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________________ एकोनविशति सन . [ २५१ नार्थस्ते धोतरागरवारपूजया न च निन्दया । त्यक्तधरात्तथाप्यत्र तेऽस्मिाकं पुनातु वै ॥७॥ त्वयि भक्तो अगल्लक्ष्मीमवाप्नोति द्विषोऽद्भुतम् । प्रलोयन्ते च मध्यस्थस्त्वमिदं चित्रमाप्तवित् ॥४॥ न स्नेहो मसते नाथ तवोपरि सुजन्मिनाम् । किन्तु हेतुर्भवोऽप्यत्र कुत्स्नदुःस भयंकर: १४६॥ गयाश्रयन्ति भुक्त्ययं पक्षिण : फलितं द्रुपम् । तथा त्वां देव सर्वे र स्वर्गमुफ्त्याप्तयेगिनः । ५०॥ भनन्यशरणा सास्त्रिशुद्धपाराधयन्ति ये । त्वा तेऽत्र त्वत्समाः स्युश्च श्रीदेवाशु न संशयः ११ इति मत्था जगन्नाथ मनोवाक्कायकर्मभिः । भवद्गुणाथिनो मुक्त्यं भवन्तमाश्रिता वयम् ।५२।। अतो देव नमस्तुभ्यमनन्तगुणसिन्धवे । नमस्ते विश्वनाथाय नमस्ते विश्वदशिने ॥५३।। नमस्ते शानरूपाय नमस्ते बन्धवे सताम् । नमस्ते मुक्तिकान्ताय नमम्ते धर्ममूर्तये ।। ५४।। नमस्ते दिव्यदेहाय नमस्तेऽनन्तशक्तये ।नमस्ते विश्वमित्राय नमस्ते धातिनाशिने ॥५५॥ के कारण प्रापकी पूजा निश्चय से हम सबको पवित्र करे' ॥४७॥ प्रापका भक्त मनुष्य जगत में लक्ष्मी को प्राप्त होता है और आपका शत्रु क्षरण भर में अब त प से नष्ट हो जाता है फिर भी माप मध्यस्थ रहते हैं यह एक प्राश्चर्य की बात है ॥ ४५ ॥ है नाथ ! आपके ऊपर यद्यपि प्राणियों का स्नेह नहीं है तथापि समस्त दुःखों का भय उत्पन्न करने वाला भव-संसार ही यहाँ हेतु है ।।४६॥ जिस प्रकार खाने के लिए पनी फले हुए वृक्ष का प्राश्रय लेते हैं उसी प्रकार हे देव | सभी प्राणी स्वर्ग मोर मोककी प्राप्ति के लिये आपकी शरण लेते हैं ॥५०॥ जो चतुर मनुष्य, अनन्य भरण होकर त्रिशुद्धि पूर्वक प्रापको प्राराधना करते हैं वे शीघ्र ही प्रापके समान हो जाते हैं इसमें संशय नहीं है ॥५१॥ ऐसा मान कर हे जगन्नाथ ! प्रापके गुणों को चाहने वाले हम मन, वचन, काय की क्रिया से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रापकी शरण में प्राये हैं ॥५२॥ इसलिये हे देध ! अनन्त गुरणों के सागर स्वरूप प्रापको नमस्कार हो, माप समस्त लोक के स्वामी हैं इसलिये प्रापको नमस्कार हो, आप विश्व के नाथ हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो और पाप विश्वदर्शी हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो ॥५३॥ प्राप शान रूप है पतः प्रापको नमस्कार हो, पाप सत्पुरुषों के बन्धु हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो, पाप मुक्ति रूप स्त्री के बल्लभ हैं अतः आपको नमस्कार हो, पाप धर्म को मूर्ति हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो ॥५४॥ श्राप दिव्य-परमौदारिक शरीर के धारक हैं अतः पापको नमस्कार हो, माप अनन्त वीर्य से सहित हैं प्रतः प्रापको नमस्कार हो, पाप सबके मित्र है प्रतः प्रापको नमस्कार हो और प्राप धाति कर्मों का नाश करने वाले हैं पतः प्रापको नमस्कार १. न पूजयास्वयि वीतरागे न निन्दया नाय विवान्सबेरे । तथापि ते पूण्यगणम्मृतिन: पुनातु चित्त दुरिताम्बने म्यः ।।१७।। स्वमभूस्तोत्र । .
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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