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________________ * एकविंशतितम सर्ग * [ २७६ वदन्ति ये श्रुते दोषं श्रुतद्वेषादिहेतुना । प्रमुत्र वधिराः स्युस्ते ज्ञानावरणकर्मणा ।। ५५।। पोत्सूत्र स्वेच्छया मिथ्याशास्त्रारिण कुकथादिकान् । परनिन्दात्मशंसादीन्मृषामर्षादिभाषशान ।। ५६ ।। कुर्वन्तो मलमूत्रादीन् भोजनादीन् ब्रुवन्ति ये । मूकाः स्युः परलोके ते ज्ञानावृतिविधेर्वेशात् ।। ५७ परस्त्रीयोन्यादीन् बन्धोच्चाटनमारणान् । मिथ्यात्वस्थानकादींश्च पापकर्माणि मे मुदा । ५८ यस्य वदन्त्येवाऽदृष्टान् दृष्टान् वृथेष्यंया । ते चक्षुर्ह विपाकेन भवन्त्यन्धाः सुदुःखिताः ॥५६॥ चातिभारारोपणमङ्गिनाम् । पादेन ताडनं पापकार्य गमनमेव ये ।। ६० ।। गमन कुतीर्थे प्रयत्नव्रजन व्यर्थं कुर्वन्ति स्वल्पवित्ता हि ये पात्रदानं कुस्यनेकधा । जिनचैत्यालयादींश्च न्यायेन व्यवसायं च सस्वबाधकम् । पङ्गवस्ते भवन्त्यत्र चाङ्गोपाङ्ग विधेवंशात् ।। ६१ ।। देवगुर्वादिपूजनम् ।। ६२ । कूटहीनाधिकातिगम् । ते महाधनिनः सम्ति हीहामुत्र शुभयात् ।। ६३ ।। कुर्वते बनगवं ये न पात्रे दानपूजनम् । धनिनः कृपणास टाकादिकान् ।। ६४ ।। में द्वेष रखना प्रावि कारणों से शास्त्रों में बोष बतलाते हैं वे परभव में ज्ञानावरण कर्म से बहरे होते हैं ।।५४-५५॥ जो स्वेच्छानुसार श्रागमविरुद्ध बोलते हैं, मिध्याशास्त्र पढ़ते हैं, विकमा प्रावि करते हैं, परनिन्दा और श्रात्मप्रशंसा प्रादि करते हैं, असत्य तथा क्रोधादिपूर्ण भावर करते हैं तथा मलमूत्रावि और भोजनादि करते हुए बोलते हैं अर्थात् मौन नहीं रखते हैं वे ज्ञानावरण कर्म के यश से परलोक में गूंगे होते हैं ।। ५६-५७।। जो पुरुष परस्त्रियों के मुख योनि प्रादि को, बन्ध, उच्चाटन तथा मारण आदि को, मिध्यात्व के पोषक स्थान प्रादि को, तथा अन्य पाप कार्य-मैथुन प्रादि को हर्वपूर्वक देखते हैं और व्यर्थ हो ईर्ष्या के कारण उनके देखे अनदेखे कार्यों को कहते हैं वे चक्षुर्दर्शनावररण कर्म के उदय से अत्यंत दुःखी होते हुए अन्धे होते हैं ।।५८-५६।। जो यहां कुतीर्थ में गमन करते हैं, प्राणियों पर अधिक भार लावते हैं, उन्हें पैर से ताडित करते हैं, पाच कार्य में गमन करते हैं, तथा जीवों को बाधा पहुँचाने वाला विना देखे निष्प्रयोजन गमन करते हैं वे प्रङ्गोपाङ्ग नाम कर्म के उदय से परभव में लंगड़े होते हैं ।। ६०-६१ ॥ जो अल्पधनी होकर भी अनेक प्रकार का पात्रदान करते हैं, जिन मन्दिर प्राबि वाते हैं, देव गुरु प्रावि की पूजा करते हैं, और कपट तथा हीनाधिक तोलने प्रादि से बूर रहते हुए न्यायपूर्वक व्यापार करते हैं वे पुण्योदय से इसभव तथा परभव में महावनी होते हैं ।। ६२-६३ ।। जो धन का गर्व करते हैं, पात्रदान तथा पूजा श्रादि नहीं करते हैं,
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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