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* श्री पाश्वनाथ चरित - पाल साद्वयोरोधकाय: म धनुषां शत: । हुण्डकास्यकुसंस्थानोऽखिलाधिपीडितः ॥६६|| पापात्मात्यन्तबीभत्स: कुरूपोऽतिभयंकर: । दुःखाम्बुधो निमग्नोऽस्था द्वाविशारयन्धिजीवितः ।१७।
मालिमी
पनि मरणमातापिताको पका-निरुपमसुखसारं देवताभिः स भुङक्त । समममरनिधेयो विक्रियदर्यादिजातं, क्षण मवमतिरम्यं देवलोके सदेव ।।६८|| निरुपमतिती धोरदुःख भुनक्ति, स विविधमतिवरकोषहत्याघपाकात् । अजगर दाहच्छेदनादिप्रभूतं, नरक विषमभूमौ नारकोधः प्रदत्तम् ॥
शार्दूलविकीरितम् शावई विबुधाः क्षमायजनितं सारं फलं शर्मदं, कोपोत्पन्न कुपापजातमसमं दुःस्वं च नानाविधम् । इत्या क्रोधमहारिपु नरकदं क्षान्त्यायुधेन द्रुतं, स्वर्मोक्षकवशोकरां निरुपमा यत्नाद् भजघ्वं क्षमाम् ॥१..
शरीर से युक्त था, हुण्डक नामक खोटे संस्थान से सहित था, समस्त दुःखदायक रोगों से पोडित था, पापी था, प्रत्यन्त घरिणत था, कुरूप या, अतिशय भयंकर था, दुःखरूपी सागर में निमग्न था और बाईस सागर प्रमाण प्रायु से सहित था ॥६६-६७।।
___ क्षमा का फल बतलाते हुए कवि कहते हैं कि इस प्रकार चारित्र सम्बन्धी महाक्षमा से उपाजित पुण्य समूह के उदय से देवों के द्वारा सेवनीय वह विद्युत्प्रभ देव, षिक्रिया ऋद्धि प्रादि से उत्पन्न देवलोक के अनुपम, क्षणिक तथा अत्यन्त रमणीय सुख का सदा देवों के साथ उपभोग करता था ।। । क्रोध का फल बतलाते हुए कवि कहते हैं कि वह पजगर अत्यन्त वैर क्रोध और हत्या से उत्पन्न पाप के उदय से नरक की विषम भूमि में नारकियों के द्वारा दिये हुए तथा तीवदाह और छेदन प्रादि से उत्पन्न अनुपम नाना प्रकार के प्रतिशय तीव्र घोर दुःख को भोगता है ग्रहो विद्वज्जन हो! इस प्रकार क्षमा सम्बन्धी पुण्य से उत्पन्न सुखदायक श्रेष्ठ फल को और क्रोध से उत्पन्न खोटे पाप से उद्भूत नाना प्रकार के दुःख रूप विषम फल को जान कर क्षमा रूपी शस्त्र के द्वारा शीघ्र ही नरकदायक क्रोध रूपी महा शत्रु को नष्ट करो मौर स्वर्ग तथा मोक्ष को वश में करने वाली अनुपम क्षमा को यत्न पूर्वक सेवा करो। भावार्थ-क्षमा का फल सुख है और क्रोध का फल दुःख है ऐसा जान कर ज्ञानी जनों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि वे क्रोध को छोड़ कर क्षमा को धारण करें ।।१०।।
१ पुण्य मम
, ४ माधोत्पन्न पृण्योद्रत ।