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________________ २४ ] * श्री पाश्वनाथ चरित * नगरं तत्र रोप्याद्री त्रिलोकोत्तमसंशकम् । प्रस्त्युत्त मजनः पूर्ण त्रैलोक्यतिलकोपमम् ।।३।। तबाह्म सफलान्युच्चस्तर्पकाणि वनानि च । सतां तुङ्गानि गोभन्ते यतेर्याचरणान्यहो ॥४॥ क्षेत्राण्यत्रासिरम्याणि झाले काले कृतान्यपि । मुने रावश्यकानीव फलदानि बभुणाम् ।।८५॥ वापीकूपतडागानि 'खतरणास्फेटकान्यपि । ऋषेढ दयतुल्यानि भान्ति लोकहितान्यहो ।।६।। पुरं सुङ्ग रभाद्ध मरत्नप्राकारतोरगणैः । दीर्घखातिकया जम्बूद्वीपवेब्धिवत्तराम् ।।८।। विभ्राजन्ते जिनागारामणिस्वर्णमयाः शुमाः । खमीभिश्च स्वर्गः पूर्णा महान्तो वा वृषाब्धय: ।।८८|| जयस्तवादिशब्दोघगीत यि श्च नर्तनः । उत्सविविधनित्यं दीप्तबिम्ब मनोहरैः ॥८६॥ धामिकागा महापामाग्रस्थ घ्वजकरोत्करः ।मायतीव तद्भाति नाकेशां मुक्ति हेतवे ॥१०॥ वर्तते शाश्वतो यत्र धर्मो जीवदयामयः ! जिनोक्तः स्वर्गमुक्यादिसाधको नापरः पवचित्।।११।। विहरन्ति यतीन्द्रौघा यत्र केवलिनोऽनिशम् । धर्मप्रवतंनाहेतोः संघर्न च कुलिङ्गिनः ।।१२।। उस विजयाई पर्वत पर त्रिलोकोत्तम नामका एक नगर है जो उत्तम जनों से परि पूर्ण है तथा तीनों लोकों के तिलक के समान जान पड़ता है ।।८३॥ उस नगर के बाहर फलों से सहित तथा सत्पुरुषों को संतुष्ट करने वाले ऊचे ऊचे उत्कृष्ट वन सुशोभित हो रहे हैं जो मुनि के प्राचरण चारित्र के समान जान पड़ते हैं ॥४॥ समय समय पर जिनकी सभाल की जाती है ऐसे यहां के अत्यन्त रमणीय खेत, मनुष्यों को फल देते हुए मुनियों के प्रावश्यकों के समान सुशोभित होते हैं । अहा ! पक्षियों की तृष्णा को नष्ट करने वाले वहां के लोकहितकारी वापी कूप और तालाब मुनि के हृदय के समान सुशोभित हैं ॥५-८६॥ वह नगर, ऊचे ऊँचे सुवर्ण तथा रत्ननिर्मित कोट, तोरणों से तथा बहुत बड़ी परिखा से जम्बूद्वीप की वेदी के समान अत्यन्त सुशोभित होता है ।।८७॥ विद्यारियों और विद्याधरों से भरे हुए वहां के मरिण तथा स्वर्णमय शुभ मन्दिर ऐसे सुशोभित होते हैं मानो बड़े भारी धर्म के सागर ही हों ॥८८।। जय जय आदि स्तवनों के शब्द समूहों, गीतों, वादित्रों, नृत्यों, नाना प्रकार के उत्सवों और निरन्तर देदीप्यमान रहने वाले जिन बिम्बों से बह नगर अत्यन्त शोभायमान है ॥६६॥ धर्मात्मा जनों के बड़े बड़े भवनों के अग्रभाग पर स्थित ध्यज रूपी हाथों के समूह से वह नगर ऐसा जान पड़ता था मानों मुक्ति की प्राप्ति के लिये इन्द्रों को बुला हो रहा हो ॥६॥ जहां पर स्वर्ग और मोक्ष प्रादि को प्राप्त कराने वाला, जिनेन्द्र कथित दयामय धर्म ही शाश्वत स्थायी धर्म है कहीं कोई दूसरा धर्म नहीं है ।।६१॥ जहां पर धर्म की प्रवर्तना के लिये चतुर्विध संघों के साथ मुनिराजों के समूह तथा केवली भगयान निरन्तर विहार करते हैं, कुलिङ्गी विहार नहीं करते थे।।६२॥ १.पक्षितपानाकानि २. विद्यावधि: ३. विद्याधर. ४. धर्मम-गरा:
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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