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________________ २८० • भी पार्श्वनाथ परित. मृषारम्भान भजन्त्यत्र न तृप्ति यान्ति सच्छि या । सामान्तरायकमांदयारस्युस्तांसारमणः ।।६।। सुजना मन्दरागाश्च स्वस्त्रीसंतोषकारिणः । ईष्योतीवकषायाविहीना: श्रीजिनपूजका: ।।६।। शुभकर्मकरा येऽत्र बनाचारपरा मुखाः । नराः स्युरङ्गिनोऽमुत्र पुवेदाभित्रकर्मणा ॥६७।। मायाविनोऽतिरागाठ्या प्रतीयकामिनः शठा; । मैथु नादौ संतृप्ताः शोकादियुतमानसाः ।।६।। पुरुषाः परदाराकाहिमणो येऽत्रातिमोहिनः । भवन्त्यमुत्रनार्यस्ते स्त्रीवेदविधिपाकतः ।।६।। प्रमजकीरनासक्ताश्वातिरागान्धमानसाः नि:शीला लम्पटा बेश्यादासीपश्यादिसेविन: 1७०। पतृप्ताः कामभोगावी ये नराः कुधियोऽधमा: । नपुंसकविपाकेन ते जायन्ते नपुसकाः ।।७।। मनोवाक्काययोगेन कृताश्यातिनिर्दया: । सत्त्वानां क्षबन्धादीन् ये प्राणज्यपरोपणम् ।७२। ह्यङ्ग छेदनपीडादीन् प्रकुयु विविधान् शठाः । तेऽल्पायुष एवात्र भवन्ति मृत्युपीडिताः ।।७३।। ये मार्दवाजवोपेताः कृपापूरितमानसाः । प्रयत्नचारिणः सर्वजीवरक्षरण तत्पराः ।।७४।। परपीडातिगाः शश्चद्विश्वप्राणिहितकराः । दीर्घायुषोऽत्र ते जायन्ते तृदेवगतो शुभात् ।।७।। घनी होकर कंजस होते हैं, लक्ष्मी के लिये कपटपूर्ण प्राचरण प्रावि करते हैं । मिथ्या प्रारम्भ करते है और उत्तम लक्ष्मी से संतोष को प्राप्त नहीं होते वे लाभान्तराय कर्म के उदय पे प्रस्यन्त दरिद्र होते हैं ॥६४-६५॥ जो यहां सुजन हैं, मन्दराग है, अपनी स्त्री में सन्तोष करते हैं, ईष्या तथा तीन कषाय प्रावि से रहित है, श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते है, शुभ कार्य करते हैं और अनाचार से पराड मुख रहते है ये परभव में पुवेर कर्म के उदय से पुरुष होते हैं ॥६६-६७।। जो पुरुष इस भव में मायाचारी होते हैं, तीवराग से युक्त होते हैं, अधिक कामी होते हैं, धूर्त होते हैं, मैयुन प्रादि में असंतुष्ट रहते हैं, मनमें शोक प्रादि करते है, परस्त्री की इच्छा करते हैं और प्रत्यधिक मोही होते है, ये परभव में स्त्री वेब कर्म के उदय से स्त्री होते है।।६८-६६॥ दुर्बुद्धि को धारण करने वाले जो नीच मनुष्य प्रनङ्ग क्रीडा में प्रासक्त होते हैं, जिनका मन तीन राग से अन्धा होता है, जो शोल रहित है, लम्पट है, वेश्या दासी तथा पशु प्रादि का सेवन करते है तथा कामभोग आदि में कभी तृप्त नहीं होते हैं घे नपुसक वेव के उदय से नपुंसक होते हैं ॥७०-७१॥ अत्यन्त निर्वयता से युक्त जो मनुष्य इसभव में मन वचन कायरूप योग तथा कृत कारित अनुमोदना से जीवों के वध बन्धन आदि करते हैं, उनके प्राणों का विधात करते है, अच्छेवन तथा पीडा पहुंचाना आदि अनेक कार्य करते हैं वे मूर्ख परभव में मृत्यु से पीडित होते हुए अल्पायुष्क ही होते हैं ॥७२-७३॥ जो पुरुष इसभव में मादय और प्रार्जव धर्म से सहित होते हैं, जिनका मन दया से परिपूर्ण होता है, जो यत्नपूर्वक चलते हैं, सब जीवों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं, पर पोडा से दूर होते हैं, और निरन्तर समस्त प्राणियों का हित करते हैं वे पुण्योदय से मनुष्य तथा देवगति में दीर्घायुष्क होते है ॥७४-७५॥
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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