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________________ ६० ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * राज्यं रजोनिधं करस्नपारारम्भादिसागरम् । बहुवेर कर चिन्ताकर क: पानयेत्सुधीः ॥६४।। वेश्येव चपला लक्ष्मीः सेव्यानेकजन: खला । अतृप्ति जननी दुःप्रागा कथं रज्जयेत्मताम् ।। ६५१ । बन्धवो बन्धनान्येव भार्या मोहनकारिणी । पुत्राः पाशोपमाः पुंसां स्वजना: शृङ्खलानिभाः। ६६ । कुटुम्बमाहित धर्मतपोदानादिवारकम् । सावधप्रेरक विद्धि कृत्स्नपापनि बन्धनम् ।।६७।। रलत्रयतपोल्यानधर्मादिम्यो विना हितस् । न नृणां विद्यते जातु वस्तु किञ्चिन्महीतले ।।८।। प्रतो यावत्पदन्येव' पञ्चाक्षारिण दृढ वपुः । तपःक्षमं महाबुद्धिरायुर्नीरोगतोयमा:२ ॥६॥ तावद्धत्वात्र मोहारि सार्द्ध पञ्चेन्द्रियैः खलंः 1 सुनिर्वेदासिना' शीघ्र गृह्णामि परमं तपः ।।७।। इत्यादिचिन्तनाल्लब्ध्वा महत्संवेगमञ्जसा । विश्ववस्तुषु दीक्षायं चकारात्युद्यम नृपः ।।१।। ततस्त्यक्त्वाखिला लक्ष्मी तृण वच्चक्रिगोचरम् । कामिनीनिधिरत्नादिपूर्णा पटखण्डभूप्रजाम् ।।७।। संस्थाप्य स्वसुत राज्ये विभूत्या विधिना ततः । निःशल्यो नि:स्पृहः सोऽभूत्सस्पृहो मुक्तिसाधने ।।७३ । करते ? ॥६३।। जो रज के समान है, समस्त पाप तथा प्रारम्भ प्रादि का सागर है, बहुत वर को करने वाला है तथा चिन्ता को खान है ऐसे राज्य का कौन बुद्धिमान पालन करेगा? ॥६४॥ जो वेश्या के समान चञ्चल है, अनेक मनुष्यों के द्वारा सेवनीय है, दुष्ट है, अतृप्ति को उत्पन्न करने वाली है और उतने पर भी दुष्प्राप्य है, ऐसी लक्ष्मी सत्पुरुषों को अनुरक्त कैसे कर सकती है ? ॥६५।। पुरुषों के लिये बन्धु बन्धन हो हैं, स्त्री मोह उत्पन्न करने वाली है, पुत्र पाश के समान हैं, और स्वजन कुटुम्बी लोग सांकल के तुल्य हैं ॥६६॥ जो धर्म, तप तथा दान आदि को रोकने बाला है, पाप कार्य में प्रेरणा करने वाला है और समस्त पापों का कारण है ऐसे कुटुम्ब को अहित शत्रु जानना चाहिये ॥६७।। पृथिवी तल पर रत्नत्रय, तप, ध्यान और धर्म प्रादि के बिना कोई भी वस्तु कभी भी मनुष्यों के लिये हितकारी नहीं है ।।६७॥ इसलिये जब तक मेरो पांचों इन्द्रियां समर्थ हैं, शरीर दृढ़ तथा तप करने में समर्थ है, उत्सम खुसि है तथा प्रायु, नीरोगता और उद्यम प्रादि विद्यमान हैं तब तक उत्तम बराग्यरूपी तलवार के द्वारा दुष्ट पञ्चेन्द्रियों के साथ मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर मै शीघ्र हो परम तप को ग्रहण करता हूँ ।।६६-७०।। इत्यादि चिन्तन से समस्त वस्तुओं में बहुत भारी वास्तविक वैराग्य को प्राप्तकर राजा ने दीक्षा के लिये अत्यधिक उद्यम किया ॥७१।। तदनन्तर चक्रवर्ती को समस्त लक्ष्मी और स्त्री, लिधि तथा रत्नावि से परिपूर्ण षट्खण्ड वसुधा की प्रजा को सृरण के समान छोड़कर उसने अपने पुत्र को विधिपूर्वफ वैभव के साथ अपने पद पर स्थापित किया । इस तरह वह निःशल्य तथा निःस्पृह होकर भी १. समर्थानि २. नीरोगतोयमः १०३ प्रकृष्टवराग्यखड़गेन ४, पर वह भूभुजाय ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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