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________________ [ ex | मनः शुद्धघाषहन्त्री स महाशुभविधायिनीम् ||२६| । विश्वशर्माकरं दक्षः प्रशस्तं ध्यानमाददे ||३०|| | पारं जगाम वेगेन महाप्राज्ञो मुनीश्वरः ।। ३१ ।। त्रिशुद्धयाराधयामास सखीमुक्तिश्रियः पराः ॥ ३२॥ | विध्याप्य क्षान्तिनीरेण स्वीचकारोत्तमां समाम् । ३३० सोपानमाददे धर्मसिद्धये * अष्टम सर्ग * हत्वा त्र्यशुभलेश्य त्रिशुभलेश्यां समाददी प्रप्रशस्तं द्विधा ध्यानं प्रहस्य शुद्धचेतसा संतताभ्यास पोतेन * कादशाङ्गवारिधेः प्रतीचार विनिर्मुक्ताश्चतुर्धाराधना मुनिः ज्ञानवृत्तरत्नादिदाहक कोषपावकम् मनःकौमल्याए कठिन प्रसूर्य छित्वा मायामहावल्ली मृजुचित्तायुधेन सः वमित्वाऽसत्यवाग्हालाहलं विश्वासनाशनम् संतोषदारिरणा लोभमल प्रक्षाल्य संयमी १३४।। | जग्राह प्रार्जवं सारं चेतसा घर्मलक्षणम् ||३५|| | सूनुतोषधयोगेन वृषाय सद्वचोऽवदत् ॥१३६॥ । अभ्यन्तरे व्यधाच्छीचं सद्धर्मसाधनं परम् ||३७|| बद्ध वा वैराग्यपाशेन पञ्चेन्द्रियमृगान्मुनिः । सर्वाङ्गिषु दयां दत्त्वा विधत्त संयमं परम् ||३८|| तीन अशुभ लेश्याओं को नष्टकर मन की शुद्धि द्वारा पापों को नष्ट करने वाली तथा महान् पुण्य को उत्पन्न करने वाली तीन शुभ लेश्याए ग्रहण की ||२६|| प्रत्यन्त कुशल प्रानन्द मुनिराज ने दो प्रकार के अप्रशस्त ध्यान को नष्ट कर शुद्ध चित्त से समस्त सुखों को खान स्वरूप प्रशस्त ध्यान को ग्रहण किया ||३०|| महा बुद्धिमान् मुनिराज निरन्तर अभ्यासरूपी · जहाज के द्वारा ग्यारह प्रङ्गरूपी समुद्र के पार को येग से प्राप्त हो गये |३१| जो अतिचार से रहित थीं तथा मुक्तिरूपी लक्ष्मी की उत्कृष्ट सखी थी ऐसी चार धाराधनाओं का वे सुनि त्रिशुद्धि मन वचन काय की शुद्धता पूर्वक प्राराधना करते थे ||३२|| दर्शन ज्ञानचरित्ररूप रत्नादि को भस्म करने वाली क्रोधरूपी प्रग्नि को क्षान्तिरूपी जल से बुझाकर उन्होंने उत्तम क्षमा को स्वीकृत किया था ||३३|| मन को कोमलता रूपी वस्त्र के द्वारा कठोरता रूपी पर्वत को घूर कर उन्होंने धर्म को सिद्धि के लिये उस मार्दव धर्म को ग्रहण किया था जो स्वर्ग की सीढी के समान था ।। ३४ । उन्होंने कोमल चित्तरूपी शस्त्र के द्वारा मायारूपी बड़ी लता को छेव कर हृदय से प्राजंवरूपी श्रेष्ठ धर्म के लक्षण को ग्रहण किया था ||३५|| सत्य और प्रिय वचन रूपी श्रौषध के योग से विश्वास को नष्ट करने वाले प्रसत्य वचनरूपी हालाहल को उगल कर धर्म के लिये सत्य वचन बोलते थे ।। ३६ ।। उन मुनिराज ने संतोष रूपी जल के द्वारा सोभरूपी मैल को धोकर अन्तरङ्ग में समीचीन धर्म के साधन स्वरूप शौच धर्म को धारण किया था ||३७|| वैराग्यरूपी पाश के द्वारा पञ्चेन्द्रिय रूपी मृगों को बांधकर तथा समस्त जीवों को क्या प्रदान कर वे मुनि उत्कृष्ट संयम को धारण करते थे । भावार्थ-वे मुनि इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयम के भेद से दोनों प्रकार के संयमों का अच्छी तरह पालन I १. एषः श्लोक ० प्रती मास्तिर निरन्तराभ्यासनीकथा १. धर्माय ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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