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________________ • श्री पार्वमाय चरित. केवलाश्य: समुद्घाता: सप्तेति श्रीजिनमताः । कैवल्यलेजसाहारा योगिनां स्युः परेऽङ्गिनाम् ।।५।। पुण्यपापफलाना हि विविधानां चतुर्गतौ ।शशिमंकराणां प्राणी भोक्ता व्यवहारतः ॥५६।। स्वस्वरूपस्य कर्ता शुद्धनिश्चयनयादसौ । जन्ममृत्युजरातीतो न कर्ता बन्धमोक्षयोः ।।७।। प्रतोऽत्रात्माप्यसो ध्येयो निर्विकल्पपदाश्रितः । गुणः सिद्धन सादृश्यो कानमूतिरमूर्तिमान् ।।५८।। यथाग्निकरणकेनात्र दह्यन्ते काष्ठराणयः ।अनन्तकर्मकाष्ठानि तथा ध्यानलवाग्निना ।। ५६॥ दन्तभग्नो यथा नागो' दंष्ट्राभग्नोऽक्षमो हरि: । स्वकार्ये य तथा ध्यानहीनः कर्मारिघातने ।।६।। चिन्तामणिश्च रत्नानां कल्पवृक्षोऽत्र शाखिनाम् । 'निशाना यथा सको नृणां मध्ये परो जिनः।६।। प्रात्मतत्त्वञ्च तत्स्वाना पदार्थानां तथा महान् । स्वकीयात्मपदार्थो द्रव्यागा स्वद्रव्यमेव हि ॥१२॥ इति मत्वा स्वसंसिद्धार्थ मन: कृत्वातिनिश्चलम् । विषयेभ्यो विनि:क्रान्त संवेगादिगुणाहितम् ।।६।। सर्वद्रव्यवहिपूँ तोऽप्यनन्तगुणसागरः । सविस्थासु सर्वत्र स्थानमा ध्येयो मुमुक्षुभिः ॥६४।। केवली ये सात समुद्घात श्री जिनेन्द्र भगवान ने माने हैं। इनमें कंवल्य, तेजस और पाहा. रक समुद्घात योगियों-मुनियों के ही होते हैं और शेष समुधात अन्य जीवों के होते है ॥५४-५५॥ यह प्राणी व्यवहारनय से चारों गतियों में सुख दुःख उत्पन्न करने वाले पुग्य और पाप का भोक्ता होता है ।॥५६॥ शुद्धनिश्चपनय की अपेक्षा यह जीव यात्मस्वरूप का कर्ता है। जन्म जरा और मृत्यु से रहित है तथा बन्ध पोर मोक्ष का कर्ता नहीं है ।।५७।। इस लिये निविकल्प पत्र को प्राप्त हुए जीवों को इस जगत् में उस प्रारमा का भी ध्यान करना चाहिये जो गुरणों की अपेक्षा सिद्धों के समान है, ज्ञानमूति है तथा शरीर से रहित है।५। जिस प्रकार अग्नि के एक करण से काठ की राशियां जल जाती हैं उसी प्रकार ध्यान के अंशरूप अग्नि के द्वारा अनन्त कर्मरूपी काठ भस्म हो जाते हैं ॥५६॥ जिस प्रकार दांत रहित हाथी प्रथया सर्प और बाढ़ रहित सिंह अपने कार्य में असमर्थ रहता है उसी प्रकार ध्यान रहित साधु कर्मरूपी शत्रु का घात करने में असमर्थ रहता है ।।६।। जिस प्रकार रत्नों में चिन्तामणि, वृक्षों में कल्पवृक्ष और देयों में इन्द्र उत्कृष्ट है उसी प्रकार मनुष्यों के मध्य में जिनेन्द्र उत्कृष्ट हैं ।। ६१ ॥ जिस प्रकार तस्वों में प्रात्मतत्व, तथा पदार्थों में स्वकीय पात्म पदार्थ महान है उसी प्रकार द्रव्यों में प्रात्म द्रव्य महान है ॥६२॥ ऐसा मान प्रारम सिद्धि के लिये मन को अत्यन्त निश्चल, विषयों से दूर तथा संवेगादि गुणों से युक्त कर मुमुक्षु जनों को सब अवस्थाओं में तथा सब स्थानों में उस स्वकीय प्रात्मा का ध्यान करना चाहिये जो सब द्रव्यों से पृथक होकर भी अनन्त गुणों का सागर है ।६३-६४। इस १. अस्ती २. सिंहः ३. देवानाम ४. इन्द्र ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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