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________________ . एकविंशतितम सर्ग . [ २७७ .-AnuranARARAur-khanna-prrianvrvan निश्चयाख्यमिदं रत्नत्रय सद्भवमोअदम् । निरीपम्मसुखाकारं विश्वकल्याणकारकम् ।।३७।। 'प्रगण्यपुण्य सन्तानामिनेशाविविभूतयः 1 चाचरत्नत्रयेणात्र जायरते धीमा पराः ।।३।। निश्चयेन सता मोक्षस्तद्भवेऽनन्तशर्मकृद । उत्पद्यतेऽत्र निःशेषकर्मनाहा गुणाएंव: ।। ३६॥ ये गता यान्ति यास्यन्ति मुनयोऽत्र शिवालयम् । केवलं ते द्विधासाच होई रत्नत्रय बुधाः ।।४।। प्रमोसो परमो मोक्षमागों रमत्रयात्मकः । द्विधाम्नातो जिनाधीशः शाश्वतो नापरः क्वमित् । पापिनो व्यसनासता रौद्रध्यानपरायणाः । करकर्मकराः करा निर्दया: सस्वधातकाः ।।२।। असत्यवादिनोऽन्यस्त्रीलक्ष्मीधान्यादिकाङ्क्षिण: । बारम्भकृतोत्साहा महापरिपहान्विता: 11४३| मिथ्यात्वपोषकास्तीवकषायियोऽतिलोभिन: । प्रत्यनीका मिनेन्द्राणां मुनिधर्मादिनिन्दका: १४४ नीचदेवरता मूढाः कृष्णलेश्या मदोद्धताः । ये ते यान्यनिनः श्व चेत्याद्यत्याधकारिण: ४५ यह निश्चय रत्नत्रय उसी भव से मोक्ष को मेने वाला है, निरुपम सुख का माह्वान करने बाला है तथा समस्त कल्याणों का करने वाला है ॥३७।। व्यवहार रत्नत्रय से इस जगत् में बुद्धिमान पुरुषों को पसंख्य पुण्य को सन्तति तथा तीर्थकरावि की उत्कृष्ट विभूतियां प्राप्त होती है और निश्चय रत्नत्रय में उसी भव में समस्त कमों का नाश हो जाने से अनन्त सुख को करने वाला तथा गुणों का सागर स्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है ।।३८-३९॥ जो मानी मुनिराज आज तक मोक्ष को प्राप्त हुए हैं सभी प्राप्त हो रहे हैं और प्रागे प्राप्त होंगे ये सब निश्चय से मात्र इसी दो प्रकार के रत्नश्रय को प्राप्त करके ही प्राप्त हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे ॥४०॥ इसलिये जिनेन्द्र भगवान ने इसी उत्कृष्ट तथा स्थाई द्विविध रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को स्वीकृत किया है अन्य को कहीं मोक्षमार्ग नहीं माना है। भावार्थ-न केवल व्यवहार रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है और न केवल निश्चय रत्नत्रय मोक्ष का गार्ग है किन्तु परस्पर मंत्रीभाव को प्राप्त हुआ विविध रत्नत्रय हो मोक्ष का मार्ग है गयोंकि निश्चय से निरपेक्ष व्यवहार रत्नत्रय व्यवहाराभास है और व्यवहार से निरपेक्ष निश्चय रत्नत्रय निश्चयाभास है।॥४१॥ जो जीव पापी हैं, व्यसनों में प्रासक्त हैं, रौद्रध्यान में तत्पर रहते हैं कर कार्यों को करने वाले हैं, दुष्ट प्रकृति के हैं, निर्वय हैं, जीवों का घात करने वाले हैं, प्रसस्यवादी है, परस्त्री परलक्ष्मी और परधान्यादि की इच्छा करते हैं, बहुत प्रारम्भ करने में उत्साह रखते है, बहत भारी परिग्रह से सहित हैं, मिथ्यात्व का पोषण करने वाले हैं, तीन कषायो है, अत्यन्त लोभी हैं, जिनेन्द्र के प्रतिकूल है, मुनिधर्म प्रादि के निन्धक हैं, नीच देवों की उपासना में लीन हैं, मूढ-प्रज्ञानी हैं, कृष्ण लेश्या वाले है, मद से उद्धत है तथा इसी प्रकार के अन्य पाप के करने वाले हैं ये नरकगति को प्राप्त होते हैं ।।४२-४५।। १.प्रगम्य व. २, सन्तानानि जिनेशादिभूतय ग. ५०३. कुम्न स्व. प.घ.।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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