SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * पञ्चम सर्ग * [ ६१ क्षेत्राferrerबाह्य परिग्रहं द्विसप्तधा । अभ्यन्तरं विहायोस्त्रिशुद्धद्या च कृतादिभिः ।।७४|| जग्राह मुक्तये चक्री संगमं देवदुर्लभम् । राजभिर्बहुभिः सार्धं संवेगादिगुणान्वितैः ॥७ ततोऽतिदुष्करं घोरं द्विषड्भेदं तपोऽनघम् । स्ववीर्यं प्रकटीकृत्य वित्त मोघहानये ।१७६ ।। मनोऽक्षाषजयाय सः 113 911 अङ्गपूर्वश्रुतं सारं दुःकर्मघ्नं जगद्धितम् । पत्येवमादेन अरण्ये निर्जने स्थानेऽद्रिकन्दरगुहादिषु | शुन्यागारण्पसानेषु वनादौ तरुकोटरे ॥ ७६ ॥ व्याघ्रादिदृष्टसं की एकाकी निर्भयो मुनिः । व्यश्रात्म सिंहवन्नित्यं ध्यानाय शयनासनम् । प्रावृट्काले तमूंले पतीराहिमकुले | सर्वदुःखाकरे दध्याद्योगं योगनिरोधकम् ॥ ८० ॥ तुषार बहुलेऽसाध्ये हेमन्तेऽपि श्रुतुः पथे । ध्यानोमा हनन् शोतवाधा सोऽस्थात्सुनिर्मलः ॥ ८१ ॥ ग्रीष्मे भानुकस्तान पर्वताग्रशिलानले पिवन् ध्यानामृतं कुर्याद्युत्सर्गं सूर्यमन्मुखः ॥ ६२ ॥ 1 मुक्ति की साधना के लिये उत्कण्ठित हो गया ।।७२-७३ ।। पश्चात् क्षेत्र प्रादि के भेद से दश प्रकार के बाह्य और चौदह प्रकार के अन्तरङ्ग परिग्रह को छोड़कर चक्रवर्ती वचनाभि ने मन वचन काय की शुद्धि तथा कृत कारितादि पूर्वक मुक्ति के लिये संवेग प्रादि गुरणों से सहित बहुत राजानों के साथ देव दुर्लभ संयम को धारण कर लिया। भावार्थ- प्रनेक राजाओं के साथ मुनि दीक्षा ले ली ।।७४-७६ ।। तदनन्तर वे आत्मशक्ति को प्रकट कर पापों को नष्ट करने के लिये बारह प्रकार का प्रतिशय कठिन घोर और निर्दोष तप करने लगे ||७६ || वह मन तथा इन्द्रिय सम्बन्धी पापों को जीतने के लिये प्रमाद रहित होकर दुष्कर्मों के नाशक तथा जगत् हितकारी प्र पूर्व रूप श्रेष्ठ श्रुत को पढ़ते थे । भावार्थ- प्रङ्ग पूर्व ग्रन्थों का निरन्तर स्वाध्याय करते थे ॥७७॥ वन में, निर्जन स्थान में, पर्वत की कन्दरा तथा गुफा आदि में शून्यागार तथा श्मसान में, वृक्ष की कोटर में तथा व्याघ्र आदि दुष्ट जीवों से भरे हुए वन प्रादि में वह सिंह के समान निर्भय मुनि एकाकी ध्यान के लिये निरन्तर शयनासन करते थे । भावार्थविविक्त शय्यासन तप का पालन करते थे ।।७८- ७६ ।। वे वर्षाऋतु में पड़ते हुए पानी तथा सांपों से युक्त और समस्त दुःखों की खानस्वरूप वृक्ष के नीचे योगों का निरोध करने वाला वर्षायोग धारण करते थे ||८०|| वे निर्मल मुनिराज तुषार से परिपूर्ण असाध्य हेमन्त ऋतु में ध्यान रूप गर्मी से शीत की बाधा को नष्ट कर चौराहे पर स्थित होते थे- शीतयोग को धारण करते थे ।। ८१ ।। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणों से संतप्त पर्वत के प्रभाग पर विद्यमान शिलातल पर सूर्य के सम्मुख हो ध्यानरूपी अमृत का पान करते हुए व्युत्सर्ग तप करते थे । भावार्थ- संतप्त शिलातलों पर ग्रासीन होकर ग्रीष्म योग को धारण करते शम् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy