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________________ ६२. * श्री पाश्वनाथ चरित. rmer शत्रुतुल्यं कुटुम्बं च भार्या पापखनी खला । किंचिन्न शाश्वतं लोके गेहसैन्यधनादिकम् ||१६॥ यत्किञ्चिद् दृश्यते रूपि वस्तु लोकत्रये महत् । कालानलेन तत्सर्व भस्मीभावं प्रयात्यहो ॥२०।। प्रतो नश्येदलं यावत्सामग्री मेऽखिलात्र न । मायुह ढाङ्गखाद्या महोद्यमादिभवा परा ।।२१।। तावदक्षकषापारीन्मोहरागादिशात्रवान् । समतातोश्रणखड्गेन हत्वा गृह्णामि संयमम् ।।२२।। इत्यादिविविधालाः प्राप्य संवेगमजसा । देहभोगभवश्रीराज्यवस्त्वाद्यस्त्रिलेषु सः ।।२३।। काललब्ध्या चकाराशु प्रोद्यमं परमं नृपः । त्यक्तु राज्यमहाभार ग्रहीतु संयम परम् ।।२४।। ततो दत्वाखिलं राज्यं सतां त्याज्यं श्रिया समम् । स्वज्यष्ठसूनवे भूत्याभिषेकादि पुरस्सरम् ।।२।। तृणवद्राज्यधामश्रीकुटुम्बादि विहाय सः । यते: समुद्रदत्तस्य जगाम सन्निधि नृपः' ।।२६।। जगद्धितं मुनीन्द्र तं मुक्तिकान्तं गुणार्णवम् । त्रिःपरीत्य महाभक्त्या नत्वा मूर्ना मुदा नृपः ।।२७॥ हित्वा बाह्यान्तरं सङ्ग सर्व जग्राह संयमम् । भूमिपंहुभिः सार्धं त्रिशुद्धया रागदूरगः ॥२८॥ रज के समान है, इन्द्रिय जन्य सुख कालकूट के तुल्य है, लक्ष्मी पाश के सदृश है, सब बन्धु जन बन्धन के समान हैं ॥१८॥ कुटुम्ब शत्रु के तुल्य है और दुष्ट भार्या पाप की खान है । जगत् में घर, सेना तथा धन प्राविक कुछ भी शाश्वत नहीं है ॥१६॥ अहो ! तीनों लोकों में जो कुछ भी महान रूपी वस्तु दिखाई देती है वह सम्म कालरूपी अग्नि के द्वारा भस्म भाव को प्राप्त हो जाती है ।।२०।। इसलिये प्रायु, हड शरीर, उपभोग योग्य पदार्थ तथा महोबम प्रावि से उत्पन्न होने वाली मेरी सब उत्कृष्ट सामग्री जब तक यहां सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो जाती है तब तक मैं समतारूपी पनी तलवार के द्वारा इन्द्रिय, कषाय, मिथ्यात्व तथा रागादि शत्रुओं को नष्ट कर संयम ग्रहण करता हूँ ।।२२। इत्यादि विविध प्रकार के वचनों से शरीर, भोग, सांसारिक लक्ष्मी तथा राज्य प्रादि समस्त वस्तुओं में वास्तविक बराग्य को प्राप्त कर राजा ने काललब्धि से राज्यरूपी महाभार को छोड़ने और उत्कृष्ट संयम को ग्रहण करने का शीघ्र ही उत्कृष्ट प्रयत्न किया ॥२३-२४॥ तवनन्तर वैभव पूर्वक अभिषेकादि कर अपने बड़े पुत्र के लिये सत्पुरुषों के छोड़ने योग्य समस्त राज्य, लक्ष्मी के साथ प्रदान किया और राज्य, घर, लक्ष्मी तथा कुटुम्ब प्रादि को तृण के समान छोड़कर राजा प्रानन्द, समुद्रदत्त मुनिराज के समीप गया ।।२५२६॥ जगत् हितकारी, मुक्ति के स्वामी तथा गुरणों के सागर स्वरूप उन मुनिराज को तोन प्रदक्षिणाएं देकर राजा ने बहुत भारी भक्ति से हर्ष विभोर हो उन्हें शिर से नमस्कार किया ॥२७॥ पश्चात् बाह्याभ्यन्तर समस्त परिग्रह का त्याग कर राग से दूर रहने वाले अनेक राजाओं के साथ त्रिशुद्धि पूर्वक संयम ग्रहण कर लिया-मुनि दीक्षा ले ली ॥२८॥ १. नुपः क.।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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