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________________ १५४ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित छन्द्राणीभिः समं चेन्द्रा विश्वे देवा जगत्पतिम् । देव्य: परीत्य मूर्ना तं प्रणेमुर्भक्तिनिभरा: १११८ । सदापद्दिवः पौष्पी वृष्टिीरकणेः समम् । मातरिश्या बबो मन्दं स्नानाम्भःशीकररान्किरन् । यत्र स्नापयिता शक्रः स्नानपीठः सुदर्शनः । देवाङ्गनाः सुनर्तक्यो गन्धर्वा गोतगायिन: ।१२०। चतुर्षा किरा देवाः स्नानद्रोणी पयोऽर्णव: । जगद्गुरुः समाराध्य' सञ्चनीयं महन्छुभम् । १२१॥ सर्वातिशयसंपूर्ण जिनस्नानमहोत्सवम् । छद्मस्थस्तं निरौम्यं क्षमो वर्णयितु हि क: १२२ मालिनी इति सकलसुरौघा जन्मकल्याणमुच्चैः-परमनिखिलभूत्या तीर्थकृत्पुण्यपाकात् । शिवगतिसुखहेतोर्यस्य चकु: स नोऽब्याद् भवजलनिधिपातासंस्तुतस्तद्गुणोघः ।।१२३।। शार्दूलविक्रीडितम् धभात्ताप महोत्सव सुरगिरी कल्पाधिस्तीयकृद् धर्मात्पूज्यपदं सुखं नृसुरजं बाल्येऽपि लोकत्रये । समस्त देब देधियों ने प्रदक्षिणा देकर उन्हें शिर से प्रणाम किया ॥११।। उस समय बल करणों के साथ प्राकाश से फूलों की वर्षा पड़ रही थी और अभिषेक सम्बन्धी जल के कणों को बिखेरता हुमा पवन मम्द मन्द चल रहा था ॥११६॥ जिसमें अभिषेक करने वाला इन्द्र धा, सुदर्शन मेर स्नानपीठ था, देवांगनाएं' उत्तम नृत्यकारिणी थीं, गंधर्व गीत गाने वाले थे, चतुणिकाय के देव किङ्कर थे, क्षीर सागर स्नान का कुण्ड था, जगद्गुरु-जिनेंद्र माराधना करने योग्य थे, महान पुण्य संचय करने योग्य था, जो समस्त प्रतिशयों से परिपूर्ण था तथा उपमा से रहित था उस जन्माभिषेक के महोत्सव का वर्णन करने के लिये कौन छमस्थ समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥१२०-१२२।। इस प्रकार तीर्थकर प्रकृति नामक पुण्यकर्म के उदय से समस्त देवसमूह ने अत्यंत उत्कृष्ट तथा सम्पूर्ण विभूति के साथ जिनका जन्म कल्याणक सम्पन्न किया था, जो मोक्षपति के सुखों की प्राप्ति में कारण थे तथा अपने गुण समूह के कारण जो अच्छी तरह स्तुत हुए थे वे भगवान पार्श्वनाथ हम सबको संसार सागर के पतन से रक्षा करें ॥१२३॥ तीर्थकर पार्श्वनाथ धर्म से सुमेरु पर्वत पर इन्द्रों के द्वारा किये हुए महोत्सव को प्राप्त हुए तथा धर्म से उन्होंने बाल्यावस्था में ही त्रिलोक पूज्य पद तथा मनुष्य और देवनति सम्बंधी सुख प्राप्त किये ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो ! तुम निरन्तर यत्नपूर्वक १. पवनः २. क्षीरसागरः।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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