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________________ पञ्चम सर्ग - [ ५६ निःसारे विषमे भीमेऽनादौ कृत्स्नासुखाकरे । अनन्ते को रति कुर्यात् त्यक्त्वा धर्म भवे सुधीः ।।५।। मृत्युवाडवदुगलें जराजन्मजलाकुले । दुःखमीनादिसंकीर्ण रोगक्लेशोमिचञ्चले ॥५६॥ मिथ्यावाताकुले पापरावर्ते मोहात्तितस्करे । मजन्यहो भवाब्धी हि धर्मनावं विनाङ्गिनः ।।५७।। केचिदिष्ट वियोगेन पीरिताः शोककारिण: । चानिष्टयोगतः केचिद्रोगैस्ता हि केचन ॥५॥ केचिज्जरमा धा: चिद दारिद्रयदुःखितः । धृता बन्दीगृह केचित् केचिन्ने त्रादिवजिताः ।।६।। दुःखीजाता जनाः केचिन्मानभङ्गन मानिनः । देशाद्रधब्यटवी' केचिद् द्रव्याथं संभ्रमन्ति च ।। इत्यशर्ममये घोरे भवे दुःखकपूरिते । पुण्यवान् दृश्यते जातु न स योऽहो सदा सुखी ।।६।। सेवन विषयाणां यत्सुख जानन्ति रागिण: । भवेत्तद्विषमं दुःखं ज्ञानिनश्चाधवद्धं नात् ॥६२।। यदि स्यात्संसृति भंद्रा सहि क्रिश्रिया समम् । तां त्यक्त्वाशु कथं मोक्षं ससाधुस्तपसा जिनाः ।।६३।। की प्राप्ति कर लेना चाहिए ॥५४॥ ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो धर्म को छोड़कर निःसार, विषम, भयंकर, प्राविरहित तथा समस्त दुःखों की खान स्वरूप अनन्त संसार में प्रीति करेगा ? ॥५॥ अहो ! जिसमें मृत्युरूपी बडवानल के कारण दुःखदायक अनेक गर्त है, जो जरा और जन्मरूपी जल से भरा हुआ है, दुःखरूपी मगर मच्छ आदि से परिपूर्ण है, रोग अन्य क्लेशरूपी तरङ्गों से चंचल है, मिथ्यात्वरूपी वायु से आकुलित है-लहरा रहा है, पापरूपी भंवरों से युक्त है, तथा मोह जनित पीड़ारूपी चोरों से सहित है ऐसे इस संसाररूपी सागर में जीव धर्मरूपी नौका के बिना ड्रप रहे हैं ।।५६-५७॥ इस संसार में कोई इष्ट वियोग से पीडित होकर शोक कर रहे हैं, कोई अनिष्ट संयोग से, कोई रोगों से ग्रस्त होकर, कोई जरारूपी अग्नि से जलकर, कोई दरिद्रता का दुःख भोगते हुए, कोई बन्दीगृह में पड़कर, कोई नेत्रादि से रहित होकर, और कोई मानो जीव मानभङ्ग से दुःखी हो रहे हैं तथा कितने ही जीव धन के लिये देश, पर्वत, समुद्र और प्रवियों में भ्रमण कर रहे हैं । इस प्रकार दुःखमय तथा मात्र दुःखों से भरे हुए भयंकर संसार में कभी ऐसा कोई पुण्यशाली जीव दिखाई नहीं देता जो सदा सुखी रहता हो ॥५८-६१॥ रागी जीव विषयों के जिस सेवन को सुख मानते हैं जानी जीव को वह पाप पर्वक होने से विषम दुःख जान पड़ता है ।। ६२॥ यदि संसार अच्छा होता तो जिमेन्द्र भगवान चक्रवर्ती की लक्ष्मी के साथ उसका त्याग कर तप के द्वारा शीघ्र ही मोक्ष का साधन क्यों १ देशपर्वतम मुरणपानि २. सहसास्तपसा जिन:: क ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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