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________________ ३०२ ] * भी पार्श्वनाथ चरित सुलोचनादिमुख्या प्रायिका श्रावका हरवलोपेता ग्रस्य पदाम्बुजो । प्ररणमन्त्येव सिह असंख्यकाः पराः ।। ३० । दानपूजनतत्पराः । एकलक्षप्रमारणा प्रर्चयन्त्यस्य पदाम्बुजी ||३१|| हक शीलदानपूज तथा श्राविका जिनमानितका: । जिमलगणनाः पूजयन्त्यस्यादि ध नमन्ति च । ३२ | काका देवा इन्द्राया । संख्याः सव्यादिप्रमुख यो मलिएको एकाग्रचेतसा नित्यं प्रभोः पादसरोरुहम् । गीतनसेन पूजानमस्काराचे भंजन्ति हरवतभूषिताः । सख्यातास्रयमहरा नमस्यन्ति श्रीजिनाधिपम् ३५॥ साथ धर्मप्रवृत्तये । दर्शयस्तस्य सद्भावं ध्वस्ताज्ञानतमश्चस्म् ||३६| वर्षन् धर्मामृतं देवो विजहार महोतलम् । मासपञ्चकहीनं कालं वर्ष सप्ततिप्रमम् ||३७| मासनी कृतनिर्वाणो विहरन विषयान्बहून् । श्राजगाम क्रमात्सम्मेदाचलानिधिराट् । ३८ ॥ ।।३४।। सिहाहिनकुलाद्यास्तिर्यञ्चो द्विषड्भेदेर्गतः faraatiशा हत्वा कर्मरिपून् गताः । बहवोऽन्ये मुनीन्द्राश्चानन्तसौक्याकरं शिवम् ॥३१॥ वहत्येव परायां यः सतीर्थतां नसां स्तुताम् । ग्रच्छ प त्रिजगनाथैस्तुङ्गोऽद्रिषु निसेवितः १४०/ 骂 चना को प्राfद लेकर छत्तीस हजार उत्कृष्ट प्रायिकाएं इनके खरस्प कमलों को प्रणाम करती थीं ।। २६-३० ।। सम्यग्दर्शन से सहित तथा दान और पूजन में तत्पर एक लाख बक इसके चरण कमलों की पूजा करते थे ।। ३१|| सम्यग्दर्शन, शील, दान और पूजा से सहित जिन भक्त तीन लाख आविकाएं इनके चरणों की पूजा करती और नमस्कार करती थीं ।। ३२ ।। चार निकाय के प्रसंख्यात देव तथा भक्ति भार से बशीकृत इन्द्राणी सादि देवियां एकाग्रचित्त से गीत, नृत्य, पूजा तथा नमस्कार प्रावि से मिरन्सर प्रभु के चरण कमलों की सेवा करती थीं ।।३३-३४ ।। सम्यग्दर्शन और एक देश व्रत से विभूषित सिंह, सर्प, नेवला आदि संख्यात तिर्यक्रच वैरभाव छोड़कर श्री जिनराज को नमस्कार करते थे ।। ३५ ।। इन उपर्युक्त बारह सभाओं के साथ धर्म की प्रवृत्ति के लिए तस्व का सद्भाव विज्ञा हुए, प्रज्ञान रूपी प्रrधकार के समह का नाश करते हुए तथा धर्मामृत की वर्षा करते हुए श्री पार्श्वदेव ने पांच माह कम बहत्तर वर्ष तक पृथिवी तल पर विहार किया ।।३६-३७।। wa मोक्ष की प्राप्ति प्रत्यन्त निकट रह गयी तक अनेक देशों में बिहार करते हुए पार्श्व जिनेंद्र क्रम से उस सम्मेदावल के शिखर पर भाये जहां बीस तीर्थंकर और बहुत मुनि कर्म रूप शत्रुओं को नष्ट कर अनन्त सुख की खान स्वरूप मोक्ष को प्राप्त हुए थे ।। ३८३६॥ सुनियों के द्वारा सेवित जो उन्नत पर्वत, पृथिवी पर सीर्थङ्करों से नमस्कृत, स्तुत और पूजित उत्तम तीर्थपने को धारण करता है ।। ४० ।। जिस पर्वत पर स्थित तथा जिनेंद्र भगवान् के चरण कमलों से पवित्र की हुई निर्धारण भूमि वन्दना और स्तुति करने
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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