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________________ प्रस्तावना डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल संस्कृत भाषा एवं साहित्य के विकास में जैनाचार्यों एवं सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । यद्यपि भगवान महावीर ने अपना दिव्य सन्देश अर्धमागधी भाषा में दिया था और उनके परिनिर्वाण के पश्चात् एक हजार वर्ष से भी अधिक समय देश में प्राकृत भाषा का वर्चस्व रहा और उसमें अपार साहित्य लिखा गया, लेकिन जब ने देश के मुद्धिजीवियों की रुचि संस्कृत की ओर अधिक देखी तथा संस्कृत भाषा का विद्वान् ही पंडितों की श्रेणी में समझा जाने लगा तो उन्होंने संस्कृत भाषा को अपनाने में अपना पूर्ण समर्थन दिया और अपनी लेखनी द्वारा संस्कृत में सभी विषयों के विकास पर इतना अधिक लिखा कि अभी तक पूर्ण रूप से उसका इतिहास भी नहीं लिखा जा सका। उन्होंने काव्य लिखे, पुराण लिखे, कथा एवं नाटक लिखे। आध्यात्मिक एवं सिद्धांत ग्रन्थों की रचना की। दर्शन एवं न्याय पर शीर्षस्थ ग्रन्थों की रचना करके संस्कृत साहित्य के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। यही नहीं आयुर्वेद, ज्योतिष, मन्त्र शास्त्र, गणित जैसे विषयों पर भी उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। संस्कृत भाषा में ग्रन्थ निर्माण का उनका यह क्रम गत डेढ़ हजार वर्षों से उसी अबाध गति से चल रहा है। आचार्य समन्तभद्र, आचार्य सिद्धसेन, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य रविषेण, आचार्य अकलंकदेव, आचार्य जिनसेन, विद्यानन्द एवं अमृतचन्द्र जैसे महान् आचार्यों पर किसे हर्ष नहीं होगा ? इसी तरह आचार्य गुणभद्र, वादीभसिंह, महावीराचार्य, आचार्य शुभचन्द्र, हस्तिमल्ल, जैसे आचार्यों ने संस्कृत भाषा में अपार साहित्य लिख कर संस्कृत साहित्य के यश एवं गौरव को द्विगुणित किया । १४ वीं शताब्दी में ही देश में भट्टारक संस्था ने लोकप्रियता प्राप्त की 1 ये भट्टारक स्वयं ही आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु के रूप में सर्वत्र समादृत थे । इन्होंने अपने ५०० वर्षों के युग में न केवल जैनधर्म की ही सर्वत्र प्रभावना की किन्तु अपनी महान् विद्वत्ता से संस्कृत साहित्य की अनोखी सेवा की और देश को अपने त्याग एवं ज्ञान से एक नवीन दिशा प्रदान की । इन भट्टारकों में सकलकीर्ति का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । वे ऐसे ही सन्त शिरोमणि हैं जिनकी रचनायें राजस्थान के शास्त्र भण्डारों का गौरव बढ़ा रही हैं । इस प्रदेश का ऐसा कोई प्रन्थागार नहीं जिसमें उनकी कम से कम तीन चार कृतियाँ संग्रहीत नहीं हों । वे साहित्य गगन के ऐसे महान् तपस्वी सन्त हैं जिनकी विद्वत्ता पर देश का सम्पूर्ण विद्वत् समाज गर्व कर सकता है । वे साहित्य गगन के सूर्य हैं और अपनी काव्य प्रतिभा से गत ७०० वर्षों से सभी को आलोकित कर रखा है। उन्होंने संस्कृत एवं राजस्थानी में चार नहीं, पचासों रचनायें निबद्ध कीं और काव्य, पुराण, चरित, कथा, अध्यात्म, सुभाषित आदि विविध विषयों पर अधिकार पूर्वक लिखा । गुजरात, बागड़, मेवाड़ एवं ढूंढाड़ प्रदेश में जिनके पचासों शिष्य प्रशिष्यों ने उनकी कृतियों की प्रतिलिपियां करके यहाँ के शास्त्र भण्डारों की शोभा में अभिवृद्धि की। और गत ५०० वर्षों से जिनकी कृतियों का स्वाध्याय एवं पठन पाठन का समाज में सर्वाधिक प्रचार रहा है। जिनमें कितने ही पुराण एवं चरित्र प्रन्थों की हिन्दी टीकायें हो चुकी हैं तथा अभी तक भी वही क्रम चालू है। ऐसे महाकवि का
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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