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________________ ६४ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित. द्विषड्भेदं तपः कुर्यात्स्वशक्त्या सोऽनघं महत् । धर्मसिद्धिकरं सारं वृषायाधर्मनाशकर' १३९|| द्विधा सङ्गपरित्याग चियादानमद्भतम् । स्वर्गमोक्षविधातारं विधत्तेऽसौ वृषाप्तये ।।४।। कायादो ममता त्यक्त्वा कायोत्सर्ग दधात्यसो । माकञ्चन्यवृषाप्त्यै संत्यत देहोऽतिनि:स्पृहः।।४।। मातृपश्यादिकं वासो रूपिणं स्त्रीकदम्बकम् । पश्येच्च शीलसंपूर्को नवधा ब्रह्मसिद्धये ॥४२॥ दर्शक लक्षणान्यत्रेमानि धर्माकराण्यसौ । क्षमादीन्यनिशं योगी व्यधाज्ञान सुधर्मवित्॥४३|| रत्नत्रयात्मक धर्म सम्यक्त्वज्ञानवृसजम् । विश्व शर्माकरीभूतं सर्वत्रागी भवेन्मुनिः ॥४४॥ प्राशापायविपाकायसंस्थानविचयान्सदा ।धर्मध्यानान्सुमोक्षाय शुक्लायातिशुभान व्यधात्।४५॥ गिरिकाजीगोसानादी साहितांदुने ! गुरप्रेतादिसंताने श्मशानेऽसि भयंकरे ॥४६॥ प्रदेशे निर्जने क्लीवस्त्रीपश्वादिविजिने । शून्यागारगुहा वृक्षकोट शदिवनाश्रिते ) सर्वत्राप्रतिबद्धोऽमावेकाकी सिंहवस्सदा ।ध्यानाध्ययमसिद्धयर्थ निर्भयोऽधाद्वरासनम् ।।४।। करते थे ॥३८॥ अधर्म का नाश करने वाले वे मुनि अपनी शक्ति के अनुसार धर्म के लिये धर्म की सिद्धि करने वाला बारह प्रकार का निर्दोष श्रेष्ठ महान तप करते थे ॥३६॥ जिसमें जीव दयारूपी दान दिया जाता है, जो स्वयं पाश्चर्यकारी है तथा स्वर्ग और मोक्ष को वेने पाला है ऐसे द्विविध परिग्रह के त्यागरूपी त्यागधर्म को ये मुनिराज धर्म प्राप्ति के लिये करते पे ॥४०॥ जिन्होंने शरीर का त्याग कर दिया था जो शरीर से निर्ममत्व ये सथा अत्यन्त निःस्पृह थे ऐसे वे मुनिराज प्राकिञ्चन्य धर्म की प्राप्ति के लिये शरीर प्रावि में ममता का त्याग कर कायोत्सर्ग करते थे ॥४१॥ संपूर्ण शीलवत को धारण करने वाले वे मुनि नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य की सिद्धि के लिये सुन्दर स्त्री समूह को माता तथा पुत्री प्रादि के समान देखते थे ॥ ४२ ॥ उत्तमधर्म के ज्ञाता थे योगी-मुनिराज धर्म की जान स्वरूप इन क्षमा मादि दश लक्षण धर्मों को निरन्तर धारण करते ये ॥४३॥ समस्त सुखों की खान स्वरूप सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से होने वाले रस्मनय रूप धर्म को वे मुनि सब जगह धारण करते थे ॥४४॥ वे उत्तम मोक्ष के लिये शुक्लघ्याम के साधन स्वरूप प्राजाविचय, अपायविचय, विपाकधिचय, और संस्थानविचय नामक चार शुभ धर्मध्यानों को धारण करते थे ॥४५॥ व्याघ्र मावि जीवों से परिपूर्ण पर्वत की गुफा तथा जीर्ण उद्यानावि में नृत्य करते हुए प्रेतादि के समूह से सहित अत्यन्त भयंकर श्मशान में, नपुसक, स्त्री तथा पशु प्रादि से रहित निर्जन स्थान में, और शून्यागार, गिरिगुहा, पक्ष, कोटर और निर्जन वन प्रादि शून्य स्थानों में सिंह के समान निर्भय सर्वत्र प्रतिबन्ध से रहित तथा एकाकी निवास करने वाले १. प्रधर्मनामक इतिच्योरः, विषयाधमाशजत् क. २. यासाभ्यन्तरभेदेन विविधपरिग्रहत्याग ३. नवकोरिभिः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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