________________
* प्रयोदशम सर्ग *
[ १६५ रेजिरे ताः सुरेन्द्रस्य भुजदण्डेषु सम्मिताः । कल्पवल्ल्यइवोद्भूताः शास्त्रासु कल्पनाविनः ।।६।। साई ताभिः स प्रारब्धरेचको व्यरुचत्तराम् । तेजःपुञ्ज इव स्वागतदङ्गाभरणांशुभिः ।।१०।। हस्तांगुलीष शक्रस्य न्यस्यन्त्यः परपल्लवान् । सलील ननृतुः काश्चित्सूचीनाटयमिवाधिता:।।६।। वंशयष्टीरिवारुह्य देव राजकरांगुलीः । सपर्वा अपरा अमुस्तदापितनामयः ॥२१॥ प्रतिबाह सुरेन्द्रस्य सनटन्यः स्त्रियो मुदा । सयत्न संचरन्त्यो 'वाभुः शम्या वाङ्गदोप्तिभिः।६३ स्फुटग्निव कटाक्षेषु वक्त्रेषु विहश्रिव । स्फुरग्निव कपोलेषु पादेषु प्रसरनिय ॥१४॥ विलसन्निव हस्तेषु नेत्रेषु विकसमिव । रज्यनिवाङ्गरःगेषु निमज्यभित्र नाभिषु ।।१५।। वजन्निव कटीष्वासा काञ्चीदामसु चास्खलन् । तदा नाटपरसोऽङ्गेषुववृधे सोत्सवो महान् ।।६।। प्रत्यङ्गया: सुरेन्द्रस्य विक्रिया नृत्यतोऽभयन् । विधिमा तासु देवीषु ता विभक्ता इवारुचन् १९७ रमणीय प्रवेश तथा अच्छी तरह नियन्त्रित निक्रमण के द्वारा नृत्य कर रही थीं। भावार्थ-- कितनी हो देवियां ऐरावत हाथो के विक्रिया--निर्मित शरीर में व्यवस्थित रूप से प्रवेश करतो और निकलती हुई नृत्य कर रही थीं १८८1 इम्म्र के भुजवण्डों पर एकत्रित हुई देवियां कल्पवृक्ष को शाखामों पर उत्पन्न कल्पलतानों के समान सुशोभित हो रही थीं ।।८।। उन देवियों के साथ फिरकी लगाता हुमा इन्द्र अपने तथा उन देवियों के शरीर सम्बन्धी प्राभूषणों को कान्ति से तेजपुज के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥६॥ कितनी ही देवियां इन्द्र के हाथ की अंगुलियों पर अपने कर पल्लव रख कर लीला पूर्वक नृत्य कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानों सूचीनाक्ष्य हो कर रही हों ॥११॥ कोई बेवाङ्गनाएं पदं सहित बांस की लकड़ियों के समान इन्द्र के हाथ को अंगुलियों पर चढ़ कर तथा उनके अग्रभाग में अपनी नाभि रख कर घूम रही थीं ।।१२।। इन्द्र की प्रत्येक भुजा पर हर्ष से नृत्य करती हुई देवाङ्गनाए अपने शरीर को कान्ति से ऐसी जान पड़ती थीं मानों यत्नपूर्वक बिजलियां ही चल रही हों।।६३॥ उस समय उत्सव से सहित बहुत भारी नाट्यरस उन वेवाङ्गनामों के कटाक्षों में स्पष्ट होते हुए के समान, मुखों में हंसते हुए के समान, कपोलो में स्फुरित होते हुए के समान, पैरों में फैलते हुए के समान, हाथों में सुशोभित होते हुए के समान, नेत्रों में विकसित होते हुए के समान, अङ्गरागों में रंगीन होते हुए के समान, नाभियों में निमग्न होते हुए के समान, कटिभागों में चलते हुए के समान, और मेखलाओं में सब प्रोर से स्खलित होते हुए के समान इस प्रकार समस्त अङ्गों में वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ॥९४-६६।। नृत्य करते हुए इन्द्र के प्रत्येक प्रङ्ग में जो परिवर्तन होते थे वे सब उन देवियों में भी होते थे इससे ऐसे जान पड़ते में मानों विधि--देव के द्वारा उनमें विभक्त ही कर दिये गये हैं।१७। इन्द्र उन देवियों को ऊपर
१. वा प्रमुः इतिश्छेदः ।