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________________ २४८ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * महोतसम् अथ देवा नभोमादिवतीर्य द्रष्टुं त्रिजगन्नाथं कुमली कृतपाणयः विधातु महीपृष्ठे स्वजानूनम रेशिन: शच्यः साप्सरसः सर्वाः प्रणामं त्रिजगद्गुरोः अथोत्थाय सुरेन्द्राद्यास्तुष्टा धर्मार्थिनः शुभाम् क्षोरोदादिभवेरं रत्नभृङ्गारनालगंः मुक्ताफलमयैः पुष्याङकुरैव परमाक्षर्तः मणिपात्रावित पीयुपिण्डे रत्नदीपकैः एवं संपूज्य देवेशा तत्वा तत्पादपङ्कजस् | श्र:परीत्य जिनास्थानमण्डलं भक्तिनिर्भराः ||१६|| | विविशुस्ते सभां दिव्यां नम्रीभूतस्वशेखराः ।।२०।। प्रणेमृः परया भक्त्या तत्पीठापितमीलयः ||२१| । प्रचक्र शिरसा भक्त्या तद्गुणग्राम रञ्जिताः ||२२| । महापूजां तदा चक्रुः श्रीतीर्थेश पदाब्जयोः ॥२३॥ | दिव्या मोदमयं रम्यैः स्वर्गेत्यन्नंविलेपनैः ||२४|| । मन्दारादिकमालीर्घः कल्पद्रुमभवः परैः ||२५|| | तमोदिव्यधूपीः कल्पांह्रिपज सत्फलैः ।।२६। | भक्तिरागातिरेकेण तत्स्तवं कर्तुं मुद्ययुः ॥२७॥ : सूचित करती थी ।।१५-१७१ इस प्रकार असाधारण सुन्दर निरुपम तथा देवोत्पादित पाठ महा प्रांतिहायों से वे धर्मराज के समान सुशोभित हो रहे थे ।।१६ प्रथानन्तर जो भक्ति से भरे हुए हैं, जिन्होंने अपने हाथ जोड़कर कुडमल-कमल की बोंड़ी के प्राकार कर लिये हैं तथा जिनके अपने सेहरे नत्रीभूत हैं ऐसे देवों ने प्रकाश मार्ग से पृथिवी तल पर उतर कर उस समवसरण मण्डल की तीन प्रदक्षिणाएं दीं पश्चात् तीनलोक के नाथ का दर्शन करने के लिये उस दिव्य सभा में प्रवेश किया ।। १६- २०॥ तदनन्तर भगवान् की पीठ पर जिन्होंने अपने घुटने पृथिवी तल पर टेक कर परम भक्ति से नमस्कार किया ||२१|| भगवान् के गुणों में अनुरक्त, अप्सरानों से सहित समस्त इन्द्रागियों ने भक्तिपूर्वक शिर से त्रिजगद्गुरु को प्रणाम किया ।। २२ ।। तदनन्तर उस समय संतुष्ट तथा धर्म के अभिलाषी इन्द्र प्राचि ने खड़े होकर श्री तीर्थंकर देव के चरण कमलों की पुण्यवर्धक महापूजा की ||२३|| रत्नमय मृङ्गार के नाल से निकलने वाले क्षीर समुद्र आदि के जल से, विष्य सुगन्ध से तन्मय, रमणीय, स्वर्ग में उत्पन्न विलेपन - चन्दन से पुण्य के अंकुरों के समान सुशोभित मोतियों के उत्कृष्ट प्रक्षतों से, कल्पवृक्षों से उत्पन्न मन्दार प्राधि की श्रेष्ठ मालाओं के समूह से, मणिमय पात्र में रखे हुए अमृत के पिण्ड से, अन्धकार को नष्ट करने वाले रत्नमय दीपकों से, दिव्य धूप के समूहों से, और कल्पवृक्षों से उत्पन्न उत्तम फलों से देवों ने भगवान् के चरण कमलों की नमस्कार कर इन्द्र, भक्ति सम्बन्धी राग की अधिकता से उनका स्तवन करने के लिये उद्यत हुए ||२७|| १. कल्पवृक्षोत्पन्नपचन कलैः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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