देने वाली बत्तीस बत्तीस १. नागदत्तनामक भाभियोग्यजातिको देवः २. सौधर्मन्द्रः ३. प्रतिमुलं ।
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* अष्टादश सर्ग
॥ २३॥ तासां शृङ्गारलावण्यरसभावलयान्वितम् । पश्यन्तः परम नृत्यं मुदा पिप्रियिरेऽमरा: ।।२१।। पुवराज इवातीव सुन्दरी निर्ययो व्रतम् । शकणामा प्रतीन्द्रोऽपि स्ववाहनमधिष्ठितः ॥२२॥ पितृमातृगुरुप्रख्या मान्याः सामानिका: सुराः । पुरोधोमन्थ्यमात्यनिमास्त्रायस्त्रिशनिर्जराः ॥२३॥ पीठमदंनसाहण्या देवाः . पारिषदायाः । प्रङ्गरक्षसमाना प्रात्मरक्षाख्या विवौकसः ।।२४।। कोटपालसमा देवा लोकपालसमाह्वयाः । सेना तुल्यान्यनोकानि पदात्यादीनि सप्तमा ॥२५|| पौरजानपदप्रख्यास्त्रिदशाश्च प्रकीर्णका: । अमरा अभियोग्यास्या दातफरोपमाः ॥२६।। प्रजाबाह्मसमाना गीर्वाणा: किल्विषिकाभिधाः । इति शकपरीवाराः स्वस्ववाहन माश्रिताः ।।२७।। धर्मक रसिकाः सर्वे स्वस्वभूत्युपलक्षिसाः । सफलत्राश्च कल्पेशं वजन्तमनुवबजुः ॥२८।। स्वस्ववानमारूढाः सर्वाभरणभूषिताः ।साद्ध स्वपरीवारैः शचीभिश्चामनिजः ॥२६।। सोत्सवा जिनपूजाय सर्वे कल्पाधिपाः समम् । ऐशानप्रमुखा भक्त्या निर्जग्मुस्तेन तरक्षणम् ।।३०।। सिंहासनादिचिह्न: स्वात्वा केवलसंभवम् । सामराः सपरीवाराः सकलत्राः सवाहनाः ।।३१।। दिव्यभूषादिदीप्ताङ्गा ज्योतिष्का: पञ्चधा सुराः । निर्ययुः परया भक्त्या कैवल्यपूजनोद्यताः ।।३२।। नर्तकियां बिजलियों के समान पृथक पृथक नृत्य कर रही थीं ॥२०॥ उन नतंकियों के शृङ्गार सौन्वर्य रस भाव और लय से सहित उत्कृष्ट नृत्य को देखते हुए देव हर्ष से प्रसन्न हो रहे थे ॥२१॥
. . युवराज के समान अत्यन्त सुन्दर प्रतीन्द्र भी अपने वाहन पर बैठ कर इन्द्र के साथ शीघ्र ही बाहर निकला ॥२२॥ पिता माता और गुरु के समान माननीय सामानिक बेब, पुरोहित मंत्री और अमात्यों के समान प्रास्त्रिश देव, पीठमई के समान पारिषद देव, प्रङ्गरक्षकों के समान प्रात्मरक्ष वेव, कोटपाल के समान लोकपालदेव, सेना के तुल्य पदाति आदि सात प्रकार के मनीक जातीय देव, नगरवासी तथा देशवासी के समान प्रकीर्णक देव, दासों के समान प्राभियोग्य जाति के देव, और प्रजा से बाह्य-चाण्डालाविक के समान किल्बिषिक नामक देव, ये सब इन्द्र के परिवार के देव अपने अपने वाहनों पर सवार होकर सौधर्मेन्द्र के पीछे पीछे चल रहे थे। ये वेव भी धर्म के प्रमुख रसिक थे, अपनी अपनी विभूतियों से सहित थे तथा देवाङ्गनाओं से युक्त थे ॥२३-२८॥ जो अपने अपने वाहनों पर प्रारुढ थे, समस्त प्राभूषणों से विभूषित थे, अपने परिवारों, इन्द्राणियों तथा देवों से सहित थे, तथा उत्सव से युक्त थे ऐसे ऐशानेन्द्र प्रादि समस्त इन्द्र भक्तिपूर्वक जिन पूजा के लिये उस समय सौधर्मेन्द्र के साथ निकले ॥२६-३०॥ जो देवों से सहित हैं, परिधारों से युक्त हैं, देवाङ्गनामों से परिवृत हैं, अपने अपने वाहनों पर प्रारूत हैं तथा दिव्य प्राभूषणों से जिनके शरीर देदीप्यमान हैं ऐसे पांच प्रकार के ज्योतिषी देव सिंहासन आदि
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२३२ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित शङ्खशब्दादिचिह्न विज्ञाय त्रीजिनकेवलम् । स्वदेवीभिः स्वदेवेश्च स्वभूत्या सह सोत्सवाः ।। ३३॥ स बाह्नादिदेवा भवनवासिन प्राशु वै । नियंयुर्दशधा भक्त्या जिनेन्द्रभक्तितत्पराः ।।३४।। भेरीरवादिभित्विा जिनकल्याण कोत्सवम् । दिव्यभूत्या समं देवैः स्वकान्ताभिश्व संमुदा ।।३।। निश्चक्रमुजिनेज्याय राष्टषा व्यन्तरामरा: । दिव्य स्रावस्त्रभूषाढया: स्वस्ववाहन मास्थिताः ।।३६। एवं चतुणिकाया गीर्वाणा: सेन्द्राः सचामराः । छादयन्तो नभोभागं ध्वजच्छत्रादिकोटिभिः ।।३।। पुरानकमहावाधिरीकृतदिग्मुखा: ।जयनन्दादि कोलाहलाने कमुखरीकृताः ॥३८।। जिनकवल्यम जातदिव्यगीतमनोहरैः ।हावभाव विलासाढरप्सरोव्रजनर्तमः ॥३६॥ कलाविज्ञानचातुर्यः कुर्वन्तः परमोत्सवम् । द्योतयन्तो दिशो व्योम स्वाङ्गभूषादिदोप्तिभिः । ४०। यागच्छन्त: शनैर्भूमि मुदाकाशादिवौकस: । विस्फारित सुनेत्रदूंगद दजिने शिन: ॥४१|| प्राम्थानमण्डलं दिव्यं विश्वद्धयेककुलगृहम् । पराय॑मरिणभिर्देवशिषिभिः परिनिर्मितम् ।।४२।। प्रास्थान मण्डलस्यास्य कोऽत्र वर्णयितृ क्षमः । विन्यासं यस्य निरिणे सूत्रधारोऽस्ति देवराट्।।४॥
चिह्नों के द्वारा केवलज्ञान को उत्पत्ति जानकर परम भक्ति से केवलज्ञान की पूजा के लिये उग्रत होते हुए निकले ।।३१--३२॥ शङ्खों के शद प्रादि चिह्नों से श्री जिनेन्द्र भगवान् के केवलज्ञान की उत्पत्ति को जान कर अपनी अपनी देवियों, देवों, अपनी अपनी विभूतियों, उत्सवों, तथा वाहनों आदि से सहित दश प्रकार के भवनवासी देय जिनेन्द्र भक्ति में तत्पर होते हुए भक्तिपूर्वक निकले ॥३३-३४।। भेरियों के शब्द प्रादि से जिन कल्याणक के उत्सव को आन कर दिय विभूति, देव और देवाङ्गानाओं से सहित, दिध्य माला वस्त्र और प्राभूषणों से युक्त, अपने अपने वाहनों पर बैठे हुए पाठ प्रकार के व्यन्तर देव, हर्षपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिये निकले ॥३५-३६॥ इस प्रकार जो इन्द्रों से सहित थे, चामरों से युक्त थे, करोड़ों ध्वजारों और छत्रों प्रादि के द्वारा प्राकाश प्रदेशों को प्राच्छादित कर रहे थे, वेव दुन्दुभियों के विशाल शब्दों से जिन्होंने दिशानों के अग्रभाग को बहरा कर दिया था, जय, नन्द प्रादि के विविध कोलाहलों से जो शब्द कर रहे थे, जिनेन्द्र भगवान के कंबल्य महोत्सव से सम्बद्ध, मनोहर दिव्यगीतों, हावभाव विलास से सहित प्रमरानों के नृत्यों तथा कलाविज्ञान सम्बन्धी चतुराई से जो परम उत्सव कर रहे थे, अपने शरीर और आभूषणों को कान्ति से दिशामों और प्राकाश को प्रकाशित कर रहे थे, तथा हर्षपूर्वक आकाश से धीरे धीरे पृथिवी की ओर आ रहे थे ऐसे चतुरिण काय के बेवों ने अपने खुले हुए सुन्दर नेत्रों के द्वारा दूर से ही श्री जिनेन्द्र' भगवान के उस समवसरण को देखा जो दिव्य था, समस्त सम्पदानों का कुलगृह था, और देव कारीगरों ने श्रेष्ठ मरिणयों से जिसकी रचना को थी ॥३७-४२।। कवि कहते हैं कि जिसके बनाने में इन्द्र स्वयं सूत्रधार
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अष्टावश सगं.
[ २३३ तथाप्यस्योच्यते किञ्चित् सुशोभा रचनादिका । श्रुतेन येन भव्यानां शुभो भाव: प्रजायते ।।४४।। पञ्चप्रकोशविस्तारं परार्थ मणिमंचयः ।घटितं वृत्तमास्थानपीठं स्यात्विजगद्गुरोः ।।४।। पोठपर्यन्तभूभागमलंचक्र स्फुरदय ति: । धूलीशालपरिक्षेपो रत्नपांसुमयो महान् ।।४६।। इन्द्रवाए इवात्यन्ततेजस्वी वलयाकृति: । क्वचिदजनपुजाभः क्वचित्काञ्चनसच्छविः। १४७। क्वचिच्छुकच्छदच्छायः क्वचिद्विद् मपुञ्जभाक् । चन्द्रकान्तशिखाचूर्णमयः सोऽभाच्च तेजसा ||८|| चतसृष्वपि दिक्ष्वस्य स्वर्ण स्तम्भानलम्बिताः । तोरणा मकरास्फोटमणिमाला विरेजिरे ।।४६।। ततोऽन्तरान्तरं किञ्चिद् गत्वा तुङ्गा मनोहराः । वीथीनां मध्यदेशेषु तप्तहाटकनिमिता: ।।५।। मध्यप्रदेशतीर्थेशप्रतिमौघप्रतिष्ठिता: । ध्वजचामरघण्टासंगीतमङ्गलनतन: ।५१॥ नित्यातोद्यमहावाधर्मानस्तम्भा विभान्ति च । स्तम्भयन्तो सतां मानं मूनि छन्नत्रयाङ्किताः ।।५२।। चसुगोपुरसंयुक्ताः प्राकारत्रयवेष्टिता: । जगत्यस्त्रिजगन्नाथस्नपनाम्बुपवित्रिताः ॥५३।। था भगवान के उस समवसरण मण्डल के रचना का वर्णन करने के लिये यहां कौन समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।४३।। तो भी शास्त्रानुसार इसकी कुछ रचना और उत्तम शोभा प्रादि का वर्णन पा जाता है जिसे भर जीवों के शुभ नाव होते हैं ।४।।
त्रिलोकीनाथ भगवान पार्श्व जिनेन्द्र का पांच कोश विस्तृत गोलाकार समवसरण श्रेष्ठ मगियों के समूह से बनाया गया था ॥ ४५ ॥ समवसरण के अन्तिम भूभाग को वेदीप्यमान कान्ति से युक्त, रत्नधूलि से तन्मय धूलिसाल का महान घेरा अलंकृत कर रहा था ॥४६॥ जो इन्द्रधनुष के समान अत्यन्त तेजस्वी था, चूड़ी के तुल्य गोल आकार को धारण करने वाला था, कहीं अजन के समूह के समान था, कहीं सुवर्ण के समान कान्ति थाला था, कहीं तोता के पल के समान कान्ति से युक्त था, कहीं मूगानों के समूह से सहित था, और कहीं चन्द्रकान्तमरिणयों के चूर्ण से तन्मय था ऐसा वह पूलिसाल अपने तेज से सुशोभित हो रहा था ।।४७-४८।। इस धूलिसाल की चारों दिशाओं में चार तोरण सुशोभित हो रहे थे जो सुवर्णमय खम्भों के अग्रभाग पर अवलम्बित थे तथा मकराकार देवीप्यमान मणियों की मालाओं से विभूषित थे ॥४६॥
__तदनन्तर कुछ भीतरी अन्तर को पार कर चार दिशा सम्बन्धी चार गलियों के मध्यवेश में चार मानस्तम्भ सुशोभित हो रहे थे जो ऊंचे थे, मनोहर थे, तपाये हुए सुवर्ण से निर्मित थे, बीच में तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के समूह से सहित थे, ध्वजा, चामर, घण्टा, संगीत, मङ्गल मय नृत्य तथा निरन्तर बजने वाले प्रातोद्य नामक वाद्यों से सहित थे, सत्पुरुषों के मान को रोकने वाले थे और मस्तक पर छत्रत्रय से युक्त थे ।।५०-५२॥ उन १ सप्तमुवर्ण रचिताः।
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२३४ ]
• श्री पार्श्वनाथ चरित. स्वर्णषोडशसोपाना सन्मध्ये पीठिका परा । न्यस्तपुष्पोपहारार्धा तन्मध्येऽपि त्रिमेखलम् ।। ५४॥ मस्ति दिव्यं परं पीठं ते तन्मूनि प्रतिष्ठिताः । मनस्तम्भा महामाना दुहं शां मानखण्डनात् ।।५।। स्तम्भपयन्तभूभागमलंच क्र : सहोत्पलाः । स्वच्छनीरभृतो वाप्यो नन्दोत्तरादिसंज्ञकाः ॥५६॥ दिशं पति पतम्रो पण पाविधि: : पाहादालनाकुण्डस्तटभूमिविमण्डिताः ।।५७।। पक्षिदिरेफझधारयन्त्य इव सद्गुणः । जिनेन्द्रं वा महावाप्यो बभुनेत्रप्रियकराः ॥५८।। स्वल्पान्तरं ततोऽतीत्य महीं तां कमलैश्चिता' । परिवत्र तत्र ततो वीषीं च जलखातिका ।। ५६।। वातोभूसतरङ्गोषैः पक्षिकोलाहलैश्च सा । रेजेऽगाधा प्रनुत्यन्तीव तोषात्तनमहोत्सवे ।।६।। तदभ्यन्तरभूभागं परितो हि लतावनम् । अलंच के धनच्छायं वल्लीगुल्मद्रुमभृतम् ॥६॥ पुष्पवल्लीसमासक्तगुञ्जभ्रमरसुन्दरम् । सर्वत्त कुसुमोपेतं पक्षिकोलाहलाकुलम् ॥६२।।
तत्र क्रीडाइयो भान्ति सशय्याश्च लतालया: । घृता ये स्युः पुरस्त्रीणां मिशिर। मरुतो वराः।।६३।। मानस्तम्भों की रचना इस प्रकार थी। सर्व प्रथम चार गोपुरों से युक्त, तीन प्राकारों से वेष्टिस और त्रिलोकीनाथ के स्नपमजल से पवित्र जगतियां थीं। उन जगत्तियों पर चढ़ने के लिये स्वर्ण की सोलह सीढ़ियां लग रही थीं। उन जगतियों के मध्य में तीन मेखला वाला सुन्दर परम पीठ था। उस पीठ पर वे मानस्तम्भ प्रतिष्ठित थे। मानस्तम्भ बहुत ऊंचे थे तथा मिथ्याष्टियों का मान खण्डन करने के कारण मानस्तम्भ कहलाते थे ॥५३-५५॥
___नील कमलों से सहित तथा स्वच्छ जल से भरी हुई नन्दोत्तरा मावि वापिकाएं जन मानस्तम्भों के समीपवर्ती भूमिभाग को सुशोभित कर रही थीं ॥५६॥ वे वापिकाएं एक दिशा में चार चार थीं, मरिणमय सीढ़ियों से विभूषित थीं, पर धोने के कुण्डों से युक्त थी तथा तट भूमियों से अलंकृत थीं ॥५७।। नेत्रों को प्रिय लगने वाली ये महावापिकाएं पक्षियों और भ्रमरों की झांकारों से ऐसी जान पड़ती थीं मानो प्रशस्त गुणों के द्वारा भगवान का गान ही कर रही हों ॥५८।। उससे थोड़ी दूर जाकर कमलों से व्याप्त परिखा उस भूमि तथा वीथी को घेरे हुये है ॥५६।। यह परिखा बहुत गहरी पी और वायु से उठती हुई तरङ्गों के समूहों तथा पक्षियों के कोलाहलों से ऐसी जान पड़ती थी मानों भगवान के केवलज्ञान महोत्सव में संतोष से नृत्य ही कर रही हो ॥६०॥ उस परिखा के भीतरी भूभाग को चारों ओर से यह लताबन अलंकृत कर रहा था जो सघन छाया से सहित था, लता, झाड़ी और वृक्षों से भरा हुआ था, पुष्पित लतामों पर बैठ कर गुजार करने वाले भ्रमरों से सुन्दर था, सब ऋतुओं के पुष्पों से सहित था और पक्षियों के कोलाहल से व्याप्त पा॥६१-६२॥ उस लतावन में क्रीडागिरि तथा शय्यानों से सहित वे 1.चितां ग. २. श्लोकोऽयं ग० प्रती एवास्ति ।
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१
* अष्टादश सर्गे
[ २३५
| विश्रामायामरादीनां भवन्ति तेजसाकुलाः ।। ६४ । चन्द्रकान्सशिलास्तत्र लताभवनमध्यगाः अतोऽध्वानं ततोऽतीत्य कियन्तं तां घरां शुभाम् । प्राकारः प्रथमो व तुङ्गी रम्यो हिरण्मयः ।। ६५ ॥ यस्योपरिणामावली | ताराततिरियं कि स्विदिस्याशङ्कास्पदं सताम् ॥ ६६॥ क्वचिप्तवघनच्छविः । क्वचिच्छावलसुच्छाय इन्द्रगोपनिभः क्वचित् । ६७१ रचितेन्द्रशरासनः । व्यभात् स नितरां शालो विद्युदापिञ्चरः क्वचित् ६८ 1 क्वचिद्ध सशुकै हिरो : * क्वचिच्च नुयुग्मकैः ।। ६६ ।। क्वचिच्च कल्पवल्लीभिबहिरन्तो विचित्रितः । हसन्निव बभौ सोऽतिसुन्दरो मणिरश्मिभिः ॥७०॥ महान्ति गोपुराण्यस्य त्रिभूमानि बभुस्तराम् । राजतानि सुरूप्याद्रेः शृङ्गाणीव स्पृशन्ति सम् ।। ७१ ।। पद्मरागमयैस्तुङ्गः शिख रेग्यमलङ्घभिः । दिशः पल्लवयन्तीव तानि रत्नांशुसंकुलैः ॥७२॥
क्वचिद्विपरिव्याघ्ररूपमिथुनवृत्तिभिः
क्वचिद्विद्र मसंघातः
क्वचिद्विचित्ररत्नांशु
निकुञ्ज सुशोभित होते हैं जहां बेवाङ्गनाथों के द्वारा सेवनीय ठण्डी ठण्डी वायु बहती रहती है ।। ६३||| वहां देषों आदि के विश्राम के लिये लताभवनों के मध्य में चन्द्रकान्स मरिण की वेदीप्यमान शिलाए हैं ||६४||
इसके भागे कितने ही मार्ग को उल्लंघ कर उस शुभ भूमि को सुवर्णमय रमणीय ऊंचा वह प्रथम कोट घेरे हुए था ।। ६५|| जिसके ऊपर लगी हुई मोतियों की देदीप्यमान माला सत्पुरुषों को ऐसी शङ्का उत्पन्न करती रहती है कि क्या यह ताराम्रों की पंक्ति है ? ।। ६६ ।। वह कोट कहीं मूं गानों के समूह से युक्त था, कहीं नवीन मेघ के समान श्यामल कान्ति से सहित था, कहीं हरी हरी घास के समान कान्ति से सुशोभित था, कहीं वीर बहूटी के समान लाल रंग का था, कहीं चित्र विचित्र रत्नों की किरणों से इन्द्रधनुष की रचना कर रहा था और कहीं बिजली के समान पीतवर्ण से युक्त होता हुआ प्रत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।। ६७-६८ ।। वह कोट कहीं युगलरूप से रहने वाले हाथी घोड़े और व्याघ्र की प्राकृतियों से, कहीं हंस तोता और मयूरों से तथा कहीं स्त्री पुरुषों के युगलों से सुशोभित हो रहा था ।। ६६ ॥ कहीं भीतर बाहर कल्पलतानों से चित्रविचित्र हो रहा था और कहीं रहनों की किरणों से प्रत्यन्त सुन्दर दिखने वाला वह कोट ऐसा जान पड़ता था मानों हँस ही रहा हो ॥७०॥
इस सुवर्णमय कोट में तीन तीन खण्ड के चांदी के बड़े बड़े गोपुर अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानों विजयार्ध के शिक्षर ही आकाश का स्पर्श कर रहे हों ।।७१|| वे गोपुर, प्रकाश को लांघने वाले रत्नों की किरणों से युक्त, पद्मराग मणिमय ऊंचे शिखरों से ऐसे जान पड़ते थे मानों दिशाओं को पल्लवित - लहलहाते नवीन १ विरामामामरादीनां २ मयूरैः ३ खण्डत्रितययुक्तानि ।
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२३६ ]
श्री पार्श्वनाथ चरित * जगद्गुरोगुणानत्र गायन्ति देवगायना: । केचिच्छृण्वन्ति केचिच्च नृत्यन्ति परमोत्सवात् ।७३। भृङ्गारकलशान्दाद्या मङ्गलद्रव्यसंपदा । अष्टोत्तरशतं तेषु प्रत्येक गोपुरेष्वभाव ।।७४।। मारिणक्यरधिमजालातिपरिपिञ्जरिताम्बरा: ।प्रत्येक तोरणास्तेषु शतसंख्या बभासिरे ।।७।। निसर्गभास्वरे काये विभोः स्वानवकाशताम् । मत्लेवाभरगणान्यस्थु रुद्धावान्यनुतोरणम् ।।७६।। निधयो नव पद्माद्या वैराग्यादवधीरिताः । स्वामिना स्वयंवैवात्र तद्वारोपान्त माश्रिताः ।७७॥ तेषामन्तर्महावोथेरुभयोः पार्श्वयोरभूत् । नाटयशालाद्रयं दिक्षु प्रत्येक चतसृष्वपि ।।७।। तप्तहेममयस्तम्भो शुद्धस्फाटिकभित्तिको । तौ रत्नशिखरस्तुङ्ग स्तिसृभिभूमिमिः परै '१७६।। गीतवाद्यादिशब्दोध रेजतुर्नाटयमण्डपी । गजेन्ताविव गीर्वाणाप्सरोभि: परिपूरितो ।।८।। नाटयमण्डपरङ्गेषु मृदङ्गादिसुवादनः । नृत्यन्त्यमरनर्तक्यो जिनभक्तिभराङ्किता: ।।१।। किन्नयः किन्नरैः सार्द्ध वीणावादेन सत्स्वनम् । मान्ति जिनमलस्य जयं कर्मारिघातजम् ।।२।। लाल पत्तों से युक्त ही कर रहे हों ॥७२॥ इग गोपुर में देशों के भक्ष्य जगद्गुरु-भगवान के गुण गाते हैं, कोई सुनते हैं और कोई बहुत भारी हर्ष से नृत्य करते हैं ।।७३। उन गोपुरों में प्रत्येक गोपुर के समीप मृङ्गार कलश और दर्पण प्रादि मङ्गल द्रव्य एक सौ पाठ एक सौ पाठ की संख्या में सुशोभित थे ॥७४॥ उन गोपुरों में प्रत्येक के प्रागे मरिणयों के किरणसमूह से प्राकाश को अत्यधिक पीला करने वाले सौ सौ सोरण सुशोभित हो रहे थे ॥७५॥ प्रत्येक तोरण के समीप भाभूषण विद्यमान थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानों स्वभाव से देदीप्यमान भगवान के शरीर में अपने लिये स्थान न जान कर प्राकाश को घेरे हुए हो विद्यमान थे ॥७६॥ वैराग्य के कारण भगवान के द्वारा तिरस्कृत पद्म प्रावि नौ निधियां अपनी ईर्ष्या से ही मानों उन गोपुर द्वारों के समीप प्रा डटी थीं ॥७७।।
उन गोपुरों के बीच में जो महा वीथी-लम्बी चौड़ी सड़क थी उसके दोनों ओर चारों दिशाओं में दो दो नाट्यशालाएं थीं ॥७८॥ वे नाट्यशालाए तपाये हुए सुवर्ण से निर्मित सम्भों से सहित थी, उनकी दीवालें शुद्ध स्फटिक की थीं । ऊचे ऊचे रत्नमय शिखरों और तीन तीन खण्डों से वे बड़ी भली प्रतीत होती थीं ।।७६।। देव देवाङ्गनाओं से भरी हुई थे नाटयशालाएंगीत तथा बाजों आदि के शब्द समूहों से ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों गर्जना ही कर रही हैं ।।८। उन नाट्यशालाओं को रङ्गभूमियों में जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से भरी हुई देव नर्तकियो, मृवङ्ग आदि उत्तम बाजों की ताल पाकर नृत्य कर रहीं थीं ।।१॥ किन्नरियां किन्नरों के साथ मिल कर वीणा की मधुर ध्वनि से कर्मरूपी शत्रु के घात से उत्पन्न जिनराजरूपी मल्ल के विजयगीत गा रही थीं। शा।
१. परः ख
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MaRKAmar.Amar
* अष्टावश सर्ग . सतो धूपघटो द्वौ द्वौ घीथीनामुभयोदिशोः । सुगन्धीकृतदिग्भागौ धूपधूमर्मरुदर्शः ॥३॥ सत्र चोप्यन्तरेष्वासाचतस्रो वनवीथयः । सर्वतु फलपुष्पादिपूर्णतुङ्ग मान्विताः ॥४॥ अशोकसप्तपर्णाख्यचम्पकाम्रमहीरुहाम् । रेजुस्तानि वनान्युच्दैनन्दनानोव सन्ततम् ।।८।। बनानां मध्यभागेषु क्वचिद्वाप्योऽम्बुसंभृताः । चतुरुकोणास्त्रिकोणाश्च पुष्करिण्यः क्वचित्पराः८६ बचिवाणि रम्यारिण क्वचिच्च कृतकाद्रयः । प्रेक्षागारा: क्वचिद्दिव्याः क्वचिदा कोडमण्डपाः ।०७। चित्रशाला: क्वचिद्रम्या देवानां मिथुन ताः । एकशालाद्विशालाद्याः क्वचित्प्रासादपंक्तयः । ८८।। मचिच्च झाड्वलाभूमिरिन्द्रगोपः क्वचित्तताः । सरोस्यमलवारीरिण क्वचिन्नद्यः ससंकताः ।।६।। अशोकवनमध्ये स्यादशोकास्यो दुमो महान् । हैमं त्रिमेखलं पीठं रम्यं तुङ्गमधिष्ठितः ।।६।। प्रषोभागे जिनेन्द्रस्य प्रतिबिम्बविभूषितः । चतुर्दिस सुररर्यश्चत्यवृक्षाभिषः परः ।।६।। सप्सपर्णवनेऽप्यासीत्सप्तपर्णद्र मो महान् । चम्पकाम्रतरू एवं ज्ञेयो शेषवनद्धये ।।१२।।
तदनन्तर गलियों को दोनों दिशाओं में वायु के यश उड़ते हुए धूप के धुमां से विशात्रों को सुगन्धित करने वाले दो दो धूप घट थे ॥३॥ उन गलियों के बीच में चार वन बोथियां और थीं जो समस्त ऋतुओं के फल पुष्प आदि से परिपूर्ण ऊचे ऊंचे वृक्षों से सहित थीं ॥४॥ अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और पाम्रवृक्षों के वे ऊंचे ऊंचे धन निरन्तर नन्दन वन के समान सुशोभित हो रहे थे ॥५॥ उन वनों के मध्यभाग में कहीं जल से भरी हुई चतुकोण और त्रिकोण वापिकाएं थों तथा कहीं उत्कृष्ट छोटे छोटे तालाब थे ॥६।। कहीं रमणीय महल थे, कहीं कृत्रिम क्रीडा गिरि थे, कहीं सुन्दर प्रेक्षागृह-देखने के स्थान और कहीं सुन्दर बन निकुञ्ज थे। कहीं देव देवियों से भरी हुई सुन्दर चित्रशालाएं थीं, कहीं एक खण्ड, दो खण्ड आदि की भवन पंक्तियां थीं ।।८७-८८॥ कहीं इन्द्रगोप नामक लाल लाल कीड़ों से व्याप्त हरी घास की भूमि थी, कहीं स्वच्छ जल से भरे हुए तालाब थे और कहीं रेसीले तटों से युक्त नदियां थीं ।
अशोक वन के मध्य में अशोक नामका एक बड़ा वृक्ष था जो तीन मेखला. वाले रमणीय तथा अंचे स्वर्णमय पीठ पर स्थित था ॥१०॥ यह बड़ा वृक्ष चैत्यवृक्ष कहलाता था, चारों विशामों में नीचे स्थित जिनप्रतिमानों से विभूषित था तथा देवों के द्वारा पूज्य था ॥१॥ सप्तपर्ण वन में भी सप्तपर्ण नामका महान वृक्ष था। इसी प्रकार चम्पकवन और पाम्रवन की सम्पदा बढ़ाने के लिये उनके मध्य में चम्पक वृक्ष और पाम्रवृक्ष जानना चाहिये ॥२॥
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२३८ ]
* भो परश्वनाथ चरित
मालवस्त्रमयूराजहंसवीनमृगेशिनाम्'
॥ वृषभे भेन्द्रच कारणां ध्वजाः स्युदेशषेत्यपि ॥६३॥ शतमष्टोत्तरं ज्ञेयाः प्रत्येकं केतवोऽमलाः । एकैकस्यां दिशि प्रो वास्तरङ्गा इव वारिषेः ॥ २४॥ समीरान्दोलितस्तेषां ध्वजानामंशुकोस्कर: | व्याजुहूषुरिवाभाति जिनाच्चयै खगामरानुम स्रग्ध्वजेषु स्रजो रम्याः सौमनस्योऽवलम्बिरे । वस्त्रतुषु सूक्ष्मांशुकानि शोभाकराणि च ॥ ६६॥ मयूरादिव जेष्वेवं मयूरादिसुमूर्तयः । सर्वेषु लम्बिता ज्ञेया दिव्यरूपधराः पराः ॥१७॥ इत्यमी केतवो दिव्या मोहारतिजयोज्जिताः । बभुस्त्रिभुवनं श्वयंसे की कर्तुं मिवरेखताः DESI एकस्य दास सर्व तु पिण्डाः केतवः पराः । अशीतियुतमेकं सहस्र युजिनेशिनः ॥ २६ ॥ एकीकृताः समस्तास्ते चतसृष्वपि दिक्षु हि । विंशत्यामा त्रिचत्वारिंशच्छतानि भवन्त्यपि । १०० । ततोऽनन्तरमेवान्तर्भागेऽयाद्वितीयो महान् । श्रीमानर्जुननिर्माण: शालस्तुङ्गो मनोहरः।। १०१ । । पूर्वगोपुराण्यस्य तोरणाभरणानि च । प्रागुक्ता वनाः सर्वा मा फाले विदुर्बुधाः । १०२ ।
गरुड़, सिंह, वृषभ, हाथी और चक्र के चिह्न से दश प्रकार की निर्मल ध्वजाए एक एक विशा एक प्राठ एक सौ आठ थीं तथा समुद्र की ऊंची उठी हुई लहरों के समान सुशोभित हो रही थीं ।। ६३-६४|| वायु से हिलता हुआ उन ध्वजाओं का वस्त्र समूह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों जिनेन्द्र भगवान् की पूजा के लिये देव और विद्याधरों को बुलाना ही चाहता हो ||२५|| माला से चिह्नित ध्वजानों के ऊपर फूलों की मनोहर मालाएं लटक रही थीं। वस्त्र के चिह्न से चिह्नित पताकाओं पर शोभा की खानस्वरूप सूक्ष्म वस्त्र लटक रहे थे । इसी प्रकार मयूर प्रादि के चिह्नों से सुशोभित समस्त व्वजाओं पर मयूर आदि की सुन्दर मूर्तियां अवलम्बित थीं । ये सब मूर्तियां सुन्दर रूप को धारण करने वाली अतिशय श्रेष्ठ थीं ।। ६६-६७।। मोहरूपी शत्रु को जीत लेने के उपलक्ष्य में फहराई हुई ये fror पताकाएं ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों तीनलोक का ऐश्वर्य एकत्रित करने के लिये ही उच्चत हों ।। ६८ ।। एक दिशा में संमिलितरूप से जिनेन्द्र भगवान् की समस्त उत्कृष्ट ध्वजाए एक हजार अस्सी थीं ॥६६॥ चारों दिशाओं में एकत्रित समस्त ध्वजाए तेतालीस सौ बीस थीं ।। १००॥
माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, चिह्नित दश प्रकार की ध्वजाएं थीं। ये
में
इसके श्रागे मध्यभाग में चांदी से निर्मित शोभा संपन्न, मनोहर ऊंचा दूसरा महान कोट था । १०१ ।। इस द्वितीय कोट के गोपुर तोरण, प्राभूषरण तथा पहले कही हुई समस्त aiना प्रथम कोट के समान जानना चाहिये ।। १०२ ।। इस कोट की महावीथी चौड़ी ० ० ० ४. रक्त
१. वीनां पक्षिणाम् इन: स्वामी बीनः गरुड इत्यर्थ: २. श्रह्नमिच्छुः ३. प्रभवन्त्यपि निर्माणः श्रीमानच्चन निर्माणः ख० प० ।
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* अष्टादश सगं
[ २३९
महावीथ्युभयान्तयोः ॥ १०३॥
पीठस्योपरि चैतेषां प्रतिमा दिश्चतुष्टये क्षीरोद सलिलार्थ स्ता अष्टभेवैर्महार्चनः
अत्रापि पूर्ववज्ज्ञेयं नाटयशालाद्वयं परम् । तद्वक्षूपघटद्वन्द्व ततो वीध्यन्तरेषु स्याद्वनं करूपमहीरुहाम् । नानारत्नप्र मौधर्भास्वरं वा भोगभूतलम् ।। १०४।। तंत्र कल्पद्र ुमास्तुङ्गाः सच्च्छायाफलशालिनः । नाना सग्वस्त्रभूषाद्य शोभन्तेऽतिमनोहराः ११०५। नेपथ्यानि फलान्येषां स्युरंशुकानि पल्लवाः । मालाः शाखावलम्बिन्यो दृढप्रारोहयष्टयः ।। १०६ ।। ज्योतिरङ्गेषु ज्योतिष्का दीपाङ्गषु च नाकिनः । भावनेन्द्राः स्रग षु यथायोग्यं दधुर्धृतिम् ।। १०७ ॥ प्रशोक सप्तपर्णाख्यचम्पकाश्राभिषा इमे । 'सिद्धार्थपादपा ज्ञेया: सिद्धार्थाधिष्ठिताः पराः १०८ चतुर्गोपुर संबद्ध शालत्रितय वेष्टिताः । छत्रचामरभृङ्गा रकलशार्थ : प्रशोभिताः ॥ १०६॥ । दीप्राङ्गा मरिण निर्माणा जिनेन्द्राणां विरेजिरे। ११० । | प्रर्चयन्ति सुरेन्द्राद्याः प्रणमन्ति स्तुवन्ति च ।। १११। ततो बभूव पर्यन्ते बनानां वनवेदिका । चतुभिर्गोपुरैस्तुङ्गः स्पृशन्तीय नभोऽङ्गणम् । । ११२/ घण्टाजालानि लम्बानि मुक्तालम्बानि कानि च । पुष्पदामानि संरेजुरमुष्यां गोपुरं प्रति ।।११३।। गली के दोनों ओर दो वो उस नाव्यताएं और घटों का सल पहले के समान जानना चाहिये ।। १०३ ॥ तदनन्तर वीथियों के मध्य में कल्पवृक्षों का वन था जो माना रत्नों की कान्ति के समूह से देदीप्यमान होता हुआ भोगभूमि के भूजल के समान सुशोभित हो रहा था ।। १०४ ।। उस वन में उत्तम छाया श्रोर फलों से सुशोभित ऊंचे ऊंचे कल्पवृक्ष ये जो अत्यन्त मनोहर थे तथा नाना मालानों वस्त्रों और प्राभूषण प्रावि से सुशोभित हो रहे थे ।। १०५ ॥ श्राभूषण, इन वृक्षों के फल थे, वस्त्र, पल्लव थे और शाखाओं पर लटकने बाली मालाएं, दृढ अङ्क र यष्टियां थीं ॥ १०६ ॥ ज्योतिषी देव, ज्योतिरङ्गकल्प वृक्षों पर, देव, दोपाङ्ग वृक्षों पर और भावनेन्द्र मालाङ्ग वृक्षों पर संतोष धारण करते थे ॥१०७॥ प्रशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और पात्र नाम के ये वृक्ष चैत्यवृक्ष जानने योग्य हैं । ये सभी वृक्ष स्वयं उत्कृष्ट थे तथा सिद्ध भगवान् की प्रतिमानों से युक्त थे ।। १०६ ।। चार गोपुरों से युक्त तीन कोटों से घिरे हुए ये चैत्यवृक्ष, छत्र, चामर, मृङ्गार तथा कलश श्रादि मङ्गल द्रव्यों से सुशोभित थे ।। १०६ ।। इन चैत्यवृक्षों की चारों दिशाओं में पीठ के ऊपर देवीप्यमान, मरिनिर्मित जिनेन्द्र प्रतिमाएं सुशोभित हो रही थीं ॥ ११०॥ इन्द्रादिक देव, क्षीर सागर के जल आदि श्राठ महाद्रव्यों से उनकी पूजा करते हैं, प्रणाम करते हैं और स्तुति भी करते हैं ।। १११॥
तदनन्तर वनों के पर्यन्त भाग में वनवेविका थी जो ऊंचे ऊंचे चार गोपुरों से ऐसी जान पड़ती थी मानों प्राकाशाङ्गण का स्पर्श ही कर रही हो ।।११२।। इस वनवेदिका
१. सिद्धार्था स्व० ।
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२४० ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित . राजतानि बभुर्वेद्या गोपुराण्यष्टमङ्गलैः । वाद्यं र्गीतैश्चनृत्ताद्य मरिणभूषणतोरणः ॥११॥ ततो वीथ्यन्तरालस्था विविधा: केतुपंक्तयः । प्रलंचक्र : परां भूमि हे मस्तम्भारलम्बिताः।।११।। सुस्थास्ते रत्नपीठेषु ध्वजस्तम्भा महोनताः । विभोः क्रोधाधरीणां विजयं वक्तुभिवोद्यताः।११६। मानस्तम्भाश्च प्राकाराः सिद्धार्थचत्यपादपाः । स्तूपाः सतोरणाः स्तम्भाः केतवी वनवेदिकाः।११७ प्रोक्तास्तीर्थकरोत्सेधादुत्तुङ्गेन द्विषड्गुणाः । देानुयोगमेतेषामाहू रोन्द्रय गणाधिपाः ॥११॥ हरियां पर्वतानां च वनानामुन्नतिभुवि । सर्वेषां वरिणतषव भीजिनागमकोविदः ।।११६।। भवेयुरद्रयो रुन्द्राः स्वोच्छ्रयादष्ट संगुणम् ' । स्तूपानां रौन्द्रयमुत्सेधात्साधिकं ज्ञानिनो विदुः।१२० विस्तार वैदिकादीनामुन्ति श्रीगणाधिपाः । उत्सेवस्य चतुर्भाग द्वादशाङ्गान्धिपारगा: ।।१२१॥ क्वचिद्वाप्य: क्वचिनद्य: क्वचिसकतमण्डलम् । क्वचिसभागृहाणीति रेजस्तत्र बनान्तरे ।।१२२।। वनवीयोमिमामेव वव्र'ऽसौ वनवेदिका । तुङ्गा हेममया दिव्या चतुर्गोपुरसंयुता ।। १२३॥
के प्रत्येक गोपुर पर घण्टाओं के जाल, लटकती हुई मोतियों की मालाए तथा पुष्पमालाएं सुशोभित हो रही थीं ॥११३॥ वनवेदिका के रजत निमित गोपुर, अष्ट मङ्गल द्रव्यों, बाजों, गीतों, नृत्यों तथा मरिणमय प्राभूषणों और तोरणों से सुशोभित हो रहे थे ।११४॥ तदनन्तर वीथियों के अन्तराल में स्थित उत्कृष्ट भूमि को, सुवर्णमय स्तम्भ के अग्रभाग पर संलग्न नाना प्रकार की ध्वजपंक्तियां प्रलंकृत कर रही थीं ॥११५॥ रत्नमय पोठों पर अच्छी तरह स्थित वे बहुत ऊंचे ध्वजस्तम्भ ऐसे जान पड़ते थे मानों 'भगवान् ने क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है' यह कहने के लिये हो उधत हुए हों ।।११६॥
मानस्तम्भ, कोट, चैत्यवृक्ष, स्तूप, तोरण, स्तम्भ, पताकाएं, और बनवेदिका प्रादि जो पहले कहे गये हैं वे ऊंचाई की अपेक्षा तीर्थकर की ऊंचाई से बारह गुण होते हैं । गणधर महाराज ने इन सबकी लम्बाई तथा गहराई का भी यथा योग्य वर्णन किया है ॥११७-११८॥ श्री जिनागम के ज्ञाता विद्वानों ने भवनों, पर्वतों तथा धनों को पृथिवी पर जो ऊंचाई है उसका वर्णन किया ही है ॥११६। पर्वत अपनी ऊंचाई से पाठ गुरणे गहरे थे तथा ज्ञानीजन स्तूपों की गहराई ऊंचाई से कुछ अधिक जानते हैं ॥१२०॥ द्वादशाङ्गरूपी सागर के पारगामी श्री गणधर देव वेविका प्रादि के विस्तार की ऊंचाई का चतुर्थ भाग कहते हैं ।।१२१॥ उस कल्पवृक्ष वन के मध्य में कहीं वापिकाए हैं, कहीं रेतीले तट हैं, और कहीं सभागृह सुशोभित हो रहे हैं ॥१२२॥ इसी धन वीथी को वह धमवेदिका घेरे हुए है जो ऊंची है, सुवर्णमय है, देवोपनीत अथवा सुन्दर है तथा चार
१ दशमंगुणम् स्व० २. मुन्नति ग• ।
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अष्टावश सर्ग 2
[ २४१ पस्यां पूर्वोक्तमानानि गोपुरारिण भवन्ति च । प्रामुक्ततोरणादीनि माङ्गल्यद्रव्यसंपदः ॥१२४।। प्रथोल्लच प्रतोली तां वीभ्यभूपरितः परा । नानाप्रासादपंक्तिश्च सुरशिल्पिविनिर्मिता ।।१२।। तप्तधामीकरस्तम्भा वचाधिष्ठानबन्धना: । चन्द्रकान्तमहारत्नभित्तयो रश्मिसंकुला: ।।१२६॥ सुहा द्वितलाः केचित् त्रिचतुर्भूमिकाः परे । चन्द्रशालयुताः केचिदलभिच्छन्दभूषिताः ।।१२७॥ से प्रासादा विराजन्ते स्वदीप्तिमग्नमूर्तयः । रत्नकूटैश्च रम्यौघेज्योत्स्नाभिनिर्मिता इव ।१२८) कुटागारस भागेहप्रेक्ष्यशाला बभुः क्वचित् । सशय्याः सासनास्तुङ्गसोपानाः सुमनोहराः ।।१२।। पन्नगा: किन्नरा देवाचारमन्त खगाधिपाः । गानेषु केचिदासक्ताः केचिट्ठादित्रदादनः ।।१३०॥ वीथीनां मध्यदेशेऽपि नवस्तूपाः समुद्ययुः । पद्मरागमयास्तुङ्गा छत्रध्वजविभूषिताः ॥१३१।। सिद्धार्हत्प्रतिबिम्बोधनिचिता' दिव्यमूर्तयः । तेजः पुजा इवाभान्ति ते सर्वे मङ्गलधिया ।।१३२॥ गोपुरों से संयुक्त है ॥१२३॥ इस वन बेदिका में पहले कहे हुए प्रमाण से युक्त गोपुर, पूर्वोक्त तोरण प्रादि तथा मङ्गलद्रव्यरूप संपदाएं होती हैं ॥१२४।।
तदनन्तर उस प्रतोली को उल्लंघकर अर्थात् गोपुरों से प्रागे चल कर उस्कृष्ट बीपी है और उस वीथी के दोनों प्रोर नाना प्रकार के भवनों को वह पंक्ति है जो देवरूप कारीगरों के द्वारा निर्मित है, तपाये हुए सुवर्णमय खम्भों से सहित है, बञमय नींव से युक्त है। चन्द्रकान्त मरिण निमित दीवालों से सुशोभित है और किरणों से व्याप्त है ॥१२५-१२६॥ उस प्रासादपंक्ति में कोई भवन दो खण्ड के हैं कोई तीन चार खण्ड के हैं, कोई चन्द्रशालानोंउपरितनछतों से युक्त हैं और कोई अट्टालिकाओं तथा छन्दगृहों से विभूषित हैं ॥१२७॥ जिनकी प्राकृति अपनी ही बीप्ति में निमग्न हो रही है ऐसे वे भवन, रत्नमय शिखरों पोर किरणों के समूह से ऐसे सुशोभित होते हैं मानों चांदनी के द्वारा ही बनाये गये हों।१२। कहीं शय्यानों से सहित, प्रासनों से सहित, ऊची सीढ़ियों से सहित तथा अत्यन्त मनोहर कूटागार, भूलभुलया वाले महल, सभागृह और प्रेक्ष्यगृह-प्रजायबघर सुशोभित हो रहे हैं ॥१२६॥ उन भवनों में नागकुमार तथा किन्नर जाति के वेव और विद्याधर क्रीडा करते है। क्रीडा करने वाले देव और विद्याधरों में कोई गाने में प्रासक्त है तथा कोई बाजों के बजाने में संलग्न हैं ।।१३०॥
वीथियोंगलियों के बीच में नव स्तूप भी खड़े हुए हैं जो पनराग मरिणयों से निमित हैं, चे हैं, छत्र और ध्वजानों से विभूषित हैं, सिद्ध तथा प्रहन्त भगवान की प्रांतमात्रों के समूह से व्याप्त हैं, मनोहर प्राकृति वाले है और मङ्गलबध्यरूपी संपदा से ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानों तेज के पुञ्ज ही हों ॥१३१-१३२।। उन स्तूपों पर जो जिनेन्द्र १. प्रतिनिम्बोच्च ख.
