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________________ * द्वितीय सर्ग * २५ कुदेवस्तम्मठे जातु स्वप्नेऽपि दृश्यते न च । कुलिङ्गी तद्रतोऽज्ञानं कुज्ञानी कुदृषोऽशुभः।।३।। शामिका विपदा दक्षा जिन भक्तिपरायणा: । पात्रदानरता धर्ममहोत्सव-विधायिन: ।।१४ गुरुभक्ताः सदाचारा दतशीलादिभूषिताः । प्राकाशगामिनो मे दियात्रारत-बुद्धयः ।।६।। वसन्ति यत्र विद्यशा: सकुलास्तुङ्गधामसु । खगोभitaमरूपाभिवभिचामरा विधि ॥६ इत्यादिवर्णनायेते पुरे सस्मिन्मनोहरे । विद्य गतिखगेशोऽभुद् विद्युद्गतिविराजितः ॥६unt प्रतापी नातिमागंज्ञोऽनेकविज्ञाननायकः । दक्षो धर्मविचारज्ञो विवेकी शीलमण्डितः ।।१८।। प्रजानां तर्पको ज्ञानी जैन धर्मप्रभावकः । यमीवर स बभी लोके सत्भमादिगुणोत्करैः ।।६।। विद्युन्माला प्रिया तस्य बभूव शुभलक्षणा । रूपलावण्यभूषाढया सती पुण्योत्तमानसा ।।१००॥ तयोः सूनुरभूदग्निवेगास्यः पुण्यपाकतः । शशिप्रभोऽमरश्च्युत्वा स दिका प्राक्तनो महान्।।१०।। शुभलानादिकऽनेक महोत्सव शतेन पः । महामऽह नकारोच्चजिनागारे जिने शिनाम् ।।१०।। जहां पर कुवेध, कुदेवों के मठ में ही दिखाई देता था अन्यत्र कहीं स्वप्न में भी दिखाई नहीं देता था। इसी प्रकार कुलिङ्गी, उनका भक्त, कुज्ञान, कुज्ञानो और अशुभ धर्म कहीं स्वप्न में भी नहीं दिखाई देता था ।।६३॥ जो धर्मात्मा हैं, निर्मल हैं, चतुर हैं, जिनशक्ति में तत्पर हैं. पात्र दान में रत हैं, धामिक महोत्सवों को करते है, गरभक्त हैं.. सनाचारी हैं, व्रत-शोल आदि से विभूषित हैं, आकाशगामी हैं, मेरु प्रादि को यात्रा में जिनकी बुद्धि लग रही है तथा जो उच्च कुलीन हैं ऐसे विद्याधर जहां ऊंचे ऊचे महलों से सुन्दर रूप की धारक विद्याधरियों के साथ इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार स्वर्ग में वेव देखियों के साथ निवास करते हैं ।।६४-६६॥ इत्यादि वर्णन से सहित उस मनोहर नगर में बिजली के समान तीवगति से सुशोभित विद्यु द्गति नामका विद्याधर राजा रहता था ।। ६७ ।। वह विद्य दगति प्रतापी था, नीति मार्ग का जाता था, अनेक प्रकार के विशिष्ट ज्ञानों का स्वामी था, चतुर था, धर्म विचार का ज्ञाता था, विवेकी था, शोल से सुशोभित था, प्रजाजनों को संतुष्ट करने वाला था और उत्तम क्षमा प्रादि गुरणों के समूह मे लोक में मुनि के समान सुशोभित था ॥८६६।। जो शुभ लक्षणों से सहित थी, रूप और लावण्य रूपी प्राभूषणों से सहित थी, पतिव्रता थी तथा जिसका मन पुण्यकार्यों में संलग्न रहता था ऐसी विद्य न्माला नामको उसकी प्राणवल्लभा थी ॥१०॥ वह क्षशिप्रभ नामका पूर्वोक्त महान देव स्वर्ग से च्युत होकर पुण्योदय से उन दोनों के अग्निवेग नामका पुत्र हुमा १०१।। राजा विद्य दगति ने शुभ लग्न प्रादि के समय १. विद्यम प्रगतित्रिशोधन २. पुनरिव -----
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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