________________
२७ ]
• श्री पार्वनाव परित. एतेषां विश्वतस्वाना श्रद्धानं सुदर्शनम् । व्यवहाराभिष प्राजिनाः शहाविदूरगम् ।।३१।। परिमान पदार्थाना यामातथ्येन यद्भुवि । तज्जान व्यवहारास्यमझानप्यान्तमासनम् ।३२।।
स्मासुभानिवृसिर्या प्रवृत्तिः शुभकर्मणि । त्रयोवविध वृत्तं तभूक्तिमुक्तिकारणम् ॥३३।। प्रदान क्रियते भव्यै यभिचन्मूनिजात्मनः । तस्यानिश्चयसम्यक्त्वं साक्षान्मुक्तिनिवन्धनम् ३४ यत्स्वसंबेदन स्वात्मष्यानेन परमारमनः । सज्जान निश्चयामित्य केवलशानकारणम् ।।३।। ज्यामिना भरणं यदि स्वस्वरूपे निजात्मनः । चारित्रं निश्चयाख्यं तस्परमानन्दसागरम ।।३।। भावार्थ-हयोपाषेय तत्वों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि व्यवहार नय से जीव तत्व में पञ्चपरमेष्ठी उपादेय है शेष हेग हैं। मसालय को सापेक्षा अमरामा और परमात्मा उपादेय है बहिरास्मा हेय है और बोतराग मनुष्यों को प्रपेक्षा अपना शुद्ध प्रास्मा ही उपा. देय है अन्य हेय है । प्रजोषसस्व ज्ञान की अपेक्षा उपादेय है परन्तु ध्यान के समय हेय है अर्थात् पात्म कल्याण के इच्छुक मनुष्यों को शुद्धात्मतत्व का चिन्तन करना चाहिये प्रजोष का नहीं। रागी मनुष्यों को पापात्रय और पापबन्ध हेय हैं पुण्यालय और पुण्यबन्ध उपादेय हैं परन्तु वीतरागी-युरोपयोगी मुनियों के लिये दोनों प्रकार के प्रास्त्रव और बन्ध हेप हैं । संबर और प्रविपाको निर्जरा मोक्ष के साक्षात् कारण होने से उपाय हो है हेय नहीं है और लक्ष्यसूत होने से अनन्त सुख को देने वाला उपादेय ही है ॥३०॥
इन समस्त तत्त्वार्थों-अपने अपने ययार्य स्वरूप से सहित जीवादि पवायों के थदान करने को जिनेन्द्र भगवान ने व्यवहार सम्यादर्शन कहा है। यह व्यवहार सम्यग्दर्शन साकुर प्रादि दोषों से रहित होता है ॥३१॥ इन्हीं पदार्थों का पृथिवी पर जो यथार्थरूप से बानना है उसे प्रशानरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाला व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते हैं ।।३२॥ समस्त अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ कार्यों में जो प्रवृति है वह तेरह प्रकार का चारित्र है । यह चारित्र भुक्ति और मुक्ति का कारण है। भावार्थ-सराग चारित्र के काल में देवायु का बन्ध होता है प्रतः वह भुक्ति का कारण है। भावार्थ-सराग चारित्र के काल में वेवायुबंध होता है प्रतः वह भुक्ति का कारण है और वीतराग चारित्र से कर्मक्षय होता है प्रतः वह मुक्ति का कारण है ॥३३॥
भव्य जीवों के द्वारा चैतन्यमूति-ज्ञायक स्वभाव वाले निज प्रात्मा का जो श्रद्धान किया जाता है वह निश्चय सन्यावर्शन है। यह निश्चय सम्यग्दर्शन मोक्ष का साक्षात् कारण है ॥३४॥ स्वात्मध्यान के द्वारा परमात्मा का जो स्वसवेवम है वह निश्चय सम्यमान है। यह निश्चय सम्यग्ज्ञान केवलज्ञान का कारण है ।।३।। ध्यान करने वाले मुनियों का निजात्मा के स्वकीय स्वरूप में जो लीन होना है वह निश्चय सम्यक् चारित्र है। यह निश्चय सम्यक्चारित्र परमानन्द का सागर है-प्रनन्त सुख से परिपूर्ण है ।।३६।।