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२४२ ]
.श्री पार्श्वनाथ चरित -
जिनेन्द्रप्रतिमास्तेष्वभिषिच्याभ्यर्च्य भक्तितः । स्तुत्वा प्रदक्षिगीकृत्यार्जयन्ति विबुधा: शुभम् ।१३३ स्तूपहावलीरुद्धां घरामुल्लङ्घध तां ततः । नभःस्फटिक शालोऽभूत् शुद्धस्फाटिकरत्नजः।।१३४।। दिक्ष झालोत्तमस्यास्य वृत्तस्य गोपुराण्यपि । पद्मरागमयान्युश्चच्छ्रितानि बस्तराम् ।।१३।। प्रचापि पूर्ववज्ज्ञेया मङ्गलद्रव्य संपद: । द्वारोपान्ते च दातारो निधयोभोगमञ्जसा ।।१३६। छत्रचामरतालध्वजादर्शसुप्रतिष्ठकाः । भृङ्गारकलशा एते भवन्ति प्रतिगोपुरम् ।।१३७।। गोपुरेषु सुरास्तेष्वासन् गदादिकङ्किता: । क्रमाच्छालत्रयेद्वाःस्था भीम भावनकरूपमाः।।१८।। सतः स्फाटिकशालाग्राज्जिनपीठान्समायताः । भित्तयः षोड़शाभूवन्महावीध्यन्त राश्रिताः ।।१३६।। माधपीठतलालग्ना निमलस्फाटिकोद्भवाः । प्रसरश्मिजालस्ता व्यधुनित्यं दिनश्रियम्।।१४।। तासामुपरि विस्तीणों वियत्स्फाटिकनिर्मितः । रत्नस्तम्भर्महातुङ्गो दिव्यः श्रीमण्डपोऽभवद ।।१४१॥ यतोऽत्र त्रिजगनायः प्रत्यक्षं पुरा पं. स्त्री-मिलामी ततः श्रीमण्डपोऽस्त्ययम् । १४२
बेब की प्रतिमाएं हैं उनका भक्तिपूर्वक अभिषेक, पूजन, स्तुति और परिक्रमा कर देष उत्तम पुण्य का संचय करते हैं ।।१३३॥
उसके प्रागे स्तूप तथा भवनों की पंक्ति से युक्त उस भूमि को उलंघ कर शुद्ध स्फाटिक रत्नों से निर्मित आकाश स्फारिक मरिणयों का कोट है ।।१३४॥ यह कोट शालाओं से उत्कृष्ट तथा गोलाकार है। इसके पद्मराग मरिण निर्मित ऊचे ऊचे गोपुर भी अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१३५।। इन गोपुरों पर भी पहले के समान मङ्गल द्रव्य रूप संपदाए मानना चाहिये । साथ ही द्वारों के समीप वास्तविक भोगों को देने वाली निधियां भी विद्यमान रहती हैं ॥१३६॥ छत्र, चामर, ताडव्यजन, ध्वजा, दर्पण, ठौना, भृङ्गार और कलश ये मङ्गलमय पदार्थ प्रत्येक गोपुर के समीप उपस्थित रहते हैं ।।१३७। उन गोपुरों पर गदा आदि हाथ में लिये हुए देव द्वारपाल थे। पूर्वोक्त तीन कोटों पर क्रम से व्यन्तर, भवनवासी, और कल्पवासी इन्द्र द्वारपाल थे॥१३॥
तदनन्तर स्फटिकमरिणमय कोट के आगे से लेकर जिनपीठ तक सम्बी सोलह बीवालें हैं जो महावीथियों के अन्तराल में स्थित हैं ॥१३६।। जो प्रथम पीठ से संलग्न हैं तथा निर्मल स्फटिक मरिणयों से जिनकी उत्पत्ति हुई हैं ऐसी वे दीवाले फंसते हुए किरण समूह के द्वारा निरन्तर दिन की शोभा को उत्पन्न करती रहती हैं ।।१४०॥ उम दीवालों के ऊपर प्राकाशस्फटिक से निमित, रत्नमयस्तम्भों से सहित, बहुत ऊँचा, विस्तृत तथा सुन्दर श्रीमण्डप या॥१४१॥ जिसकारण इस मण्डप में त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्रदेव,
१.जैनेन्द्री ग. २. द्वारपालाः ।
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अष्टादश सर्ग
२४३ तद् समूभिमध्ये वभावाचा पीठिका परा ।वैडूर्यरत्ननिर्माणा प्रोत्तु ङ्गा मणिरश्मिभिः ।।१४३॥ तस्यां पोग्णसोपानमार्गाः स्युः षोडशान्तराः । चतुदिक्षु सभाकोष्ठप्रवेशेषु च निर्मलाः ।।१४४॥ पीठिका तामलंचक्र रष्टमङ्गलसंपदः ।धमंचकारिण वोढानि दीप्तानि यक्षमूर्धभिः ॥१४॥ सहस्रारः स्फुरद्दीप्तं रेजिरे तानि सन्ततम् । उद्यतानीव भव्यानां धयाँ प्रोक्तुशुमा गिरम्।१५६॥ तस्योपरि महापीलीयममा भन्न विश्व हिरमयं तुम स्पर्द्धमानमिव रवेः ।।१४७।। चक्रेभवृषभाम्भोआशुकसिंहगरुन्मताम् । माल्यस्येति ध्वजा रेजुस्तस्योपरि तले पराः ॥१४|| सर्वरत्नमयं पीठं तस्योपर्यभवत्पृथु । तृतीयं विस्फुरद्रत्नरोचियस्ततमश्चयम् ॥१४॥ विमेखलमिद पीठं परार्थ रत्ननिर्मितम् । जगत्साराकरं वाभारित्रजगत्सारवस्तुभिः ॥१५०।। तत्र गन्धकुटी पृथ्वी विश्वलक्षम्याकरा परा । रैराड निवेशयामास दिव्यगन्धमया परा ॥१५॥ बिभ्रती सार्थक नाम सा बभौ पुष्पदामभिः । सुगन्धधूपघूमंपच सुगन्धीकृतदिक्चया ॥१५२॥ प्रत्यक्ष ही मनुष्य और देवों के द्वारा तीन लोक की लक्ष्मी का स्वीकृत करते पे इसकारण यह श्रीमण्डप कहलाता था ॥१४२।।
उस श्रीमण्डप से रुकी हुई भूमि के मध्य में बैडूर्य मरिणयों से निर्मित तथा मरिणयों को कान्ति से अत्यन्त ऊंची पहली उत्कृष्ट पीठिका है ॥१४३॥ उस पीठिका को चारों दिशाओं में सभागृहों में प्रवेश करने के लिये निर्मल सोलह सोलह सौडिया है और सोलह ही अन्तर हैं ॥१४४॥ अष्ट मङ्गल द्रव्य तथा यक्षों के मस्तक द्वारा धारण किये हुए देवीप्यमान धर्मचक्र उस पीठिका को अलंकृत कर रहे हैं ॥१४५।। देदीप्यमान हजार प्रारों से वे धर्मचक ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों भव्य जीवों को निरन्तर धर्मयुक्त शुभ वाणी सुनाने के लिये उधत ही हों ।।१४६॥ उस प्रथम पीठ के ऊपर द्वितीय महापीठ था को शुभ था, सुन्दर था, सुवर्णमय था, ऊंचा था और सूर्य से स्पर्धा करता हुम्रा सा जान पड़ता था ।।१४७।। उसके ऊपर चक्र, हाथी, वृषभ, कमल, वस्त्र, सिंह, गरुड और माला के चिह्नों से सहित उत्कृष्ट ध्वजाए सुशोभित हो रही थीं ।।१४८।। उस द्वितीय पीठ के ऊपर सर्वरत्नमय तृतीय विस्तृत पीठ था, जो देवाप्यमान रत्नों की किरणों से अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाला था ।।१४६।। तीन मेखलाओं वाला यह पीठ श्रेष्ठ रत्नों से निर्मित था और तीन जगत की सारभूत वस्तुओं से ऐसा जान पड़ता था मानों तीन जगत् को श्रेष्ठ वस्तुओं का प्राकर-खान ही हो ॥१५॥
उस तृतीय पीठ पर विशाल गन्धकुटी थी, जो समस्त लक्ष्मी की खानस्वरूप यो, दिव्यगन्ध से युक्त थी और धनपति-कुबेर ने जिसकी रचना कराई थी ।१५१। पुष्पमालाओं
। कुबेरः ।
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२४४
• श्री पाश्वनाथ चरित. रत्नाभरणमालाभिमुक्ताजालेwभाच्च सा । जित्वा मेरुश्रियं विश्वमङ्गलद्रव्यसंपदा ।।१५।।। तस्या मध्ये स्फुरद्रत्नरश्मिव्याप्तदिगन्तरम् । नानामणिप्रभाकीर्णं तुझं सिंहासनं भवेत् ।। ५५४।। विष्टरं तदलंचक्रे श्रीपार्यस्त्रिजगद्गुरुः । अस्पृशंस्तत्तलं स्वेन महिम्ना चतुरङ्ग लैः ।।१५।।
मालिनी
इति निजमतिशक्त्या शास्त्रदृष्टया समासात् समवसरण दिज्य कीर्तितं यस्य किञ्चित् । त्रिभुवनपतिभर्तु यच्च तत्को नृ शक्तो गदितुमखिलमेवान्यो गणेशारस नोऽग्यात् ।।१५६ ।
शार्दूलविक्रीरितम् कि मानुः किमु राशिरेव यशसा कि वा सुतेजोनिधिः
कि वा विश्वकरो जगत्त्रयगुरु: किं वा परब्रह्मराट् । कि पुण्याणुचयः स्थितः सदसि यः किं धर्मराजो महा
नित्यन्तःप्रवितरणः सुरवरदृष्ट: स नोऽस्तु धिये ।।१५७॥
तथा सुगन्धित घुप के धुएं से समस्त विशात्रों के समूह को सुगन्धित करने वाली वह गन्ध कुटी सार्थक मामको धारण करती हुई खुशोभित हो रही थी। गरिमनस यामवरणों की पंक्तियों, मोतियों के समूहों तथा समस्त मङ्गल द्रव्य रूपो संपदा से वह गम्धकुटी मेर पर्वत की लक्ष्मी को जीत कर प्रत्यधिक सुशोभित हो रही थी ।।१५३॥ उस गन्धकुटी के मध्य में देदीप्यमान रत्नों की किरणों से दिशात्रों के अन्तराल को व्याप्त करने वाला तथा नाना मरिणयों को प्रभा से युक्त 'चा सिंहासन था ॥१५४।। तीन जगत् के गुरु श्री पाश्र्वनाथ भगवान अपनी महिमा के द्वारा चार अंगुल की दूरी से उसके तलभाग का स्पर्श न करते हुए उस सिंहासन के अलंकृत कर रहे थे ।।१५५।।
इस प्रकार अपनी बुद्धि को सामर्थ्य तथा शास्त्रावलोकन से त्रिजगत्पति पावं जिनेन्द्र के जिस समवसरण का किञ्चित् वर्णन हुअा है उसका संपूर्ण रूप से वर्णन करने के लिये गणधर के अतिरिक्त दूसरा कोन पुरुष समर्थ हो सकता है ? अर्थात कोई नहीं। वे पाश्वनाथ भगवान मेरी रक्षा करें ॥१५६॥ क्या यह सूर्य है, या यश की प्रशस्त राशि है ? क्या उसम सेज की निधि है ? अथवा सबको करने वाले तीन जगत् के स्वामी परम ब्रह्मराम हैं ? क्या पुण्य परमाणुनों का समूह है ? प्रथया सभा में स्थित महान धर्मराज हैं इस प्रकार हृदय में तर्करा करने वाले इन्द्रों ने जिन्हें देखा था वे पार्श्वनाथ भगवान् हम लोगों की लक्ष्मी के लिये हों ।।१५७१।
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• अष्टादश सर्ग .
[ २४५
स्त्रग्धरा सर्वज्ञः सर्वदर्शी गुरणगगाजलधिमुक्तिकान्तो जिनेन्द्र:
पूज्यः स्तुत्यश्च बन्यस्त्रिभुवनतिभिः सर्वशक्त्या मयापि । कमध्नो धर्मकर्ता भयरहितकरोऽनन्तशर्मकभोक्ता
यः सोऽयं विश्वनाथो भवभय मधनः स्वश्रियं मेऽत्र दद्यात् ।। १५८।।
इति भट्टारकश्रीसकलकीतिबिमिले श्रीपानमा सति समवसरणादानी नामाष्टादशः सर्ग, ।१८।।
जो सर्वश है, सर्वदर्शी है, गुरण समूह के सागर हैं, मुक्तिकान्ता के पति हैं, जिनेन्द्र हैं, तीन लोक के स्वामियों तथा मेरे द्वारा भी सम्पूर्णशक्ति से पूज्य, स्तुत्य तथा वन्दनीय हैं, कर्मों का नाश करने वाले हैं, धर्म कर्ता हैं, भय रहित करने वाले हैं, अनन्तसुख के अद्वितीय भोक्ता है, सब के स्वामी हैं तथा संसार का भय नष्ट करने वाले हैं वे पाश्र्धनाथ भगवान इस जगत् में मुझे अपनी अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी प्रदान करें ।।१५८।।
इस प्रकार भट्टारक श्रीसकल कौति द्वारा विरचित श्रीपार्श्वनाथचरित में समयसरण का वर्णन करने वाला अठारहवा सर्ग समाप्त हुभा ॥१८॥
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२४६ ]
● प्रोपाथ चरित #
एकोनविंशतितमः सर्गः
,
श्रीमते विश्वनाथाय सर्वज्ञाय जिनेशिने | त्रिजगद्गुरवे मूर्ध्ना नमोऽस्तु सर्वदर्शिने ॥१॥ श्रथाष्टप्रातिहार्याणि महान्ति स्युर्जगद्गुरोः । तन्मध्ये विष्टरं दिव्यं स्मात्पूर्ववरिणतं परम् || २ || समाप्त नभोभागात्सुमी' वृष्टिरभुता | मुक्ता देवकरैः संपूर्ण जिनास्थानमञ्जसा ||३|| गुन्मत्तानिभिः सारा गायन्तीव जिनोत्सवम् । दिव्यामोदाघनाशसुगन्धी कृतखभूतला |२४|| पर कलोत्पन्न मंरिपुष्प मनोहरः | दिव्यशाखा पाख्यैश्च मरुदान्दोलितः परैः ||५|| जिनाभ्याशे प्रकुर्वप्रियालोको नर्तनं महत् । व्यभादन्वर्थनामात्र त्रिजगच्छोकघातनात् ॥६।। परादर्थं मरकोटीभिः पिनद्धदण्डमास्टरम । छत्रत्रयं विभो नि जितादित्येन्दुसत्प्रभम् 11७1 रुरुचे सुम्दरं श्वेतं शुक्लध्यानशिखाचयम् । इवाभ्यन्तरपूर्णस्वाद्दणमद्वार निर्गतम्
गदा
एकोनविंशतितम सर्ग
जो अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी से सहित थे, सबके स्वामी थे, सर्वज्ञ थे, जिनेन्द्र थे, तीनों जगत् के गुरु थे, तथा सर्वदर्शी थे उन पार्श्वनाथ भगवान् को मेरा शिर से नमस्कार
॥१॥
प्रधानन्तर जगद्गुरु श्री पार्श्व जिनेन्द्र के प्राठ महाप्रातिहार्य प्रकट हुए । उस गन्धकुटी के मध्य में जिसका पहले वर्शन किया जा चुका है ऐसा उत्तम सुन्दर सिंहासन था || २ || प्रकाश से देवों के हाथों से छोड़ी हुई प्राश्चर्य कारक पुष्पवृष्टि समयसरप को अच्छी तरह व्याप्त कर पड़ रही थी || ३ || दिव्य गन्ध के द्वारा पापों को नष्ट कर जिसने श्राकाश और पृथिवीतल को सुगन्धित कर दिया था ऐसी वह श्रेष्ठ पुष्पवृष्टि गुजार करते हुए मतभ्रमरों से ऐसी जान पड़ती थी मानों जिनेन्द्र भगवान् के केवलज्ञान महोत्सव का गान ही कर रही हो ||४|| मरकतमणियों से उत्पन्न पत्रों, मनोहर मणिमय पुष्पों और वायु से हिलती हुई उत्कृष्ट दिव्य शाखा उपशाखाओं से जो जिनेन्द्र भगवान् के निकट बहुत भारी नृत्य करता हुआ सा जान पड़ता था ऐसा अशोकवृक्ष तीनों जगत् का शोक नष्ट करने से सार्थक नाम को धारण करता हुआ सुशोभित हो रहा था ।।५-६ ।। जो करोड़ों श्रेष्ठ मरियों से खचित दण्ड से देदीप्यमान हो रहा था, जिसने सूर्य और चन्द्रमा की उत्तम प्रभा को जीत लिया था, ओ सुन्दर था, श्वेत था और भीतर का स्थान परिपूर्ण हो जाने १. कुसुमानामियं कौनी ।
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. एकोनविंशतितम सर्ग .
[ २४७ जितज्योत्स्नान्धि फेनाद्येश्चतुःषष्टिसुचामरैः । हंसच्छदनि भैदिव्यर्यक्षदेवक गस्तैिः वौज्यमानो जिनेन्द्रोऽसौ भाति सिंहासने स्थितः । मुक्तिकान्ताकटाक्षेवा 'लक्ष्यो कृतवरोत्तमः ।।१०।। सातादशकोटोनां यादिवाणां समुच्चयः । योऽसौ दुन्दुभिशब्दोऽयं निजितानिघनस्वनः ११११॥ पापूर्य दिग्धराकाशं ताडितोऽमरपारिभिः । करोति विविधान्नादान्परहादिमवान्परान् ।।१२।। निजिताखिलदीप्त्योधमिनेन्दुमरिणज्योतिषाम् । म्यानविश्वसभास्थान भानुकोटयधिकप्रभम् ।।१।। नेत्रशर्मकरं रम्यं देहभामण्डलं परम् । गजते श्रीजिनाङ्गस्य से जःपुअमियोच्छिनम् ॥११॥ जगतां संनिराकुन्मियामोहतमोऽखिलम् । महास्वनिविभोदिव्यो विश्वसत्वार्थव्यक्तकृत् ॥१५॥ जलौघोऽत्र ययकोऽपि विचित्रो जायते वने । भूमियोगातथा भर्तु ननिभाषात्मको ध्वनिः ।।१६। अनक्षरोऽपि सर्वेषां पशुम्लेच्छार्यदेहिनाम् । सर्वभाषामयळक्ताक्षरस्तस्वादिसूचक: ॥१७॥ इस्यसाधारणदिव्यनिरोपम्यः सुरोद्भवैः । महाष्टप्रातिहाविभ्राजते वा स धर्मराट् ।।१८ । के कारण वशम द्वार से बाहर निकले हए शुक्लध्यान के शिखा समूह के समान जान पड़ता था ऐसा छत्रत्रय भगवान् के मस्तक पर सुशोभित हो रहा था ॥७-८।। जिन्होंने चांदनी तथा समुद्रफेन प्रावि को जीत लिया है, जो हंस के पंखों के समान हैं, सुन्दर हैं तथा यक्ष जातीय देवों के हाथों में स्थित हैं ऐसे चौसठ चामरों से बीज्यमान, सिंहासनासीन थे जिनेन्द्र भगवान ऐसे प्रतीत होते थे मानों मुक्तिरूपी स्त्री के कटाक्षों से अवलोकित उत्सम दूल्हा ही हो ॥६-१०। जिसमें साढे बारह करोड़ बाजों का स्वर मिला हुआ था तथा जिसने समुद्र के जोरदार शब्द को जीत लिया था ऐसा देव हस्तों से ताडित दुन्दुभियों का शब्द, दिशा पर्वत और भाकाश को व्याप्त कर पटह प्रादि पे होने वाले नाना प्रकार के श्रेष्ठ शब्दों को कर रहा था ।।११-१२॥ जिसने सूर्य चन्द्र मरिण तथा नक्षत्रों को समस्त कान्ति के समूह को जीत लिया था, जिसने समस्त सभामण्डप को व्याप्त कर लिया था, जिसको प्रभा करोड़ों सूर्य से भी अधिक थी, जो नेत्रों को सुख उत्पन्न करने वाला था, और रमरणीय था ऐसा उत्कृष्ट भामण्डल इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानों श्री जिनेन्द्र भगवान के शरीर का सेजापुञ्ज हो ऊपर को प्रोर उठ खड़ा हो ।।१३-१४॥ समस्त तरों के प्रर्थ को व्यक्त करने वाली भगवान् की महान् दिव्यध्वनि जगत के सम्पूर्ण मिथ्या मोहरूपी अन्धकार को नष्ट कर रही थी । जिस प्रकार इस संसार में एक ही जल का प्रवाह वन में पृथिवी के योग से नानारूप हो जाता है उसी प्रकार भगवान् को दिव्यध्यति भी पात्र के योग से नानाभावारूप हो गई थी। यपि वह विव्यध्वनि प्रनक्षरात्मक थी तथापि समस्त पशु म्लेच्छ और प्रार्य मनुष्यों के लिये सर्वभाषारूप स्पष्ट अक्षरों के द्वारा तत्व आदि को १. लक्ष्मीकत करोत्तम ख. २ सूर्यकान्त चन्द्रकान्समविकिरण नाम् ३ सभास्थाने ग्व० गल् प० ।
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२४८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
महोतसम्
अथ देवा नभोमादिवतीर्य द्रष्टुं त्रिजगन्नाथं कुमली कृतपाणयः विधातु महीपृष्ठे स्वजानूनम रेशिन: शच्यः साप्सरसः सर्वाः प्रणामं त्रिजगद्गुरोः अथोत्थाय सुरेन्द्राद्यास्तुष्टा धर्मार्थिनः शुभाम् क्षोरोदादिभवेरं रत्नभृङ्गारनालगंः मुक्ताफलमयैः पुष्याङकुरैव परमाक्षर्तः मणिपात्रावित पीयुपिण्डे रत्नदीपकैः एवं संपूज्य देवेशा तत्वा तत्पादपङ्कजस्
| श्र:परीत्य जिनास्थानमण्डलं भक्तिनिर्भराः ||१६|| | विविशुस्ते सभां दिव्यां नम्रीभूतस्वशेखराः ।।२०।।
प्रणेमृः परया भक्त्या तत्पीठापितमीलयः ||२१| । प्रचक्र शिरसा भक्त्या तद्गुणग्राम रञ्जिताः ||२२| । महापूजां तदा चक्रुः श्रीतीर्थेश पदाब्जयोः ॥२३॥ | दिव्या मोदमयं रम्यैः स्वर्गेत्यन्नंविलेपनैः ||२४|| । मन्दारादिकमालीर्घः कल्पद्रुमभवः परैः ||२५|| | तमोदिव्यधूपीः कल्पांह्रिपज सत्फलैः ।।२६। | भक्तिरागातिरेकेण तत्स्तवं कर्तुं मुद्ययुः ॥२७॥
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सूचित करती थी ।।१५-१७१ इस प्रकार असाधारण सुन्दर निरुपम तथा देवोत्पादित पाठ महा प्रांतिहायों से वे धर्मराज के समान सुशोभित हो रहे थे ।।१६
प्रथानन्तर जो भक्ति से भरे हुए हैं, जिन्होंने अपने हाथ जोड़कर कुडमल-कमल की बोंड़ी के प्राकार कर लिये हैं तथा जिनके अपने सेहरे नत्रीभूत हैं ऐसे देवों ने प्रकाश मार्ग से पृथिवी तल पर उतर कर उस समवसरण मण्डल की तीन प्रदक्षिणाएं दीं पश्चात् तीनलोक के नाथ का दर्शन करने के लिये उस दिव्य सभा में प्रवेश किया ।। १६- २०॥ तदनन्तर भगवान् की पीठ पर जिन्होंने अपने घुटने पृथिवी तल पर टेक कर परम भक्ति से नमस्कार किया ||२१|| भगवान् के गुणों में अनुरक्त, अप्सरानों से सहित समस्त इन्द्रागियों ने भक्तिपूर्वक शिर से त्रिजगद्गुरु को प्रणाम किया ।। २२ ।।
तदनन्तर उस समय संतुष्ट तथा धर्म के अभिलाषी इन्द्र प्राचि ने खड़े होकर श्री तीर्थंकर देव के चरण कमलों की पुण्यवर्धक महापूजा की ||२३|| रत्नमय मृङ्गार के नाल से निकलने वाले क्षीर समुद्र आदि के जल से, विष्य सुगन्ध से तन्मय, रमणीय, स्वर्ग में उत्पन्न विलेपन - चन्दन से पुण्य के अंकुरों के समान सुशोभित मोतियों के उत्कृष्ट प्रक्षतों से, कल्पवृक्षों से उत्पन्न मन्दार प्राधि की श्रेष्ठ मालाओं के समूह से, मणिमय पात्र में रखे हुए अमृत के पिण्ड से, अन्धकार को नष्ट करने वाले रत्नमय दीपकों से, दिव्य धूप के समूहों से, और कल्पवृक्षों से उत्पन्न उत्तम फलों से देवों ने भगवान् के चरण कमलों की नमस्कार कर इन्द्र, भक्ति सम्बन्धी राग की अधिकता से उनका स्तवन करने के लिये उद्यत हुए ||२७||
१. कल्पवृक्षोत्पन्नपचन कलैः ।
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• एकोनविंशतितम सगं .
। २४९ विभो ते गणनातीताश्चतुर्शानयुषां गुणाः । अगोचरा गणेशानां ये दिग्यास्ते परः कथम् ॥२८॥ शक्या हि स्तयितुं सर्वे मादृशैः स्वल्पबुद्धिभिः । इति मत्वात्र भश्चित्त नणं दोलायते स्तुती ॥२६॥ तथापि जगता नाथ या भक्तिस्त्वयि निर्भरा । मुखरीकुरुते सेवास्माकं सरपुरणभाषणे ॥३०॥ त्वं देव परमो ब्रह्मा त्वं सर्वशोऽखिलार्थवित् । सर्वदर्शी त्वमेवात्र लोकालोकार्षदर्शकः ॥३१॥ स्वमेव परमो बन्धुनि:कारसहितकरः । प्रबन्धूना सतां त्राता भवाब्धेधर्मदेशकः ॥३२।। जानिमां स्वं महाज्ञानी गुरूणां त्वं महागुरुः । पूज्यानां त्वं विभो पूज्यः स्तुत्याना स्तुतिगोचरः ३३ मान्यानां त्व परो मान्यो धर्मी त्वं मिया महान ! त्वं देत वन्दनीयानां वन्दनीयोऽमृतोदयः ।।३४॥ जेतृ गा त्वं महाजेता तपस्यो त्वं तपस्विनाम् । सुधियां त्वं सुघी थ कृतिनां त्वं परःकृतो ॥३॥ त्रिजगत्स्वामिना स्वामी दक्षस्त्वं दसदेहिनाम् । त्रातृ णा त्वं महात्राता जिनानां वं परो जिनः ३६ देवानां त्वं महादेवो नाथ त्वं धर्मदेशिनाम् । धर्मोपदेशदाता च दुर्जयाणां जयी महान् ॥३७|| धीराणा स्तं महाघोरो वतिनां त्वं महाव्रती । शरण्यानां शरण्यस्त्व दाता त्वं दानिनां परः ॥३८॥
हे प्रभो ! आपके जो प्रसंरूप दिव्यगुरण, चार ज्ञान के धारक गणधरों के प्रगोचर हैं वे सब गुण मेरे समान तुच्छ बुद्धि के धारक अन्य मनुष्यों के द्वारा फैसे स्तुत हो सकते हैं ? ऐसा मान कर यहाँ हमारा चित्त क्षणभर के लिये स्तुति के विषय में चञ्चल हो रहा है ॥२८-२९॥ हे जगन्नाथ ! यद्यपि यह बात है तथापि आपमें हमारी जो प्रत्यधिक भक्ति है वही हम लोगों को प्रापका गुणगान करने में वाचालित कर रही है ।।३०॥ हे देव ! इस जगत् में तुम्हीं परम ब्रह्म हो, तुम्हीं समस्त पदार्थों के ज्ञाता सर्वज्ञ हो और तुम्ही लोकालोकसम्बन्धी पदार्थों को देखने वाले सर्वदशी हो ॥३१॥ तुम्हीं बन्धु रहित सत्पुरुषों के प्रकाररहितकारी, संसार सागर से रक्षा करने वाले तथा धर्म का उपदेश देने वाले परम बन्धु हो ॥३२॥ हे विभो! तुम ज्ञानियों में महा ज्ञानी हो, गुरुषों में महागुरु हो, पूज्यों में पूज्य हो, स्तुति के योग्य मनुष्यों को स्तुति के विषय हो, माननीयों के परम मान्य हो, धर्मात्मानों में महान धर्मात्मा हो, वन्दनीयों के वन्दनीय हो, और प्राश्चर्यकारी अभ्युदय से सहित हो ॥३३-३४॥ हे नाथ ! तुम जीतने वालों में महान जेता हो, तपस्वियों में महान तपस्वी हो, बुद्धिमानों में महान बुद्धिमान हो और कुशल मनुष्यों में परम कुशल हो ॥३५।। प्राप तीन जगत के स्वामियों के स्वामी हो, चतुर मनुष्यों में चतुर हो, रक्षा करने वालों में महान रक्षक हो और जिनों में परम जिन हो ॥३६॥ हे माय ! तुम देखों में महादेव हो, धर्मोपदेश देने वालों में धर्मोपदेश के दाता हो और दुःख से जीतने योग्य पदार्थों के महान विजेता हो ॥३७॥ तुम धीरों में महाधीर हो, प्रतियों में महावती हो,
परा: कपम् म.
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२५० ]
* मी पायनाप चरित - सब्रह्मचारिणां बालब्रह्मचारी त्वमेव च । उत्कृष्टानां नमूत्कृष्ठोऽदश्यानी त्वं वशीकरः ।। ३ । लोभिनां स्वं महालोभी विजगद्राज्यसंग्रहे । कोपिनां वं पर:कोपी दुःकर्माक्षारिपातने ॥४॥ लोक्यैश्वर्यसंपर्कादीश्वरस्त्वं न चापरः । द्वयाकाशावगमव्याप्तेविष्णुस्त्वं मान्य एव च ।।४।। 'चतुर्मुखप्रसंख्यस्त्वं देव ब्रह्मा न या परः । त्रिजगन्नायकत्वात्वं विनायकोऽन्य एष न ॥४२॥ वेबीनिकरमध्यस्थस्वं वै रागीव लक्ष्यसे । अन्ता रागातिगो धीमान् विरागी त्वं बुजिन' ४३ भोगोपभोगसंयोगाद्भोगीव झायते जनः । विद्भिर्योगी विरागत्वात्वं चित्रमिति धर्मकृत् ।।४४) देव स्वं वेष्टितः सर्वेगु गरापादमस्तकम् । विश्वाश्रयजगर्याच्च दोषैः स्वप्नेऽपि नेक्षितः ।।४।। प्रस्माभिरचितो देव मनाग रागं करोषिः न । न निन्दितस्त्वं न च द्वेषं होत्याश्चयं महद्विभोः १६ शरण देने वालो में शरणदायक हो और दानियों में परम दानी हो ॥३।। समोचीन बह्मचारियों में प्राप ही बाल ब्रह्मचारी हैं, आप ही उत्कृष्टो में उत्कृष्ट हैं और पाप ही वश में न होने वालों साथ करते है
नील झा का राज्य संग्रह करने में लोभियों के मध्य महालोभी हैं और दुष्ट कर्म तथा इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को नष्ट करने में क्रोधियों के बीच परम क्रोधी हो ॥४०॥ तीन लोक के ऐश्वयं के साथ संपर्क होने से माप ही ईश्वर है दूसरा कोई ईश्वर नहीं है और ज्ञान के द्वारा लोकाकाश तथा प्रलोकाकाश में व्याप्त होने से पाप हो विष्णु हैं अन्य नहीं ॥४१॥ चार मुखों से युक्त होने के कारण प्राप ही ब्रह्मा है अन्य कोई ब्रह्मा नहीं हैं तथा तीन जगत के नायक होने से प्राप ही विनायक-विशिष्ट नायक-पोश है अन्य नहीं ॥४२॥ प्राप देवी समूह के मध्य में स्थित हैं अतः निश्चय ही रागी के समान जान पड़ते हैं और हे जिन ! अन्तरङ्ग में राग रहित हैं अतः विद्वानों के द्वारा बुद्धिमान तथा विराग कहे जाते हैं ।। ४३ ॥ भोगोपभोग की वस्तुओं के साथ संयोग होने से प्राप मनुष्यों के द्वारा भोगी के समान जाने जाते हैं और राग से रहित होने के कारण विद्वानों के द्वारा योगी माने जाते हैं यह प्राश्चर्य की बात है, इस तरह पाप धर्म के कर्ता हैं ॥४४॥ हे देव ! माप समस्त गुणों के द्वारा पैर से लेकर मस्तक तक घिरे हुए है तथा हमारा प्राधय तो समस्त विश्व है इस गर्म से दोषों ने स्वप्न में भी प्रापको नहीं देखा है ॥४५॥ हे देव ! हमारे द्वारा पूजित होने पर पाप रञ्च मात्र भी राग नहीं करते हैं और निन्दित होने पर रञ्च मात्र भी दोष नहीं करते हैं, इस प्रकार आप विभु का यह बड़ा भारी आश्चर्य है ॥४६॥ बीतराग होने से आपको न पूजा से प्रयोजन है और न निन्दा से फिर भी वेर से । रहित होने
सप्रसन्नात्वं ग०२. रवापर: म... लक्ष्य ग घ. ४. परतो ग घ. ५. जिन: प.६. करोति । ७. को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणरशेषेरुत्वं संचितो निरवकाशमया मुनीम । दोहपास विविधाश्रय जातगर्व: स्वप्नान्तरेपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ।।२७।। भक्तामर स्तोत्र
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एकोनविशति सन .
