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________________ विशतितम सर्ग . [ २६३ मूर्तपुरमामयोगान्मूर्तोऽङ्गी व्यवहारतः । प्रमूर्तो निष्कलः शुद्धो जानमूर्तियच निश्च यात्।४६।। ज्यवहारनयनाङ्गधनुषधारमृषात्मना । कर्मनोकर्मणां कर्ता भोक्ता तत्फलमम्जसा ।।४।। उपचारमृषानाम्ना नयेन प्राणभृद्भुवि । कटवस्त्रगृहादीनां कर्ता च शिल्पिकर्मणाम् ॥४।। मधुबनिएचपेनानी कर्ता च भावकर्मणाम् । रागद्वेषमदोन्मादशोकादिविषयात्मनाम् ।।४।। प्रागपुस्त्यबनामृत्युः प्रादुर्भावारच संभवः । द्रव्यरूपेण नित्यत्वं चतुर्गतिषु देहिनाम् ।।५० । मायतेस्तो गरगामीशरुत्पादव्यय एव च । धौव्यभावोऽत्र संप्रोक्तः सर्वेषां व्यवहारतः ।। ५१।। कायप्रमाण प्रामायं पर्यायनयतः पचित् । उक्त: प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदोपबह ।। ५२।। विना सनमायानिडोर गनेत्पतः । कर्मोत्पन्नाङ्गहीनाङ्गी ह्यसंख्यातप्रदेशमः ।।५३।। वेदनाख्यः कषायाख्यो विकुणिसमाह्वय: । मारणान्तिकसंज्ञस्तैजसाहारकसंशको ॥५४॥ है। भावार्य-जीव के वश प्राणों का संयोग संसारो दशा में ही होता है मुक्त अवस्था में मात्र मान दर्शन सुख और वीर्यरूप भाव प्राण होते हैं ॥४५॥ मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के साथ संयोग होने के कारण यह जीव व्यवहारनय से मूर्तिक कहलाता है और निश्चयनय से प्रमूर्तिक, शरीर रहित, शुद्ध और ज्ञानमूर्ति है ॥४६।। अनुपचरित प्रसन्मूत व्यवहार नय की अपेक्षा यह जीव वास्तव में कर्म नो कर्म का कर्ता और उनके फल का भोक्ता है ।४७। उपवरित असम्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा यह जीव पृथिवी पर चढाई वस्त्र तथा घर मावि शिल्प कार्यों का कर्ता है॥४८॥ अशुद्ध निश्चयनय से यह जीव राग द्वेष मद उम्पाद तथा शोक प्रादि रूप भावकों का कर्ता होता है ।।४।। यद्यपि इस जीव की चारों मतियों में पूर्व शरीर के छूटने से मृत्यु तथा नवीन शरीर के प्रकट होने से उत्पत्ति होती है तथापि व्रव्य की अपेक्षा उसमें नित्यता रहती है ऐसा गणधर देव जानते हैं। इन सभी जीवों मे उल्पाव व्यय और ध्रौव्यभाव व्यवहारनय से कहा गया है । ५०-५१॥ दीपक के समान प्रवेशों के संकोच और विस्तार के कारण यह प्रात्मा पर्यायनय को अपेक्षा कहीं शरीर के प्रमारण कहा गया है । भावार्थ-प्रात्मप्रदेशों में वीपक के प्रकाश के समान संकोच और विस्तार की शक्ति है प्रतः उसे पर्यायाधिक नय से जैसा छोटा बड़ा शरीर प्राप्त होता है उसी के अनुरूप उसका परिमारण हो जाता है ।।५२॥ सात समुद्घातों के बिना अन्य समय प्रात्मा कर्म से उत्पन्न शरीर के प्रमाण होनाधिक होता है और निश्चयनय से प्रसंख्यात प्रवेशो है। भावार्य-निश्वयनय से प्रात्मा असल्यात प्रदेशो है प्रतः लोकपूरण समुद्घात के समय समस्त लोकामास में व्याप्त हो जाता है अन्य छह समुधातों के समय भी वर्तमान शरीर से बाहर मात्मा के प्रदेश फैल जाते है परन्तु अन्य समय में नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर के प्रमाण ही रहता है ॥५३॥ वना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तेजस, प्राहारक और १. जापते म. ग..।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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