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•विशतितम सर्ग .
। २६६ संश्लेषो जीवकर्मणोर्यः स बन्धो द्विधा मतः । भावद्रव्यप्रभेदेन विश्वाशर्माकरोऽशुभः ॥१०॥ मध्यन्ते येन भावेन रागादिदूषितेन हि ।कर्माणिभावबन्धोऽत्र सोऽनन्तसंसृतिप्रदः ।।१०४।। प्रतिस्थितिबन्धानुभागप्रदेशतोऽङ्गिनाम् चतुर्षा बन्ध प्राम्नातोऽत्रानेकविक्रियाकरः॥१०॥ प्रकृतिः स्वभावः स्याम स्थितिः कालावधारणम् । रसतुल्योऽनुभागः प्रदेशो जीवप्रवेशयुक् ।।१०६।। स्तः प्रकृतिप्रदेशाख्यो बन्धौ च योगतः सप्ताम् । स्थित्यनुभागबन्धी कषायभवनिबन्धनो' ।।१०७॥ यथा बन्धनबद्धो लभते दुःखमनेकश: । कर्मशृङ्खलबद्धोऽङ्गी तथा श्वभ्रादिदुगंतो।।१८। सन्निवनिरोषो यो ध्यानाद्य व्यभावतः । स द्विषा संवर: प्रोक्तः स्वर्गमुक्त्यादिकारकः । १०६॥ चंतायपरिणामो य एकीभूतो निजात्मकः । निर्विकल्पमयो शेयो भावसंकर एव सः ।।११।। प्रयोदविध वृत्त' परो धर्मदशात्मकः । द्विषड्भेदा अनुप्रेक्षाः परोषहजयोऽखिलः । १११।। के प्रिय होते हैं अन्यथा तप और चारित्र प्रादि से उत्पन्न होने वाला सत्पुर्षों का क्लेश निष्फल होता है अर्थात् वह मोक्ष का साक्षात् साधक नहीं होता है ॥१०२॥
जीव और कर्म का जो संश्लेषात्मक सेबन्ध है यह य कहलाता है। भावबन्ध और व्यबन्ध के भेद से इसके दो भेद है। यह बन्ध समस्त दु:खों की खान है तथा अशुभ है ।।१०३॥ रागादि से दूषित जिस भाव से कर्म बन्धते हैं यह भावान्ध है । वह भाव बन्ध अनन्त संसार को देने वाला है ॥१०४॥
संसार में जीवों के अनेक विकारों को उत्पन्न करने वाला यह बन्ध प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रवेश मन्ध के भेव से चार प्रकार का माना गया है ।।१०।। प्रकृति स्वभाव को कहते हैं प्रर्थात ज्ञानाबरणादि कर्मों का जो नानादि गुणों को प्रावृत करने का स्वभाव है वह प्रकृति बन्ध है। उन कमों के काल को जो सीमा है वह स्थिति बन्ध है । रस के तुल्य उनमें फल देने का जो तारतम्य है यह अनुभाग बग्ध है और जीव के प्रदेशों के साथ कर्म प्रदेशों का जो मिलना है वह प्रवेश बन्ध है ।।१०६।। जोधों के प्रकृति और प्रदेश बम्ब योग से होते हैं और संसार के कारणभूत स्थिति और अनुभाग बन्ध कषाय से होते है ॥१०॥ जिस प्रकार बन्धन में बंधा हुमा पुरुष अनेक दुःख प्राप्त करता है उसी प्रकार कर्म रूपी जंजीर से बंधा हुप्रा प्राणी नरकादि दुर्गतियों में अनेक दुःख प्राप्त करता है ॥१०॥
ध्यान प्रादि के द्वारा जो समस्त प्रास्रव का रुक जाना है वह संवर कहलाता है। यह संबर दृष्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है तथा स्वर्ग और मोक्ष प्रावि को करने वाला है ॥१०॥ एकाकार स्वकीय प्रात्मा का जो चैतन्य रूप निर्विकल्प परिरणाम है वही भाव संवर है ।।११०॥ तेरह प्रकार चारित्र, वश प्रकार का उत्कृष्ट धर्म, १. निखिलदुःभवति भूतः २. भवनिबन्धनः ।।