[ २५१ नार्थस्ते धोतरागरवारपूजया न च निन्दया । त्यक्तधरात्तथाप्यत्र तेऽस्मिाकं पुनातु वै ॥७॥ त्वयि भक्तो अगल्लक्ष्मीमवाप्नोति द्विषोऽद्भुतम् । प्रलोयन्ते च मध्यस्थस्त्वमिदं चित्रमाप्तवित् ॥४॥ न स्नेहो मसते नाथ तवोपरि सुजन्मिनाम् । किन्तु हेतुर्भवोऽप्यत्र कुत्स्नदुःस भयंकर: १४६॥ गयाश्रयन्ति भुक्त्ययं पक्षिण : फलितं द्रुपम् । तथा त्वां देव सर्वे र स्वर्गमुफ्त्याप्तयेगिनः । ५०॥ भनन्यशरणा सास्त्रिशुद्धपाराधयन्ति ये । त्वा तेऽत्र त्वत्समाः स्युश्च श्रीदेवाशु न संशयः ११ इति मत्था जगन्नाथ मनोवाक्कायकर्मभिः । भवद्गुणाथिनो मुक्त्यं भवन्तमाश्रिता वयम् ।५२।। अतो देव नमस्तुभ्यमनन्तगुणसिन्धवे । नमस्ते विश्वनाथाय नमस्ते विश्वदशिने ॥५३।। नमस्ते शानरूपाय नमस्ते बन्धवे सताम् । नमस्ते मुक्तिकान्ताय नमम्ते धर्ममूर्तये ।। ५४।। नमस्ते दिव्यदेहाय नमस्तेऽनन्तशक्तये ।नमस्ते विश्वमित्राय नमस्ते धातिनाशिने ॥५५॥ के कारण प्रापकी पूजा निश्चय से हम सबको पवित्र करे' ॥४७॥ प्रापका भक्त मनुष्य जगत में लक्ष्मी को प्राप्त होता है और आपका शत्रु क्षरण भर में अब त प से नष्ट हो जाता है फिर भी माप मध्यस्थ रहते हैं यह एक प्राश्चर्य की बात है ॥ ४५ ॥ है नाथ ! आपके ऊपर यद्यपि प्राणियों का स्नेह नहीं है तथापि समस्त दुःखों का भय उत्पन्न करने वाला भव-संसार ही यहाँ हेतु है ।।४६॥ जिस प्रकार खाने के लिए पनी फले हुए वृक्ष का प्राश्रय लेते हैं उसी प्रकार हे देव | सभी प्राणी स्वर्ग मोर मोककी प्राप्ति के लिये आपकी शरण लेते हैं ॥५०॥ जो चतुर मनुष्य, अनन्य भरण होकर त्रिशुद्धि पूर्वक प्रापको प्राराधना करते हैं वे शीघ्र ही प्रापके समान हो जाते हैं इसमें संशय नहीं है ॥५१॥ ऐसा मान कर हे जगन्नाथ ! प्रापके गुणों को चाहने वाले हम मन, वचन, काय की क्रिया से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रापकी शरण में प्राये हैं ॥५२॥ इसलिये हे देध ! अनन्त गुरणों के सागर स्वरूप प्रापको नमस्कार हो, माप समस्त लोक के स्वामी हैं इसलिये प्रापको नमस्कार हो, आप विश्व के नाथ हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो और पाप विश्वदर्शी हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो ॥५३॥ प्राप शान रूप है पतः प्रापको नमस्कार हो, पाप सत्पुरुषों के बन्धु हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो, पाप मुक्ति रूप स्त्री के बल्लभ हैं अतः आपको नमस्कार हो, पाप धर्म को मूर्ति हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो ॥५४॥ श्राप दिव्य-परमौदारिक शरीर के धारक हैं अतः पापको नमस्कार हो, माप अनन्त वीर्य से सहित हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो, पाप सबके मित्र है प्रतः प्रापको नमस्कार हो और प्राप धाति कर्मों का नाश करने वाले हैं पतः प्रापको नमस्कार १. न पूजयास्वयि वीतरागे न निन्दया नाय विवान्सबेरे ।
तथापि ते पूण्यगणम्मृतिन: पुनातु चित्त दुरिताम्बने म्यः ।।१७।। स्वमभूस्तोत्र । .
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२५२ ]
# श्री पार्श्वनाथ चरित
इति स्तवनमस्कारफलेन
श्रीजिनाधिप । दिव्यवाक्यामृतेनात्र नश्चित्तं प्रीणय द्रुतम् १५६ । देहि सर्वेगुखेः सार्द्धं स्वकीया भूतिमद्ध ताम् । बोधि कर्मारिनाशं च शिवं दुःखक्षयं श्रुतम् ।। ५७ । विवाति शिवाजी विपौकसः । तत्सम्मुखाः स्वधर्माय स्वस्वकोष्ठं मुदा श्रिताः ।। पूर्वाभिमुखासीनो दिव्यर्यासनाश्रितः । धर्ममूतिरिवाभात्सुदेव तिर्यग्नरैतः
५६।।
career attraतुर्दिनु चतुः कोणेषु पुष्कलाः । प्रत्येकं त्रित्रिसंख्याः स्युः कोष्ठा द्वादश एव हि ६० ॥ योगीद्रा नाकवनार्यस्तथायिकाः सनृपस्त्रियः । ज्योतिष्कर्षानिताभ्यन्तर्यो हि भावनयोषितः ।। ६१ । । भावना व्यन्तरा ज्योतिषका देवाः कल्पवासिनः । मनुष्याः पशवश्चेति गरणा द्वादश एव हि ।। ६२ ।। पारम्य प्राग्दिशं देवं प्रदक्षिणेन मुक्तये । कृताञ्जलिपुटास्तस्थुः सर्व कोष्ठेष्वनुक्रमात् ।। ६३ ।। अथ शानू सद्गणान् दृष्ट्वा वचोऽमृतपिपासितान् समुत्थाय सभामध्ये भूत्वा जिनपुरस्सरः ।। ६४ ।। रचिताञ्जलिरानम्यापीषनस्रो मरणाधिपः । स्वयंस्वास्यश्वतुर्ज्ञानाद्यनेकद्विविभूषितः
१५६५ ।।
स
हो । ५५ ।। श्री जिनेन्द्र ! इस प्रकार स्तवन और नमस्कार के फल से प्राप हमारे चित्त को दिव्य वचन रूपी अमृत के द्वारा शीघ्र हो संतुष्ट करो ।। ५६ ।। श्राप हम लोगों के लिये समस्त गुगों के साथ अपनी प्राश्चर्यकारी विसूति, रत्नत्रय कर्म रूप शशुओं का नाश, मोक्ष, दुःख क्षय और श्रुतज्ञान वोजिये ।। ४७ ।। इस प्रकार अपना नियोग पूर्ण करने के लिए भगवान् के सन्मुख खड़े हुए देवों ने स्तुति कर उनके चरण कमलों को नमस्कार किया और इसके पश्चात् वे हर्वपूर्वक अपने अपने कोठे में चले गये ॥ ५८ ॥
जो पूर्वाभिमुख होकर दिव्य सिंहासन पर आरूढ थे ऐसे, देव, तियंच तथा मनुष्यों से घिरे हुए पार्श्व जिनेन्द्र धर्म की मूर्ति के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ५६ ।। चार feशाओं की वीथियों को छोड़कर चार कोनों में एक एक कोने में तीन तीन की संख्या से बारह विस्तृत कोठे थे ।। ६० ।। उन कोठों में क्रम से मुनिराज, कल्पवासिनी देवियां, राज स्त्रियों से सहित श्राविकाएं, ज्योतिष्क देवाङ्गनाएं, व्यन्तर वेदाङ्गनाएं, भवनवासी बाङ्गनाएं, भवनवासी देव, व्यन्तर देव, ज्योतिष्क देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और पशु ये बारह गए बैठते थे ।। ६१-६२ ।। उपर्युक्त बारह गरण, पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर श्री जिनेन्द्र देव को प्रदक्षिणा रूप समस्त कोठों में अनुक्रम से हाथ जोड़े हुए मुक्ति प्राप्ति के लिये स्थित थे || ६३॥
अथानन्तर वचन रूपी अमृत के प्यासे उन बारह गरणों को देख जो सभा के बीच जिनेन्द्र भगवान् के संमुख खड़े हुए थे, जिन्होंने हाथ जोड़ रखे थे, नमस्कार कर जो कुछ
१. श्रीयेद् तम् ० २. सुधर्मा ग ३. व्यक्तर श्रीध्यप्रचतु ग ४. रानश्वा २००
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* एकोनविंशतितम सर्ग *
[ २५३ विश्ववहितं वाञ्छन् गुणधर्मोपदेशः । विश्वतस्वादिपृच्छाये तत्स्तव कर्तुं च ।। ६६ ।। स्वं देव जगतां भर्ता एवं त्राता च भवाम्बुधैः । धर्मचक्री त्वमेवात्र धर्मचक्रप्रवर्तनात् ॥६७॥ कर्ता त्वं धर्मतीर्थस्य हन्ता पापानि स्वान्ययोः । ज्ञानतीर्थस्य स्रष्टा त्वं त्वं देव जगतां हितः ॥६६॥ अबन्धूनां परो बन्धुर्भध्यानां त्वं सुतारकः । शरण्यो भवभीतानां कृपालुस्त्वञ्च धर्मराट् ।। ६९ ।। स्वं जगत्त्रितयाधीशस्त्वं ब्रह्मा स्वं चतुर्मुखः । पुरुषोत्तम एव त्वं श्रीपतिस्त्वं विनायकः ॥७०॥ धर्मोपदेशकर्ता स्वं त्वं त्रिलोकपितामहः । त्वमसंख्यसुरैः सेव्यो देहतो विरतोऽसि च २७१॥ ये स्वां नमन्ति भयोवा उच्चगत्रि म । ये प्राचयन्ति देव स्वामयः स्युस्ते भवे भवे ॥७२॥ संस्तुवन्ति ये दक्षा यान्ति ते स्तवनास्पदम् । भक्ति कुर्वन्ति ये भक्त्या सर्वत्र सुखिनश्च ते ॥७३ । स्मरन्ति ये गुणानाथ ते ते स्वार्द्धयः । ये ध्यायन्ति भवन्तं च भवन्ति स्वत्समा हि ते ७४॥ माराधयन्ति ये देव त्वामाराध्याः स्युरेव ते | पालयन्ति तवाज्ञां ये तेषामाशां भजेज्जगत् ।।७।।
मनूत थे, चारज्ञान को आदि लेकर अनेक ऋद्धियों से विभूषित थे, तथा धर्मोपदेश से उत्पन्न गुणों के द्वारा जो समस्त जीवों का हित चाहते थे ऐसे स्वयम्भू नामक गणधर समस्त सत्त्व आदि को पूछने के लिए भगवान् का स्तवन करने हेतु उद्यत हुए ।।६४-६६ ।।
हे बेव ! आप जगत् के भर्ता हैं, संसार समुद्र से रक्षा करने वाले हैं तथा धर्म es के प्रवर्तने से आप ही धर्मचक्री हैं ।। ६७।। प्राप धर्म तीर्थ के कर्ता हैं, निज और पर के पापों का नाश करने वाले हैं, ज्ञान तीर्थ की सृष्टि करने वाले हैं और हे देव ! प्राप जगत् के हितकारी है ।। ६६ ।। प्राप बन्धु रहित जीवों के उत्कृष्ट बन्धु हैं, भव्य जीवों को अच्छी तरह नारने वाले हैं, संसार से भयभीत मनुष्यों के शरण दाता हूँ तथा दयालु धर्मराज है ।। ६६ ।। प्राप तीनों जगत् के स्वामी हैं, श्राप ही ब्रह्मा हैं, श्राप हो चतुरानन हैं, आप ही पुरुषोत्तम नारायण ( पक्ष में श्रेष्ठ पुरुष ) हैं प्राप हो श्रीपति विष्णु (पक्ष में लक्ष्मीपति ) हैं और आप ही विनायक - गणेश ( पक्ष में विशिष्ट नायक ) है ।। ७० । श्राप धर्मोपदेश के कर्ता हैं, प्राप तीन लोक के पितामह हैं, भाप प्रसंख्यात देवों से सेवनीय है लया शरीर से विरत हैं ।। ७१ ।। जो भव्य जीवों के समूह प्रापको नमस्कार करते हैं वे उच्य गोत्र को प्राप्त होते हैं प्रौर हे देव ! जो प्रापकी पूजा करते है वे भव भव में पूज्य होते है ।।७२ || जो समर्थ मनुष्य प्रापकी स्तुति करते है वे स्तुति के स्थान को प्राप्त होते हैं, जो भक्तिपूर्वक आपकी भक्ति करते हैं वे सर्वत्र सुखी रहते है ।।७३|| हे नाथ ! जो प्रापके गुणों का स्मरण करते हैं वे गुणों के सागर होते हैं और जो ग्रापका ध्यान करते हैं ये आपके समान होते है ।। ७४ ।। हे देव ! जो आपको आराधना करते हैं वे प्राराधना करने के योग्य होते हैं और जो आपको प्राज्ञा का पालन करते हैं संसार उनकी
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२५४ ]
● श्री पार्श्वनाथ चरित
क्षमादिदशाषमे त्वत्तः प्राप्य तपोधनाः माक्यामृतं पीत्वा जन्ममृत्युजराविषम् केविद्यास्यन्ति निर्वाण चाहमिन्द्रपदं परे
येवां पश्यन्ति धर्माय दृश्या: स्युस्ते जगत्त्रये । त्वामाश्रयन्ति ये नाथ तान् श्रयन्ति जगन्छि यः ॥७६॥ भवद्धर्मोपदेशेन भव्यास्तीर्थेश सम्प्रति | मोहिनी घ्नन्ति मोहारिपापिन पापमात्रवम् ।। ७७ ।। भवदुषोऽशुभिः सन्तोऽज्ञानवान्नसमुत्करम् । स्फेटरान्ति' इसे नं रज्ञानाच्छादकं घनम् ७८ भवसत्वोपदेशेन प्राप्य वैराग्यमञ्जसा । मदनेन समं धनन्ति स्वाक्षारातीन् सुधीषनाः ७६ । बहवो जयन्ति धर्मास्त्रः कषायारीम् सुदुर्जयान् ॥८०॥ । हरन्ति भुवने नाथ ततः स्युः सुखिनो जनाः 11521 । केचिन्नाकं च देवेशं भवती प्रवर्तनात् HERU | जन्माग्निहानये भव्यास्तथा त्वद्वचनामृतम् ॥१८३॥ यत्सस्यानां मेषवर्षणः । तथा स्वमु सि.बीजानां देव त्वद्धमंवृष्टिभिः ॥ ८४ ॥ तो नाथ प्रसीद त्वं कुर्वनुपमजसा । धर्मोपदेशपीयूष: प्रोरणयस्व जगत्त्रयम् HEX)
R
ईहन्ते चातका यवत्त्वाकान्ता घनात्पयः निष्पतिर्जायते
आपके दर्शन करते हैं वे तीनों जगत्
आशा का पालन करता है ||७५ || जो धर्म के लिए में दर्शनीय होते हैं । हे नाथ ! जो प्रापका प्राश्रय लेते हैं जगत् की लक्ष्मिय उनका माश्रय लेती है ।। ७६ ।। हे तीर्थपते ! इस समय मोही भव्य जीवों समूह आपके धर्मोवदेश से मोह शत्रुरूपी पापियों को तथा पापरूपी शत्रु को नष्ट करते हैं ।।७७।। सत्पुरुष आपके वचनरूपी किरणों से सम्यग्दर्शन तथा सम्यज्ञान को प्राच्छादित करने वाले marceit सघन अन्धकार के समूह को शीघ्र ही नष्ट करते हैं ॥७८॥ सुबुद्धिरूपी घन को धारण करने वाले भव्य जीव, प्रापके तत्वोपदेश से वास्तविक वैराग्य प्राप्त कर कामदेव के साथ साथ अपने इन्द्रियरूप शत्रुनों को नष्ट करते हैं ।।७९।। कितने ही तपस्वी आपसे क्षमा आदि दश प्रकार के धर्म को प्राप्त कर धर्मरूपी अस्त्रों के द्वारा कषायरूपी सुजंन शत्रुधों को जीतते हैं ।। ८० ।। हे नाथ ! आपके बचनरूपी अमृत को पीकर लोग जन्म मृत्यु और जरारूपी विष को नष्ट करते हैं इसलिए ये इस जगत् में सुखी होते है ||१|| हे भगवान् श्रापके तीर्थ प्रवर्तन से कोई निर्धारण को प्राप्त होंगे, कोई अहमिन्द्र पद को, कोई स्वर्ग को और कोई इन्द्र पद को प्राप्त करेंगे ।। ८२ ।। जिस प्रकार प्यास से युक्त खातक मेघ से जस चाहते है उसी प्रकार भव्यजीव जन्मरूपी श्रग्नि को नष्ट करने के लिए प्रापके अवनरूपी अमृत को चाह रहे हे ।।६३|| जिस प्रकार मेघ वर्षा से धान्यों की निष्पत्ति होती है उसी प्रकार हे देव ! आपकी धर्मवृष्टि से स्वर्ग तथा मोक्ष के बीजों की निष्पत्ति होती है ।। ८४ । इसलिये हे नाथ ! प्रसन्न होश्रो, वास्तविक उपकार करो और धर्मोपदेश रूपी प्रमृत के द्वारा तीनों जगत् को संतुष्ट करो || ८६५ ||
१. नाशयन्ति
२ नीतितमः ग्लोक ० ० त्यांनस्ति ।
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I
* एकोनविंशतितम सर्ग
[ २५५
11580
भगवंस्तस्वविस्तारं हेया हेयं वरागमम् : मोक्षमार्गफलं मुक्तेस्त्वं निरूपय चाखिलम् || ६६ ।। केन पापेन यान्त्यत्र श्वभ्रतियग्गति' जना: 1 न पुण्येन नाक च गर्ति केन कर्मणा । ॥ ८७ ॥ श्रभिराः कर्मरणा केल जान्धा मूका: भवन्ति च । पङ्गवो धनिनो निर्धनाः केनाचरन हि ॥८६ विधिना केन जायन्ते वा स्त्रियोऽङ्गिनः । नपुंसकाः किलाल्पायुषो दीर्घायुष एव पुरुषा भोगिनो भोगहीनाश्च सुखिनो दुःखिनोऽङ्गिनः पाण्डित्यं कर्मरगा केन मूर्खश्वमाप्नुवन्ति च संसार: कर्मणा केन स्थिरः केन परिक्षय: उत्तमाचरणेनात्र केन त्वदीयसत्पदम् कि सुधर्मतरोर्मूलं तीर्थनाथ कृपापर: नश्येच्च न पथा जातु तमो नश्यं रविना यथा नानुग्रहः पुंसां बिना मेघात्वरो भुवि
। मेधाविनश्च दुर्मेधाः स्युः केनाचरीन च 118 11 : रोगान्पुत्रवियोगांश्च भवन्ति विकलाजिनः १६१।। । केन प्रोच्चकुलं नीचं जायते न हि तृणाम् ।। ६२ ।। दिपदं चोखते मताम् ॥६३॥ 1 इमां सुप्रश्नमालां त्वं व्यक्तार्थः प्ररूय ॥ ६४॥ । तथा नः संशयध्वान्त भवद्वाक्य किरीविना ।।१५।। । तथा देव ।। ६६ ।।
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हे भगवन् ! श्राप हेयोपादेय तत्वों के विस्तार, उत्कृष्ट श्रागम, मोक्षमार्ग का फल तथा मुक्ति से सम्बन्ध रखने वाली समस्त विशेषताओं का निरूपण कीजिये || ८६|| इस जगत् में मनुष्य किस पाप से नरक और तियंच गति में जाते हैं, किस पुण्य से देव गति में जाते हैं और किस कार्य से मनुष्यगति को प्राप्त होते हैं ॥ ८७ ॥ मनुष्य किस कर्म से धंधे,
गे और लंगड़े होते हैं तथा किस प्राचरण से लंगड़े, धनवान् प्रथवा निर्धन होते हैं ॥६८॥ किस कर्म से प्रारणी पुरुष, स्त्री प्रथवा नपुंसक होते हैं तथा किस कर्म से अल्पायुष्क पौर दीर्घायुष्क होते हैं ||८|| जोय किस प्राचरण से भोगवान्, भोगरहित, सुखी, दुःखी, बुद्धिमान और बुद्धि होते हैं । ६० किस कर्म से जीव पाण्डित्य मूर्खता, रोग तथा पुत्र वियोग को प्राप्त होते हैं प्रौर किस कर्म से विकलाङ्ग होते हैं ॥१॥ मनुष्यों का संसार किस कर्म से होता है, किस कर्म से स्थिरता और परिक्षय प्राप्त होता है, तथा किस कर्म से उच्च या नीच कुल होता है ।। ६२॥ सत्पुरुषों को किस उत्तम प्राचरण मे wret प्रशस्त पद, प्रहमिन्द्र का पद तथा चक्रवर्ती का पद प्राप्त होता है ||३|| हे तोर्थनाथ ! सुषर्मरूपी वृक्ष का मूल क्या है ? प्राप दया में तत्पर होकर हम सब के लिये इस प्रश्नमाला का स्पष्ट उत्तर कहिये ।। ६४ ।। जिस प्रकार सूर्य के बिना रात्रिका अन्धकार कभी मष्ट नहीं होता उसी प्रकार आपके वाक्यरूप किरणों के बिना हम लोगों का संशयरूपी ग्रन्धकार कभी नष्ट नहीं हो सकता ।। ६५ ।। जिस प्रकार पृथिवी पर मेघ के विना प्रत्य
९. श्वभ्र तिर्यग्गति म० प० ।
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२५६ ।
थी पावनाय परित. कल्पशालिनदीकामधेनुनिध्यादयः पराः । सुचिन्तामणय: स्युः केवलं परोपकारिणः ।।६।। त्वं देव जगतां स्वस्य प्रोपकारी स्वचेष्टया । परयात्र भवे नूनमतः को भवता समः ।।९।। भतो नाथ कृपां कृत्वा संशय ध्वान्तमञ्जसा । दिष्यवाक्यांशुभिः शीघ्र हरत्वन्त: सता भुवि ।।१६
मालिनी इति कृतपरिसुप्रश्नोऽप्यमन्दाङ्गहर्षो, विहितनुसुरकार्यों ज्ञानविज्ञानदक्षः । परमगुरष समृवस्तत्पदानी प्रणम्य, निखिलमुनिगणेशो स्याश्रितः स्वस्य कोष्ठम् ।।१०।।
शार्दूलविक्रीडितम् धर्मादेष' जिनो नदेव
धर्मादाप जगत्त्रयाधिपनुतं ज्ञान परं केवलम् । धादिण्यविभूतिसारकलित तोर्थङ्करस्यास्पद
मत्वेतोह नरा: प्रयत्न मनसा धर्म कुरुध्वं सदा ।।१०१॥
पदापं पुरुषों का उपकारक नहीं है उसी प्रकार हे देव ! प्रापके धर्मोपदेश के बिना अन्य पदार्थ कहीं पुरुषों का उपकारक नहीं है ।। ६६ ।। कल्पवृक्ष, नदी, कामधेनु, निधि तथा चिन्तामरिण आदि उत्कृष्ट पदार्थ केवल पर का उपकार करने वाले हैं परन्तु हे देव ! प्राप अपनी उत्कृष्ट चेष्टा से निश्चित ही अगत् के तथा अपने प्रापके अत्यन्त उपकारी हैं प्रतः प्रापके समान कौन हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।६७-६८।। इसलिये हे नाथ ! वया कर दिव्यध्वनिरूपी किरणों के द्वारा पृथिवी पर सत्पुरुषों के अन्तःकरण में विद्यमान संशयरूपी अन्धकार को शोघ्र ही भलीभांति नष्ट करो ॥६६। इस प्रकार जिन्होंने अच्छे अच्छे प्रश्न किये थे, जिनके शरीर में बहुतभारी हर्ष व्याप्त हो रहा था, जिन्होंने वेव और मनुष्यों का कार्य किया था, जो ज्ञान और विज्ञान में दक्ष थे, तथा उस्कृष्ट गुणों से समृद्ध थे ऐसे समस्त मुनि समूह के स्वामी स्वयंभू गणधर पार्वजिनेन्द्र के चरण कमलों को प्रणाम कर अपने कोठे में विराजमान हो गये ॥१०॥
- यह पार्श्वजिनेन्द्र, धर्म से मनुष्य और देवगति सम्बन्धी सुख का प्रतिदिन उपभोग कर तीन जगत के स्वामियों के द्वारा स्तुत उस्कृष्ट केवलज्ञान को प्राप्त हुए थे तथा धर्म से ही समस्त श्रेष्ठविभूतियों से युक्त तीर्थकर पद को प्राप्त हुए थे ऐसा मानकर हे भव्यजन
। जनो स.।
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* एकोनविंशतितम सर्ग *
[ २५७
त्वं देवो जगदीश्वराचितपदस्त्वं धर्मराजा पर
स्त्वं लोकत्रयतारणार्थचतुरस्त्वं विश्वबन्धूपमः । त्वं कालत्रयतस्वसूचनपरस्त्वं माथ निथराट्
त्वं कर्मारिविनाशकृज्जिनपते त्वं सच्छियं देहि मे ॥१२॥
हति भट्टारक :श्रीसकलकोतिविरचिते पार्श्वनाथचरित्रे गणघराप्रच्छावर्णनो नामकोनविंशतितमः सर्गः ।।१६।। हो ! सावधान चित्त से सका धर्म करो ॥१०॥ हे नाथ ! तीनों नगर के ईश्वरों के द्वारा जिनके चरण पूजित हैं ऐसे पापही देव हैं, पाप हो उस्कृष्ट धर्मराजा हैं, प्राप ही तीनों लोकों को तारने में चतुर है, पापही सबके बन्धु समान हैं, पापही सीन काल सम्बन्धी तत्त्व को सूचित करने में तत्पर हैं, पापही निग्रंथराज है, तथा प्रापही कर्मरूपी शोका नामा करने वाले हैं प्रतः हे जिनेन्द्र ! प्राप मुझे उत्तम लक्ष्मी अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी प्रदान करें ॥१०२।।
इस प्रकार भट्टारक भोसकलकोसि विरचित पाश्वमाषचरित में गणपर कृत प्रश्नों का वर्णन करने वाला उन्नीसर्वा सर्ग समाप्त हुमा ॥१९॥
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२१८
• श्री पार्श्वनाथ चरित .
विशतितम सर्ग श्रीयन्तं त्रिजगन्नापं केवलज्ञानभूषितम् । अनन्तमहिमाडं भीपार्श्वेशं नमाम्यहम् ॥१॥ प्रय प्रश्नवशा वस्तीर्थनापो अगद्धितः । इत्थं प्रपञ्चयामास तत्त्वादि परया गिरा ॥२॥ पक्रस्य' मुखाब्जे न विकृतिः काप्यभूत्परा । न ताल्योष्ठपरिस्पन्दो न खेदश्च प्रभावत: ॥३॥ महाम् गिरिगुहोद्भूतप्रतिभवनिनिभः । निरगाह्रीगुरोस्याद्भवनियक्ताक्षरोऽघहृव ।।४।। विवक्षामन्तरेणास्य विविक्ता भारती व्यभूत् । अहो महीयसां शक्तिरीहशी योगसंभवा ॥५॥ शृणु तत्वं गणाधीश साद' द्वादशभिगरणैः । तत्वादीनि प्रवध्येऽहं स्वैचित्र्तन सम्प्रसि ॥१|| मीवादिसत्पदाना यापात्म्यं तस्वमिष्यते । सम्यग् जैनागमे तत्त्वं विद्धि नान्यकुशासने ॥७।। जीवाजीवासवा बन्ध: संवरो निर्जरा शिवः । इत्युक्तानि जिनाधीशः सप्त तत्वानि चागमे ॥८॥
विंशतितम सर्ग श्रीमान्, तीन लोक के नाथ, केवलशान से विभूषित और प्रमन्त महिमा से पुक्त श्री पार्श्वनाथ भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥
प्रधानन्तर प्रश्नवश, जगदहितकारी तीर्थकर देव उत्कृष्ट वाणी के द्वारा तस्वादि का इस प्रकार विस्तार करने लगे ।।२।। व्याख्यान करने वाले इन भगवान के मुख कमल पर कोई भी अन्य विकृति उत्पन्न नहीं हुई थी, न तालु ओंठ आदि अवयवों का हलमचलन होता था और न कोई खेद ही उत्पन्न हुमा था। यह उनका प्रभाव ही था ॥ ३ ॥ जो पर्वत की गुहा में उत्पन्न झिरने के शब्द के समान थी, स्पष्ट प्रक्षरों से मुक्त थी तथा पापों का नाश करने वाली थी ऐसी महान दिव्यध्वनि श्रीगुरु के मुख से निकल रही थी ॥४॥ भगवान की वह पवित्र वाणी इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी सो ठीक हो है क्योंकि महापुरुषों को योग से उत्पन्न ऐसी प्राश्चर्यजनक शक्ति होती ही है ॥ ५ ॥ उन्होंने कहा कि हे गणाधीश ! तुम बारह गणों के साथ एकाग्रचित से इस समय सत्व फो सुनो मैं तस्व प्रादि को कहता हूँ ॥६॥
__जीवादि समीचीन पदार्थों का जो यथार्थ रूप है वही तत्त्व कहलाता है। समीचीन तस्व को तुम जैनागम में समझो अग्य मिथ्या शास्त्रों में इसका वर्णन नहीं है।॥७॥ जीव मजीव मात्रय बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष मात तत्त्व प्रगम में जिनेन्द्र भम१. पक्तु रम्प मुखाम्मे न खप
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* विशतितम सर्ग
[ २५ "संसारमुक्तभेदेन द्विधा जीवा भवन्त्यहो । मुक्ता भेदविनिःक्रांता अनन्तगुण भावनाः ॥eil भव्य भव्य प्रभेदेन द्विधा संसारिणोऽङ्गिनः । प्रसस्थावरभेदेन वा द्वेषा भवगामिनः 118011 एकाक्षा विकलाआः पञ्चाक्षास्त्रेवेति ते मताः । देवनारकसियंस्तृभेदाद्वा ते चतुविषाः ११॥ एकत्रितुः पचेद्रियमेवा पचषा । पृथ्व्यप्तेजोम रुवृक्षत्रसभेदात् षडङ्गिनः ॥१२॥ संज्ञिनोऽसंज्ञिनो द्वपक्षास्त्रयक्षा हि चतुरिन्द्रियाः । एकाक्षा वादराः सूक्ष्माः सप्तत्यङ्गिराशयः ॥ १३॥ पर्याप्ततरभेदेन ताः सप्तजीवयोनयः । गुणिता अखिला जीवसमासाः स्युहचतुर्दश ॥१४॥ प्रष्टषा धातवो वादर सूक्ष्मेण चतुविषाः । निस्येतरर्शनिकोला हि विकलत्रय देहिनः संजिनोऽसंशिनः प्रतिष्ठिता प्रप्रतिष्ठिताः । इति संसारिणो जीवभेदा एकोनविंशतिः ॥ १६॥ ते पर्याप्त लब्धिपर्याप्तंगता भुवि । सर्वे जीवसमासाः सप्तपञ्चाशत्प्रमा मताः ॥१७॥ स्थावराज्य द्विचत्वारिशद्भेदा: सुरनारकाः । द्विघा पञ्चातिर्यञ्चश्चतुस्त्रित्माः स्मृताः ११८
।।१५।।
वाद ने कहे हैं ||८|| संसारी और मुक्त के सेव से जीव वो प्रकार के होते हैं। ज्ञानचर्य है कि अनन्त गुरणों के पात्र मुक्त जीव मेदों से रहित हैं ॥६॥ संसारी जीव भव्य और अभव्य के भेद से दो प्रकार के हैं श्रथवा त्रस और स्थावर के भेद से भी संसारी प्राणी दो प्रकार के हैं ।। १० । एकेन्द्रिय विकलेति संसारी जीव सोन प्रकार के हैं । देव, नारक, तिर्यञ्च और मनुष्य के मेव से चार प्रकार के हैं ।।११।। एकेन्द्रिय द्वोद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के मेद से पांच प्रकार के हैं। पृन्दो जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस के भेद से छह प्रकार के हैं ।। १२ ।। एकेद्रिय के बादर सूक्ष्म को अपेक्षा दो भेद, विकलत्रय के द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिय चतुरिनिय की अपेक्षा तीन भेद और पञ्चेन्द्रिय के संज्ञा प्रसंज्ञी को अपेक्षा दो मेद इस तरह संसारी जोन लाख प्रकार के हैं ||१३|| ये सात प्रकार के जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक के मेद से दो दो प्रकार होते हैं इसलिए दो से गुणित होने पर छोवह जीव समास होते हैं ।। १४ ।। पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुओं के बाहर सूक्ष्म की अपेक्षा दो दो भेद होने से आठ भेद, साधारण वनस्पति में नित्य निगोद और इतर निगोद इन दो के वावर और सूक्ष्म की अपेक्षा दो वो भेब होने से चार भेद, विकलत्रय के तीन भेव, पञ्चेन्द्रिय के संज्ञी और सी की अपेक्षा दो भेद तथा प्रत्येक वनस्पति के प्रतिष्ठित और पप्रतिष्ठित की अपेक्षा दो भेद-सव मिलाकर संसारी जीव के उन्नीस भंद होते हैं । १५-१६। ये उनीस प्रकार के जीव पर्याप्तक, नित्य पर्याप्तक और लक्ध्यपर्याप्तक के भेद से पृथिवी पर तीन प्रकार के होते हैं उस में तीन का गुरगा करने पर सद जीव समास संतावन माने गये हैं । १७। स्थावरों के व्यानीस, मुक्तिमिनः स ग ० ३.पप्तिमित्यपर्याप्त पर्याप्तिः ।
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२१.
*श्री पार्श्वनाथ चरित - नवा मामवाश्चैव नयधा यि कलानिनः । इति जीवसमासाः स्युरष्टानयतिसंख्यकाः ।।१।। पृथ्वसेजःसमीरा ष्टधा वादरसूक्ष्मत: । नित्येतरनिकोताश्चतुर्दा बादरसूक्ष्मतः ॥२०॥ निकोतसहितास्तद्रहिताः प्रत्येककायिन: । एकत्र मेलिता एते सर्वे भेदाश्चतुदंश ॥२१॥ एकाक्षा गुणितास्ते द्विचत्वारिंशत्प्रमाः स्फुटम् । पर्याप्तकेतरालब्धिपर्याप्त: म्युजिनागमे ।।२२।। विप्रकाराः सुराः स्युः पयांप्तापयप्तिमेदतः । तथा च नारका ज्ञेया द्विधा दुःखाम्धिमध्यगाः ।२३॥ बलस्थल नभश्चारिणः. संश्यसजिभेदत: । षडविधा गर्भजा जीवा: पञ्चेन्द्रियसमाह्वयाः ।२४। भोगभूमिमवा जीवा द्विषा स्थलखगामिन: । ते सर्व मेलिता प्रष्टभेदाश्व गुणिताः पुनः ।।२५।। पर्याप्ततरभेदाभ्यां षोडशव भवन्त्यपि । संघसंज्ञित्वमेदाम्या जनस्थ लखचारिणः ॥२६।। पधा संमूछिमास्ते पर्याप्तियुक्तास्तथेतराः । भवन्त्यलब्धिपर्याप्तकाः प्रत्येक किलाङ्गिनः ॥२७॥ कृता एक त स मा माना: ।संछिमाः सर्व स्युश्चतुस्त्रिशदङ्गिनः ।।२।।
देव नारकियों के दो वो, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के चौतीस, मनुष्यों के नो और विकलत्रयों के दौ-सब मिला कर प्रठानवे जीव समास होते हैं ॥१८-१६।। पृथिवी अल अग्नि और वायु इन पार के वावर सूक्ष्म की अपेक्षा पाठभेद, साधारण वनस्पति के निस्य निगोर और इतर निगो की अपेक्षा दो भेव और दोनों के चादर सूक्म को अपेक्षा चार भेव तथा प्रत्येक बनस्पति में सप्रतिष्ठित प्रत्येक प्रौर अप्रतिष्ठित्त को अपेक्षा वो भेद सब एकत्र मिलाकर एकेन्द्रिय के चौदह भेद होते हैं। ये चौदह मेव पर्याप्तक, नित्य पर्याप्सक, और लक्ष्य पर्याप्तक की अपेक्षा तीन तीन प्रकार के होते हैं इसलिये चौदह में तीन का गुणा करने पर जिनागम में एकेन्द्रियों के व्यालीस भेद माने गये हैं ।।२०-२२॥ देव, पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के हैं इसी प्रकार दुःखरूपी सागर के मध्य में रहने वाले भारको भी दो प्रकार के आनना चाहिये ।।२३॥ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के जलचर स्थलचर पौर नभश्वर की अपेक्षा तीन भेद हैं और ये तीनों भेद संझी प्रसंजी के भेद से वो दो प्रकार के होते हैं इस प्रकार छह भेद हुए । ये छह भेष गर्भज पञ्चेन्द्रिय तियंञ्चों के हैं । भोगसूमिज पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के स्थलचर और नभश्चर के मेव से दो भेद हैं । दोनों मिलाकर पाठ मेद हुए । ये पाठों भेद पर्याप्तक और नित्यपर्याप्तक की अपेक्षा दो दो प्रकार के हैं प्रतः वो का मुरणा करने पर इनके सोलह मेव होते हैं । संमूछन जन्म वाले पंचेन्द्रिय सिर्यञ्चों के जलचर, स्थलचर और नभश्चर की अपेक्षा तीन भेव होते हैं और ये तीनों मेव संजी प्रसंगी की अपेक्षा दो भेद वाले होने से छह प्रकार के होते हैं ये छह भेद पर्याप्तक, नित्यपर्याप्तक
और लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा तीन तीन प्रकार होते हैं प्रतः संमूर्छन जन्म वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अठारह मेद होते हैं । गर्भ जन्म बालों के सोलह और संमूर्धन जम्म बालों
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4 विशतितम सगं ●
[ २६१
मार्यम्लेच्छ्रभवा भोगकुभोगभूमिजा नराः | अष्टमेश मता व पर्याप्तापर्याप्तभेदतः ॥२६ ।। संमूच्छिमा मनुष्या अलविपर्याप्तसंज्ञिकाः । इति 'विश्वे भवन्त्यत्र नवभेदा नृयोनिजाः ॥ ३०॥ | नवधा श्रीजिनैः प्रोक्ता ज्ञानरागमे ।। ३१ ।। पर्याप्तादित्रिभेदेन गुणिता विकलाङ्गनः मष्टान तिरेते जीवसमासा विचक्षरी: । विज्ञेया यत्नतस्तेषां दया कार्या मुमुक्षुभिः ॥ ३२ ॥ बरोदकाग्निवाताख्या नित्येतर निकोलकाः । सप्तसप्त पृथग्लक्षाश्च वनस्पतयो दश द्वित्रिन्द्रिया द्वौ द्वौ लक्षौ देवाश्च नारकाः । पशवो हि चतुलंक्षाश्चतुर्दश नृजातयः चतुरशोतिलक्षा हमा जीवजातयोऽखिलाः । रक्षणीयाः प्रयत्नेन ज्ञात्वा दक्षेः स्वमुक्तये ।। ३५ ।। कोटीकोट का नवनवतिलक्षाश्च कोटय: । सत्पञ्चाशत्सहस्रा इत्यखिलाङ्गिकुलाम्यपि ॥ ३६ ॥
॥३३॥
॥
३४ ॥
के अठारह सब मिलाकर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च चौतीस प्रकार के होते हैं ।। २४- २८ ।। गर्भज मनुष्यों के प्रार्थखण्डज, म्लेच्छखण्डज, भोगभूमिज और कुभोगभूमिज ये चार भेद हैं और चारों भेद पर्याप्त तथा नित्यपर्याप्तक की अपेक्षा दो दो प्रकार के हैं अतः श्राठ प्रकार के हुए। इनमें लब्ध्यपर्याप्तक संमूर्च्छन मनुष्यों का एक मेव मिलाने से सब मनुष्य नौ प्रकार के होते हैं ।।२६-३०।। विकलत्रय जीव पर्याप्तक, मिस्वपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्लक की अपेक्षा तीन प्रकार के हैं अतः इनका गुणा करने पर ज्ञानरूपी नेत्र के धारक श्री जिनेन्द्र भगवान् ने परमागम में विकलत्रय नौ प्रकार के कहे हैं ।। ३१।। इस प्रकार बुद्धिमान् जनों को में अठानवे जीव समास यत्नपूर्वक जनना चाहिये और मोक्षाभिलाषा जीवों को इनकी दया करना चाहिये ||३२||
पृथिवी जल श्रग्नि वायु नित्यनिगोव और इतरनिगोव इन छह को सात सात लाख, वनस्पति को वश लाख, द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय की वो दो लाख, देव नारको और पशुओं की चार चार लाख तथा मनुष्यों की चौवह लाख ये सब मिला कर जीवों की चौरासी लाख जातियां हैं । चतुर मनुष्यों को अपनी मुक्ति के लिये इन्हें जान कर इनकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिये ।।३३-३५ ।।
समस्त जीवों के कुलकोटियों की संख्या एक कोड़ा कोड़ी निन्यानवे लाख और पचास हजार करोड़ है । भावार्थ - जिन पुद्गल परमाणुओं से जीवों के शरीर की रचना होती है उन्हें कुलकोटी कहते हैं और शरीर रचना से जीवों को जाति में जो विभिन्नता प्राती है उसे योनि कहते हैं। ऊपर जीवों की धौरासी लाख योनियों का वर्णन किया गया है यहां
१. सर्वे २. मनुष्याः ।
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२६२ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
जीवितः प्रागनादौ हि जीविष्यति पुनः सदा । जीवत्ययं ततस्तज्जीवद्रव्यं किलोच्यते ॥३७॥३ अक्षजाः पञ्च च प्रारणा मनोवाक्काय जास्त्रयः । श्रायुरुच्छवासनिश्वासो दर्शसे संज्ञिना मताः ||३८| संजिनां नव स्युस्ते विनात्र मनसा खिलाः । चतुरिन्द्रियजीवानां ह्यष्टौ कविना स्मृताः ||३६|| श्रीन्द्रियाणां विना चक्षुः सप्त प्राणाः प्रकीर्तिताः । हीन्द्रियाणां हि षट्प्राणाः कथिता नासिकां विना ४० गुखाभ्यां विनंकाक्षाणां प्राणाः स्युश्नतुःप्रमाः । यथायोग्यमपर्याप्तानां ज्ञेयास्ते जिनागमे ॥४१॥ श्राहाराज न्द्रियोच्छ्वास निःश्वासवाक्यनेतसः । शिदेहिनाम् ॥। ४२ ।। विकलासंजिनां पञ्च पर्याप्तयो मनो विना । चतुःपर्याप्तयो ज्ञेया एकाक्षारगां वचो विना ।। ४३ ।। निश्चयेन भवेत्केवलज्ञानमयोऽसुमान् । अनन्तसुखवीर्यादयः सिद्धसादृश्य एव हि ॥ ४४ ॥ मत्यादिविभावगुणसंयुतः E नेत्रादिदर्शनं युक्तः प्रारणी कर्मकृतेः कलौ ॥४५॥
व्यवहारेग
कुल कोटियों की संख्या बतलाई गई है । गोम्मटसार जीव काण्ड में कुल कोटियों की संख्या एक कोटा कोटी संतानबे लाख पचास हजार करोड़ बतलाई है* ।। ३६ ।।
जो पहले श्रनादिकाल में जीवित रहा है, पश्चात् सदा जीवित रहेगा और वर्तमान में जीवित है यह जीव के जानने वाले ज्ञानीजनों के द्वारा जीवद्रव्य कहा जाता है ||३७|| इन्द्रियों से होने वाले पांच, मन वचन काय से होने वाले तीन, श्रायु और श्वासोच्छ्वास, ये वस प्रारण संज्ञी जीवों के माने गये हैं ||३८|| असशी पञ्चेन्द्रिय जीवों के मन के बिना सब नौ प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीवों के कानों के बिना प्राठ प्रारूप स्मरण किये गये हैं ॥ ३६ ॥ श्रीद्रिय जीवों के चक्षु के बिना सात प्रारण कहे गये हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के नासिका के बिना यह प्राप होते हैं और एकेन्द्रिय जीवों के मुख्य- रसना इन्द्रिय तथा वचन बल के बिना चार प्रारण होते हैं। अपर्याप्तक जीवों के यथायोग्य प्रारण जिनागम में जानने योग्य हैं। भावार्थ - श्रपर्याप्तक अवस्था में मनोबल वचन बल और श्वासोच्छवास ये तीन प्राण नहीं होते हैं अतः संज्ञी प्रसंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के सात, चतुरिन्द्रिय के छह, त्रीन्द्रिय के पांच वीन्द्रिय के चार और एकेन्द्रिय के तीन प्रारण होते हैं ।।४० - ४१।। प्राहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोसछ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियां संज्ञी जीवों के होती हैं ।। ४२ ।। विकलत्रय तथा असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों के मन के बिना पांच और एकेन्द्रियों के भाषा के बिना चार पर्याप्तियां जानने के योग्य हैं ११४३ || निश्चयनय से यह प्राणी केवलज्ञान और केवलदर्शन से तन्मय तथा अनन्त सुख और प्रनन्तवीर्य से संपन्न सिद्धों के समान ही है ।। ४४ । । व्यवहारनय से संसार में मतिज्ञानादि विभाव गुरणों से सहित तथा कर्मकृत चक्षुर्दर्शन आदि दर्शनों मे युक्त
* एयाय कोडिकोडी मत्ताउदी य सदसहस्साई ।
पकोडसहस्सा सव्वंगी कुलारणं य ॥। ११७|| जीव काण्ड ||
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विशतितम सर्ग .
