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________________ • एकोनविंशतितम सगं . । २४९ विभो ते गणनातीताश्चतुर्शानयुषां गुणाः । अगोचरा गणेशानां ये दिग्यास्ते परः कथम् ॥२८॥ शक्या हि स्तयितुं सर्वे मादृशैः स्वल्पबुद्धिभिः । इति मत्वात्र भश्चित्त नणं दोलायते स्तुती ॥२६॥ तथापि जगता नाथ या भक्तिस्त्वयि निर्भरा । मुखरीकुरुते सेवास्माकं सरपुरणभाषणे ॥३०॥ त्वं देव परमो ब्रह्मा त्वं सर्वशोऽखिलार्थवित् । सर्वदर्शी त्वमेवात्र लोकालोकार्षदर्शकः ॥३१॥ स्वमेव परमो बन्धुनि:कारसहितकरः । प्रबन्धूना सतां त्राता भवाब्धेधर्मदेशकः ॥३२।। जानिमां स्वं महाज्ञानी गुरूणां त्वं महागुरुः । पूज्यानां त्वं विभो पूज्यः स्तुत्याना स्तुतिगोचरः ३३ मान्यानां त्व परो मान्यो धर्मी त्वं मिया महान ! त्वं देत वन्दनीयानां वन्दनीयोऽमृतोदयः ।।३४॥ जेतृ गा त्वं महाजेता तपस्यो त्वं तपस्विनाम् । सुधियां त्वं सुघी थ कृतिनां त्वं परःकृतो ॥३॥ त्रिजगत्स्वामिना स्वामी दक्षस्त्वं दसदेहिनाम् । त्रातृ णा त्वं महात्राता जिनानां वं परो जिनः ३६ देवानां त्वं महादेवो नाथ त्वं धर्मदेशिनाम् । धर्मोपदेशदाता च दुर्जयाणां जयी महान् ॥३७|| धीराणा स्तं महाघोरो वतिनां त्वं महाव्रती । शरण्यानां शरण्यस्त्व दाता त्वं दानिनां परः ॥३८॥ हे प्रभो ! आपके जो प्रसंरूप दिव्यगुरण, चार ज्ञान के धारक गणधरों के प्रगोचर हैं वे सब गुण मेरे समान तुच्छ बुद्धि के धारक अन्य मनुष्यों के द्वारा फैसे स्तुत हो सकते हैं ? ऐसा मान कर यहाँ हमारा चित्त क्षणभर के लिये स्तुति के विषय में चञ्चल हो रहा है ॥२८-२९॥ हे जगन्नाथ ! यद्यपि यह बात है तथापि आपमें हमारी जो प्रत्यधिक भक्ति है वही हम लोगों को प्रापका गुणगान करने में वाचालित कर रही है ।।३०॥ हे देव ! इस जगत् में तुम्हीं परम ब्रह्म हो, तुम्हीं समस्त पदार्थों के ज्ञाता सर्वज्ञ हो और तुम्ही लोकालोकसम्बन्धी पदार्थों को देखने वाले सर्वदशी हो ॥३१॥ तुम्हीं बन्धु रहित सत्पुरुषों के प्रकाररहितकारी, संसार सागर से रक्षा करने वाले तथा धर्म का उपदेश देने वाले परम बन्धु हो ॥३२॥ हे विभो! तुम ज्ञानियों में महा ज्ञानी हो, गुरुषों में महागुरु हो, पूज्यों में पूज्य हो, स्तुति के योग्य मनुष्यों को स्तुति के विषय हो, माननीयों के परम मान्य हो, धर्मात्मानों में महान धर्मात्मा हो, वन्दनीयों के वन्दनीय हो, और प्राश्चर्यकारी अभ्युदय से सहित हो ॥३३-३४॥ हे नाथ ! तुम जीतने वालों में महान जेता हो, तपस्वियों में महान तपस्वी हो, बुद्धिमानों में महान बुद्धिमान हो और कुशल मनुष्यों में परम कुशल हो ॥३५।। प्राप तीन जगत के स्वामियों के स्वामी हो, चतुर मनुष्यों में चतुर हो, रक्षा करने वालों में महान रक्षक हो और जिनों में परम जिन हो ॥३६॥ हे माय ! तुम देखों में महादेव हो, धर्मोपदेश देने वालों में धर्मोपदेश के दाता हो और दुःख से जीतने योग्य पदार्थों के महान विजेता हो ॥३७॥ तुम धीरों में महाधीर हो, प्रतियों में महावती हो, परा: कपम् म. .।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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