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________________ rrr - -- - - - - -- - - • विशतितम सर्ग . हस्यात्मतस्वमाख्याय तीर्थनामो गणान्प्रति । मार्गणादिकमाल्यातु प्रारंभे मार्गसिद्धये ।।६।। गतिरिन्द्रियकायौ हि योगवेदकषायक: शानसंयमहग्लेण्याभव्यसम्यक्रवसंशिनः ॥६६।। माहारो मार्गणाश्चेति चतुर्दश निरूपिताः । जिनस्तासु बुधमुंग्यो जीवतत्वो महांश्चिदे ।।६।। मिध्यासासादनी मिषोऽविरतास्यश्चतुर्षकः ।वै देशविरतास्यः प्रमत्तोऽप्रमत्तसंज्ञक: ॥६॥ प्रपूर्वकरणो नाम्नानिवृत्तिकरणाभिष. हि सूक्ष्मसाम्परायोपशान्तक्षीणकषायकाः ।।६।। सयोग्ययोगिनी मान्यो सगुणामयणादिमे । चतुर्दश जिनः प्रोक्ता गुणस्थाना गुणाकरा: ।।७।। मुक्त: सोपानमाला एसे भव्यानो जिनोदिताः । अभयानां किलको मिथ्यागुणस्थानशाश्वतः।।७१। होनाधिकगुणगुक्ता 'प्रन्वेष्यास्तेषु षीधनैः । गुणानां स्थान केङ्गिन: परीक्ष्य गुण प्रजः ॥७२।। इत्यादिवासुधापूरैराप्लान्य निखिलो सभाम् । प्रजीवतत्त्वमाख्यातु पुनरारधवान्प्रभुः ॥ ३॥ पुदुगलो बहुधा धर्मोऽधर्म प्राकाश एव हि । कालश्चेति जिन : प्रोक्तोऽजीवद्रव्योऽत्र पंचधा ७४। पूरणाद्गलनाक्षः पुदगलोऽयं निरूपितः । मूर्तोऽनेकविधः सार्थनामकः कर्मदेहकृत् ।।७।। प्रकार पाय जिनेन्द्र बारह सभानों के प्रति प्रात्मतत्व का निरूपण कर मार्ग की सिद्धि के लिये मार्गरपादिक का वर्णन करने के लिये उद्यत हए ॥६५॥ मति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संजी और प्राहार ये चौवह मार्गणाए जिनेन्द भगवान ने कही हैं। विद्वानों को उन मार्गगानों में प्रात्मज्ञान के लिये श्रेष्ठ जीवतत्व की खोज करना चाहिये ॥६६-६७॥ मिथ्यात्व, सासाबम, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकपाप, क्षीणकषाय, सयोगिजिन और अयोगिजिन, ये चौदा गुणस्थान जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं। समीचीन गुरणों का प्राश्रय लेने से मे गुणस्थान कहलाते हैं। सम्यग्दर्शनावि गुरणों की खानस्वरूप हैं। मुक्ति को सीढी स्वरूप ये चौदह गुरणस्थान भव्य जीवों के होते हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। प्रभध्य जीवों के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही शाश्वत रहता है ॥६८-७१॥ बुद्धिरूपी धन को धारण करने वाले मनुष्यों को चाहिये कि वे उपर्युक्त गुणस्थानों में गुणसमूह के द्वारा परीक्षा कर होनाधिक गुणों से युक्त जीवों का अन्वेषण करें ॥७२॥ इत्यादिवचनरूपी अमृत के पूर से समस्त सभा को तर कर पश्चात् पाव प्रभु ने अजीव तत्त्व का ध्यास्यान प्रारम्भ किया ॥७३॥ अनेक प्रकार का पुदगल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल इस प्रकार जिनेन्द्र भग. वान ने इस जगत् में प्रजीव द्रव्य पांच प्रकार का कहा है ॥७४॥ पूरण-मलन-स्वभाव के १.अन्वेषणीयाः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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