[ २६३ मूर्तपुरमामयोगान्मूर्तोऽङ्गी व्यवहारतः । प्रमूर्तो निष्कलः शुद्धो जानमूर्तियच निश्च यात्।४६।। ज्यवहारनयनाङ्गधनुषधारमृषात्मना । कर्मनोकर्मणां कर्ता भोक्ता तत्फलमम्जसा ।।४।। उपचारमृषानाम्ना नयेन प्राणभृद्भुवि । कटवस्त्रगृहादीनां कर्ता च शिल्पिकर्मणाम् ॥४।। मधुबनिएचपेनानी कर्ता च भावकर्मणाम् । रागद्वेषमदोन्मादशोकादिविषयात्मनाम् ।।४।। प्रागपुस्त्यबनामृत्युः प्रादुर्भावारच संभवः । द्रव्यरूपेण नित्यत्वं चतुर्गतिषु देहिनाम् ।।५० ।
मायतेस्तो गरगामीशरुत्पादव्यय एव च । धौव्यभावोऽत्र संप्रोक्तः सर्वेषां व्यवहारतः ।। ५१।। कायप्रमाण प्रामायं पर्यायनयतः पचित् । उक्त: प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदोपबह ।। ५२।। विना सनमायानिडोर गनेत्पतः । कर्मोत्पन्नाङ्गहीनाङ्गी ह्यसंख्यातप्रदेशमः ।।५३।। वेदनाख्यः कषायाख्यो विकुणिसमाह्वय: । मारणान्तिकसंज्ञस्तैजसाहारकसंशको ॥५४॥ है। भावार्य-जीव के वश प्राणों का संयोग संसारो दशा में ही होता है मुक्त अवस्था में मात्र मान दर्शन सुख और वीर्यरूप भाव प्राण होते हैं ॥४५॥ मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के साथ संयोग होने के कारण यह जीव व्यवहारनय से मूर्तिक कहलाता है और निश्चयनय से प्रमूर्तिक, शरीर रहित, शुद्ध और ज्ञानमूर्ति है ॥४६।। अनुपचरित प्रसन्मूत व्यवहार नय की अपेक्षा यह जीव वास्तव में कर्म नो कर्म का कर्ता और उनके फल का भोक्ता है ।४७। उपवरित असम्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा यह जीव पृथिवी पर चढाई वस्त्र तथा घर मावि शिल्प कार्यों का कर्ता है॥४८॥ अशुद्ध निश्चयनय से यह जीव राग द्वेष मद उम्पाद तथा शोक प्रादि रूप भावकों का कर्ता होता है ।।४।। यद्यपि इस जीव की चारों मतियों में पूर्व शरीर के छूटने से मृत्यु तथा नवीन शरीर के प्रकट होने से उत्पत्ति होती है तथापि व्रव्य की अपेक्षा उसमें नित्यता रहती है ऐसा गणधर देव जानते हैं। इन सभी जीवों मे उल्पाव व्यय और ध्रौव्यभाव व्यवहारनय से कहा गया है । ५०-५१॥ दीपक के समान प्रवेशों के संकोच और विस्तार के कारण यह प्रात्मा पर्यायनय को अपेक्षा कहीं शरीर के प्रमारण कहा गया है । भावार्थ-प्रात्मप्रदेशों में वीपक के प्रकाश के समान संकोच और विस्तार की शक्ति है प्रतः उसे पर्यायाधिक नय से जैसा छोटा बड़ा शरीर प्राप्त होता है उसी के अनुरूप उसका परिमारण हो जाता है ।।५२॥ सात समुद्घातों के बिना अन्य समय प्रात्मा कर्म से उत्पन्न शरीर के प्रमाण होनाधिक होता है और निश्चयनय से प्रसंख्यात प्रवेशो है। भावार्य-निश्वयनय से प्रात्मा असल्यात प्रदेशो है प्रतः लोकपूरण समुद्घात के समय समस्त लोकामास में व्याप्त हो जाता है अन्य छह समुधातों के समय भी वर्तमान शरीर से बाहर मात्मा के प्रदेश फैल जाते है परन्तु अन्य समय में नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर के प्रमाण ही रहता है ॥५३॥ वना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तेजस, प्राहारक और १. जापते म. ग..।
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• श्री पार्वमाय चरित.
केवलाश्य: समुद्घाता: सप्तेति श्रीजिनमताः । कैवल्यलेजसाहारा योगिनां स्युः परेऽङ्गिनाम् ।।५।। पुण्यपापफलाना हि विविधानां चतुर्गतौ ।शशिमंकराणां प्राणी भोक्ता व्यवहारतः ॥५६।। स्वस्वरूपस्य कर्ता शुद्धनिश्चयनयादसौ । जन्ममृत्युजरातीतो न कर्ता बन्धमोक्षयोः ।।७।। प्रतोऽत्रात्माप्यसो ध्येयो निर्विकल्पपदाश्रितः । गुणः सिद्धन सादृश्यो कानमूतिरमूर्तिमान् ।।५८।। यथाग्निकरणकेनात्र दह्यन्ते काष्ठराणयः ।अनन्तकर्मकाष्ठानि तथा ध्यानलवाग्निना ।। ५६॥ दन्तभग्नो यथा नागो' दंष्ट्राभग्नोऽक्षमो हरि: । स्वकार्ये य तथा ध्यानहीनः कर्मारिघातने ।।६।। चिन्तामणिश्च रत्नानां कल्पवृक्षोऽत्र शाखिनाम् । 'निशाना यथा सको नृणां मध्ये परो जिनः।६।। प्रात्मतत्त्वञ्च तत्स्वाना पदार्थानां तथा महान् । स्वकीयात्मपदार्थो द्रव्यागा स्वद्रव्यमेव हि ॥१२॥ इति मत्वा स्वसंसिद्धार्थ मन: कृत्वातिनिश्चलम् । विषयेभ्यो विनि:क्रान्त संवेगादिगुणाहितम् ।।६।। सर्वद्रव्यवहिपूँ तोऽप्यनन्तगुणसागरः । सविस्थासु सर्वत्र स्थानमा ध्येयो मुमुक्षुभिः ॥६४।। केवली ये सात समुद्घात श्री जिनेन्द्र भगवान ने माने हैं। इनमें कंवल्य, तेजस और पाहा. रक समुद्घात योगियों-मुनियों के ही होते हैं और शेष समुधात अन्य जीवों के होते है ॥५४-५५॥
यह प्राणी व्यवहारनय से चारों गतियों में सुख दुःख उत्पन्न करने वाले पुग्य और पाप का भोक्ता होता है ।॥५६॥ शुद्धनिश्चपनय की अपेक्षा यह जीव यात्मस्वरूप का कर्ता है। जन्म जरा और मृत्यु से रहित है तथा बन्ध पोर मोक्ष का कर्ता नहीं है ।।५७।। इस लिये निविकल्प पत्र को प्राप्त हुए जीवों को इस जगत् में उस प्रारमा का भी ध्यान करना चाहिये जो गुरणों की अपेक्षा सिद्धों के समान है, ज्ञानमूति है तथा शरीर से रहित है।५। जिस प्रकार अग्नि के एक करण से काठ की राशियां जल जाती हैं उसी प्रकार ध्यान के अंशरूप अग्नि के द्वारा अनन्त कर्मरूपी काठ भस्म हो जाते हैं ॥५६॥ जिस प्रकार दांत रहित हाथी प्रथया सर्प और बाढ़ रहित सिंह अपने कार्य में असमर्थ रहता है उसी प्रकार ध्यान रहित साधु कर्मरूपी शत्रु का घात करने में असमर्थ रहता है ।।६।। जिस प्रकार रत्नों में चिन्तामणि, वृक्षों में कल्पवृक्ष और देयों में इन्द्र उत्कृष्ट है उसी प्रकार मनुष्यों के मध्य में जिनेन्द्र उत्कृष्ट हैं ।। ६१ ॥ जिस प्रकार तस्वों में प्रात्मतत्व, तथा पदार्थों में स्वकीय पात्म पदार्थ महान है उसी प्रकार द्रव्यों में प्रात्म द्रव्य महान है ॥६२॥ ऐसा मान प्रारम सिद्धि के लिये मन को अत्यन्त निश्चल, विषयों से दूर तथा संवेगादि गुणों से युक्त कर मुमुक्षु जनों को सब अवस्थाओं में तथा सब स्थानों में उस स्वकीय प्रात्मा का ध्यान करना चाहिये जो सब द्रव्यों से पृथक होकर भी अनन्त गुणों का सागर है ।६३-६४। इस १. अस्ती २. सिंहः ३. देवानाम ४. इन्द्र ।
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• विशतितम सर्ग . हस्यात्मतस्वमाख्याय तीर्थनामो गणान्प्रति । मार्गणादिकमाल्यातु प्रारंभे मार्गसिद्धये ।।६।। गतिरिन्द्रियकायौ हि योगवेदकषायक: शानसंयमहग्लेण्याभव्यसम्यक्रवसंशिनः ॥६६।। माहारो मार्गणाश्चेति चतुर्दश निरूपिताः । जिनस्तासु बुधमुंग्यो जीवतत्वो महांश्चिदे ।।६।। मिध्यासासादनी मिषोऽविरतास्यश्चतुर्षकः ।वै देशविरतास्यः प्रमत्तोऽप्रमत्तसंज्ञक: ॥६॥ प्रपूर्वकरणो नाम्नानिवृत्तिकरणाभिष. हि सूक्ष्मसाम्परायोपशान्तक्षीणकषायकाः ।।६।। सयोग्ययोगिनी मान्यो सगुणामयणादिमे । चतुर्दश जिनः प्रोक्ता गुणस्थाना गुणाकरा: ।।७।। मुक्त: सोपानमाला एसे भव्यानो जिनोदिताः । अभयानां किलको मिथ्यागुणस्थानशाश्वतः।।७१। होनाधिकगुणगुक्ता 'प्रन्वेष्यास्तेषु षीधनैः । गुणानां स्थान केङ्गिन: परीक्ष्य गुण प्रजः ॥७२।। इत्यादिवासुधापूरैराप्लान्य निखिलो सभाम् । प्रजीवतत्त्वमाख्यातु पुनरारधवान्प्रभुः ॥ ३॥ पुदुगलो बहुधा धर्मोऽधर्म प्राकाश एव हि । कालश्चेति जिन : प्रोक्तोऽजीवद्रव्योऽत्र पंचधा ७४। पूरणाद्गलनाक्षः पुदगलोऽयं निरूपितः । मूर्तोऽनेकविधः सार्थनामकः कर्मदेहकृत् ।।७।। प्रकार पाय जिनेन्द्र बारह सभानों के प्रति प्रात्मतत्व का निरूपण कर मार्ग की सिद्धि के लिये मार्गरपादिक का वर्णन करने के लिये उद्यत हए ॥६५॥
मति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संजी और प्राहार ये चौवह मार्गणाए जिनेन्द भगवान ने कही हैं। विद्वानों को उन मार्गगानों में प्रात्मज्ञान के लिये श्रेष्ठ जीवतत्व की खोज करना चाहिये ॥६६-६७॥ मिथ्यात्व, सासाबम, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकपाप, क्षीणकषाय, सयोगिजिन और अयोगिजिन, ये चौदा गुणस्थान जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं। समीचीन गुरणों का प्राश्रय लेने से मे गुणस्थान कहलाते हैं। सम्यग्दर्शनावि गुरणों की खानस्वरूप हैं। मुक्ति को सीढी स्वरूप ये चौदह गुरणस्थान भव्य जीवों के होते हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। प्रभध्य जीवों के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही शाश्वत रहता है ॥६८-७१॥ बुद्धिरूपी धन को धारण करने वाले मनुष्यों को चाहिये कि वे उपर्युक्त गुणस्थानों में गुणसमूह के द्वारा परीक्षा कर होनाधिक गुणों से युक्त जीवों का अन्वेषण करें ॥७२॥ इत्यादिवचनरूपी अमृत के पूर से समस्त सभा को तर कर पश्चात् पाव प्रभु ने अजीव तत्त्व का ध्यास्यान प्रारम्भ किया ॥७३॥
अनेक प्रकार का पुदगल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल इस प्रकार जिनेन्द्र भग. वान ने इस जगत् में प्रजीव द्रव्य पांच प्रकार का कहा है ॥७४॥ पूरण-मलन-स्वभाव के
१.अन्वेषणीयाः ।
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• श्री पारवनाथ चरित . प्रष्टौ स्पर्शा रसाः पञ्च वर्णाः पञ्च गन्धौ द्विधा । इति विंशतिरस्यत्र गुणाः प्रोक्ता द्विधात्मका:।७।। शुशाणोर्ये गुणा: शुद्धा मता: स्वाभाविकाश्च ते । गुणा: स्कन्धेषु येऽशुद्धा विभावाल्या हि ते बुधः७ अणुस्कन्धविभेदेन पुद्गलस्य द्विधा थितिः । स्निग्धक्षमयाणूनां संघातः स्कन्ध उच्यते ।।७।। प्रणव: कार्यलिङ्गाः स्युरोककतयास्खिलाः ।निया व्याथि केनानित्याः पर्यायाधिकेन प.।७।। सूक्ष्मसूक्ष्मास्तथा सूक्ष्मः सूक्ष्मस्पूलाभिधा: परे । स्थूलसूक्ष्मात्मकाः स्थूलाः स्थूल म्यूलाश्च पुद्गला:० एकोऽणुः सूक्ष्मसूक्ष्मः स्याददृश्या नयन नेणाम् । सूक्ष्मास्तेऽपि मताः सद्भिर्ये कर्ममयपुद्गलाः । ८१।। रसनस्पर्शनप्राणोनये यान्ति पुद्गलाः ।ध्यक्तता ते समुद्दिष्टाः सूक्ष्मस्यूला जितागमे।।२।। स्यूलसूक्ष्मा जनशेयाश्छायाज्योत्स्नातपादयः । जलज्वालादयः स्थूला उच्यन्ते पुत्गला बुधः ।३। कारण वक्ष पुरुषों ने पुद्गल द्रव्य का निरूपण किया है। यह पुद्गल द्रव्य मूर्त है, अनेक प्रकार का है, सार्थक नाम वाला है और कमरूपी शरीर को करने वाला है ॥७॥ पाठ स्पर्श, पांच रस, दो गन्ध और पांच रूप इस प्रकार इसी पुद्गल के बीस गुण कहे गये हैं । पे गुरण शुद्ध और बगुड के भेद से दो प्रकार के होते हैं ॥७६।। शुद्ध परमाणु के जो गुरण है वे विद्वानों द्वारा भुट तथा स्वाभाविक माने गये हैं और स्कन्धों में जो गुण है वे प्रशुस तथा वैभाविक माने गले ७७और मद गुगल द्रव्य की दो प्रकार की स्थिति होती है अर्थात् अणु और स्कन्ध इस प्रकार पुद्गल द्रव्य के दो भेद है इनमें स्निग्ध और लक्ष गुण से तन्मय परमाणुओं का समुदाय स्कन्ध कहलाता है ॥७॥ जो इस जगत में एक एक रूप से अवस्थित हैं वे सब अणु हैं, ये अणु कार्यलिङ्ग है अर्थात् सूक्ष्म होने के कारण प्रणु स्वयं तो दृष्टिगोचर नहीं होते किन्तु इनके संयोग से जो स्कन्धरूप कार्य होते हैं उनसे इनका परिज्ञान होता है । ये अणु द्रव्यायिकनय से निस्य हैं और पर्यायाथिकनय से अनित्य है ॥७६।। सूक्ष्मसूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, स्यूलसूक्ष्म, स्थूल भोर स्पूलस्थूल "इस प्रकार पुद्गल द्रव्य छह भेद वाले हैं ।।८०॥ इनमें जो एक प्रवेशी परमाणु है पह सूक्ष्म सूक्ष्म कहलाता है । जो मनुष्यों के नेत्रों के द्वारा नहीं देखे जा सकते ऐसे कर्मरूप पुद्गल सत्पुरुषों के द्वारा सूक्ष्म माने गये हैं । स्पर्शन रसना प्रारण और धोत्रेनिय के द्वारा जो पुद्गल प्रकटता को प्राप्त होते हैं परन्तु नेत्र इन्द्रिय से नहीं देखे जा सकते वे स्पर्श रस गन्ध और शम्द जिनागम में सूक्ष्मस्थूल कहे गये हैं अर्थात् नेत्रों से न दिखने के कारण सूक्ष्म हैं और अन्य इन्द्रियों से जाने जाते हैं इसलिये स्थूल हैं । छाया चविनी तथा प्रातप प्रावि स्यूल सूक्म जानने के योग्य है अर्थात् जो नेत्रों से दिखने के कारण स्थूल हैं परन्तु पकर में नहीं पाते इसलिये सूक्ष्म हैं । जल, ज्वाला मावि पदार्थ विद्वानों के द्वारा स्थूल कहे
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•विशतितम सर्ग. भूकायाद्रिविमानादयः स्थूमस्थूलपुद्गलाः । षड्भेदा इति तीपेशैः पुद्गला हि निरूपिता:।। शब्दो बन्धस्तथा सूक्ष्मः स्यूल: संस्थानसंज्ञकः । भेदस्तमस्तथा छाया उद्योत पातपादयः ॥२५॥ एते पुद्गलपर्याण विभावाख्या मता बिनैः । स्वाभाविकाच पर्याया प्रणुरूपाः पृथक पृथकाम। सरीरवाइ मनःप्राणापानदुःखसुखादिकान् ।कुर्वन्ति पुद्गला जीवाना मृत्युजीवितादिकान् १८७४ बीवपुद्गलयोः साह्यकर्ता जनमतो गतौ । अमूर्तो नि:क्रियो धर्मो मत्स्यानां च यथा जसम्।। महकारी मतोऽधर्मः स्थिती पुगलजीक्योः । प्रमूतों नि:क्रियो नित्यो यथा छायाध्वगामिनामा लोकालोकवि भेदेन द्विधाकाशोऽस्त्यभूतिमान् । अवकाशप्रदः सर्वद्रव्याण नि:त्रियोऽव्ययः ।।१०।। पदार्था यत्र लोक्यन्ते लोकाकाशो मतो हि सः । तस्माद्वहिरनन्तोऽप्यलोकाकाशोऽस्ति केवलः ।।१। धर्माधर्मकजीवानां लोकाकाशस्य संचिताः । असंख्याताः प्रदेशा हि पुद्गलानामनेकधा ||२|| जाते हैं, और पृथियोकाय पर्वत तथा विमान प्रावि स्थूल स्थूल पुद्गल कहलाते है प्रति जो पृथक करने पर समुदाय से पृथक हो जावे परन्तु मिलाने पर पुनः एक हो जाते हैं ऐसे जल घृत प्रावि स्थूल हैं तथा पलग करने पर जो अलग हो जावें और मिलाने पर एक न हों, अलग हो रहें वे पृथिवी परथर प्रादि पदार्थ स्थूल स्थूल कहलाते हैं। इस प्रकार तीर्थ कर भगवान ने छह भेद वाले पुद्गलों का निरूपण किया है ।।८१-८४॥ शम्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान-प्राकृति, भेद, सम, थाया, उद्योत और प्रातप प्रादि ये पुदगल द्रव्य के पर्याय हैं। जिनेन्द्र भगवान् ने इन सबको पुद्गल दृश्य की विभाव पर्याय माना है तथा अलग अलग अणुरूप जो पर्याय है उसे स्वाभाविक पर्याय स्वीकृत किया है ॥८५-८६॥
पुद्गलव्य जीवों के शरीर पचन, मम, श्वासोच्छ्वास, दुःख सुख, मरण सपा जीवन प्रादि कायों को करते हैं अर्थात् ये जीवों के प्रति पुद्गल दृष्य के उपकार हैं ॥७॥ जिस प्रकार मछलियों के चलने में जल सहायक होता है उसी प्रकार जीव और पुदगलों के चलने में जो सहायक होता है, वह धर्मव्य है । यह धर्मदव्य प्रमूर्तिक तथा निष्क्रिय है ।।८।। जिस प्रकार पथिकों के ठहरने में छाया सहायक होती है उसी प्रकार जीव और पुद्गल के ठहरने में जो सहायक होता है वह प्रधर्मदव्य है । यह अधर्मव्य प्रमूर्तिक सपा निष्क्रिय है ॥८६॥ ओ सब व्यों के लिये अवकाश देने वाला है वह प्राकाश कहलाता है । यह प्राकाश लोक और प्रलोक के भेद से दो प्रकार का है, अभूतिक है, निष्क्रिय है तथा अविनाशी है ।।१०। जिसमें जीव पृद्गल प्रावि पदार्थ देखे जाते हैं वह सोकाकास माना गया है और उसके बाहर का अनन्त प्राकाश प्रलोकाकाश कहलाता है । यह प्रलोकाश मात्र प्रकाश ही रहता है इसमें अन्य वृध्य नहीं रहते ॥६॥
धर्म, अधर्म, एकजीव और लोकाकाश के प्रसंख्यात प्रदेश होते हैं । पुदगल वृष्य के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं ॥१२॥ जो दम्यो
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२६८ ]
- श्री पाश्वमाय चरित. निश्चयव्यवहारेण द्विधा कालोऽतिनिक्रियः । द्रष्याणा सहकारी परिणती मूर्तिजितः ।।६३|| समयादिमयः कालो व्यवहारोऽत्र लक्ष्यते । गोदोहादिक्रियायैः परत्वापरत्वयोगतः ॥१४॥ मिनिमाणको ये ओकामा सस्थिताः शुभाः । राशयश्चेव रत्नानां स कालो निश्चयाभिषः।।६।। एकत्र सहजीवेन षडद्रव्या मनिभिः स्मृताः । ते कालेन विना ज्ञेया: पञ्चास्तिकायसंज्ञका:१६॥ पुद्गलो योऽयमायाति कमरूपोऽत्र रागिणः । द्रव्यभावविभेदेन द्विधा म पासवो भवेत् ।।६।। रागद्वेषादियुक्तेन परिणामेन येन हि । मास्रवन्स्यत्र कर्माणि स स्याद्भावास्रवोऽङ्गिनाम् मिथ्यात्वपञ्चक द्वादशधा विरतयोऽशुभाः । प्रमादा हि त्रिपञ्चय योगाः पञ्चदणात्मकाः II सर्वदुःखाकरीभूताः कषायाः पञ्चविंशतिः । एतेऽत्र 'प्रत्यया शेया भावासवनिवन्धनाः ।। १००। पायाति कर्मरूपेण पुद्गलो योऽत्र योगिनः । द्रव्यानव: स विज्ञेयोऽप्यनन्त भवधारकः ॥१०॥ प्याना रानवो करो यस्ते स्युर्मुक्तिवल्लभाः । अन्यथा विफल; क्लेशस्तपोवृत्तादिजः सताम् । १.२॥ की परिणति में सहकारी कारण है यह काल दुव्य है । यह अत्यन्त निष्क्रिय है, प्रमूर्तिक है और निश्चय तथा व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है ॥६३।। इनमें जो समय प्रादि रूप है वह व्यवहार काल है । यह व्यवहार काल गोदोह प्रादि त्रियाओं तथा परत्व प्रपरत्व प्रादि के द्वारा जाना जाता है ॥४॥ और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो पृथक् पृथक् प्रणुरूप से स्थित है तथा शुभ हैं वे कालाणु निश्चय काल है ॥९॥ उपर्युक्त पांच अजीव दव्य जीव के साथ एकत्र मिलकर मुनियों के द्वारा छह व्य माने गये हैं। काल के विना शेष पांचव्य पञ्चास्तिकाय कहलाते हैं ।
इस जगत में रागी जीव के जो यह कर्मरूप पुद्गल प्राता है वह प्रास्त्रव है। यह दव्यास्रव के भेद से दो प्रकार का है ॥६७।राग द्वेषादि युक्त जिस परिणाम से कर्म पाते है जीवों का वह परिणाम भावास्रव है ।।८।। पांच प्रकार का मिथ्यात्व, बारह प्रकार को अविरति, पन्द्रह प्रकार का अशुभ प्रमाद, पन्द्रह प्रकार का योग और समस्त दुःखों की खान स्वरूप पच्चीस प्रकार को कषाय ये भावास्रव के कारणभूत प्रत्यय जानना चाहिये अर्थात इन सबसे प्रात्मा में कमो का प्रागमन होता है ।।६६-१.०॥ योग सहित जिनेन्द्र के कर्मरूप होकर जो पुद्गल पाता है उसे ध्यास्रव जानना चाहिये । यह व्यास्त्र अनन्त भवों का निवारण करने वाला है। भावार्थ-दशमगुरणस्थान तक के जीवों के ख्यात्रव और भावासव वोनों होते हैं परन्तु उसके भागे तेरहवें गुरणस्थान तक मात्र व्यास्त्राव होता है ॥१०१॥ जिन्होंने : 'न प्रादि के द्वारा प्रास्रथ को रोक लिया है वे ही मुक्तिरूपी स्त्री
१. बग्घकारणानि ।
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•विशतितम सर्ग .
। २६६ संश्लेषो जीवकर्मणोर्यः स बन्धो द्विधा मतः । भावद्रव्यप्रभेदेन विश्वाशर्माकरोऽशुभः ॥१०॥ मध्यन्ते येन भावेन रागादिदूषितेन हि ।कर्माणिभावबन्धोऽत्र सोऽनन्तसंसृतिप्रदः ।।१०४।। प्रतिस्थितिबन्धानुभागप्रदेशतोऽङ्गिनाम् चतुर्षा बन्ध प्राम्नातोऽत्रानेकविक्रियाकरः॥१०॥ प्रकृतिः स्वभावः स्याम स्थितिः कालावधारणम् । रसतुल्योऽनुभागः प्रदेशो जीवप्रवेशयुक् ।।१०६।। स्तः प्रकृतिप्रदेशाख्यो बन्धौ च योगतः सप्ताम् । स्थित्यनुभागबन्धी कषायभवनिबन्धनो' ।।१०७॥ यथा बन्धनबद्धो लभते दुःखमनेकश: । कर्मशृङ्खलबद्धोऽङ्गी तथा श्वभ्रादिदुगंतो।।१८। सन्निवनिरोषो यो ध्यानाद्य व्यभावतः । स द्विषा संवर: प्रोक्तः स्वर्गमुक्त्यादिकारकः । १०६॥ चंतायपरिणामो य एकीभूतो निजात्मकः । निर्विकल्पमयो शेयो भावसंकर एव सः ।।११।। प्रयोदविध वृत्त' परो धर्मदशात्मकः । द्विषड्भेदा अनुप्रेक्षाः परोषहजयोऽखिलः । १११।। के प्रिय होते हैं अन्यथा तप और चारित्र प्रादि से उत्पन्न होने वाला सत्पुर्षों का क्लेश निष्फल होता है अर्थात् वह मोक्ष का साक्षात् साधक नहीं होता है ॥१०२॥
जीव और कर्म का जो संश्लेषात्मक सेबन्ध है यह य कहलाता है। भावबन्ध और व्यबन्ध के भेद से इसके दो भेद है। यह बन्ध समस्त दु:खों की खान है तथा अशुभ है ।।१०३॥ रागादि से दूषित जिस भाव से कर्म बन्धते हैं यह भावान्ध है । वह भाव बन्ध अनन्त संसार को देने वाला है ॥१०४॥
संसार में जीवों के अनेक विकारों को उत्पन्न करने वाला यह बन्ध प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रवेश मन्ध के भेव से चार प्रकार का माना गया है ।।१०।। प्रकृति स्वभाव को कहते हैं प्रर्थात ज्ञानाबरणादि कर्मों का जो नानादि गुणों को प्रावृत करने का स्वभाव है वह प्रकृति बन्ध है। उन कमों के काल को जो सीमा है वह स्थिति बन्ध है । रस के तुल्य उनमें फल देने का जो तारतम्य है यह अनुभाग बग्ध है और जीव के प्रदेशों के साथ कर्म प्रदेशों का जो मिलना है वह प्रवेश बन्ध है ।।१०६।। जोधों के प्रकृति और प्रदेश बम्ब योग से होते हैं और संसार के कारणभूत स्थिति और अनुभाग बन्ध कषाय से होते है ॥१०॥ जिस प्रकार बन्धन में बंधा हुमा पुरुष अनेक दुःख प्राप्त करता है उसी प्रकार कर्म रूपी जंजीर से बंधा हुप्रा प्राणी नरकादि दुर्गतियों में अनेक दुःख प्राप्त करता है ॥१०॥
ध्यान प्रादि के द्वारा जो समस्त प्रास्रव का रुक जाना है वह संवर कहलाता है। यह संबर दृष्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है तथा स्वर्ग और मोक्ष प्रावि को करने वाला है ॥१०॥ एकाकार स्वकीय प्रात्मा का जो चैतन्य रूप निर्विकल्प परिरणाम है वही भाव संवर है ।।११०॥ तेरह प्रकार चारित्र, वश प्रकार का उत्कृष्ट धर्म, १. निखिलदुःभवति भूतः २. भवनिबन्धनः ।।
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• भी पारवनाप चरित.
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पञ्चषा संयमी च्यानश्रुताभ्यां संयमादयः । भवन्त्यमी सता सर्व भावसंवरकारणाः ।।११२।। निरोषः क्रियते योऽत्र कर्मणा यरनतो बुधैः । स द्रव्यसंवरः प्रोक्तोऽप्यमन्तगुणसागरः ॥११॥ संबरेण स्वयं प्रत्य सनालिङ्गानं मुदा । सतां स्वस्त्रीव मुक्तिश्वीनान्यथा क्लेककोटिमिः।११४ प्राक्तनः कर्मबन्यो यः कालेन तपसायवा ।क्षीयते निर्जरा सा सविपाकेतरतो द्विषा ॥११॥ कर्मपाकम या बाता सा सविपाकासिलात्मनाम् । साध्यत्नजनिता हेया परकर्मनिवन्धना ॥११६॥ संवरेण सम यात्र निचरा कियते बुधः । तपोभिः साऽविपाका प्रादेयाने कसुखाकरा ।।११।। निर्जरा कर्मणामत्र बायतेऽपि यथा पपा । मायाति मिकट मुक्तिस्तरकारिणी तथा तथा ।११ पात्यन्तं योऽत्र विश्लेषः कर्मास्मनोः सुयोगिनाम् । काललच्या स मोमः स्याद् द्रव्यभावाद दिषात्मकः। भयहेतुर्वरो यः परिणामोऽखिलकर्मणाम् ।भावमोक्षः स विज्ञेयः कर्ममोपनहेतुकृत् ॥१२०॥ समस्तकमदेहायवेवास्मा जायते पृथक् । तदेव द्रव्यमोक्ष: स्यादनन्तगुणदायकः ।।१२१॥ बारह अनुप्रेक्षाएं, समस्त परिषह जय, और पांच प्रकार का संयम, इस प्रकार ध्यान प्रौर श्रुताध्ययन के साथ जो संयमादिक हैं वे सभी सत्पुरुषों के भाव संवर के कारण है ॥१११-११२॥ इस जगत में ज्ञानीजनों के द्वारा जो कर्मों का निरोध किया जाता है वह बष्य संवर कहा गया है। यह दृश्य संवर भी अनन्त गुरणों का सागर है ।।११३॥ संवर के द्वारा इस जगत में मुक्तिरूपी लक्ष्मी स्वयं प्राकर अपनी स्त्री के समान हर्षपूर्वक सत्पुरुषों के लिये प्रालिङ्गान वेती है इसके बिना करोड़ों क्लेश उठाने पर भी मुक्ति लक्ष्मी का प्रालिअन प्राप्त नहीं होता ।।११४॥
पूर्व का जो कर्मबन्ध काल पाकर अथवा तप के द्वारा क्षीण होता है वह निर्जरा है। यह मिर्जरा सविपाक और प्रविपाक के भेद से दो प्रकार की है ।।११५।। कर्मोदय से समस्त जीवों के जो निर्जरा होती है वह सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा विना प्रयत्न के ही होती है तथा अन्य कर्मों का कारण है प्रतः हेय है-छोड़ने के योग्य है ।।११६। इस जगत में संबर के साथ विद्वज्जनों के द्वारा तप से जो निर्जरा की जाती है वह प्रविपाक निर्जरा है। यह प्रविपाक निर्जरा अनेक सुखों को खान है तथा ग्रहण करने के योग्य है ॥११७॥ इस लोक में जैसे जैसे को की निर्जरा होती जाती है वैसे वैसे ही मुक्ति, निरा करने वालों के निकट प्राती जाती है ॥११॥
यहां जप्सम मुनियों के काललधि के द्वारा कर्म पोर प्रात्मा का जो प्रत्यन्त पृथग्भाव है यह मोक्ष कहलाता है । वह मोक्ष द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार का होता है ।।११।। समस्त कर्मों के क्षय का हेतु रूप जो उस्कृष्ट परिणाम है उसे भाव मोक्ष बामना चाहिये । यह भाव मोक्ष कर्ममुक्ति के कारणों को करने वाला है ।।१२०॥ समस्त कर्मरूप शरीर से जिस समय प्रात्मा पृथक हो जाता है उसी समय अनन्तगुणों को देने
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• विशतितम सर्ग
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प्रापादमस्तकान्तं यथा बद्धो बन्धनेह है। । मोचना लभते सौख्यं तथा मुक्तो विधेः क्षयात् । १२२ । तस्मात्कर्मातिगो जter एरण्डादिकबीजवत् । समयेन प्रजेश्वं यावल्लोकाग्रमस्तवम् ॥ १२३॥ तत्रैवास्यान्निरावाषः सोऽग्रे गमनवजितः । सिद्धो धर्मास्तिकायाभावादनन्त सुखान्धिगः १११२४ ।। तत्र मुक्ते निराबाधं स्वात्मजं विषयातिगम् । वृद्धिह्रासव्यपेतं स सिद्धः शुद्धो 'महत्सुखम् ।। १२५ ।। दुःखातीतं निरोषम्य शाश्वतं सुखसंभवम् । धनन्तं परमं ह्यन्यद्रव्यानपेक्षमेव हि ।। १२६ ।। यद्देवमनुजैः सर्वैः सुखं त्रैलोक्यगोचरम् । भुक्तं तस्मादनन्तं सज्जायते परमेष्ठिनाम् ।। १२७ ।। एकेन समयेनैव भूषितानां गुरणाष्टकैः | नित्यानामशरीराणां सर्वोत्कृष्ट म्पयच्युतम् ॥। १२६ ।। मालिनी
विविधविभङ्ग: सप्ततत्वानि मुक्त्ये हगवगम सुबीजानि प्ररूप्यात्मवान्यः । परमुदमपि भव्यानां चकार स्ववाग्रमृतपरमतुल्यैर्मेऽत्र दद्यात्स्वमक्तिम् ॥३१२६ ॥
वाला द्रष्य मोक्ष होता है ।। १२१ ।। जिस प्रकार पैर से लेकर मस्तक पर्यन्त सुदृढ़ बंबों से गंधा हुधा मनुष्य बंधन छूटने से सुख को प्राप्त होता है उसी प्रकार कर्मों के क्षय मुक्त जीव सुख को प्राप्त होता है ।। १२२ ।। मोक्ष से कर्मबन्धन रहित जीव एरण्ड आदि के बीज के समान एक समय मात्र में लोकाप्रभाग तक ऊपर की भोर जाता है ।। १२३ ।। वह मुक्त जीव निराबाधरूप से उसी लोकाप्रभाग में स्थित हो जाता है क्योंकि धाने धर्मास्तिकाय का प्रभाव होने से गमन रहित होता है। मुक्तजीव घनन्त सुखरूपी सागर में निमग्न रहता है ।। १२४ ।। वहां वह शुद्ध, सिद्ध परमात्मा, निराबाध, स्वकीय प्रात्मा से उत्पन्न, विषयातीत वृद्धि और ह्रास से रहित महान् सुख का उपभोग करते हैं ।। १२५ ।। feaों का वह सुख, दुःखों से रहित है, निरुपम है, स्थाई है, प्रात्मसुख से उत्पन्न है, अनंत है, उत्कृष्ट है औौर परदूष्य से निरपेक्ष है ।। १.२६ ।। समस्त मनुष्य और देवों के द्वारा तीन लोक सम्बंधी जो सुख प्राज तक भोगा गया है उस सुख से सिद्ध परमेष्ठी का सुख धनत गुरगा होता है ।। १२७ ।। जो एक ही समय में भाठ गुणों से विभूषित हैं, नित्य हैं तथा शरीर रहित हैं ऐसे मुक्त जीवों का सुख सर्वोत्कृष्ट तथा विनाश से रहित होता है ।।१२८|
इस प्रकार शुद्ध मात्म स्वरूप को प्राप्त हुए जिन पार्श्वनाथ भगनान् ने उत्कृष्ट अमृत के तुल्य अपने वचनों से उत्पन्न नाना भङ्गों के द्वारा मुक्ति के लिये सम्यग्दर्शन पौर सम्यग्ज्ञान के उत्तम बीज स्वरूप सात तत्त्वों का मिरुपरंग कर भव्य जीवों को उत्कृष्ट धानंद उत्पन्न किया था वे पार्श्वनाथ जिनेन्द्र इस जगत् में मेरे लिये अपनी शक्ति प्रदान करें ।। १२६ ।।
१. महान् सुखम् ० ० ।
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२७२ ]
• श्री पारवनाथ चरित -
शार्दूलविक्रीरितम् पाश्वः सर्वसुखाकरोऽसुखहरो पावं श्रिता धमिरण:
. पाश्र्चेरणाशु समाप्यतेऽमरपदं पापर्वाय मूर्मा नमः । पापन्निास्ति हितकरी भवभृतो पार्यस्य मुक्तिप्रिया
पार्श्व वित्तमहं दधेऽखिलचिदे मां पाश्वं पागवं नय ।। १३०।। इति प्रामारक पीसकसकी तबियत भोपासना यार तस्वोपदेशवर्णनो नाम विंशतितमः सर्गः ।।२।।
पार्श्वनाथ भगवान समस्त सुखों की खान तथा समस्त दुःख हर्ता थे, धर्मात्मा जीव पाश्वनाथ को प्राप्त हुए थे, पार्श्वनाथ के द्वारा शीघ्र ही अविनाशी पद प्राप्त किया गया था, पार्श्वनाथ के लिये शिर से नमस्कार करता है, पार्श्वनाथ से बढ़कर दूसरा प्राणियों का हित करने वाला नहीं है, पाश्वनाथ की मुक्ति प्रिया थी, मैं पूर्णज्ञान की प्राप्ति के लिये पावनाष में अपना चित्त धारण करता हूँ, हे पार्श्वनाथ ! मुझे अपने समीप ले बलो ॥१३०॥
इस प्रकार श्रीभट्टारक सकलकीति द्वारा विरचित श्रीपाश्चमाषचरित में तस्योप. पेश का वर्णन करने वाला बीसवा सर्ग समाप्त हुमा ॥२०॥
१. परप
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एकविंशतितम सगं .
