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________________ * एकादशम सर्ग * [ १३५ के विद्वांसोऽत्र ये ज्ञात्वागमं पापं चरन्ति न । दुराचारं च दुर्मागं ते विदः स्युः शठाः परे ॥७७॥ के मूर्खा ये परिशाय ज्ञानं मुञ्चन्ति जातु न । विषयासक्तिमेनश्च ते जडाः स्युः परे न च ॥ ७८ ॥ के धन्या यौवनस्था में प्राप्य चत्र्यादिजां श्रियम् । श्यजन्ति तृणवद्धन्यास्त एवान्ये न सन्स्थहो ।। ७६ ।। seमा विषयासक्ति हन्तु जातु क्षमा न ये । दारिद्रयोपहतास्तेऽत्राधमा ज्ञेया न चापरे ।। ८० hse निन्द्याः सतां मध्ये कुर्वन्तो निन्द्यकर्म ये । परश्रीरत्र्यादिजं श्वभ्रकारणं ते जगत्त्रये ।। ८१ ।। स्तुत्याः केऽत्र गृहस्था ये सिद्ध वा मुनयोऽनिशम् । सत्कर्माण्याचरन्त्येव स्वयोग्यानि त एव हि ।। ८२|| कस्माद्भूयोऽय कर्तव्यः श्रेयान्पापिजनाश्रयात् । व्रतभङ्गादुराचारान्मिथ्यात्वादेनं चान्यतः ॥ ८३॥ विद्भिः किं स्वरित कार्यं छेदं संसारसन्ततेः । पापवृक्षस्य धर्मादि हितं पथ्यं न चापरम् ॥८४॥ वेती थीं कि जो तपश्चरण तथा चारित्र को स्वीकृत कर परिषह के भय से छोड़ देते हैं वे ही कापुरुष हैं अन्य नहीं हैं ||७६ || कभी देवियां पूछतों कि इस जगत् में विद्वान कौन हैं ? माता उत्तर देती थीं कि जो ग्रागम को जानकर पाप का आचरण नहीं करते हैं, दुराचार और दुर्मार्ग का सेवन नहीं करते हैं वे ही विद्वान हैं अन्य लोग मूर्ख हैं ।।७७|| कभी देवियां पूछती थीं कि मूर्ख कौन है ? माता उत्तर देती थीं कि जो ज्ञान को जानकर भी कभी विषयासक्ति और पाप को नहीं छोड़ते हैं वे सूर्ख हैं अन्य नहीं ||७८ ।। कभी देवियां पूछती थीं कि धन्य कौन हैं ? माता उत्तर देती थीं कि जो युवावस्था में स्थित होकर भी ahan प्रादि की लक्ष्मी पाकर उसे तृरण के समान छोड़ देते हैं वे ही धन्य हैं अन्य नहीं ||७|| कभी देवियां पूछती थीं कि नोच कौन हैं ? माता उत्तर देती थीं कि जो विषयासक्ति को नष्ट करने के लिये कभी समर्थ नहीं हैं दरिद्रता से पीडित रहने वाले वे ही मनुष्य नीच जानने के योग्य हैं अन्य नहीं ||८०|| कभी देवियां पूछती थीं इस जगत् में निन्दनीय कौन हैं ? माता उत्तर बेती थीं कि जो सज्जनों के बीच परलक्ष्मीहरण तथा परस्त्रीसेवन प्रावि नरक के कारणभूत निन्द्य कर्म करते हैं ये ही तीनों जगत में निन्दनीय हैं। ॥८१॥ कभी देवियां पूछती थीं कि इस जगत् में स्तुत्य, स्तुति के योग्य कौन हैं ? माता उत्तर देती थीं कि जो गृहस्थ प्रथवा मुनि निरन्तर अपने योग्य सत्कर्मोंों का श्राचरण करते हैं वे ही स्तुत्य हैं ॥ ८२॥ कभी देवियां पूछती थीं कि इस लोक में किससे भय करना श्रेष्ठ है ? माता उत्तर देती थीं कि पापी जनों के प्राश्रय से, व्रतभङ्ग से, दुराचार से और मिथ्यात्व भावि से भय करना श्रेष्ठ है, प्रम्य से नहीं ।। ६३ ।। कभी देवियां पूछती थीं कि विद्वानों को शीघ्र ही क्या करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि संसार की सन्तति और पापरूपी वृक्ष का छेदन शीघ्र ही करना चाहिये । इसी प्रकार धर्म आदि हितकारक कार्य शीघ्र करना चाहिये अन्य नहीं || ८४|| कभी
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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