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________________ ४६ } *श्री पाश्र्धनाथ चरित. पिता तन्म स्वपुत्राय परिणेतु मुदा ददौ । बह्वी राजसुता रम्या स्पलावण्यमण्डिताः॥६०। ताभि: कुमार एवातिनिवृति मनसागमत् । तदङ्गस्पर्शनैस्तद् पाद्यालोकनभाषणः ॥६॥ कमारिपतृपद प्राप्म विश्वभूपनुतक्रमः । श्रियं भुनक्ति भूपो महामण्डमेश्यरोद्भवाम् । ६२१ । तत: पुण्य विपाकेन् चक्ररत्न महीपतेः । प्रादुर्बभूव दीप्तं ह्मायुधागारेऽरिखण्डनम् ॥६३।। तथैवाषरत्नानि' ह्य त्पन्नान्यखिलान्यपि । षट्खण्डसाधनान्यत्र स्वस्वस्थानेषु पुण्यतः ।।६।। निषयो नव पद्माधास्तस्य देवः समपिताः । विश्वभोगोपभोगाविदायिनः सुररक्षिताः ।।६।। लतः षट्खण्डभूमागमाक्रम्य चक्रनायकः । साई षडङ्गसैन्येन पराक्रमेण सारे ॥६६॥ ससाष खचरान् सर्वान् विखण्डभूजभूपतीन् । व्यन्तरेशान् स्वपुण्याच्च मागधादिपुरस्सरान।।६७।। तम्योऽनुप्राददे चक्री कन्यारत्नान्यनेकशः । रत्नानि भूषणादीनि सारवस्तूमि संपदः ।।६८) सतो हेमघट: स्वच्छसमिलः संभृतः परः । महोत्सवेन तस्याभिषेकं चक्रुः सुपक्रिएः ।।६६|| उसे विवाह मिपि चिदालो के लिये प्रदेश सभा उत्तम महोत्सषों के साथ हर्ष पूर्वक रूप और सौन्दर्य से सुशोभित बहुत सो सुन्दर राजपुत्रियां वो ॥५६-६०॥ कुमार उन राजपुत्रियों के द्वारा उनके शरीर सम्बन्धी स्पर्श से, उनके रूप प्रादि के देखने से तथा उनके वार्तालाप से प्रस्यषिक मानसिक संतोष को प्राप्त हुना था ॥१॥ कम क्रम से वह पिता के पद को प्राप्त हुमा प्रर्थात् उसका राज्याभिषेक हुमा । समस्त राजा उसके चरणों की स्तुति करने लगे। इस तरह वह राजपद को प्राप्त होकर महामण्डलेश्वर की लक्ष्मी का उपभोग करने लगा ॥२॥ ___तवनन्तर पुण्योषय से उस राजा को प्रायुधशाला में शत्रुओं को खण्डित करने वाला वेदीप्यमान चक्ररत्न प्रकट हुमा ॥६३॥ उसी प्रकार उसके पुण्य से षट्खण्ड को वश में करने वाले शेष सभी रत्न अपने अपने स्थानों पर प्रकट हुए ॥६४॥ समस्त भोगोपभोगों को देने वाली, देव रक्षित पन प्रावि नौ निधियां भी देवों ने उसके लिये समर्पित की ।६५। तदनन्सर चक्ररत्न के स्वामी बननाभि चक्रवर्ती ने परङ्ग सेना के साथ छहखण्ड के भूभाग पर प्राक्रमण कर स्वकीय पुण्य के प्रभाव से युद्ध में पराक्रम के द्वारा समस्त विद्याधरों, छहखण्डों में उत्पन्न हुए समस्त भूमिगोबरी राजाओं और भागष मावि व्यन्सर देवों को वश किया ॥६६-६७॥ विजय के मनन्तर पक्रवर्ती ने उनके लिये अनेकों कन्या रत्न, रत्न तथा प्राभूषण प्रादि सारभूत संपदाएं प्रदान की ॥६॥ तदनन्तर स्वच्छ जल से भरे हुए श्रेष्ठ सुवर्णमय कलशों के द्वारा मागष प्रावि पतरेन्द्रों, विद्याधर राजारों १.. बदायो .. २. तपंच मेषरनानि क० ३. षट्खण्डजभूपतीन क..
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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