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________________ * श्रष्टम सर्ग * [ e१ प्रतस्तत्प्राप्तये शीघ्र त्याज्यं राज्यसुखादि च । हन्तव्योऽत्र महामोहमल्लः कामारिया समम् || || तघाताय ग्रहीतव्यः संयमो मुनिगोचरः । रामाश्रीराज्यगेहादीन् हित्वा मुक्तिनिबन्धकान् ॥ १०॥ यावत्स्वस्थमिदं देहं रोगसपने पीडितम् । तावद्धितं प्रकर्तव्यं पश्चात्कर्तुं न शक्यते ॥ ११॥ यावन दश्यते कायकुटीरकं जराग्निना । तावत्कार्यो वृषः पश्चात् स विधातुं न शक्यते । १२ ।। इन्द्रियाणि समर्थानि यावरस्थस्वार्थबोधने । तावद्दीक्षा ग्रहीतव्या मन्दाक्षाणां हि सा कुतः । १३० यावदबुद्धिः प्रणश्येन तावत्कार्या मतिबुधैः । साधने परलोकस्य धीहीनानां कुतोऽस्ति तत् ॥११४॥ मादपुः क्षमं कार्यं मापने यौवनान्वितम् । तावत्कार्यं तपो घोरं वृद्धत्वे तत्कथं महत् ।। १५ ।। यावत्र क्षीयते स्वायुदुर्लभं यत्नकोटिभिः । तावद्धर्मो विधातव्यस्तत्क्षये नास्ति जातु सः ।। १६ ।। यौवनं जरया ग्रस्तं स्वायुः "कालास्यमध्यगम् । भोगा रोगोपमा जीवितव्यं दर्भाविन्दुवत् ॥ १७॥ राज्यं रजोनिभं कालकूटाभं स्वःक्षजं सुखम् । लक्ष्मीः पाशोपमा सर्वे बान्धवा बन्धनोपमाः ।।१८। तथा दृढ रत्नत्रय कभी प्राप्त नहीं हो सकता है ||८|| इसलिये उसकी प्राप्ति के लिये शीघ्र ही राज्यसुख प्रावि का त्याग करना चाहिए और कामरूपी शत्रु के साथ मोहरूपी महामरुल को नष्ट करना चाहिये ॥६॥ उसका घात करने के लिये मुक्ति को रोकने वाले स्त्री, लक्ष्मी, राज्य तथा घर प्रादि को छोड़कर मुनि सम्बन्धी सकल संघम ग्रहण करना चाहिये ।।१०।। जब तक यह शरीर रोगरूपी सर्पों के द्वारा पीडित नहीं हुआ है तब तक हित कर लेना चाहिए पश्चात् नहीं किया जा सकता है ||११|| जब तक यह शरीररूपी कुटी वृद्धावस्था रूपी अग्नि के द्वारा नहीं जलती है तब तक धर्म करने के योग्य है; क्योंकि वह पीछे नहीं किया जा सकता है ||१२|| जब तक इन्द्रियां अपना अपना विषय प्रहरण करने में समर्थ हैं तब तक दीक्षा ग्रहण करने योग्य है; क्योंकि जिनकी इन्द्रियां शिथिल हो गई हैं। उन्हें वह दीक्षा कैसे प्राप्त हो सकती है ? ||१३|| जब तक बुद्धि नष्ट नहीं हो जाती है तब तक विद्वानों को परलोक के सिद्ध करने का विचार कर लेना चाहिये; क्योंकि बुद्धिहीन मनुष्यों को वह विचार कैसे हो सकता है ? ॥। १४ ।। जब तक यौवन से सहित शरीर कार्य सिद्ध करने में समर्थ है तब तक घोर तप करने योग्य है; क्योंकि वृद्धावस्था में वह महान् तप कैसे किया जा सकता है ? ।। १५ ।। जब तक दुर्लभ प्रायु नष्ट नहीं हो जाती है तब तक करोड़ों यत्नों द्वारा धर्म कर लेना चाहिये; क्योंकि आयु का क्षय होने पर वह कभी नहीं किया जा सकता है ॥ १६ ॥ यौवन वृद्धावस्था से प्रस्त है, अपनी आयु यमराज के मुख में स्थित है, भोग रोगों के समान हैं, जीवन डाभ के अग्रभाग पर स्थित पानी की सून्य के समान है ।।१७।। राज्य १. शिवनेद्रियाणां यमराजमुख मध्य स्थितम् :
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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