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________________ ★ तृतीय सर्ग * [ ३७ F जानो विविधात् भोगान् देवीभिर्धर्मजान्सदा । भक्त्या कुर्वन् जिनेन्द्राचां गतकालं न वेत्ति सः ॥ ८६ सोऽथाजगर एवातिपाप मारेण भग्नवान् । मुनिहत्याप्रजेनाशु षध्छे च श्वभ्र' वारि ७ देहं संपूर्णमासाद्य पपात नरकावनी । श्रधोमुखोऽतिबीभत्सो पापादस्थानदुःस्पृहः ॥८८॥ ather संकीरण महीं प्राप्य पुनः पुनः । सोऽनूत्पत्य पतत्येव कुर्वन् पूत्कारमायतम् ॥८६ नवं तं नारकं दृष्ट्वा प्राक्तना नारकाः खलाः । घ्नन्त्यमा कटुकालापैमुद्गरादिमहायुधः ||१०|| केचितप्तकटाहस्थ तैलेब्वागत्य तत्क्षणम् । तमुत्थाप्य क्षिपन्त्याशु नारका दुःखदायिनः ॥ ६१ ॥ जत्यन्त पूतिगन्धेऽतिदाहदे । मज्जयन्ति तमानीय केचिद् दुःखाय नारकाः ।।६२।। केचिद् व्याघ्रादिरूपेतं विक्रियद्विभवैः खलाः । स्वादन्ति पापपाकेन मष्टं गिरिगुहादिषु ॥ ६३॥ छेदनं भेदनं शूलारोहण बन्धनम् | तीव्रशीतोद्भवं दुःखं मनोवाक्कायसंभवम् ॥१४॥ प्रार्थयत् पारणं दोनो निःशरण्यो निरन्तरम् । सहते सोऽघसंजातं कविवाचामगोचरम् ।। ६५ ।। वैतरण्या वेब पतीत हुए काल को नहीं जानता था । भावार्थ-भोगोपभोगों में मग्न होने से वह नहीं जान सका था कि मेरी कितनी आयु व्यतीत हो चुकी है ।।६३-६६ ॥ तदनन्तर मुनि हत्या से उत्पन्न हुए तीव्रपाप के भार से वह अजगर शीघ्र ही o नरक रूपी समुद्र में प्रश्न होगया । भावार्थ- मर कर छठवें नरक गया ॥ ८७॥ संपूर्ण शरीर प्राप्त कर वह नरक की भूमि में पड़ा। पड़ते समय उसका मुख नीचे की मोर था । वह अत्यन्त घृणित था और पाप के कारण उस खोटे स्थान में प्राकर पड़ा था । वज्रमय कांटों से व्याप्त भूमि को प्राप्त कर वह बार बार ऊपर की ओर उछलता था और दीर्घ रोदन करता हुआ पुनः उसी पृथिवी पर पड़ता था |८|| उस मीन नारकी को देख कर पहले के दुष्ट नारकी कटुक श्रालापों के साथ मुद्गर आदि बड़े बड़े शस्त्रों से उसे मारने लगे ।। ६० ।। दुःख देने वाले कितने ही नारकी तत्काल आगये और उसे उठा कर शीघ्र ही तपाये हुए कड़ाहे में स्थित तेल में डालने लगे ।। ६१॥ कितने ही नारकी उसे लाकर प्रत्यन्त दुर्गन्धित और अत्यन्त वाह उत्पन्न करने वाले अंतरगी के जल में वाने लगे ।।६२।। यदि वह पर्वत की गुहा प्रावि में छिपता था तो वहां उसके पापोदय से कितने ही दुष्ट नारकी विक्रिया ऋद्धि से उत्पन्न व्याघ्र आदि का रूप रखकर उसे खाने लगते थे |१३|| छेवन, भेवन, शूलारोहण, बध बन्धन, तीव्र शीत से उत्पन्न तथा मन, वचन, काय से उत्पन्न दुःख को वह भोगता था ।। ६४ ।। दीन हुआ शरण की प्रार्थना करता था, परन्तु कोई भी उसे शरण नहीं देता था। इस प्रकार वह पाप से उत्पन्न, कविवचनअगोचर दुःख को निरन्तर सहन करता था ।। ६५|| वह शठ प्रढाईसौ धनुष ऊंचाई वाले १ नरकसमुद्र
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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