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एकविंशतितमः सर्गः धर्मोपदेशदातारं विजगम्यबोधकम् ।दिव्यध्वनिसुघापानमूना बन्दे जगद्गुरुम् ।।१।। प्रथ प्रागुक्ततत्त्वानि पुण्यपापतयेन हि । सार्द्ध नवपदार्थाः स्यु ज्ञानशुद्धिकारकाः ।।२।। मिध्यात्वपोषणास स्वबन्धनमारणात् प्रसत्यवचनादन्यश्रीस्थ्यादिहरणादवि ॥३॥ उपधेः संग्रहाल्लोभात्पञ्चेन्द्रियप्रसेबनात् । विकथादिप्रदानाच्च बहुभेदास्कषामतः ॥ कौटिल्यमनसो दुष्टवायाच विक्रियाङ्गतः । सप्तव्यसनतो देवगुरुधर्मादिनिन्दनात् ॥५॥ इस्यायन्यदुराचारान्महापापं प्रजायते । विश्वदुःखाकरीभूतं प्रमादिनां प्रतिक्षणम् ॥६॥ रोगक्लेशादिबाहुल्यं चान्धत्वं विकलाङ्गता 1 पंगुत्वं वामनत्वं कुम्भकरवं च कुजन्मता ॥७॥ दुभंगस्व हि पापित्वं मूर्खता बुद्धिहीनता । परफिङ्करतातीवकषायित्वं कुरूपता
एकविंशतितम सर्ग जो धर्मोपदेश के वेने वाले थे, और दिव्ययनिरूपी अमृत के पान से जो तीन जगह के भव्य जीवों को प्रबुद्ध करने वाले ये उन जगद्गुरु पार्श्वनाथ को मैं शिर से नमस्कार करता हूँ॥१॥
प्रथानन्तर पहले कहे हुए सात तत्त्व, पुण्य और पाप इन दो के साथ मिल कर नौ पदार्थ होते हैं। ये नौ पदार्थ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को शुद्ध करने वाले हैं ॥२॥ मिथ्यात्व का पोषण करने से, जीवों के वध बन्धन और मारण से, प्रसस्य वचन से दूसरे को लक्ष्मी तथा स्त्री प्रावि के अपहरण से, पृथिवी पर परिग्रह का संग्रह करने से, लोभ से, पञ्चेन्दियों के सेवन से, विकथा प्रादि के करने से, नाना प्रकार की कवाय से, कुटिलमन से, दुष्ट पचन से, विकृत शरीर से, सप्तव्यसन से, देव गुरु और धर्म प्रादिको । निन्दा से तथा इन्हीं के समान अन्य दुराधार से प्रमादी जीवों को प्रतिक्षण समस्त दुःखों की खान स्वरूप महान् पाप होता है ॥३-६॥ रोग तथा क्लेश प्रावि की प्रचुरता, अंधापन, विकलाङ्ग होना, लगड़ा होना, बौना होना, कुबड़ा होना, खोटा जन्म होना, दुर्भग होना, पापी होना, मूर्ख होना, बुद्धि रहित होना, पर का किङ्कर होना, अत्यन्त कषाय से युक्त होना, कुरूप होना, दरिद्र होना, प्रत्यन्त दोन होना, अल्पायुष्क होना, कुरूप स्त्री का मिलना, शत्रु तुल्य पुत्र और भाइयों का प्राप्त होना, समस्त कुटुम्ब का धर्मघातक, पौर
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• भी पारनाथ धरित . वारिद्रयमतिदीमत्वं स्वल्पजीवित्वमेव हि । कुरूपा कामिनी पुत्राः शत्रुतुल्याश्च बान्धवाः ।।६।। कुटुम्बं सकलं धर्मघ्नं विश्वाकर्मकारणम् । दुर्गती भ्रमणं नीचकुलत्वं यशो महत् ।।१।। इत्याचत्रा परं यच्च दृश्यते दुःखदायकम् । पापिना विधि सरकृत्स्नं पापारिवनितं महत् ।।११।। परिकभिभुवने निन् स्वानिष्टं दुःखकारणम् । पापचत्त रकस्य स्यात्तत्सर्व कदुकं फलम् ॥१२।। पापहेतोः परित्यागः सत्त्ववाधादिटालन:' । हितसत्यवचोभाषणैः परस्यादिवजन: ।।१३।। सर्वनायु परित्यागैः पञ्चेन्द्रियविनिग्रहः । प्रयत्नाचरणः सर्वेः कषायारिनिपातनः ॥१४॥ पर्मोपदेशकृताक्यः संवेगाकिसमानसः । स्थिरशाम्यभिश्च जिनेन्द्रगुरुसेवनैः ।१५॥ सामादिवशधर्मामानाचरणादिभिः ।सर्वसस्वहिताचार: सध्यान वनादिभिः ॥१६॥ इत्याचन्यशुभाचारमहापुण्यं सतां भुवि । उत्पद्यतेऽनिर्श विश्वं विश्व शर्मनिबन्धनम् ॥१७॥ कामिन्यः कमनीयानाः कामदेवनिभाः सुताः । बान्धवाः प्राणतुल्याश्च भृत्या दक्षा हितकराः।।१८।। सत्पुण्यप्रेरकं सर्व कुटुम्ब सुखसाधनम् । भोगोपभोगवस्तूनि श्रीधान्यादीन्यनेकशः ॥१६॥ समस्त प्रकायों का करने वाला होना, दुर्गति में भ्रमण करना, नोचकुल में उत्पन्न होना, बहुत भारी अपयश का प्राप्त होना और इन्हें प्रावि लेकर प्रम्य जो कुछ भी दुःखवायक सामग्री पापी जीवों के देखी जाती है वह सब महान् सामग्री पापरूपी शत्रु के द्वारा उत्पन्न की हुई जानो ॥७-१२॥ संसार में जो कुछ भी निन्दनीय, अपमे लिये प्रनिष्ट तया दुःख का कारण है वह सब पापरूपी धतूरे का कडबा फल है ॥१२॥
पाप के कारणों का परित्याग करने से, जीवों की बाधा प्रावि के दूर करमे से, हितकारी सत्य वचन बोलने से, पर स्त्री प्रावि को छोड़ने से, सब स्त्रियों तथा परिग्रह के स्याग से, पञ्चेन्द्रियों के निग्रह से, प्रयत्न पूर्वक समस्त प्राचरण करने से, कषायरूपी शत्रु का घात करने से, धर्मोपदेश को करने वाले बचन बोलने से, संवेग से युक्त मन से, स्थिर पौर शान्त शरीर रखने से, जिनेन्द्र वेव और गुरु को सेवा से, क्षमा मादि दशधर्म के प्रौ से, सम्यग्दर्शन सम्यम्मान और सम्यश्चारित्र प्रावि से, सब मोवों का हित करने वाले पाचार से, ध्यान सहित भावना प्रादि से तथा इन्हें प्रावि लेकर अन्य शुभ क्रियानों से पृथिवी पर सत्पुरुषों को निरन्तर बहुत भारी पुण्य उत्पन्न होता है । यह पुण्य समस्त सुखों का कारण है ॥१३-१७॥ सुन्दर शरीर की धारक स्त्रियां, कामदेव के समान पुत्र, प्राणों के समान भाई, चतुर और हितकारी सेयक, उत्तम युण्य कायों में प्रेरणा देने वाला सुक का साधन स्वरूप समस्त कुटुम्ब, लक्ष्मी तथा धन धान्यादि भोगोपभोग की अनेक वस्तुए, एकछत्र राज्य, रोगरहित सुन्दर शरीर, अमृतमयी दिल्यवारणी, पाण्डिस्य, निर्मल यश, १.दरीकरणैः २. ज्यामहितः ।
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-एकविंशतितम सर्ग.
। २४ एकच्छत्रांकित राज्यं रुदूर सुन्दर वपुः । वाणी सुधामयी दिव्या पाण्डित्य निर्मलं यशः॥२०॥ इन्द्रत्वं तीर्घनाधरम देवत्वं हृदय शुभम् । निःकषायित्वमस्यन्त मान्यरवं धर्मशीलता ॥२१॥ इत्यादि' लभ्यतेश्यद्वा वस्तुसारं सुधार्मिकः । तस्सवं विद्धि घी मंस्त्वं फलं पुण्यत रोमहत् ।।२२॥ परिकश्चिद में सारं दुराराध्य अगस्त्रये । सर्व करतले तच्चायाति पुण्यात्स्वयं सताम् ।।२३॥ इति विश्वपदार्थान् सनिरूप्याशिलतस्ववित् । हेयोपादेयमित्याह स प्रादेमाप्तयेऽङ्गिनाम् ।।२४।। समस्तासुमता मध्ये पञ्चेव परमेष्ठिनः । जगदा उपादेया धीमतां व्यवहारतः ।।२।। मम्हरारमाथवादेयः प्रागवस्थास्थयोगिनाम् । साक्षाच्च परमात्मा बहिरारमानं विहाय वे ॥२६॥ म्बकीय परमात्मा वा निर्विकल्प नरवाल एवादेयो वीतरागयोगिनाम् ।।२७।। पाप्यजीवतस्वोऽत्र विधारसमये विदे। मादेयोऽपि पुनहयोध्मानकाले मुनीशिनाम् ।।२।। सस्पुण्यात्रवन्धो यमप्यादेयो च रागिणाम् । पापस्यापेक्षया हेयौ तपास्यत्र विरागिणाम् ।।२।। सामान्मुक्रयङ्गनाहेतुः साद निर्जरयापरः । संवरः सर्वथादेयो मोक्षश्यानन्तशर्मदः ॥३०॥
इन्द्रपद, सीर्थकर पर, देवस्व, शुभहवय, अत्यन्त कवाय रहित होना, मान्यता, धर्मशीलता और इन्हें प्राधि लेकर अन्य को भी श्रेष्ठ वस्तु धार्मिक जीवों के द्वारा प्राप्त की जाती है उस मयको हे बुद्धिमान जम हो | तुम पुण्यरूपी वृक्ष का महान फलानो । तीनों जगद में जो कुछ भी दुर्लभ, सारभूत तथा कष्ट से माराधना करने योग्य वस्तु होती है वह सब पुण्य से सत्पुरुषों के हस्ततल पर स्वयं प्रा जाती है ॥१५-२३॥ इस प्रकार समस्त तस्वों के जाता भगवान पाश्वनाथ सब पदार्थों का अच्छी तरह वर्णन कर प्राणियों को पहल योग्य वस्तुओं की प्राप्ति कराने के लिये हेयोपावेय वस्तुओं का निम्न प्रकार वर्णन करने लगे ॥२४॥
___व्यवहारमय से समस्त प्राणियों के बीच जगत्पूज्य पञ्चपरमेष्ठी ही बुद्धिमान पुरुषों के लिये उपादेय हैं ॥२५॥ अथवा पूर्व अवस्था में स्थित मुनियों के लिये बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा और परमात्मा साक्षात् उपादेय हैं । और वीतराग मुनियों के लिये निविकरुप पद को प्राप्त तथा सिद्धों की समानता रखने वाला स्वकीय परमात्मा ही उपाय है ॥२५-२७॥ यद्यपि अजीच तत्व विचार के समय ज्ञान प्राप्त करने के लिये उपादेय भी तथापि ध्यान के समय यह मुनियों के लिये हेय है ॥२८॥ याप रागी मनुष्यों के लिये पाप की अपेक्षा उत्तम पुण्यात्रव और पुण्यबन्ध उपादेय हैं तथापि विरागी मनुष्यों के लिये यहां हम है-छोड़ने के योग्य हैं ।।२६।। निर्जरा के साथ मुक्तिरूपी अङ्गना का साक्षात हेतु स्वरूप उत्कृष्ट संबर और अनन्त सुख को वेने वाला मोक्ष सब प्रकार से उपादेय हैं। 1 मथले ग० २. पसिनप्रापिनाम् ।
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२७ ]
• श्री पार्वनाव परित. एतेषां विश्वतस्वाना श्रद्धानं सुदर्शनम् । व्यवहाराभिष प्राजिनाः शहाविदूरगम् ।।३१।। परिमान पदार्थाना यामातथ्येन यद्भुवि । तज्जान व्यवहारास्यमझानप्यान्तमासनम् ।३२।।
स्मासुभानिवृसिर्या प्रवृत्तिः शुभकर्मणि । त्रयोवविध वृत्तं तभूक्तिमुक्तिकारणम् ॥३३।। प्रदान क्रियते भव्यै यभिचन्मूनिजात्मनः । तस्यानिश्चयसम्यक्त्वं साक्षान्मुक्तिनिवन्धनम् ३४ यत्स्वसंबेदन स्वात्मष्यानेन परमारमनः । सज्जान निश्चयामित्य केवलशानकारणम् ।।३।। ज्यामिना भरणं यदि स्वस्वरूपे निजात्मनः । चारित्रं निश्चयाख्यं तस्परमानन्दसागरम ।।३।। भावार्थ-हयोपाषेय तत्वों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि व्यवहार नय से जीव तत्व में पञ्चपरमेष्ठी उपादेय है शेष हेग हैं। मसालय को सापेक्षा अमरामा और परमात्मा उपादेय है बहिरास्मा हेय है और बोतराग मनुष्यों को प्रपेक्षा अपना शुद्ध प्रास्मा ही उपा. देय है अन्य हेय है । प्रजोषसस्व ज्ञान की अपेक्षा उपादेय है परन्तु ध्यान के समय हेय है अर्थात् पात्म कल्याण के इच्छुक मनुष्यों को शुद्धात्मतत्व का चिन्तन करना चाहिये प्रजोष का नहीं। रागी मनुष्यों को पापात्रय और पापबन्ध हेय हैं पुण्यालय और पुण्यबन्ध उपादेय हैं परन्तु वीतरागी-युरोपयोगी मुनियों के लिये दोनों प्रकार के प्रास्त्रव और बन्ध हेप हैं । संबर और प्रविपाको निर्जरा मोक्ष के साक्षात् कारण होने से उपाय हो है हेय नहीं है और लक्ष्यसूत होने से अनन्त सुख को देने वाला उपादेय ही है ॥३०॥
इन समस्त तत्त्वार्थों-अपने अपने ययार्य स्वरूप से सहित जीवादि पवायों के थदान करने को जिनेन्द्र भगवान ने व्यवहार सम्यादर्शन कहा है। यह व्यवहार सम्यग्दर्शन साकुर प्रादि दोषों से रहित होता है ॥३१॥ इन्हीं पदार्थों का पृथिवी पर जो यथार्थरूप से बानना है उसे प्रशानरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाला व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते हैं ।।३२॥ समस्त अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ कार्यों में जो प्रवृति है वह तेरह प्रकार का चारित्र है । यह चारित्र भुक्ति और मुक्ति का कारण है। भावार्थ-सराग चारित्र के काल में देवायु का बन्ध होता है प्रतः वह भुक्ति का कारण है। भावार्थ-सराग चारित्र के काल में वेवायुबंध होता है प्रतः वह भुक्ति का कारण है और वीतराग चारित्र से कर्मक्षय होता है प्रतः वह मुक्ति का कारण है ॥३३॥
भव्य जीवों के द्वारा चैतन्यमूति-ज्ञायक स्वभाव वाले निज प्रात्मा का जो श्रद्धान किया जाता है वह निश्चय सन्यावर्शन है। यह निश्चय सम्यग्दर्शन मोक्ष का साक्षात् कारण है ॥३४॥ स्वात्मध्यान के द्वारा परमात्मा का जो स्वसवेवम है वह निश्चय सम्यमान है। यह निश्चय सम्यग्ज्ञान केवलज्ञान का कारण है ।।३।। ध्यान करने वाले मुनियों का निजात्मा के स्वकीय स्वरूप में जो लीन होना है वह निश्चय सम्यक् चारित्र है। यह निश्चय सम्यक्चारित्र परमानन्द का सागर है-प्रनन्त सुख से परिपूर्ण है ।।३६।।
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. एकविंशतितम सर्ग .
[ २७७
.-AnuranARARAur-khanna-prrianvrvan
निश्चयाख्यमिदं रत्नत्रय सद्भवमोअदम् । निरीपम्मसुखाकारं विश्वकल्याणकारकम् ।।३७।। 'प्रगण्यपुण्य सन्तानामिनेशाविविभूतयः 1 चाचरत्नत्रयेणात्र जायरते धीमा पराः ।।३।। निश्चयेन सता मोक्षस्तद्भवेऽनन्तशर्मकृद । उत्पद्यतेऽत्र निःशेषकर्मनाहा गुणाएंव: ।। ३६॥ ये गता यान्ति यास्यन्ति मुनयोऽत्र शिवालयम् । केवलं ते द्विधासाच होई रत्नत्रय बुधाः ।।४।। प्रमोसो परमो मोक्षमागों रमत्रयात्मकः । द्विधाम्नातो जिनाधीशः शाश्वतो नापरः क्वमित् । पापिनो व्यसनासता रौद्रध्यानपरायणाः । करकर्मकराः करा निर्दया: सस्वधातकाः ।।२।। असत्यवादिनोऽन्यस्त्रीलक्ष्मीधान्यादिकाङ्क्षिण: । बारम्भकृतोत्साहा महापरिपहान्विता: 11४३| मिथ्यात्वपोषकास्तीवकषायियोऽतिलोभिन: । प्रत्यनीका मिनेन्द्राणां मुनिधर्मादिनिन्दका: १४४ नीचदेवरता मूढाः कृष्णलेश्या मदोद्धताः । ये ते यान्यनिनः श्व चेत्याद्यत्याधकारिण: ४५ यह निश्चय रत्नत्रय उसी भव से मोक्ष को मेने वाला है, निरुपम सुख का माह्वान करने बाला है तथा समस्त कल्याणों का करने वाला है ॥३७।। व्यवहार रत्नत्रय से इस जगत् में बुद्धिमान पुरुषों को पसंख्य पुण्य को सन्तति तथा तीर्थकरावि की उत्कृष्ट विभूतियां प्राप्त होती है और निश्चय रत्नत्रय में उसी भव में समस्त कमों का नाश हो जाने से अनन्त सुख को करने वाला तथा गुणों का सागर स्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है ।।३८-३९॥ जो मानी मुनिराज आज तक मोक्ष को प्राप्त हुए हैं सभी प्राप्त हो रहे हैं और प्रागे प्राप्त होंगे ये सब निश्चय से मात्र इसी दो प्रकार के रत्नश्रय को प्राप्त करके ही प्राप्त हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे ॥४०॥ इसलिये जिनेन्द्र भगवान ने इसी उत्कृष्ट तथा स्थाई द्विविध रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को स्वीकृत किया है अन्य को कहीं मोक्षमार्ग नहीं माना है। भावार्थ-न केवल व्यवहार रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है और न केवल निश्चय रत्नत्रय मोक्ष का गार्ग है किन्तु परस्पर मंत्रीभाव को प्राप्त हुआ विविध रत्नत्रय हो मोक्ष का मार्ग है गयोंकि निश्चय से निरपेक्ष व्यवहार रत्नत्रय व्यवहाराभास है और व्यवहार से निरपेक्ष निश्चय रत्नत्रय निश्चयाभास है।॥४१॥
जो जीव पापी हैं, व्यसनों में प्रासक्त हैं, रौद्रध्यान में तत्पर रहते हैं कर कार्यों को करने वाले हैं, दुष्ट प्रकृति के हैं, निर्वय हैं, जीवों का घात करने वाले हैं, प्रसस्यवादी है, परस्त्री परलक्ष्मी और परधान्यादि की इच्छा करते हैं, बहुत प्रारम्भ करने में उत्साह रखते है, बहत भारी परिग्रह से सहित हैं, मिथ्यात्व का पोषण करने वाले हैं, तीन कषायो है, अत्यन्त लोभी हैं, जिनेन्द्र के प्रतिकूल है, मुनिधर्म प्रादि के निन्धक हैं, नीच देवों की उपासना में लीन हैं, मूढ-प्रज्ञानी हैं, कृष्ण लेश्या वाले है, मद से उद्धत है तथा इसी प्रकार के अन्य पाप के करने वाले हैं ये नरकगति को प्राप्त होते हैं ।।४२-४५।।
१.प्रगम्य व. २, सन्तानानि जिनेशादिभूतय
ग. ५०३. कुम्न स्व. प.घ.।
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२७८]
•धी पाश्र्वनाय चरित. मायाविनोऽत्र ये दुष्टाः परवञ्चनतस्पराः । मिथ्याशश्च पैशुन्यकूट कर्मरताः' शठा: II४६|| कपोतनीललेश्याढया निःशीला धर्मदूरगाः । प्रात्तं यानपरास्तिर्यग्योनि ते यान्ति पापिनः ।।७। पात रोद्रालिगा दक्षा घम्यै क्लापिताशयाः । जिन भक्ताः सदाचारा व्रतशीलादिभूषिताः ।। जितेन्द्रियास्तपोभूष। जिनधर्मपरायणाः । जितक्रोधादिसम्ताना रत्नत्रयविमण्डिताः ॥ मिथ्याद्विवषतुल्या ये निम्न्यसेवनोत्सुकाः । निःप्रमादा पदातीताः परनिन्दापरा मुखाः।।५।। त्यायन्यसुकर्माढया मुनयः भावका भुवि । ते गच्छन्ति यथायोग्यं स्वर्ग शर्माकर परम् ।।१।। स्वभारमादंवोपेताश्चार्जेवालधा: शुभाशयाः । भद्राः कपोतलेश्या ये मन्दमोहकषारिणः ॥५२॥ स्वल्पारम्मघनाकाहि क्षणो अजन्त्यत्र देहिनः । गति ते शुभध्यानाः पुण्यपापवशीकृताः ॥५३॥ मृण्वन्ति परनिन्दादीन विकथा दुःश्रुतानि च । प्रसत्यदुर्वचोमालाः कूटादीन्यत्र ये मठाः ।।४।।
जो जीव इस लोक में भायाचारो हैं, दुष्ट हैं, दूसरों को ठगने में तत्पर रहते हैं मिष्यादृष्टि है, चुगल खोरी और कपट के कार्यों में लीन रहते हैं, धूर्त है, कापोत और नील लेश्या से युक्त है, शोल रहित है, धर्म से दूर भागते हैं, और प्राप्तध्यान में तत्पर रहते हैं वे पापो जीव तियंञ्च योनि को प्राप्त होते हैं ।।४६-४८।।
जो पात और रौद्र ध्यान से दूर रहते हैं, कुशल हैं, जिनका मम षम्यध्यान और शुक्लध्यान में लगा हुआ है, जो जिनेन्द्र भगवान के भक्त हैं, सबाधारी हैं, बस तथा शील प्रावि से विभूषित हैं, जितेन्द्रिय है, तपरूपी प्रामूषण से सहित हैं, जिनधर्म की उपासना में तत्पर रहते हैं, जिन्होंने क्रोधादि को सन्तति को जीत लिया है, जो रत्नत्रय से मण्डित है, मिथ्यात्वरूपी पर्वत को घूर घूर करने के लिये बम्र के समान हैं, निथ मुनियों को सेवा करने में उत्सुक रहते हैं, प्रमावरहित हैं, मद से दूर हैं, परनिंदा से विमुख हैं, और प्रतिमा निर्माण प्रादि अन्य शुभ कार्यों से युक्त है ऐसे मुनि अथवा श्रावक इस जगत में ग्थायोग्य सुख को स्वान स्वरूप उत्कृष्ट स्वर्ग को प्राप्त होते हैं ।।४६-५१॥
जो स्वभाव की मृदुता-कोमलता मे सहित है, प्रार्जय-निश्छलवृति से युक्त है, शुभ प्रभिप्राय वाले हैं, भद्र हैं, कपोत लेश्या से युक्त है, जिनका मोह और कषाय मन्द है, जो प्रत्यन्त अल्प प्रारम्भ और अत्यन्त अल्प धन की इच्छा करते है, शुभध्यानी है तथा पुण्यपापधोनों के वशीभूत हैं वे जोव मनुष्यगति को प्राप्त होते है ।।५२-५३॥
___ जो परनिन्दा, विकथा तथा मिथ्याशास्त्र प्रादि को सुनते हैं, प्रसत्य तथा मोटे वचन बोलते हैं, जो अज्ञानी जन इस जगत् में कपट प्रादि की बात कहते है, और शास्त्रों
1. पंशुन्या: फूटक में स्वग८ प २ मिनेन्द्रचन्द्रतुल्या ये नित्यमेधनोत्सुका.।।
नि:प्रमादा मदानीता परनिन्दायरामखा: ।। ..
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* एकविंशतितम सर्ग *
[ २७६ वदन्ति ये श्रुते दोषं श्रुतद्वेषादिहेतुना । प्रमुत्र वधिराः स्युस्ते ज्ञानावरणकर्मणा ।। ५५।। पोत्सूत्र स्वेच्छया मिथ्याशास्त्रारिण कुकथादिकान् । परनिन्दात्मशंसादीन्मृषामर्षादिभाषशान ।। ५६ ।। कुर्वन्तो मलमूत्रादीन् भोजनादीन् ब्रुवन्ति ये । मूकाः स्युः परलोके ते ज्ञानावृतिविधेर्वेशात् ।। ५७ परस्त्रीयोन्यादीन् बन्धोच्चाटनमारणान् । मिथ्यात्वस्थानकादींश्च पापकर्माणि मे मुदा । ५८ यस्य वदन्त्येवाऽदृष्टान् दृष्टान् वृथेष्यंया । ते चक्षुर्ह विपाकेन भवन्त्यन्धाः सुदुःखिताः ॥५६॥ चातिभारारोपणमङ्गिनाम् । पादेन ताडनं पापकार्य गमनमेव ये ।। ६० ।।
गमन
कुतीर्थे प्रयत्नव्रजन व्यर्थं कुर्वन्ति
स्वल्पवित्ता हि ये पात्रदानं कुस्यनेकधा । जिनचैत्यालयादींश्च न्यायेन व्यवसायं च
सस्वबाधकम् । पङ्गवस्ते भवन्त्यत्र चाङ्गोपाङ्ग विधेवंशात् ।। ६१ ।। देवगुर्वादिपूजनम् ।। ६२ ।
कूटहीनाधिकातिगम् । ते महाधनिनः सम्ति हीहामुत्र शुभयात् ।। ६३ ।। कुर्वते बनगवं ये न पात्रे दानपूजनम् । धनिनः कृपणास टाकादिकान् ।। ६४ ।।
में द्वेष रखना प्रावि कारणों से शास्त्रों में बोष बतलाते हैं वे परभव में ज्ञानावरण कर्म से बहरे होते हैं ।।५४-५५॥
जो स्वेच्छानुसार श्रागमविरुद्ध बोलते हैं, मिध्याशास्त्र पढ़ते हैं, विकमा प्रावि करते हैं, परनिन्दा और श्रात्मप्रशंसा प्रादि करते हैं, असत्य तथा क्रोधादिपूर्ण भावर करते हैं तथा मलमूत्रावि और भोजनादि करते हुए बोलते हैं अर्थात् मौन नहीं रखते हैं वे ज्ञानावरण कर्म के यश से परलोक में गूंगे होते हैं ।। ५६-५७।।
जो पुरुष परस्त्रियों के मुख योनि प्रादि को, बन्ध, उच्चाटन तथा मारण आदि को, मिध्यात्व के पोषक स्थान प्रादि को, तथा अन्य पाप कार्य-मैथुन प्रादि को हर्वपूर्वक देखते हैं और व्यर्थ हो ईर्ष्या के कारण उनके देखे अनदेखे कार्यों को कहते हैं वे चक्षुर्दर्शनावररण कर्म के उदय से अत्यंत दुःखी होते हुए अन्धे होते हैं ।।५८-५६।।
जो यहां कुतीर्थ में गमन करते हैं, प्राणियों पर अधिक भार लावते हैं, उन्हें पैर से ताडित करते हैं, पाच कार्य में गमन करते हैं, तथा जीवों को बाधा पहुँचाने वाला विना देखे निष्प्रयोजन गमन करते हैं वे प्रङ्गोपाङ्ग नाम कर्म के उदय से परभव में लंगड़े होते हैं ।। ६०-६१ ॥
जो अल्पधनी होकर भी अनेक प्रकार का पात्रदान करते हैं, जिन मन्दिर प्राबि वाते हैं, देव गुरु प्रावि की पूजा करते हैं, और कपट तथा हीनाधिक तोलने प्रादि से बूर रहते हुए न्यायपूर्वक व्यापार करते हैं वे पुण्योदय से इसभव तथा परभव में महावनी होते हैं ।। ६२-६३ ।। जो धन का गर्व करते हैं, पात्रदान तथा पूजा श्रादि नहीं करते हैं,
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२८०
• भी पार्श्वनाथ परित. मृषारम्भान भजन्त्यत्र न तृप्ति यान्ति सच्छि या । सामान्तरायकमांदयारस्युस्तांसारमणः ।।६।। सुजना मन्दरागाश्च स्वस्त्रीसंतोषकारिणः । ईष्योतीवकषायाविहीना: श्रीजिनपूजका: ।।६।। शुभकर्मकरा येऽत्र बनाचारपरा मुखाः । नराः स्युरङ्गिनोऽमुत्र पुवेदाभित्रकर्मणा ॥६७।। मायाविनोऽतिरागाठ्या प्रतीयकामिनः शठा; । मैथु नादौ संतृप्ताः शोकादियुतमानसाः ।।६।। पुरुषाः परदाराकाहिमणो येऽत्रातिमोहिनः । भवन्त्यमुत्रनार्यस्ते स्त्रीवेदविधिपाकतः ।।६।। प्रमजकीरनासक्ताश्वातिरागान्धमानसाः नि:शीला लम्पटा बेश्यादासीपश्यादिसेविन: 1७०। पतृप्ताः कामभोगावी ये नराः कुधियोऽधमा: । नपुंसकविपाकेन ते जायन्ते नपुसकाः ।।७।। मनोवाक्काययोगेन कृताश्यातिनिर्दया: । सत्त्वानां क्षबन्धादीन् ये प्राणज्यपरोपणम् ।७२। ह्यङ्ग छेदनपीडादीन् प्रकुयु विविधान् शठाः । तेऽल्पायुष एवात्र भवन्ति मृत्युपीडिताः ।।७३।। ये मार्दवाजवोपेताः कृपापूरितमानसाः । प्रयत्नचारिणः सर्वजीवरक्षरण तत्पराः ।।७४।। परपीडातिगाः शश्चद्विश्वप्राणिहितकराः । दीर्घायुषोऽत्र ते जायन्ते तृदेवगतो शुभात् ।।७।। घनी होकर कंजस होते हैं, लक्ष्मी के लिये कपटपूर्ण प्राचरण प्रावि करते हैं । मिथ्या प्रारम्भ करते है और उत्तम लक्ष्मी से संतोष को प्राप्त नहीं होते वे लाभान्तराय कर्म के उदय पे प्रस्यन्त दरिद्र होते हैं ॥६४-६५॥ जो यहां सुजन हैं, मन्दराग है, अपनी स्त्री में सन्तोष करते हैं, ईष्या तथा तीन कषाय प्रावि से रहित है, श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते है, शुभ कार्य करते हैं और अनाचार से पराड मुख रहते है ये परभव में पुवेर कर्म के उदय से पुरुष होते हैं ॥६६-६७।। जो पुरुष इस भव में मायाचारी होते हैं, तीवराग से युक्त होते हैं, अधिक कामी होते हैं, धूर्त होते हैं, मैयुन प्रादि में असंतुष्ट रहते हैं, मनमें शोक प्रादि करते है, परस्त्री की इच्छा करते हैं और प्रत्यधिक मोही होते है, ये परभव में स्त्री वेब कर्म के उदय से स्त्री होते है।।६८-६६॥ दुर्बुद्धि को धारण करने वाले जो नीच मनुष्य प्रनङ्ग क्रीडा में प्रासक्त होते हैं, जिनका मन तीन राग से अन्धा होता है, जो शोल रहित है, लम्पट है, वेश्या दासी तथा पशु प्रादि का सेवन करते है तथा कामभोग आदि में कभी तृप्त नहीं होते हैं घे नपुसक वेव के उदय से नपुंसक होते हैं ॥७०-७१॥ अत्यन्त निर्वयता से युक्त जो मनुष्य इसभव में मन वचन कायरूप योग तथा कृत कारित अनुमोदना से जीवों के वध बन्धन आदि करते हैं, उनके प्राणों का विधात करते है, अच्छेवन तथा पीडा पहुंचाना आदि अनेक कार्य करते हैं वे मूर्ख परभव में मृत्यु से पीडित होते हुए अल्पायुष्क ही होते हैं ॥७२-७३॥ जो पुरुष इसभव में मादय और प्रार्जव धर्म से सहित होते हैं, जिनका मन दया से परिपूर्ण होता है, जो यत्नपूर्वक चलते हैं, सब जीवों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं, पर पोडा से दूर होते हैं, और निरन्तर समस्त प्राणियों का हित करते हैं वे पुण्योदय से मनुष्य तथा देवगति में दीर्घायुष्क होते है ॥७४-७५॥
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* एकविंशतितम सर्ग
[ २८१ धर्मशीला: सदाचारा जिन पूजापरायणाः । पात्रदानरता नित्यं प्रतशीलादिमण्डिताः ।।७।। संतोषकारिणो येऽत्र निजितेन्द्रियचेतसः । भौगोपभोगसंपूर्णाः स्यु: पुण्यारसुगताच ते ॥७॥ व्रतशीलक्ष्याहीना दानपूजापराड मुखाः । मिथ्यात्ववासिता मूढा: समस्तेन्द्रियलम्पटाः ।७। दुराधारा वृषातीताः . पापध्यानपराश्च ये। तेऽघपाकेन जायन्से दीना भोगादिवजिताः ।७।। धर्मवन्तो दयायुक्ता महाणुव्रतपालका: । तप:शीलगुणाढपाश्च हग्ज्ञानवृत्तधारिणः ।।८।। जिनभक्ताः सदाचारा दाना भावनान्विताः । ये ते सातोदयात्सन्ति महाशर्माधिमध्यगाः॥१॥ परपीडाकरा धर्मवतदानाचिजिताः । नि:शीला व्यसनासक्ता महारम्भादिकारिणः ।८२ मिथ्याज्ञानकुबेवादिभक्ताश्चेन्द्रियलोलुपाः ।ये ते दुःखाग्धिमम्नाङ्गा भवन्स्यसातपाकत: ।।३। देवशास्त्रगुरूणां ये ह्याजाविनयशालिनः । शुद्धाशयाः सदाचाराः सिद्धान्तपठनोधताः || मायाचाराविहीनाच धार्मिका गुणरागिणः । तेऽतिमेधाविनो ज्ञानावृत्यभावाद्भवन्ति वे 18| जिनागमयतीनां सद्धर्मादेमिणां च ये। निन्दा कुर्वन्ति शंसां च पापिनां निविवेकिनः ।६।
।
ओ पुरुष इस भव में धर्मशील, सदाचारी, जिन पूजा में तत्पर, पात्रदान में सीन, निरंतर वत शील प्रादि से विभूषित, संतोष करने वाले, तथा इन्द्रिय पोर मन को जीतने वाले होते हैं वे पुण्योदय से उत्तम गति में भोगोपभोग से परिपूर्ण होते हैं ॥७१-७७॥ जो मनुष्य व्रत शील तथा वया से रहित हैं, दान और पूजा से पराङ मुख हैं, मिथ्यात्व की वासना से युक्त हैं, मूह है, समस्त इन्द्रियों के लम्पट हैं, दुराचारी हैं, धर्म से रहित हैं और पाप के ध्यान में तत्पर हैं ये पापोवय से दोन तथा भोगादि से रहित होते हैं ॥७१-७६॥ जो धर्म से सहित हैं, दयायुक्त हैं, महावत और अणुव्रतों का पालन करते हैं, सप शील और गुणों से सहित हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र के धारक हैं, जिनभक्त हैं, सदाचारी हैं, और दान पूजा तथा भावनाओं से सहित हैं वे पुण्योदय से महासुखरूपी सागर के मध्यगामी होते हैं ।।८०-८१॥ जो दूसरों को पीडा करते हैं, धर्म, व्रत तथा वानावि रहित है, निःशील हैं, व्यसनों में प्रासक्त हैं, महान प्रारम्भ प्रादि के करने वाले हैं, मिथ्याज्ञान तथा कुदेवादि के भक्त हैं और इन्द्रियों के लोभी हैं ये प्रसाता वेदनीय के उदय से बुःखरूपो सागर में निमग्न होते हैं ।।८२-१३॥
जो देव शास्त्र और गुरुमों की प्राज्ञा तथा विनय से सुशोभित है, शुबहत्य है, सदाचारी हैं, सिद्धांत ग्रंथों के पढ़ने में उद्यत रहते हैं, मायाचारावि रहित है, धर्मात्मा है तथा गुणानुरागी हैं वे ज्ञानाधरण के प्रभाव से प्रत्यंत बुद्धिमान होते हैं ।।८४-८५॥ जो जिन देव जिन शास्त्र और मुनियों की, समीचीन धर्म प्राधि की तथा धर्मात्मा जीपों की निन्दा करते हैं, और पापी जीवों की प्रशंसा करते हैं, विवेक रहित हैं, पुरुषों को कुबुद्धि
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१८२
* मौ पाश्र्श्वनाथ चरित *
पुंसां कुबुद्धिदातारो
जिनधर्मपराङमुखा: । से 'दुर्मेधाविनो मिथ्योदयात्स्युः पापकारिणः ॥८७ कालशुद्धयादिना जैनागमं मुक्त्यं पठन्ति ये । पाठयन्ति विचारशा 'निः पापाचारणान्विताः निःशङ्कादिगुणोपेता मर्मोपदेश तत्पराः । पाण्डित्यमद्भुतं ते च प्राप्नुवन्ति भवे भवे ॥ ८१ ॥ दूषणं जिनसूत्रस्य वदन्ति ज्ञानगर्विताः । पठन्ति स्वेच्छया कूटं शास्त्रं विनयदूरगाः || || पाठयन्ति न पाठा तद्गुणाच्छादकाश्च ये । ते ज्ञानावृतिपाकेन महामूर्खा भवन्त्यहो || ६१ निःशीला निर्दया दानव्रतपूजादिवजिताः । स्वेच्छाचाररता नानारम्भहिंसादिवर्तिनः ॥९२॥ परपीडाकरा पापकर्मवन्तो वृषातिया: । ये सातोदयेनात्र रोगिशाः स्युश्चतुर्गतौ ॥६३॥ पशूनां वा नृणां येऽत्र वियोगं कुर्वते शठाः । परस्त्रीधनवस्तून्यपहरन्त्यतिलोभिनः ।।१४।। प्रतिशोकाकुला अन्य विघ्न संतोष कारिणः । ते लभन्ते वियोगाश्च पुत्रदारादिवस्तुषु ||१५|| निर्दया येऽङ्गिनो हस्तादादिच्छेदनं मुदा भजन्ति परपीडां च नीचकमरताः शठाः ।। ६६ ।।
देते हैं और जिनधर्म से पराङमुख रहते हैं ऐसे पाप करने वाले जीव मिथ्यात्व के उदय से दुर्बुद्धि होते हैं ।।८६-८७ जो मुक्ति के लिये कालशुद्धि श्रावि का विचार रखते हुए जैनागम को स्वयं पढ़ते हैं तथा दूसरों को पढ़ाते हैं, विचार को जानने वाले हैं, निर्दोष श्रावण से सहित हैं, निःशङ्कता प्रादि गुणों से सहित हैं तथा धर्म का उपदेश देने में रात्पर रहते हैं वे भवभव में प्राश्वर्यकारी पाण्डित्य को प्राप्त होते हैं ।॥
ओ ज्ञान के गर्व से युक्त हो जिनागम के दोष कहते हैं, अपनी इच्छानुसार कृत्रिम फल्पित शास्त्रों को पढते हैं, विनय से दूर रहते हैं, पढाने योग्य पाठ को नहीं पढाते हैं तथा गुणी जनों के गुणों का प्राच्छादन करते हैं वे ज्ञानावरण कर्म के उदय से महामूर्ख होते हे ।।६० - ६१ ।। जो शोल रहित है, दया रहित हैं, दान व्रत और पूजा आदि से रहित हैं स्वेच्छाचार में लोन हैं, नाना आरम्भ तथा हिंसा प्रावि में प्रवृत्त है, दूसरों को पोडा करने वाले हैं, पाप कर्मों से युक्त हैं तथा धर्म का उल्लंघन करने वाले हैं वे श्रसाता वेदनीय के उदय से चारों गतियों में रोगी होते हैं ।। ६२-६३ ।। जो सूर्ख इस भव में पशुओं और मनुष्यों का वियोग करते हैं, परस्त्री परधन श्रौर पर वस्तुनों का अपहरण करते हैं, अत्यन्त लोभी हैं, प्रत्यधिक शोक से युक्त हैं, और दूसरों के विघ्न में संतोष करते हैं वे पुत्र तथा स्त्री प्रावि वस्तुनों के वियोग को प्राप्त होते हैं ।।६४-६५।।
जो निर्दय मनुष्य, हर्षपूर्वक किसी प्रारणी के हाथ पैर प्रावि श्रङ्गों का छेवन करते हैं, दूसरों को पीडा पहुंचाते हैं, नोच कार्यों में लीन रहते हैं, मूर्ख हैं, अपने प्रङ्गोपाङ्गों से
१. दुबुं यः २. नि:पापचाराबिता म० ।
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• एकविशतितम सर्ग.
