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________________ २५० ] * मी पायनाप चरित - सब्रह्मचारिणां बालब्रह्मचारी त्वमेव च । उत्कृष्टानां नमूत्कृष्ठोऽदश्यानी त्वं वशीकरः ।। ३ । लोभिनां स्वं महालोभी विजगद्राज्यसंग्रहे । कोपिनां वं पर:कोपी दुःकर्माक्षारिपातने ॥४॥ लोक्यैश्वर्यसंपर्कादीश्वरस्त्वं न चापरः । द्वयाकाशावगमव्याप्तेविष्णुस्त्वं मान्य एव च ।।४।। 'चतुर्मुखप्रसंख्यस्त्वं देव ब्रह्मा न या परः । त्रिजगन्नायकत्वात्वं विनायकोऽन्य एष न ॥४२॥ वेबीनिकरमध्यस्थस्वं वै रागीव लक्ष्यसे । अन्ता रागातिगो धीमान् विरागी त्वं बुजिन' ४३ भोगोपभोगसंयोगाद्भोगीव झायते जनः । विद्भिर्योगी विरागत्वात्वं चित्रमिति धर्मकृत् ।।४४) देव स्वं वेष्टितः सर्वेगु गरापादमस्तकम् । विश्वाश्रयजगर्याच्च दोषैः स्वप्नेऽपि नेक्षितः ।।४।। प्रस्माभिरचितो देव मनाग रागं करोषिः न । न निन्दितस्त्वं न च द्वेषं होत्याश्चयं महद्विभोः १६ शरण देने वालो में शरणदायक हो और दानियों में परम दानी हो ॥३।। समोचीन बह्मचारियों में प्राप ही बाल ब्रह्मचारी हैं, आप ही उत्कृष्टो में उत्कृष्ट हैं और पाप ही वश में न होने वालों साथ करते है नील झा का राज्य संग्रह करने में लोभियों के मध्य महालोभी हैं और दुष्ट कर्म तथा इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को नष्ट करने में क्रोधियों के बीच परम क्रोधी हो ॥४०॥ तीन लोक के ऐश्वयं के साथ संपर्क होने से माप ही ईश्वर है दूसरा कोई ईश्वर नहीं है और ज्ञान के द्वारा लोकाकाश तथा प्रलोकाकाश में व्याप्त होने से पाप हो विष्णु हैं अन्य नहीं ॥४१॥ चार मुखों से युक्त होने के कारण प्राप ही ब्रह्मा है अन्य कोई ब्रह्मा नहीं हैं तथा तीन जगत के नायक होने से प्राप ही विनायक-विशिष्ट नायक-पोश है अन्य नहीं ॥४२॥ प्राप देवी समूह के मध्य में स्थित हैं अतः निश्चय ही रागी के समान जान पड़ते हैं और हे जिन ! अन्तरङ्ग में राग रहित हैं अतः विद्वानों के द्वारा बुद्धिमान तथा विराग कहे जाते हैं ।। ४३ ॥ भोगोपभोग की वस्तुओं के साथ संयोग होने से प्राप मनुष्यों के द्वारा भोगी के समान जाने जाते हैं और राग से रहित होने के कारण विद्वानों के द्वारा योगी माने जाते हैं यह प्राश्चर्य की बात है, इस तरह पाप धर्म के कर्ता हैं ॥४४॥ हे देव ! माप समस्त गुणों के द्वारा पैर से लेकर मस्तक तक घिरे हुए है तथा हमारा प्राधय तो समस्त विश्व है इस गर्म से दोषों ने स्वप्न में भी प्रापको नहीं देखा है ॥४५॥ हे देव ! हमारे द्वारा पूजित होने पर पाप रञ्च मात्र भी राग नहीं करते हैं और निन्दित होने पर रञ्च मात्र भी दोष नहीं करते हैं, इस प्रकार आप विभु का यह बड़ा भारी आश्चर्य है ॥४६॥ बीतराग होने से आपको न पूजा से प्रयोजन है और न निन्दा से फिर भी वेर से । रहित होने सप्रसन्नात्वं ग०२. रवापर: म... लक्ष्य ग घ. ४. परतो ग घ. ५. जिन: प.६. करोति । ७. को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणरशेषेरुत्वं संचितो निरवकाशमया मुनीम । दोहपास विविधाश्रय जातगर्व: स्वप्नान्तरेपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ।।२७।। भक्तामर स्तोत्र
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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