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________________ • श्री पार्श्वनाथ चरित * प्रसंस्यकामभोगेश्य पक्रिश कादिगोचरः । भुक्तपिचरतरं कालं जात जीवो न दुविधेः ।।२।। यथाययात्र सेन्यन्ते भोगा बहुतराः शठः । तथातथातिगृद्धयाहो तृष्णा विश्वं विसर्पति ।।२।। कामदाप्रशान्य ये भोगानिच्छन्ति कामुकाः । ज्वरं निषेधयन्त्येव सपिषा ते मतेभ्रंमात् ।।२६।। भोगोरगप्रदष्टानां संतोषभेषजैविना ।न शान्तिर्जायते जातु भुक्त गस्त्रिलोकजः ।।३।। भोगा ये निन्यकर्मोत्पा महादाहविधायिनः । दुस्त्याज्याश्चातिदुःप्राप्यास्ते कुतो रतये सताम् ।।३१॥ दाहदुःखारा प्रादी मध्ये स्वल्पसुखप्रदा: । अन्ते ग्लान्यधकारो ये ते भोगा: कपं शुभाः ।।३२।। मानमङ्गोद्भवा भोगा नार्याः प्रार्थनयोमतः । स्ववीर्यनाशिनो ये तान् किमीहन्तेऽतिमानिनः ।।३३॥ वविडम्बनोत्पन्ना ये भोगा हि स्वयोषितः । अपवित्रकरा निन्द्यास्ते प्रीत्यै धीमतां कुतः ।।३४।। भोगा: सुगुणहन्तारः कृत्स्नदोषविधायिनः । धर्मरस्नभृते भाण्डे चौराः पापाग्निदारवः ॥३५।। की प्राप्ति से संतुष्ट हो सकता है परन्तु दुष्कर्म के उदय से, यह जीप चक्रवर्ती पौर इन्द्र प्रावि सम्बन्धी प्रसंख्य काम भोगों से जिन्हें कि यह चिरकाल से भोग रहा है कभी भी तृप्ति को प्राप्त नहीं हो सकता ॥२६-२७॥ इस जगह में अजानीजनों के द्वारा बहुत भारो भोग जैसे जैसे भोगे जाते हैं वैसे वैसे ही प्राश्चर्य है कि तीव्र प्रासक्ति के कारण इस जीव को तृष्णा समस्त विश्व में फैलती जाती है ।।२८।। जो कामी पुरुष कामदाह को शान्ति के लिये भोगों को इच्छा करते हैं वे बुद्धिभ्रम से घृत के द्वारा ज्वर को नष्ट करते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार घृत के सेवन से ज्वर नष्ट न होकर वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार भोगों से तृष्णा शांत न होकर द्धि को प्राप्त होती है ।।२६॥ भोगरूपी सांप के द्वारा उसे हुए मनुष्यों को संतोष रूपी प्रौषध के बिना, भोगे हुए तोन लोक सम्बन्धी भोगों से कभी शान्ति नहीं होती है ।।३०।। जो भोग निन्ध कार्यों से उत्पन्न हैं, महान दाह को उत्पन्न करने वाले हैं, पुष्त्याज्य है तथा अत्यन्त दुष्प्राप्य हैं वे सत्पुरुषों को शान्ति के लिये कैसे हो सकते हैं ? ।। ३१ ॥ जो भोग प्रारम्भ में दाहरूप दुःख को करने वाले हैं, मध्य में अत्यन्त प्रल्प सुख को देने वाले है, और अन्त में ग्लानि तथा पाप को करने वाले हैं शुभ कैसे हो सकते हैं ? १३२।। जो भोग स्त्री से प्रार्थना करने के कारण मानभङ्ग से उत्पन्न होते हैं तथा अपने वीर्य को नष्ट करने वाले हैं उन भोगों की जानीजन कसे इच्छा करते हैं? ॥३३॥ जो भोग स्वयं अपने तया स्त्रियों के शरीर की विडम्बना से उत्पन्न होते हैं, अपवित्रता को करने वाले है तथा निन्दनीय हैं ये बुद्धिमानों की प्रीति के लिये कसे हो सकते हैं ॥३४॥ ये भोग उत्तम गुणों को नष्ट करने वाले हैं, समस्त दोषों को उत्पन्न करने वाले हैं, धर्मरूपी रत्नों से भरे हुए पात्र के चौर हैं, पापरूपी अग्नि को बढ़ाने के लिये • - - -.--...- -- -- १ लान्यवक्तारोन ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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