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________________ ५८ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित सस्माद्घोरतरं दुःखं जायते प्राणिनां चिरम् । इति कृत्स्नात्यनर्थानां मूलं देह जगुजिना. ।।४६।। कायोऽयं शोषितोऽत्रापि 'स्वन्नपानादिभूषणः । पादक याति साढे न जीवेन दुर्जनादिवत् ।।४।। यपाहिः पोषितो दो विषं प्राणान्हरत्यहो । तथा शरीरशत्रुश्च रोगयले शादिदुर्गतीः ।।४।। पत्राने संस्थितो शानी कारागारोपमे२ भजेत् । प्रत्यहं रोगशोकादीन सुप्रीति सत्र कि व्यधात् ।।४।। यमात्र पाल्यते दक्षः सेवक: कार्यसिद्धये । ग्राममात्रप्रदानश्च बिना रागं तथा वपुः ।।५।। गावं कथितं वृत्ततपोयोगयमादिभिः । यस्तैश्च सफलं चके त्यक्त्वा तस्संभव सुखम् ।। ५.१५॥ प्रसारेण शरीरेण सारं वृत्तादिसेवनम् । कर्तव्यं मुक्तये येन भवेत्तत्सफलं भुवि ।। ५२।। पोषितं शोषितं चाङ्ग यमान्तं यदि यास्यति । अवश्यं तहि सिद्धधं हि वरं शोषितमञ्जमा ।। ५३।। विज्ञायेति चलाङ्गन' ग्रासमात्रादिदानतः। द्रुतं मुमुक्षुभिः साध्यमचलं पदमद्भुतम् ।। ५४।। नौषों से परे हर संसार रूपी पसली में बहुत भारी भ्रमरण होता है और उससे प्राणियों को चिरकाल तक तो दुःख होता है, इसीलिये जिनेन्द्र भगवान ने शरीर को समस्त भनयों का मूल कारण कहा है ॥४४-४६।। उत्तम प्रन्न पान तथा भूषण प्रादि के द्वारा पोषित होने पर भी यह शरीर दुर्जनादि के समान एक पद भी जीव के साथ नहीं जाता है ॥४७॥ जिस प्रकार पोषा गया मर्प विष को देता है और प्रारणों को हरता है उसी प्रकार प्राश्चर्य है कि यह शरीररूपी शत्रु रोग क्लेश मावि दुर्गतियों को देता है ॥४८॥ कारागार के समान जिस शरीर में स्थित जामी जीव प्रतिदिन रोग शोक प्रादि को प्राप्त होता है उसमें वह उत्तम प्रीति को कैसे कर सकता है । ।।४६। जिस प्रकार इस जगत् में चतुर मनुष्यों के द्वारा कार्य की सिद्धि के लिये सेवक का पालन किया जाता है उसी प्रकार प्रासमात्र के दान से-भोजन मात्र देकर राग के बिना शरीर का पालन किया जाता है ॥५०॥ जिन्होंने चारित्र, तप, योग और यम, इन्द्रिय-वमन मादि के द्वारा शरीर को पीडित किया है उन्होंने शरीर से उत्पन्न होने वाले सुख को छोड़कर उसे सफल किया है।५१। जिस कारण निःसार शरीर से मुक्ति के लिये मारभूत चारित्र प्रादि का सेवन किया जाता है उसी कारण वह पृथियो पर सफल होता है । भावार्थ-जिस शरीर से तपश्चरण आदि किया जाता है वही शरीर सफल कहा जाता है ॥ ५२ ॥ शरीर का चाहे पोषण किया आय चाहे शोषरण, यह अवश्य ही यदि मृत्यु को प्राप्त होता है तो मुक्ति प्राप्ति के लिये उसका सम्यक् प्रकार से ( सल्लेखना विधि से ) शोषण करना ही अच्छा है ।।५३॥ ऐसा जानकर मोक्षाभिलाषी जीवों की शीघ्र ही चञ्चल शरीर के द्वारा मात्र पास प्रादि देकर पाश्चर्यकारी अविनाशी पद-मोक्ष १. शोमनानपानप्रभृत्यलंकार २, बन्दीगृहमदृशे ३. नश्वरशरीरेण ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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