SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * श्री पाश्वनाथ चरित . शृणोति तीर्थ नाथानां वारणी विश्वहितकराम् । प्रत्यहं तस्वश्रद्धायै स्वैकचित्त न सोऽमरः ।।७६।। बनमन्दिरकोडाद्रिष्वसंख्यद्वीपदाधिषु । मेर्वादी स स्वदेवीभिः साद कीडति शर्मणे।।७।। जिनेश्वरगुणोत्पन्नगीतानि संशृणोति सः । नर्शनं विविधं पश्यन्मनोशमप्सरोभवम् ।।७।। द्वाविंशत्यन्दसहस्रषु गतेषु सुधामयम् । मनसाहारमश्नाति तृप्तिकारमसी महत् ।।७।। स द्वाविंशतिपक्षेषु गतेषु सोऽतिशर्मवान् । सुगन्धीकृतदिग्भागमुच्छ वासं लभसे मनाक् ।।८०।1 षड्धरावधिपयंन्त मूर्त्तद्रव्यं चराचरम् । स्वायधिज्ञानयोगेन स पश्यति निरन्तरम् ।।१।। षष्ठश्वभ्रावधौ सर्व गमनागमनादिजम् । कार्यं कर्तुं समर्थोऽसौ विक्रियदिबलेन हि ।।२।। हाविंशत्यधिमानायुदिव्यलक्षणलक्षितः ।हस्तत्रयप्रमाणोरु शुभदेहधरोऽभुतः ॥८३।। नवस्त्रमु कुटाच नेपथ्यैः कृत्स्नैविभूषितः । स्वर्णविम्बनिभो रूपी सप्तधासुविजितः ।।४।। निनिमेषमहानेत्रो निःस्वेदो नित्ययौवनः । मान्यो नुतः सुरैश्चाच्यों दिव्य भोगोपभोगवान् ! ८५|| महामह नामक पूजा को विस्तृत करता था ॥७५॥ वह देव अपने चित्त को अपने प्रापमें स्थिर कर तत्वों को श्रद्धा के लिये प्रतिदिन तीर्थंकरों को सर्वहितकारी वारणो सुनता पा॥७६॥ वह वन मन्दिर क्रोडाचल, असंख्य द्वीप समुद्र तथा मेरु प्रावि स्थानों में सुख प्राप्ति के लिये अपनी वेषियों के साथ क्रीड़ा किया करता था ।।७७।। वह अप्सरानों के नाना प्रकार के मनोहर नृत्य को देखता हुप्रा जिनेन्द्र भगवान के गुरणों से उत्पन्न गीतों को अच्छी तरह सुनता था ।।७।। यह बाईस हजार वर्ष व्यतीत होने पर अमृतमय तृप्ति कारक मानसिक महान पाहार को ग्रहण करता था ।।७।। सातिशय सुख से युक्त वह देव बाईस पक्ष व्यतीत होने पर विशात्रों को सुगन्धित करने वाला थोड़ा श्वासोच्छ्वास लेता था ।।८०॥ यह अपने पवधिज्ञान के द्वारा छठवीं पृथिवी पर्यन्त के चराचर मूर्तिक द्रव्यों को निरन्तर देखता था ॥५१॥ वह विक्रिया ऋद्धि के बल से छठवें नरक की अवधि तक गमनागमन प्रादि सब कार्य करने के लिये समर्थ था ॥ ८२ ।। जिसकी बाईस सागर प्रमाण प्रायु थी, जो विष्य लक्षणों से सहित था, तीन हाथ प्रमाण अत्यन्त शुभ शरीर का धारक था, प्राश्चर्य कारक था, माला, वस्त्र तथा मुकुट प्रादि समस्त नेपथ्यों से विभूषित था, स्वर्ण बिम्ब के के समान रूपवान था, सात धातुओं से रहित था, टिमकार रहित नेत्रों से सहित था, स्वेद रहित था, स्थायी यौवन से युक्त था, मान्य था, देवों के द्वारा स्तुत तथा पूश्य था, दिव्य भोगोपभोगों से सहित था, देवियों के साथ पुण्योदय से प्राप्त नाना प्रकार के भोगों का सदा उपभोग करता था और भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता था ऐसा बह १. बाविशति वर्षसहलेषु ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy