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________________ २५२ ] # श्री पार्श्वनाथ चरित इति स्तवनमस्कारफलेन श्रीजिनाधिप । दिव्यवाक्यामृतेनात्र नश्चित्तं प्रीणय द्रुतम् १५६ । देहि सर्वेगुखेः सार्द्धं स्वकीया भूतिमद्ध ताम् । बोधि कर्मारिनाशं च शिवं दुःखक्षयं श्रुतम् ।। ५७ । विवाति शिवाजी विपौकसः । तत्सम्मुखाः स्वधर्माय स्वस्वकोष्ठं मुदा श्रिताः ।। पूर्वाभिमुखासीनो दिव्यर्यासनाश्रितः । धर्ममूतिरिवाभात्सुदेव तिर्यग्नरैतः ५६।। career attraतुर्दिनु चतुः कोणेषु पुष्कलाः । प्रत्येकं त्रित्रिसंख्याः स्युः कोष्ठा द्वादश एव हि ६० ॥ योगीद्रा नाकवनार्यस्तथायिकाः सनृपस्त्रियः । ज्योतिष्कर्षानिताभ्यन्तर्यो हि भावनयोषितः ।। ६१ । । भावना व्यन्तरा ज्योतिषका देवाः कल्पवासिनः । मनुष्याः पशवश्चेति गरणा द्वादश एव हि ।। ६२ ।। पारम्य प्राग्दिशं देवं प्रदक्षिणेन मुक्तये । कृताञ्जलिपुटास्तस्थुः सर्व कोष्ठेष्वनुक्रमात् ।। ६३ ।। अथ शानू सद्गणान् दृष्ट्वा वचोऽमृतपिपासितान् समुत्थाय सभामध्ये भूत्वा जिनपुरस्सरः ।। ६४ ।। रचिताञ्जलिरानम्यापीषनस्रो मरणाधिपः । स्वयंस्वास्यश्वतुर्ज्ञानाद्यनेकद्विविभूषितः १५६५ ।। स हो । ५५ ।। श्री जिनेन्द्र ! इस प्रकार स्तवन और नमस्कार के फल से प्राप हमारे चित्त को दिव्य वचन रूपी अमृत के द्वारा शीघ्र हो संतुष्ट करो ।। ५६ ।। श्राप हम लोगों के लिये समस्त गुगों के साथ अपनी प्राश्चर्यकारी विसूति, रत्नत्रय कर्म रूप शशुओं का नाश, मोक्ष, दुःख क्षय और श्रुतज्ञान वोजिये ।। ४७ ।। इस प्रकार अपना नियोग पूर्ण करने के लिए भगवान् के सन्मुख खड़े हुए देवों ने स्तुति कर उनके चरण कमलों को नमस्कार किया और इसके पश्चात् वे हर्वपूर्वक अपने अपने कोठे में चले गये ॥ ५८ ॥ जो पूर्वाभिमुख होकर दिव्य सिंहासन पर आरूढ थे ऐसे, देव, तियंच तथा मनुष्यों से घिरे हुए पार्श्व जिनेन्द्र धर्म की मूर्ति के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ५६ ।। चार feशाओं की वीथियों को छोड़कर चार कोनों में एक एक कोने में तीन तीन की संख्या से बारह विस्तृत कोठे थे ।। ६० ।। उन कोठों में क्रम से मुनिराज, कल्पवासिनी देवियां, राज स्त्रियों से सहित श्राविकाएं, ज्योतिष्क देवाङ्गनाएं, व्यन्तर वेदाङ्गनाएं, भवनवासी बाङ्गनाएं, भवनवासी देव, व्यन्तर देव, ज्योतिष्क देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और पशु ये बारह गए बैठते थे ।। ६१-६२ ।। उपर्युक्त बारह गरण, पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर श्री जिनेन्द्र देव को प्रदक्षिणा रूप समस्त कोठों में अनुक्रम से हाथ जोड़े हुए मुक्ति प्राप्ति के लिये स्थित थे || ६३॥ अथानन्तर वचन रूपी अमृत के प्यासे उन बारह गरणों को देख जो सभा के बीच जिनेन्द्र भगवान् के संमुख खड़े हुए थे, जिन्होंने हाथ जोड़ रखे थे, नमस्कार कर जो कुछ १. श्रीयेद् तम् ० २. सुधर्मा ग ३. व्यक्तर श्रीध्यप्रचतु ग ४. रानश्वा २००
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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