SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५.२ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * नानारत्नमयीभूतकुम्भाम्या २ पतिता कोख बभुम्तज्जलगशय: ।।६।। मेर्वग्रात् स पतन् स्नानजलपूरोऽप्यधस्त राम् । प्लावयित्वास्त्रिलं मेरु निरिण्या निभो व्यभात् ।। बभूव तदनं तस्मिन्काले क्षोराम्बुसंभृतम् । निमग्नपाद शुक्लं मीरार्णवमिवापरम् ।।१०।। नर्तनविविधः प्रेक्ष्य रप्सरःसंभवैः समम् । जन्माभिषेकसम्बधिगीत र्गन्धर्वदेवजः ।।१०२।। मुरदुन्दुभिनादौधजयजीवादिघोषणः । इत्याद्यन्यनिरौपम्य महोत्सव शतश्च ते ॥१०३।। कल्प माथा जगन्नाथस्याभिषेकं वृषाप्तये ।परिपूर्ण मुदा चक्रुः शुद्धाम्बुस्नपनेऽद्भ तम् ।१०४। पुनः सौधर्मकल्पेशोऽभिषेक्तु श्रीजिनाधिपम् । सुगन्धिद्रव्य सम्मिश्रर्गन्धोदकः प्रचक्रमे ।।१०।। अभ्यषिञ्चविधानको भक्त्या भूत्यादिदेव राट्' । दिव्यामोदैत्रिभु श्रीमच्छिशुगन्धोदकाम्बुभिः। १०६ । मणिभृङ्गारनालाद्धारा पतन्ती प्यभात्तराम् । दिम्पगन्धे जिनाङ्ग सा पुण्यधारेच पिजरा ।१०७। पूरयन्त्यखिला प्राधा जगदानन्दवद्धिनी । पुनातु नोऽत्र धारासो जिनवाणीव मानसम् ।१०। रूपी स्त्रियों के मुख को अलंकृत करने लिये कर्णाभरण की शोभा को प्राप्त हुए के समान जान पड़ते थे ll नानारत्नमय कलशों के अग्रभाग पर पतित रङ्ग विरङ्ग कमलों से वे जल की धाराएं अनेक वर्ण की हो गयी थीं ॥६६मेरु के प्रप्रभाग से बहुत नीचे पड़ता हुआ वह स्नानजल का प्रवाह समस्त मेरु को डुबाकर निझरिणी के समान सुशोभित हो रहा था ॥१००। उस समय वह वन क्षीरसागर के जल से भर गया तथा उसके वृक्ष उस जल में डूब गये, सब पोर से शुक्ल ही शुक्ल दिखने लगा इससे जान पड़ता था मानों दूसरा क्षीरसागर हो है ॥१०१॥ अप्सरानों से होने वाले नाना प्रकार के दर्शनीय नृत्यों, गन्धर्व देवों से होने वाले जन्माभिषेक सम्बन्धी गीतों, देबदुन्दुभियों के शब्दसमूहों 'जय जीव' आदि की घोषणाओं तथा इसी प्रकार के अन्य अनुएम सैकड़ों महोत्सवों के साथ इन्द्रों ने धर्म की प्राप्ति के लिये हर्षपूर्वक जिनेन्द्र देव का शुद्ध जल से पाश्चर्यकारक अभिषेक पूर्ण किया ॥१०२१०४।। तदनन्तर सौधर्मेन्द्र सुगन्धित द्रष्यों से मिले हुए गन्धोदक के द्वारा श्री जिनेन्द्र का अभिषेक करने के लिये उदास हुआ ।।१०।। विधि विधान को जानने वाले सौधर्मेन्द्र ने भक्तिपूर्वक बड़े वैभव के साथ दिव्य सुगन्धि से युक्तं सुगन्धित जल के द्वारा जिन बालक का अभिषेक किया ॥१०६॥ मणिमय झारी के नाल से भगवान के सुगंधित शरीर पर पड़ती हुई वह पीली पीली धारा पुण्य को धारा के समान प्रत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥२०७॥ जो समस्त दिशाओं अथवा प्राशानों को पूर्ण कर रही थी तथा जो जगत् १. नानारत्नमग्रीभूति क. नानारत्नमयोभूमि व. २. कलश मुख ३. सौधर्मेन्दः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy