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________________ ----.. .-...APar-~rna m amaARA * द्वादशम सर्ग * । १५३ या पुण्यात्रवधारेव सुते लक्ष्मी परां सताम् । 'साश्वस्माकं करोत्वत्र धारा लोकाग्रजां श्रियम् । धर्मविघ्ननजं हन्ति यासिधारेव मिणाम् । सा नो रत्नत्रयायानां हन्तु प्रत्यूहमञ्जसा ।११. जिनाङ्गस्पर्शमासाद्य या पवित्रा व्यभूद्भ,शम् । पवित्रयतु सास्माकं मनोवाक्कायमजसा । १११॥ इस्र्थ गन्धोदकः कृत्वाभिषेकं सुरनायक शादि से पोषणमासुमागाधनारने ११२॥ चकुः शिरसि भाले च नेत्रे सर्वाङ्गपुद्गले । स्वर्गस्योपायन पूतं तद्गन्धाम्बु सुराः स्त्रियः ११३ गन्धाम्बुस्नपनस्यान्ते जयनन्दादिसस्वर: । "व्यातुक्षीममराश्चक्रुः सचूर्णेगन्धवारिभिः ।११४॥ निर्वृत्तावभिषेकस्य जिनस्नानविधायिनः । प्रानचु: परया भक्त्या श्रीजिनं भुवनाचितम् ११५ धीखण्डाक्षतपुष्पौधेश्चभिर्दीपकवरैः धूपैः फलश्च स्वर्लोकमवैदिव्यमनोहरैः ।।११६।। *कृतेष्टयो हतानिष्टप्रजा विहितपौष्टिकाः । जम्माभिषेकमित्युच्चैः सुरेन्द्रा निरतिष्ठपन् । ११७॥ के प्रानग्य को बढ़ाने वाली थी ऐसी वह धारा जिनवाणी के समान हमारे मन को पवित्र करे ॥१०॥ जो पुण्यात्रव की धारा के समान सत्पुरुषों को उत्कृष्ट लक्ष्मी उत्पन्न करती है वह पारा इस जगत में शीघ्र ही हम लोगों को मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करे ॥१०६॥ जो तलवार को धारा के समान धर्मात्मा जीवों के धर्म में पाने वाले विघ्न समूह को नष्ट करती है वह धारा हमारे रत्नत्रय रूप पुण्य कार्यों में आने वाले विघ्नों को अच्छी तरह नष्ट करे ॥११०।। जो जिनेन्द्र भगवान् के शरीर का स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हो गई यी वह धारा हमारे मन वचन काय को अच्छी तरह पवित्र करे ॥१११॥ इस प्रकार उन इन्द्रों ने मन्धोषक से अभिषेक कर संसार सम्बन्धी पापों की शान्ति के लिये उच्चस्वर से शान्ति की घोषणा की ॥११२॥ देव और देवाङ्गनामों ने स्वर्ग के उपहारस्वरूप उस पवित्र गन्धोदक को शिर पर, ललाट पर, नेत्रों पर तथा समस्त शरीर रूप पुद्गल पर लगाया था ॥११३॥ गन्धोदक का अभिषेक समाप्त होने पर देवों ने जय नन्द आदि प्रशस्त शब्दों के उच्चारण के साथ वर्ण सहित सुगन्धित जल से परस्पर फाग की अर्थात् एक दूसरे पर गन्धोदक को उछाला ।।११४॥ जिनाभिषेक करने वाले देवों ने अभिषेक की समाप्ति होने पर बड़ी भक्ति से लोकपूजित जिनेन्द्र देव की पूजा की ॥११॥ स्वर्गलोक में उत्पन्न होने वाले सुन्दर और मनोहर चन्दन, अक्षत, पुष्प समूह, नैवेद्य, उत्कृष्ट दीपक, धूप और फल के द्वारा जिन्होंने पूजा की है, जिनके अनिष्टों का समूह नष्ट हो गया है, तथा जिन्होंने पुष्टि कार्य को पूर्ण किया है ऐसे इन्द्रों ने उत्कृष्ट रूप से जन्माभिषेक को समाप्त किया ॥११६-११७॥ इन्द्राणियों के साथ इन्त्रों ने तथा भक्ति से भरे हुए १. मा+प्रागा अस्माकम् इनिनदेदः २. रत्नत्रयकर पुण्यानाम् ३. भवाधिशाम्तये क. ४. 'फाग' इति हिन्दी । ना डोट चम्न कृतजाः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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