२८१
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स्वाङ्गोपाङ्गीविकारं च धर्मदूराः कुशनगाः । प्रवाशुक्ति है: 1 विकलासृतौ ॥६७|| मिथ्याहग्नानवृत्तानि श्रेयोऽथं वा घरन्ति ये। जैनमार्गहिता महामिथ्यात्ववासिताः॥८॥ मास्तिकाः पापसूत्राडपा धर्मार्थ सस्वहिंसकाः । तीव्राः कषापिणस्तेषामनन्सा भवपद्धतिः || ये रत्नत्रयभूषाशा जैनमार्गपरायणाः । ध्यानाध्ययनसंसक्ता पोरवीरतपोऽन्विताः ॥१०॥ कायक्लेशपराधीना मुनयः स्युजितेन्द्रियाः । तेषा कमसयाद्यात्संसारक्षय एव ॥१.१॥ ये नमन्ति जिनाधीमान्मुनीन्प्रन्यपरिच्युतान् । भक्त्या धर्मवतो जनश्रुतादींश्च वृषाप्तये ||१.२। सेवा कुर्वन्ति तेषां च सर्वेषां गुणरञ्जिताः । उच्पर्गोत्रविधेदंशा उपचर्गोत्रं धयन्ति ते ।।१०।। जिनेन्द्रयसिशास्त्राणां नमस्कारं न कुर्वते । सेवां च विनयं भक्ति येऽपमा गणिताशयाः॥१.४| नीचदेवरता नीथगुरुधर्मारिसेवकाः । मोचगोत्रवशानीचगोत्रं तेषां च जायते ।।१०।। कारणानि बुभा दर्शनविसुद्धपादि षोडश । त्रिशुद्धधा हविभूषा ये माश्यन्ति निरन्तरम् १०६ धिकार पूर्स चेष्टा करते हैं, धर्म से दूर रहते हैं और कुमार्ग में गमन करते हैं वे पापी जीव संसार में विकल अङ्गों को प्राप्त होते हैं ।।६६-६७॥
जो मनुष्य, कल्याण के लिये मिथ्यावर्शन मिथ्याशान और मिथ्याचारित्र का प्राथ. रण करते हैं, जैनमार्ग से बाहर है, महामिथ्यात्व की वासना से युक्त हैं, नास्तिक है, पापपोषक शास्त्रों से युक्त हैं, धर्म के लिये जीवों की हिंसा करते हैं, और तीन कषाय से युक्त हैं उनकी संसार की पद्धति अनन्त होती है अर्थात् वे अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करते है ॥९५-९६॥ जिनके शरीर रत्नत्रयरूप प्राभूषण से विभूषित है, जो जन मार्ग में तत्पर है, ध्यान और अध्ययन में संलग्न रहते हैं, घोर और वीर तप से सहित हैं, कागक्लेश तप के पराधीन है, तथा इन्द्रियों को जीतने वाले हैं ऐसे मुनियों के कर्मक्षय होने से संसार का भय ही होता है अर्थात वे नियम से मोक्षगामी होते हैं ।।१००-१०१॥जो मनुष्य धर्म की प्राप्ति के लिये जिनेन्द्र भगवान, निर्गन्य मुनि, धर्मात्मा जीव तथा जनशास्त्र पादि को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं, और गुरणों में अनुरक्त होकर उनकी सेवा करते है वे पतुर मनुष्य उच्चगोत्र कर्म के उदय से उच्चगोत्र को प्राप्त होते हैं ॥१०२-१०३।। जो नीच पुरुष अहंकार से युक्त होकर देव गुरु और शास्त्रों को नमस्कार नहीं करते हैं, उनकी सेवा, विनय और भक्ति नहीं करते हैं किन्तु इसके विपरीत नीच देवों में लीन रहते है और नीच गुरु तथा नीच धर्मादि को सेवा करते हैं उन्हें नीचगोत्र कर्म के उदय से नीचगोत्र नीच कुल प्राप्त होता है ।।१०४-१०५॥
सम्यग्दर्शनरूपी प्राभूषण से विभूषित ओ जानी जीव निरन्तर मन बचन काय को शुद्धि पूर्वक दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह कारणों की भावना करते है, वे यहाँ अनन्त
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• श्री पार्श्वनाथ परित. तीर्थनापपर्व तेऽत्राप्नुवन्स्येव न संशयः । मनन्तमहिमारुढं जिगरक्षोभकारणम् ॥१.७॥ ये पति सी घार चारित्रं शाशनिर्मलम् । हत्वा विषयसन्तानं च्यारिपूजाविदूरगाः ॥१.' यतयस्तीतसंवेगा ध्यानाध्ययनसत्पराः । प्रहमिन्द्रविभूति से शर्मनानि भवन्ति च ॥१०॥ हत्वा पञ्चाक्षश म्ये दषते परणं तपः । दुःकरं शासने जैने भव्या निजितमानसाः ।।११।। देवलोके सुखं भुक्त्वा चक्रनापा भवन्ति ते । बदलण्डस्वामिनो रत्ननिधिदेवखगाधिपाः ।१११॥ नि:शादिगुणोपेतं दर्शनं चन्द्रनिर्मलम् । धर्मकल्पमस्येव मूलं युद्धं हि मानसम् ।।११२।। भवेद्रस्नत्रयं सर्वाङ्गित्या परमा भुवि । परोपकारमत्यन्तमाचारः स्वान्ययोहितः । ११३॥
मालिनी
इति निखिल सुपृच्छापरिक्तराशे विधाय, निरूपमवचनीघः प्रोत्तरं तीर्थनाथः । सकसगणिगणानां यश्चकाराभुतं प्र-मुदमसमपदाप्त्यं सोऽस्तु मे संस्तुतोऽत्र ।।११४।।
महिमा से युक्त तथा तीन जगत् के क्षोभ के कारण तीर्थकर पद को प्राप्त होते ही हैं इसमें संशय नहीं है ।।१०६-१०७॥ जो मुनि विषयों की सम्तति को नष्ट कर प्रसिद्धि तथा पूजा प्रावि से दूर रहते हुए घोर तप और चम्तमा के समान निर्मल चारित्र का पाचरण करते है, जो अत्यधिक संवेग से युक्त हैं तथा ध्यान और अध्ययन में तत्पर रहते हैं वे मुनि सुख को सान स्वरूप अहमिन्द्र की विभूति को प्राप्त होते हैं ॥१०५-१०६॥ मन को जीतने पाले जो भव्यजीव पञ्च इन्द्रियरूपी शत्रुनों को जीत कर जैन शासन में प्रतिशय कठिन तपश्चरण करते हैं वे स्वर्ग के सुख भोगकर छह खण्ड के स्वामी, तथा बौदह रस्म नो निषि वेद और विद्याधरों के स्वामी चक्रवर्ती होते हैं ॥११०-१११॥ जो निःपाडू मावि गुणों से सहित है, चन्द्रमा के समान निर्मल है तथा धर्म रूपी कल्पवृक्ष की गा के समान है ऐसा सम्यग्दर्शन, शुद्ध हृदय, रत्नत्रय, समस्त प्राणियों पर उत्कृष्ट बया और प्रत्यधिक परोपकार यह सब स्वपर हितकारी प्राचार है ।।११२-११३॥
इस प्रकार अनुपम वचनों के समूह से समस्त प्रश्न राशि का भली भांति उसर देकर जिन पार्श्वनाथ तीर्थकर मे समस्त गणपर और बारह सभाओं को प्राश्चर्यकारी प्रमोद उत्पन्न किया था वे मेरे द्वारा संस्तुत होते हुए मुझे अनुपम पद की प्राप्ति के लिये हों ॥११४॥
१. संचारः खः।
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* एकविंशतितम सर्ग *
वसन्ततिलका
प: संस्तुतश्च महितः प्ररगुतो गणौघे - देवो मयापि च मनागमर्ष सनिन्दितोऽसि जनेश्व तं संस्तुवे
मुदं न दधे कचित् ।
जिन पति
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बरतद्गुणाय ।। ११५ ।।
इति भट्टारक श्रीलकीर्तिविशेवसे पार्श्वनाथचरित्रे प्रश्नोत्तरनिरूपको नामैकविंशतितमः सगः ||२१||
जो बारह समानों के समूहों तथा मेरे द्वारा संस्तुत, पूजित और नमस्कृत होकर कभी भी हर्ष को धारण नहीं करते थे तथा प्रत्यन्स दुर्जनों के द्वारा निम्ति होकर र मात्र भी कोष को धारण नहीं करते थे उन पाश्वं जिनेन्द्र की मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिये सम्यक प्रकार से स्तुति करता हूँ ।। ११५ ।।
इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीति द्वारा विरचित पार्श्वनाथ चरित में प्रश्नोत्तरों कां निरूपण करने वाला इक्कीसवां सर्ग समाप्त हुआ ॥२१॥
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२०६ ]
• श्री पारबनाय धरित.
द्वाविंशतितमः सर्गः भगवन्तं जगन्नाथं सर्वशं संस्तुवे मुदा । दिव्यध्वनिमुषावृष्टया तपितत्रिजगज्जनम् ॥१॥ अथ वभ्रारिण सप्तैव पटलादियुतान्यपि । मसंस्यद्रोपदार्टीव मेर्वादीन् ज्योतिषोऽखिलाम् २१ पटलादियुतानस्वर्गान्कल्पातीतान् शिवालयम् । उत्सपिण्यवसपिण्यौ भोगभूमीतरारिसे ॥३॥ मायु.कायाधिभेदौविस्तरेणा खिलं जगत् ।दिव्येन बनिना देवः सोऽम्यवाद्भाव्यतृप्तये ॥४॥ सीपेशा पक्रिणां बादं चक्रिणा बलभूमृताम् । सर्वेषा च पुराणानि कल्याणानि सुखान्यपि ॥५॥ तवापुरङ्गवर्णादीन्वायर्योत्पत्यादिकागतीः । विविधाभ्युदयं सर्व व्याजहार स तीर्थराट् ।।६।। भविष्यम्चभवभूतं यत्सर्व द्रव्यगोचरम् । लोकालोकं सपर्यायं गणेशं प्रत्ययुषत् ।।७।। भ्ररदेश नवसदार नान कर्म मुसा ! परमासाद मा प्रापू{क्ता इव विषेर्गणाः ।। काललब्ध्या तदा केचित् प्रहत्य तद्वषोंऽशुभिः । मोहध्वान्त समासाद्य वैराग्यं सर्ववस्तुषु ॥६॥
जिन्होंने विध्यध्वनि रूप अमृत की वृष्टि द्वारा तीनों जगत् के जोषों को संतुष्ट कर दिया है, मो जगत के स्वामी है तथा सर्पज हैं उन पार्श्वनाथ भगवान को मैं हर्षपूर्वक स्तुति करता हूं ॥१॥
अथानन्तर उन पार्श्वनाथ जिनेन्द्र ने भव्यजीवों की तृप्ति के लिये पटल मादि से युक्त सातों नरक प्रसंख्यात द्वीप समुद्र, मेरु प्रादि पर्वत, संपूर्ण ज्योतिष्क वेब, पटल प्रादि से सहित स्वर्ग, कल्पातीत विमान-नव प्रेयक, नब अनुदिश, पांच अनुत्तर विमान, मोक्ष, भोगभूमि और कर्म भूमि से सहित उत्सपिगी अवपिणी काल, इस प्रकार समस्त जगत् का प्रायु तथा काय प्रादि के भेद समूहों का निर्देश करते हुए दिव्यध्वनि के द्वारा विस्तार से कथन किया ॥२-४॥ तीर्थाधिपति भगवान पार्श्वमाष ने समस्त तीर्थकर, चक्रवर्ती, अर्ध चक्रवर्ती, प्रौर बलभद्रों के पुराण, कल्याणक, सुख, प्रायु, शरीर के वर्ण प्रादि का, पार्यो की उत्पत्ति मावि का, गतियों का तथा नाना प्रकार के समस्त प्रभ्युदयों का वर्णन किया ॥५-६॥ द्रव्य सम्बन्धो जो परिणमन प्रागे होगा, अभी हो रहा है और पहले हो चुका है उस सबका तया पर्याय सहित लोकालोक का परिज्ञान गणधर को कराया ॥७॥ इस प्रकार तत्वों के सद्भाव को तथा समस्त प्रागम को हर्षपूर्वक सुनकर गणधर इस प्रकार परमालाव-उस्कृष्ट प्रानन्द को प्राप्त हुए मामों कर्मों से मुक्त ही हो गये हो ॥८॥
उस समय कालन्धि से कितने ही भव्य जीवों ने भगवान को विव्यध्वनि रूप किरणों के द्वारा मोहाधिकार को नष्ट कर समस्त बस्तुनों में वैराग्य प्राप्त किया तथा 1. भवतृप्तये सध्या ३. तत्व दाम म. ।
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• द्वाविंशतितम सगं .
[ २८७
स्यवस्था बाह्यान्सर प्रन्धं भव्या मुक्त्याप्तये द्रुतम् । जगृहुः परमां दीक्षा मुक्तिनारीवशीक राम् ।।१०।। काश्चिद् भर्ना सहादाय महादेव्यः परं तपः । सतीत्वब्रतमापना बभूवू रागदूरगाः ।।११।। केचिच्च पशवो मां श्रुत्वा तत्त्वार्थमञ्जसा । प्राणुव्रतानि सर्वाणि सकलना मुदाददुः ।।१२।। केचिदेवा नरस्तियंञ्चः काश्चिच्च सुराङ्गनाः । सम्यक्त्वभूषणं चक्रुई दयं मशिनिर्मलम् ।।१३।। केचिच्च भावनां चकः श्रुत्वा तद्ध्वनिमजसा । दानपूजावतादो हि शक्तिहीनास्तदाप्तये ।।१४।। अप ज्योतिष्कदेवोऽसो पोत्या तद्वचनामृतम् । मिथ्यावरविषं सर्व हत्वानन्तभवोद्भवम् ।।१५।। प्रणम्य श्रीजगन्नाथं जग्राह शाशनिर्मलम् । सम्यक्त्वं परमं बीजं मुक्ते: शङ्कादिजितम् ।१६।। दृष्ट्वाशु तद्विभूति च श्रुत्वा तध्वनिमूजितम् । प्रयुद्धहृदयोझ त्यो त्यक्त्वा मिथ्यात्वमजसा ।१७। त्रि:परीस्य जिनाधीशं नत्वा तत्क्रमपङ्कजी । भक्त्या स्वकाललब्ध्या तापसास्तवनवासिन: १८॥ स्वतपःश्रममत्यर्थ व्यर्थ बुद्ध्वाददुद्रुतम् । जिनदीक्षा मुदा सप्तशतसंख्या: स्वमुक्तये ।।१६।। -- - -- ..--.-.-. ..- ..... ....-... बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर मुक्ति प्राप्त करने के लिये शीघ्र ही मुक्तिरूपी नारी को वश करने वाली उत्कृष्ट दीक्षा ग्रहण कर ली ॥१-१०॥ कितनो ही रानियां पति के साथ परम तप को अङ्गीकृत कर पातिव्रत्य व्रत को प्राप्त होती हुई राग से दूर हो गयी अर्थात अपने पति के साथ उन्होंने भी प्रायिका की वीक्षा ले ली ॥११॥ कितने ही तिर्यञ्चों और मनुष्यों ने वास्तविक तस्वार्थ को सुनकर अपनी स्त्रियों के साथ हर्षपूर्वक समस्त प्रणुव्रत पहरण किये ॥१२॥ कितने ही देव, मनुष्प, तिर्यञ्च, तथा कितनी ही देवाङ्गनामों ने चन्द्रमा के समान निर्मल हृदय को सम्यक्त्वरूपी प्राभूषण से अलंकृत किया ।।१३।। वान पूजा प्रतादि की शक्ति से रहित कितने ही मनुष्यों ने इन सब की प्राप्ति के लिये भलो भांति दिव्यध्वनि सुनकर उनकी भावना की ।।१४।।
प्रथानन्तर कमठ के जीव उस ज्योतिष्क देव ने भगवान को दिव्यध्वनिरूपी अमृत को पोकर अनन्त भव से उत्पन्न मिथ्या वररूपी समस्त विष को नष्ट कर दिया तथा जगत के स्वामी श्री पार्श्व जिनेन्द्र को नमस्कार कर चन्द्रमा के समाम निर्मल, सङ्कादि दोषों से रहित मुक्ति के उत्कृष्ट बीज स्वरूप सम्यग्दर्शन को ग्रहण किया ॥१५-१६॥ शीघ्र ही भगवान को विभूति को देखकर तथा उनकी शक्तिशाली विध्यध्वनि को सुनकर उसका हृदय प्रबुद्ध हो गया जिससे मिथ्यात्व का उसने भली भांति परित्याग कर दिया ॥१७॥ जिनेन्द्र भगवान् को तीन प्रदक्षिणाएं दी तथा उनके चरण कमलों को प्रणाम किया। उस वन में रहने वाले सात सौ सापसियों ने भी स्वकीय काललन्धि से अपने तप के प्रत्यधिक श्रम को व्यर्थ समझ कर अपनी मुक्ति के लिये भक्ति और हर्षपूर्वक शोघ्र हो जिन
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२८८ ]
श्री पारवनाथ चरित - अहो क्व संवरः पापी स च सद्दर्शनं भुवि । जटाः क्व तापसा दुष्टाः क्व महान्ति व्रतान्यपि २० यद्याप ग्यिशुद्धि स ते चापुः सुमहावसान् । ततः किं नाप्यते भव्यजिनेन्द्रपदसंश्रयात् ।।२।। प्रयासो श्रीगणाधीशः स्वरागार रहाम: : महास. E८ श्रीबिनादर्थमज्जसा ॥२२॥ विश्वमव्योपकाराय चकार रचना पराम् । महता द्वादशाङ्गानां नानाभङ्गनमवणेः ।।२३।। द्वादशानामृताधि तमवगाह्य मुनीश्वराः । जन्ममृत्युजरादाहं जनस्तत्पाठतस्परा: ॥२४॥ निविष्टेऽय जगद्व्ये दिव्यभाषोपसंहृते । सौधर्मेन्द्रो महाप्राज्ञो विधाय करकुमलम् ॥२।। भक्त्या नत्वोत्तमाङ्गन तत्पदाम्जी सुराचितौ । प्रारेभे स्तवनं कतु' तद्विहारामध्ये ॥२६॥ स्तोष्ये त्वां त्रिजगतॊऽप्यनन्तगुणवारिधिम् । पोषकं विश्व जन्तूनां सद्धर्मामृतवर्षणः ॥२७॥ स्वमनोवाकावित्रीकरणाय केवल मुवि । मतिप्रकर्षहीनोऽपि भक्तिप्रेरित एव हि ॥२८॥ भवत्पुण्यगुणोघानां या कोतिः क्रियते बुधैः । याथातथ्येन सा सर्वा कीर्तिता स्यात्स्तुतित्रिन ।२६ दीक्षा ग्रहण कर ली ॥१८-१६॥ प्राचार्य कहते हैं कि अहो ! पापी संवर कहां और सम्यग्दर्शन कहाँ ? पृथिवी पर अटाएं कहां, वुष्ट तापस कहां और महावत कहाँ ? यदि वह संवर देव सम्यग्दर्शन को विशुद्धता को प्राप्त हो गया और उन तापतियों ने महावत प्राप्त कर लिये तो जिनेन भगवान के घरों के प्राश्रय से भव्य जीवों द्वारा क्या नहीं प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है ।।२०-२१॥
तवनन्तर महान ऋद्धियों के धारक तथा महाबुद्धिमान स्वयंभू नामक गणधर ने भी मिनेन्द्र देव से भली भांति प्रर्ष को प्राप्त कर समस्त भव्य जावों के उपकार के लिये नाना भङ्ग और नय समूह से युक्त प्रत्यन्त विस्तृत द्वादशाङ्गों को उत्कृष्ट रचना की ॥२२-२३॥ उस द्वादशाङ्गरूप अमृत के सागर में अवगाहन कर उसके पठन करने में तत्पर रहने वाले मुनिराजों ने जन्म मृत्यु प्रौर अरा को बाह-तपन को नष्ट किया था ॥२४॥
सबनम्तर अब जगद् के भव्यजीव यथा स्थान बैठ गये तथा वियष्यनि की समाप्ति हो गई सब महाबुद्धिमान सौधर्मेन्द्र में हाथ जोड़कर उनके देव पूजित चरण कमलों को भक्तिपूर्वक शिर से नमस्कार किया तथा विहार कराने के लिये स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥२५-२६॥ हे त्रिलोकीनाथ | पाप अनन्त गुरणों के सागर हैं तथा सद्धर्मरूपी अमृत की वर्षा से समस्त जीवों का पोषण करने वाले हैं प्रतः बुद्धि की अधिकता से रहित होमे पर भी मात्र भक्ति से प्रेरित होकर मैं पृथिवी पर केवल अपने मन और बखम को पवित्र करने के लिए प्रापकी स्तुति करूगा ॥२७-२८।। हे जिन ! ज्ञानी जनों के द्वारा प्रापके पवित्र गुण समूह को जो कीति की जाती है उनका वर्णन किया जाता है वही सब परमार्थ से स्तुति कही गई है ॥२६॥
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• द्वाविंशतितम सर्ग .
[ २८१ सिद्धान्तपारयो दक्षो महामतिविशारदः । गुणदोषविचारज्ञः स्तोतास्य दृष्टिभूषितः ।।३०।। अनन्तगुणसंपन्नः परमेष्ठी जगद्गुरुः । विश्वसत्त्वहितायुक्तः स्तुत्यो दोवासिगो महान् ।३१ अनन्तमहिमारूलं भवत्सादृश्यसत्पदम् । प्रभो स्तवनकतणां कीर्तितं स्तुतिजं फलम् ।३२ बुद्धयादिसकला प्राप्य सामग्री स्तुतिगोचराम् । कि विशिष्ट फलार्थी ते बुधो नाधास्तवं प्रभो ।३३ इत्याकलय्य चित्तेन तुष्टूषु मां फलार्थिनम् । नाथ प्रसन्नया दृष्टया पुनीहि त्वं विरागवान् । ३४। या देव स्वयि मे भक्तिः परा त्वद्गुराणभाषणे ! मुखरोकुरुते सा मां नि.शङ्का मन्दधीयुतम् ।।३।। स्वयि भक्ति ताल्पापि महती फलसम्पदम् । फलत्येव न सन्देहः कल्पवल्लीव धीमताम् ।।३६।। भूषावरायुधत्यागादतिसौम्य बपुस्तव । प्राचष्टे देहिनां धीर सर्वदोषविनिग्रहम् ।।३७।। निkषमपि कान्त ते प्रभामिजितभास्करम् । दिव्य मौदारिक देहं भवेद भुवनभूषणम् ।।३।। निरम्बरमपीहातिसुन्दरं कान्तिसंकुलम् । तेऽङ्ग भातीय संपूर्ण बिम्बमिन्दोः परं प्रभो ।३।।
सिद्धान्त के पारगामी, चतुर, महाबुद्धि के धारक विद्वान्, गुण दोष के विचार को जानने वाले तथा सम्यग्दर्शन से विभूषित गरगधर इनके स्तोता-स्तुति कर्ता थे और अनन्त गुणों से सहित, परमेष्ठी, जगद्गुरु, समस्त प्राणियों के हित में संलग्न, वोषातीत तथा महान् श्री पाव जिनेन्द्र स्तुत्य-स्तुति के विषय थे ।।३०-३१॥ हे प्रभो ! मनम्त महिमा से युक्त प्रापके समान पद की प्राप्ति होना यह स्तुति करने वाले जीवों को स्तुति से प्राप्त होने वाला फल है ॥३२॥ हे प्रभो ! स्तुति से सम्बन्ध रखने वाली बुद्धि प्रावि समस्त सामग्री को प्राप्त कर विशिष्ट फल का इच्छुक विद्वान क्या प्रापकी स्तुति नहीं करेगा? अवश्य करेगा ॥३३॥ हृदय से ऐसा विचार कर फल की इच्छा करता हुआ मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ । हे नाथ ! यद्यपि भाप राग रहित हैं तथापि प्रसन्न दृष्टि से मुझे पवित्र करो ॥३४॥हे देव ! प्रापमें तथा प्रापके गुरण कथन करने में जो मेरी भक्ति है वही निःसंदेह रूप से मुझ मन्द बुद्धि को मुखरित कर रही है-बोलने के लिये प्रेरित कर रही है ॥३५॥ प्रापके विषय में धारण को हुई भक्ति प्रल्प होने पर भी कल्पलता के समान बुद्धिमान मनुष्यों को बहुतभारी फलरूप संपत्ति नियम से फलती है इसमें संदेह नहीं है ॥३६॥ हे धीर ! प्राभूषण तथा उत्कृष्ट शस्त्रों के त्याग से अत्यन्त सौम्य रूपाता को प्राप्त हुमा प्रापका शरीर प्राणियों को बता रहा है कि प्रापने समस्त दोषों का निग्रह कर लिया है ॥३७॥ जो प्राभूषण रहित होने पर भी सुन्दर है तथा जिसने अपनी प्रभा से सूर्य को जीत लिया है ऐसा आपका दिव्य औदारिफ शरीर संसार का प्राभूषण है ।।३।। हे प्रभो ! जो वस्त्ररहित होकर भी इस जगत में अत्यन्त सुन्दर है तथा कान्ति से परिपूर्ण है ऐसा प्रापका शरीर संपूर्ण उत्कृष्ट चन्द्र विम्ब के समान सुशोभित हो रहा है ॥३६॥
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२९० ]
* श्री पाश्वनाथ परित - तीर्थेश तब क्वान्नं प्रक्षरद्वचनामृतम् । जगतो प्रीएक प्रामादर्भस्येव निधानकम् ।।४।। मोहान्धकूपसंपातादुद्धतुं वं ममोजङ्गनाम् । निःकारणजगदन्धुस्वं देव विश्वनायकः ।।४१६॥ अजानध्वान्तहन्ता स्वं केवलावगाशुभिः । लोकालोकाखिलार्थानां दीपस्त्वं द्योतको जिन ।४२ तव भामण्डलं नाथ हन्ति बाह्य तमो नृणाम् । अन्तरङ्ग'च दिव्यध्वनि : सर्वाप्रकाशक: ।।४।। तव नेत्रोत्पलेऽतीवसौम्ये दिव्ये गतभ्रमे । प्रताम् वदतः पुसा कोपारिविजयं प्रभो ॥४४॥ जितेन्दुबिम्बमत्यन्तसुन्दर ते मुखाम्बुजम् । प्रात्यन्तिकी मन:शुद्धि ते विकारतर्जनात् ।।५।। मेरोर्यथाचलो नान्यो महान् कल्पनुमाद् दुमः । मरिणश्चिन्तामणेषमंचाङ्गिरक्षणसः क्यचित् । ४६ तथा न त्रिजगन्नाथ त्वत्तो देवोऽशरोऽदभतः । जातु नास्ति न भूतो न भविष्यति जगत्त्रये ।।१७।। मतस्त्वा स्वमदेडे नाम्नाष्टोत्तरशतेन हि । प्रष्टाधिकसहस्रण माम्ना देव विभूषितः ॥5॥ श्रीमानिन्धराट् स्वामी गणेशो विश्वनायकः । स्वयंभूषभो भर्ता विश्वात्माप्यपुनर्भवः १४६ हे तीर्थराज I जिससे वचनरूप अमृत झर रहा है तथा जो समस्त जगत् को संतुष्ट करने वाला है ऐसा प्रापका मुख कमल धर्म के खजाना के समान सुशोभित हो रहा है ।।.! हे वेद ! पाप मोहरूपी अन्ध कप के पतन से प्राणियों का उद्धार करने के लिये समर्थ है इसलिये पाप जगत् के कारण बन्धु तथा विश्व के नायक हैं ॥४१॥ हे जिन ! प्राप केवलज्ञान रूप किरणों के द्वारा प्रज्ञान अन्धकार को नष्ट करने वाले हैं तथा लोकालोक के समस्त पदार्थों के प्रकाशक होने से दीपरूप हैं ॥४२॥
हे नाथ ! प्रापका भामण्डल मनुष्यों के वाद्य अन्धकार को नष्ट करता है और समस्त प्रयों को प्रकाशित करने वाली दिव्यध्वनि अन्सरङ्ग अन्धकार को नष्ट करती है ॥४३॥ हे प्रभो ! जो अत्यन्त सौम्य हैं, विव्य हैं, भ्रम से रहित हैं तथा सालिमा से शून्य है ऐसे प्रापके नेत्र कमल पुरुषों को बतला रहे हैं कि आपने क्रोधरूपी शत्रु पर विजय प्राप्त कर ली है ।।४४।। जिसने चन्द्र बिम्ब को जीत लिया है, तथा जो प्रत्यन्त सुन्दर है ऐसा पापका मुख कमल विकार रहित होने से मन की प्रात्यन्तिक शुद्धि को कह रहा है ॥४५॥ जिस प्रकार मेक से बढ़कर अन्य पर्वत बड़ा नहीं है, कल्पवृक्ष से बढ़कर दूसरा महान वृक्ष नहीं है, और चिन्तामणि से महकर दूसरा महान मरिण नहीं हैं और जीव रक्षा से बढ़कर कहीं दूसरा धर्म नहीं है उसी प्रकार हे त्रिजगन्नाथ ! प्राप से बढकर दूसरा प्राश्चर्यकारी देव तीनों जगत् में न कभी है न कभी हमा है और न कभी होगा ॥४६-४७॥ इसलिये एक सौ पाठ नामों के द्वारा स्वकीय हर्षपूर्वक प्रापकी स्तुति करता है। वैसे हे देव ! प्राय एक हजार माठ नामों से विभूषित है ।।४।।
हे भगवन् ! पाप अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरङ्ग और प्रष्ट प्रातिहार्य बहिरङ्ग लक्ष्मी से सहित हैं इसलिये श्रीमान हैं १. प्राप अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह से रहित दिगम्बर मुमा१. निर्गन्यो विश्वनायक: ग.
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हाविशतितम सर्ग .
[ २१ सर्ववर्ती अगन्नापी धर्मात्मा धर्मबाम्ध। धर्मभूतिर्महाधर्मकर्ता धर्मप्रदो विभुः ॥५०॥ ममूर्तीजन्यन्तपुण्यात्माप्यनन्तोऽनन्तक्तिमान् । शरण्यो विश्वलोकेशो दयामूतिर्महानती ॥५॥ वाग्मी चतुर्मुखो ब्रह्मा निःकर्मा निजितेन्द्रियः । माणिज्जितमिथ्यात्वः कर्मघ्नोऽपि यमातकः ५२ दिगम्बरो जगद्व्यापी भव्यबन्धुजंगद्गुरुः । कामदः कामहन्ता सुन्दरोडमानन्ददायकः ॥५३।। जिनेन्द्रो जिनराइ विष्णुः परमेष्ठी पुरातनः । ज्ञानज्योतिश्च पूतात्मा महान् सूक्ष्मो जगत्पतिः।५४ धारी मुनियों के स्मामी होने से निन्थराट् है २. स्व-मानादिगुणरूप धन से युक्त होने के कारण पुरून्दी हैं है. दामामाहा गाणों से परिगति होने से गणेश हैं ४. सबके स्वामी होने से विश्वनायक है ५. अपने स्वयं के पुरुषार्थ से परहन्त अवस्था को प्राप्त हुए हैं इसलिये स्वयंमू हैं . वृष-धर्म से सुशोभित होने से पृषभ हैं ७. हितोपदेश के द्वारा समस्त जीवों का पोषरण करते हैं अथवा अनन्त गुरणों को पारण करते है इसलिये भर्ता हैं. विश्व-समस्त पवार्य प्रापकी प्रास्मा में प्रतिविम्बित हैं इसलिये प्राए विश्वात्मा हैं . पाप पुनर्जन्म से रहित हैं अर्थात् अब आपको जम्म धारण नहीं करना है इसलिये अाप अपुनभंव हैं. १०. समस्त पदार्थों को देखते हैं इसलिये सर्वदर्शी हैं ११. तीनों जगत् के स्वामी है इसलिये जगन्नाथ हैं १२. धर्म हो पापको प्रात्मा है प्रतः पाप धर्मात्मा है १३. पाप सब के हितकारी है अतः धर्मवान्धव है १४. धर्म की मूर्तिस्वरूप होने से धर्ममूर्ति हैं १५. महान धर्म के करने वाले होने से महाधर्मकर्ता है १६. धर्म के देने वाले होने से धर्मप्रय है १७. विशिष्ट ऐश्वर्य से सहित होने के कारण विभु है १८. स्पर्श रस गन्ध पौर वर्णरूप मूति से रहित होने के कारण प्रमूर्त है १६. अत्यन्त पुण्यरूप होने से प्रत्यन्तपुण्यात्मा है २०. अन्त विनाश से रहित होने के कारण अनन्त हैं २१. अनन्त शक्ति-वीर्य से सहित होने से अनन्तशक्तिमान है २२. शरण देने में निपुरण होने से शरण्य हैं २३. समस्त लोक के स्वामी होने से विश्वलोकेश है २४. बयास्वरूप होने से क्यामूर्ति है २५. महावतों से युक्त होने के कारण महानती हैं २६. प्रशस्त वचनों से सहित हैं अतः वाग्मी है २७. समवसरण में चारों पोर से प्रापका मुख दिखाई देता है इसलिये भाप चतुर्मुख है २८. स्वकीय गुरणों की वृद्धि करने से ब्रह्मा हैं २६. कर्मों से रहित हैं अतः निष्कर्मा हैं ३०. पापने संपूर्णरूप से इन्द्रियों को जीत लिया है इसलिये निजितेन्द्रिय है ३१. मार-काम को जीत लेने से मारमित हैं ३२. मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त कर लेने से मितमिथ्यात्व हैं ३३. घातिया कर्मों को नष्ट कर चुके हैं प्रतः कर्मघ्न है ३४. यम-मृत्यु का अन्त करने वाले हैं इसलिये यमान्सक हैं ३५.
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२६२ ]
+ श्री पाश्र्वनाष चरित.
धर्मचक्री प्रशान्तात्मा निलंपा निकलोऽमरः । सिद्धो बुद्धः प्रसिद्धात्मा श्रीपतिः पुरुषोत्तमः ।।५५।। दिव्यभाषापतिदिव्योऽप्यच्युतः परमेश्वरः । महातपा महातेजा महाध्यानी निरजन: ॥५६।। तीर्थकर्ता विचारज्ञो विवेकी शीलभूषण: । अनन्तमहिमा दक्षो निभू षो विगतायुधः ॥५७।।
दिशा ही आपके वस्त्र हैं अर्थात् प्राप निविकार नग्न मुद्रा के धारक हैं प्रतः दिगम्बर है ३६. समस्त जगत के ज्ञायक होने से जगद्व्यापी हैं ३७. भव्य मोवों के हितकारी होने से भव्यबष है ३८. जगत् के गुरु हैं अर्थात् सर्वश्रेष्ठ हैं अतः जगदगुरु हैं ३९. काम-मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं अतः फामद कहलाते हैं ४०. काम की बाधा को नष्ट करने वाले हैं अतः कामहन्ता कहे आते हैं ४१. अत्यन्त मनोहर है इसलिये सुन्दर हैं ४२. प्रानंद को देने वाले होने से प्रानंदवायक है ४३. जिनों-प्ररहतों में श्रेष्ठ हैं प्रतः जिनेंद्र है ४४. जिनों के स्वामी होने से जिनराट् है ४५. ज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु है ४६. परमपद में स्थित होने से परमेष्ठी है ४७. अनादिकाल से ज्ञानस्वभाव होने के कारण पुरातन है ४८. ज्ञान ही प्रापको ज्योति होने से ज्ञानज्योति कहलाते हैं ४६. प्रापकी प्रात्मा पूत-पवित्र है अतः पूतात्मा कहे जाते हैं ५०. सब से श्रेष्ठ है प्रतः महान हैं ५१. इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है अतः सूक्ष्म है ५२. जगत् के स्वामी है इसलिये जगत्पति कहलाते है ५३. धर्मचक्र के प्रवर्तक है इसलिये धर्मचक्री कहे जाते हैं ५४. प्रापको प्रारमा अत्यन्त शान्त है इसलिये प्रशान्तात्मा हैं ५५. कर्मरूपी लेप से रहित होने के कारण निर्लेप है ५६. द्रव्य स्वभाव की अपेक्षा कल-शरीर से होने के कारण निजकल है ५७. मृत्यु से रहित होने से अमर है ५८. शुद्ध स्वभाव की उपलब्धि होने से सिद्ध है ५६. केवलज्ञान से युक्त होने के कारण बुद्ध है ६०, प्रसिद्ध आस्मा से सहित होने के कारण प्रसिखात्मा हैं ६१. अन्तरङ्ग प्रोर बहिरङ्ग लक्ष्मी के स्वामी होने से श्रीपति हैं ६२. पुरुषों में उत्तम-श्रेष्ठ होने से पुरुषोत्तम है ६३. दिव्यभाषा-निरक्षरी तथा सर्वभाषा स्वरूप परिणत होने वाली दिव्यध्वनि के स्वामी होने से विध्य भाषापति हैं ६४. स्वयं सुन्दर होने से दिव्य है ६५. स्वकीयस्वभाव से कभी क्युत नहीं होते इसलिये अच्युत हैं ६६. परम ऐश्वर्य-शत इन्द्रों को नम्रीभूत करने वाले ऐश्वर्य से सहित होने के कारण परमेश्वर हैं ६७. महान तपस्वी होने से महातपा हैं ६८. महान तेजस्वी से होने महातेजा हैं ६६. महान ध्यानी होने से महाध्यानी है ७०. फर्मरूपी प्रञ्जन से रहित होने के कारण निरञ्जन है ७१. तीर्थ-धर्माम्नाय के करने वाले
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•वाविंशतितम सर्ग .
