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________________ २७८] •धी पाश्र्वनाय चरित. मायाविनोऽत्र ये दुष्टाः परवञ्चनतस्पराः । मिथ्याशश्च पैशुन्यकूट कर्मरताः' शठा: II४६|| कपोतनीललेश्याढया निःशीला धर्मदूरगाः । प्रात्तं यानपरास्तिर्यग्योनि ते यान्ति पापिनः ।।७। पात रोद्रालिगा दक्षा घम्यै क्लापिताशयाः । जिन भक्ताः सदाचारा व्रतशीलादिभूषिताः ।। जितेन्द्रियास्तपोभूष। जिनधर्मपरायणाः । जितक्रोधादिसम्ताना रत्नत्रयविमण्डिताः ॥ मिथ्याद्विवषतुल्या ये निम्न्यसेवनोत्सुकाः । निःप्रमादा पदातीताः परनिन्दापरा मुखाः।।५।। त्यायन्यसुकर्माढया मुनयः भावका भुवि । ते गच्छन्ति यथायोग्यं स्वर्ग शर्माकर परम् ।।१।। स्वभारमादंवोपेताश्चार्जेवालधा: शुभाशयाः । भद्राः कपोतलेश्या ये मन्दमोहकषारिणः ॥५२॥ स्वल्पारम्मघनाकाहि क्षणो अजन्त्यत्र देहिनः । गति ते शुभध्यानाः पुण्यपापवशीकृताः ॥५३॥ मृण्वन्ति परनिन्दादीन विकथा दुःश्रुतानि च । प्रसत्यदुर्वचोमालाः कूटादीन्यत्र ये मठाः ।।४।। जो जीव इस लोक में भायाचारो हैं, दुष्ट हैं, दूसरों को ठगने में तत्पर रहते हैं मिष्यादृष्टि है, चुगल खोरी और कपट के कार्यों में लीन रहते हैं, धूर्त है, कापोत और नील लेश्या से युक्त है, शोल रहित है, धर्म से दूर भागते हैं, और प्राप्तध्यान में तत्पर रहते हैं वे पापो जीव तियंञ्च योनि को प्राप्त होते हैं ।।४६-४८।। जो पात और रौद्र ध्यान से दूर रहते हैं, कुशल हैं, जिनका मम षम्यध्यान और शुक्लध्यान में लगा हुआ है, जो जिनेन्द्र भगवान के भक्त हैं, सबाधारी हैं, बस तथा शील प्रावि से विभूषित हैं, जितेन्द्रिय है, तपरूपी प्रामूषण से सहित हैं, जिनधर्म की उपासना में तत्पर रहते हैं, जिन्होंने क्रोधादि को सन्तति को जीत लिया है, जो रत्नत्रय से मण्डित है, मिथ्यात्वरूपी पर्वत को घूर घूर करने के लिये बम्र के समान हैं, निथ मुनियों को सेवा करने में उत्सुक रहते हैं, प्रमावरहित हैं, मद से दूर हैं, परनिंदा से विमुख हैं, और प्रतिमा निर्माण प्रादि अन्य शुभ कार्यों से युक्त है ऐसे मुनि अथवा श्रावक इस जगत में ग्थायोग्य सुख को स्वान स्वरूप उत्कृष्ट स्वर्ग को प्राप्त होते हैं ।।४६-५१॥ जो स्वभाव की मृदुता-कोमलता मे सहित है, प्रार्जय-निश्छलवृति से युक्त है, शुभ प्रभिप्राय वाले हैं, भद्र हैं, कपोत लेश्या से युक्त है, जिनका मोह और कषाय मन्द है, जो प्रत्यन्त अल्प प्रारम्भ और अत्यन्त अल्प धन की इच्छा करते है, शुभध्यानी है तथा पुण्यपापधोनों के वशीभूत हैं वे जोव मनुष्यगति को प्राप्त होते है ।।५२-५३॥ ___ जो परनिन्दा, विकथा तथा मिथ्याशास्त्र प्रादि को सुनते हैं, प्रसत्य तथा मोटे वचन बोलते हैं, जो अज्ञानी जन इस जगत् में कपट प्रादि की बात कहते है, और शास्त्रों 1. पंशुन्या: फूटक में स्वग८ प २ मिनेन्द्रचन्द्रतुल्या ये नित्यमेधनोत्सुका.।। नि:प्रमादा मदानीता परनिन्दायरामखा: ।। ..
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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