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________________ - - - - -- . . . १३६ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * उद्वेगः क्वात्र कर्तव्यः प्राक्तने निन्द्य कर्मणि । अयोग्याचरणे पापे कुसने संसृता विधौ ।।८।। र ति: क्वात्र विधेया सद्ध्यानाध्ययनकर्मसु । धर्म रत्नत्रये मुक्तिनायाँ गुर्वादिसेवने ।।८६॥ कर्तव्या क्वारतिदक्षरिन्द्रियादिसेवने । कुमार्गे कुत्सिताचारे कुसङ्ग च भवादिषु ।।८।। क्वात्र क्रोधोऽप्यनुष्ठेयो दुःकारातिनिर्जये । हनने मदनाक्षाणां मोहरागादिशत्रुषु 11८८।। प्रादेयः क्वात्र लोभो हि तपोध्यानश्रुतादिषु । मोक्षसौख्ये सुधर्मादी नचान्यत्राक्षशमणि ।।६।। संसोषः क्व बुधैः कार्यों भोजने शयने शुभे । विषयादिकसेवायां न च दानवृषादिषु ॥१०॥ कि श्लाघ्यं तुच्छद्रव्येऽपि पात्रदानमने कमाः । निःपापाचरणं यच्च तपो बाल्येऽतिदुःकरम् ।।१।। किमनयं सतां लोके रत्नवितयसेवनम् । जिनधर्म सदाचारं सद्गुरोः पर्युपासनम् ॥१२॥ का श्रेष्ठा गतिरत्रैव यामीहन्ते मुनीश्वराः । इन्द्रादयो निरौपम्या नित्या सा भुवनत्रये ।।६३|| देवियां पूछती यों कि इस जगत् में उग किस में करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि पहले किये हुए निन्हाकार्य में, अयोग्याचरण में, पाप में, कुसङ्गति में, संसार में तथा कर्म में उद्वेग करना चाहिये ॥६५॥ कभी देवियां पूछती थी कि यहां प्रीति किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि प्रशस्त ध्यान और अध्ययन में, रत्नत्रयरूप धर्म में, मुक्तिरूपी स्त्री में तथा गुरु प्रावि की सेवा में प्रीति करना चाहिये ॥८६॥ कभी देवियां प्रश्न करती थीं कि धतुर मनुष्यों को अप्रीति किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि इन्द्रियों के विषय प्रादि के सेवन में, कुमार्ग में, खोटे आचरण में, कुसंगति में और शरीर प्रादि में अप्रीति करना चाहिये ।।८७॥ कभी देवियां पूछती थीं कि यहां क्रोध भी किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि दुष्कर्म रूपी शत्रुओं को जीतने में, काम तथा इन्द्रियों के घात करने में तथा मोह और रागादि शत्रुओं में क्रोध भी करना चाहिए 1॥ कभी देवियां पूछती थीं कि यहां लोभ किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थी कि तप, ध्यान, और शास्त्र आदि में, मोक्ष सुख में और उत्तम धर्म आदि में लोभ करना चाहिये अन्य इन्द्रिय सुख में नहीं । कभी देवियां पूछती थीं कि विद्वानों को संतोष किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि भोजन में, शयन में, शुभ कार्य में, और विषयाविक के सेवम में संतोष करना चाहिये, दान धर्म प्रादि में नहीं ॥६॥ ___ कभी देवियां पूछतो थों कि प्रशंसनीय क्या है ? माता उत्तर देती थीं कि द्रव्य के अल्प होने पर भी अनेक वार पात्रदान देना, निष्पाप आचरण करना और बाल्य अवस्था में भी प्रत्यन्त कठिन तप करना प्रशसनीय है ।।११।। कभी देवियां पूछती थीं कि लोक में सत्पुरुषों का श्रेष्ठ कार्य क्या है ? माता उत्तर देती थी कि रत्नत्रय का सेवन, जैनधर्म, सदाचार और सद्गुरु की उपासना श्रेष्ठ कार्य है ॥२॥ कभी देवियों पूछती थीं कि इस
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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