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________________ • तृतीय सर्ग . -...rreA n n सम्परा वीर्येशी विश्वनापो निखिलसुखकरो विश्वविघ्नोपहन्ता, जाता भव्यात्मनां यो भबजलविभपा वनावः सुपूज्यः' । बन्दश्चार्योऽतिमान्योऽखिलगुणमदनोऽनन्तशर्मकभोक्ता, हन्यात्स्तुत्यो मया मे सकलसुबरणे बिनजाल स पार्वः ।१०।। इति भट्टारक सिकलकीजिविरचित श्रीपागायचरित्रेऽग्निवेगकुमारदीक्षा विन प्रभ देवभवषर्णगो नाम तृतीयः सर्गः । जो तीर्थकुर हैं, सब के स्वामी हैं, समस्त सुखों को करने वाले हैं, सर्वविघ्न समूह के नाशक हैं, संसार समुद्र के भय से भव्यजीवों की रक्षा करने वाले हैं, इन्द्रों के द्वारा सुपूज्य है, चन्दनीय है, अर्चनीय है, अतिशय मान्य हैं, समस्त गुरषों के घर हैं, अनन्त सुख के अद्वितीय भोक्ता हैं, और मेरे द्वारा स्तुत्य हैं वे पार्श्वनाथ भगवान मेरे सकल चारित्र सम्बन्धी विघ्न समूह को नष्ट करें ॥१०॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकोति विरचित भी पारवनाथ चरित में अग्निम कुमार को दीक्षा तथा विद्युत्प्रभदेव के भव का वर्णन करने वाला तृतीय सर्ग समाप्त हमा ॥३॥ १. नृनार्थः स ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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