[ २६३ सर्वज्ञः सर्वक सार्वः सुसौम्यात्मा जिनाग्रणो: । मन्त्रमूतिर्महादेवो देवदेवोऽतिनिमसः ।।५८॥ कृतकृत्योऽतिनिर्दोषः परब्रह्मा महागुणी । दिव्यदेहो महारूपो नित्यो मृत्युञ्जयः कृती । ५६ ।। यमी यतीश्वरः स्रष्टा स्तुत्य : पूतोऽमराचितः । विद्य शो निःकियो धर्मी जातरूपो विदांवरः ॥६०। एतेषामपि मध्ये यो नाम्न केन विभो तब । करोति स्तवनं सोऽपि लभते त्रिजगच्छ्यिम् ।।६१।। समस्तै मभिर्यस्त्वा साथैः स्तौति जिनाधिपः । सदृष्टि : सोऽचिराद कि न जायते भवता समः । ६२ प्रतो देव नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्ञानमूतये । जगद्धिताय तीर्थेश नमस्तेऽनन्त शर्मरणे ।।६।। होने से तीर्थकर्ता हैं ७२. विचार के ज्ञाता होने से विचारत हैं ७३. भेव विज्ञानी होने से विवेकी हैं ७४. शील ही प्रापका भाग है पानः गोलाण हैं ७५. अनन्त महिमा से सहित हैं प्रतः अनन्तमहिमा हैं ७६. कुशल अथवा समर्थ होने से दक्ष है ७७. प्राभूषणों से रहित हैं अतः निमूष है ७८. प्रायुध-शस्त्रों से रहित हैं अतः विगतायुध हैं ७६. सबको जानने से सर्वश हैं ८०. सर्वदर्शी होने से सर्वहक हैं ८१. सबका हितकरने वाले हैं इसलिये सार्य है
२. प्रापको प्रात्मा अत्यन्त सौम्य है इसलिये सुसौम्यात्मा हैं ८३. जिनों में अग्रणी हैं प्रतः जिनानणी कहलाते हैं ८४. मन्त्रों की मूर्तिरूप होने से मंत्रमूति कहलाते हैं ८५. सब देवों में महान श्रेष्ठ हैं प्रतः महादेव कहे जाते हैं ८६. देवों के देव होने से देवदेव हैं ८७. अत्यन्त स्वच्छ हृदम होने से प्रतिनिर्मल हैं ८८. आप सब कार्य कर चुके हैं प्रतः कृतकृत्य कहलाते हैं ८६. दोषों से सर्वथा रहित होने से प्रतिनिर्दोष है .. परब्रह्मरूप होने से परब्रह्मा है ६१. महान गुणों से सहित होने के कारस महागुणी हैं ६२. दिव्य-परमौदारिक शरीर से सहित होने के कारण दिव्यदेह हैं ६३. महान रूपवान होने से महारूप है ६४. स्वभावदृष्टि की अपेक्षा कभी नष्ट न होने से नित्य हैं ६५. मृत्यु को जीत लिया है इसलिये मृत्युञ्जय कहलाते हैं ६६. सब कार्य कर चुके है प्रतः कृती है ९७. यम-सयम से सहित है इसलिये यमी कहलाते हैं ९८. पतियों-मुनियों के स्वामी है प्रतः पतोश्वर है ९६. सृष्टि-षट्कर्मरूप सृष्टि के उपदेष्टा होने से स्रष्टा हैं १००. स्तुति के योग्य होने से स्तुत्य हैं १०१. पवित्र होने से पूत हैं १०२. देवों के द्वारा पूजित होने से अमराचित है १०३. समस्त विद्यानों के स्वामी है अतः विद्येश कहलाते हैं १०४. क्रिया से रहित हैं इसलिये निःक्रिय है १०५. धर्म से सहित हैं प्रतः धर्मों हैं १०६. सद्योजात बालक के समान निर्विकार रूप को धारण करने वाले हैं प्रतः जातरूप है १०७. और ज्ञानियों में श्रेष्ठ है प्रतः विदांवर हे १०८ । हे विभो! इन नामों के मध्य में एक नाम से भी जो प्रापकी स्तुति करता है वह तीन जगत को लक्ष्मी
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२६
• यो पानावपरित . नमस्ते वोतमोहाय नमस्ते बन्धवे सताम् ! नमस्ते विश्वमाथाय नमस्ते कमेशनवे ॥१४॥ जितेन्द्रिय नमस्तुभ्यं चानन्तगुणशालिने । शरण्याय नमस्तुभ्यं धर्मतीर्थप्रवतिने ॥१५॥ स्तुस्वा नत्वेति तीर्थेशं सौधर्मेन्द्रोतिपुण्यशीः । ततस्तीर्थावहारस्य व्यपात्प्रस्तावनामिमाम् ॥६॥ अगरन् मध्यसस्यानां पिथ्यानावृष्टिशोषिणाम् । धर्मामृतप्रसेकेन तर्पय स्व सुमेघवद ॥६॥ भव्यमार्थाषिए स्वामिस्त्वं विश्वोचरणक्षमः । धर्मचकामदं सन्ज त्वज्जयोद्योगसाधनम् ॥६८।। मोहारिपृतनां देव निर्धूय मार्गरोधिनीम् । उपदेष्टु' हि सन्मार्ग ते कालोऽयमुपस्थितः ।।६।। सबिहारमिति प्रार्घ्य स्तुत्वा नत्वा मुहमुखः । विश्वसत्त्वहितायासौ भोऽभूधर्मसाझकर ।।७०॥ विश्वभहितोयुक्तः स्वयबुद्धोऽखिलावित् । जनाजानुग्रहं कतु मुत्तस्थेऽथ जिनाशुमान् ।।७।। को प्राप्त होता है फिर हे जिनेन्द्र ! जो समस्त सार्थक नामों से पापको स्तुति करता है बह सम्यग्दृष्टि शीघ्र ही क्या प्रापके समान नहीं हो जाता? प्रति अवश्य हो जाता है ॥४६-६३॥ इसलिये हे देव ! पापको नमस्कार हो। पाप ज्ञान की मूर्तिस्वरूप है प्रतः मापको नमस्कार हो । हे तीर्थपते ! प्राप जमत के हितकारी तथा प्रमन्त सुश से संपन्न है अतः प्रापको नमस्कार हो ॥६४॥ पाप मोह रहित हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो । प्राप सत्पुरुषों के बन्धु स्वरूप है प्रतः प्रापको नमस्कार हो । प्राप सब लोगों के स्वामी है पतः प्रापको नमस्कार हो और कमों के शत्रु हे प्रतः पापको नमस्कार हो ॥६५॥हे जितेन्द्रिय प्रापको नमस्कार हो । हे प्रनंत गुरणों से सुशोभित ! प्रापको नमस्कार हो । सब को तरण देने वाले तथा धर्मतीर्थ के प्रवर्ताने बाले मापको नमस्कार हो ॥६६॥ इस प्रकार अत्यंत पवित्र बुद्धि के धारक सौधर्मेन्द्र में तीर्थपति श्री पार्श्वनाथ मिनट की स्तुति कर उन्हें नमकार किया पश्चात् तीर्थ विहार की यह प्रार्थना की ॥६७॥
हे भगवन् ! प्राप उत्तम मेघ के समान मिष्यास्वरूपी अनावृष्टि से सूखते हुए भव्य गोवरूपी धान्य को धर्मरूपी जल के सेवन से संतुष्ट कीजिये ॥६॥हे भव्यसमूह के प्रधिपति स्वामिन् ! प्राप विश्व का उद्धार करने में समर्थ है, आपको विजय सम्बन्धी उद्योग का साधन स्वरूप यह धर्मचक्र तैयार है ॥६६॥ हे देव ! मोक्षमार्ग को रोकने वाली मोह शत्रु की सेना को नष्ट कर समीचीन मार्ग के उपदेश देने का आपका यह समय उपस्थित हुधा है ।।६।। प्रतः समस्त प्रारिणयों के हित के लिए बिहार कोजिए इस प्रकार प्रार्थना कर स्तुति कर तथा बार बार नमस्कार कर सौधर्मेन्द्र धर्म का सहायक हमा पर्यात गर्म तीर्थ की प्रवृत्ति में प्रेरक कारण हुमा ।७।।
तदनन्तर समस्त भव्य जीवों का हित करने में तत्पर, स्वयंबुद्ध और समस्त पदार्थों के शाता पाय जिनेन्द्र रूपी सर्य जमता रूपी कमल का उपकार करने के लिए
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द्वाविंशतितम सर्ग 0
[ २६५
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प्रध्वनइध्वनिगम्भीरः सितच्छत्रत्रयाङ्कितः । देवदुन्दुभिसंयुक्तो भानुकोट यधिकप्रभः ॥७२॥ दिव्यसिंहासनासीमो लोकतरुशोभितः । पुष्पवृष्टिममाकीरणः सितचामरंवीजितः ॥७३॥ हिषदभेदगरणाक्षपः समय सृत्याविभूषितः । प्रयके विजयोद्योग धर्मचकाधिपो जिन: ||७|| अयेत्युमन गिरा देवा घोषमाणा: खमण्डलम् ।दिशा मुस्खानि तेजोभिद्योतयन्त प्रतस्थिरे ।।७।। प्रतस्थे भगलानित्यमनुयातः खगाभरेः ।पनिच्छापूरिको वृत्तिमास्कन्दन्निव भानुमान् । ७६ । मतयोजनमानं सुभिक्षं सर्वामु दिक्ष हि । प्रत्येक जायते तस्यास्थानाद् प्रातिविमाशिनः ।।७।। विश्वसंबोधनायें वास्पृशन् देवो महोतलम् । जत्येव नभोभागे भव्यङ्गय धरणोयन: ।।७८|| सिहादिक रसत्त्वौबईन्वन्ते जातु नाङ्गिनः । तत्प्रशामप्रभावेण वैरिभिः श्रोजिनान्तिके ।।७।। प्रनन्तसुखतृप्तस्य गीतरागस्य सत्पते: । अस्यास्ति कवलाहारं न जातु मोहव्यत्ययात् ।।८।। देवस्थानन्तशनिजितदुर्घातिकर्मणः । नोपसगा हि केचिच्च भवन्ति जातु ने तयः ।।८१३॥
उठे ॥७॥ जो गरजती हुई दिव्य स्वनि से गम्भीर थे, श्वेत छत्रत्रय से सहित थे, वेबदुन्दुभियों से युक्त थे, जिनमा भागात रोगों सूर्गों से भी अधिक प्रभा वाला था, जो दिव्य सिंहासन पर प्रारूद थे, प्रशोक वृक्ष से सुशोभित थे, पुष्प वर्षा से व्याप्त थे, जिन पर सफेद चामर ढोले जा रहे थे, जो बारह सभात्रों से सहित थे, समवसरण पादि से विभूषित थे तथा धर्मचक्र के स्वामी थे ऐसे श्री पाश्वं जिनेन्द्र ने विजय का उधोग किया अर्थात् वे बिहार के लिए उद्यत हुए ॥७१-७४।। 'जय जय' इस प्रकार की उम्मवारणी के द्वारा जो गगन मण्डल को मुजित कर रहे थे तथा अपने तेज से जो विशानों के प्रमभाग को प्रकाशित कर रहे थे ऐसे देव लोग भगवान् के साथ प्रस्थान कर रहे थे। ७५॥ इस प्रकार देव और विद्याधर जिनके पीछे पीछे चल रहे थे तपाको प्रमिच्छा पूर्वक वृत्ति को प्राप्त थे-इच्छा पूर्वक जो विहार नहीं कर रहे थे ऐसे भगवान पाश्र्वनाम ने सूर्य के समान प्रस्थान किया ।। ७६ ॥ घातिया कर्मों का क्षय करने वाले भगवान् जहां विराजमान थे वहां से सौ योजन सक सब दिशाओं में सुभिक्ष रहता था १७७॥ भव्य जीवों का उद्धार करने में तत्पर हुए श्री पाश्र्व जिनेन्द्र सबको संबोधित करने के लिए ही मानों पृथिवीतल का स्पर्श न करते हुए प्राकाश में ही विहार करते थे ॥७श्री जिनेन्द्र के समीप उनको लोकोसर शान्ति के प्रभाव से घरयुक्त सिंह माविक दुष्ट जीवों के समूह द्वारा कभी कोई जीव नहीं मारे जाते थे ।।७।। अनन्त सुख से संतुष्ट, वीतराग तथा सत्पुरुषों के स्वामी इन पारवं जिनेन्द्र के मोह का प्रभाव हो जाने से कभी मी कवलाहार नहीं होता था ॥०॥ अनन्त बल से सहित तथा दुष्ट घातिया कमों को जीतने वाले भगवान के समीप न कभी कोई उपसर्ग होते थे और म अतिवृष्टि
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२६६ ]
• श्री पार्श्वनाथ चरित -
चतुदिक्ष जिनस्यास्य प्रक्षरद्वचनामृतम् । श्यते भव्य संधौदिव्यं चकत्रचतुष्टयम् ।।२।। अनन्तज्ञानहावीर्यसुखात्मनोऽस्य संभवेत् । स्वामित्वं सर्वविद्यानां दोषिकानां जगत्त्रये ।।८३॥ दिव्यौदारिकदेहस्थस्थास्य जातु न जायते । छाया स्वल्पापि माहात्म्यात् त्रिचत्राङ्कितस्य व ४ केवलज्ञाननेत्रस्य नष्टे घातियतुष्टये निमेषो न क्वचिस्यात्सायोनयनाब्जयोः ।।८।। घातिकमविनाशेन जिनेन्द्रस्यारय जायते । दद्धिन सादे पाना मनाग दियाङ्गधारिण: ।।६।। एतेऽत्रातिशया दिव्या घातिकर्मक्षयोद्भवाः । अनन्यविषया अस्य भवन्ति परमा दश ।।८।। अद्धमाधिकाकारा भाषा परिणता विभोः । पशुना बहुभव्यानां सर्वसंदेहनाशिनी ॥८॥ मृगसिंहादिमानां आतिकारणवरिणाम् । जायते परमा मैत्री तन्माहात्म्याज्जिनान्तिके ।।८।। सर्वतुं फलपुष्पाढया भवन्ति तरवोऽखिलाः । देवातिशयमाहात्म्याग्निकटे श्रीजगदगुरोः ॥६॥ परितो जिन देवस्य दिव्या रत्नमयी मही। प्रादर्शसनिभा संस्थात्सर्वोपद्रवजिता ॥१॥ मुगन्धिशिशिरो वातकुमारोद्धव एव हि । बात तं जगन्नाथमनुवति मारुतः ।।६२॥
अनावृष्टि आदि ईतियां ही प्रकट होती थीं ॥१॥ जिनसे दिव्यध्वनि रूपी अमृत कर रहा है ऐसे भगवान के सुन्दर चार मुख भव्य समूहों के द्वारा चारों दिशामों में दिखाई दे रहे थे ।।२।। अनन्तज्ञान, अनन्तवर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य स्वरूप इन भगवान के तीनों अगत् को प्रकाशित करने के लिए दीपिका स्वरूप समस्त विद्यानों का स्वामित्व प्रकट हुमा था ॥३॥ विध्य परमौवारिक शरीर में स्थित तथा छत्रत्रय से सुशोभित इन भगवान के माहात्म्य से कभी इनकी रञ्चमात्र भी छाया नहीं पड़ती थी ॥८४॥ चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर जिनके केवलज्ञान रूपी नेत्र प्रकट हुमा है ऐसे इन भगवान् के उत्तम नयन कमलों में कहीं भी टिमकार नहीं होता था ५॥ घातिया कर्मों के विनाश से जिनके दिव्य परमौदारिक शरीर प्रकट हुआ है ऐसे इन भगवान के नख और केशों में थोड़ी भी वद्धि नहीं होती थी।६। जो घालिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होते हैं तथा अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं ऐसे ये केवलज्ञान के दश उत्कृष्ट प्रतिराम इन पाय जिनेन्द्र के प्रकट हुए थे ॥ ८७ ।। भगवान की भाषा अर्धमागधीरूप परिणत हुई थी तथा पशुओं और अनेक भव्य जीवों के समस्त संदेह को नष्ट करने वाली यो ॥८॥ जिनेन्द्र भगवान के समीप में उनके माहात्म्य से जन्मजात वैर करने वाले मृग, सिंहावि पशुओं तथा मनुष्यों में परम मित्रता हो जाती थी ॥८६।। श्री जगदगुरु के निकट व. कृत अतिशय के माहात्म्य से समस्त वृक्ष सब ऋतुओं के फल और पुष्पों से.युक्त हो जाते थे ॥|| जिनेन्द्र भगवान् के चारों ओर की दिव्य और रत्नमयी भूमि दर्पण के समान निर्मल तथा सब उपद्रवों से रहित हो गयी थी ।९१॥ जब त्रिलोकीनाथ भगवान विहार
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.द्वाविंशतितम सर्ग .
२९७ सन्यिदानन्दमाहात्म्यात्सम्यानां सन्निधौ विभोः । सर्वेषो परमानन्दो जायते घमंशर्मकृत् ॥१३॥ मकरकुमारदेवोऽस्थास्थानाद्योजन समितम् ।कुर्यात्महीतलं रम्यं तृणकीटादिवजितम् ॥१४॥ गन्धोदकमयों वृष्टि करोति स्तनितामरः । प्रस्यान्ते दिव्यगन्धालयां विन्मालादिभूषिताम्ह५ पादन्यासेऽस्य पधानि संचारयन्ति निर्जरा: । हैम्यानि निखिलानि द्विशतानि पञ्चविंशतिः।।१६।। शाल्यादिकृत्स्नसस्यानि सर्व विविधं फलम् । फलन्ति फलसंनम्राणि देवेशस्य सनिधी ।।१७।। शरत्कालसर: प्रख्यं निमलं व्योम जायते । भवन्ति निर्मला: सर्बा दिशः पार्वे जिनेशिनः।।१८।। शाजया प्रकुन्ति बाह्वाननं परस्परम् । देश जिनेन्द्रयात्राय धर्मकार्योद्यताशयाः ।।६।। प्रबत्यस्य पुरो दिव्यं धमंच सुरेधूतम् । सहस्रार महादीप्तं हसमिथ्याघसंचयम् ।।१०।। पादर्शादीनि दिव्याष्टमङ्गलानि दिवौकसः । प्रकल्पाते जिनेन्द्रस्य भक्त्या तत्पदकाडि क्षरणः ।।
करते थे सब उनके पीछे पीछे वायु कुमार देवों के द्वारा उत्पन्न शीतल और सुगन्धित वायु चलती थो॥ ६२ ।। भगवान के सभिधान में उनके चिदानन्द के माहात्म्य से सभा में रहने वाले सभी जीवों को धर्म-सुख-स्वाभाविक सुख को करने वाला परमानन्द होता था ॥६॥ वायुकुमार के देव इनके ठहरने के स्थान से लेकर एक योजन तक के प्रथिवी तल को रमणीय तथा तृरण प्रौर कीड़ों श्रादि से रहित कर देते थे ॥६४॥ मेघकुमार जाति के देव इनके समीप दिव्यगन्ध से युक्त तथा बिजलियों के समूह से सुशोभित गन्धोवक की दृष्टि करते थे ॥६॥ इनके पैर रखने के स्थान पर वेव सुवर्ण कमलों की रचना करते पे और वे सुवर्ण कमल सब मिलाकर दो सौ पच्चीस रहते थे। भावार्थ- विहार काल में वेब लोग भगवान के चरण कमलों के नीचे तथा प्राडू बाजू में पन्द्रह पन्द्रह कमलों की पंक्तियां रचते थे उन सब कमलों की संख्या दो सौ पच्चीस होती थी ।।६६॥ देवाधिदेव पाश्वं जिनेन्द्र के समीप धान को प्रादि लेकर समस्त अनाजों के पौधे फलों से नम्रीमूत रह कर सा ऋतुओं के विविध फलों को फलते थे ।।७॥ जिनेन्द्र भगवान के समीप भाकाश शरद ऋतु के सरोवर के समान निर्मल हो गया था और सभी दिशाएं भी निर्मल हो गई थीं जिनका अभिप्राय धर्म कार्य में लग रहा है ऐसे देव, इन्द्र की प्राता से जिनेन्द्र बेब की यात्रा के लिये-उनके साथ चलने के लिये परस्पर एक दूसरे को बुला रहे थे
६॥ जिसे देवों ने धारण कर रखा था, जिसमें हजार मारे थे, जो महादेदीप्यमान था, तथा जिसने मिथ्यात्व तथा पापों के समूह को नष्ट कर दिया था ऐसा दिव्य धर्मचक्र इनके पागे मागे चल रहा था ॥१०॥ जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से उनके पद की इच्छा करने वाले वेव, दर्पण मावि पाठ मङ्गल द्रव्यों की रचना करते जाते थे॥१०॥
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२९
• मो पार्श्वनाथ परित.
मालिनी
सुरवरविहितश्पेति द्विसप्तप्रमों--पतिशयपरमः संभूषितम्तीर्घनापः । कृतबहुसुविहारो भव्यसंबोधनार्य भवतु जिनबरो मे स स्वमभूतिसिद्धर्ष ॥१.२।।
शार्दूलविक्रीडितम् यस्यैतेऽतिशया भवन्ति च चतुस्त्रिशत्प्रमा प्रातिहा--.
ण्यष्टौ विगतान्तमस्ति सकलं गानं परं दर्शनम् । वीर्य सौख्यमनारतं च स मया संपूजितः संस्तुतो
वारंवारसनन्तसद्गुणमयो मेऽस्तु स्वराज्याप्तये ।।१।।
मालिनी समवसरणयुक्तो वेष्टितः सर्वसंध-२मृतसमभिस्त पितामयः ।
दुरिततिमिरहंता केवलझानभाभिः प्रकटित शिवमार्गो म स्तमीडे' शिवाय ॥१०॥ इति भट्टारकीसकलकीतिविरचिते पाश्वनाथचरित्रे जिनेन्द्रविहारकर्मवर्णनो नाम कावि शतितमः सर्गः ॥२२॥
जो देवरचित चौदह उत्कृष्ट प्रतिसयों से विभूषित थे तथा भव्य जीवों के संबोष नायं जिन्होंने अद्भुत विहार किया था ऐसे वे पाश्वं जिनेन्द्र मुझे प्रारमानुभूति की प्राप्ति के लिये हों॥१०२॥ जिनके उपयुक्त चौतीस प्रतिशय थे, पाठ प्रातिहार्य ये और अनन्त. मान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तदीयं रूप प्रनन्त चतुष्टय निरन्तर विद्यमान थे, जिनकी मैंने बार बार अच्छी तरह पूजा और स्तुति की है तथा जो प्रमन्त सदगुणों से तन्मय येथे पार्श्वजिनेन्द्र मुझे स्वराज्य की प्राप्ति के लिये हों ॥१३॥ जो समवसरण में युक्त थे, सब संघों से-ऋषि मुनि यति और प्रनगार अथवा मुनि प्रायिका श्रावक और पाधिका इन चार प्रकार के संधों से परिवृत थे, अमृत तुल्य वचनों के द्वारा जिन्होंने अनेक भव्यजीवों को संतुष्ट किया था, जो पापरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले पेसमा जिन्होंने केवलज्ञान की प्रभा से मोक्षमार्ग को प्रकटित किया था उन पाश्वजिनेन्द्र की में मोक्ष प्राप्ति के लिये स्तुति करता हैं ॥१०४॥
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकोतिविरचित पार्श्वनाथचरित में बिनेन्द्र भगवान के विहार का वर्णन करने वाला बाईसवां सर्ग समाप्त हुा ।।२२॥ १. स्तौमि १.४
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• प्रयोविशतितम सर्ग .
[ २९.
प्रयोविंशतितमः सर्गः 'प्रसंस्पसुरसंसेव्यं चतुःसंघविभूषितम् । जिनेन्द्रं शिरसा वन्दे बगरसम्बोधनोधतम् ।।१।। अप्सरःसु मटन्तीषु विविघं नर्तन परम् । तदग्रेऽतिमनोहारिहावभावलयादिभिः ॥२॥ किनरीषु सुगायन्तीषु सुकण्ठीषु लसत्स्वनम् । तज्जयोद्भवगीतानि मनोज्ञानि शुभान्यपि ।।३।। मिष्यामोहादिशक्षा पर विजये १२ । गध महादुन्दुभिषु घनत्सु निर्भरम् ॥४।। वेष्टितो नाकिनाघेश्चतुःसंघच अमराट् । कुर्वन धर्ममयी तृष्टि दिव्यध्वनिसुधारसैः ॥५।। प्रौणयन्भम्यसस्यादीन्' स्वमुक्तिफलकारिणः । प्रार्यखण्डं शुभाकोण विजहार जिनाग्रणीः ।।६॥ मिप्याज्ञानतमोराशि विघटग्य वचोंऽशुभिः । जिनेनो द्योतयामास मोक्षमार्ग गतभ्रमम् ।।७।। तत्वोऽमृतमास्थाच दाहं मोहालकामजम् । हत्यापुः परमं सोख्यं स्वात्मजं बहवो बुधाः ।।८।।
प्रयोविंशतितम सर्ग जो पसंख्य देवों के द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवनीय थे, जो पतुर्विध संघ से विभूषित थे तथा जगत् को सम्बोषित करने के लिये उद्यत थे ऐसे धी पार्वजिनेन्न को शिर से नमस्कार करता हूँ ॥१॥
का अप्सराये भगवान के प्रागे अत्यन्त मनोहर हावभाव और लय प्रादि के नारा नाना प्रकार का उत्कृष्ट नृत्य कर रही थीं ॥२॥ जब कलकण्ठी किन्तरियां मधुर स्वर से उनके मनोहर तथा शुभ विजय गीत गा रहीं थीं ।।३।। जब गन्धर्व देव मिथ्यामोह पादि रामुमों को जीत लेने का उत्कृष्ट पाठ पढ़ रहे थे और बड़े बड़े दुन्दुभि बाजे जब अत्यधिक शम्य कर रहे ये सब इन्द्रों के समूहों और चतुर्विध संघों से वेष्टित भगवान जिनेन्द्र दिव्यम्वनिस्पी अमृत रस के द्वारा धर्मवृष्टि करते हुए तथा स्वर्ग और मोक्षरूपी फल को उत्पन्न करने वाले भव्यतीवरूपी पान को संतुष्ट करते हुए शुभ प्रायखण्ड में विहार कर रहे थे ॥४-५॥ जिनरामरूपी सूर्य ने विध्यध्वनि रूपो किरणों के द्वारा मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार की राशि को विघटित कर भ्रम रहित मोक्षमार्ग को प्रकाशित किया था ॥७॥ उमके वचन कमी अमृत का मास्वाद कर प्रमेक विद्वज्जनों ने मोह इन्द्रिय तथा काम से उत्पन्न वाह को नष्ट किया था और उसके फलस्वरूप स्वात्मोत्थ परमसुख को प्राप्त किया था ॥॥ मुरासुरसंचन २. सत्त्वाचीन ३० ।
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३०० ]
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•बी पावनाप धरित.
यतो ज्ञानवृत्तादिरत्नोघमूल्यवजितः । तपःशीलादिरनैश्च मोहादिष्वान्तनाशनः ॥६॥ युतो भव्योघसार्थानां सार्थवाहो महाधनी । शिवानि ददारयेवानिशं रस्मान्यनेकशः ॥१०॥ केभ्यश्च दृष्टि रत्नान्मन्येभ्यो ज्ञान मणींश्च सः। परेभ्यो वृत्तरत्नानि दवाव्यम्य एव हि ॥११॥ नदथिभ्यस्तपोरत्न शील रत्नानि चानिशम् । स दत्त कल्पशाखीय मनोऽभिलषिसं फलम् ।१२।। ततोऽसौ विश्वलक्ष्म्याढयो महादातात्र कथ्यते । बुधर्मध्ये मुदा न.एगा सर्वदानविधी अमः ।।१३।। पत्किञ्चिद्दर्लभ वस्तु य ईडन्तेतिलोभिनः । दद्याभ्यः स्वकीयं स समस्त वा पदं निजम् ॥१४॥ यद्यही स्वर्गमूस्यादीनभव्येभ्यः स ददात्यपि । ततो न भुबने दाता जास्वन्यस्तत्समो महान् ।१५।। तद्दिव्यध्वनिसूर्याशुभिविश्दे प्रकटीकृते । तदान्धे दुर्मता भान्ति खद्योता इव नि:प्रभा ॥१६॥ जिनभानूद ये संचरन्ति साधुमुनीश्वराः । तदा कुलिङ्गिनो मन्दा नश्यन्ति तस्करा इव ॥१७॥ कुरुकोशलकाशोसुझावन्तीपुण्डमाल पान्प्र ङ्गवङ्गकलिङ्गास्यपञ्चालमगधाभिषान् ।।१८।।
जिस कारण वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूपी प्रमूल्य रत्नों तथा मोहादिक अन्धकार को नष्ट करने वाले तपशील आदि रत्नों से युक्त थे उस कारण भव्य समूह रूप व्यापारियों के बीच महा धनवान् सार्थवाह-प्रमुख व्यापारी थे और इसीलिए वे मोक्ष के मार्ग में निरन्तर अनेक रत्नों को देते ही रहते थे ।।९-१०।। किन्हीं भन्यों के लिए वे सम्यग्दर्शन रूपी रत्न देते थे तो अन्य भव्यों के लिये मानरूपी मार्ग प्रणाम करते थे और दूसरे भव्य जीवों के लिये चारित्र रूपी रत्न देते थे ॥११॥ जिस प्रकार करूप वृक्ष मन चाहे फल को देता है उसी प्रकार के इच्छुक मनुष्यों के लिये निरन्तर तप रूपी रत्न और शील रूपी रत्न देते रहते थे ॥१२॥ इसीलिये वे इस जगत में विद्वानों के द्वारा बड़े हर्ष से मनुष्यों के मध्य सर्वदान में समर्थ समस्त लक्ष्मी से युक्त महादाता कहे जाते थे ॥१३॥ अत्यन्त लोभी मनुष्य जिस किसी दुर्लभ वस्तु को बाहते थे उन्हें यह संभ वस्तु तथा प्रपना समस्त पद प्रदान करते थे ॥१४॥ जब कि वे भव्य जीवों के लिए स्वर्ग तथा मोक्ष प्रादि प्रदान करते थे तब इस जगत् में उनके समान दूसरा वासा कभी नहीं था ॥१५॥ जब उनकी दिव्यध्वनि रूपी सूर्य की किरणों से समस्त विश्व प्रकटिसप्रकाशित हो गया तब अन्य मिथ्या मतावलम्बी नीव जुगनूनों के समान प्रभा रहिल हो गये ॥१६॥ उस समय जिनेन्द्र रूपी सूर्य का उदय होने पर मुनिराज अच्छी तरह विवरण करते थे और हीन बुद्धि कुलिङ्गी चोरों के समान नष्ट हो गये थे ॥१७॥
समीचीन मार्ग का उपदेश देने में उद्यत श्री पार्श्व जिनेंद्र ने बड़े वैभव के साथ कुरु, कौशल, काशी, सुह्म, अवंती, पुण्ड, मालव, प्रम, बङ्ग, कलिङ्ग, पञ्चाल, मगभ,
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*त्रयोविशतितम सर्ग.
[ ३०१ विवर्मभद्रदेशायदशाणीवीबहन् जिनः । बिजहार महाभूत्या सन्मार्गदेशनोधतः ।।१६।। स्वयंम्बाथा गणाधीशाश्चतुर्मानयुता दश । अनेकविसमापन्ना नमन्त्यस्य क्रमाम्बुजम् ।।२०।। मझानध्वान्तहन्सारः सर्वपूर्वाब्धिपारगाः । साद त्रिशतसंख्याः सन्मुनीन्द्राः संस्तुवन्त्य हो ।२१। स्पुरस्थ घHशुक्लाउधाः सिद्धान्तपठनोचताः । यत्तयो युतपूर्वाणि शतानि नव शिक्षकाः ।।२२।। नमन्त्यस्य रदद्वन्त' चतुर्दशशतप्रमाः । 'यमिनोऽवधिसंपन्ना रूपिदव्यप्रदीपका: ।।२३।। केवलज्ञानिनोऽस्य स्युर्लोकालोकविलोकिनः । सहस्रप्रमितास्तस्सादृश्या ज्ञानादिमद्गुणः ।।२४।। सहस्रमिता शेवा विकिद्धिविभूषिता: । यतीशाः श्रीजिनस्यानेकरूपकरणे क्षमाः ।।२५।। जातसूक्ष्मपदार्थों धाः सा सप्तशतप्रमाः । घरन्ति शिरसास्याज्ञां मनःपर्यय बोधिन: ।।२६।। कुमतम्बान्तहन्तारः सन्मागोंद्योतनोद्यताः । विभोः श्रयन्ति पादान्जो वादिनः षट्शतप्रमा: २७ पिजीकृता हिं से सई त्यक्तसङ्गास्तपोषनाः । अभ्यणीकृतनिर्वाणाः स्युः सहस्राणि षोडश ॥२८॥ एकमाटी विना त्यक्तद्विधासर्वपरिग्रहा: । ध्यानाध्ययन संसक्ता मुक्तिसंसामनोद्यताः ।।२६।। विर, भावेश तथा बशार्ण मावि अनेक वेशों में विहार किया था ॥१८-१६॥ चार शाम से पुक्त तथा अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न स्वयम्भू प्रादि दश मगधर इनके चरण कमलों को नमस्कार करते थे ॥२०॥ अहो अज्ञान रूपी अंधकार को हरने वाले तया सर्व पूर्व रूप समुद्र के पारगामी तीन सौ पचास मुनिराज उनकी सम्यक प्रकार से स्तुति करते धे ॥२१॥ धर्म्य और शुक्ल ध्यान से सहित तथा सिद्धान्त के पढ़ने में उद्यत रहने वाले नौ सौ शिक्षक उनके साथ थे ।। २२ ।। रूपी द्रव्य को प्रकाशित करने वाले चौदह सौ अवधिज्ञानी इनके चरण युगल को नमस्कार करते थे ॥२३॥ लोक प्रलोक को देखने वाले तथा ज्ञान प्रावि सत्गुरणों के द्वारा उनका सादृश्य प्राप्त करने वाले एक हजार केवलज्ञानी उनके साथे ॥२४॥ श्री जिनेंद्र के समवसरण में विक्रिया ऋद्धि से विभूवित तमा अनेक रूप बनाने में समर्थ एक हजार मुनिराज विक्रिया ऋद्धि के धारक थे ।।२५।। जिन्होंने सूक्ष्म पदार्थों के समूह को जान लिया था ऐसे सात सौ पचास मन:पर्यय ज्ञानी गिर से उनकी बन्दना करते थे ॥२६।। जो कुमत रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले थे, समीचीन मोक्ष मार्ग को प्रकाशित करने में तत्पर रहते थे ऐसे छह सौ बाबी मुनिराज उनके चरण कमलों का प्राश्रय लेते थे ॥२७॥ सब मिला कर परिग्रह के स्वागी तथा मोक्ष के निकटवर्ती सोलह हजार सपस्थी मुनि उनके साथ थे ॥२८॥ एक सादी को छोड़कर शेष समस्त विविध परिग्रह का जिम्होंने त्याग कर दिया था, जो घ्याम पौर अध्ययन में संलग्न रहती थीं तथा मुक्ति की साधना में उद्यत रहती थीं ऐसी सुलो/ १ मुनयः १. रायोकताः ।
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३०२ ]
* भी पार्श्वनाथ चरित
सुलोचनादिमुख्या प्रायिका श्रावका हरवलोपेता
ग्रस्य पदाम्बुजो । प्ररणमन्त्येव सिह असंख्यकाः पराः ।। ३० । दानपूजनतत्पराः । एकलक्षप्रमारणा प्रर्चयन्त्यस्य पदाम्बुजी ||३१|| हक शीलदानपूज तथा श्राविका जिनमानितका: । जिमलगणनाः पूजयन्त्यस्यादि ध नमन्ति च । ३२ | काका देवा इन्द्राया । संख्याः सव्यादिप्रमुख यो मलिएको एकाग्रचेतसा नित्यं प्रभोः पादसरोरुहम् । गीतनसेन पूजानमस्काराचे भंजन्ति हरवतभूषिताः । सख्यातास्रयमहरा नमस्यन्ति श्रीजिनाधिपम् ३५॥ साथ धर्मप्रवृत्तये । दर्शयस्तस्य सद्भावं ध्वस्ताज्ञानतमश्चस्म् ||३६| वर्षन् धर्मामृतं देवो विजहार महोतलम् । मासपञ्चकहीनं कालं वर्ष सप्ततिप्रमम् ||३७| मासनी कृतनिर्वाणो विहरन विषयान्बहून् । श्राजगाम क्रमात्सम्मेदाचलानिधिराट् । ३८ ॥
।।३४।।
सिहाहिनकुलाद्यास्तिर्यञ्चो द्विषड्भेदेर्गतः
faraatiशा हत्वा कर्मरिपून् गताः । बहवोऽन्ये मुनीन्द्राश्चानन्तसौक्याकरं शिवम् ॥३१॥ वहत्येव परायां यः सतीर्थतां नसां स्तुताम् । ग्रच्छ प त्रिजगनाथैस्तुङ्गोऽद्रिषु निसेवितः १४०/
骂
चना को प्राfद लेकर छत्तीस हजार उत्कृष्ट प्रायिकाएं इनके खरस्प कमलों को प्रणाम करती थीं ।। २६-३० ।। सम्यग्दर्शन से सहित तथा दान और पूजन में तत्पर एक लाख बक इसके चरण कमलों की पूजा करते थे ।। ३१|| सम्यग्दर्शन, शील, दान और पूजा से सहित जिन भक्त तीन लाख आविकाएं इनके चरणों की पूजा करती और नमस्कार करती थीं ।। ३२ ।। चार निकाय के प्रसंख्यात देव तथा भक्ति भार से बशीकृत इन्द्राणी सादि देवियां एकाग्रचित्त से गीत, नृत्य, पूजा तथा नमस्कार प्रावि से मिरन्सर प्रभु के चरण कमलों की सेवा करती थीं ।।३३-३४ ।। सम्यग्दर्शन और एक देश व्रत से विभूषित सिंह, सर्प, नेवला आदि संख्यात तिर्यक्रच वैरभाव छोड़कर श्री जिनराज को नमस्कार करते थे ।। ३५ ।।
इन उपर्युक्त बारह सभाओं के साथ धर्म की प्रवृत्ति के लिए तस्व का सद्भाव विज्ञा हुए, प्रज्ञान रूपी प्रrधकार के समह का नाश करते हुए तथा धर्मामृत की वर्षा करते हुए श्री पार्श्वदेव ने पांच माह कम बहत्तर वर्ष तक पृथिवी तल पर विहार किया ।।३६-३७।। wa मोक्ष की प्राप्ति प्रत्यन्त निकट रह गयी तक अनेक देशों में बिहार करते हुए पार्श्व जिनेंद्र क्रम से उस सम्मेदावल के शिखर पर भाये जहां बीस तीर्थंकर और बहुत मुनि कर्म रूप शत्रुओं को नष्ट कर अनन्त सुख की खान स्वरूप मोक्ष को प्राप्त हुए थे ।। ३८३६॥ सुनियों के द्वारा सेवित जो उन्नत पर्वत, पृथिवी पर सीर्थङ्करों से नमस्कृत, स्तुत और पूजित उत्तम तीर्थपने को धारण करता है ।। ४० ।। जिस पर्वत पर स्थित तथा जिनेंद्र भगवान् के चरण कमलों से पवित्र की हुई निर्धारण भूमि वन्दना और स्तुति करने
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त्रयोविशतितम सर्ग.
