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* द्वादशम सर्ग *
मत्तीह बुधाः कुरुध्वमनिशं धर्मं जिनास्योद्भवं
मनन्त गुण दोगुणहरो धम्मं व्यधुर्धार्मिकाः
शुद्धघादिसुभावनाभिरमलाभिश्चैव यत्नात्परम् ।। १२४ ।।
धर्मेणा किला शिवपदं धर्माय मूर्ध्ना नमः ।
धर्मान्नास्त्यपरो गुरुस्त्रिभुवने धर्मस्य मूलं मनः-
[ १५५
पित्रोर्भवने चकार धनदो वृष्टि मगोनां परां
शुद्धिमिह दधे वरवृषे मे तिष्ठ चित्त वृष ।। १२५ ।।
१. इन्द्रः ।
षण्मासान् जिनपस्य पूर्वमसमां गर्भावतारास्पुनः ।
विश्वाश्चर्यकरां दिवश्च नवमासान्गर्भमासादिते जाते मेरुगिरी हरिश्च' स्नपनं नः सोऽस्तु तद्भूतये ।। १२६ ।। इति भट्टारक श्रीसकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथचरित्रे जन्माभिषेकवर्णनो नाम द्वादशः सर्गः ।। १२ ।। दर्शनविशुद्धि आदि निर्मल भावनाओं के द्वारा जिनमुखोद्भत - जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म का प्राचरण करो ।।१२४॥ धर्म अनन्त गुणों को देने वाला तथा प्रमुखों को हरने वाला है, धार्मिक पुरुष धर्म करते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र ही मोक्ष पद प्राप्त होता है, धर्म के लिये मस्तक से नमस्कार करता हूँ, तोनों लोकों में धर्म से बढ़कर दूसरा गुरु नहीं है, धर्म का मूल मन की शुद्धि है, मैं उत्कृष्ट धर्म में वित्त धारण करता है, हे धर्म ! तुम मेरे चित्त में स्थित होम्रो ।। १२५ ।। जिन जिनेन्द्र के गर्भावतार के छह माह पूर्व से कुबेर ने माता पिता के घर में मणियों को उत्कृष्ट दृष्टि की। पश्चात् गर्भ में आने पर लगातार नौ मास तक श्राकाश से सब को श्राश्वर्य उत्पन्न करने वाली रत्नवृष्टि की और उत्पन्न होने पर इन्द्र ने मेरु पर्वत पर जिनका अभिषेक किया ये पार्श्वनाथ भगवान् हमें अपनी विभूति के लिये हों अर्थात् हमें अपनी विभूति प्रदान करें ।। १२६॥
इस प्रकार भट्टारक सकलकीति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में जन्माभिषेक का वर्णन करने वाला बारहवां सर्व समाप्त हुआ ||१२||