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________________ * चतुर्ष सर्ग * [ ७ मागधायाश्च देवेशाः खेचरेशा नृपोत्तमाः । सिंहासनाधिरूढस्य नमस्कारपुरस्सरम् ॥७०। ततश्चक्रिश्रियं प्राप्य श्रेयःपाकेन' चक्रभृत् । साद्धं रामादिभिः सोऽवगाहतेऽतिसुखाम्बुधिम् ।।७१॥ माशाविधायिनो मूर्ना नमन्ति तस्कमाम्बुजी । वे द्वात्रिंशत्सहस्रप्रभा भूपाला निरन्तरम् ।।७२॥ बतुरजोतिलभाः स्युगजेन्द्राः पर्वतोपमाः । सावन्त रच रथास्तुङ्गाः स्वर्णरत्नविनिर्मिताः ।।७।। पायुवेगा महाश्वाश्च सन्त्यष्टादशकोटय: । प्रत्यन्तश्रेयसास्यैव पदारयादिबहुधियः ।।७।। पातयो भवन्त्यस्य चतुरशीतिकोटयः । दासीदासान्यभृत्यानां प्रमाणं वेत्ति को दुषः ।।७।। कासास्यो हि महाकालो नेसर्पः पाण्डुकालयः । पप्रमाणपिङ्गाः पखवरत्नसंज्ञको ७६।। मते निघयो दश्चक्रिणः सकलान्यपि । भोगायुषादिवस्तूनि स्वनारिण शुभोग्यात् ।।७७॥ पक्रातरपदण्डासिभणयश्चर्मकाकिणी- गृहपतीभाश्वस्थपतिस्त्रीपुरोधसः || इमानि सुरक्षाणि सदनानि चतुदंश । जीवाजीवप्रभेदानि षट्खण्डसायनान्यपि ॥७॥ उपभोगानि कुर्वन्ति राज्यवृद्धिमनेकशः । दुष्कराणि च कार्याणि पुण्यपाकान्महीपतेः ॥८॥ तवा मूमिगोचरी नरेगों ने सिंहासन पर मंठे हुए रावती वचनाभि का बहुत भारी उत्सव से नमस्कार पूर्वक अभिषेक किया ॥६९-७०॥ तदनन्तर चकरस्न को धारण करने वाला वह पञ्जनाभि, पुण्योदय से चक्रवर्ती को लक्ष्मी को प्राप्त कर स्त्रियों प्रावि के साथ प्रत्यधिक सुखरूपी सागर में अषगाहन करने लगा। भावार्थ-चक्रवर्ती की लक्ष्मी का उपभोग करने लगा ॥७१॥ प्राज्ञा का पालन करने वाले बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा निरन्तर उसके चरण कमलों को शिर झुका कर नमस्कार करते थे ॥७२॥ उसके पास पर्वतों के समान बड़े बड़े चौरासो लाख हाथी थे और स्वर्ण तथा रत्नों से बने हुए उतने ही अचे रथ थे ।।७३॥ वायु के समान वेग वाले पठारह करोड़ घोड़े थे। इसके तीव्र पुण्य से सेवक प्रादि बहुत संपदा उसे प्राप्त थी ॥७४। इसके पौरासी करोड़ पैदल चलने वाले सैनिक थे फिर बासी दास तथा अन्य सेवकों के प्रमास को कौन विद्वान जानता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥७४॥ काल, महाकाल, नैसर्प, पाण्डुक, पम, मारणव, पिङ्ग, शल और सर्वरत्न नौ निधियां चक्रवर्ती के लिये उसके पुण्योदय से भोग तया शस्त्र प्रावि सभी श्रेष्ठ वस्तुएं देती रहती थीं ॥७६-७७॥ चक्र, छत्र, दण्ड, खड़ग, मरिण, धर्म और काकिणी ये सात मचेतन तथा सेनापति, गृहपति, गज, अश्व, स्थपति, स्त्री और पुरोहित ये सात बेसन इस प्रकार वेतन मचेतन के मेव से चौदह रत्न उसके पास थे। ये सभी रत्न देवों के द्वारा सुरक्षित ये तथा षटलण्डवसुन्धरा को वश करने के साधन ॥७८-७९॥ चक्रवर्ती के पुण्योदय से १. पुग्योदयेन २. मिरमहलममा भूपामर स्ते निरस्तपम ख.।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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