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________________ २६२ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * जीवितः प्रागनादौ हि जीविष्यति पुनः सदा । जीवत्ययं ततस्तज्जीवद्रव्यं किलोच्यते ॥३७॥३ अक्षजाः पञ्च च प्रारणा मनोवाक्काय जास्त्रयः । श्रायुरुच्छवासनिश्वासो दर्शसे संज्ञिना मताः ||३८| संजिनां नव स्युस्ते विनात्र मनसा खिलाः । चतुरिन्द्रियजीवानां ह्यष्टौ कविना स्मृताः ||३६|| श्रीन्द्रियाणां विना चक्षुः सप्त प्राणाः प्रकीर्तिताः । हीन्द्रियाणां हि षट्प्राणाः कथिता नासिकां विना ४० गुखाभ्यां विनंकाक्षाणां प्राणाः स्युश्नतुःप्रमाः । यथायोग्यमपर्याप्तानां ज्ञेयास्ते जिनागमे ॥४१॥ श्राहाराज न्द्रियोच्छ्वास निःश्वासवाक्यनेतसः । शिदेहिनाम् ॥। ४२ ।। विकलासंजिनां पञ्च पर्याप्तयो मनो विना । चतुःपर्याप्तयो ज्ञेया एकाक्षारगां वचो विना ।। ४३ ।। निश्चयेन भवेत्केवलज्ञानमयोऽसुमान् । अनन्तसुखवीर्यादयः सिद्धसादृश्य एव हि ॥ ४४ ॥ मत्यादिविभावगुणसंयुतः E नेत्रादिदर्शनं युक्तः प्रारणी कर्मकृतेः कलौ ॥४५॥ व्यवहारेग कुल कोटियों की संख्या बतलाई गई है । गोम्मटसार जीव काण्ड में कुल कोटियों की संख्या एक कोटा कोटी संतानबे लाख पचास हजार करोड़ बतलाई है* ।। ३६ ।। जो पहले श्रनादिकाल में जीवित रहा है, पश्चात् सदा जीवित रहेगा और वर्तमान में जीवित है यह जीव के जानने वाले ज्ञानीजनों के द्वारा जीवद्रव्य कहा जाता है ||३७|| इन्द्रियों से होने वाले पांच, मन वचन काय से होने वाले तीन, श्रायु और श्वासोच्छ्वास, ये वस प्रारण संज्ञी जीवों के माने गये हैं ||३८|| असशी पञ्चेन्द्रिय जीवों के मन के बिना सब नौ प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीवों के कानों के बिना प्राठ प्रारूप स्मरण किये गये हैं ॥ ३६ ॥ श्रीद्रिय जीवों के चक्षु के बिना सात प्रारण कहे गये हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के नासिका के बिना यह प्राप होते हैं और एकेन्द्रिय जीवों के मुख्य- रसना इन्द्रिय तथा वचन बल के बिना चार प्रारण होते हैं। अपर्याप्तक जीवों के यथायोग्य प्रारण जिनागम में जानने योग्य हैं। भावार्थ - श्रपर्याप्तक अवस्था में मनोबल वचन बल और श्वासोच्छवास ये तीन प्राण नहीं होते हैं अतः संज्ञी प्रसंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के सात, चतुरिन्द्रिय के छह, त्रीन्द्रिय के पांच वीन्द्रिय के चार और एकेन्द्रिय के तीन प्रारण होते हैं ।।४० - ४१।। प्राहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोसछ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियां संज्ञी जीवों के होती हैं ।। ४२ ।। विकलत्रय तथा असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों के मन के बिना पांच और एकेन्द्रियों के भाषा के बिना चार पर्याप्तियां जानने के योग्य हैं ११४३ || निश्चयनय से यह प्राणी केवलज्ञान और केवलदर्शन से तन्मय तथा अनन्त सुख और प्रनन्तवीर्य से संपन्न सिद्धों के समान ही है ।। ४४ । । व्यवहारनय से संसार में मतिज्ञानादि विभाव गुरणों से सहित तथा कर्मकृत चक्षुर्दर्शन आदि दर्शनों मे युक्त * एयाय कोडिकोडी मत्ताउदी य सदसहस्साई । पकोडसहस्सा सव्वंगी कुलारणं य ॥। ११७|| जीव काण्ड ||
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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