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________________ rv-..- -..--.-. -- - .. * पञ्चम सर्ग स्वर्गमुक्तिसुखादिमाः' श्वभ्रतियंगतिप्रदाः । मतिध्य सकरा दुप्टा रोगक्लेशादिखानयः ॥३६॥ विश्वदोषाकरीभूताइहामुत्रातिशा पदः । कामकः कातरः सेव्या: पशुम्लेच्छादिदुर्जनः ।।३७।। इत्यादिदोषसंपूर्णा भोगा विषधरोपमा: । हालाहल निभा ये ते त्याज्याः सेक्ष्या न जातुचित् ।।३।। भोगाशा वर्तते यावन्नृणां चित्ते मनागपि । तावद् वृत्ततपःक्लेशर्मुक्तिर्जातु न जायते ।।३।। प्रतो मोक्षार्षिभिः पूर्व मनोव।क्झाय कर्मभिः । फणीन्द्रा इत्र नादेया भोगाः स्वप्नेऽपि मुक्तये ।।४।। सप्तधातुमयं निधि विष्टादिमलसंभृतम । नवद्वार: स्रवत्पति मलं प्रास्थिकटोरकम् ।।४।। कृत्स्नदोषनिधानं कामाक्षमविलोपमम् । शुक्रशोणितमंभूतं कायं कि रतये सताम् ।।४।। क्षुधातृषाम्म र व्याधि क्रोधाग्न यो ज्वलन्त्यहो । वपुःकुटीरके यत्र कास्था तत्र सुधीमताम् ।।४३।। काये पञ्चाक्षसामग्री तया च विषयवज: । तेन चोत्पद्यते रागषमोहादिसंचयः |४|| तप्तः कर्मसमूहश्च कर्मणा भ्रमणं महत् । भवारण्ये चलेऽमारे दुःख व्याघ्रादिसंकुले ।।४५।। लकड़ी हैं, स्वर्ग मोक्ष सम्बन्धी सुखादि को नष्ट करने वाले हैं, नरफ तथा तियंञ्चगति को देने वाले हैं, बुद्धि को भ्रष्ट करने वाले हैं, दुष्ट हैं, रोग तथा क्लेश आदि की खान हैं, समस्त दोषों के प्राकर खान स्वरूप हैं, इस लोक तथा परलोक के तीन शत्रु हैं, कामी, दोन तथा पशु प्रौर म्लेसछ प्रादि दुर्जनों के द्वारा सेवनीय हैं, इत्यादि दोषों से परिपूर्ण हैं, विषधर के समान हैं अथवा हालाहल के तुल्य हैं, अतएव ये छोड़ने के योग्य हैं, कभी सेवन करने योग्य नहीं हैं ।।३५-३८।। जब तक मनुष्यों के चित्त में रञ्चमात्र भी भोगों की प्राशा विद्यमान रहती है तब तक चारित्र और तप सम्बन्धी दलेशों से कभी मुक्ति नहीं हो सकती ।।३। इसलिये मोक्षाभिलाषी जोधों को पहले ही मन वचन काय से मुक्ति के उद्देश्य से स्वप्न में भी भोग ग्रहण नहीं करना चाहिये ; क्योंकि ये भोग नागराज के समान दुःखदायक हैं ॥४०॥ जो सप्त धातुनों से तन्मय है, निन्दनीय है, विष्ठा प्रादि मल से परिपूर्ण है, जिसके नव द्वारों से दुर्गन्धित मल झर रहा है, जो हड्डियों को फुटो के समान है, समस्त दोषों का भाण्डार है, काम और इम्नियरूपी सपो के बिल के समान है तथा रज और वीर्य से उत्पन्न हना है ऐसा यह शरीर सत्पुरुषों की प्रीति के लिये कैसे हो सकता है ? ॥४१-४२॥ अहो ! जिस शरीर रूपी कुटो में क्षुधा, तृषा, काम, नाना प्रकार के रोग और क्रोध रूपी अग्नियां प्रज्व. लित हो रही हैं उसमें उत्तम बुद्धि के धारक मनुष्यों का आदर क्या है ? अर्थात कुछ भी नहीं है ।।४३॥ शरीर में पांचों इन्द्रियां एकत्रित है, उन इन्द्रियों से विषयों का समूह एकत्रित किया जाता है, उससे राग ष तथा मोह आदि का समूह उत्पन्न होता है, उससे कमो का समूह संचित होता है, कर्म समूह से चञ्चल, निःसार तथा दुःख रूपी व्याघ्र प्राधि १ स्वर्गमूक्तिमुवाविना: ख• २. प्रकृष्टको कमकुरीराम ३. मामग्या ख० ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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