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________________ - - -- - - - *त्रयोविशतितम सर्ग. [ ३०१ विवर्मभद्रदेशायदशाणीवीबहन् जिनः । बिजहार महाभूत्या सन्मार्गदेशनोधतः ।।१६।। स्वयंम्बाथा गणाधीशाश्चतुर्मानयुता दश । अनेकविसमापन्ना नमन्त्यस्य क्रमाम्बुजम् ।।२०।। मझानध्वान्तहन्सारः सर्वपूर्वाब्धिपारगाः । साद त्रिशतसंख्याः सन्मुनीन्द्राः संस्तुवन्त्य हो ।२१। स्पुरस्थ घHशुक्लाउधाः सिद्धान्तपठनोचताः । यत्तयो युतपूर्वाणि शतानि नव शिक्षकाः ।।२२।। नमन्त्यस्य रदद्वन्त' चतुर्दशशतप्रमाः । 'यमिनोऽवधिसंपन्ना रूपिदव्यप्रदीपका: ।।२३।। केवलज्ञानिनोऽस्य स्युर्लोकालोकविलोकिनः । सहस्रप्रमितास्तस्सादृश्या ज्ञानादिमद्गुणः ।।२४।। सहस्रमिता शेवा विकिद्धिविभूषिता: । यतीशाः श्रीजिनस्यानेकरूपकरणे क्षमाः ।।२५।। जातसूक्ष्मपदार्थों धाः सा सप्तशतप्रमाः । घरन्ति शिरसास्याज्ञां मनःपर्यय बोधिन: ।।२६।। कुमतम्बान्तहन्तारः सन्मागोंद्योतनोद्यताः । विभोः श्रयन्ति पादान्जो वादिनः षट्शतप्रमा: २७ पिजीकृता हिं से सई त्यक्तसङ्गास्तपोषनाः । अभ्यणीकृतनिर्वाणाः स्युः सहस्राणि षोडश ॥२८॥ एकमाटी विना त्यक्तद्विधासर्वपरिग्रहा: । ध्यानाध्ययन संसक्ता मुक्तिसंसामनोद्यताः ।।२६।। विर, भावेश तथा बशार्ण मावि अनेक वेशों में विहार किया था ॥१८-१६॥ चार शाम से पुक्त तथा अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न स्वयम्भू प्रादि दश मगधर इनके चरण कमलों को नमस्कार करते थे ॥२०॥ अहो अज्ञान रूपी अंधकार को हरने वाले तया सर्व पूर्व रूप समुद्र के पारगामी तीन सौ पचास मुनिराज उनकी सम्यक प्रकार से स्तुति करते धे ॥२१॥ धर्म्य और शुक्ल ध्यान से सहित तथा सिद्धान्त के पढ़ने में उद्यत रहने वाले नौ सौ शिक्षक उनके साथ थे ।। २२ ।। रूपी द्रव्य को प्रकाशित करने वाले चौदह सौ अवधिज्ञानी इनके चरण युगल को नमस्कार करते थे ॥२३॥ लोक प्रलोक को देखने वाले तथा ज्ञान प्रावि सत्गुरणों के द्वारा उनका सादृश्य प्राप्त करने वाले एक हजार केवलज्ञानी उनके साथे ॥२४॥ श्री जिनेंद्र के समवसरण में विक्रिया ऋद्धि से विभूवित तमा अनेक रूप बनाने में समर्थ एक हजार मुनिराज विक्रिया ऋद्धि के धारक थे ।।२५।। जिन्होंने सूक्ष्म पदार्थों के समूह को जान लिया था ऐसे सात सौ पचास मन:पर्यय ज्ञानी गिर से उनकी बन्दना करते थे ॥२६।। जो कुमत रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले थे, समीचीन मोक्ष मार्ग को प्रकाशित करने में तत्पर रहते थे ऐसे छह सौ बाबी मुनिराज उनके चरण कमलों का प्राश्रय लेते थे ॥२७॥ सब मिला कर परिग्रह के स्वागी तथा मोक्ष के निकटवर्ती सोलह हजार सपस्थी मुनि उनके साथ थे ॥२८॥ एक सादी को छोड़कर शेष समस्त विविध परिग्रह का जिम्होंने त्याग कर दिया था, जो घ्याम पौर अध्ययन में संलग्न रहती थीं तथा मुक्ति की साधना में उद्यत रहती थीं ऐसी सुलो/ १ मुनयः १. रायोकताः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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