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________________ * द्वितीय सर्ग * [ २३ ४ श्रथ जम्बूमतिद्वीपे मेरो: प्राग्दिर्शि शाश्वतम् । पूर्वविदेहनामास्ति क्षेत्रं धर्माकरं परम् ||७४।। विदेहान्मुनयो यस्माद् गच्छस्येवायं पदम् । तस्मात्तत्सार्थक नाम विद्यते क्षेत्रमुत्तमम् ॥ ७५ ॥ विद्यते विषयस्तत्र मनोज्ञो मङ्गलावती । विश्वमङ्गलदोषैः पूर्णो माङ्गल्यकारकः १७६ । तस्य मध्ये महात् भाति विजयार्द्धाभिधोऽचलः । शुद्धरूप्यमय स्तुङ्गः खगदेवाभिसेवितः ॥ ७७ ॥ उत्तङ्गो योजनानां स पञ्चविंशतिमेव हि । तच्चतुर्थांशभूमध्यो नवकूटविभूषितः पूर्वकूटे जिनागारी कयभात्स्वमयो महान्। हेमोपकरणं रत्नबिम्ब: कूटस्थकेतुभिः ॥७६ । तत्रायान्ति च देवेशा विद्येशाश्चारणाः सदा वन्दितु श्रीजिनाश्व महाभूतिविराजिताः ||८०| चतुः संघ र गतिर्वाद्यं श्च नर्तनः 1 यातायातजनः सोऽभाद्धर्माकिर इवानिशम् श्रेणीभ्यां द्विगुहाभ्यां च सेव्यमानः खगामरैः । वनैः कुर्महारत्नेयेतिवत्सोऽचलो बभौ || २ || ११७८।। होकर वह वहां शररण की प्रार्थना करता हुआ बार बार मूर्छित हो जाता था । इतने पर भी नारकी उसे सदा पीडित करते रहते थे ।।६८-७३ ।। तदनन्तर जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरुपर्वत की पूर्व दिशा में पूर्व विदेह नामका शाश्वतसदा विद्यमान रहने वाला क्षेत्र है। वह क्षेत्र धर्म की उत्कृष्ट खान स्वरूप है ।।७४ || चूकि विदेह क्षेत्र से मुनि अविनाशी - मोक्षपद को प्राप्त होते रहते हैं इसलिये वह उत्तम क्षेत्र 'विदेह' इस सार्थक नामको धारण करता है ।। ७५ ।। उसी विदेह क्षेत्र में समस्त मङ्गल द्रयों के समूह से परिपूर्ण, मङ्गल को करने वाला मङ्गलावती नामका मनोहर देश है। ॥७६॥। उस देश के मध्य में विजयार्ध नामका एक महान पर्वत सुशोभित हो रहा है । वह पर्वत शुद्ध चांदी रूप है, ऊंचा है, विद्याधर और देवों से सदा सेवित रहता है, पच्चीस योजन ऊंचा है, ऊंचाई के चतुर्थांश पृथिवी में गहरा है, और नौ कूटों से विभूषित है ।।७७-७८ ।। उसके पूर्वकूट पर सुवर्णमय विशाल जिन मन्दिर है जो सुबर के उपकरणों, रत्नमय प्रतिबिम्बों और शिखर पर स्थित पताकाओं से शोभायमान हो रहा है ॥७६॥ देवेन्द्र, विद्याधरेन्द्र और चारण ऋद्धि के धारक मुनिराज भ्रष्ट प्राप्तिहार्यरूप महान विभूति से सुशोभित जिन प्रतिमाओं की वन्दना करने के लिये वहां सदा आते रहते हैं ।। ६० ।। चतुरिणकाय के उत्कृष्ट देवों, गीतों, बाद्यों, नृत्यों और श्राने जाने वाले मनुष्यों से वह पर्वत निरन्तर ऐसा सुशोभित होता है मानों धर्म की खान ही हो ॥ ६१॥ दो श्रेणियों, दो गुफाओं, विद्याधरों, देवों, वनों, कूटों और महारत्नों से सेवित हुआ वह पर्वत मुनिराज के समान सुभोभित हो रहा था ।। ६२ ।। १. प्रविनाभिपदम् मोक्षमित्यर्थः २. कुरुते ३४ रनमः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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