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________________ ! ' | * अष्टम सर्ग * [ ६ भातापनद्व मूलाभ्रावकाश योगधारणः पुरामाटवी देशान् वायुवहिरेन्मुनिः | कायक्लेशं परं कुर्यान्नित्यं सोऽङ्गसुखातिगः ॥४६॥ 1 मुक्तिमार्गोपदेशा भग्यानां सोऽतिनिर्ममः || ५०१२ रविरस्तं पश्यत्र तत्रास्थात् स दयार्द्रधीः । व्युत्सर्गेण च हित्वाङ्ग रक्षायै निखिलाङ्गिनाम् । ५१ । भावयत्यनिशं योगी भावनाः पञ्चविंशतिम् । महाव्रतविशुद्धधर्म वाग्गुप्याचा व्रतप्रदाः ॥५२॥ निरन्तरमनुप्रेक्षाश्चिन्तयत्येवमानसे सर्वान्पूल गुगान्धीमान तीचारातिगान् द्विषड्भेदतपोभिच भ्रष्टादशसहस्रप्रमैः सोढव्यपरीष है: शारीि तपः शस्त्रश्च दितो ममसे हन्तु दु:कर्मश च सच्चारित्ररणावनी सदा । वैराग्याम्बाः समस्ताः स निर्वेदत्रिवृद्धये ॥५३॥ | पालयत्येव सर्वेषां गुणानां मूलकारणात् ॥ ५४॥ । उत्तराख्यगुणात्विश्वान्पालयेद् गुणसिद्धये ॥ ५५॥ । भूषितश्चतुरशीतिलक्षसद्गुणवम्मितः ।। ५६ ।। माहरूको गुप्त्यङ्गरक्षकै बृं सः ॥५७॥ । मुक्तिराज्याय भातीष मुनीशोऽत्र महाभटः ।।५८॥ वे मुनिराज ध्यान और अध्ययन को सिद्धि के लिये उत्कृष्ट श्रासन जमाते थे । भावार्थविविक्त शय्यासन तप की साधना करते थे ।।४६-४८ ।। शरीर सम्बन्धी सुख से दूर रहने वाले वे मुनिराज प्रातापन, वृक्षमूल तथा प्रभावकाश योगों को धारण कर निरन्तर कायक्लेश नामका उत्कृष्ट तप करते थे ||४६ ॥ अत्यन्त ममता से रहित वे मुनि भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देने के लिए पुर ग्राम तथा अटवी आदि स्थानों में वायु के समान विहार करते थे ।। ५० ।। विहार करते करते जहां सूर्य अस्त हो जाता था वे दयार्द्र बुद्धि मुनि समस्त जीवों की रक्षा के लिये व्युत्सर्ग तप के द्वारा शरीर को छोड़कर अर्थात् प्रतिमा योग धारण कर वहीं स्थित हो जाते थे ।।५१ || वे योगिराज महावतों की विशुद्धि के लिये व्रतों को देने वाली वचन गुप्ति आदि पच्चीस भावनाओं की निरन्तर भावना करते थे ।।५२|| वे तीनों प्रकार के वैराग्य की वृद्धि के लिये वैराग्य की माताओं के समान समस्त प्रनुप्रेक्षाओं का निरन्तर मन में चितवन करते थे ।। ५३ ।। वे बुद्धिमान मुनिराज समस्त गुणों के मूलकारण होने से पतिचार रहित समस्त मूलगुणों का सदा पालन करते थे ।। ५४ ।। वे गुणों की सिद्धि के लिये बारह तप तथा बाईस परिषह जय के द्वारा समस्त उत्तर गुणों का पालन करते थे ।। ५५॥ जो शील के अठारह हजार मेव रूपी ग्राभरणों से विभूषित हैं, चौरासी लाख उत्तर गुरु रूपी कवच से युक्त हैं, तपरूपी शस्त्र, विशारूपो वस्त्र और संयमरूपी सैनिकों से युक्त हैं, शान्ति परिणति रूपी वाहन पर सवार हैं तथा गुप्तिरूपी भङ्ग रक्षकों से घिरे हुए हैं ऐसे वे मुनिराज सम्यक् चारित्ररूपी रणभूमि में दुष्कर्म रूपी शत्रुओं को नष्ट करने और मुक्तिरूपी राज्य को प्राप्त करने के लिये महाभट - महान योद्धा के समान सुशोभित होते थे । ५६-५८। १. सर्गेणाहितं स्वाङ्ग क० २. पचवतानां पच पच भेदेन पचविंशतिर्भावना भवन्ति १ समदाहून मारूको व
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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