[ ३०३
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निर्वाणमा हि वस्था जिनेन्द्रोहिपयित्रिताम् । प्रायान्ति वन्दितु स्तोतु देवापच मुनयः खगा:४१ यत्र तीर्थेशमाहात्म्याद व्याघ्रादिरजातयः । बायां कुर्वन्ति जीवाना न मनाक कलुषातिगा। सर्वतु फलपुष्पादोन फलन्ति तरुजातयः । तीर्थेशसग्निधौ तत्र सम्छाया हि मनोहराः ।। इत्यादिवर्णनोपेतेऽचले तस्मिन् जिनाप्रणीः । मासक योगमारुध्य मौनालम्बी गतक्रियः ।।४।। षधिणन्मुनिभिः साद्ध प्रतिमायोगमादधे । शेषापात्य घहन्तार मुक्तिकान्तासुखाप्तये ।।४।। काययोगेऽतिसूक्ष्मे स्थिति कृत्वा मनो बचः । त्यक्त्वा शुक्लेन नाम्ना सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिना ४९ दासप्ततिप्रकृत्यरातीन अधान जिनेश्वर: । सयोग्यास्यगुणस्थानस्यैवान्त्यसमये द्रुतम् ।।४७ काययोग पुनस्त्यक्त्याशु प्रकृतीस्त्रयोदय । अयोग्याख्यगुणस्थाने सुर्य शुक्लासिना स्वयम् ।।८। लघुपञ्चाक्षरोच्चारकामेन विनिहत्य सः। कृत्स्नफर्माङ्गनिमुक्तो बभूनाभुतकर्मकृत् ।।४ तत: कायनयापाये नष्टे कर्माङ्गबन्धने । एकेन समयेनैव लोकानशिखर परम् ।।१०।। के लिये मुनि तथा विद्याधर पाते रहते हैं ॥४१॥ जहां सीर्थर भगवान के माहास्य से ध्यान प्रावि र जाति के तिर्यञ्च कलुष भाव से रहित होकर जीवों को पोड़ी भी बाधा नहीं करते हैं ॥४२॥ उस पर्वत पर तीर्थङ्कर भगवान् के सन्निपान में उत्सम खाया से युक्त मनोहर वृक्ष सब ऋतुओं के फल पुरुष प्रावि को फलते हैं ॥४३॥ इत्यादि बरसेना से सहित उस पर्वत पर श्री पाव जिनेंद्र ने एक माह का योग निरोध कर छसीस मुनियों के साथ मुक्ति रमा के सुख की प्राप्ति के लिये शेष अघातिया कर्मों को नष्ट करने वाला प्रतिमा योग धारण किया। इस समय वे मौन से सहित तमा हलन चलन प्रावि क्रियामों से रहित थे ।।४४-४५॥ मनोयोग और पचन योग को छोड़ कर तथा अत्यन्त सूक्ष्म काय योग में स्थित होकर श्री पार्व जिनेंद्र ने सूक्ष्मप्रियाप्रतिपाति शुक्ल ज्यान के द्वारा सयोगी गुण स्थान के अंत समय में बहत्तर प्रकृति रूपी सत्रुओं का शीघ्र हो नारा किया और फिर शीघ्र ही काय योग का त्याग कर अयोगी गुण स्थान में चतुर्थ शुक्ल ध्यान रूपी खड्ग के द्वारा तेरह प्रकृतियों का पांच लघु अक्षरों के उपचारण काल में स्वयं क्षय किया और इसके फल स्वरूप पद्धत कार्य को करने वाले पार्य प्रभु समस्त कर्मरूप शरीर से निमुक्त हो गये ॥४१-४६।। तदनतर प्रौवारिक तैजस और कामेण इन तीनों शरीरों का प्रभाव होने और कार्मरण शारीर का बंधन नष्ट होने पर वे एक ही समय में * यहां संपोज गली गुरण स्थान के अन्त में जो बहत्तर प्रकृतियों के कय का वर्णन किया है वह भारत है क्योंकि इनका क्षय प्रयोग केवली गुणस्थान के उपाय समय में होता है और शेष तेरह प्रकृसियों का अब पतय समय में होता है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान सयोग वली के अवाय होया है परन्तु उसमे कर्मों को निर्जरा ही होती है क्षय नहीं।
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३०४ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित #
जगामाशु स्वभावेन
स्वस्त्रवान मारूढा
स ऊष्यगतिजेन हि । ग्रनन्तसुखसम्पन्नः स्वाधीनो मूर्तिवजितः ।। ५१ ।। श्रावणे मासि सप्तम्यां सितपक्षे दिनादिमे' मागे विशाखनक्षत्रे शुभलग्नादिके परे ।। ५२ ।। अनन्तसुखसंलीनो विभूषितः । मूर्तश्चरमाङ्गाद्धि किञ्चिदूना कृतिर्महान् ।। ५३ ।। वन्द्योजगत्त्रयाधीश नित्यो ज्ञानमयोऽद्भुतः । केवलज्ञानगम्योऽतिसूक्ष्मः सिद्धो निरञ्जनः ॥ ५४॥ तत्रास्थादपि धर्मास्तिकायाभावादुर्गातिच्युतः । श्रनन्तकालमासाद्य मुक्तिकान्तां सुदुर्लभाम् ।। ५५ । १ तन्मोक्षगमनं शाश्या स्वचिह्न रथ निर्जराः । चतुरंगकायकाः सेन्द्रा महाभूत्युपलक्षिताः ।। ५६ ।। धर्मामृतरसाशिनः । तत्राजग्मुजिनेन्द्रस्य प्रास्तपूजा चिकीर्षया ।। ५७ ।। पवित्र परमं दिव्यं शरीरं मोक्षसाधनम् । विभोर्मत्वा व्यशुदेवाः पराद्वर्थं शिविकापितम् ५८ । ततो देहस्य देवेन्द्राश्चक्रु पूजां महाभुताम् । चन्दनागुरुक पूराद्यैः सुद्रच्यैः सुगन्धिभिः ।। ५६ । प्रणेमुः परया भक्त्या मूहर्ता सर्वे दिशेकसः । पवित्रं तच्छरीरं प्रभोदिव्यं शिवकारणम् ।। ६० ।। ऊर्ध्वं गति स्वभाव से शीघ्र ही लोकाग्र की उत्कृष्ट शिखर पर जा पहुँचे । वे अनंत सुख से सम्पन्न, स्वाधीन और शरीर रहित थे ।। ५०-५१ ।। वे श्रावण शुक्ला सप्तमी के पूर्वाह्न काल में विशाखा नक्षत्र तथा उत्तम शुभ लग्न आदि के रहते हुये निर्धारण को प्राप्त हुये थे ।। ५२ ।।
:
जो सुख में निमग्न थे, आठ कर्मों के प्रभाव में प्रकट होने वाले धमन्तज्ञानावि माठ गुणों से विभूषित थे, प्रमूर्त थे, अन्तिम शरीर से कुछ कम प्राकृति को धारण करने बाले थे, महान थे, सीम जगत् के स्वामियों के द्वारा वन्दनीय थे, नित्य थे, प्रभुत थे, केवलज्ञान गम्य थे, अत्यन्त सूक्ष्म थे, सिद्ध थे, निरञ्जन - कर्मकालिमा से रहित थे तथा धर्माfront का प्रभाव होने से लोकाग्र के मागे गति से रहित थे ऐसे श्री पाश्वंजिनेन्द्र प्रत्यभ्स दुर्लभ मुक्तिरूपी कान्ता को प्राप्तकर उसी लोकाप्रभाग में प्रनन्त काल के लिये स्थिर हो गये ।।५३ - ५५।।
तदनन्तर प्रपने अपने चिह्नों से उनके मोक्षगमन का समाचार जानकर महाविभूति से युक्त, इन्द्र सहित चारों निकाय के वेब धर्मरूप अमृत रस का सेवन करते हुए अपने अपने वाहनों पर प्रारूढ होकर जिनेन्द्र भगवान के निर्धारण क्षेत्र की पूजा करने की इच्छा से वहां आये १५६ - ५७ ।। देवों ने विभु के मोक्ष के साधनभूत परमोवारिक शरीर को परम पवित्र मान कर उत्कृष्ट शिक्षिका में विराजमान किया || १८ || पश्चात् इन्द्रों में उनके शरीर की चन्दन प्रगुरु कर्पूर प्राहि सुगन्धित द्रव्यों से महान प्रभूत पूजा की ॥४६॥ समस्त देवों ने मोक्ष के काररणभूत भगवान् के उस पवित्र विष्य शरीर को परम भक्ति से हिर
१ पूर्वा ।
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* प्रयोविंशतितम सर्ग
[ ३०५ प्रग्नोन्द्रमुकुटोभूतहिना तद्वपुः परम् । तरक्षणं प्राम पर्यायान्तर गन्धोपलक्षितम् ।।६१।। ततो भस्म समादाय पञ्चकल्याणभागिनः । भवामोऽत्र वर्ष ह्येवमित्युक्त्वा चिरकालतः । ६२।। ललाटे मस्तके कण्ठे हृदये स भुजद्वये । संस्पृश्य भक्तिभारेण प्रापुः पुण्यं महत्सुराः ।। ६३।। सकलत्राः पुनः शका धर्मरागरसोरकटाः । प्रानन्दनाटकं संपादयामासुमंनोहरम् ।।६४।। एवं तदन्त्यकल्याणपूजन विधिवत्सुराः । विधायोपाज्यं सत्पुण्यं जग्मुः स्वस्थ समाश्रयम् ६५॥
मालिनी इति विविध सुखं यो मत्यलोके च नाके निरुपममतिसारं नि:प्रपञ्चं प्रभुक्त्या । सकलचरणयोगाप्राप मुक्त्यङ्गनाज-ममलमचलसौग्न्यं तरसुरणाप्त्यं तमीडे ।। ६६ ।।
शार्दूलविक्रीडिसम् यो काल्पपि निहत्य मोहमदनाक्षाराम्बहून धीरधी
धेराग्यासिबलेन कर्मजनित त्यक्त्वा कुटुम्ब परम् ।
के द्वारा प्रणाम किया ॥६०॥ पश्चात् सुगन्ध से सहित उनका यह शरीर अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न अग्नि के द्वारा उसी क्षण अन्य पर्याय को प्राप्त हो गयाभस्म हो गया ॥६॥
तवनम्तर भस्म को लेकर हम भी इसी तरह इस जगत् में पञ्चकल्याणकों के भागी होवे ऐसा कह कर उन देवों ने चिरकाल तक उस भस्म को ललाट, मस्तक, कष्ट, हृदय, और दोनों भुजारों में भक्तिभार से लगाकर महान पुण्य को प्राप्त किया ॥६२-६३। पश्चात् देवाङ्गलानों से सहित तथा धर्मराग के रस से परिपूर्ण इन्द्रों ने प्रानन्द नाम का मनोहर नाटक किया ।।६४।। इस प्रकार देव विधिपूर्वक अन्तिम कल्याणक की पूजा कर तथा उत्तम पुण्य का उपार्जन कर अपने अपने स्थानों पर चले गये ।।६।।
इस प्रकार जिन्होंने मनुष्य लोक तथा स्वर्ग लोक में नाना प्रकार के अनुपम, अत्यन्त श्रेष्ठ वास्तविक सुख का उपभोग कर सकलचारित्र के योग से मुक्तिरूपी प्रङ्गना से उत्पन्न निर्मल और अविनाशी सुख प्राप्त किया था उन पार्श्वनाथ भगवान को मैं उस सुख की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूं ॥६६॥ जिन्होंने बाल्य अवस्था में ही स्थिर बुद्धि तथा वैराग्यरूपी तलवार के बल से मोह काम तथा इन्द्रियरूपी अनेक शत्रुओं को नष्ट कर तथा कर्मजनित उत्कृष्ट कुटुम्ब और अद्भुत भोगों से श्रेष्ठ समस्त राज्य का त्याग कर मुक्तिरूपी स्त्री की माता स्वरूप उत्तम दीक्षा को ग्रहण किया था वे पापर्वनाथ भगवान् मोक्ष प्राप्ति पर्यंत 'मैं बाल्यावस्था में भी तप कर सक” इसके लिये सहायक हो
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• श्री पार्वभावरित .
राज्य बाद मुतमोगसारमखिलं पनाह दीक्षा परी
मुक्तिस्त्रीजननी स मेऽस्तु तपसे बाल्येऽपि यावच्छिवम् ।।६७।। यो वीर्य प्रकट विधाय परमं घोरोपसर्गे कते
दुष्टेनैव कुशवणा वरमहाध्यामैन शुक्लेन हि । इत्वा घातिचतुष्टयं शिवमरं व्यक्त व्यधार केवलं
ज्ञानं प्रमराचितं स भगवान् दबास्वशक्ति मम ।।६।। योऽत्राज्ञानतमो घनं च मुषियामुछड़ा वाक्यांशुभि
मोकालोकमशेषमेव विविध धर्म प्रकाश्य द्विषा । मुक्तेर्मागंमतीवगूढममलं दृग्ज्ञानवृत्तात्मक
सनुसार स्वधिारमा तं नोमि तद् द्धये ॥६६ ।।
बसन्ततिलका यन्नाममात्रजपनादरिदुष्टभूप-चौरग्रहभ्रमनिशाचरशाकिनीनाम् । दुाधिलि रिसर्पकुकर्मभाना शीघ्र नश्यति भयं समहं सदेडे ।।७।। यचिन्तनादखिलविघ्नचयं दुरन्तं धर्मादिकार्यविविधे कुनुपादिजातम् । नाशं प्रयाति खलु चात्र सुमङ्गलादी वन्दे तमेव शिरसा शिविघ्नहान्य ।।१।।
| जिन्होंने दुष्ट खोटे शत्रु के द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर उत्कृष्ट बीर्य को प्रकट कर तथा शुक्लष्यान नामक उत्कृष्ट महा ध्यान से चार धातिया कमों का क्षय कर मोक्ष प्राप्त कराने वाले, इन्द्र तथा मनुष्यों के द्वारा पूजित केवलज्ञान को व्यक्त किया था वे पार्श्वनाथ भगवान मेरे लिये अपनी शक्ति प्रदान करें ॥ ६ ॥ जिन्होंने बचनरूपी किरणों के द्वारा विद्वज्जनों के प्रज्ञानरूपी घोर अंधकार को नष्ट कर समस्त लोकालोक और गृहस्थ तथा मुनि के भेव से दो प्रकार के धर्म को प्रकाशित कर प्रत्येत गूढ, निर्मल सम्यग्दर्शन शान चारित्रात्मक तथा अनंत सुख के स्थान स्वरूप मोक्ष मार्ग को प्राप्त किया था में उन पाश्वनाथ भगवान को उस मोक्षमार्ग की वृद्धि के लिये अपने मस्तक से नमस्कार करता है॥६६॥ जिनके नाममात्र के जाप से शत्रु, दुष्ट राजा, चौर, ग्रह, भ्रम, निशाचर, शाकिनी, दुष्टरोग, अग्नि, सिंह, सर्प और कुकृत्य करमे वाले मनुष्यों का भय शीघ्र ही नष्ट हो जाता है उन पार्श्वनाथ भगवान की मैं सदा स्तुति करता है॥७॥ जिनका चितन करने से धर्मादि के विविध कार्यों में खोटे राजा मावि से होमे बाला कुःखदायक समस्त विघ्नों का समूह निश्चय से नाश को प्राप्त हो जाता है इस जगत
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*योविंशतितम सर्ग.
[ ३०७ यस्पूजनानिरूपमा परमा च लक्ष्मीः सौख्यं त्रिलोकजनितं च समीहितार्थः।। तद्भास्तिकवरसुदुर्लभसारसर्वः संलक्ष्यते तमिह नौमि समीहिताप्त्यै ।।७।। यदयानवज्ञहननात्काठना महान्तः पापाद्रयोऽसुखनगा: शतचूर्णताच । गच्छन्ति तद्गुरणसमूहसुरञ्जिताना कुर्वेऽनिशं स्वहदयेऽधविहान ये तम् ।।७।।
शार्दूलविक्रीडितम् पाश्वो विघ्नविनाशको वृषजुषा पावं श्रिता धामिका:
पार्वरणाशु विलभ्यतेऽखिलसुखे पापाय तस्मै नमः । पानास्त्यपरों हिताजनकः पापर्वस्य मुक्तिः प्रिया
पाने चित्तमहं पधे जिनप मा सीघ्र स्पा नप 11७४।
अम्बरा विचार्य विश्ववन्य गुणगणजलधि त्यक्तदोष महान्तं
श्रीमन्तं लोकनायं प्रकटितसुवर्ष मुक्तिकान्तं जिनेन्द्रम् ।
में मङ्गलमय कार्य के प्रारम्भ में मोक्ष सम्बंधी विघ्नों को नष्ट करने के लिये उन्हीं पाईनाप भगवान को मैं शिर झुकाकर नमस्कार करता है ॥७१।। जिनका पूजन करने से उनके भक्तजन, निरुपम उत्कृष्ट लक्ष्मी, तीन लोक सम्बन्धी सुख, अभिलषित पदार्थ, और समस्त उस्कृष्ट दुर्लभ पदार्थों को प्राप्त होते हैं मैं यहां उन पाश्वनाथ भगवान की प्रभिलषित अर्थ की प्राप्ति के लिये स्तुति करता हूँ ॥७२॥ जिनके ध्यानरूपी वन के प्रहार से उनके गुण समूह में अनुरक्त भव्यजीवों के प्रत्यन्त कठिन विशाल पापरूपी पर्वत सपा बुःखरूपी वृक्ष शतपूर्णता-सो ट्रफपने को प्राप्त हो जाते हैं उन पार्श्वनाथ भगवान को पापों का नाश करने के लिये में निरन्तर अपने हृदय में धारण करता हूँ ॥७३॥
पार्श्वनाथ भगवान् धर्मात्मा जीवों के विघ्न को नष्ट करने वाले थे, धार्मिक लोग भगवान् पार्श्वनाथ को प्राप्त हुए थे, पार्श्वनाथ भगवान के द्वारा शीघ्र ही समस्त सुख प्राप्त होता है, उन पार्श्वनाथ भगवान के लिये नमस्कार हो, पार्श्वनाथ से बढ़ कर दूसरा हित को उत्पन्न करने वाला नहीं है, पार्श्वनाथ भगवान् को मुक्ति प्रिय थी, में पार्श्वनाथ जिनेन्द्र में अपना मन लगाता हूँ, हे जिनराम ! मुझे सीघ्र ही अपने निकट ले लो ॥ ४ ॥ जो सबके द्वारा पूज्य हैं, सबके द्वारा बन्दनीय हैं, गुण समूह के सागर हैं, दोषों से रहित है, महान हैं, श्रीमान हैं, लोक के स्वामी है। उत्तम धर्म को प्रकट करने वाले हैं, मुक्ति कान्ता के पति हैं, जिनेन्द्र हैं, धर्म भक्त जीवों के
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३०८ ]
. श्री पार्श्वनाथ परित. हन्तारं दिनराशेषचरणजुषां पार्श्वनाथ गतार्थ
दातारं कामितापस्य सुशिवगतिदं नौमि मूर्ना स्वभक्त्या ॥७॥
शार्दूलविक्रीडितम् जातः प्राम्मरुभूतिरत्र किल यो मन्त्री ततोऽघादिभ --
स्तुङ्गः प्राप्यं वर्ष पुन: शशिप्रभो देवः सहस्रारजः । विद्येशः पुनरग्मिवेग खगों विद्युत्प्रभात्योऽमरः
कल्पेऽप्यच्युतनामके सुनृपतिः वज्रनाम्यारूपक: ।।७।। तस्मादायहमिन्द्र एव परमो ग्रेवेयके मध्यमे
ह्मानन्दाख्यनृपः पुनश्च सुरराट् कल्पे परेऽप्यानते । पश्चात्तीर्थकरो जगत्त्रयनुत: श्री पाश्वनाथो महान्
सरकत्यारणकभाजन: शिववधूभर्ता स मेऽव्याद्भवात् ।।७७॥ पापी प्राक्कमठस्ततोऽप्यघव शात्क्रूरः खलः कृकुट:
. सपों नारक एव चानुनरके धूमप्रभाश्येऽशुभात् । तस्माच्चाजगरोऽनुनार कखलः एवज्र व्यवाद द्वित्रिके
व्याधोऽघादनुनारकोऽतिविषमे गंदेऽशुभे सप्तये ।।७।।
विघ्न समूह को नष्ट करने वाले हैं, निष्पाप हैं, वाञ्छित अर्थ के दाता हैं और उत्तम मोक्ष · गति को देने वाले हैं उन पाश्वनाथ भगवान को में अपनी भक्ति पूर्वक शिर से नमस्कार करता हूँ ॥७॥
जो पहले मरुभूति नाम के मंत्री थे, फिर पाप के कारण उन्नत हायी हुए, पश्चात् धर्म को प्राप्त कर सहस्रार स्वर्ग में शशिप्रभ नामक देव हुए, पुनः विधाओं के स्वामी अग्निदेग नामक विद्याधर राजा हए, तदनन्तर अच्यूत स्वर्ग में विद्युत्प्रभ नामक देव हुए, फिर वज्रनाभि नामक चक्रवर्ती हुए, उसके बाद मध्यमवेयक में उत्तम प्रहमिन्द्र हुए, पुनः प्रानन्द नामक राजा हुए, पश्चात् प्रानत नामक उत्तम स्वर्ग में इन्द्र हुए, तदनन्तर श्रोनों जगत् के द्वारा स्तुत, प्रशस्त पञ्चकल्याणकों के स्वामो, तथा भुक्तिवध्न के भर्ता श्री पाश्वनाथ नामक तीर्थकर हुए वे संसार से हमारी रक्षा करें ।।७६-७७।।
जो पहले पापो कम8 हा फिर पाप के वश से कर दुष्ट कुट सर्प हमा, फिर याप के उदय से धमप्रभ नरक में नारकी हुअा, पश्चात् अजगर हुअा, फिर छठवें नरक में दुष्ट नारकी हमा. तदनन्तर भौल हुमा, पुनः अत्यन्त विषम भयंकर और प्रशुभ सप्तम
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● त्रयोविंशतितम स
T
सिंहो नारक एव घोरनरके धूमप्रभायेऽप्यनु
भ्रान्त्वा भूरिभवान्कुदुःखकलितान्भूपो महीपालकः ।
लस्मात्संवर एवं दुष्टहृदयरे जातोऽति वैरादिह
ज्ञात्वेतोह विदो न वैरमशुभं प्रारणात्यये कुर्वते ॥७६
सान्त्येतीह जिनेश्वरोऽतिबा सौख्यं नृनाकोद्भवं
rasat प्राप सुनित्यमुक्तिनियां कोपात्कुदुःखं परम् ।
संप्राप्तः कमठो दुरन्तमनिशं तिर्यग्भवं श्वभ्रजं
मस्तीह जना निहत्य निखिलं कोप भजष्यं क्षमाम् ॥१६०
एवं श्रीजिनपुङ्गवोऽत्र च मया सवन्दित: मंस्तो
नित्यं तत्सुचरित्रसाररचनाव्याजेन योऽनेकधा ।
[ ३०६
afe foreमातिममृति दु:करणां च क्षयं
दुःखम्यापि शिवं स्वकीयविभवं दद्यात्स में धरताम् ॥८१॥ वसन्ततिलका
शेषा हि ये जिनवरा जितमोहल्ला, ज्ञानार्क दिव्य किरणे रवभास्य लोकम् । प्रापुः सुमुक्तिवनितोद्भवसारसोम्यं तत्पादव जनान्यमाश्रयामि ॥२॥
नरक में नारकी हुआ, पश्चात् सिंह हुआ, फिर धूमप्रभ नामक भयंकर नरक में नारकी हुआ, पुनः कुत्सित दुःखों से युक्त अनेक भवों में भ्रमण कर महीपालक नामका राजा हुआ लखनन्तर तीव्र बॅर कारण इस जगत् में दुष्ट हृदय वाला संवर नामक देव हुआ। ऐसा जान कर ज्ञानी ओघ प्रारणविघात होने पर भी प्रशुभ बैर नहीं करते हैं ।।७८- ७६ ।।
श्री पार्श्व जिनेन्द्र इस जगत् में क्षमा के द्वारा मनुष्य और देवगतिसम्बन्धी अनेक प्रकार के सुख प्राप्त कर प्रत्यन्त नित्य मुक्तिरूपी धनिता को प्राप्त हुए और क्रोध से कमठ तिर्यय और नरकगति सम्बन्धी बहुत भारी भयंकर दुःख को प्राप्त हुआ, ऐसा जान कर हे भव्यजन हो ! समस्त क्रोध को नष्ट कर क्षमा की आराधना करो ||८०||
इस प्रकार इस ग्रन्थ में मैंने उत्तम चरित की श्रेष्ठ रचना के बहाने जिनकी अनेक प्रकार से निरन्तर बन्दना और स्तुति की है वे श्री पार्श्व जिनेन्द्र मेरे लिये बोधि-रत्नत्रय. दिव्यसमाथि, उत्तम मरण, दुष्ट कर्मों का क्षय, दुःख का क्षय, मोक्ष, अपना विभव प्रौर धीरता प्रदान करें ||८१|| मोहरूपी मल्ल को जीतने वाले जो शेष जिनेन्द्र, ज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से लोक को प्रकाशित कर सुमुक्तिरूपी बनिता से उत्पन्न होने वाले श्रेष्ठ सुख
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को प्राप्त हुए हैं मैं उनके बररणरूपी कमलवन का श्राश्रय लेता है ।।६२।। जो अनेक प्रकार
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३१. ]
• श्री पार्श्वनाथ रित
FEmता ये निहत्य बहुधा विधिजान स्वाङ्गमेव सपसा परिजग्मुः । लोकादिर शाहपुर: पाते दिशामुक मोसमा हाड1:1८३॥
बसन्ततिलका ये ह्याचरन्ति विमल खलू पञ्चभेदमाचारमत्र निपुणा: स्वयमात्मशक्त्या। प्राचारयन्ति यमिना शिवकर्महेतो-वन्वे सदहिकमलान्यरतद्गुणोधः ये मंतरन्ति परधीहळपोलयुक्ता, ज्ञानार्णवं च सकसं लघु सारयन्ति । शिष्यान्मृवाक्यकिरणः शिवमन्दिराफ्य, शानाय यामि शरणं किस सत्कमान्जम् ॥६॥
साधरा प्रावृद्धकाल दमूले फारण जलनिश्चित : सुयोग पर ये
हेमन्ते दिक्सुवस्त्रावृतढवपुषश्च स्वरेऽतीयमोसे । घी मे चोदयाभूते नकिरणचयः सुष्टु तप्ते शिला
से मे यन्याः प्रदा वरशिवगतये साधवः स्वस्वशक्तिम् ॥८६॥ भरय मान्य स्तृत च त्रिभुवनपतिभिः सेक्षित मुक्तिकामै--
नित्यं सद्धर्मवीज वारणमनुपम दुःखसत्रस्तपु साम् । के तप के द्वारा कर्म समूह तथा स्वकीय शरीर को हो नष्ट कर लोक के अग्रभाग को प्राप्त हुए हैं उत्सम गुण रूपी प्राभूषणों से सहित वे सिद्ध परमेष्ठी इस जगत में मुझे मोक्ष प्रवान करें ॥३॥ लोकोत्तर सामथ्र्य से युक्त जो इस जगत में पांच प्रकार के निर्मल प्राचार का अपनी शक्ति द्वारा स्वयं प्राचरण करते हैं और मोक्ष प्राप्ति के लिए अन्य मुनियों को प्राचरण कराते हैं उन प्राचार्यों के चरण कमलों को मै उनके उत्कृष्ट गुण ममूह के कारण नमस्कार करता हूँ ॥४॥ उत्कृष्ट बुद्धि रूपी सुदृढ जहाज से युक्त जो समस्त ज्ञान रूपी सागर को शीघ्र ही तिर जाते हैं तथा उत्तम वचन रूपी किरणों के द्वारा जो शिष्यों को तिराते हैं मैं मोक्ष महल को प्राप्ति तथा ज्ञान के लिये उन उपाध्याय परमेष्ठी के चरण कमल को शरण को प्राप्त होता हूँ ॥ ८५ ॥ जिनका सुदृढ़ शरीर दिशा रूपी वस्त्रों से प्राकृत है ऐसे जो वर्षाकाल में सर्प तथा जल से व्याप्त वृक्ष के नीचे हेमन्त ऋतु में प्रत्यन्त शीतल चौराहे पर और ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के प्रमभाग स्वरूप, सूर्य के किरण समूह से अच्छी तरह तपे हुये शिला के अग्रभाग पर उसम ध्यान धारण फरते थे वे बन्दनीय साधु परमेष्ठी मुझे मोक्ष रूपी उत्कृष्ट गति के लिये अपनी अपनी शक्ति प्रदान करें ।।६। जो मुक्ति के इच्छुक सीन लोक के स्वामियों के द्वारा पूज्य है, मान्य है, स्तुत है. सेवित है, निल है. सदर्भ का बीज है, दुःख से भयभीत मनुष्यों के लिये
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* अयोविंशतितम सर्ग -
[ ३११ पापघ्नं सत्त्वमूलं शिवसुखअनकं स्वर्गसोपानभूत
जीमारिय धरिश्या प्रगणसदनं शासन तीर्थक : १८७।।
स्वायता ये इदं परिपठन्ति सुशास्त्रं पाठयन्ति सुविदो वरशिष्यान् ।
एनसां च विनिरोधनिर्जरा जायते बहुशुभं खलु तेषाम् ।।८८।। शृण्वते इममतीव पवित्र ग्रन्थसारमपि ये वरवुढचा ।
ते स्वमोहमदनारिविनाशाद्यान्ति कल्यमसमं सगुखाधिम् ।।६।। ये लिखन्ति निपुणा इममेव लेखयन्ति सुधनेन च वा ये ।
मानतीसुविदस्तवहान्य ते सरनस्पषिरतः श्रुतवादिम् ।। ६० ।। प्रन्बसारमिममेव मुनीन्द्राः कृरत्नदोषरहिताः श्रुतपूर्ण :
शोधयन्तु निपुणा वरबुध्या पार्श्वनाथभवपतिजातम् ॥११॥
इन्द्रबमा न कोतिपूजादिसुलाभलोभान वा कवित्वाभिमानतोऽयम् । ग्रन्थः कृतः किन्तु परार्थयुद्धघा ख्यातो परेषा च हिताय नूनम् ।।१२॥
अनुपम शरण है, पाप को नष्ट करने वाला है, तस्व का मूल कारण है, मोक्ष सुख को उत्पन्न करने वाला है, स्वर्ग की सीढ़ी स्वरूप है तथा गुण समूह का घर है ऐसा तीर्थडूर का शासन पृथिवी पर निरन्तर जयवन्त रहे ॥८७।।
___ जो सम्यग्ज्ञानी जीव इस समीचीन शास्त्र को प्रच्छी तरह पढ़ते हैं तथा उत्तम शिष्यों को पढ़ाते हैं उनके निश्चय से पापों का संवर और निर्जरा तथा बहुत प्रकार का कल्याण निश्चय से होता है ॥८॥ जो मनुष्य उत्कृष्ट बुद्धि के द्वारा इस प्रस्यन्त पवित्र श्रेष्ठ प्रन्थ को सुनते हैं के अपने मोह और काम रूपी शत्रु का नाश होने से सुख रूपी सागर से सहित अनुपम नोरोगता को प्राप्त होते हैं ।।६।। शान रूपी तीर्थ को जानने पाले जो चतुर मनुष्य इस ग्रन्थ को स्वयं लिखते हैं तथा उसको हानि न हो इस उद्देश्य से उत्तम धन के द्वारा दूसरों से लिखवाते हैं वे शीघ्र ही श्रुत रूपी सागर को तिर जाते हैं ॥६॥ समस्त दोषों से रहित तथा श्रुतज्ञान से परिपूर्ण चतुर मुनिराज, पार्श्वनाथ भगवान की भव परम्परा का वर्णन करने से उत्पन्न इस श्रेष्ठ प्रन्थ का अपनी उत्कृष्ट बुद्धि से संशोधन करें॥६१ ॥ मैंने यह प्रन्थ म तो कीति पूजा प्रादि के उत्तम काम के सोम से किया है और न कविस्व प्रादि के अभिमान से ही किया है किन्तु परार्थ युजि से
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• श्री पार्श्वनाथ चरित .
स्वागता अक्षरस्यरसुसन्धिसुमात्रादि-च्युतं यदपि किञ्चिदपीह । भानहीनचलचित्तप्रमादासक्षमस्व जिनवारिण समस्तम् ।। १३ ।।
मालिनी अवगमजलधिः श्रीपार्श्वनाथस्य दिव्यं, सकलविशदकीत: प्रादुरासोन्मुनीन्दात् । यदिह वरचरित्र तद्धि दक्षः प्रगन्य, जति सुननसेव्यं जैनघोऽस्ति यावत् ।। १४ ।।
___ शार्दूलविक्रीडितम् सर्व तीर्थकरा महातिशयिन : सिद्धा हि कर्मातिगा--
दिव्याष्टा तसद्गुणश्च सहिताः श्रीसाधवाच त्रिधा । शुक्लध्यानसुयोगसाधनपरा विद्याम्बुधेः पारगा
ये हे विश्वगुणाकराश्व शिवदं कुर्वन्तु मे मङ्गलम् ।।१५।।
स्रग्धरा विश्वाच्या विश्ववन्याः सकालवृषघरा मुक्तिकान्ताप्रसक्ता--
हन्तारः कर्मशत्रून् सुगुणजलषयो माप्यरूपेण नित्यम् ।
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अन्य जीवों के हित के लिये निश्चय से इसका कथन किया है ॥१२॥ मैंने इस प्रन्थ में ज्ञान की हीनता, चित्त को चञ्चलता तथा प्रमाद से जो कुछ भी अक्षर स्वर सग्धि तथा मात्रा प्रावि की त्रुटि को हो हे जिनवाणी माता ! उस सबको क्षमा करो ॥६३।। पारवंनाथ भगवान का जो यह दिव्य तथा उत्कृष्ट चरित्र सकल कोति मुनिराज से प्रादुत हमा है वह ज्ञान का सागर है तथा चतुर मनुष्यों के द्वारा प्रशंसनीय है । सत्पुरुषों के द्वारा सेवित-पठन पाठन में लाया जाने वाला यह अन्य जब तक जैन धर्म है तब तक जयवन्त प्रवर्ते ॥४॥ महान प्रतिपायों से सहित समस्त तीर्थङ्कर, दिव्य तथा प्राश्चर्यकारी पाठ गुणों से सहित कर्मातीत सिद्ध परमेष्ठी तथा प्राचार्य उपाध्याय और साधु के मेह से तीन प्रकार के वे साधु परमेष्ठी जो शुक्लध्यान . का सुयोग सिद्ध करने में तत्पर है, विधा रूपी समुद्र के पारगामी हैं तथा समस्त गुणों की खान स्वरूप है मेरे लिये मोक्ष बायक प्रगल प्रदान करें ।।५॥
जो सबके द्वारा पूज्य हैं, इन्दनीय है, समस्त धर्म को धारण करने वाले हैं, उत्तम गुणों के सागर है पोर जाप्यरूप से मध्यजीवों के द्वारा निरन्तर अाराधनीय हैं ऐसे मोक्ष
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- त्रयोविंशतितम सर्ग
[ ३१३ माराध्या भव्यलोकेरगतिसुखकरास्तीर्थनाथापच सिद्धा
ये तेऽनन्ता मुनीन्द्रा; शुभसुखसदनं मङ्गलं च प्रदा: ।। ६६ ।।
मालिनी जिनवररुचि मूलो ज्ञानसत्पीठबन्धः, सकल चरण शालो दानपत्रप्रसूनः । शिव सुख फलनम्रो धर्मकल्पद्रुमो :वोऽस्तु सुशिवफलकामैः सेम्य एवाष्टसिद्धय ।।१७।।
शार्दूलविक्रीरितम् धर्मो विश्वसमीहितार्थजनको धर्म व्यधुर्धामिका
धर्मेणाशु शिवं भजन्ति मुनयो धर्माय मुवत्यै नमः । धर्मान्नास्त्यपरोऽखिलार्थसुखदो धर्मस्य मूलं सुहा
धर्मे चित्तमहं दघेऽन्तकमुखाद्ध धर्म रक्षाशु माम् ॥ १८ ।। सर्व श्रीजिनपुङ्गवाश्च विमला: सिद्धा अमूर्ता विदो
विश्वाा गुरवो मिनेन्द्र मुखजाः सिद्धान्तधर्मादयः । कर्तारो जिनशासनस्य महिताः संवन्दिताः संस्तुता
ये ते मेऽत्र दिशन्तु मुक्तिजनके शुद्धि च रत्नत्रये ।। ६६ ।। सुख को करने वाले तीर्थगुर, सिद्ध भगवान् तथा अनन्त मुनिराज मेरे लिये शुभ सुख के गृहस्वरूप मङ्गल प्रवान करें ॥६॥ जिनेंद्रभगवान की श्रद्धा हो जिसको जड है, सम्यमान हो जिसको पीड हैं, सकल चारित्र ही जिसको शाखाएं हैं, दान हो जिसके पत्ते और फूल हैं, जो मोक्ष सुखरूपी फलों से नम्रीभूत है तथा उत्तम मोक्षरूपी फल के इच्छुक मनुष्यों के द्वारा सेवनीय है ऐसा धर्मरूपी कल्पवृक्ष तुम सब को अरिणमा महिमा प्रादि पाठ सिद्धियों के लिये हो ॥६॥
धर्म, समस्त वाञ्छित पदानों को उत्पन्न करने वाला है, धार्मिक पुरुष धर्मको करते थे, मुनि धर्म के द्वारा शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं, मुक्ति प्राप्ति के लिये धर्म को नमसकार है, धर्म से बढकर समस्त सुखों को देने वाला दूसरा पदार्थ नहीं है, धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है, मैं धर्म में चित्त लगाता हूँ, हे धर्म ! यम के मुख से मेरी शीघ्र ही रक्षा करो ॥९॥ समस्त जिनराज-तीर्थकर, निर्मल प्रमूर्तिक और ज्ञान स्वरूप सिद्ध परमेष्ठी, सबके द्वारा पूजनीय गुरु, जिनेन्द्र भगवान के मुख से उत्पन्न सिद्धान्त धर्म प्रादि तथा जिन शासन के कर्ता जो मेरे द्वारा पूजित, वन्दित तथा संस्तुत हुए हैं वे सब इस जगत् में मुक्ति १. जिनेन्द्र चिः।
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३१४ ]
• पो पानावपरित .
अनुष्टुप् पञ्चाशदधिका-येनाष्टाविंशतिशतान्यपि ।
प्रलोकसंख्याश्च विशेया सर्वप्रथस्य लेखकै : ।।१०।। इति भट्टारकीसकलकीतिविरचिते पार्वनामचरित्रे श्री पार्श्वनाथ मोभगमन
वर्णनो नाम त्रयोविंशतितमः सर्गः ।। २३ ।।
को प्राप्त कराने वाले रत्नत्रय में मेरी विशुद्धि करें। भावार्थ-इन सबके प्रसाव से मेरा रत्नत्रय निर्दोष हो ॥६॥
लेखकों द्वारा इस सम्पूर्ण प्रन्य के श्लोकों की संख्या अठ्ठाईस सौ पचास २८५० जानने योग्य है ।।१००॥
. इस प्रकार भट्टारकाधीसकलकति द्वारा विरचित पार्श्वनाथचरित में श्रीपार्श्वनाथ भगवान के मोक्षगमन का वर्णन करने वाला तेईसवा सर्ग समाप्त हुमा ।।२।।
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________________ त्रयोविंशतितम सर्ग. [ 315 टीकाकर्तृ प्रशस्तिः गल्लीलालतनूजेन जानक्युदरसंभुवा / पन्नालालेन बालेन सागरप्रामवासिना // 1 // श्रीश्रुतसागराभिल्यमुनीन्द्रस्य महामतेः / समासाद्य समावेशं भव्यकल्याणकारकम् // 2 // पारवंमाथचरित्रस्य रचित्तस्य महाधिया। __ भट्टारकपदास्य न जिनधर्मप्रभाविणा // 3 // सकलकोराचार्येण टोकंषा रचिता शुभा। सार्धतिकसहस्राब्बे सुगते वीरनिवृतेः // 4 // वंशाखकृष्णपक्षस्य प्रतिपत्सत्तिथी रवेः / ___ वासरेापराह च पूर्णषा भुवि वतंताम् // 5 // मोवाय भव्यजीवानां यावश्चन्द्रदिवाकरम् / / शोधयन्तु बुधा एतां स्वधियामलयोन्मलाम् // 6 // प्रज्ञानावा प्रमादाद्वा स्खलितं यत्पदे पदे। क्षमच विबुधास्तन्मे जानवारिधिसनिभाः // 7 // येन कर्माष्टकं घग्धं शुक्लध्यानानलेन / श्रीमान् पाश्र्वजिनेन्द्रोऽसौ पातु मां भववारिधेः / / श्री श्रुतसागराभिल्यो मुनीन्द्रो महितोऽमरः / सधर्मवत्सलो नित्यं पातु मां गृहकर्दमात् // 6 //