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- श्री पाश्वमाय चरित. निश्चयव्यवहारेण द्विधा कालोऽतिनिक्रियः । द्रष्याणा सहकारी परिणती मूर्तिजितः ।।६३|| समयादिमयः कालो व्यवहारोऽत्र लक्ष्यते । गोदोहादिक्रियायैः परत्वापरत्वयोगतः ॥१४॥ मिनिमाणको ये ओकामा सस्थिताः शुभाः । राशयश्चेव रत्नानां स कालो निश्चयाभिषः।।६।। एकत्र सहजीवेन षडद्रव्या मनिभिः स्मृताः । ते कालेन विना ज्ञेया: पञ्चास्तिकायसंज्ञका:१६॥ पुद्गलो योऽयमायाति कमरूपोऽत्र रागिणः । द्रव्यभावविभेदेन द्विधा म पासवो भवेत् ।।६।। रागद्वेषादियुक्तेन परिणामेन येन हि । मास्रवन्स्यत्र कर्माणि स स्याद्भावास्रवोऽङ्गिनाम् मिथ्यात्वपञ्चक द्वादशधा विरतयोऽशुभाः । प्रमादा हि त्रिपञ्चय योगाः पञ्चदणात्मकाः II सर्वदुःखाकरीभूताः कषायाः पञ्चविंशतिः । एतेऽत्र 'प्रत्यया शेया भावासवनिवन्धनाः ।। १००। पायाति कर्मरूपेण पुद्गलो योऽत्र योगिनः । द्रव्यानव: स विज्ञेयोऽप्यनन्त भवधारकः ॥१०॥ प्याना रानवो करो यस्ते स्युर्मुक्तिवल्लभाः । अन्यथा विफल; क्लेशस्तपोवृत्तादिजः सताम् । १.२॥ की परिणति में सहकारी कारण है यह काल दुव्य है । यह अत्यन्त निष्क्रिय है, प्रमूर्तिक है और निश्चय तथा व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है ॥६३।। इनमें जो समय प्रादि रूप है वह व्यवहार काल है । यह व्यवहार काल गोदोह प्रादि त्रियाओं तथा परत्व प्रपरत्व प्रादि के द्वारा जाना जाता है ॥४॥ और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो पृथक् पृथक् प्रणुरूप से स्थित है तथा शुभ हैं वे कालाणु निश्चय काल है ॥९॥ उपर्युक्त पांच अजीव दव्य जीव के साथ एकत्र मिलकर मुनियों के द्वारा छह व्य माने गये हैं। काल के विना शेष पांचव्य पञ्चास्तिकाय कहलाते हैं ।
इस जगत में रागी जीव के जो यह कर्मरूप पुद्गल प्राता है वह प्रास्त्रव है। यह दव्यास्रव के भेद से दो प्रकार का है ॥६७।राग द्वेषादि युक्त जिस परिणाम से कर्म पाते है जीवों का वह परिणाम भावास्रव है ।।८।। पांच प्रकार का मिथ्यात्व, बारह प्रकार को अविरति, पन्द्रह प्रकार का अशुभ प्रमाद, पन्द्रह प्रकार का योग और समस्त दुःखों की खान स्वरूप पच्चीस प्रकार को कषाय ये भावास्रव के कारणभूत प्रत्यय जानना चाहिये अर्थात इन सबसे प्रात्मा में कमो का प्रागमन होता है ।।६६-१.०॥ योग सहित जिनेन्द्र के कर्मरूप होकर जो पुद्गल पाता है उसे ध्यास्रव जानना चाहिये । यह व्यास्त्र अनन्त भवों का निवारण करने वाला है। भावार्थ-दशमगुरणस्थान तक के जीवों के ख्यात्रव और भावासव वोनों होते हैं परन्तु उसके भागे तेरहवें गुरणस्थान तक मात्र व्यास्त्राव होता है ॥१०१॥ जिन्होंने : 'न प्रादि के द्वारा प्रास्रथ को रोक लिया है वे ही मुक्तिरूपी स्त्री
१. बग्घकारणानि ।