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________________ ३०८ ] . श्री पार्श्वनाथ परित. हन्तारं दिनराशेषचरणजुषां पार्श्वनाथ गतार्थ दातारं कामितापस्य सुशिवगतिदं नौमि मूर्ना स्वभक्त्या ॥७॥ शार्दूलविक्रीडितम् जातः प्राम्मरुभूतिरत्र किल यो मन्त्री ततोऽघादिभ -- स्तुङ्गः प्राप्यं वर्ष पुन: शशिप्रभो देवः सहस्रारजः । विद्येशः पुनरग्मिवेग खगों विद्युत्प्रभात्योऽमरः कल्पेऽप्यच्युतनामके सुनृपतिः वज्रनाम्यारूपक: ।।७।। तस्मादायहमिन्द्र एव परमो ग्रेवेयके मध्यमे ह्मानन्दाख्यनृपः पुनश्च सुरराट् कल्पे परेऽप्यानते । पश्चात्तीर्थकरो जगत्त्रयनुत: श्री पाश्वनाथो महान् सरकत्यारणकभाजन: शिववधूभर्ता स मेऽव्याद्भवात् ।।७७॥ पापी प्राक्कमठस्ततोऽप्यघव शात्क्रूरः खलः कृकुट: . सपों नारक एव चानुनरके धूमप्रभाश्येऽशुभात् । तस्माच्चाजगरोऽनुनार कखलः एवज्र व्यवाद द्वित्रिके व्याधोऽघादनुनारकोऽतिविषमे गंदेऽशुभे सप्तये ।।७।। विघ्न समूह को नष्ट करने वाले हैं, निष्पाप हैं, वाञ्छित अर्थ के दाता हैं और उत्तम मोक्ष · गति को देने वाले हैं उन पाश्वनाथ भगवान को में अपनी भक्ति पूर्वक शिर से नमस्कार करता हूँ ॥७॥ जो पहले मरुभूति नाम के मंत्री थे, फिर पाप के कारण उन्नत हायी हुए, पश्चात् धर्म को प्राप्त कर सहस्रार स्वर्ग में शशिप्रभ नामक देव हुए, पुनः विधाओं के स्वामी अग्निदेग नामक विद्याधर राजा हए, तदनन्तर अच्यूत स्वर्ग में विद्युत्प्रभ नामक देव हुए, फिर वज्रनाभि नामक चक्रवर्ती हुए, उसके बाद मध्यमवेयक में उत्तम प्रहमिन्द्र हुए, पुनः प्रानन्द नामक राजा हुए, पश्चात् प्रानत नामक उत्तम स्वर्ग में इन्द्र हुए, तदनन्तर श्रोनों जगत् के द्वारा स्तुत, प्रशस्त पञ्चकल्याणकों के स्वामो, तथा भुक्तिवध्न के भर्ता श्री पाश्वनाथ नामक तीर्थकर हुए वे संसार से हमारी रक्षा करें ।।७६-७७।। जो पहले पापो कम8 हा फिर पाप के वश से कर दुष्ट कुट सर्प हमा, फिर याप के उदय से धमप्रभ नरक में नारकी हुअा, पश्चात् अजगर हुअा, फिर छठवें नरक में दुष्ट नारकी हमा. तदनन्तर भौल हुमा, पुनः अत्यन्त विषम भयंकर और प्रशुभ सप्तम
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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